मुखपृष्ठ पिछले अंक संवाद
जनवरी 2018

संवाद

रणजीत

संवाद



2094 शोभा डहेरिया
बेलनदूर, बंगलौर 560103
मो. 09019303518

सम्पादक जी
पहल - 109 में छपा अशोक वाजपेयी से अविनाश मिश्र का साक्षात्कार पढ़ा। पूरा साक्षात्कार बहुत ही दिलचस्प है। अशोक जी के ज्यादातर कथन मन को अच्छे लगने वाले है, बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिनसे असहमत होना मुश्किल है। हो सकता है यह मेरी विचारधारात्मक तीक्ष्णता की कमी के कारण हो। पर एक प्रश्न के उनके उत्तर पर एक सवाल उठता है।
सवाल है: आपमें ग्रन्थियां हैं? और जवाब का अन्तिम अंश है: ''मैंने किसी राजनेता की सार्वजनिक प्रशंसा नहीं की। अर्जुनसिंह हमारे मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री थे, पर मैं कार्यक्रमों में उन्हें कभी धन्यवाद तक नहीं देता था। मैंने कभी किसी मंत्री को माला नहीं पहनाई। अपने किसी कार्यक्रम में किसी मंत्री को आमंत्रित तक नहीं किया। कभी किसी राजनेता के हाथों सम्मानित नहीं हुआ।''
अगर यह सच है तो मानना पड़ेगा कि दशकों तक हिन्दी भाषी क्षेत्रों के साहित्य और संस्कृति के इतने बड़े कर्ता-धर्ता रहे अशोकजी ने शुचिता के उच्चतर गांधीवादी मानदण्ड अपने लिए निर्धारित कर लिए थे। ऐसे मानदण्ड हमारे किसी स्वनामध्न्य वाम साहित्यकार ने निभाये हों तो पहल के पाठकवर्ग को उसकी सूचना मिलनी चाहिए। और यदि उनकी बात गलत हो, तो सूचनाक्रान्ति के इस युग में वह कहां तक छुपी रह सकती है। यह मेरा सवाल उनसे उनकी बात अक्षरस: सत्य मानकर ही उठता है। यदि यह सही है तो फिर जयपुर के साहित्य उत्सव में 23.1.12 के दिन हिन्दी काव्यपाठ के अन्तर्गत सुनाई हुई उनकी उस कविता का क्या मतलब है जिसमें कहा गया था 'एक जीवन ऐसा भी दो प्रभु/तनकर खड़े रह सकें जिसमें बिना घुटने टेके।' मैं नहीं जानता कि यह कविता उनके किसी संकलन में आई है या नहीं। पर मैंने वह उनके सामने बैठकर सुनी थी और उस पर एक काव्यात्मक प्रतिक्रिया भी की थी, जो आपके अवलोकनार्थ संलग्न है। आशा है आप पहल के माध्यम से मेरा प्रश्न उन तक पहुंचा देगे।
आपका
रणजीत


अशोक वाजपेयी की एक कविता सुनकर

कुछ लोग जो मुझसे ज्यादा सफल हुए
ज्यादा मान्य, ज्यादा प्रसिद्ध
ज्यादा ऊंचे पदों तक पहुंचे
ज्यादा सम्मानित किये गये
नज़दीक पहुंचे कुछ ज्यादा बड़े लोगों के
ज्यादा बार छपे स्तरीय पत्रिकाओं में
ज्यादा भाषाओं में अनूदित किये गये
उन पर तरस आया आज पहली बार :
विचारों से कुछ ज्यादा की कीमत
वसूल कर ली इन उपलब्धियों ने।
मैं जिन्हें समझ रहा था
अपने से ज्यादा भाग्यशाली
मुझसे कम ही कर पाये अपने जीवन से प्राप्त।
नहीं तो क्यों करनी पड़ती उन्हें
अपने आख़िरी दौर में यह प्रार्थना:
''एक जीवन ऐसा भी दो प्रभु।
तन कर खड़े रह सकें जिसमें
बिना घुटने टेके।''
अफसोस भी हुआ यह सोचकर
कि इतनी सी बात के लिए विचारों को
लेना पड़ेगा दूसरा जन्म
क्योंकि यह तो वे सहज ही कर सकते थे
इस जन्म में भी-
बस लोभ थोड़ा कम रखते
और आत्मसम्मान ज्यादा।
                                 

 

जयपुर 24.1.12


Login