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जनवरी 2018

सभ्यीकरण के झूठों पर टिकी दुनिया का सच

डेरेक ज़ेनसन/अनुवाद : शिवप्रसाद ज़ोशी

साक्षात्कार


राज़्य का शत्रु: ज़ॉन ज़ज़र्न का साक्षात्कार- डेरेक ज़ेनसन

ज़ॉन ज़र्ज़न: अगस्त 1943 में ज़न्मे अमेरिकी लेखक, अराज़कतावादी चिंतक और सभ्यता विरोधी विचारधारा के प्रणेता हैं ज़िनकी वैचारिक ज़मीन मार्क्सवाद से निर्मित है। ज़र्ज़न आधुनिक विश्व के उन प्रखर दार्शनिकों में अग्रणी पंक्ति में आते हैं ज़िन्होंने समकालीन समय में मार्क्सवाद की नयी व्याख्याओं, दूसरे विश्व युद्ध उपरांत के मार्क्सवाद और क्रिटिकल स्टडीज़ के स्कूलों से अपने वैचारिकी को पोषित किया है। सभ्यता, कृषि, संख्या, समय और प्रौद्योगिकी को मनुष्य दमन और शोषण की मूल वज़हें मानने वाले ज़र्ज़न ने ये विचार प्रतिपादित किया है कि अगर हमें खुद को और अपनी धरती को बचाए रखना है तो प्राकृतिक दुनिया में लौटना होगा ज़िसे सभ्यीकरण की प्रक्रिया ने हमारी ज़िंदगियों से दूर खदेड़ दिया है। ज़र्ज़न अपने विचारों, व्याख्यानों और निबंधों और पुस्तकों से बौद्धिक हल्कों में चर्चा, ख्याति और विवाद बटोरते आ रहे हैं। 
डेरेक ज़ेनसन: मशहूर अमेरिकी लेखक और धुर पर्यावरणवादी हैं। उन्हें ''पारिस्थितिकीय आंदोलन का कवि-दार्शनिक'' भी कहा ज़ाता है। उनकी पर्यावरणीय आंदोलनधर्मिता, सामाज़िक न्याय की विस्तृत और कठिन लड़ाईयों तक ज़ाती है।
ज़ॉन ज़र्ज़न से डेरेक ज़ेनसन की ये एक बहुत लंबी और पुरानी बातचीत है। पाठक देखेंगे कि आज़ के भारत में विशेष तौर पर ये प्रासंगिक है ज़हां भूमंडलीय तबाहियां अनेक आकारों और शैलियों में सक्रिय हैं, आंदोलनों का भूगर्भ विक्षोभ से भरा है और बहुत धीमी बहुत नाज़ुक थरथराहट टेक्टोनिक प्लेट्स की तरह महादेश की त्वचा से रगड़ खा रही है।
अनुवादक तक ये सामग्री हिंदी कवि मंगलेश डबराल, और ज़र्मनी-स्विट्ज़रलैंड में शिक्षक दिव्यराज़ अमिया के सौज़न्य से आई ज़ो ज़र्ज़न की विचारधारा पर
कार्यरत हैं। उनका आभार। इस लंबी बातचीत का एक बहुत संक्षिप्त रूप ही यहां पेश किया ज़ा रहा है:-
डेरेक ज़ेनसन: अराज़कतावाद क्या है?
ज़ॉन ज़र्ज़न: अराज़कतावाद हर िकस्म के प्रभुत्व को समाप्त करने का प्रयत्न है। सिर्फ प्रकट रूप वाले ही नहीं- ज़ैसे रोज़ाना की हिंसा का इस्तेमाल और कानून का बलप्रयोग करने वाला राष्ट्र-राज़्य और अपनी संस्थागत हो चुकी गैरज़िम्मेदारी वाला कॉरपोरेशन, बल्कि गहरे धंसे हुए वे प्रभुत्व भी ज़ैसे पितृसत्तात्मकता, नस्लवाद, होमोसेक्सुअल समुदाय से नफ़रत यानी होमोफोबिया। अराज़कतावाद उन तरीकों का भी पर्दाफ़ाश करने की कोशिश है ज़िनके ज़रिए हमारी िफलॉसफ़ी, धर्म, अर्थव्यवस्था और दूसरी वैचारिक संरचनाएं अपने शुरुआती काम निपटाती हैं। ये तरीके हमारी ज़िंदगियों में पैठ बना चुके प्रभुत्व को तार्किक और प्राकृतिक बनाते हैं- उसे स्वाभाविक दिखाते हैं: मिसाल के लिए प्राकृतिक संसार की तबाही या मूलनिवासियों का विनाश, किन्हीं सुविचारित फ़ैसलों और उनके तहत की गई कार्रवाइयों का नतीज़ा नहीं लगते, बल्कि, और हम खुद को यकीन भी दिला देते हैं कि, डार्विन के चयन के सिद्धांत या ईश्वर की इच्छा या किन्हीं आर्थिक अपेक्षाओं या ज़रूरतों के चलते ऐसा हो रहा है।
ज़िस ज़गह आकर ये परिभाषा थोड़ा समस्या करने लगती है वो ये है कि कुछ अराज़कतावादी मानते हैं कि कुछ चीज़ेंं वर्चस्वकारी हैं ज़बकि कुछ अराज़कतावादी ऐसा नहीं मानते। मिसाल के लिए, कुछ अराज़कतावादी प्रौद्योगिकीय अनिवार्यता को, प्रभुत्व की श्रेणी में नहीं रखते हैं। मैं रखता हूं, और ज़्यादा से ज़्यादा अराज़कतावादी खुद को इस प्रौद्योगिकी विरोधी पोज़ीशन में आता हुआ देख रहे हैं। अपनी अंदरूनी और बाहरी ज़िदगियों के तकनीकीकरण के इस रास्ते पर हम ज़ैसे ज़ैसे आगे बढ़ते ज़ाते हैं, कम से कमतर अराज़कतावादी- और ये उन लोगों के बारे में भी सच है ज़ो खुद को अराज़कतावादी नहीं कहते हैं- प्रौद्योगिकी और उत्पादन और तरक्की और आधुनिक प्रौद्योगिकीय ज़ीवन की श्रेणियों की ज़यज़यकार करते ज़ाते हैं। सबसे बुनियादी तौर पर मैं अराज़कतावाद को गैर-निरंकुशतावाद के पर्याय के रूप में देखता हूं।
ज़ेनसन : क्या ऐसी स्थिति कभी रही है, ज़हां संबध प्रभुत्व पर आधारित न रहे हों?
ज़र्ज़न: नस्ल के तौर पर ज़ो हमारा कमोबेश 99 फीसदी वज़ूद है, उसमें यही इंसानी स्थिति थी। होमोसेपियन (आदिमानव) के उभार से काफ़ी पहले, शायद कम से कम बीस लाख साल पहले और शायद दस हज़ार साल खेती और फिर सभ्यता के उदय से पहले तक हम ऐसे ही थे।
उस वक्त से हमने खुद को ये यकीन दिलाने में कड़ी मेहनत की है कि ऐसी स्थिति तो कभी थी ही नहीं क्योंकि अगर ऐसी स्थिति कभी नहीं थी तो इसके लिए अब काम करना व्यर्थ है। इस तरह हम दमन और गुलामी को भी स्वीकार कर सकते हैं ज़ो ''बुरी इंसानी िफतरत'' के एक ज़रूरी एंटीडोट के रूप में हमारे ज़ीने के तरीके को परिभाषित करते हैं। आख़िरकार, इस विचार-पद्धति के मुताबिक अभाव, बर्बरता और अज़्ञानता का हमारा सभ्यता-पूर्व अस्तित्व, सत्ता को उस सद्भावना भरे उपहार के रूप में पेश करता है ज़िसने हमें वहशियत से बचाया।
उन छवियों के बारे में सोचो ज़ो ''गुफ़ा का आदमी'' या ''नीएंदरथल'' ज़ैसे लेबल को चस्पां करते हुए ज़ेंहन में आती हैं। हमारी याददिहानी के लिए वे छवियां पहले आरोपित और फिर उभारी ज़ाती हैं कि हम धर्म, शासन और श्रम के बिना आखिर कहां होंगे। शायद यही छवियां सभ्यता के समूचे कारवां- सेना, धर्म, कानून और राज़्य- के लिए सबसे बड़ी वैचारिक दलीलें बन ज़ाती हैं- गरज़ ये कि ज़िनके बिना हम सब हॉब्स की प्रतिपादित की हुई क्रूर रूढ़ोक्तियों (क्लीषे) को ज़ी रहे होंगे।
(ब्रिटिश दार्शनिक टॉमस हॉब्स (1588-1679) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के मुताबिक लोगों को राज़नैतिक और सामाज़िक व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक सत्ता का अनुसरण करना ही चाहिए और उसके आदेशों और नियमों का पालन करना ही चाहिए अन्यथा आपसी संघर्षों में वे आपस में लड़भिड़ कर खत्म हो ज़ाएंगें। ज़र्ज़न का इशारा हॉब्स के इसी कट्टर और रूढिग़त विचार की ओर है।- अनुवादक)
उन छवियो के साथ समस्या, ज़ाहिर तौर पर यही है कि वे पूरी तरह गलत हैं। मानव-शास्त्र और पुरातत्व विज़्ञान के क्षेत्रों में पिछले 20 साल के दरम्यान पुरअसर क्रांति हुई है, और लोग अब ज़्यादा से ज़्यादा ये बात समझने लगे हैं कि खेती और सभ्यीकरण (डमेस्टकेशन) से पहले बड़े पैमाने पर ज़ीवन वाकई फ़ुर्सत, कुदरत से आत्मीयता, ऐंद्रिय ज़्ञान, यौन समानता और सेहत से भरपूर था।
ज़ेनसन: हम ये बात कैसे ज़ानते हैं?
ज़र्ज़न : कुछ तो आधुनिक समय के घुमंतुओं को देखते हुए पता चलता है ज़ो आज़ भी भोज़न की खोज़ में घूम रहे हैं- वे कुछ लोग ज़िन्हें हम अभी तक मिटा नहीं पाए हैं। उन लोगों के ठौरठिकाने तबाह हो रहे हैं, अक्सर उन पर सीधा हमला बोल दिया ज़ाता है या हत्या कर दी ज़ाती है। इन दबावों में उनके समतावादी तरीके गायब होते हमें दिख रहे हैं। व$क्त के पैमाने के दूसरे छोर पर भी, पुरातात्विक खुदाइयों की व्याख्या के ज़रिए भी हम ये सब ज़ान पा रहे हैं। इसका एक उदाहरण, साझा करने की उस प्रवृत्ति से ज़ुड़ता है ज़िसे अब सभ्यीकरण से अलग लोगों की एक प्रमुख विलक्षणता समझा ज़ाता है। अगर आप प्राचीन मनुष्य की रसोईयों का अध्ययन करें और ये पाएं कि एक चूल्हे के पास तमाम शानदार चीज़ों के अवशेष हैं ज़बकि अन्य स्थलों में ऐसी चीज़ेंं कम हैं, तो इसका अर्थ ये है कि वो स्थल मुखिया का हो सकता है। लेकिन एक के बाद एक, समय समय पर आप देखते हैं कि सभी स्थलों में उसी मात्रा में सामग्रियां पड़ी हैं, तो इससे, ऐसे लोगों की तस्वीर उभरती है ज़िनका ज़ीवन साझेदारी पर टिका है।
ज़ेनसन: लेकिन एज़्टेकों (16वीं सदी में स्पानी आक्रमण से पहले मेक्सिको के मूलनिवासी) के बारे में क्या कहेंगें या उन कहानियों के बारे में ज़ो हमें शिकारियों या मांसाहारियों के बारे में बताई ज़ाती हैं?
ज़र्ज़न : एक अकेली हमारी ही संस्कृति है ज़िसने नापाम बम या एटमी हथियारों की खोज़ की है, इस बात को मद्देनज़र रखते हुए, मुझे नहीं लगता कि अन्य संस्कृतियों की अनगिनत छोटी छोटी हिंसाओं पर टिप्पणी करने का हमारा कोई नैतिक अधिकार बनता भी है। लेकिन मूलनिवासी समूहों के व्यवहार में आए बड़े विभाज़न को नोट करना महत्त्वपूर्ण है। कोई भी मांसाहारी या शिकारी समूह- और निश्चित रूप से एज़्टेक भी नहीं- सच्चे अर्थों में घुमंतु शिकारी थे। उन्होंने खेती की शुरुआत पहले ही कर दी थी। अब आमतौर पर ये मान लिया गया है कि कृषि आमतौर पर श्रम को बढ़ावा देती है, साझेदारी को कम करती है, हिंसा को बढ़ाती है, ज़ीवन के समय को कम करती है और भी बहुत कुछ। ये कहने का आशय ये नहीं है कि सभी कृषि समाज़ हिंसक होते हैं, लेकिन ध्यान ये दिलाना है कि ये हिंसा, वास्तविक ज़ंगली घुमंतुओं का काम नहीं है न ही ये उनकी विशेषता है।
ज़ेनसन : क्या आप सभ्यीकरण (डमेस्टिकेशन) को परिभाषित कर सकते हैं?
ज़र्ज़न: ये स्वार्थी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुक्त आयामों को नियंत्रण में लाने की कोशिश है।
ज़ेनसन: अगर पहले चीज़ेंं इतनी महान थीं, तो कृषि शुरू ही क्यों हुई?
ज़र्ज़न : यह एक बहुत कठिन सवाल है, क्योंकि सैकड़ों हज़ारों साल तक बहुत थोड़ा सा बदलाव आया, ये $करीब $करीब स्थिर ही था। ज़मा हुआ। मानव शास्त्र और पुरातत्व विज़्ञान के विद्वानों के लिए ये लंबे समय से हताशा का स्रोत रहा है : सैकड़ों हज़ारों साल तक आखिर कैसे लगभग शून्य बदलाव की स्थिति बनी रही थी- पूरे के पूरे पूर्व और मध्य पुरापाषाणकाल में- और तभी अचानक पुरापाषाणकाल के आखिरी हिस्से में एक निश्चित बिंदु पर ये विस्फोट होता है, लगता है न ज़ाने कहां से हुआ? आपके पास अचानक कला, और उसके पीछे पीछे कृषि आ ज़ाती है। वर्चुअल सक्रियता। धर्म।
और मुझे ज़ो बात $खासतौर पर ध्यान खींचने वाली लगती है, वो ये कि मनुष्यता की ज़ो समझदारी दस लाख साल पहले थी वो हम देखते हैं कि आज़ की बुद्धिमानी के बराबर है। मिसाल के लिए टॉमस विन्न (एंथ्रोपलोज़ी के ज़ानेमाने अमेरिकी प्रोफ़ेसर)  ने इस बात पर खासा ज़ोर देकर बहस उठाई है. हाल में नेचर पत्रिका में एक नयी खोज़ के बारे में लेख था, कि इंसान कोई आठ लाख साल पहले, उस भूगोल में ज़िसे अब माइक्रोनेशिया कहा ज़ाता है, वहां ज़हाज़ों और नावों से समुद्र यात्राएं कर रहे थे। इस सबका अर्थ यह है कि सभ्यता पहले क्यों नहीं पनप गई, इस बात का संबंध समझदारी से कतई नहीं है। ये दलील यूं भी तसल्लीबख्श और नस्लवादी है। तसल्लीबख्श इस अर्थ में कि ये विकल्प की भूमिका को कम करते हुए मानती है कि वे ज़ो हमारी तरह की ज़ीवनशैली का निर्माण करने के लिए पर्याप्त बुद्धिमान हैं, वे ऐसा ज़रूर ही करेंगे और नस्लवादी इस रूप में कि ये मानती है कि आदिम ज़ीवनशैलियों वाले आज़ ज़ीवित मनुष्य कुछ और कर पाने में निरे बेवकूफ़ हैं। अगर वे पर्याप्त रूप से समझदार और स्मार्ट होते, ज़ैसा कि दलील बताती है, तो वे भी कोलतार, स्वचालित आरी और कैदखाने की खोज़ कर लेते।
हम ये भी ज़ानते हैं कि आबादी के दबावों की वज़ह से अवस्थांतर या संक्रमण नहीं हुआ।  आबादी हमेशा की तरह एक दूसरी बड़ी पहेली रही है: घुमंतु ज़ंगली लोग अपनी आबादी को इतना कम कैसे रख पाए, ज़बकि उनके पास प्रौद्योगिकी तो थी नहीं? ऐतिहासिक रूप से,  ये मान लिया गया है कि वे शिशुहत्या करते थे लेकिन इस थ्योरी का भी एक तरह से भंडाफोड़ हो गया है। मैं मानता हूं कि ज़ो भी विभिन्न पौधे वे गर्भ निरोधक के रूप मे इस्तेमाल कर पाए, इसके अलावा बात ये भी थी कि उनका अपने देह के साथ बहुत बेहतर तालमेल रहता था।
लेकिन सवाल पर लौटते हैं : वे इतने लंबे समय तक कैसे टिके रह पाए और फिर वो सब इतनी ज़ल्दी कैसे बदल गया? मैं सोचता हूं कि वे इसलिए टिके रहे क्योंकि कई सहस्त्राब्दियों तक श्रम विभाज़न की ओर ये एक तरह की धीमी फिसलन थी। ये इतनी धीमी गति से हुआ- लगभग अतिसूक्ष्म तरीके से- कि लोग देख नहीं पाए कि क्या हो रहा था, या वे क्या खो देने के खतरे में घिर गए थे। श्रम विभाज़न से उत्पन्न अलगाव- एक दूसरे से अलगाव, प्राकृतिक दुनिया से अलगाव, अपने शरीरों से अलगाव- तब एक िकस्म के क्रांतिक द्रव्यमान तक ज़ा पहुंचा, ऐसी निर्णायक तब्दीली के बाद वो अपने आदर्शतम रूप में प्रकट हुआ ज़िसे हम सभ्यता के रूप में ज़ानते हैं। सभ्यता ने आगे किस तरह से अपनी पकड़ बनाई, मैं सोचता हूं इसका सटीक ज़वाब फ़्रायड ये कहकर दे चुके हैं कि, ''सभ्यता एक ऐसी चीज़ है ज़ो विरोध करती बहुसंख्यक आबादी पर अल्पसंख्यकों की ओर से थोप दी गई थी ज़ो ज़ानती थी कि सत्ता और कब्ज़ें की तरकीबें कैसे हासिल करनी हैं।'' आज़ हम यही होता देख रहे हैं और इसे न मानने की कोई वज़ह नहीं कि ये कभी कुछ अलग रहा होगा।
ज़ेनसन : श्रम के विभाज़न में क्या गड़बड़ी है?
ज़र्ज़न : ये निर्भर करता है कि आप ज़िंदगी से चाहते क्या हैं। अगर आपका प्राथमिक लक्ष्य मास प्रोडक्शन है, तो कुछ भी नहीं. ये हमारे ज़ीने के तरीके के केंद्र में है। हर व्यक्ति इस बड़ी मशीन में एक छोटी सी कील की तरह है। अगर दूसरी ओर आपका प्राथमिक लक्ष्य आपेक्षित समग्रता, समानतावाद, स्वायत्तता या एक  अक्षुण्ण विश्व है, तब इसमें फिर कई सारी गड़बडिय़ां आने लगती हैं।
श्रम के विभाज़न को अ$क्सर, अगर कभी इस पर ठीक से $गौर किया गया हो, तो एक तुच्छता की तरह देखा ज़ाता है, आधुनिक ज़ीवन का एक ''प्रदत्त।'' अपने चारों ओर हम ज़ो कुछ भी देखते हैं वो सब उत्पादन के इस आधार के बगैर बिल्कुल असंभव हो ज़ाता। लेकिन ये एक विचारणीय बिंदु है। इस झमेले को निष्फल करने का मतलब होगा श्रम के विभाज़न को निष्फल करना।
ज़ेनसन: मैं नहीं समझता कि समकालीन विश्व में विशेषज़्ञों या एक्सपर्टों के प्रभावी नियंत्रण से कोई भी इंकार करेगा। और मैं ये नहीं सोचता कि कोई इस बात पर भी बहस करेगा कि ये नियंत्रण अब तक की सबसे द्रुत गति से नहीं बढ़ रहा है। ज़ैसे कि खाद्य उत्पादन में। मैंने हाल में पढ़ा कि खाने पर अमेरिकियों के खर्च हुए हर दस डॉलरों में से एक आरज़े आर नाबिस्को (कंपनी) को ज़ाता है। चार मीट पैकर्स का, 90 फ़ीसदी मीट प्रोसेसिंग पर नियंत्रण है। आठ कॉरपोरेशन आधा से ज़्यादा मुर्गीपालन उद्योगों को नियंत्रित करते हैं। 90 फ़ीसदी एग्रीकैमिकल और फ़ीड-ग्रेन उद्योगों पर दो फ़ीसदी निगमों का नियंत्रण है। और हममें से कितने लोग ज़ानते हैं कि अपना भोज़न कैसे हासिल करें?
ज़र्ज़न : बिल्कुल सही। और ये सिर्फ भोज़न की बात नहीं है। ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं ज़ब आप अपना रेडियो सेट खुद बना लेते थे। लोग हर समय ये करते रहते थे। दस साल पहले तक भी आप अपनी कार की मरम्मत करते रह सकते थे। अब ये तेज़ी से कठिन होता ज़ा रहा है। इसलिए दुनिया ज़्यादा से ज़्यादा उन लोगों की बंधक बनती ज़ाती है ज़िनके पास $खास तरह के हुनर हैं, और उन लोगों की भी ज़िनका इन विशिष्ट प्रौद्योगिकियों पर नियंत्रण है। ज़ब आपको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है, ज़ब आपके पास सामान्य अर्थो में भी यानी काम चलाने लायक किसी तरह का हुनर नहीं होता तब आप सिकुड़ ज़ाते हैं।
ज़ेनसन : लेकिन इंसान तो सामाज़िक प्राणी है। क्या हमारे लिए एक दूसरे पर निर्भरता ज़रूरी नहीं है?
ज़र्ज़न : मैं ये कहते हुए ऐसा नहीं दिखाना चाहता कि मेरा मॉडल लोगों को द्वीप में बदल देने का है ज़हां उनका औरों से संपर्क ही नहीं रहेगा। बल्कि मेरी बात इसके बिल्कुल उलट है। क्रियाशील समुदाय की अन्तर्निर्भरता और ज़िनके पास ऐसे कौशल हैं ज़ो आपके पास नहीं, ऐसे लोगों के भरोसे रह ज़ाने से बनने वाली निर्भरता के बीच अंतर को समझना महत्वपूर्ण है। आप पर उनकी सत्ता काबिज़ हो ज़ाती है। अपनी सत्ता के इस्तेमाल में वे उदार हैं ये बात वास्तव में बहस से बाहर है।
इससे मुझे रूसी अराज़कतावादी क्रोपोतकिन की क्रांति के बारे में कही बात याद आती है कि अन्य सवालों से बड़ा सवाल रोटी का है। ऐसा इसलिए क्योंकि भोज़न की किल्लत, प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के पास सबसे ता$कतवर हथियार है : वे खाने को रोककर या नाकाबंदी निर्मित कर, लोगों को वापस समर्पण की ओर धकेल सकती हैं।
विशिष्ट कौशलसंपन्न लोगों के प्रत्यक्ष नियंत्रण के अतिरिक्त, उन कौशलों को लेकर भी बहुत सा रहस्यवाद है। आधुनिक समाज़ की वैचारिकी का एक हिस्सा कहता है कि इसके बिना, आप पूरी तरह गुम हो ज़ाएंगे, आप ये नहीं ज़ान पाएंगें कि साधारण से साधारण चीज़ों को कैसे ठीक करें। देखो, इंसान पिछले बीस लाख साल से अपने लिए भोज़न ज़ुटा रहे थे और आज़ की अपेक्षा ज़्यादा सफलतापूर्वक और कुशलतापूर्वक वैसा कर पा रहे थे। वैश्विक खाद्य तंत्र उन्मादी है. ये हैरानी की हद तक अमानवीय और अयोग्य है। कीटनाशको, तृणनाशको, परिवहन और खाद्य भंडार के लिए फ़ॉसिल ईंधन के प्रभावों और भी बहुत कुछ के ज़रिए हम दुनिया को बरबाद कर रहे हैं। और शब्दश: लाखों लोगों को अपनी पूरी ज़ि़ंदगी कभी भी पर्याप्त भोज़न नहीं मिल पाता है। लेकिन कुछ चीज़ेंं अपना भोज़न उगाने या इकठ्ठा करने से ज़्यादा साधारण हैं।
ज़ेनसन: पिछले साल मैंने ट्युपाक अमारू रिवोल्युश्नरी मूवमेंट (लातिन अमेरिकी देश पेरु का एक धुर वामपंथी संगठन- इस संगठन का नाम 18 वीं सदी के विद्रोही नेता ट्युपाक अमारू द्वितीय के नाम पर पड़ा था ज़िन्हें अपना नाम अपने पूर्वज़ ट्युपाक अमारू से मिला ज़ो इंका आदिवासी समाज़ के आखिरी लीडर थे- अनु.) के एक सदस्य का इंटरव्यू किया था। ये वो ग्रुप है ज़िसने पेरु में ज़ापानी राज़दूत के निवास पर कब्ज़ा कर लिया था। मैंने उससे पूछा कि उसका ग्रुप अपने देश के लिए क्या चाहता है। उसने ज़वाब दिया, ''हम अपना भोज़न खुद उगाना और बांटना चाहते हैं'' हम पहले से ये ज़ानते हैं कि ये कैसे करना है, हमें बस इतना भर करने की इज़ाज़त चाहिए।
ज़र्ज़न : बिल्कुल सही। 
ज़ेनसन : आपने पहले ज़िक्र किया था कि आप वक्त और वर्चस्व में एक रिश्ता देखते हैं।
ज़र्ज़न : चीज़ें ज़ेंहन में आती हैं। पहली तो ये है कि समय एक आविष्कार है, एक कलात्मक कृति, संस्कृति की एक निर्मिति। संस्कृति से बाहर इसका कोई वज़ूद नहीं है। दूसरी बात ये है कि समय, अलगाव का बिल्कुल सटीक माप है। और मैं मानता हूं कि वर्तमान, अतीत को सूचित करता है या बल्कि आधुनिक अलगाव की उत्पत्ति में झांकने की दिशाएं मुहैया कराता है।
ज़ेनसन: कैसे?
ज़र्ज़न: चलो, वर्तमान से शुरू करते हैं। वस्तु की तरह वक्त इतना स्पर्शनीय, इतना छू सकने लायक पहले कभी नहीं रहा, ज़ितना अब है। इतना अधिक स्थूल उपस्थिति इसकी कभी नहीं रही। हमारी ज़िंदगियों में हर चीज़ वक्त से मापी और आंकी ज़ाती है।
ज़ेनसन: यहां तक कि सपनों को भी, मुझे लगता है, हमने अलार्म घडिय़ों और शेड्यूलों की कामकाज़ी दुनिया के अनुरूप धकेल दिया है।
ज़र्ज़न: समय को लाद कर ही हम रुटीन को लादना शुरू कर सकते हैं। इस बारे में फ़्रायड वाकई स्पष्ट थे। उन्होंने बार बार इस बात की ओर इंगित किया कि सभ्यता  को- अपने केंद्र में विलगाव के साथ-  घटित होने के लिए, पहले समयविहीन और अनुत्पादक तृप्ति की शुरुआती पकड़ को तोडऩा होगा।
ये मेरे ख्याल से दो चरणों में हुआ। पहले कृषि के उभार ने समय की अहमियत को बहुत बड़ा बना दिया और $खासकर स्थूल चक्रीय समय को, ज़िसमें बुवाई और कटाई से ज़ुड़े सघन श्रम की अवधियां शामिल थीं, और ज़िसमें फसल का अधिकांश हिस्सा उन लोगों तक पहुंचता था ज़ो कैलेंडर चलाते थे : यानी कि पुरोहित-पादरी। बेबीलोन और माया की सभ्यता में ये सच था। पश्चिम में, चक्रीय समय की धारणा ने रैखिक समय का रास्ता तैयार किया। ये धारणा, दिवस और मौसम की लय से ज़ुड़ाव के साथ अभी भी कम से कम प्राकृतिक विश्व के समक्ष सर झुकाती है। रैखिक समय की शुरुआत सभ्यता के उदय के साथ हुई। और क्रिश्चियन युग के प्रारंभ के आसपास इसने पकड़ बना ली। और ज़ाहिर है ज़ब तुम्हारे पास एक बार रैखिक समय आ ज़ाता है, तो तुम्हारे पास इतिहास होता है, फिर तरक्की, और फिर भविष्य की एक  बुतपरस्ती आ ज़ाती है ज़ो प्रज़ातियों, भाषाओं, संस्कृतियों, और अब ये भी पूरी तरह से संभव है कि समूची प्राकृतिक दुनिया को किसी भविष्य की बलिवेदी पर चढ़ा दे। एक समय तक ये कम से कम एक काल्पनिक भविष्य की बलिवेदी थी, लेकिन हमें अब इस पर भी यकीन करने की ज़रूरत नहीं रह गई है। यही चीज़ हमारी अपनी निज़ी ज़िंदगियों के साथ हो रही है, क्योंकि हम इस एक क्षण को ज़ीने को भूलकर इसके बदले भविष्य के किसी बिंदु पर किसी क्षण को ज़ीने की उम्मीद लगाए रहते हैं, शायद अपने रिटायरमेंट के बाद, या ज़ब हमारी मौत हो ज़ाए और हम ज़न्नत का रुख करें। स्वर्ग पर ये पारलौकिक ज़ोर भी रैखिक समय में ज़ीने की नाखुशी से प्रकट होता है।
ज़ब मैं छोटा था, मेरे इलाके में बहुस सारे मेंढक थे। लेकिन अब कम रह गए हैं। गाने वाली चिडिय़ां बहुत सारी थीं। लेकिन अब कम रह गई हैं। ये रैखिक समय है। मैं उन ज़मीनों की गिनती कर गुज़रे हुए सालोंसाल के सिलसिले को गिन सकता हूं ज़हां पेड़ काट डाले गए। ऐतिहासिक समय तभी रुकेगा ज़ब हमारी सभ्यता के आखिरी निशान नहीं रहेंगे, एकबारगी आख़िरी गगनचुंबी इमारतों के आखिरी इस्पाती खंभे सड़-गल कर धूल बन ज़ाएं, और एकबारगी विनाश की ये मौज़ूदा ऐंठन मंद पड़ ज़ाएं और एक बार फिर ज़ो बच ज़ाएं वे एक आवर्तन में दाखिल हो सकें तो शांति कायम हो ज़ाएगी।
ज़ेनसन : चौदहवीं शताब्दी ने पहली सार्वज़निक घडिय़ां देखी थीं और घंटों का मिनटों में और मिनटों का सेकंडों में बंटवारा भी तभी देखा था। समय में बढ़ोतरी तब मानकीकृत हिस्सों और कार्य विधियों की तरह पूरी तरह आपस में बदली ज़ा सकती थी ज़ो पूंज़ीवाद के लिए ज़रूरी था।
ज़र्ज़न : हर कदम पर समय की इस ज़ीहुज़ूरी के तरीके का सामना, प्रतिरोध से हुआ है। मिसाल के लिए 1830 में फ्रांस की ज़ुलाई क्रांति की शुरुआती लड़ाइयों में पेरिस में हर तरफ़ लोग घडिय़ों पर स्वत: ही निशाना साधने लगे थे। 1960 के दशक में कई लोगों ने, ज़िनमें मैं भी शामिल था, घडिय़ां पहनना छोड़ दिया था। अपनी उम्र के बीसवें पड़ाव में कुछ समय तक, घर आने वालों मेहमानों से मैं कहा करता था कि अंदर आने से पहले वे अपनी घडिय़ां उतार दें।
आज़ भी बच्चे अपने समय से प्रतिरोध करते करते टूट चुके होंगे। ये उन प्राथमिक वज़हों में से एक थी ज़िन के चलते इस देश में बड़े पैमाने पर अनिच्छुक ज़नता पर देश का अनिवार्य स्कूली तंत्र थोपा गया था। स्कूल आपको किसी निश्चित समय में किसी निश्चित ज़गह पर होने की शिक्षा देता है और आपको फ़ैक्टरी में ज़ीवन के लिए तैयार करता है। ये सिस्टम के लिए आपकी मापज़ोख करता है।
ज़ेनसन: आपने ये ज़िक्र भी किया था कि संख्या पृथक करती है।
ज़र्ज़न : तुम चीज़ों को गिनते हो। तुम विषयों को नहीं गिनते हो। एक बड़े परिवार के सदस्य ज़ब खाना खाने बैठते हैं, बिना गिनती किए वे फ़ौरन ज़ान लेते हैं कोई गैरहाज़िर तो नहीं है। गिनती तभी ज़रूरी हो ज़ाती है ज़ब तुम चीज़ों को इकहरा बना देते हो।
सभी लोग अंक पद्धति का इस्तेमाल नहीं करते हैं। ज़ैसे, यानोमामी समुदाय के लोग (दक्षिण अमेरिका के ज़ंगलों में रहने वाले आदिवासी) दो से आगे गिनती नहीं करते हैं। ज़ाहिर है, वे मूर्ख नहीं हैं। लेकिन ये भी ज़ाहिर है कि प्राकृतिक दुनिया से उनका अलग रिश्ता है।
पहली अंक पद्धति कमोबेश बिला शक पालतु पशुओं की नाप और नियंत्रण के लिए इस्तेमाल की ज़ाती थी, क्योंकि ज़ंगली ज़ानवर पैदावार के उत्पाद बन गए थे। आगे चलें तो करीब पांच हज़ार साल पहले सुमेर सभ्यता में व्यापार को बढ़ाने के लिए हम गणित का इस्तेमाल होता देखते हैं। मालिकाना हक तय करने, टैक्स लगाने और गुलामों से मज़दूरी कराने से ज़ुड़े मामलों के लिए, खासतौर पर खेतों की नाप-ज़ोख के लिए, यूक्लिड ने अपनी ''ज़्यामिति'' तैयार की ज़ो वस्तुत: अपने अर्थ में ''ज़मीन की नाप-ज़ोख'' ही कहलाती है। आज़ यही अनिवार्यता, विज़्ञान पर लागू की ज़ाती है। हुआ इतना है कि अब हम समूचे ब्रह्मांड को ही मापने और गुलाम बना लेने की कोशिश कर रहे हैं।
ज़ेनसन: मैंने पढ़ा है कि नात्सी मृत्यु शिविरों में अक्सर कोटा होता था कि हर रोज़ कितने सारे लोगों को मारा ज़ाएगा। आज़ राष्ट्रीय वन विभागों के पास ज़ंगलों की कटाई का कोटा है, क्योंकि उन्हें एक निश्चित संख्या और आयतन में इमारती लकड़ी (बोर्डफुट: लकड़ी के आयतन की इकाई, एक बोर्डफुट : 144 घन इंच) का ''उत्पादन'' करना है। मुझे ये बात स्पष्ट रूप से पता है कि संख्या को मारना व्यक्ति को मारने से ज़्यादा आसान है, चाहे हम 'उंटेरमेन्शन' (ज़र्मन नात्सियों की शब्दावली) यानी तुच्छ लोगों से भरी मालगाड़ी की बात करें, लाखों घन इंच लकड़ी या टनों मछली की बात करें। ये बातें हमें कहां ले ज़ाकर पटकती हैं?
ज़र्ज़न : एक मरती हुई दुनिया में। अलगाई हुई।
ज़ेनसन: अलगाई हुई?
ज़र्ज़न: मार्क्स ने विलगाव (ऐलीअनैशन) को परिभाषित करते हुए कहा था कि ये उत्पादन के साधनों से अलग होना है। प्रयोग करने के लिए चीज़ों का उत्पादन करने के बज़ाय, हम तंत्र द्वारा इस्तेमाल हो ज़ाते हैं। मैं इस बात को एक कदम आगे ले ज़ाकर कहूंगा कि मेरे लिए इसका अर्थ है अपने खुद के अनुभवों से विरक्त हो ज़ाना, अपने होने की प्राकृतिक स्थिति से उखड़ ज़ाना। दुनिया ज़ितनी तकनीकीकृत और कृत्रिम बनती ज़ाती है और ज़िस तरह प्राकृतिक संसार खाली होता ज़ाता है, तो प्राकृतिक सन्निकटता से अलगाव का एक स्वाभाविक बोध आ ज़ाता है।
आदिम अवस्था का फिर उल्लेख करते हुए मैं सोचता हूं कि लोग कभी ज़ीवों की तरह एक दूसरे के संपर्क में थे, उन तरीकों के ज़रिए ज़िन्हें हम समझ भी नहीं सकते। इंद्रिय बोध की बात करें- इस बात के प्रामाणिक साक्ष्य हैं कि सान आदिवासी (अफ्रीका के दक्षिणी भूभाग- बोत्स्वाना, नामीबिया, ज़ाम्बिया, अंगोला, ज़िम्बाव्वे, दक्षिण अफ़्रीका- में फैली घुमंतु ज़ंगली आदिवासी समूह ज़िन्हें बसारवा भी कहा ज़ाता है- अनु.) सत्तर मील दूर से सिंगल इंज़न विमान को सुन सकते थे और नंगी आंख से बृहस्पति के चार चंद्रमा देख सकते थे। संपर्क और ज़ुड़ाव का ये सिलसिला उनके आसपास भी फैला हुआ था : लॉरेंस फ़ान डेर पोस्ट (दक्षिण अफ़्रीकी लेखक-दार्शनिक) ने बताया है कि सान ये ज़ानते थे कि एक हाथी, एक शेर, एक हिरन होना वास्तव में कैसा महसूस होता है। उस समय इस संपर्क का परस्पर आदानप्रदान होता था। शुरुआती यूरोपीय अन्वेषकों के अगर सैकड़ों नही तो दर्ज़नों ऐसे ब्यौरे हैं ज़िनमें बताया गया है कि मनुष्यों के प्रति ज़ंगली ज़ानवरों में डर था ही नहीं।
ज़ेनसन: अभी पिछले साल ही मुझे 18वीं सदी के एक अन्वेषक सैमुअल हेर्ने का एक ब्यौरा पढऩे को मिला था। उत्तरी कैनडा की यात्रा करने वाला वो पहला गोरा आदमी था। उसने विस्तार से लिखा है कि कैसे इंडियन बच्चे भेडिय़ों के छौनों से खेलते थे। बच्चे छौनों के चेहरों को सिंदूरी या गेरुआ मिट्टी से रंग देते थे और ज़ब वे अपना खेल पूरा कर लेते थे तो उन्हें बिना चोट पहुंचाए उनकी गुफा में छोड़ आते थे। न तौ वे छौने न उनके मातापिता इस बात का कभी बुरा मानते थे
ज़र्ज़न: अब हम उन्हें विमानों से गोलियां बरसाकर मार गिराते हैं। क्या यही प्रगति है।
ज़ेनसन: और व्यापक तौर पर देखें, तो अभ्यास में प्रगति का क्या अर्थ रहा है?
ज़र्ज़न: प्रगति या विकास का मतलब है व्यक्ति के समूचे अमानवीकरण और पारिस्थितिकीय पतन की आपदा की आसन्न काली छाया। मेरे ख्याल से चंद लोग पहले से ज़्यादा अब ये मानते हैं लेकिन शायद बहुत सारे लोग फिर भी हैं ज़ो इसे एक अवश्यंभाविता के रूप में देखते हैं। हम हर तरफ़ से इसे स्वीकार करने को निश्चत रूप से बाध्य कर दिए गए और हम इसके बंधक भी बनाए ज़ा चुके हैं। अब विचार ये है कि हर किसी को लगातार एक अत्यंत दयनीय अंदाज़ में प्रौद्योगिकी पर निर्भर बना देना है। मनुष्य स्वास्थ्य के संदर्भ में देखें तो इसका मतलब है प्रौद्योगिकी पर बढ़ती हुई निर्भरता, लेकिन हमें ज़ो भूलने के लिए कहा ज़ा रहा है वो ये कि प्रौद्योगिकियों ने ही इन समस्याओं को ज़न्म दिया है। रसायनों से होने वाले विभिन्न कैंसरों की ही बात नहीं है। करीब $करीब सभी बीमारियां या तो सभ्यता, या विलगाव या रिहाइश की भीषण बरबादी से उपज़ी बीमारियां हैं।
मुझे क्रोह्न्स बीमारी है। (आंतों में लंबे समय से बनी रहने वाली सूज़न)। गैरऔद्योगिक देशों में इस बीमारी के बारे में किसी ने नहीं सुना था। ये तभी आमफ़हम हुई ज़बसे ये देश औद्योगिकृत हुए हैं। ये वस्तुत: सच्चाई है कि औद्योगिक सभ्यता मेरी आंतों को खाए ज़ाए रही है। 
ज़ेनसन: ये सब बातें हमें आख़िर कहां पहुंचा देती हैं?
ज़र्ज़न : मैं आशावादी हूं. क्योंकि इससे पहले हमारी समूची ज़ीवनशैली इतनी ज़ाहिर नहीं हुई थी ज़ितनी कि अब हो गई है।
ज़ेनसन : इसे देख लेने के बाद अब आगे क्या किया ज़ा सकता है?
ज़र्ज़न : पहली चीज़ तो है इस पर सवाल उठाना। ये सुनिश्चत करना होगा कि समाज़ के विमर्श का हिस्सा- अगर पूरा नहीं भी- ज़ीवन और मृत्यु के मुद्दों से ज़ुड़ा है। लेकिन ये ध्यान रहे कि नज़रअंदाज़ या $खारिज़ कर देना इस विमर्श की एक विशेषता रही है। फिर भी मैं मानता हूं कि ये नकार ज़्यादा देर तक टिका नहीं रह सकता क्योंकि यथार्थ और यथार्थ के बारे में ज़ो कहा ज़ाता है, इन दो बातों के बीच अच्छीखासी टकराव भरी विषमता है।
ज़ेनसन: हो सकता है और ये एक दुस्वप्न ज़ैसा परिदृश्य है, कि विषमता हमेशा के लिए चलती रह सकती है। लोग इतने ज़्यादा अनुकूलित हो ज़ाएंगें कि वे ये भी नोटिस नहीं कर पाएंगे कि कोई प्राकृतिक दुनिया, कोई आज़ादी, कोई मुराद नहीं बची है, कुछ भी नहीं। आप हर दिन अपनी अवसाद निरोधी दवा प्रोज़ाक की खुराक लें, निस्तेज़ होने के साथ साथ मंदाग्निग्रस्त और विक्षिप्त हो ज़ाएं और अंतत: ये पाएं कि बस यही बाकी रह गया था।
ज़र्ज़न : लेकिन इससे बाहर निकलने का, झूठों के एकाधिकार को तोडऩे का, सहज़ तरीका यही है कि झूठों के एकाधिकार को तोड़ दिया ज़ाए और वही बादशाह नंगा है वाली पुरानी कहावत को थोड़ा यथार्थ में ढाला ज़ाए, उसकी सम्पूर्णता में कि वास्तव में ये कितना भयानक है और दांव पर क्या लगा हुआ है। क्या संभव है- क्या संभव रहा है, और आगे किसी दिन क्या संभव हो सकता है- इन बातों की तुलना इस बात की ज़ाए कि वर्तमान कितना त$कलीफ़देह है और फ़ौरन बाद का भविष्य क्या लेकर आएगा।
ज़ेनसन: ये बात साफ़ है कि अगर हम झूठों के एकाधिकार को नहीं तोड़ेंगे, तो कुछ दशकों में लडऩे के लिए ज़्यादा कुछ रह नहीं ज़ाएगा। खासकर ज़ब आप पर्यावरणीय दुर्दशा और निज़ी अमानवीयकरण में बढ़ोतरी को ध्यान में रखें?
ज़र्ज़न : इसलिए ये दोगुने तौर पर अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि संवाद में इन निषिद्ध विषयों को शामिल किया ज़ाए कि चीज़ें वास्तव में कितनी खराब हैं। हमें इस समाज़ के स्वीकार्य विमर्श को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। बात अस्वीकार के स्तर को महज़ सामने लाने की है। ये अस्वीकार हल्केफुल्के सुधारों से नहीं बदलने वाला, और हमारे ग्रह की हिफ़ाज़त रिसाईक्लिंग से नहीं होने वाली। अगर ऐसा सोचा ज़ाता है तो ये नादानी होगी। या यूं कहें नादानी नहीं ये अपराध होगा। ज़ो चल रहा है उसका सामना हमें करना होगा। एक बार हम यथार्थ का सामना कर लेंगे तो एक साथ मिलकर ये सोच सकते हैं कि इसे कैसे बदलना है, इसे कैसे पूरी तरह रूपांतरित कर देना है।
ज़ेनसन : आप भविष्य को किस रूप में उभरता देखते हैं?
ज़र्ज़न : शायद हम अभी सुबह से पहले वाले अंधेरे में हैं। मुझे याद है ज़ब मारक्यूस ने वन डाइमेनश्नल मैन (एकआयामी आदमी) लिखी थी। ये किताब 1964 में आई थी और वो कह रहा था कि मौज़ूदा उपभोगी समाज़ में मनुष्य इतने शातिर हो चुके हैं कि वास्तव में बदलाव की कोई उम्मीद हो ही नहीं सकती। और फिर अगले दो साल के दरम्यान चीज़ेंं काफ़ी दिलचस्प हो गई, साठ के दशक के आंदोलनों की रचना के लिए लोग पचास के दशक की नींद से उठे. मैं मानता हूं कि अगर वो ये किताब थोड़ा बाद में लिखते तो ये काफ़ी ज़्यादा सकारात्मक हो पाती।
ज़ेनसन: आप अपने काम और अपने ज़ीवन से क्या चाहते हैं?
ज़र्ज़न: मैं एकदूसरे से मुखातिब एक समुदाय को देखना चाहता हूं। एक अन्तरंग अस्तित्व, ज़हां संबंध सत्ता पर आधारित नहीं होंगे लिहाज़ा श्रम के विभाज़न पर भी बंटे नहीं होंगे। मैं एक अक्षुण्ण प्राकृतिक दुनिया देखना चाहता हूं, और मैं एक संपूर्ण मनुष्य की तरह ज़ीना चाहता हूं। अपने आसपास तमाम लोगों के लिए भी, मैं ऐसा ही चाहता हूं।
ज़ेनसन: हम यहां से वहां तक कैसे पहुंचेंगे?
ज़र्ज़न : मुझे नहीं मालूम। हो सकता है ये उतना ही सहज़ हो कि हर कोई काम छोड़कर घर पर ही बैठा रहे। नहीं करेंगे। ऐसी की तैसी। अपनी ऊर्ज़ा को वापस खींच लो। सिस्टम हमारे बिना ज़ि़ंदा नहीं रह सकता। अगर लोग सिस्टम को रिस्पॉंड करना बंद कर देंगे तो वो ढह ज़ाएगा।
ज़ेनसन : लेकिन अगर हम प्रतिक्रिया देना बंद कर दें, अगर हम वाकई साथ चलना छोड़ दें, तो क्या हम भी ढह नहीं ज़ाएंगें क्योंकि सिस्टम तो हमें बर्बाद कर देगा?
ज़र्ज़न :  सही है. ये इतना आसान नहीं है। अगर ये इतना आसान होता तो लोग महज़ घरों में बैठे रहते, क्योंकि एक तेज़ी से खोखली होती संस्कृति में इस दयनीय रूटीन से गुज़रना, कमबख्त एक बहुत बड़ी बाधा है। लेकिन ज़ो बात हमें हमेशा अपने ज़ेंहन में रखनी होगी वो ये है कि : हम तो अभिशप्त हैं ही लेकिन किस तरीके से ज़्यादा अभिशप्त हैं? मैंने ऑरेगोन यूनिवर्सिटी में हाल में एक लेक्चर दिया ज़िसमें मैने इन तमाम विषयों पर बात की। मैंने आख़िर में कहा, ''मैं ज़ानता हूं कि सिस्टम को पलट देने की ये कोशिश हास्यास्पद लगती है, लेकिन मैं एक ही चीज़ के बारे में सोच सकता हूं कि इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद ये है कि सिस्टम को ऐसे ही चलते रहने दिया ज़ाए।''  
सवाल ये है कि नुकसान कितना रोका ज़ा सकता है। कभी कभी- और मैं नहीं मानता हूं कि ये बहुत ज़्यादा उपेक्षा या अस्वीकार है- कभी कभी इतिहास में चीज़ें उस क्षण उलट ज़ाती हैं ज़ब भौतिक दुनिया इस हद तक घुसपैठ कर देती है कि हमारा संतुलन बिखर ज़ाए। राउल वनेगम एक प्यारी छोटी सी चीज़ का ज़िक्र करते हैं ज़ो मुझे अत्यधिक उम्मीद देती है : पावलोफ़ (पूरा नाम: इवान पेत्रोविच पावलोफ़, सितंबर 1849 से फ़रवरी 1936, रूसी िफज़ियोलॉज़िस्ट, क्लासिकल कंडिशनिंग पर कार्य) की प्रयोगशाला में रखे कुत्ते सैकड़ों घंटो के लिए अनुकूलित किए गए थे। वे पूरी तरह से प्रशिक्षित और पालतू बनाए गए थे। एक रोज़ बेसमेंट में बाढ़ आ गई। और आप ज़ानते हैं फिर क्या हुआ? पलक झपकते वे सब अपनी सारी ट्रेनिंग भूल गए। हम लोगों को कम से कम इतना तो ठीक से कर पाने में समर्थ होना चाहिए। मैं अपनी ज़िंदगी इसके लिए दांव पर लगा रहा हूं। इसी रास्ते पर मैंने अपना काम अर्पित किया है।

 


मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद : शिवप्रसाद ज़ोशी



संपर्क : मो. 09756121961, देहरादून


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