मुखपृष्ठ पिछले अंक छिलकों में ज़िंदगी तलाशता अदीब - फ़िक्र तौंसवी
जनवरी 2018

छिलकों में ज़िंदगी तलाशता अदीब - फ़िक्र तौंसवी

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष / उर्दू रजिस्टर



शताब्दी पुरुष


 
 
कोई पांच साल पहले, 12 सितम्बर 2012 को 'इंडियन एक्सप्रेस' के दिल्ली संस्करण के पेज नम्बर 3 पर एक छोटा सा विज्ञापन छपा था, जिसका आज़ाद तर्जुमा कुछ यूं था :
'महान हास्य-व्यंग लेखक - फ़िक्रतौंसवी' (7.10.1918-12.9.1987) की याद में
दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहां
एक सदी की पूरी एक चौथाई गुज़री जाती है कि आप हमसे बिना बात किए ही हमें छोड़ गए। आप अमर हैं और हर-सू मौजूद है।
एक दिन ऐसा नहीं गुज़रता कि जिस दिन आपकी जुदाई का दर्द हमारे दिलों को सालता न हो। आप हमारे दिलों में बसते हैं। हर लम्हा बस आपकी कमी...
कैलाशवती (पत्नी) और अहल-ए-ख़ानदान
डी-50, गुल मोहर पार्क, नई दिल्ली।
यह एक निहायत मुख़्तसर सा इश्तिहार एक ख़ानदान के लिए अपने एक फ़र्द को ख़िराज-ए-अकीदत के साथ ही साथ एक ऐलान-ए-नाज़ भी था। और शायद कहीं ताज़ा ईजाद हुई मुक्त अर्थ-व्यवस्था के साथ हर रिश्ते से मुक्त हो चुके हिंदुस्तानी समाज के भूले हुए लोगों को याद दिलाने की कवायद भी थी। यह कवायद कितनी कामयाब हुई मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं बहरहाल मुझ पर ज़रूर यह कामयाब है। 
फ़िक्र तौंसवी को पैदा हुए सौ साल और गुज़रे हुए तीस बरस हो चुके। ज़माने की फ़िक्र करने वाले ख़ुद सौ साल नहीं जी पाते सो फ़िक्र तौंसवी भी सत्तर की उम्र में ही यहां से कूच कर गए। मगर फ़िर भी उनके सौ साल तो पूरे होने ही थे, सो अब हो रहे हैं। मगर हैरत की बात है कि हर सदी मनाने वाले इस मुर्दा-परस्त समाज में कोई हलचल अब तक दिखाई नहीं दी है। शायद फ़िक्र तौंसवी को अब भी ज़िंदा मानते होंगे। ख़ैर, यह हक़ीक़त तो है ही कि फ़िक्र की तब की तमाम फ़िक्रे और उनके लफ़्ज़ी कारनामे आज भी 'शोला-ए-अहसास की मानिंद ताबिंदा' हैं और इसी बहाने वो भी अब तक ज़िंदा हैं।
फ़िक्र तौंसवी जब पैदा हुए तब इस मुल्क पर हुकूमत-ए-ब्रितानिया का कब्ज़ा था। पहली जंगे-अज़ीम जारी थी कि जनाब फ़िक्र तौंसवी की आमद हुई। अपनी पैदाइश के बारे में ख़ुद उनका बयान बेहद दिलचस्प और तफ़्सील से भरा है।
नाम : (वालिदैन का अतीया = मां-बाप का दिया हुआ) नारायन
स्कूली नाम : रामलाल
नाम नम्बर दो : (ख़ुद साख़्ता)  फ़िक्र तौंसवी
तारीक पैदाइश : 7 अक्टूबर 1918 (पहली जंग-ए-अज़ीम में)
तारीख़ वफ़ात : तीसरी जंग-ए-अज़ीम में
मक़ाम पैदाइश : शुजा आबाद ज़िला मुलतान (ग़ैर आबाई गांव)
आबाई गांव : तौंसा शरीफ़ ज़िला डेरा ग़ाज़ी ख़ान (हालिया पकिस्तान)
वालिद का नाम : धनपत राय
वालिद का पेशा : क़ोह-ए-सुलेमान के बलोच क़बाईल में तिजारत और तिब 
वालिद की वफ़ात : जूएबाज़ी की ख़सलत ने आलम-ए-इसरत और फ़ाक़ाकशी तक पहुंचा दिया। ... बलोच क़बाइल से हज़ारहां रुपए वाजिब अल वसूल थे। लिहाज़ा एक दिन खस्ता हाल बही खाता देखते-देखते इंतक़ाल फ़रमा गए। सन 1945 में।
मेरी तालीम : गवर्नमेंट हाई स्कूल तौंसा शरीफ़ - मेट्रिक पास - जमात में फ़स्र्ट।
तो यह था फ़िक्र तौंसवी का अपना बयान शुदा तारुफ़। मैं यहां जोड़ दूंगा कि रामलाल सिर्फ रामलाल नहीं रामलाल भाटिया थे। अपने पिता के बारे में बात करने में उनकी तल्ख़ी साफ़ दिखाई दे जाती है। यही तल्ख़ी आगे चलकर उनकी ज़ात का एक अहम हिस्सा बल्कि उनका पेशा भी बन गई। उनके हास्य-व्यंग में यही वो नाराज़गी है, यही वो ग़ुस्सा है जिसने रामलाल भाटिया को फ़िक्र तौंसवी बना दिया।
''मेरे जन्म पर देवताओं ने आकाश से फूल नहीं बरसाए, क्योंकि वह हब्श (इथोपिया) के राज महल पर फूल बरसाने में मसरूफ़ थे। वहां एक शहज़ादे ने जन्म लिया था। यानी जन्म से ही मेरे और देवताओं के ताल्लुक़ात कशीदा हो गए। अब तक कशीदा हैं।
यह ठीक है कि शहज़ादे और अदीब को एक ही तारीख़ और एक ही नक्षत्र में पैदा नहीं होना चाहिये। इसे आप कानून-ए-फ़ितरत का नुक़्स भी कह सकते हैं। लेकिन देवताओं का रोल भी ग़ैर शरीफ़ाना नहीं होना चाहिए था। उन्हें फूलों के इस्तेमाल का ढंग आना चाहिए था और अगर नहीं आता तो ख़ुदा को कुछ इंटेलीजेंट देवता पैदा करना चाहिएं।
मैं तौंस में पैदा न होता तो लाड़काना में पैदा हो जाता। टिम्बकटू भी कोई बुरी जगह नहीं थी। लेकिन हर जगह मुझे फ़िक्र ही कहा जाता और हर जगह मेरा बाप चौधरी नारायण सिंह का मीर मुंशी धनपत राय ही होता। जिसके घर ख़िलाफ़ तवक़्क़ो एक अदीब जन्म लेता। और देवता फूल न बरसाते। सिर्फ इस टेक्नीकल बिना पर कि मीर मुंशी की छत के नीचे डेढ़ सौ कमरे नहीं हैं सिर्फ डेढ़ कमरा है।
बीस बरस बाद मेरे बाप ने मुझ पर इंकशाफ़ (खुलासा) किया - तुम्हारी पैदाइश की ख़बर मुझे जीतू सारबान (ऊंटवाला) ने सुनाई थी तो मेरे मुंह से सिर्फ इतना निकला था - ये सातवां बच्चा है और शायद भाइयों की तरह भूखों मरने के लिए पैदा हुआ है। 
यानी मेरे वालिद (मुहतरम) के लिए मेरी पैदाइश की अहमियत सिर्फ हिंदसो (गिनती) तक महदूद थी; पांचवां, छटा, सातवां। नतीजा ये हुआ कि देवताओं के साथ-साथ हिंदसो से भी मेरे ताल्लुक़ात बिगड़ गए। आज तक बिगड़े हुए हैं। हिंदसो (गणित) को तो इंसान का मुक़द्दर नहीं बनना चाहिए।
मगर जीतू सारबान मुझे हिंदसा नहीं समझता था। बल्कि एक बच्चा समझता था, जिसमे मासूमियत होती है। वह गांव में वाहिद शख़्स था जिसने मुझे प्यार से देखा। मुहल्ले में गुड़ की टांगड़ी बांटी और इतना भी नहीं सोचा कि वह एक सस्ती और घटिया चीज़ बांट रहा है। वह सि$र्फ इस बात का कायल था कि ख़ुशी बांटनी चाहिये, चाहे वह घटिया और सस्ती ही क्यों न हो।''
फ़िक्र के इस तल्ख़ बयान से उनकी शुरूआती ज़िंदगी के बारे में ख़ासी मालूमात हासिल हो जाती है। घर में अगर हालात इतने नागवार थे तो उनका आबाई गांव तौंसा, जहां फ़िक्र का बचपन गुज़रा, वह भी किसी अभिशप्त गांव से कम न था। बकौल फ़िक्र ''...तौंसा हिंदुस्तान के पूरे मुल्क का वह गांव था जहां के बाद हिंदुस्तान ख़त्म हो जाता है। यानी हमारे गांव से दो-तीन मील पर बलोची क़बाइल, जो आज़ाद क़बाइल कहलाते थे उनका इलाका शुरू होता था।''
पंजाबी शब्द 'तौंसा' का अर्थ 'प्यास' से है. कहते हैं कि पुराने वक़्तों में इस गांव में पानी का सख़्त अकाल रहता था, सो प्यासे लोगों की इस आबादी का नाम ही पड़ गया तौंसा। स्कूल के ज़माने से ही दिल-ओ-दिमाग़ में हर वक़्त मौजूद रहती बेचैनी ने शाइरी की शक्ल इख़ि्तयार कर ली, तो रामलाल भाटिया ने सबसे पहला काम यह किया कि इस नाम को ही तलाक़ दे दी और इस गांव 'तौंस' को साथ लेकर 'फ़िक्र तौंसवी' बन गए।
फ़िक्र के भीतर एक अजब सी बेचैन रूह थी जिसे ज़माने के चलन से हर तरह की शिकायतें थीं। छोटी सी उम्र में ही उन्होने सामाजिक अन्याय और शोषण को पहचान लिया था और उससे नफ़रत करने लगे थे। सदियों से इंसानी नस्लों को भीतर ही भीतर खोखला करने वाले इस मूज़ी मर्ज़ से पहचान कराने का काम भी, जाने-अनजाने ही फ़िक्र के वालिद धनपत राय ने ख़ुद ही किया। डाक्टर मुज़फ्फर हनफ़ी से एक लंबी बातचीत के दौरान उन्होने एक कहानी बयान की है। बलोच पठानों के जिस्मानी ताकत, बहादुरी और दिलेरी की प्रचलित हज़ारों कहानियों के बीच ऐसी मासूम कहानियां इंसान के उस बुनियादी भोलपन वाले किरदार की वह हसीन झलक दिखलाती हैं, जिन्हें ज़माने पर हुकूमत करने वाले चालाक और चालबाज़ लोगों ने कहीं गुम कर दिया है।
-     मेरे वालिद बलोच क़बाइल में दुकान करते थे।
-     काहे की दुकान ?
-     जनरल मर्चेंट की। वह शरीफ़ और सादा-लौह (निश्छल) आदमी थे और क़बाइली इलाक़े में जाते थे। तो उन्होने मुझे भी कहा कि तुम भी चलो। मैं भी वहां चला गया। वहां जो मैने वाक्या देखा उनकी दुकान पर इस्तहसाल (exploitation) का, तो वहां मुझे इससे सदमा पहुंचा....बलोच आते, एक लकड़ी उनके हाथ में होती थी। उसे वह दुकानदार के कंधे पर रख देते...यूं....और कहते - देखो मेरे साथ बेईमानी मत करना। यह लकड़ी उसकी गवाह है। यह लकड़ी ख़ुदा के पास जाएगी और आपको सज़ा दिलाएगी। 
-     यानी एक किस्म की कसम दिलाते थे वो।
-     जी हां। और इससे इतना मुत्तासिर हुआ मैं।
-     यानी आपको अपने वालिद का एक्स्प्लाइटेशन भी मंज़ूर न था।
-     वहां एक हकीम थे बलोच... सैयद थे... वो और मेरे बाप दोनो मिलकर एक्स्प्लाइट करते थे। एक मरीज़ अगर हकीम साहब के पास गया तो उनने लिख दिया कि चालीस रुपए। अब चालीस रुपए वह दुकानदार जो था, यानी मेरे वालिद वो भी यही बोलेंगे। चाहे वह चालीस पैसे की ही चीज़ हो।
-     मतलब अत्तार का काम भी दुकानदार के सुपुर्द था ?
-     जी हां.
फ़िक्र के अंदर सुलगी इस बग़ावत की चिंगारी ने आहिस्ता-आहिस्ता शोलों की शक्ल इख़ि्तयार कर ली। 1934 में घर और गांव दोनो छोड़ दिए। 1944 में घर वालों ने ज़ोर-ज़बरदस्ती से शादी भी करवा दी लेकिन जिसका अपना कोई ठीया-ठिकाना न हो वह बीवी या बच्चों को कहां लेकर फिरे। सो फ़िक्र के साथ जो उस दौर में हर वक़्त साथ रहा वह थी सिर्फ उसकी शाइरी।
इस शाइरी की भी यह ख़ूबी थी कि उस नौ-उम्री में भी फ़िक्र-ए-जानां या ग़म-ए-जाना से हटकर ग़म-ए-दौरां की शाइरी थी। फ़िक्र की शायरी पहली बार मंज़रे-आम पर 1942 के आसपास ही आ पाई। उनकी एक नज़्म 'तन्हाई' लाहौर से प्रकाशित 'अदबी दुनिया' में प्रकाशित हुई थी। 1947 मे उनका पहला संग्रह 'हेवले' (साए) लाहौर से ही प्रकाशित हुआ।

तन्हाई
दूर जहां के हंगामो से
सूनी-सूनी है इक वादी
बंजर राहें सुनसां टीले
काली गहरी लम्बी दरज़ें (दरारें)
आगे-पीछे दाएं-बाएं
मायूसी की लहरें गाएं
ग़म के झूले में लहराए
एक मुसलसल साएं-साएं
चरमर-चरमर करते जाएं
रूमानी तख़्ख़युल के ढांचे
लाखों हल्की-हल्की नींदें
ऐसे आएं ऐसे जाएं
बादल के पर्दे के पीछे
चांद की आंख-मिचौली जैसे
आहों की यह तूफ़ां-ख़ेज़ी
हांप गया तन्हा फ़रियादी
दूर जहां के हंगामों से
सूनी-सूनी है इक वादी

इस नज़्म को ख़ासी दाद हासिल हुई। उन दिनो में लाहौर की साहित्यिक संस्था 'हल्का-ए-अरबाबे ज़ौक़' हर साल चुनिंदा नज़्मों का एक संग्रह छापती थी। 1943 के संग्रह में फ़िक्र की इस नज़्म को भी शामिल किया गया। इस संग्रह के विमोचन के के लिए आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता उन्हें भी दिया गया, लेकिन यहां भी फ़िक्र की सादगी उनके आड़े आ ही गई।
''...1943 में 'हल्का-अरबाब-ए-ज़ौक़' ने एक शेरी निशिस्त में उन्हें भी मद्दू (आमंत्रित) किया गया कि उस मजमूए (संग्रह) में उनका कलाम भी था। ये लाहौर के देहाती अंदाज़ में शलवार-कमीज़ और कोट पहिन कर पहुंचे। कोट की जेब पर उनकी बीवी के हाथों से कढ़ा हुआ फूल भी था। उन्होने अपना दावतनामा बताया लेकिन उनकी इस हैसियत और लिबास को देख कर किसी ने भी यह यक़ीन नहीं किया कि यही फ़िक्र तौंसवी है और इस क़दर उम्दा नज़्म उन्हीं की तख़्लीक़ है।'' (ख़्वाजा अब्दुल ग़फूर - मुल्ला दो प्याज़ा)
फ़िक्र की शुरूआत ग़ज़ल के साथ हुई लेकिन बाद को नज़्म को अपना लिया। कभी-कभार ग़ज़ल की तरफ़ भी माइल होकर कुछ शेर कह लेते थे। मसलन उनका एक बड़ा ख़ूबसूरत शेर है जो उन्होने 1957 में सोवियत रूस के राकेट 'स्पूतनिक' की आसमानी उड़ान वाली कामयाबी को लेकर लिखा था :
फ़लक से अब भी ज़मीं पर पयाम आते हैं
पयम्बरों को नहीं, अब तो आम आते हैं 
फ़िक्र तौंसवी ने अपनी शाइरी के ज़रिए बदरंग सामाजिक ढांचे पर लगातार वार किए। आस्था के नाम प्रचलित जहालतों को तोडऩे की कोशिश की। इसी वजह से उनकी शाइरी में जाम-ओ-मीना, साक़ी-पैमाना, हुस्न-ओ-इश्क़ जैसे मक़बूल तरीन अल्फ़ाज़ कम ही दिखे, सो अवामी सतह पर उन्हें ज़रा कम ही दाद मिली। 
बकौल ज़फ़र पयामी। फ़िक्र इश्क़-ओ-मुहब्बत, हुस्न-ओ-जमाल का शाइर नहीं। वह तंज़ का शाइर है। और उसकी शाइरी का यह पहलू ही उसके फ़न की जान है। वह प्यार पर तंज़ ही कर सकता है, उसकी परस्तिश नहीं कर सकता।
फिक्र की नज़्म 'महाज्ञानी', 'हेवले' (साया) की पहली नज़्म है। अपने आप में हिंदुस्तानी समाज की एक मुक्कमल तस्वीर है। मनु महाराज का समाज को चार वर्गों में बांट देना एक बहुत बड़ा इल्मिया है। मनु की इस बेहंगम फ़िलासफ़ी ने इंसानी समाज को हमेशा के लिए ऐसी ख़लीजों में बांट दिया जो अब सदियों तक पाटी न जा सकेगी। तंज़ का तेज़ नश्तर लेकर जिस तरह फ़िक्र ने मनु की इस कोशिश की तहें उधेड़ी हैं तंज़िया शायरी में उसकी मिसाल नज़र नहीं आती। फ़िक्र की यही नज़्म काफ़ी है उसे एक बहुत बड़ा तंज़िया शाइर मनवाने में। यह जो नस्र में फ़िक्र नज़र आ रहा है हमें, दरअसल यह उस सोच के मुख़्तलिफ़ पहलू हैं जो उसने 'महाज्ञानी' में पूरी तरह उजागर किए हैं। मनु पर इससे ज़्यादा कड़ा और भरपूर तंज़िया वार शायद ही कोई कर सकता हो। नज़्म का आख़िरी हिस्सा ख़ुद इस बात का सबूत है।
मनु महाराज ! तेरी रूह-ए-मुन•ज़म को सलाम
शोबदाबाज़ ! तेरे सहर-ए-मुनज़्ज़म को सलाम  (शोबदाबाज़ : जादूगर )
तेरे इदराक के हर पेंच को, हर ख़म को सलाम
तेरी उस तफ़ि्रका परदाज़ी, आदम को सलाम    (तफ़ि्रका परदाज़ी: फ़ूट पैदा करना) 
लेकिन अब देख, वह एक तीशा-ए-ख़ून-ए-रंग उठा
अब तो हमे तेरे हम, तेरे शिकंजों के ख़म
दूधिया चांद की इस वहदत-ए-नूरीं की कसम!
तोड़ ही डालेंगे अब और नहीं सह सकते।
लाहौर आकर भी फ़िक्र की ज़िंदगी कुछ सहल न हुई। यहां तरक़्क़ी पसंद अदीबों की एक जमात थी मक़तबा उर्दू, जिसके झंडे तले एक अदबी रिसाला 'अदब लतीफ़' शाए होता था। अहमद नदीम क़ासमी इसके एडीटर होते थे। फ़िक्र को वहां क्लर्क की नौकरी मिल गई। लेकिन क्लर्की के साथ रिसाले का काम भी शामिल था। सो जब क़ासमी साहब ने नौकरी छोड़ी तो फ़िक्र को ही एडीटर बनने का मौका मिल गया। 
'अदब लतीफ़' में अगर उन्हें जगह मिली तो उनकी कलमी क़ाबिलियत की वजह से वरना तो उन्हें वहां देख सबको हैरानी ही होती थी और उनके बारे में अजब तरह की राय कायम हो जाती थी। इस जगह का दो लोगों ने बयान किया है एक तो उनके बेहद क़रीबी दोस्त बलवंत गार्गी ने और दूसरे नरेश कुमार शाद ने।
''उसका नाम मेरे ज़हन में आते ही मेरे सामने सआदत हसन मंटो का चेहरा उभर आता है। क्योंकि मैने पहली मर्तबा फ़िक्र तौंसवी को मक़तबा उर्दू लाहौर में बैठे कागज़ पर कुछ लिखते देखा था। वह लिख रहा था और मैं सआदत हसन मंटो से गुफ़्तगू कर रहा था। फ़िक्रतौंसवी ने घुटनों तक की पंजाबी देहाती शलवार और कमीज़ पहनी हुई थी। उसके कान में एक छोटी सी तिलाई मटर की भी थी। रुख़्सार पर गांव की सादगी। चेहरा लम्बोतरा, सर से पांव तक एक सादा लौह  सहमा हुआ देहाती।'' (बलवंत गार्गी - फ़िक्र तौंसवी - एक चमत्कार)
और नरेश कुमार शाद कहते हैं :
''...लाहौर में जब पहले-पहल मैने उसे (फ़िक्र तौंसवीं) 'अदब लतीफ़' के दफ़्तर में देखा तो वो एक मैली सी कमीज़ और काली सी पतलून पहने हुए, लकड़ी जैसे बेजान हाथों की उंगलियों में केपस्टन का सिगरेट थामे बड़ी बेदिली से कश लगा रहा था। उसके भिंचे हुए जबड़े से जब सिगरेट का धुआं निकलता तो एक सुलगती हुई चिता का मंज़र आंखों के सामने नाचने लगता। उसकी धंसी-धंसी पसमुर्दा आंखें किसी गहरी सोच में ग़लतां-व-पेचां (डूबी-उलझी) नज़र आती थीं। बुझे-बुझे चेहरे की ज़र्दी में बड़ी ख़ौफ़नाक किस्म की बेहिसी और नाकामी रची हुई थी - कितना बे-रूह और बेजान इंसान है। शाइर है या तपेदिक का मरीज़? - उसे पहली नज़र देखते ही मेरे ज़हन में कोई दबे-दबे लहजे में पूछने लगा।''
इसी ढंग की यह बेढंगी ज़िंदगी गुज़रती चलती जाती थी कि 1947 में मुल्क का बंटवारा सामने आ खड़ा हो गया। अपने काम में डूबे रहने और बेवजह नज़रें उठाकर इधर-उधर देखने से गुरेज़ करने वाले फ़िक्र तौंसवी की नज़रें हैरत और बे-ऐतबारी से फटी की फटी रह गईं। हर रोज़ खूं-रेज़ी की कहानियों से दो-चार होना, डर-डर कर, छुप-छुप कर जीना। जीते-जीते, जीते जागतों के मरने की ख़बरें सुनना और दिल ही दिल आंसू बहाना रोज़ का मामूल हो गया। लेकिन ज़िद यह थी कि अपना लाहौर नहीं छोड़ेगे। दोस्तों ने भी हौसला दिया कि हमारे होते तुम कहीं न जाओगे। लेकिन ज़हरीली आंधी में यह हौसले क्या और इन हौसलों की बिसात क्या। एक दिन कुछ ऐसा हो ही गया कि सबके हौसले पस्त हो गए।
''फ़िक्र तौंसवी तक़सीम हिंद के फ़सादात में भी लाहौर में ही कयाम पज़ीर रहा। सभी हिंदू-सिख बाशिंदे हिंदुस्तान में आ गए मगर फ़िक्र तौंसवी मक़तबा उर्दू के दफ़्तर में ही बैठा रहा। वह कहता था, लाहौर मेरा शहर है। यहीं मेरी अदबी परदाख़्त (परवरिश) और पहचान हुई। मेरा कोई मज़हब नहीं। भागने वालों के मज़हब होंगे हिंदू-मुसलमान मगर मैं इंसान हूं और इंसान का मज़हब कोई नहीं होता। सिवाय इंसान बने रहने के।
मगर इंसान होने के बाबजूद फ़िक्र तौंसवी का चेहरा-मोहरा इस्लामी असलूब का सा था। उसे लाहौर से इश्क़ था। और चेहरे-मोहरे के इस्लामी ढंग ने उसके इश्क़ को दोबाला कर दिया था। एक बेनियाज़ सा आशिक़।
एक दिन वो दफ़्तर में बैठा था। उसके साथ उसके फ़नकार दोस्त भी बैठे थे। साहिर लुधियानवी, मुमताज़ मुफ़्ती, क़तील शिफ़ाई और अहमद राही कि अचानक तीन गुंडे अंदर आ गए। उनके हाथ में छुरे थे।
एक गुंडे ने फ़िक्र की तरफ इशारा करते हुए कहा, ''तू ज़रा बाहर आजा।''
फ़िक्र कद्रे (थोड़ा) घबरा गया। बोला, ''क्यों?''
गुंडे ने कहा, ''तू हिंदू है. हम तुम्हे क़त्ल करने के लिए आए हैं। हिंदू का हमारे मुल्क में कोई काम नहीं।''
साहिर ने एक गुंडे से कहा, ''मगर यह तो मुसलमान है।''
गुंडे ने कहा, ''हम जानते हैं इसे। इसका नाम रामलाल है।''
साहिर ने कहा, ''मगर अब यह मुहम्मद असलम हो गया है। इसने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है।''
मुमताज़ मुफ़्ती और क़तील शिफ़ाई ने भी साहिर की बात की पुरज़ोर ताईद कर दी।
गुंडा गरजा, ''हम नहीं मानते। हम तो उसे मुसलमान मानते हैं जिसे शाही मस्जिद का इमाम मुसलमान कह दे।''
साहिर ने कहा मगर यह तुमसे बेहतर मुसलमान है। इसे तो क़ुरान की आयतें ज़बानी हिफ़्ज़ हैं। क्या तुम्हे क़ुरान की कोई आयत आती है?
फ़िक्र का हौसला जैसे बड़ गया। अकड़कर बोला, ''मैं हदीस शरीफ़ का आलिम हूं। क्या तुम हदीस के मुतलिक़ कुछ जानते हो या फिर छुरा हाथ में लेकर मुसलमान बने फिरते हो?'' यह कहकर उसने चार-पांच आयतें फ़ौरन सुना दीं। कलमा शरीफ़ ख़ालिस अरबी लहजे में बोल दिया।
इस पर गुंडे थोड़ा घबराए। मगर वह फिर साहिर से बोले, ''ठीक है, लेकिन इमाम साहब का सर्टीफ़िकेट बहुत ज़रूरी है। और देख बे (वो साहिर लुधियानवी से मुख़ातिब होकर बोले) हम कल फिर आएंगे। सर्टीफिकेट इसका तुम दिखाओगे। न दिखाया तो हम तुम्हे क़त्ल कर देंगे।''
और फिर उसी रात को फ़िक्र तौंसवी को मुमताज़ मुफ़्ती के घर से कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर पहुंचा दिया गया। जहां कामरेडों ने उसे डी.ए.ए.वी कालेज के रिफ़्यूजी कैम्प में पहुंचा दिया, जहां फ़िक्र तौंसवी जो रिफ़्यूजी कहलाना पसंद नहीं करता था एक रिफ़्यूजी काफ़िले के साथ हिंदुस्तान आ गया। (बलवंत गार्गी) 
दोस्तों की मदद से फ़िक्र की जान बच तो गई लेकिन इस अफ़रा-तफ़री के माहौल में उनकी बीवी और दो साल की मासूम बच्ची रानी तौंसा में ही छूट गईं। इस मौके पर भी एक बार फिर यारों की यारी ही काम आई। उस ख़ौफ़ के माहौल में क़तील शिफ़ाई ने अपनी जान की परवाह न करते हुए इस काम को अंजाम दिया। उस बात को याद करते हुए फ़िक्र अक्सर जज़्बाती होकर आंखें नम कर बैठते थे। वो इन यादों को उस काले दौर का 'रोशन पहलू' कहते थे। एक ऐसा पहलू जिसमे मज़हब की बेबुनियाद दीवारें इंसानियत के नेक किरदार के आगे ढेर होकर गिर पढ़ती हैं।
... मेरे एक दोस्त हैं क़तील शिफ़ाई, मशहूर शायर है तो मैने उन्हें कहा कि मेरी बीवी को वहां से ले आओं। तो वहां 500 मील का फ़ासला है तौंसा तक। वह वहां अकेला गया। और ख़्वाजा सुलेमान के जांनशीं वग़ैरह थे निज़ामुद्दीन साहब। तो वह इतने नेक और भले मानस थे और उनकी जो अख़्लाक़ी कदरें थीं वह इतनी ज़्यादा बलंद थीं कि उन्होने एक केम्प बना रखा था हिन्दुओं के लिए। और उसमे उन्हें रखा था। और सब मुसलमानो से कह रखा था कि किसी हिंदू को अगर एक भी ज़ख़्म लगा तो मैं ज़िम्मेदार हूं। तो मेरी बीबी को उन्होने वहां रखा।
-     वाह क्या रोशन मिसाल है !
-     तो क़तील साहब वहां गए मेरी चिट्ठी लेकर तो ख़्वाजा निज़ामउद्दीन ने कहा कि, ''नहीं। उनकी बीबी को ब-हिफ़ाज़त मैं ख़ुद पहंचा दूंगा। मगर क़तील शिफ़ाई साहब की कुरबानी देखिए कि ... किस तरह अपनी जान ख़तरे में डाल कर वहां पहुंचे।''  (बातें फ़िक्र तौंसवी से - डाक्टर मुज़फ्फर हनफ़ी)
अब अगले मंज़र में फ़िक्र तौंसवी के भटकने की बारी थी। बीवी और मासूम बच्ची को रिफ़्यूजी केम्प्स में ढूंढने की। कई दिन के भटकाव के बाद आख़िर मिलना भी हो गया। रोना-धोना भी हुआ। एक-दूसरे को ढाढ़स बंधाने का काम भी हुआ। उसके बाद आया सबसे बड़ा सवाल जिसने मिर्ज़ा ग़ालिब को भी परेशान किया था :  ''हमने यह माना, कि दिल्ली में रहेंगे, खायेंगे क्या?''
ग़नीमत यह कि फ़िक्र तब तक दिल्ली न पहुंचे थे, जालंधर में थे। सो ज्यों-त्यों एक कमरा मिल गया। कम्यूनिस्ट पार्टी के होल टाईमर थे सो पार्टी के रोज़नामा 'नया ज़माना' में काम भी मिल गया। रोज़ाना एक तंज़िया कालम 'आज की ख़बर' भी लिखते थे। लेकिन पार्टी की तनख़्वाह में गुज़र कब किसके लिए आसान रहा कि फ़िक्र का आसान होता। सो यह तनाव भी हमेशा बना ही रहता।
लेकिन इन गर्दिशे-हालात से घबराकर भागने वाले का नाम फ़िक्र तौंसवी तो नहीं होता। सो आधी रोटी की ताकत पर ही फिक्र तौंसवी ने पूरी ताकत से इंक़लाब का झंडा थामे रखा। अमन के नारे पूरी ताकत से गुंजाता अमन का सिपाही निकल पड़ा।
1950 में ''वो आलमी अमन का अलम बरदार बनकर मैदान में खुले बंदों आ गया था। पंजाब के गांव-गांव में वो बड़ा बन जाने वाला तंज़ निगार अदीब कंधे पर अमन का झंडा लटकाए, बगल में लाऊड स्पीकर लिए, हज़ारों मील के चक्कर लगाता रहा। अमन के लिए, अमन के लिए बिल्कुल जुनूनियों की तरह।
आजकल कभी-कभी फ़िक्र तौंसवी से बात होती है तो वह कहता है; 'क्या दिन थे वो भी। पार्टी का होल टाईमर था। मगर कितना ख़ुश। िकतने ख़ुशगवार ख़्वाब। अख़बार के लिए रोज़ाना कालम। अमन का झंडा। जलसे, नारे, जो रोटी नहीं देते मगर मेरे कालम को चाहने वाले किसान मेरे घर में कभी गुड़ ले आते, कभी गोभियां, गाजरें, मकई का आटा, भैंस का दूध। अवाम की इस मुहब्बत में मैं पागल हो जाता। ऐसे पागलपन में जो ख़ुशी होती है बलवंत वह और कहीं नहीं मिलती।''  (बलवंत गार्गी)
फ़िर एक दिन 'नया ज़माना' भी बंद हो गया और फ़िक्र ने दिल्ली की राह ली। 1950 के दशक की दिल्ली में सांस लेना इतना दूभर न हुआ था जितना कि आज है। सड़कों पर चार पहिए वाली लंबी कारों के साथ चार पैर वाले घोड़े के हौसलों से दौड़ते तांगे के लिए खुली जगह के साथ-साथ दो पांव वाले इंसानों के लिए भी काफ़ी खुलासा जगहें मौजूद थीं। ट्राम और बस जैसी अवामी सवारियां भी बिना साईकल वालों को कुचले इंसानों को मंज़िल तक पहुंचा रहीं थीं। गोया भीड़ कम और जगह ज़्यादा थी। इस कम भीड़ वाली दिल्ली में फ़िक्र तौंसवी ने कुछ कदम ताल किया तो एक दिन उन्हें चलते-चलते बैठकर कमाने की जगह भी मिल ही गई। फ़िक्र का काम था रोज़ाना प्रसिद्ध उर्दू अख़बार 'मिलाप' में व्यंग का एक कालम लिखना। फ़िक्र ने कालम का नाम रखा 'प्याज़ के छिलके।'
उर्दू रोज़नामा 'मिलाप' के मालिक-संपादक महाशय ख़ुशाल चंद आर्य समाजी थे। 13 अप्रेल 1923 को अपने इस अख़बार की नींव रखने से पहले आर्य समाज के साप्ताहिक 'आर्य गज़ट' के संपादक थे। कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा वाले इस अख़बार की एडीटोरियल पालिसी कांग्रेस के हमराह होकर चलने की थी। इसके बावजूद ख़ुशाल चंद की आर्य समाजी विचार धारा के चलते 'मिलाप' को आर्य समाजी महाशयों का अख़बार कहा जाता था। तरक्की पसंद तबक्के में उसे ज़रा कम ही पसंद किया जाता था।
''तरक़्क़ी पसंदों ने फ़िक्र तौंसवी को गालियों वग़ैरह से भी नवाज़ा कि आख़िर फ़िक्र तौंसवी साला, बुर्जुआ अख़बार की छांव की तरफ़ भाग गया और इंक़लाब का साथ छोड़ गया। लेकिन दरअसल फ़िक्र तौंसवी मैदान-ए-कारज़ार में डट गया था। एक सरमाएदार अख़बार में तरक़्क़ी पसंदी का अपना बड़ा सा खंबा गाड़ दिया था। चूकि उसका कालम कारईन (पाठक) 'मिलाप' में बहुत मक़बूल हो गया था। वह जो कुछ लिखता, अपनी मर्ज़ी से लिखता। दबे-कुचले अवाम के बारे में लिखता और अवाम उस वक़्त तक 'मिलाप' नहीं ख़रीदते थे जब तक कि उसमे 'प्याज़ के छिलके' का कालम न देख लेते।
अवाम ने मजबूर किया और सरमायादार अख़बार के मालिक फ़िक्र तौंसवीं से इतना कहनी की जुर्रत भी न कर सके कि, तुम अपनी रज़ा से मत लिखा करो, हमारी रज़़ा से लिखा करो। वह आज अवाम का मक़बूल तरीन अदीब बन गया है। और यही मक़बूलियत उसके सबसे बड़ा इंक़लाब है, जो बहुत कम तरक़्क़ी पसंद अदीबों को नसीब हुआ। (बलवंत गार्गी)
यह एक हक़ीक़त है कि 'प्याज़ के छिलके' की अवामी मक़बूलियत की बराबरी करने वाली कोई दूसरी मिसाल नहीं है। इस कालम के शुरू होने के बाद 'मिलाप' के सक्र्यूलेशन में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ था। लोग अख़बार ख़रीदने से पहले जांच कर देख लेते कि 'प्याज़ के छिलके' छपा है कि नहीं, उसके बाद ही अख़बार ख़रीदते। हालत यह थी कि जिस दिन फ़िक्र किसी वजह से कालम न लिख पाते तो उस दिन अख़बार में उस कालम की जगह क्रास (ङ्ग) का निशान लगाकर छोड़ दिया जाता. उस दिन अखबार कम बिकेगा इस हक़ीक़त के चलते अख़बार का प्रिंट आर्डर भी बदल जाता। इस बेमिसाल मक़बूलियत की वजह यह थी कि समाज के उस तबक़े को जिसे अख़बारों में अक्सर जगह नहीं मिलती, वो ख़ुद को फ़िक्र के कालमों में बा-आसानी पहचान पाते थे। उर्दू की खाल खेंचकर उसमे भुस भरने के महाज़ ने तब ज़ोर नहीं पकड़ा था। देश में भाषा को लेकर रोज़ झगड़े चल रहे थे लेकिन उर्दू ज़बान और उसके अख़बारों की ख़ासी धूम थी। लिहाज़ा 'प्याज़ के छिलके' और उसके बहाने फ़िक्र तौंसवी की चर्चा घर-घर आम थी।
इस मक़बूलियत के कई सारे ख़ाके कृश्न चंदर, नरेश कुमार शाद, ज़फ़र पयामी और न जाने किस-किस ने अपनी तरह से लिखे हैं लेकिन बलवंत गार्गी का ख़ाका ज़रा पिक्टोरियल सा है।
''मैने कहा (फ़िक्र तौंसवी से), तुम्हारे हज़ारों-लाखों मद्दाह हैं। सामने सरदार कीकर सिंह का ढाबा है, वहां चाय पीते हुए कई बुज़ुर्ग 'मिलाप' पढ़ रहे हैं। एक आदमी कालम पढ़ रहा है और उसे दस आदमी सुन रहे हैं। जैसे हनुमान चालीसा का पाठ हो रहा हो ..... और फिर सामने माधो हज्जाम की दुकान है, वहां भी 'प्याज़ के छिलके' का स्टाक आता है. वहां बैठे हुए सरकारी दफ़्तरों के चपरासी और क्लर्क भी 'प्याज़ के छिलके' पढऩे की रसीली कढ़वाहट का लुत्फ़ उठाते हैं। दर्ज़ी भोलाराम की दुकान पर आने वाले गाहक भी।''
इस गैर-मामूली मक़बूलियत की वजह थी फ़िक्र तौंसवी का अपनी ज़मीन से जुड़ाव। अपनी प्रगतिशील विचारधारा में उनके पांव इतनी मज़बूती से जमे हुए थे कि ज़माने की सर्द-गर्म हवाओं के गर्दो-गुबार में जब कई सारे मज़बूत कदम लोग अपनी जड़ें छोड़ भाग रहे होते तब हर धुंध के छंटने के बाद दिखाई देने वाले मंज़र में हर बार फ़िक्र अपनी जगह कायम-दायम दिखाई दे जाते।
इस जगह इस बात को याद दिलाना लाज़िम है कि फ़िक्र तौंसवी ने जिस वक़्त पेशा-ए-सहाफ़त इख़ि्तयार किया, उस वक़्त उनके पीछे माज़ी का एक तव्वील और तल्ख़ तजुर्बों का सरमाया था.
''फ़िक्र तौंसवी अवाम और ज़मीन से जुड़े हुए एक मज़दूर सहाफ़ी (पत्रकार) थे जिन्होने मैदान-ए-सहाफ़त में कूदने से पहले अपनी ज़िंदगी में वह दौर भी देखे थे जब फ़िक्र-ए-माश (आजीविका) को दूर करने के लिए और रोज़ी-रोटी की तलाश-ए-जुस्तजू में उन्हें मुख़्तलिफ़ पेशे इख़ि्तयार करने पड़े। मिसला; क्लर्की, मुदर्रिसी, जारोबकशी (झाड़ू लगाना), दीवार पेंटिंग, रंगरेज़ी और तेल फ़रोशी वग़ैरह। इस तरह इब्तिदाई ज़िंदगी की शुरूआत भी जद्दो-जहद से हुई शायद यही वजह है कि हक़-गो सहाफ़ी बन गए।'' (रफ़ीक़ अहमद - आजकल - उर्दू - जुलाई 2015) 
रंगरेज़ी वाले अपने दौर के तजुर्बात की एक बानगी उनकी कलम से भी निकली है।
''निहायत एहतराम से यह सवाल मैने जैमिनी दास रंगसाज़ से किया, जो मुझसे आठ घंटे रोज़ाना काम लेता था। और दो आने रोज़ाना देता था। मैं उसकी भारत रंगसाज़ कम्पनी में हसीनाओं के दुपट्टे और मुअज़ज़ीन की पगडिय़ां नारंगी, गुलाबी, सुरमई रंगता था। क्योंकि मुझे भूख लगती थी और कम्पनी को इस भूख का इल्म था। दो आने में दाल-रोटी तो मिलती थी लेकिन आलू-गोभी की स्पेशल सब्ज़ी नहीं मिलती थी। ढाबे के मालिक श्रीचंद को मैने लाख समझाया कि स्पेशल सब्ज़ी के लिए मेरा मन बेहद ललचाता है, लेकिन वो कहता ''लालच बुरी बला है। शास्त्रों में इसे पाप कहा गया है। मैने सोचा शास्त्र दो आने रोज़ाना पाने वालों के लिए नहीं लिखे गए. और एक दिन बोर होकर मैने जैमिनी दास से कह दिया, ''मास्टर जी, कभी-कभी यूं लगता है जैसे मेरे आपसे ताल्लुक़ात कशीदा हो जाएंगे।'' 
वो बोला, ''कोई हर्ज नहीं। मेरे ताल्लुक़ात तो उस सिपाही से भी कशीदा हो गए हैं जो मुझसे पांच रुपए माहाना रिश्वत लेता है। तुम क्या हो? तुम को इतना शऊर भी नहीं कि नारंगी और नीला रंग मिलने से कौन सा रंग जनम लेता है -  कुर्मुज़ी (सुनहरी) या बादामी।''
मैने कहा, '' मै तो इतना जानता हूं कि थानेदार का रंग, जब करंसी नोट के रंग में मिलता है तो मछली का रंग जनम लेता है। जिसे आप हर शाम, शामू मछली फ़रोश से ख़रीद कर खाते हैं।''
यह सुनकर जैमिनी दास ने मुझे फ़हश गाली दी और मुलाज़मत से अलग कर दिया। और कहा, ''तुम दुपट्टे रंगने का फ़न कभी नहीं जान सकते। •याादा से ज़्यादा तुम पगड़ी और दुपट्टे की कोस-ओ-कज़ाह पर एक नज़्म लिख सकते हो। लिहाज़ा ऊंह !''
ऐसी ही न जाने कितनी 'ऊंह' वाले तजुर्बात की भट्टी से तपकर निकले के बाद फ़िक्र की कलम से निकला हर लफ़्ज़ आम आदमी की सख़्त-दुश्वार ज़िंदगी पर लिखे गए महाकाव्य का अंश होता। समाज की हर अनिष्टकारी प्रवृति पर वार होता। मिसाल के तौर पर उनके लिखे कालमों के यह कुछ चुनिंदा अंश और कुछ सूक्तियां।
आग
आप सब जानते हैं कि आग क्यों ईजाद हुई। इंसान इतना बुद्धू न था कि आग ईजाद करता और खाना न पकाता, पानी गरम न करता, बदन न सेंकता, कपड़े न सुखाता, लेकिन बाद में न जाने इंसान को क्या हुआ कि अचानक बुद्धू बन गया और उससे पड़ोसी के घर को आग लगाने लगा, दुश्मन की फ़सल जलाकर राख कर दी, मिट्टी का तेल बदन पर डाल कर अपने आओ को आग लगा ली और इस मक़सद के लिए एक बी जमालो भी पैदा कर दी जिसका काम फूस में चिंगारी डाल कर तमाशा देखना था। एक तरफ़ हम आग की पूजा करने लगे तो दूसरी तरफ़ इसी आग से पूजा सिखाने वाली किताबों की लाइब्रेरियां फूंक डालीं। जहां बहार आती है वहां हम आग लगाने पहुंच जाते हैं और फिर उस आग में हज़ारों-लाखों इंसानो को उठाकर फैंक देते हैं...
*****
रोटी
''रोटियां जिनके लिए सलीबी जंग़ें लड़ी गईं और जिनके लिए हिरोशिमा पर बम फैंका गया, वही रोटियां आज मुझे चांदनी चौक में दिखाई दीं और कौवे काएं-काएं करते हुए रोटियों की इस तारीख़ी लाश पर हरीसाना (लालच भरी) नज़र डाल रहे थे। इन हरीसों (लालचियों) को पहचानने में मुझे एक सेकंड भी नहीं लगा। यह सब मैले-कुचैले लोग थे, कौवे नहीं इंसान। इनमे से कई तो मज़दूर थे झलेदार, कई भिखारी, कई बीमार बूढ़े थे, मगर ज़्यादा तादाद नौजवानों की थी। यही सोलह बरस से तीस बरस तक की वह उमर जब इंसान पर बहार आती है, फूल खिलते हैं, फूल लगते हैं. वहीं इंसान एक रोटी हासिल करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। इधर से बांटिये सरदार जी, नहीं सरदार जी इधर से।''    
******
रिश्वत
मैने रुपया निकाल कर कांस्टेबल की जेब में डाल दिया, और कहा; ''लीजिए जनाब, तहज़ीब आपकी जेब में आ गई।''
वह बोला; ''क्या तुमने मुझे रिश्वत दी है?''
मैने कहा; ''रिश्वत नहीं सिर्फ काले रुपए को सफ़ेद कर दिया है''
कांस्टेबल मेरी बात पर मुस्कराना चाहता था मगर जिसकी जेब में दूसरों का रुपया हो मुस्कराहट उसके नसीब में नहीं होती बल्कि वह इंतिहाई संजीदा हो जाता है। संजीदगी और धमकी के मिले-जुले अंदाज़ में उसने कहा; ''तुम मुझे किसी शरीफ़ ख़ानदान के मालूम होते हो इसलिए इस बार तुम्हे छोड़ रहा हूं लेकिन ख़बरदार आईंदा किसी को रिश्वत दी। रिश्वत के मामले में सरकार का कानून बहुत सख़्त है।''
टीचर
टीचर क्यों खांसता है, उसकी खांसी में ख़ून क्यों आता है। इंतिहाई जलती दोपहर में, सर्दी की ब$र्फीली रातों में, बाईसकिल पर कई-कई मील का सफ़र तय करके वह ट्यूशन न पढ़ाए तो वह दो रोटियों की बजाए देढ़ रोटी से पेट भर कर उसे हसीन फ़रेब देना पड़ता है। मगर फेफड़ा फ़रेब खाने का आदी नहीं चुनांचे शदीद मुसलसल नीम फ़ाक़ाकशी और घटिया ख़ुराक खाने से आख़िर एक दिन उसकी थूक से ख़ून आने लगता है। यह तहज़ीब का ख़ून है।
'ग़रीब' रियासत से लेकर सियासत के दौर में सबसे ज़्यादा बिकने वाला 'जुमला' रहा है जिसे बार-बार दुहरा कर न जाने कितने कफ़न-चोर ख़ुद को 'ग़रीब नवाज़' के तमगों से सजा चुके हैं। लेकिन फ़िक्र तौंसवी के लिए किसी ग़रीब का दुख-दर्द किसी कारोबार या फ़र्ज़ी नारे लगाना का सामान न था। ग़रीब और उसका शोषण  फ़िक्र के सीने से बार-बार चीख़ बनकर उभरता है।
शोषण
... सारबान (ऊंट वाले) के वालिद ने किसी ज़माने में हमारे दादा साहब से अपनी बीवी के कफ़न-दफ़न के लिए कुछ रुपए कर्ज़ लिए थे। दादा साहब के इंतक़ाल पुर  मलाल के बाद मक़रूज़ (कर्ज़दारों) का बही ख़ाता वालिद साहब के विरसे में आ गया। वालिद साहब इंसाफ़ पसंद थे। इसलिए उन्होने इंसाफ़ हासिल करने के लिए सारबान पर मुक़दमा कर दिया। सारबान भी चूंकि इंसाफ़ पसंद था इसलिए उसने कर्ज़ के बदले अपनी बकरी पेश कर दी। और वालिद साहब कफ़न के बदले बकरी ले आए। सारबान के घर में यह वाहिद बकरी थी जिसका दूध उसके बच्चे पीते थे। हमारे घर आई तो उसका दूध हमारे बच्चे पीने लगे। दूध वही था सिर्फ बच्चे बदल गए थे।
*****
ग़रीब
मैने एक राह चलते शख़्स से पूछा; ''जनाब हिंदुस्तान के ग़रीब कहां रहते हैं।'' एक बेसाख़्ता कहकहा उसके मुंह से तीखे तीर की तरह छूटा। एक गला-सड़ा केला जिसे वो खा रहा था वो भी कहकहे के साथ नीचे छूटने ही लगा था। मगर उसके हाथ ने एक तेज़ हरकत से केले को गिरने से रोक लिया और बोला, ''सवाल ग़लत है। यह पूछो, हिंदुस्तान के ग़रीब कहां नहीं रहते?''
मैने सोचा एक और सवाल पूछूं, भले ही वो ग़लत निकल आए। ''अच्छा जनाब, यह बताइये कि आप भी ग़रीब हैं?'' उसने अपने गले-सड़े केले की तरफ़ इशारा किया और कहा, ''देखिए जो भी शख़्स, ऐसा केला खा रहा हो, आप उससे पूछे बग़ैर समझ जाइये कि वो ग़रीब है. हिंदुस्तान में गले-सड़े केलों की तरह ग़रीब भी आम पाए जाते हैं।''
''मगर आप तो अभी ख़ुशी से कहकहा लगा रहे थे। क्या यहां के ग़रीब कहकहा भी लगा लेते हैं?''
''हां जब भी मौका मिले, कहकहा लगाने से नहीं चूकते।''
''लेकिन ग़रीब आला और बेहतर क्वालिटी का केला क्यों नहीं खाते?''
''अपनी उससे बनती नहीं।''
''क्यों ?''
''केला जब तक गल-सड़ न जाए, हम उसे अपनी बिरादरी का बंदा नहीं समझते। चुनांचे केला जब गल-सड़ जाता है, तो हम उसे अपना भाई समझते हैं। और फिर भाई-चारे के तौर पर उसे खा जाते हैं।'' उस ग़रीब ने टेरिलिन की एक चमकीली इम्पोर्टेड कमीज़ पहिन रखी थी। मैने तंज़िया लहजे में उससे पूछा, ''क्या वो भी ग़रीब होता है जो गले-सड़े केले के साथ मैच करती हुई ऐसी इम्पोर्टेड कमीज़ पहने?''
शायद वो मुझे नालायक समझा। बोला, ''यह कमीज़ मेरे आका की उतरी हुई कमीज़ है। और उसने मुझे बतौर दान दी है। और इसलिए दी है, क्योंकि वो इस थ्योरी का कायल है कि दान दिए धन न घटे, कह गए भगत कबीर।''
इतने में तेज़ी से एक लोकल बस आकर रुकी। उस ग़रीब ने केले का छिलका जल्दी से ज़मीन पर फैंका और बस की तरफ लपका। उसके साथ ही मुसाफ़िरों का एक पूरा हुजूम भी लपका। बस आठ-दस सेकंड रुकी और फिर तेज़ी से चल दी। ग़रीब के हाथ की गिरिफ़्त कमज़ोर थी या ना जाने कोई और नामाकूल वजह थी कि वो ग़रीब गिर पड़ा और अपने ही गिराए हुए केले के छिलके से उसका पांव फिसला तो करीबी फ़ुटपाथ के पत्थर से उसका सर टकरा गया, लहू बहने लगा।
बेसाख़्ता मेरा हाथ उसकी तरफ़ बड़ा, मैं नहीं जानता यह मेरी इंसानियत थी या यह कि ग़रीबो के मुतालिक़ उसने मुझे मालूमात बेहम पहुंचाई थीं। मैने उसको सर से उठाकर बिठा दिया, और पूछा; ''तुम इस बस पर क्यों चढऩा चाहते थे?''
वो बोला; ''क्योंकि यह बस ग़रीबों के लिए सरकार ने चलाई है मगर देख लीजिए ग़रीबों की बस पर ही ग़रीब को चढऩे नहीं दिया जाता। धन्य है हमारी ग़रीब नवाज़ सरकार।''
*****
''जो लोग शिकारी कुत्ते छोड़कर टैगोर के गीतों को भम्भोड़ते हैं, उनके साथ हम अमन से कैसे रह सकते हैं? मुर्गी को तुमने पाला है लेकिन उसे नम्बरदार का बेटा थानेदार के साथ बैठकर खा जाता है। क्या हम उसके साथ अमन से रहें?''
*****
''जब हम छोटे थे तो काफ़ी ऊट-पटांग बातें सोचा करते थे। मसलन यह कि कोह हिमालया को उठाकर बहर-ए-हिंद (हिंद महासागर) में फैंक देंगे और बहर-ए-हिंद को ख़ुश्क करके वहां गेंहूं उगा देंगे। न जाने हम गेंहू उगाने की बात क्यों सोचते थे? हालांकि अंगूर भी उगा सकते थे। लेकिन गांव का नम्बरदार कहता था कि गेंहू के इर्द-गिर्द की हर चीज़ घूमती है। नम्बरदार की घोड़ी, पटवारी की सिल्की पगड़ी, पुजारी के माथे का तिलक, तहसीलदार का चाबुक हर चीज़ गेंहू के गिर्द रक़्स करती है। हता कि (यहां तक कि) कोहे हिमालाया भी गेंहूं के बीच से उगा खड़ा है।
लिहाज़ा हमारे दिलो दिमाग पर गेंहूं की ख़ासी धाक बैठी हुई थी। हिमालया से भी ज़्यादा, बहर-ए-हिंद से भी ज़्यादा, नम्बरदार की घोड़ी से भी ज़्यादा।''
*****
''...हम एक सहमी हुई मगर संजीदा तहज़ीब के नुमाइंदा हैं। सच का प्रचार करते हैं मगर सच कहने से कन्नी काट जाते हैं। हम चोर को भी चोर नहीं कहते। मुबादा वह किसी वज़ीर का पी.ए. न निकल आए।''  (मेरा पहला और आख़िरी सदारती ख़ुत्बा)
*****
''एक परेशान बूढ़े ने ख़ुदा से दुआ मांगी - अल्लाह तआला ! मेरे लिए मौत भेज दे।''
दरवाज़े पर खट-खट हुई। बूढ़े ने पूछा - ''कौन है?''
जवाब आया - ''मौत हूं। आपने मुझे अभी बुलाया था।''
बूढ़ा घबरा गया। बोला, ''मैने तो अपने बेटे को बुलाया था।''
जवाब आया, ''मैं आपका बेटा ही तो हूं।''
******
''जनाज़ा बड़ी नेचुरल चीज़ है। बशर्ते कि दूसरों का हो। मिसला हमारा सियासी लीडर बूढ़ा हो जाए, हाथ और लाठी दोनो ब-यक-वक़्त कांपने लगें तो ख़िदमते क़ौम में उसका एतक़ाद और भी पुख़्ता हो जाता है और जनाज़े में एतक़ाद कम हो जाता है। हालांकि क़ौम अपने मुस्तक़बिल की कसम खाकर उससे बार-बार वादा करती है कि हम आपके जनाज़े में लाखों की तादाद में शरीक होंगे, आप जनाज़े की तरफ़ कदम तो बढ़ाइये। मगर लीडर इसरार करता है कि मैं वज़ीर-ए-आज़म बने बग़ैर जनाज़ा तो नहीं उठवाऊंगा।
जनाज़ा नेचुरल चीज़ है लेकिन लीडर नेचुरल बन कर रहना चाहता है। वज़ीर-ए-आज़म बन कर रहना चाहता है।'' (बूढ़ों का साल)
****** 
फ़िक्र तौंसवी की ''लुग़ात फिक्री'' यानी फ़िक्र की डिक्शनरी से कुछ नमूने देखिए;
-    इलेक्शन : एक दंगल जो वोटरों और लीडरों के दरमियान होता है और जिसमे हर बार लीडर जीत जाता है और वोटर हार जाता है।
-    इलेक्शन पिटीशन : एक खम्बा जिसे हारी हुई बिल्ली नोचती है
-    वोट : च्यूंटी के पर बरसात के मौसम में निकल आते हैं
-    साईकल : क्लर्क बाबू की दूसरी बीवी
-    बेरोज़गारी : इज़्ज़त हासिल करने से पहले बे-इज़्ज़ती का तजुर्बा
-    सचाई : एक चोर जो डर के मारे बाहर नहीं निकलता
-    लीडर : दूसरे के खेतों में अपना बीज डाल कर फ़सल उगाने वाला और बेच खाने वाला
-    जो सरकार अवाम से हर वक़्त क़ुरबानी का मुतालिबा नहीं करती, वह ख़ुद एक दिन अवाम के हाथों क़ुरबान हो जाती है।
सरकार और साहित्यकार
सरकार और साहित्य के रिश्तों को लेकर कमोबेश हर विधा में ख़ूब लिखा गया है। फ़िक्र तौंसवी ने भी लिखा है, लेकिन अपने बेहतरीन अंदाज में। इस जगह पुलिस सरकार का चेहरा है और एस.एच.ओ. का एक आख़िरी जुमला, तमाम सरकारों के संदर्भ में एकदम सच्चा और साफ़-गो बयान है। हमारे आज के दौर में तो यह जुमला इस तरह हक़ीक़त में बदलता दिखाई दे रहा है कि इस बात का शुबहा होने लगता है कि फ़िक्र तौंसवी का एस.एच.ओ शायद आज मुल्क का हाकिम बन बैठा और अपने बरसों पुराने फ़लसफ़े को लागू कर दिखाने की कोशिश में है। यह वाक्या मैं बशुक्रिया फ़िक्र साहब के एक दोस्त और एक मद्दाह जनाब के.के.खुल्लर के ज़रिए सुना रहा हूं।
-    पुलिस का नाम लेते ही मुझे जालंधर का एक वाक्या याद आ गया। तक़सीम मुल्क के बाद की बात है। दीवाली के दिन थे। शहर में जूओं का ज़ोर था। पुलिस गश्त लगा रही थी और दस नम्बरियों को को पकड़-पकड़ कर अंदर कर रही थी। कुछ नौजवान अदीबों ने रेनक बाज़ार में एक बरसाती किराए पर ली हुई थी। हर शाम वहां बज़्म-ए-सुख़न आरास्ता होती थी। शाइर अपनी नज़्में, और अफ़साना नवीस अपनी नई कहानियां सुनाते थे। तरक़्क़ी पसंद तहरीक़ अपने जोबन पर थी,  दरअसल नया मोड़ ले रही थी। निज़ाम हैदराबाद और क़ासिम रिज़वी अख़बारात में बहुत बुरी तरह छाए हुए थे। कोई कहता था निज़ाम पाकिस्तान में जाएगा, कोई कहता था हिंदुस्तान में आएगा। ग़रज़ यह कि जितने मुंह उतनी बातें।
    ऐन उस वक़्त जब एक तरक़्क़ी पसंद शाइर अपनी नई नज़्म जिसमें हिंदुस्तान के नए निज़ाम का ज़िक्र था, सुना रहा था, पुलिस ने छापा मारा। जब सिपाहियों ने देखा कि वहां जुआ से भी ज़्यादा बड़ा जुर्म हो रहा है तो उसने तैश में आकर कहा : ''चलो पुलिस स्टेशन!''
    इस मक़ाम पर मैं वाज़ेह कर देना चाहता हूं कि फ़िक्र साहब उस वक़्त नौजवान थे और शाइरी करते थे। जिस तरक़्क़ी पसंद शाइर का ज़िक्र मैने ऊपर किया है वह फ़िक्र तौंसवी ही थे।
    ...फ़िक्र तौंसवी यक-लख़्त ख़ामोश हो गए। चेहरे पर एक निहायत ही मसनूई हंसी लाते हुए और अपनी एनक का फ्ऱेम ठीक करते हुए संतरी से बोले, ''मलिक साहब (जब पुलिस आफ़ीसर का नाम न आता हो तो मलिक साहब बिल्कुल फ़िट बैठता है।) आपको शायद ग़लत फ़हमी हुई है। हम तो शाइर लोग हैं।''
    फ़िक्र साहब के लहजे में इतना दर्द और 'तयामत' थी कि ऐसा लगता था जैसे कोई कह रहा हो कि हम तो सोसाइटी (समाज) के मिम्बर ही नहीं, शाइर जो ठहरे...
    ''यह सब बातें थाने में होंगी'', सिपाही ने बड़ी हिकारत से कहा।
    संतरी बादशाह सबको पटेल चौक की चौकी पर ले गया। एस.एच.ओ. के सामने जब पेश हुए तो सिपाही ने कहा, ''जनाब यह लोग निज़ाम हैदराबाद के हक़ में नज़्में पढ़ रहे थे।''
    फ़िक्र साहब और फ़िक्रमंद हो गए। जवाबन अर्ज़ किया; ''जनाब हम लोग आने वाले हिंदुस्तान के निज़ाम का ख़्वाब देख रहे थे। हम शाइर हैं। एक-दूसरे को अपनी-अपनी नज़्में सुना रहे थे। क़ासिम रिज़वी से हमारा कोई ताल्लुक़ नहीं।''
    एस.एच.ओ ने ग़ुस्से में आकर दो-चार की बजाय छह-सात काजू खा लिए और कहा; ''हिंदुस्तान आज़ाद हो गया है। अब नज़्में, ग़ज़लें, अफ़साने लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। अगर कोई ज़रूरत हुई तो गवर्नमेंट यह चीज़ें ख़ुद लिख लेगी। जाइये आईंदा ऐसी हरकत मत करना।''
फ़िक्र उस दौर के अदीब रहे जिस दौर अदीब के पास कार तो दूर स्कूटर के सपने भी अक्सर बमुश्किल ही आते थे। लिहाज़ा ज़रिया-ए-आमद-ओ-रफ़्त सरकार की बसें ही थीं। इन बसों को बारे में फ़िक्र का एक बड़ा मशहूर फ़िकरा है कि ''इस शहर दिल्ली में मेरे 30 साल गुज़र गए। इनमे से 15 साल डी.टी.सी की बसों के इंतज़ार में गुज़र गए और बाकी के पंद्रह सोशलिज़्म के इंतज़ार में।''
जिस उर्दू शाइरी में माशूक़ के इंतज़ार के मज़े को ज़िंदगी का हासिल तक मान लिया गया हो, उसी उर्दू के शाइर को जिस चीज़ के इंतज़ार करते ज़िंदगी का इतना सारा वक़्त गुज़ारना पड़ा हो उस शय से इश्क़ न हो यह मुमकिन ही नहीं, लिहाज़ा फ़िक्र को इन बसों से जितनी शिकायतें थी उतना ही इश्क़ भी था। इसी वजह से उन्होने उम्र भर इन बसों से किसी माशूक़ा का का सा इश्क़ किया और उम्र भर ही इंतज़ार किया और उम्र भर उसे याद करते हुए आंहें भी भरी, शिकवे भी किए और खुलकर इसका इज़हार भी किया।
''फ़िक्र साहब की ऐनक का शीशा कई बार चलती बस पकडऩे की कोशिश में टूट चुका है। कई बार उनकी पतलून घुटने से फट गई है और कई बार माथे से ख़ून बहा है। और कई बार घर पहुंचने की बजाए अस्पताल पहुंच कर डाक्टर से ज़लील हुए हैं। बस के इंतज़ार में, जो उन्हें सोशलिज़्म से प्यारी है। इस इंतज़ार और हवादिस ने फ़िक्र साहब की बीनाई तो कमज़ोर कर दी है लेकिन उनकी बसीरत (समझ) और गहरी हो गई है।'' (के.के.ख़ुल्लर)
इसी तरह बसों में सफ़र करते-करते आधी उम्र गुज़ारने वाले फ़िक्र तौंसवी उर्फ रामलाल भाटिया का दुनियावी सफ़र पूरा हो गया। असल में वह माह अगस्त के आख़िरी दिनों में घर की सीढिय़ों से गिरकर अस्पताल के बिस्तर के हवाले हो गए थे। 12 सितम्बर 1987 को अस्पताल से ही अगले सफ़र पर निकल गए।
फ़िक्र के बेहद क़रीबी दोस्त मुमताज़ मुफ़्ती के लफ़्ज़ों में :
''ज़िंदगी में उसे कुछ भी रास नहीं आया। ग़ुरबत रास न आई, शाइरी रास न आई, अदब रास न आया। शुहरत रास न आई। मज़हब रास न आया। कम्यूनिज़्म रास न आया। कामयाबी रास न आई। ऐसा लगता है जैसे उसे नाकामी से इश्क़ था।''

फ़िक्र की पुस्तकें :
-    हेवले - 1947 - शाइरी
-    छटा दरिया - गद्य- 1949
-    तीर नीमकश - 1953 - हास्य-व्यंग
-    प्रोफ़ेसर बुद्धू -  1954
-    माडर्न अल्लादीन , खद-ओ-खाल, सातवां शास्त्र - 1956
-    हम हिंदुस्तानी - 1957
-    बदनाम किताब - 1958
-    आधा आदमी  - 1959
-    आख़िरी किताब - 1961
-    फ़िक्रनामा - 1966
-    प्याज़ के छिलके - 1972
-    छिलके ही छिलके - 1973
-    फ़िक्रियात - 1982
-    घर में चोर - 1983
-    मैं - आप बीती - पहला भाग - 1987
-    मेरी बीवी - आप बीती - भाग दो - 1987
-    हिंदी में 'वारंट गिरफ्तारी' और कुछ अन्य पुस्तकें प्रकाशित
 


Login