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जनवरी 2018

दोहरी औपनिवेशिकता : सनातनवादी-साम्राज्यवादी

प्रकाश चंद्रायन

पहल शुरुआत




भारतीय विवेक संप्रति अविवेक से कठिन संघर्ष कर रहा है। यह युद्ध आकस्मिक नहीं सतत् है। यह मोर्चाबंदी अनायास नहीं सायास है। विगत अनेक सदियों को छोड़ दें और संपूर्ण बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों को गहराई से परखें तो स्पष्ट दिखता है कि मानवविरोधी कृतध्नताओं का सुव्यवस्थित अभियान स्वघोषित सनातनवादियों द्वारा भारत (उपमहाद्वीप) में अबाध जारी रहा है। रणनीतिक-कार्यनीतिक तौर से सतह पर कभी कम कभी ज्यादा दिखता है, परंतु इसकी भीतरी सघन सक्रियता हमेशा रही है। कभी यह प्रचंड दिखता है, संप्रति प्रचंडतर और आगे प्रचंडतम होगा, यदि सुदृढ़ दीर्घकालीन और सतत् विकल्प की तैयारी न हो? यह स्वाभाविक है कि इस सनातनवादी आंधी में ऐसे वैचारिक आधार की तलाश की जाए, जो आवश्यक लक्ष्यों और संघर्षों को जानने-सोचने-समझने का रास्ता देते रहे हैं और आगे दें। इस कोशिश में भगत सिंह के विचार और कर्म की प्रासांगिकता अनपेक्षित नहीं है।
आंतरिक औपनिवेशिकताएं
यों तो बीसवीं सदी के भारत में अनेक नए विचारों के साथ अनेक राष्ट्रनायक हमारे जीवन में हस्तक्षेप कर आंदोलित करते हैं। जाहिर है कि वह बाह्य औपनिवेशिक भारत था, इसलिए सभी राष्ट्रनायकों और प्रयोगों का मूल स्वर विदेशी औपनिवेशिकता का विरोध रहा। स्वाधीन भारत के बारे में सबकी अलग-अलग सोच थी और रास्ते भी। वह विभिन्न विचारों, अभियानों और प्रयोगों का दौर था। इन अग्रणियों में बिना स्पर्धा, तुलना और क्रम निर्धारण के यह साफ न•ार आता है कि एक वैचारिक मोड़ पर भगत सिंह सबसे अलग हैं, जब वह यह बताते हैं कि मैं नास्तिक क्यों हूँ? यानी नास्तिकता की अनिवार्य सार्थकता क्या है। इस सुचिंतित उद्घोषणा और व्याख्या के साथ वे यह स्पष्ट करते हैं कि सिर्फ विदेशी औपनिवेशिकता से मुक्ति ही समग्र या साक्षेप मुक्ति नहीं है बल्कि भारत में हजारों सालों से जो आंतरिक औपनिवेशिकताएं हैं, उनसे भी मुक्ति आवश्यक है। वरना, सनातनवाद इसे भी निगल जाएगा। धर्म-पंथ, जाति-वर्ण, आस्तिकता-आध्यात्म, संस्कृति-सभ्यता, मिथक-आस्था, पूर्वपुनर्जन्म, पाप-पुण्य, कर्मकांड-नियति, श्रेष्ठताग्रंथि-छद्म विज्ञान, आर्थिक-वाणिज्यिक-हुनर-श्रम यानी उत्पादन के स्रोत-कर्म और लोकज्ञान का उत्तराधिकार आदि अनेक जीवन-जड़ सत्ताओं का इस्तेमाल आंतरिक औपनिवेशिकताओं को बनाए रखने के लिए भारत में सहस्राब्दियों से हो रहा है। उनमें किसी एक के खात्मे से संपूर्ण औपनिवेशिकताओं का खात्मा नहीं हो जाता, क्योंकि सभी परस्पर अवलंबित, अभिन्न और क्रमबद्ध हैं। एक-दूसरे के सहयोग से यह सनातनवादी औपनिवेशिकता का न केवल हमारे जीवन को, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के समय को निगलती चली आ रही है और निगल रही है। इस विषम पृष्ठभूमि में जैसे ही भगतसिंह 'मैं नास्तिक क्यों हूं' कहते हैं, वे एक झटके में अंतर्बाह्य सभी सनातनवादी औपनिवेशिकताओं से मुक्त होकर उसी क्षण विवेकवादी मुक्तिवाद के बतौर सबसे अलग और आगे खड़े हो जाते हैं। इस स्थान पर उनके समक्ष शीर्षस्थों में कोई नहीं है।
आधे-अधूरे प्रयोगों के अंतर्विरोध
इस विश्लेषण को किसी के प्रति अनादार या छिद्रान्वेण के तौर पर नहीं, सिर्फ संदर्भ और सबक के बतौर देखें तो कई धुंधलके मिट जाते हैं। गांधी वर्ण और ईश्वर को मानते थे। यानी सनातनवादी सत्ता-औपनिवेशिकता में उनका विश्वास था। 'ईश्वर सत्य है' मानने वाले गांधी, गोपाराजू रामचंद राव 'गोरा' से संवाद के बाद 'सत्य ही ईश्वर है' तक पहुँचते हैं। 'सत्याग्रह' और 'सत्य के मेरे प्रयोग तक बढ़ते हैं लेकिन प्रार्थना सभा, रामराज्य और सच्चा हिन्दू होने तक उनका मन रमता है या अटक जाता है। स्पष्ट है कि उनकी मनोरचना एक तय मनोलोक में निश्चित रहती है। बाद में उन्होंने नास्तिक गंगास्वामी से स्वीकार भी किया कि वे राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। मूलत: वे धर्म और समाज सुधार के लिए चले थे। राजनीतिक परिस्थितियां स्वयं उनके मार्ग में आती गईं और वे बेमन राजनीति में खिंचते चले गए। यदि वे बेमन राजनीति न करते और पूरे मन से धर्म और समाज सुधार के लिए काम करते तो हिन्दू धर्म का परिदृश्य बदलता। गुणात्मक न सही मात्रात्मक ही सही। यदि परिदृश्य न भी बदलता तो भी सनातनवाद का जड़ मानस और चरित्र तो उजागर होता। आत्म निरीक्षण के प्रति उनका द्वन्द्व या नकार तो प्रकट होता। लेकिन गांधी का रक्षात्मक होना उस सनातनवाद को बचने का अवसर दे गया, जो आज फिर एक बार विकराल मौजूदगी है। यहां इस तथ्यसत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि गांधी हरक्षण पूरे मन से बहुआयामी राजनीति करते रहे, भले ही वह इसे बेमन राजनीति कहें। धर्म और समाज राजनीति निरपेक्ष कभी नहीं रहे। दूसरी ओर, भगत सिंह भी पूरे और सच्चे मन से न केवल घोषित राजनीति करते हैं, बल्कि सनातनवादी औपनिवेशिकता से मुक्ति का बीज भी बोते हैं। वह भी आर्यसमाजी और सिख पारिवारिक पृष्ठभूमि में आस्तिक और ईश्वरवादी थे लेकिन, क्रमश: वैचारिक रूपांतरण ने उनके व्यक्तित्व और मनोरचना का नवोन्मेष किया और अंतत: विवेकवादी इंसान बने। नास्तिक तो पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर भी थे लेकिन, 'आत्मसम्मान आंदोलन' की मजबूती और ब्राह्मणवादी संस्कृति के वर्चस्व से मुक्ति के लिए वह उन द्रविड़ जातियों के संगठन की ओर उन्मुख होते हैं जो हिंदू धर्म की तलछट में धकेले गए हैं। अप्रत्यक्षत: वे भी जातिवर्ण केंद्रित सनातनवाद की सीमा में कैद हो जाते हैं क्योंकि वर्ण-जाति की जटिल और दमनकारी संरचना पर ही तो हिन्दू धर्म अड़ा-खड़ा है। 'ईश्वर का अंत' शीर्षक संपादकीय (विदुलथई-17/12-1969) में पेरियार ने लिखा कि हम तमिल (द्रविड़) हिन्दू धर्म को अपना धर्म मानते रहे हैं, यह अपने आप में एक बहुत बड़ी चूक है। एक अन्य प्रतिगमन भी देखें। विदेशी औपनिवेशिकता से लड़ते-लड़ते अचानक अरविंद आध्यात्मिकता में मोक्ष ढूंढने लगते हैं। ध्यान रहे कि 'रेडिकल ह्यूमेनिस्ट' मानवेंद्रनाथ राय ने अध्यात्मवाद को आध्यात्मिक औपनिवेशिकता करार दिया है। इस आध्यात्मवाद और रहस्यवाद का कुहरीला परदा इतना घना है कि हिन्दी साहित्य (शायद समग्र भारतीय साहित्य: में ईश्वरविहीन आध्यात्मिकता, धार्मिक लालित्य, आध्यात्मिक उत्क्रांति, मिथकीय आख्यान, आस्तिकता का वृतांत और पुनरुत्थानवादी रुझान का सनातनी मनोविलास कई साहित्यिक वादों-प्रवृत्तियों को लील लेता है। अन्य कलाएं भी इसी रुझान की अंध सहयात्री हैं क्योंकि इसे बाजार का सशक्त समर्थन है। प्रसिद्ध चित्रकार सूजाँ का विचार था कि भारतीय कला हिन्दू कला है। बावजूद इसके हिन्दू मिथकों का चित्रण कर मकबूल फिदा हुसैन हिन्दुत्व की सांस्कृतिक 'लिंचिंग' से बच नहीं सके। भारतीय न्याय पालिका का महत्वपूर्ण न्यायदेश भी उन्हें अभय नहीं कर पाया। आगे देखें डा. भीमराव आंबेडकर दशकों तक हिन्दू धर्म की सनातनी क्रूरताओं पर प्रखर प्रहार और तार्किक बहस करते हुए अंतत: धम्मंशरणम् के आग्रही हो जाते हैं। इसे हिन्दी के चिंतक-आलोचक धर्मवीर ने भूल और भटकाव कहा है। धर्मवीर बौद्ध धम्म की जगह आजीवक धर्म को वरीयता देते हैं। यहां विचारणीय है कि कोई भी धर्म मानव दमन की विश्वव्यवस्था से अलग कहाँ है? यह शोध का विषय है। धर्म अंतत: धार्मिक उपनिवेश ही है, जिसमें मानवीय विवेक की रक्षा नामुमकिन है। पुरोहिती-सामंती-महाजनी वर्चस्व के इस सनातनी जाल को अब कारपोरेट और विश्वपूंजीवाद ने भी प्रिय औजार बना लिया है। इसलिए पूंजी की छाया में गॉडमेनों की आपराधिक और लुंपेन तादाद निरंतर बढ़ रही है। इसके फैलाव में कारपोरेट चालित दृश्यश्रव्य माध्यम और मीडिया भी बढ़चढ़कर सहभागी है। और आगे देखें। राममनोहर लोहिया भी कोई कर्मकांडी हिन्दू नहीं थे लेकिन,सनातनी मिथकों के मोह से मुक्त नहीं हो पाए। मिथकीय औपनिवेशिकता के प्रतीकों का ऐसा मोहक और ललित पाठ वे करते हैं कि उसे पढ़ते हुए उदार हिन्दू मंत्रमुग्ध हो जाता है। उनके मिथिहासिक और सांस्कृतिक निबंधों के बारे में कतिपय सनातनवादी प्रचारक कहते भी हैं कि लोहिया का सांस्कृतिक मानस सनातनी मूल्यों का मानस है। इसे पुष्ट करने के लिए 'गांधी-लोहिया-दीनदयाल' पुस्तक भी लिखी जाती है। हालांकि, यह सनातनवादियों की उथली दृष्टि है और इस कथन से सभ्यता समीक्षक लोहिया को विरुप, अनुकूलित और समायोजित नहीं किया जा सकता। यहाँ उल्लेखनीय है कि लोहिया धर्म को दीर्घकालीन राजनीति और राजनीति को अल्पकालीन धर्म कहते हैं। जाहिर है कि इस मान्यता में राजनीति और धर्म का साझा झांकता है। हम यह भी देख सकते हैं कि वर्चस्ववादी मिथकों के अतिवाद से लोक मिथकों को निरंतर अपमानित किया जा रहा है। यह मिथकीय आक्रमण है, जिसे राज्य का मौन समर्थन है। सनातनवादियों को दूसरी रणनीति भी कम धूर्ततापूर्ण नहीं है। नास्तिक होने के कारण आचार्य नरेन्द्रदेव उस फैजाबाद-अयोध्या क्षेत्र से एक कांग्रेसी महंत द्वारा संसदीय चुनाव में हरा दिये जाते हैं, जो अनेक दशकों से सनातनवादियों का युद्धस्थल है। अनीश्वरवादी-तर्कवादी नरेंद्रदेव के संसदीय जीवन का अवसान इस तथ्य का संकेत तो नहीं कि भारतीय संसदीय लोकतंत्र में नास्तिक बुद्धिवादिता की उपस्थिति असह्य है। तभी तो संवैधानिक शपथ समारोहों में संविधान की शपथ की जगह ईश्वर के नाम शपथ की गूँज रहती है। अदालती कार्यवाही में भी संविधान की जगह धर्मग्रंथों पर हाथ रखकर सच की शपथ ली जाती है। इससे स्पष्ट है कि संविधान के बरक्स धर्म का दर्जा ऊंचा है। अन्यथा, किसी न्यायालय परिसर में मनु, प्रत्यक्ष कर अकादमी में कौटिल्य और लोकतांत्रिक संस्थानों में किसी राजा (छत्रपति) की मूर्ति स्थापित नहीं होती। संवैधानिक संस्थाओं को सनातनवाद द्वारा निगल लेने के ये उदाहरण हैं। संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में घुसकर सनातनवाद-साम्राज्यवाद की मुक्ति नीतियां नेहरू की मिश्रित-साझा और कल्याणकारी सपनों और प्रयोगों को 24 जुलाई 1992 को निगल चुकी है और जो बचा है वह मुक्त पूंजीवाद के समर्थक रघुराम राजन के शब्दों में 'इलेक्टेड ऑटोक्रेट' चालित तंत्र है? कुछ अन्य उदाहरण देखें। मोहम्मद अली जिन्ना भी अंधधर्मी नहीं थे। भगतसिंह की शहादत पर तत्कालीन धारा सभा में शायद ही किसी नेता ने वैसा विचारवान और स्तरीय व्याख्यान दिया है लेकिन, मजहबी द्विराष्ट्र सिद्धांत की जिद में वे भी अंतर्बाह्य औपनिवेशिकता और सत्ता के अंधकूप में समा जाते हैं। धर्मराष्ट्र के समविचारी विनायक दामोदर सावरकर भी नास्तिक थे। 1857 की राज्यक्रांति के प्रथम पाठकर्ता थे, जबकि गांधी 1857 का भूले भटके भी उल्लेख नहीं करते। अति का अंत देखिए कि सावरकर की नास्तिकता अंतत: सनातनवादी धर्मसत्ता के आगे घुटने टेक देती है और वे सैन्य हिंदुत्व के सूत्रधार बन जाते हैं। जाहिर है कि सर्वग्रासी सनातनवादी मनोक्रिया अपना काम कर जाती है। यह क्रिया एक घातक जीवाणु की तरह मनोरचना में संस्कारों की आड़ लेकर छिपी रहती है और किसी निर्णायक क्षण में हमलावर हो जाती है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु 'सांइटिफिक टेम्पर' के पैरोकार थे। वैज्ञानिक संस्थानों की श्रृंखला स्थापित करते रहे लेकिन, अपनी वसीयत में कहते हैं कि उनकी राख हिमालय की श्रृंखलाओं, देश के खेत-खलिहानों और गंगा में बिखेर दी जाए और प्रवाहित की जाए। भारतीय राज्य जनता के पैसे से यह कर्मकांड करता है। हालांकि, मृत्यु से चौंतीस (34) वर्ष पूर्व 1930 में प्रसिद्ध इतिहासकार विल ड्यूरां को एक पत्र में नेहरू ने लिखा था - 'विज्ञान और तार्किकता में मेरा विश्वास रहा है। अब भी मैं इनमें विश्वास करता हूं लेकिन, कभी-कभी मुझे लगता है कि इनमें कुछ कमी है। जीवन अन्य ताकतों से भी संचालित लगता है।' यही सनातनी मनोभूमि है जो दबे-छिपे सक्रिय रहती है। देश के प्रथम राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद 1953 में काशी के सौ पंडों का पदप्रक्षालन करते हुए भारतीय संवैधानिक राज्य को नीचे गिरा देते हैं। इस समय राममनोहर लोहिया ने कहा था, 'इस आधार पर कि कोई ब्राह्मण है, उसके पैर धोने का मतलब होता है जाति प्रथा, गरीबी और दुख-दर्द को बनाए रखने की गारंटी देना।' राष्ट्रपति की हैसियत से वे एक धार्मिक-मिथकीय प्रकाशन संस्थान के सूत्रधार को देश का सर्वोच्च सम्मान स्वीकारने का अनुरोध भी करते हैं। समग्रत: बहैसियत राष्ट्राध्यक्ष वह क्या संदेश देते हैं? नेहरु का प्रिय एक सनातनवादी मुख्यमंत्री पांचवें दशक में अयोध्या में सांप्रदायिक साजिश की छूट देकर संविधान और राज्य की गरिमा का हनन करता है? एक राजनीतिक दल और विचारधारा को मुख्यधारा में स्वीकृति दिलाने के लिए राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण पर उंगली उठाने के साथ 'जय जवान जय किसान' के राष्ट्रवादी नारे के भीतर सैन्यवाद और कृषि-पूंजीवाद के सूत्रधार देश के दुसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पर भी उंगली उठनी चाहिए कि उन्होंने किस सनातनी मन के अंतर्गत दिल्ली की यातायात व्यवस्था और राजपथ पर परेड में एक अर्धसैन्य सं$गठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ को शामिल कराया था। इससे किस विचारधारा को लोकवृत में स्वीकृति दिलवाई गयी और उसका राजनीतिक संगठन दिल्ली की नगर सत्ता पर काबिज हो गया। भारतीय संसद पर 1966 में गोरक्षा के बहाने परजीवी सनातनवादी झुंड ने जो हमला किया था, उससे जाहिर हुआ कि सनातनवाद को संवैधानिक संसद नहीं, धर्मसंसद चाहिए। इन सनातनवादी गतिविधियों में भारत के संकट को देखा जाना चाहिए। यह संकट दोहरा है - एक, सनातनवादी औपनिवेशिकता और दूसरा, साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता। दोनों के तार जुड़े हैं। दलाल स्ट्रीट और वाल स्ट्रीट कभी होली वार, धर्मयुद्ध और जिहाद से नहीं लड़ेगा।
मानसिक जीवाश्मीकरण
विश्लेषण की स्पष्टता के लिए जिन नामों का संदर्भ दिया गया है, वे सभी अलग-अलग प्रयोगों के प्रयोगधर्मा हैं लेकिन, उनके प्रयोग उन अंतर्विरोधों से ग्रसित हैं, जो कहीं न कहीं भारतीय मन की मुक्ति में असाधारण चूक करती हैं। ये चूकें देखने में साधारण लगती हैं, परंतु विवेकीकरण को निर्णायक क्षति पहुंचाती हैं। इससे सनातनवादी औपनिवेशिकता को बचने और मजबूत होने का मौका मिलता है। अमूमन, परंपरा के संरक्षण-पोषण की आड़ में सनातनवाद भावावेश की बारूदी सुरंगें बिछाता रहता है। भावी पीढिय़ां जाने-अनजाने सनातनवाद की गुलामी को सामान्य क्रिया और सहज अंग मान लेती है। इस गुलामी में सनातनवादी उपसत्ताओं का योगदान तो है ही, इसमें सनातनवादी मूलाधारों यानी मूलसत्ता की भी निर्णायक और यथास्थितिवादी भूमिका है। उत्पादन के तमाम स्रोतों, गतिविधियों और सम्बंधों पर सनातनवादी उत्तराधिकार निर्णायक है, जिससे गत्यात्मकता और नवाचार असंभव हो जाता है। परिणाम यह है कि 84 फीसदी राष्ट्रीय संपदा पर 30 फीसदी परिवारों का आधिपत्य है। यह भी सनातनवादी गुलामी की मूलसत्ता-उपसत्ता का आधार है। यही गुलामी साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए भी उर्वर जमीन मुहैया करती है। एक गुलामी दूसरी गुलामी के लिए अनुकूल होती है। नतीजा अैर नजारा सामने है। एक ईस्ट इंडिया कंपनी गई। हजार कंपनियां, वित्तीय एजेंसियां और विश्व पूंजीवाद की नियामक संस्थाएं हमारी छाती पर बैठ गईं। हमारा नियमन करने लगीं। वे इसलिए घुसपैठ कर गईं क्योंकि सदियों पुरानी मनोगतवादी विधानों से भारतीय मन (अवचेत-अचेतन) को मुक्त नहीं किया गया। 'एपल' के मुख्य कार्याधिकारी टिम कूक ने 'हिन्दू' (अगस्त 2017) से बातचीत में कहा है कि वे तीन माह, एक साल या एक दशक नहीं हजारों सालों तक यहाँ रहना चाहते हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर उनका यह इरादा क्या जाहिर करता है। यह भी विचारणीय है कि यूरोपीय यूनियन डेढ़ अरब डॉलर खर्च कर ऐसा रोबोट तैयार करना चाहता है, जो मनुष्य के गुणसूत्र से चालित हो। सनातनवाद ने सदियों से भारतीय जन को ऐसा ही जिंदा रोबोट बना रखा है। यदि हम अपने गिरेबां में झांके तो स्पष्ट दिखेगा कि सनातनवाद निरंतर मानसिक जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया चला रहा है। इस आधार पर क्या सामंती संरक्षणवाद और सनातनवाद अपने पोंगापंथ, ज्योतिष और छद्मविज्ञान के जरिए साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता का मुकाबला करेगा? बंधक और बंद दिमागों का कोई देश कभी महासत्ता नहीं बन सकता? वह इसका ढोल पीट सकता है? अव्वल तो महासत्तावाद भी प्रकारांतर से साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता का दूसरा नाम है। गांधी देख लें कहां आ गया स्वदेशी और हिंद स्वराज? भगतसिंह को क्या जवाब देगी भारतीय कौम? वह तो सदियों से सनातनवादी दुराग्रहों द्वारा खंड-खंड विभाजित है। यही आज की परिस्थिति है जिस सनातनवाद और साम्राज्यवाद के ताने बाने से बुना गया है। यहां एक प्रसंग उल्लेखनीय है। यह प्रसंग चीन का है। भारत के एक तत्कालीन राजपुरुष और अध्येता-भाषाकार का बीजिंग विश्वविद्यालय में व्याख्यान था। उन्होंने भारतीय दर्शन, पौर्वात्य दर्शन और एशियाई दर्शन का सारगर्भित पाठ किया। उनकी विद्वता और वक्तृत्व का सानी नहीं था। उस आयोजन में प्रोटोकाल छोड़कर माओ-त्से-तुंग भी श्रोता थे। समारोह के अंत में उन्होंने संक्षेप में कुछ वाक्य कहे। उन्होंने कहा कि विद्वान वक्ता ने जो व्याख्या की, वह तो हम जानते ही हैं। इस क्षेत्र में भारतीय दर्शन के अवदान से परिचित हैं और उससे हमने बहुत कुछ लिया भी है। मेरी कुछ जिज्ञासाएं हैं, कुछ प्रश्न हैं। भारत औपनिवेशिक सत्ता से चीन से पहले मुक्त हुआ। ब्रिटिश औपनिवेशिक  सत्ता ने अपनी शर्तों पर भारत को आजादी दी, जबकि चीन ने लड़कर औपनिवेशिक सत्ताओं से मुक्ति हासिल की। भारत आज भी औपनिवेशिक पकड़ से बाहर नहीं है, जबकि चीन प्रभावी राष्ट्र है या बन रहा है। इन प्रश्नों के साथ उन्होंने कारण भी गिनाए। उन्होंने ऐसे छ: बिन्दु बताए, जिनका भारत ने निर्णायक समाधान नहीं किया। ये छ: बिंदु हैं - धर्म, पूंजी, भूमि, शिक्षा, जाति और भाषा। भारत ने धर्म को खुला छोड़ दिया। पूंजी को स्वच्छंद रखा। भूमि का स्वामित्व निजी रहा। शिक्षा भ्रामक और असमान रही। जाति का उन्मूलन नहीं किया और विदेशी भाषा का आधिपत्य कायम रखा। इसका कोई उत्तर राजपुरुष के पास नहीं था। भारतीय राज्य के पास होगा लेकिन, वह आत्मस्वीकार नहीं करेगा। यानी सनातनवादी अराजकता और औपनिवेशिकता का खुला खेल जारी रहा। भयानक प्रतिफल सामने है। भारत ऐेतिहासिक अवसर चूक गया। उसके बहुदलीय लोकतंत्र ने सत्ता की होड़ में सनातनवादी औपनिवेशिकता के आगे समर्पण कर दिया। इसके समांतर अपने सैद्धांतिक प्रयोगों के लिए विवादित होकर भी पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चायना ने राज्य को नास्तिक बनाए रखा है। पूंजीवादी सिद्धांत को अपनाने के बाद वह जन-मन को निस्तेज करने के लिए मनोगतवादी प्रवृतियों को आसानी से छूट दे सकता था। भूलना नहीं चाहिए कि सोवियत संघ के विघटन के अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण पोलिश चर्च की लिबरेशन थियॉलाजी (मुक्ति का धर्मशास्त्र) भी है। लेक वालेसा का छद्म सॉलिडेरिटी मूवमैंट भी इसी साजिश का सहचर था।
अराजक और साभ्यतिक अंधकूप
इस पृष्ठभूमि में यह मनालाप होता है कि क्या भारत खोए हुए अवसरों का देश है? अमेरिकी राजनयिकों जान केनेथ गालब्रेथ ने भारत को 'फंक्शनिंग एनार्की' और पैट्रिक मोयनिहान ने 'डेंजरस प्लेस' कहा था। यानी अराजकता का राज्य और राज्य की अराजकता। खतरनाक दुरभिसंधियों का स्थल!! इसमें सनातनवाद की भूमिका की निरंतर पड़ताल होनी चाहिए। इस पड़ताल के उपकरण भगतसिंह अपने ऐतिहासिक लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' में दे जाते हैं। दोहरी औपनिवेशिकता के अंतर्तथ्य को उजागर करते हुए ये दो उद्धहरण पठनीय हैं:- (1) 'जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी यह दुनिया - असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित। एक भी प्राणी सुखी नहीं।.... मेरे प्रिय दोस्तों! ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धांतों के आधार पर सही ठहराते हैं।..... सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी ही संस्थाएं अंत में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो गयी हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में पाप है।' इस उद्धहरण में सनातनवादी औपनिवेशिकता की व्याख्या के बाद इसी से जुड़ी साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता की व्याख्या वे दूसरे प्रसंग में सरलता से करते हैं। (2) 'मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत हैं। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, रायफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध - एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अन्यायपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां हैं ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के कष्टों का मजा ले रहा है?' मानवविरोधी सनातनवाद और साम्राज्यवाद को पहचानती भगत सिंह की विवेकवादी दृष्टि मूल द्वन्द्व से परिचित कराती है। इसीलिए सनातनवाद का एक प्रमुख रणनीतिकार - भाष्यकार तीन शत्रु घोषित करता है - नास्तिक, कम्युनिस्ट और मुसलमान। हालांकि, विवेकवादी नजरिए से धर्म के आधार पर व्यक्ति का वर्गीकरण या व्याख्या या पहचान रुढ़ अवधारणा है। धार्मिक पहचान का कोई व्यक्ति वैचारिक रुपांतरण के जरिए विवेकवादी, कम्युनिस्ट और नास्तिक हो जाता है। भगत सिंह, सत्यभक्त, राधामोहन गोकुल, हसरत मोहानी, राहुल सांकृत्यायन जैसे हजारों नाम हैं। उस एहसान इलाही को कैसे भुलाया जा सकता है, जिसने 'लांगलिव रेवोल्यूशन' का उम्दा रुपांतरण 'इं$कलाब जिंदाबाद' किया और जिसे पहली बार भगत सिंह और हसरत मोहनी ने पूरे उपमहाद्वीप में गुंजा दिया था। ये सभी सनातनवाद से विवेकवाद में रुपांतरण की अविस्मरणीय मिसाल हैं। इसीलिए ये सनातनवाद के निशाने पर हैं। सनातनवाद द्वारा चलाए जा रहे निरंतर मनोयुद्ध का विवेचन स्पष्ट करता है कि जमीनी लड़ाई के पूर्व वह मानसिक औपनिवेेशीकरण की लड़ाई है ताकि मन और मस्तिष्क अंधकूप बना रहे। यही विलोपीकरण है। दो संदर्भों में इसकी पड़ताल करें। इन दिनों भारतीय राजा स्वच्छता की राजनीति कर रहा है। सनातनवादी व्यवस्था में परजीवी समूहों की गंदगी की सफाई का क्रम निर्धारण कथित नीच समूहों पर था। और अभी भी है। यानी गंदगी करना वर्चस्ववादी जातियों का अधिकार था और उसे ढोना दमित जातियों का कर्तव्य! इस कर्म का तुच्छ मूल्य उच्च वर्ण तय करता था। यही व्यवस्था पूंजी, बाजार और उपभोक्तावादी तंत्र यह कहकर करता है कि जो सक्षम हैं वे बेइंतहा उपभोग करें। इस उपभोग से जो पूंजी संचय होगा, उसका कुछ हिस्सा रिसकर (ट्रिकल डाउन) तलछट के लोगों तक जाएगा। यानी सनातनवाद की गंदगी नीच तबका ढोए और विश्वपूंजीवाद के हिसाब से तलछट जीवनयापन करें। सूक्ष्मता से देखें तो दोनों घिनौनी व्यवस्थाओं में कितना साम्य है। यह अमानवीय विलोपीकरण है और साभ्यतिक अंधकूप भी।
विउपनिवेशीकरण
इसी पृष्ठभूमि में यह परिघटना विचारणीय है कि क्या भारत कोई मनोअंधकूप है, जिसमें सारे वैकल्पिक विचार, प्रयास और मुक्ति की कोशिशें समा जाती हैं? यह मनोअंधकूप किसने बनाया है? इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की युद्धनीति में देखा जाना चाहिए कि किस प्रकार इसके जरिए भावावेश भड़का कर सनातनवादी शक्तियां भारत को अंधकूप में ले जाती रही हैं और ले जा रही हैं। अतीत में वह आजीविकों, लोकायनवादियों, श्रमणधारा और विवेकवादी समूहों को निगल चुका है और आज भी मुक्ति के वैकल्पिक विचारों को निगलने की युद्धनीति चला रहा है। दरअसल, यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी सनातनी औपनिवेशीकरण है। वर्चस्व विस्तार के लिये ये चाणक्य, पांतजलि, पुष्यमित्र शुंग, कुमारिल भट्ट ,आदि शंकराचार्य आदि का नाम देशज धर्मराष्ट्रवाद या अखंड पुण्यभूमि के उन्नायकों के बतौर लेते रहे हैं लेकिन ये सभी नाम विस्तारवादी धर्मराष्ट्रवाद, कठोर धर्मराज्यवाद और ब्राह्मणवादी उपनिवेशीकरण के संस्थापक सूत्रधार हैं। जाहिर है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या राज्यवाद की जड़ें काफी पुरानी है। भले ही हम जाने-अनजाने इसे खंगालना न चाहें लेकिन, यह आंतरिक दासताकरण और वर्णश्रेष्ठतावादी उपनिवेशीकरण है। इस धरातल पर भगत सिंह के वैचारिक विश्लेषणों का पाठ और पुनर्पाठ प्रासंगिक हो जाता है। वह आंतरिक औपनिवेशिकता के साथ साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता के खिलाफ समान संघर्ष का विचार रखते हैं, जो विवेकवादी मानसिकता के निर्माण से ही संभव है। अराजकतावाद से विवेकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद की ओर बढ़ते हुए अल्पजीवन में उन्होंने जो वैचारिक यात्रा की है, वह अन्य राष्ट्रनेता नहीं कर पाए। प्रसिद्ध अफ्रीकी चिंतक न्युगी वा थ्योंगो ने इसे 'डीकालोनाइजिंग द माइंड' कहा है यानी मन-मस्तिष्क का विउपनिवेशीकरण। यह बहुस्तरीय विउपनिवेशीकरण किसी मानक मन की मुक्ति की पहली शर्त है। अंतर्विरोध यह है कि भारतीय मन के विउपनिवेशीकरण की कथित देशज दावेदारी सनातनवादी शक्तियाँ भारतीय नहीं, बल्कि हिन्दू संस्कृति, हिन्दू सभ्यता और हिंदू गौरव का घटाटोप बाँधकर करती हैं, जबकि विश्लेषक संजय सुब्रह्मण्यम इसे चंद शक्तिशाली घटकों द्वारा वर्चस्व का उपक्रम बताते हैं। इस एकायामी वर्चस्ववाद को विवेकवादी मनोरचना और वैज्ञानिक समाज रचना ही चुनौती देने में सक्षम है।
सनातनवादी गाद
शहादत के 86 साल बाद देश की पांचवीं पीढ़ी की स्मृतियों में यदि भगत सिंह के विचार और संघर्ष हैं तो यह एक आश्वस्ति है, क्योंकि सनातनवादी आंधी ने पूरे उपमहाद्वीप से साम्राज्यवादी अपराधों और उसके विरुद्ध वैचारिक अभियानों को स्मृति से मिटाने की हर कोशिश कर रखी है। क्या यह दोनों औपनिवेशिकताओं का कदमताल नहीं है? किसी घटना या घटनाओं की निरंतरता पर क्षोभ, क्रोध और प्रतिवाद व्यक्त करना लोकतांत्रिक और इंसानी प्रतिक्रिया तो है लेकिन दूरगामी और वैकल्पिक प्रतिरोध नहीं है। ऐसा क्या है जो हमारी वैकल्पिक सोच, संघर्ष और सृजन को निरस्त कर रहा है? क्या सचमुच साम्राज्यवाद और सनातनवाद के मनोअंधकूप और मानसिक हवनकुंड में विकल्पों का विलोप हो जाता है? एक ओर धर्मसत्ताएं खुद को सनातन मानती हैं तो दूसरी ओर, पूंजीसत्ता अपने को अखंड-अपरिहार्य कहती है। इन दोनों परस्पर औपनिवेशिक सत्ताओं से मनोगतवादी अवधारणाओं से नहीं लड़ा जा सकता। वैज्ञानिक और द्वन्द्वात्मक विचार दृष्टि ही इस निरंतर प्रतियुद्ध का स्रोत-सूत्र हैं। जब होलीवार, जिहाद और धर्मयुद्ध किसी न किसी रुप में सैन्य पूंजीवाद की ढाल बना हुआ है, तब सनातनवाद-साम्राज्यवाद की दोहरी औपनिवेशिकता से मुक्त होने के लिए विउपनिवेशीककरण-विवेकीकरण की मूल क्रिया-प्रक्रिया ही समय की मांग है। इस संघर्ष में भगत सिंह भी एक प्रकाश स्तंभ हैं। वे इस अंतध्र्वनि को मन में भेजते हैं कि पहले अंतर्मन को सनातनवादी गाद से मुक्त करो तब स्वच्छ जल प्रवाहित होगा।
(नागपुर में गांधी स्मारक निधि और जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी द्वारा 'आज की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति में भगत सिंह की प्रासंगिकता' विषयक आयोजन में वक्तव्य का संवर्धित पाठ)


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