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अप्रैल 2018

आत्महंता लेखकों के अंतिम वक्तव्य ...

हेमा दीक्षित

विश्व साहित्य





मृत्यु, अपनी अजर उपस्थिति में जितना भयाक्रांत करती है उतना ही अपने आकर्षण का मायाजाल भी पसारती है। वो कभी भी किसी की भी दृष्टि से ओझल नहीं होती। जन्म के बाद की यात्रा के अंतिम पड़ाव के रूप में सभी प्राणवानों के लिए शाश्वत विराम। प्रत्येक चलते हुए जीवन के कदम, अंतत: उस अंतिम विराम की तैयारी ही होते  हैं - कुछ भी करते और होने में, राजा से फकीर तक कुछ भी हो जाने में।
स्वाभाविक मृत्यु की परिकल्पना से परे एक आत्महंता व्यक्ति अपनी मृत्यु, अपने को शव में बदलने की तैयारी करते वक्त अपने अनदेखे भविष्य का कल्पित दृश्य, क्या, पूर्व के जीवन की अन्य कल्पनाओं की तरह ही करता होगा? स्वमृत्यु-स्वप्न अपनी आँखों में धर कर अन्य सभी स्वप्नों की तरह इसके भी ताने-बाने रचता होगा? कितने खाके कितनी बार रचता- मिटाता होगा और फिर उनमें से कोई अंतिम मृत्यु का नक्शा चुनता होगा! जाहिर तौर पर अपनी मृत्यु का स्वीकृत नक्शानवीस। संभवत: यहाँ वो मृत्यु को तथाकथित विराम से परे ले जाना चाहता है-  अंतिम सत्य कहलाने से कहीं आगे की यात्रा और विस्तार पर जैसे अपना व्याख्यान दे रहा हो।
मैं नहीं जानती कि आत्महंताओं की इस अंतिम इच्छा में और उसके क्रियान्वयन में क्या धरा रहता है। अपनी स्वतंत्रता और मुक्ति लेने और देने की अदम्य अभिलाषाओं के मध्य क्या है जो उनसे सब कुछ तय कराता है. वो क्या चाह रहे होते हैं -  मुक्ति, छुटकारा या सिर्फ पीठ फेर लेना; जो चल रहा है उसमें शामिल होने से या फिर वो चीखना चाह रहे होते हैं। इस मूढ़ता के ढेर पर बैठी दुनियाँ के कानों में अपनी अस्तित्व की देह पटक कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति का पोर-पोर निचोड़ कर कि सुनो! अब तो सुनोगे ही! ध्यानाकर्षण यज्ञ में आत्म-उत्सर्ग के जरिये अंतिम आहुति देते हुए. जैसे कहना चाहता हो कि तुम ऐसे मुझे उपेक्षित और अकेला नहीं कर सकोगे, मैं ऐसा नहीं होने दे सकता। वो अपने को, जो उससे मुँह घुमाए हुए हैं उसके होने से, उनके मुँह पर अपनी मृत्यु का थप्पड़ मार कर उन्हें अपनी बात और अपने होने की ओर हमेशा के लिए घुमा लेता है और अपनी मृत्यु के जरिये अपनी अंतिम लिखत, जाने और माने से परे, लिखे हुए अंतिम मूर्त शब्दों से इतर; अपनी मृत्यु के तरीके के रूप में लिखवाता है। आत्यंतिक मुखरता का एक ऐसा खंजर जो बाकी बची रही दुनियाँ के सीने में उसके पीछे अपने वार और धार के समूचे पूरेपन में खरा उतरता है... 
मैं अक्सर अपनी मृत्यु का तरीका और समय स्वयं चुनने वालों के इन निर्णयों को देखती-महसूसती रही हूँ, बहुत गहराई तक उनसे जूझती रही हूँ, प्रतिप्रश्नों के एक अपने ही जगत में विचरती रही हूँ। विशेषतौर पर उन लोगों की जिन्होंने इस जीवन को अपनी संवेदनशील नजरों से देखा- महसूस किया और इसमें बहुत सारे आयामों को जोड़ा और इसके अबूझ पहलुओं को खोला।  जीवन की समझ को और पक्का किया न सिर्फ अपने लिए बल्कि अपने वर्तमान में मौजूद परिवेश और लोगों के लिए और इससे भी आगे भविष्य में और सीढियां अपनी सोच से आगे भी चढ़े जाने के लिए तैयार की। एक-दूसरे की बाँह पकडऩे, खुल कर गले लगने में अधिक समानता, अधिक मानवीयता से, पहले से कहीं अधिक नम्यता से, लोच से, दूसरों को स्वीकारा। पक्के रास्तों से इतर पगडंडियों से चल कर जाने वालों को स्वीकारा। मानव मन की अबूझताओं और जटिल व्यवहारों की पड़ताल की। उसकी सहज एवं कुंठित वृत्तियों पर, उनकी आधारभूत जरूरतों पर संवाद और मान्यताओं के अवसर खोले। अपने जीवन का बेहद महत्वपूर्ण समय इन आवश्यकताओं और अधिकारों की मांग की जमीन बनाने में उड़ेल दिया।
ऐसे सजग, संवेदना और जीवेषणा से लबालब भविष्यदृष्टा व्यक्तित्व, किस बिंदु पर मरोड़ खा कर सब छोड़ कर कह उठते है कि अब बस, बहुत हुआ ... मैं चलता/चलती हूँ। कैसे उनके हाथों से स्वप्न छूट जाते हैं? अपने चुनी हुए धारा के विपरीत जीवन में कब उनकी सामथ्र्य उनके सामने अपने हाथ खड़े कर देती है और उनसे कह देती है कि बस अब और थपेड़े खाना और इस गेह को भँवर में तिराना मेरे वश में नहीं रहा... और वो तरीके जो वो जाने के लिए चुनते हैं क्या सोच कर उनका चयन करते हैं... क्यों कोई और तरीका नहीं चुनते... क्या हैं उनके अंतिम शब्द... और उनके अंतिम वक्तव्य... संभवत: यह तरीका ही अमरता की चाह में उनका अंतिम आख्यान है।

'मैं अब कहीं भी नहीं रहता'...  स्टीफन स्वाइग
स्वाइग का जन्म 1881 में वियना के एक संपन्न यहूदी परिवार में हुआ था जो बहुनस्ली हैब्सबर्ग राजतंत्र की राजधानी हुआ करती थी जहां ऑस्ट्रियन, हंगेरियन, स्लाव और यहूदी एक साथ रहा करते थे। यह वह दौर भी था जब फ्रांज जोज़फ के आरोपित तानाशाही दौर में यूरोप एक तरह के संकीर्ण राष्ट्रवाद के घेरे में आ रहा था और इसी व$क्त स्वाइग ने सांस्कृतिक बहुलता की बात की। उनके जीवनी लेखक जॉर्ज प्रॉकनिक ने कहा है कि स्वाइग यूरोप के हर देश में एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की विभिन्न शाखाओं की नींव रखने का स्वप्न देखते थे जहां युवा मस्तिष्क विभिन्न धर्मों और नस्लों के संपर्क में रहें और घुलें-मिलें।
1934 में ऑस्ट्रिया छोडऩे के बाद स्वाइग ने द वल्र्ड ऑव यस्टरडे लिखना शुरू किया जिसमें उन्होंने अपनी मातृभूमि के नाजीकरण की आहट को पहचान लिया था। 1941 की गर्मियों में इन्होने इसका अंतिम प्रारूप पूरा कर लिया था जिसे उनकी पत्नी ने लिपिबद्ध किया था। यह पांडुलिपि प्रकाशक को अपनी पत्नी के साथ अपने सह-आत्मघात के एक दिन पहले ही दी गयी थी। यह वह समय था जब हैब्सबर्ग साम्राज्य अपनी एक-एक निशानी के साथ धूल में मिल चुका था और वियना की हैसियत एक जर्मन प्रांतीय कस्बे का रूप अख्तियार कर चुकी थी। स्वाइग ने कहा ''तो अब मैं कहीं नहीं रहता। मैं एक अजनबी हूँ या ज़्यादा से ज़्यादा हर जगह एक अदद मेहमान हूँ।''
स्वाइग के संस्मरण, निर्वासन की उजाड़ बेतरतीबी के स्मारक हैं। शहर जहां उन्हें नायक माना जाता रहा, वहाँ उनकी किताबें जलाई जा रही थीं। 'सुरक्षा, समृद्धि और सुविधा' का स्वर्णकाल 'विद्रोह, आर्थिक असंतुलन और राष्ट्रवाद' की भेंट चढ़ चुका था। वे कहते थे कि समय की आवाजाही के सारे सेतु टूट गए हैं। अपने भाषाई मुल्क के छिनने की पीड़ा उनकी महानतम चिंताओं में से एक थी जिसको उन्होंने एक 'गुप्त और चीर डालने वाली शर्म' कहा है। इंग्लैण्ड जाने पर उन्होंने लिखा कि मैं एक ऐसी भाषा का बंधक हूँ जिसे मैं इस्तेमाल नहीं करता। स्वाइग तमाम उम्र देशगत सीमाओं का विरोध करते रहे।
इंग्लैण्ड के बाद वे न्यूयार्क में जा बसे पर अमेरिका उन्हें कभी घर जैसा नहीं लगा। वे अमरीकीकरण को यूरोपीय विध्वंस के दूसरे संस्करण के तौर पर देखते थे. उनकी बड़ी चाह थी कि वे ब्राजील में बसें और वे बसे भी। ब्राजील स्वाइग के विवरणों में बिलकुल वैसा था जैसा यूरोप को होना था- ऐन्द्रिक, बौद्धिक, शांत जहां सैन्यवादी राष्ट्रीयता की कोई जगह न हो।     
और िफर यह 22 फरवरी 1922 की रात थी जब अपनी नींद की गोलियों की अधिक मात्रा लेने से पहले उन्होंने अपने बाल ठीक किये, कॉलर तक बटन लगाकर अपनी टाई सीधी की और अपनी पत्नी लॉट ऑल्टमेन के साथ फिर कभी न उठने के लिए लेट गए।

बयान
''स्वेच्छा से और पूरे होशो-हवास के साथ अपनी इस ज़िन्दगी से मुक्त होने के पहले मैं अपने अंतिम दायित्व को पूरा करने  के लिए प्रतिबद्ध हूँ - ब्राजील नामके इस अद्भुत देश को मैं दिली शुक्रिया कहना चाहता हूँ जिसने मुझे और मेरे काम को इतनी भावपूर्ण और तसल्लीबख्श मेहमान नवाज़ी के साथ झेला। अपनी भाषाई दुनिया के खोने और डूबने के बावजूद तथा अपने रूहानी वतन यूरोप के बर्बाद हो जाने पर भी, दिन-ब-दिन मैं इस मुल्क को ज़्यादा से ज़्यादा प्यार करता जाता हूँ और कहीं और बसने की सोच भी नहीं सकता।
साठवें साल के बाद एक आदमी को सब कुछ नये सिरे से शुरू करने के लिए $खास किस्म की ताकत चाहिये और मेरी अपनी ताकत इन लंबे सालों बेघर भटकते खर्च होती रही है। इसलिए बेहद ईमानदारी से मैं सही व$क्त पर अपनी ज़िन्दगी का अंत चुन रहा हूँ। एक आदमी जिसके लिए संस्कृति-कर्म हमेशा से उसकी खालिस खुशी और निजी आज़ादी का बायस रहा है और वही उसके लिए इस धरती पर सबसे अनूठी संपदा थी।
मैं अपने सभी दोस्तों को बधाई देता हूँ कि इस लम्बी रात के बाद होने वाले सवेरे को देखने के लिए वे जीवित रह सकें। मैं अधिक बेसब्र निकला और उनके पहले ही जा रहा हूँ।
स्टीफन स्वाइग,
पेट्रोपॉलिस, 22.02.1942''



'मुझे आवाजें सुनाई पड़ती हैं' ... वर्जीनिया वुल्फ
एडलीन वर्जीनिया स्टीफन, जिसे लेखन का संसार वर्जीनिया वुल्फ के नाम से जानता है, का जन्म 25 जनवरी 1882 को लन्दन में हुआ। वर्जीनिया का बचपन आठ सगे-सौतेले भाइयों के बीच एक ख्यातिलब्ध परिवार में बीता। वर्जीनिया बेहद संकटग्रस्त और आघातपूर्ण स्थितियों में पली बढ़ीं। अपने सौतेले भाइयों जॉर्ज और गेराल्ड डकवर्थ से यौन-उत्पीडि़त उनका बचपन, 1895 में तेरह साल की उम्र में अपनी मां के अचानक गुज़र जाने और फिर इसके दो साल बाद अपनी सौतेली बहन स्टेला के न रहने पर लगभग तितर-बितर हो गया और मानसिक रूप से सदमे से भरा रहा।
अपनी निजी क्षतियों से जूझती हुई और अपनी साहित्यिक अभिव्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत उजड़ेपन को एकमेक करती वर्जीनिया की युवावस्था भी 1904 में पिता के गुज़र जाने से तीव्र निराशा और अकेलेपन में उतरती चली गयी। 1905 में वर्जीनिया ने द टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट के लिए लिखना शुरू किया। इसी व$क्त पिता की मौत के बाद वे ब्लूम्सबरी समूह के बौद्धिकों और कलाविदों के संपर्क में आईं जिनमें उपन्यासकार ई.एम. फॉस्टर, चित्रकार डंकन ग्रांट, जीवनी-लेखक लिटन स्ट्रेची और निबंधकार लियोनार्ड वुल्फ थे जिनसे बाद मे चलकर वर्जीनिया ने शादी की। परम्परागत लेखन के बुनियादी ढांचों में उन्होंने असाधारण बदलाव किये। उन्होंने वृत्तांतों के आकस्मिक पाठ को स्वप्न की मुक्त अवस्थाओं वाले व्याक्तिवाची यथार्थ से जोड़ा। वर्जीनिया की पहली किताब 1915 में 'वोयाज आउट' प्रकाशित हुई। इसके दो साल बाद वुल्फ दम्पति ने एक पुराना प्रकाशन घर भी खरीद लिया जिसे नाम दिया गया 'होगर्थ प्रेस'।
अपने पूरे लेखन के कैरियर में वुल्फ कॉलेज और विश्वविद्यालयों में भाषण देती रहीं, निबंध, कहानियां और पत्र लिखती रहीं। स्वप्न को तनाव की ऐंद्रिकता के साथ सामने लाने की अविश्वसनीय सी शैली ने उन्हें अपने समय का प्रखर बौद्धिक बना कर पेश किया। पर इन सबके बीच एक आभ्यंतरिक अवसाद और अस्थिर मनोदशा ने उनके समूचे सामाजिक और पारिवारिक जीवन को घेरे रखा।
वुल्फ के पति लियोनार्ड हमेशा, हर वक्त उनके साथ रहे। अपनी अंतिम किताब बिटवीन द एक्ट्स की पांडुलिपि तैयार करते-करते वे गहरे विषाद और खिन्नता में चली गयी थीं। यही वह समय भी था जब दूसरा विश्वयुद्ध  अपने उरूज़ पर था और दोनों ने यह तय किया कि अगर जर्मनी इंग्लैण्ड पर कब्जा कर लेगा तो वे सम्मिलित रूप से आत्महत्या कर लेंगे। 1940 में जर्मन सेना की बमबारी से उनका लन्दन वाला घर बर्बाद भी हो गया था। वर्जीनिया टूट चुकी थीं।
अपने अवसाद से त्रस्त और उकताई वर्जीनिया ने अपने ओवरकोट में पत्थर भर के ऊस नदी में छलांग लगा दी। उनकी लाश तीन हफ्ते बाद मिली। लियोनार्ड ने अंतिम संस्कार के बाद उनके अवशेष अपने घर मॉन्क्स हाउस में बिखेर दिए थे।
आत्मघात पूर्व यह पत्र उन्होंने अपने पति को संबोधित किया है।

''प्रियतम1,
मुझे साफ तौर पर लगने लगा है कि मैं फिर पागल हो रही हूँ। मुझे लगता है कि हम फिर से उसी भयावह समय से नहीं गुज़र पायेंगे। मैं इस दशा से अब उबर नहीं सकूंगी। मुझे आवाजें सुनाई पड़ती हैं और मैं ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रही हूँ। इसलिए मैं वह कर रही हूँ जो ऐसे वक्त में करना सबसे बेहतर लग रहा है। तुमने मुझे सारी मुमकिन खुशियाँ दी हैं। तुम बिलकुल उसी तरह से थे जैसे ऐसे वक्त में किसी को भी होना चाहिये। इस भयंकर बीमारी के आने के पहले मुझे नहीं लगता था कि दो लोग इससे बेहतर ढंग से खुश रह सकते हैं। मैं इससे, अब और अधिक नहीं जूझ सकती। मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद कर रही हूँ, मेरे बगैर तुम कितना कुछ कर सकते थे। और तुम करोगे, यह मैं जानती हूँ। तुम देख रहे हो कि मैं इसे भी ठीक से लिख नहीं पा रही हूँ। मैं पढ़ नहीं सकती। मैं यह कहना चाहती हूँ कि मैं अपनी जीवन की सारी खुशियों के लिए तुम्हारी ही आभारी हूँ। तुमने मेरे साथ पूरी तरह से सब्र बनाए रखा और तुम अनन्य रूप से अच्छे हो। मैं यह कहना चाहती हूँ -कि यह सब जानते हैं। अगर कोई मुझे बचा सकता था तो निस्संदेह यह सिर्फ तुम ही होते। तुम्हारी अडिग अच्छाईयों के सिवाय सब कुछ मुझ से छूट गया। मैं तुम्हारी ज़िन्दगी अब और बरबाद करती नहीं रह सकती।
मुझे नहीं लगता कि हमारी तरह कोई और दो लोग भी इस तरह से खुश रहे हैं।''



'सूरज भी डूबता ही है' ... अर्नेस्ट हेमिंग्वे
अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे का जन्म 21 जुलाई 1899 को सिसरो ( अब ओक पार्क) इलिनॉयस में हुआ। उनका बचपन शिकागो के तकरीबन पिछड़े उपनगर और उत्तरी मिशिगन के इलाकों में बीता जहां उन्होंने शिकार और मछली पकडऩे जैसे तजुर्बे हासिल किये। हाईस्कूल में अपने स्कूल के अखबार के लिए वे खेल का कोना लिखते थे। स्नातक होने के ठीक बाद उन्होंने कैन्सस सिटी स्टार अखबार के लिए काम किया जहां रहते उन्होंने अपने गद्य की विशेष शैली विकसित की।
1918 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हेमिंग्वे ने इटली की सेना के साथ एम्बुलेंस चालक के रूप में काम किया और घायल अवस्था में एक अस्पताल में नर्स एग्नेस वॉन कुवोक्स्की के संपर्क में आये। दोनों ओर से विवाह प्रस्ताव पर मुहर लग जाने के बाद भी एग्नेस ने किसी दूसरे आदमी से विवाह कर लिया। यह युवा हेमिंग्वे के लिए मानसिक रूप से बिखर जाने का व$क्त था। 20 साल की उम्र में युद्ध की विभीषिका से गुज़रते हुए वे वापस अमेरिका लौटे और टोरंटो स्टार में नौकरी करने लगे। शिकागो में ही हैडली रिचर्डसन से उनकी मुलाकात हुई जो आगे चलकर उनकी पहली पत्नी बनीं। वे हैडली के साथ पेरिस आ गए और स्टार के साथ विदेशी संवाददाता के बतौर काम करने लगे। पेरिस में वे जल्द ही बेहद लोकप्रिय हो गए और उनका उठना-बैठना  फिट्ज़गेराल्ड, एजरा पाउंड, पाब्लो पिकासो और जेम्स जोएस जैसे कलाविदों और साहित्यकारों के साथ होने लगा। 1925 में दम्पति ब्रिटिश अमरीकी प्रवासियों के समूह में शामिल हुए। और यहीं का अनुभव उनके पहले उपन्यास 'द सन आलसो राइज़ेस' का आधार बना। यह हेमिंग्वे का सबसे प्रभावशाली काम माना जाता है जिसमें उनकी पीढी के युद्धोत्तर संभ्रम और उलझनों को विश्लेषित किया गया है। उपन्यास प्रकाशित होने के कुछ दिन बाद ही दम्पति अलग हो गए और तलाक के तुरंत बाद ही हेमिंग्वे ने पॉलिन फाइफर से शादी कर ली। पॉलिन के गर्भवती होने पर वे अमेरिका लौट आये। तीस का दशक हेमिंग्वे के लिए रोमांचक अनुभवों का दशक था - अफ्रीका के अभयारण्य, स्पेन की सांड़ों की लड़ाई और फ्लोरिडा के गहरे समुद्र में मछली पकडऩे जैसे अनुभव। 1937 के स्पेनी गृह-क्रान्ति में पत्रकारिता के दौरान वे साथी युद्ध संवाददाता मार्था गैलहॉर्न के करीब आये जो बाद में उनकी तीसरी पत्नी बनीं। पॉलिन से तलाक के बाद उन्होंने मार्था से शादी कर ली और हवाना (क्यूबा) में एक फार्म खरीदा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वे एक दूसरी युद्ध संवाददाता मैरी वेल्श से मिलते हैं जो उनकी चौथी पत्नी बनती हैं।
1951 में हेमिंग्वे का महानतम उपन्यास 'द ओल्ड मैन एंड द सी' प्रकाशित हुआ जिसके लिए उन्हें लम्बे समय से प्रतीक्षित पुलित्ज़र पुरस्कार मिला। अफ्रीका में अपनी रोमांचकारी यात्राओं के दौरान वे लगातार चोटिल होते रहे। 1954 में नोबल मिलने के बाद तो उनका शरीर उनका साथ ही छोडऩे लगा था। सिर एवं अन्य तमाम पुरानी चोटों के चलते वे अवसाद में रहने लगे थे। उच्च रक्तचाप और यकृत की बीमारियों का इलाज भी चल रहा था। पेरिस की स्मृतियों पर 'मूवेबल फीस्ट' लिखने के बाद उन्होंने लिखने-पढऩे से लगभग छुट्टी ले ली और आइडहो (अमेरिका) में आकर बस गए।
यह दो जुलाई 1961 का प्रभात था। आइडहो के सॉटूथ पहाडिय़ों वाले अपने घर में वे सबसे पहले उठे। अपनी पत्नी को जगाया नहीं। स्टोर रूम को खोला जहां उनकी बंदूकें रखी थीं। एक दोनाली जिसे वे कबूतरों को मारने में काम लाते थे, उठाई। अपने घर के प्रवेश-द्वार तक आये। दोनाली को अपने माथे से लगाया और ट्रिगर दबा दिया।
यह पत्र आत्मघात के ठीक पहले लिखा गया है।                   

''2 जुलाई 1961, सुबह छह बजकर चौदह मिनट,
मैरी2, बम्पी3, माउज़ी4, बाकी सभी....
सोच रहा था. कितने ही बिजली के झटकों के बावजूद बेहद मजबूत हूँ। लेकिन अब बहुत हुआ.....
हेमिंग्वे क्या छोड़कर जाएगा? कुछ अच्छी किताबें? बढिय़ा। मृत्युलेख के लिए यही सबसे सटीक है। ' उसने कुछ उम्दा किताबें लिखीं।'
हाँ, उसके जीवन में शराब थी, शिकार था, औरतशुमारी थी, मछली मारने की आवारगी थी और शराब, शिकार, औरतशुमारी और मछली मारने की आवारगी के बाबत ढेर सारी बातें थी। वो सब कुछ अच्छा भी था लेकिन यह सब कुछ मात्र न्योते पर आये किसी दोस्त की खुराक भर था।
हमेशा चमक-चौंध से चिढ़ रही। एक हाथी की खाल के नीचे फाख्ते की तरह शर्मीला रहा हूँ मैं। कर वसूलने वाले के लिए चेक पर या सन आलसो राइजेज़5 के मुड़े हुए पृष्ठों  वाले संस्करणों पर दस्तखत करने से भी अधिक चिडचिडाहट से भरी चीज़ है ये। पर शोहरत से नफरत करना उसे दूर नहीं भगा देता है। एक मक्खी को मारो तो दस और आ जाती हैं।
क्या वे अब भी कुछ दूसरी बढिय़ा किताबें पढ़ते होंगे?  न। वे लोग जो 'ओल्ड मैन एंड द सी' पढ़ते हैं स्टॉकहोम के तीस स्वीडिश बेवकूफ थे।  निकम्मी बकवासों के लिए नोबल पुरस्कार।
तो हैमिंग्वे ने अपने पीछे क्या छोड़ा है? यही, सब ...
हर युवा लम्पट, कला-साहित्य का थोड़ा बहुत जानकार, ठुड्डी पर दाढी रखाए, अपनी उद्दाम कामुकता के ज़रिये ...हेमिंग्वे बनना चाहता है।
अब सामने दो ही पीढियां हैं. एक वह है जिसके पास तीसरे दशक में कम से कम अपनी तरह की एक राजनीति तो थी, जिसने युद्ध लड़े, तफरीह की, औरतशुमारी की। जो जानती थी कि कैसे पढ़ें, गोली मारें और पियें-बतियाएं। उसमें कुछ तो ऐसे थे जो लिफाफा देखकर मज़मून भांप लेते थे।
लेकिन यह दूसरी वाली, ऊबी, अघाई सुविधाओं से संरक्षित माँओं के आँचल में छुपी हुई पीढ़ी? जिसने कभी अपने बगल में खड़े कॉमरेड साथी को गोली से मरते नहीं देखा या फिर किसी बारहसिंघे को अपनी मांद से पौ फटते निकलते नहीं देखा? वह 1955 की शेवरले के फेन्डर6 जैसे अपने कूल्हे लिए, अपनी चीनोज़7 की पिछली जेबों में अनपढ़ी हुई पुस्तिकाओं को खोंसे, स्पेनियों के अलावा वे केवल एक दूसरे से ही स्पेनिश के हिज्जो में बड़बड़ाते रहते हैं। उनके नाज़ुक शरीरों की एकमात्र कसी मांसपेशी उनका अपना जाम उठाने वाला हाथ भर ही है।
वे समझते हैं कि इतना ही सबकुछ भर ...हेमिंग्वे होना है।
हवाना में फ्लोरडिटा8 ऐसे लोगों से भरा पड़ा था। वहाँ अब नहीं जाया जा सकता। की वेस्ट9 भी ऐसा ही है. 1959 में पैमप्लोना की सांड़ों की दौड़ में एक उचक्कका टकसोको बार10 में आता है, जहां मैं एक अच्छी खासी लड़ाई के बाद एन्टोनियो से आराम से बतिया रहा था... और वह मुझसे अपने जूते से शराब पीने को कहता है। उसके उस जूते को सड़क पर फेंक दिया गया और फिर उस लड़के को भी। मैं फिर वहाँ भी दोबारा नहीं जा सकता हूँ। अब कहीं भी जल्दी जा सकने लायक नहीं हूँ। दुनिया हेमिंग्वे बनने की चाह रखने वालों से भरी पड़ी है।
असल में यही है जो हेमिंग्वे छोड़ गया है। अपनी अधपकी दाढी और जाम उठाने वाला वफादार हाथ।
जाने का वक्त हो गया यारों, एक साफ-सुथरी विदा।
सूरज भी डूबता ही है।
लेकिन इसमें एक अच्छा पहलू भी है। आज से चालीस, पचास साल बाद सभी हेमिंग्वे के जैसा होना चाहने वाले जब बूढ़े और मोटे हो जायेंगे, उनके चेहरे की दाढ़ी जल कर काँटों सरीखी हो जायेगी और उनकी सूखी हुई कामुकता किसी धूल से भरी गली में खड़ी होगी...पर यदि वे तब भी हेमिंग्वे की तरह ही यह सब कुछ करना चाहेंगे...
तो इसके लिए उन्हें बन्दूक से गोली भी खानी होगी।

अलविदा''

1 अपने पति लियोनार्ड वुल्फ को किया गया संबोधन
2 मेरी वेल्श, हेमिंग्वे की चौथी पत्नी
3 पुत्र जैक
4 पुत्र पैट्रिक
5 हेमिंग्वे का पहला उपन्यास
6 पहियों के ऊपर लगाया जाने वाला घुमावदार उभरा हुआ छज्जे जैसा
7 पाँव में पहने जाने वाले लॉन्ग पैंट्स
8 हवाना के पुराने हिस्से में बसा एक रेस्तरां जो मछली के व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध है।
9 अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत का एक जज़ीरा
10 स्पेन के पैम्प्लोना शहर का एक बार

पाठकों के सूचनार्थ निवेदन है कि स्टीफेन स्वाइग की प्रसिद्ध आत्मकथा 'द वल्र्ड ऑफ यस्टरडे' का एक सुंदर अनुवाद अब हिन्दी में 'गुज़रा हुआ ज़माना' नाम से उपलब्ध है जिसे आधार प्रकाशन ने छापा है।
संपादक

संपर्क : मो. 08004411999, कानपुर


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