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अप्रैल 2018

प्रकाशकीय

ज्ञानरंजन



इस बार आप तक पहुंचाने के लिये हमारे पास कई अच्छी खबरें हैं और इन्हे हम आपके साथ साझा करना चाहते हैं। 'पहल' के पिछले अंक में हमने मशहूर समकालीन मार्क्स वादी विचारक जॉन जर्जन का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था। जर्जन ने अपने नामी साप्ताहिक कार्यक्रम (अनार्की रेडियो) में 'पहल' की भूमिका का उल्लेख किया है। इस वर्ष, हम पूंजीवादी सत्ताओं द्वारा मनुष्य के पालतूकरण पर जर्जन की एक पुस्तिका छापने जा रहे हैं, जिसमें जर्मनी में बसे श्री दिव्यराज अमिय और लेखक पत्रकार शिव जोशी की अहम भूमिका होगी। लम्बे अर्से के बाद पहल-पुस्तिकाओं की शुरुआत हम कर रहे हैं। एक जरूरी पुस्तिका महान चित्रकार चित्तोप्रसाद और उनके श्रमजीवियों के चित्रों को केन्द्रित करते हुये तैयार की गई है जो अप्रैल माह में नागपुर में एक सार्वजनिक जनवादी कार्यक्रम में रिलीज होगी। इसे संभवत: भाऊ समर्थ व्याख्यान माला के अन्तर्गत लाएंगे।
पहल के पुराने दुर्लभ हो चुके अंकों को पुस्तक आकार में प्रकाशित करने की योजना को वाणी प्रकाशन ने आकार देना शुरू कर दिया है। साल की शुरुआत में इतिहास अंक और पाकिस्तान के मशहूर शायर अफज़ाल अहमद की नज़्मों वाले अंक का किताब की शक्ल में प्रकाशन हो गया है। इसमें सर्वश्री प्रदीप सक्सेना और शमीम हऩफ़ी की नई और ताज़ा भूमिकाएं जोड़ी गई हैं। अफज़ाल  की नई शायरी को जोड़कर इसे समृद्ध भी किया गया है - इसमें हमारे संपादकीय साथी राजकुमार केसवानी ने बहुत परिश्रम किया। उम्मीद है कि इस वर्ष मार्क्स वादी सौंदर्यशास्त्र, वाल्टर बेंजामिन, आलोचना और पाकिस्तान में उर्दू कलम वाले अंक भी आ सकते हैं।
इस अंक का एक आकर्षण यह है कि इसमें मराठी और भारतीय भाषा के अग्रणी और विलक्षण नाटककार महेश एलकुंचवार का साक्षात्कार प्रकाशित है। हमारा एक स्वप्न था जो साकार हुआ है। यह उनका हिन्दी भाषा में पहला साक्षात्कार है। महेश एलकुंचवार बेहद अन्तर्मुखी और अपनी ही कठिन शर्तों पर लिखने और जीवित रहने वाले एक विरल लेखक हैं। यह वार्ता अनूप कुमार ने संभव की जो लेखक के अंतरंग, प्रिय और भरोसे के व्यक्ति है। अनूप कुमार ने लगभग तीन महीने इसमें अर्पित किये हैं और कई बैठकों में इसे पूरा किया। महेश एलकुंचवार का छायाचित्र भी उन्होंने उपलब्ध कराया है।
एक दशक के लंबे अंतराल के बाद विख्यात लेखिका अरुन्धती राय का नया उपन्यास आया और उसका भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। यह सुखद है कि हमारे अभिन्न साथी और कवि मंगलेश डबराल ने हिन्दी में उनके उपन्यास का अनुवाद हाल ही में पूरा किया जो शीघ्र उपलब्ध होने को है। अरुन्धती राय और मंगलेश डबराल की सहर्ष अनुमति से उपन्यास का तीसरा अध्याय इस अंक में उपलब्ध है।
पहल की दूसरी पारी जब शुरू हुई तो हमारी इच्छा थी कि विख्यात अमरीकी कवि एलेन गिंसबर्ग की हलचल भरी लंबी कविता 'हाउल' का अनुवाद पाठकों को उपलब्ध करा सकें। कई आश्वासनों और वायदों के बाद जब हम लगभग निराश हो गये तब इस कठिन कविता का अनुवाद मुम्बई रहने वाले अंग्रेजी के एक प्रवीण पत्रकार देवेन्द्र मोहन ने पूरा किया। यह काम उन्होंने कविता से लगभग जूझते हुए किया। अनुवाद, कविता और कवि की पृष्ठभूमि के बारे में एक छोटी टिप्पणी भी दी गई है और गिंसबर्ग का एक कौतुक भरा चित्र भी छपा है। गिंसबर्ग सातवें दशक में भारत भी आये थे। इस कविता में कई चुनौतियां है और संदर्भों को समझना भी है। दस वर्ष पहले हमने अमरीका में सिटी लाइट्स, न्यू डायरेक्शन की कई क़िताबें उपलब्ध कीं और गिंसबर्ग की लंबी यात्रा, न्यूयार्क पहुंचने की कहानी के नोट्स भी लिये थे। पाठकों, गिंसबर्ग की इस कविता ने एक भूचाल अमरीकी कविता समाज में पैदा किया और अन्तत: कई विवादों के बादे गिंसबर्ग को बड़े कवि के रुप में स्वीकार भी किया गया। हम मानते हैं कि इस कविता के कई अनुवाद मिल कर ही एक उत्कृष्ट अनुवाद तक हमें पहुंचा सकते है।
पहल ने अतीत में गतिशील भौतिकी और वैज्ञानिकता के विभिन्न पहलुओं को लेकर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी और समय समय पर इतिहास-विज्ञान पर जरूरी सामग्री दी थी। एक अंतराल के बाद इस प्रसंग में हमारा साथ देने के लिए कथाकार, चिकित्सक, विचारक स्कंद शुक्ल प्रकट हुए हैं। हमने हाल ही में  उनकी एक कहानी छापी थी। अब वे नियमित एक स्तंभ शुरु कर रहे हैं जो ऐसे अनुसंधानों पर निर्मित होगा जिन्होंने मानव सभ्यता की धारा ही बदल दी।
अंक में किरण सिंह की लंबी कहानी पहली बार आ रही है। वे हिन्दी की एक अनूठी कथाकार है और प्राय: 'हंस' में ही छपा करती थीं। उनका कहानी संग्रह 'यीशु की कीलें' आधार प्रकाशन ने छापा है। इस कहानी के साथ हम उनकी कहानियों का गंभीर मूल्यांकन करने वाला प्रियदर्शन का एक समीक्षा लेख भी छाप रहे हैं।
पाठकों, इस बार हम वे सूसाइड नोट्स आपको पढऩे के लिए उपलब्ध करा रहे हैं जिन्हें आत्मघात के पूर्व विश्व के तीन बड़े लेखकों ने लिखे थे। ये तीन लेखक हैं, स्टीफेन स्वाइग, वर्जीनिया उल्फ और अर्नेस्ट हेंमिग्वे। आश्चर्य है कि इन पत्रों में जीवन, उत्सुक, प्रेरक, शानदार और अद्वितीय है। इन्हे हेमा दीक्षित (कानपुर) ने तैयार किया और पहल परिवार में उन्होंने प्रवेश ही किया है।
एक नया कवि इस बीच पंख फडफ़ड़ा रहा है। सौरभ राय बेंगलुरु में हैं। एक दो साल पहले उन्होंने बड़े पैमाने पर लिखा पर सोशल मीडिया के विवादों से वे हतप्रभ हो गये। उनकी ताज़ा कविताएं हमने कवि और विद्वान सविता सिंह की टिप्पणी के साथ छापी हैं।
उर्दू रजिस्टर में राजकुमार केसवानी का स्तंभ दूर-दूर तक गया और उन्होंने विस्मृतियों को भी तोड़ा अपनी जादुई कलम से। इस बार की उनकी प्रस्तुति स्तंभ की समापन किश्त है। अब वे कुछ अलग दिशा में काम करने का मन बना रहे हैं।
स्वतंत्रता के बाद नेहरु युग में भारत के सांस्कृतिक नवनिर्माण में प्रसिद्ध अध्येता और निर्माता कपिला जी (वात्स्यायन) की बुनियादी भूमिका रही है। उनका साक्षात्कार, स्पिकमैके से लम्बे समय से जुड़े शैलेन्द्र शैल ने किया है जो आगामी अंक का आकर्षण होगा और 'तहलका' से उखड़ कर देश के दुर्गम भूखंडों में होने वाले दमनचक्र का लेखा जोखा और दस्तावेज बनाने वाले एक होनहार युवक शिरीष खरे का एक ट्रैवलॉग, जिसमें उजडऩे की कहानियां हैं, पाठक आगामी अंक में पढ़ेंगे।

अंत में
सातवें दशक के बड़े कथाकार, कवि, आलोचक दूधनाथ सिंह के निधन का हमें गहरा शोक है। उनका एक चित्र इस अंक में दिया जा रहा है। उनके लिए एक शिलालेख की कुछ पंक्तियां -
जो कल तक रास्तों पर चलते फिरते थे वो सब दीवार पर तस्वीर बन के सज गये हैं। बहुत से रिश्तों में मिलने बिछुडऩे वाले याराने गुज़रते वक़्त से, यादों में थोड़े बच गये हैं... यही अंजाम होना है, सभी का, और मेरा भी यकीन है। ख़्याल आता है तो दीवार पर चढ़ती हुई तस्वीर अपनी।
कुसुमाग्रज की एक कविता का अंश
अनुवाद - गुलज़ार


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