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अक्टूबर-2017

झूठ के बाज़ार में सच की आवाज़ : क़तील शिफ़ाई

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष / उर्दू रजिस्टर 

 

पहाड़ी के ख़ुश्क सीने से उबलता हुआ एक चश्मा ( हरी-भरी वादियों से गुनगुनाता हुआ गुज़र रहा है। और इसका नग़मा सुनकर कलियां आंखें खोल देती हैं। इस चश्मे का नाम क़तील शिफ़ाई है। (अली सरदार जाफ़री)

सरदार जाफ़री साहब बड़े शायर थे और उन्होंने उसी शायराना अंदाज़ में एक शायर को दाद देने के लिए क़तील की शायरी को एक ख़ूबसूरत मंज़र में तब्दील करके पेश किया है। और सच तो यह है कि क़तील शिफ़ाई की शायरी इस दाद की पूरी तरह हक़दार है। जिस तरह उन्होंने रिवायती ढांचे के भीतर ही भीतर एक चुटकी चुहल, ज़रा सी शो$ख मुस्कराहट और एक दिलकश अंदाज़ का घोल मिलाकर गीत-ग़ज़ल को एक नया हुस्न और एक नई जवानी ब$ख्शी वह उनके फ़नी हुनर का सबसे बड़ा सुबूत है।

क़तील शिफ़ाई का जन्म 24 दिसम्बर 1919 को हरीपुर हज़ारा में हुआ जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। पैदाइशी नाम मुहम्मद ओरंगज़ेब खान्। रावलपिंडी में हाई स्कूल तक की तालीम हासिल की। पिता की असमय मृत्यु के नतीजे में फिक्रे-माश और ग़मे-रोज़गार ने क़तील को कई तरह के काम करने पर मजबूर कर दिया। इन्हीं तरह-तरह के कामों का और उनके हुलिये का दोस्ताना अंदाज़ में बड़ा दिलचस्प ज़िक्र प्रकाश पंडित ने किया है :

''... 'क़तील' शिफ़ाई जाति का पठान है और एक समय तक गेंद-बल्ले, रैकिट, लुंगियां और कुल्ले बेचता रहा है। चुंगीखाने में मुहर्रिरी और बस कम्पनियों में बुकिंग क्लर्की करता रहा है तो उसके शेरों के लोच-लचक को देखकर आप अवश्य कुछ देर सोचने के लिए विवश हो जाएंगे। इस पर यदि कभी आपको उसे देखने का अवसर मिल जाए और आपको पहले से मालूम न हो कि वह 'क़तील' शिफ़ाई है, तो आज भी आपको वह शायर की अपेक्षा एक ऐसा क्लर्क नज़र आएगा जिसकी सौ-सवा सौ की तंख्वाह के पीच्छे आधे दर्जन बच्चे जीने का सहारा ढूंढ रहे हों। उसका क़द मौज़ू है, नैन-नक्श मौज़ू हैं। बाल काले और घुंघराले हैं. गोल चेहरे पर तीखी मूंछें और चमकीली आंखें हैं और वह हमेशा 'टाई' या 'बो' लगाने का आदी है। फिर भी ना जाने क्यों पहली नज़र में वह ऐसा ठेठ पंजाबी नज़र आता है जो अभी-अभी लस्सी के कुहनी-भर लम्बे दो गिलास पीकर डकार लेने के बारे में सोच रहा है।''

क़तील के एक और दोस्त हुए हैं ए.हमीद। उस दौर के कमोबेश हर बड़े अदीब-शायर की कहानी में यह नाम ज़रूर आता है। क़तील की शख्सियत के बारे में भी उन्होंने प्रकाश पंडित से अलहिदा एक अलग अंदाज़ में, एक अलग से पहलू से, एक अलग दौर के क़तील का दिलचस्प खाक़ा खेंचा है।

''माज़ी में पीछे जाता हूं तो क़तील की एक शक्ल उभरती है : घने स्याह घुंघरियाले बाल, मज़बूत क़ुव्वत इरादे की अलामत, चौड़े नथुनों वाली सुतवां रोमन नाक, सुर्ख--सफ़ेद मुस्कराता हुआ ख़ूबसूरत चेहरा, हज़ारे की मर्दाना वजाहत का भरपूर मज़हर, वालिहाना जज़्बात और तेज़ फ़हम की अकास आंखें, शेरों में पायल की खनक, बातों में बेसा$ख्तगी व बेबाकी, कोई लगी-लिपटी नहीं, पीठ पीछे करने वाली बातों को मुंह पर कह देने वाला....नाराज़गियां मोल लेने वाला.... क़तील शिफ़ाई।''

सोचता हूं कि आिखर क़तील शिफ़ाई जैसे किरदार किस खमीर के बने होते हैं. ढूंढता हूं तो ढूंढता चला जाता हूं. और जवाब मिलता चला जाता है - टुकड़ों-टुकड़ों में। टुकड़े बीनते-बीनते एक जवाब बन ही जाता है। 

पहला जवाब ख़ुद क़तील की ज़ुबानी :

''यूं तो मुझे बारह-तेरह बरस की उम्र से ही मेरी सोच मुझे बेचैन सा रखती थी लेकिन महसूस करके शेर कहने की इब्तिदा 1935 ईस्वी से हुई जब अचानक मेरे शाह खर्च बाप का साया मेरे सर से उठ गया और मेरे शऊर ने मेरे रंगारंग तजुर्बों को अपने अंदर जज़्ब करना शुरू किया। मुझे ज़िंदगी में पहली बार इस हक़ीक़त को समझने की फ़ुरसत मिली कि लोग एक-एक चेहरे पर कई-कई चेहरे सजाए बैठे हैं।''

इससे आगे का जवाब मिलता है मशहूर शायर-फिल्म गीतकार क़मर जलालाबादी के पास। उन्होंने हमारे शायर को तब देखा-जाना जब उसने मुहम्मद औरंगज़ेब खान के नाम का चोला उतारकर क़तील शिफ़ाई बनने के लिए पहला ही कदम उठाया था। क़मर जलालाबादी साहब उस वक़्त लाहौर से निकलने वाली पत्रिका 'स्टार' के एडीटर हुआ करते थे। क़तील शिफ़ाई की पहली ग़ज़ल इसी रिसाले में छपी थी।

अब ज़रा सुनिए क़मर साहब क्या कहते हैं क़तील शिफ़ाई के बारे में।

''...  क़तील तख़ल्लुस क्यों रखा? हज़रत हसन-हुसैन की शहादत के तज़किरे सुने, शदीद असर हुआ। दिल पर रक़अत तारी हो गई। इसी अज़ीम अलमिये (ट्रेजडी) की याद में क़तील तख़ल्लुस रखा।

शिफ़ाई क्यों? इनकी शायरी के उस्ताद हरीपुर हज़ारा के एक आलिम फ़ाज़िल और शायर मुहम्मद याह्या खान शिफ़ा हैं, इनकी निस्बत से क़तील, शिफ़ाई हो गए। यह पहलू क़तील के वफ़ादार मिज़ाज की तरफ़ इशारा करता है। क़तील के वालिद (फ़िरोज़ खान) सुखन-फ़हम थे और हज़ारा की ज़बान 'हिंदको' के शायर भी थे। एक दिन वो अलिफ-लैला ले आए और क़तील से कहा - पढ़ कर सुनाओ। फिर 'हातिम ताई' और 'फ़साना--अजाइब' लाए और क़तील से सुनते रहे। क़तील के दिल में शौक़ पैदा हुआ। अपने वालिद की शायरी और सिनेमा के रिकार्ड सुनकर वह ख़ुद शेर कहने लगे...''

और माशा-अल्ला क्या शेर कहे हैं। ज़रा सुनिए :

उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफक़ में डूब गया  (उफक़ - क्षितिज)

रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की 

                                            ***

एक तुम हो कि ख़ुदा बन के छुपे बैठे हो

एक हम हैं कि लब--दार तक आ पहुंचे (लब--दार : फांसी का फंदा)

एक ही सर है, झुका सकता हूं किस-किस के लिए

अनगिनत मेरे ख़ुदा और मैं अकेला आदमी

गुलों की ख़ुश्बुएं न छान, तितलियों के पर न गिन

चमन के कारोबार में, ये काम है बहुत कठिन

हमारे ज़हनो-दिल को गुदगुदाते, बेक़रारियों को क़रार देते हुए ख़ूबसूरत गीत-ग़ज़ल के पीछे अक्सर एक बेचैन इंसान होता है। मुक्तिबोध जैसे महाकवि ने इस बेचैनी की वजह एक जुमले में तराश कर हर दौर की इंसानी नस्ल के लिए रख दी है - 'इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए।'

इस 'बेहतर' का सपना पालने वाले और इंसानी तजऱ् पर धड़कने वाले नर्मो-नाज़ुक दिल को धरती पर रची गई इंसानी ग़ैर-बराबरी बेचैन करती है। 'ताज' भोपाली ने इस बात को यूं कहा है :

मैं चाहता हूं, निज़ाम--कुहन बदल डालूं

मगर ये बात फक़त मेरे बस की बात नहीं

उठो, बढ़ो मेरी दुनिया के आम इंसानों

यह सब की बात है, दो-चार-दस की बात नहीं

क़तील शिफ़ाई का दिल भी इसी तर्ज़ पर धड़कने वाला दिल था। गो कि उनकी आम पहचान रूमानियत से है। लेकिन क़तील को समाजी और खासकर महरूम तबके की फ़िक्र कुछ कम न थी।

उनके कुछ दोहे देखिए जो तकरीबन 30 बरस पहले लिखे गए हैं।

सुंदर नार बहार की, जिसका बाप अच्छूत

चूमे उसके पांव को पंडित जी का पूत

मत आइयो तुम शहर में बन-बन नाचत मोर

निरत के दुश्मन सब यहां क्या हाकिम, क्या चोर

इसी रंग का एक गीत है; 'दिया जले सारी रात'। इसका एक अंतरा तो बाकायदा जान लेवा है।

किस्मत ने क्या रंग दिखाया

दुखिया के घर दुखिया आया

इक दूजे से मांग रहे हैं ख़ुशियों की खैरात

दिया जले सारी रात

उर्दू के मशहूर व्यंगकार फ़िक्र तौंसवी भी क़तील के दोस्तों में से एक थे। उनके एक अधूरे $खत से इन दोनो प्रगतिशील लेखकों के किरदार की बड़ी गहरी जानकारी मिलती है।

''क्या तुम्हे याद है आज से चालीस बरस पहले जब हम दोनों लाहौर की गलियों में आवारागर्दी कर रहे थे, गली का कूड़ा-करकट और राह चलती हसीनाओं की खुश्बू, दोनो को अपने अंदर जगह दे रहे थे तो रास्ते में तुम्हें धन्ना धोबी मिला। तुमने उससे पूछा ''धन्ना ! क्या तुम अपना जनम दिन मनाते हो ? और उसने लाइल्मी की बुलंद मंज़िल पर खड़े होकर हैरत से कहा था; ''जनम दिन ? वह क्या होता है बाबूजी?''

तुमने उससे कहा था - ''अरे जनम दिन वह मनाता है जो इस दुनिया में पैदा हो जाता है।''

और उसने कितनी खस्तगी से कहा था - ''अजी बाबूजी ! हमारा पैदा होना भी क्या पैदा होना है। आप कहते हैं तो मुमकिन है कि हम पैदा हो चुके हों...मगर जनम दिन...?''

और क़तील ! तुमने तब्बसुम और अश्कों की मिलावट करके एक सर्द आह भरी थी और मुझे कहा था ''फ़िक्र (तौंसवी) भाई ! इसे तो मालूम ही नहीं कि वह पैदा हो चुका है!''

''और न इसकी आने वाली नस्लों को मालूम होगा कि वह पैदा हो गए हैं. इसी तरह दुनिया की नस्लों पर नस्लें इस लाइल्मी का शिकार होकर ज़ाया हो गई हैं। लेकिन पागल ! तुम्हारी आंखों में आंसू क्यों उतर आए?''

''यार ! तकलीफ़ होती है कि एक इंसान को मालूम ही न हो कि वह एक इंसान है।''

''और न उसके वालदैन को मालूम था कि इसका नाम धन्ना न रखा जाएक्योंकि....  ....'' और तुमने मेरा फिक़रा मुकमिल किया था- ''क्योंकि यह धन्ना सेठ नहीं बनेगा। धन्ना धोबी ही बनेगा।''

''और याद है क़तील! तुमने उसे बर्फी का एक मोटा सा टुकड़ा दिया था....''

धन्ना सेठों के कब्ज़े में घुट-घुट सांस लेती इस दुनिया में धन्ना धोबियों की यह हमदर्द आवाज़ें क़तील शिफ़ाई और उनके दोस्त फ़िक्र तौंसवी की हैं। इस हक़ीकी कहानी का मुख्तसिर सा बयान क़तील शिफ़ाई के नाम फ़िक्र तौंसवी के 1982 में लिखे गए 'अधूरे खत' से उधार लेकर आपको सुना दिया।

मुल्क के ताज़ा हालात को लेकर जिस तरह की चिंताओं से हर हक़-परस्त इंसान की नींद उड़ी हुई है, उसको देखते वक़्त अक्सर ही इन दिनों मुझे क़तील शिफ़ाई की एक 'दुआ' याद आती है जो उनके संग्रह 'पेराहन' में शामिल है। दिल चाहे तो आप भी हाथ उठाकर यह दुआ पढ़ लें। समाज के अमनो-अमान और बेहतरी के लिए ही सही।

जो अपनी औलाद से बड़कर समझे पौदों-पेढ़ों को

आने वाले मौसम में इस बाग़ को ऐसा माली दे

आिखर बड़ा न बन बैठे वह छोटे-छोटे लोगों में

जिसको रुत्बा दिया है तूने, ज़र्फ भी उसको आली दे

और एक यह गुज़ारिश भी सुन लें।

खुला है झूठ का बाज़ार, आओ सच बोलें

न हो बला से खरीदार, आओ सच बोलें

चलिए अब ज़रा पीछे छूटा सिरा पकड़कर बात करें कि किस तरह क़तील ने अपने वालिद की वफ़ात के बाद ज़िंदा रहने के लिए किस तरह ज़रिया--माश की तलाश में जद्दो-जहद का वक़्त गुज़ारा।

जीने की कोशिश में सबसे पहले तो अपना आबाई शहर हरीपुर छोडऩा पड़ा तो रावलपिंडी की राह पकड़ी। रावलपिंडी में तरह-तरह के काम किए, जिनका ज़िक्र प्रकाश पंडित पहले ही कर चुके हैं। इसी शहर में उनकी शायरी को सही राह पर लाने वाला रहनुमा; उस्ताद हज़रत शिफ़ा, मिल गए। तिलोकचंद महरूम, जगन्ननाथ आज़ाद, अब्दुल अज़ेज़ फ़ुरसत और अब्दुल हमीद अदम जैसे दोस्त मिले।

1947 में रावलपिंडी से एक कदम और आगे निकल कर लाहौर में सुकूनत इिख्तयार कर ली। लाहौर के रायल पार्क इलाके में जहां घर बसाया, उसी के पास ही ए.हमीद, साहिर लुधियानवी और अहमद राही का डेरा भी था। लाहौर में आकर एक फि़ल्मी रिसाले 'अदाकार' के एडीटर बन गए। इन हालात में इस जगह वही हुआ जो चार यारों के मिल बैठने पर होता है।

''क़तील हमारे ग्रुप का ज़िंदगी से भरपूर कहकहों और दिलचस्प बातों करने वाला प्यारा दोस्त था. सारा-सारा दिन तकरीबा इकठे ही बसर होता। 'अदाकार' के दफ़्तर से निकलते तो 'अदब--लतीफ़' के दफ़्तर में आ जाते। वहां से पाक टी हाऊस में आ जाते। यहां से निकलते तो रायल पा$र्क के किसी होटल या क़तील के कमरे में आकर महफ़िल जमा लेते। तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ीन (लेखकों) के अदबी जलसों में क़तील की ग़ज़लों का तरन्नुम गूंजा करता। वह अंजुमन तरक़्क़ी पसंद का जियाला शायर तसव्वुर किया जाता।'' (.हमीद)

1947 के बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान वज़ूद में आया तो पहले साल तो कोई फ़िल्म वहां नहीं बन पाई लेकिन 1948 में जब पहली फ़िल्म 'तेरी याद' बनी तो उसके गीत लिखने के लिए तनवीर नक़वी और सैफ़ुद्दीन सैफ़ के साथ क़तील शिफ़ाई को भी गीत लिखने का ऐजाज़ हासिल हुआ। इस एक फ़िल्म के बाद तो उन्होंने बेशुमार फिल्मों के गीत लिखे।

फ़िल्मों में गीत लिखने का उन्हें दोहरा फ़ायदा हुआ; एक तो माशी हालात मज़बूत हुए और दूसरे बतौर शायर उनकी मक़बूलियत आसमान तक जा पहुंची। फ़िल्मों और फ़िल्म संगीत को भी क़तील की शायरी से बड़ा फ़ायदा मिला। इसकी वजह यह कि उन्होने फ़िल्मों में लिखने के लिए अपने अदबी मैयार को गिराकर नहीं बल्कि उसे अदबी चाशनी में भिगोकर पेश किया। नतीजे में एक के बाद एक गीत हिट होते गए। गीतों की कामयाबी का फ़ायदा फ़िल्मों के कारबोर को भी मिला।

उनके कुछ मक़बूल तरीन गीतों का आलम तो यह था कि वह पाकिस्तान की हदों के पार हिंदुस्तान में भी घर-घर में गूंज उठे। ऐसे ही गीतों में से एक गीत था 1955 की फ़िल्म 'क़ातिल' में इक़बाल बानो का गाया 'उल्फ़त की नई मंज़िल को चला, यूं डाल के बाहें बाहों में / दिल तोडऩे वाले देख के चल, हम भी तो पड़े हैं राहों में'। इस नग़मे के हुस्न पर आज 62 बरस बाद भी ज़रा सी आंच नहीं आई है।

इसी तरह 1957 की फिल्म 'इश्क़--लैला' में क़तील-इक़बाल बानो और संगीतकार सफ़दर हुसैन ने एक और यादगार नग़मा दिया- 'परेशां रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ' 23 बरस बाद हिंदुस्तान में इसे जगजीत और चित्रा ने गाया तो यहां भी लोगों ने उसे उसी तरह हाथों-हाथ ले लिया।

अब इस जगह जब इक़बाल बानो का ज़िक्र आया है तो ज़रा सा रुककर क़तील के उस रूमानी किरदार की भी बात कर ली जाए। हालांकि क़तील की शादी 17 बरस की उमर में यानी 1936 में ही हो चुकी थी लेकिन मिज़ाजे-आशिक़ाना में कभी किसी उम्र में कोई कमी नहीं आई।

एक दौर में उनका इश्क़ 'चंद्रकांता' नाम की हीरोइन से चला। बम्बई में रश्मि की कहानियां चली। और भी कुछ नाम इस सिलसिले में आते रहे लेकिन इन सब में सबसे अहम और दिलचस्प नाम था मशहूर गायिका इक़बाल बानो का। बात इतनी दूर तक जा पहुंची थी कि इनकी शादी की खबर भी अखबारों में छप गई थी। दिल्ली के मशहूर अंग्रेज़ी अ$खबार 'स्टेट्समैन' में भी 1960 के आसपास यह खबर छप गई थी। इस बात का खंडन बाद में क़तील साहब ने कर ज़रूर दिया लेकिन बात एकदम बेबुनियाद न थी।

हक़ीक़त यह है कि 'दिल तोडऩे वाले देख के चल' की रिकार्डिंग के दौरान ही दोनों के बीच एक $खासा रिश्ता कायम हो गया। गीत की बेमिसाल कामयाबी दोनों को और भी करीब ले आई। इस बात का ऐतराफ़ ख़ुद क़तील साहब की अपनी आप बीती 'घुंघरू टूट गए' में इस तरह किया है :

''थोड़ी मुलाक़ातों में इक़बाल बानो के साथ क़ुरबतें बढ़ीं और वह इसलिए कि उनकी बातों से ये मालूम होता था जैसे वह शायरी में दिलचस्पी रखती हों और अपने कोठे पर गाने वाले पेशे से नाख़ुश हैं. उनकी बातों का अंदाज़ा कुछ ऐसा था कि मेरा ताव्वुन (सहयोग) चाहती थीं। इसलिए उन्होंने मुनासिब समझा कि मुलतान से लाहौर मुंत$िकल हो आईं। मुलतान में उनकी बहुत बड़ी कोठी थी जबकि लाहौर में गणपत रोड पर उन्होंने पहले से ही एक मकान किराए पर ले रखा था जब लाहौर आतीं तो यहां क़याम करतीं थीं। चुनांचे उनकी मां और नानी तो मुलतान ही में रह गईं वह ख़ुद आकर लाहौर आकर मकान में क़याम पज़ीर हो गईं।

यहां हमारा ताव्वुन इस क़दर बढ़ा कि मैं जिस फ़िल्म के भी गाने लिखता उसमें एक-दो गाने उनके टाईप के ज़रूर होते। और सच बात तो यह है कि उनके टाईप का जो गाना भी बनाया गया वह मक़बूलियत की हद तक आगे बढ़ा। इस तरह उनसे मेरी बात बढ़ते-बढ़ते जज़बातियत की हद तक पहुंच गई और जब हम जज़्बात से आगे बढ़ते हैं तो जिंस (सेक्स) की शक्ल इंख्तियार करती थी।

बावजूद इसके मुझे घर से गहरी दिलचस्पी रही है और मैं शऊरी तौर पर एक ज़िम्मेदार शौहर और बाप रहा हूं लेकिन कुछ दोस्तों के ताव्वुन और कुछ आए दिन की क़ुरबतों से मजबूर होकर मेरे दोस्त और फ़िल्म डायरेक्टर सिब्तैन फ़ज़ली को यह कहना पड़ा कि आप लोग इस तरह की ज़िंदगी क्यों गुज़ार रहे हैं। मैने कहा उनसे पूछिये और उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा करके कहा कि इनसे पूछिये। मामला यहीं नहीं रुका बल्कि शरमा-शरमी में शादी का दिन भी मुक़र्रर हो गया। मुक़र्रर दिन वह शादी का जोड़ा पहिन कर परवेज़ साहब के यहां आ गईं जहां मौलवी साहब भी बुलवाए हुए थे। फ़ज़ली साहब ने दावत का इंतज़ाम किया हुआ था और ष्शठ्ठद्घद्बस्रद्गठ्ठह्लद्बड्डद्य (मुराद शायद भरोसे से) दोस्त भी बुलवाए थे। दिल में मैं भी कांपा और वह भी। शायद दोनों ने कोई मंसूबे बना रखे थे मगर दिल से दोनो में से कोई भी नहीं चाहता था।

इस उहापोह से निकलने का आ$िखर एक रास्ता निकला। निकाह से पहले ही इक़बाल बानो ने इस बात पर रज़ामंदी चाही कि क़तील उसे अगले दो साल तक गाने की इजाज़त दे दें। क़तील ने सिरे से इस बात को खारिज कर दिया। फ़ैसला हुआ कि इस वक़्त निकाह रोककर ठंडे दिमाग़ से अगले एक महीने सोचा जाए और फिर फ़ैसला लिया जाए। लेकिन सच तो यह है कि इस बात का आिखरे फ़ैसला भी उसी घड़ी हो चुका था जिस घड़ी यह निकाह मुलतव्वी रखने का फ़ैसला लिया गया था। इस तरह इस इश्क़ की कहानी यहीं खत्म हो गई।

इस सारे वािकये के बाद क़तील के फ़िल्मी केरियर पर तो कोई असर न पड़ा अलबता इक़बाल बानो का फ़िल्मी केरियर लगभग खत्म सा ही हो गया। इस हादिसे के सदमे से निढाल इक़बाल बानो ने फ़िल्मों से किनारा कर लिया।

इस हादिसे से क़तील के भीतर भी कहीं न कहीं कुछ टूटा था। इक़बाल बानो को भूलना उनके बस में न था। उसी के नतीजे में उन्होंने एक नज़्म लिखी थी 'सांवली सी एक औरत, जिसका मर्दों जैसा नाम'। यह नज़्म उस दौर के बेहद मशहूर उर्दू रिसाले 'शमा' में शाया हुई थी। इशारा एकदम साफ़ था कि इक़बाल अक्सर मर्दों का नाम होता है।

क़तील शिफ़ाई की ताक़त यह थी कि 1947 के बंटवारे के बाद भले ही हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो मुल्कों में तब्दील हो गए हों लेकिन उसने मुल्क के बंटवारे को अपने ज़हन के नक़्शे पर कभी आने ही नहीं दिया और दोनों तरफ़ यकसां मौजूदगी बनाए रखी। पाकिस्तान के मुशायरों की बराबरी में ही हिंदुस्तान के मुशायरों में भी मौजूद रहते थे। पाकिस्तान की फ़िल्मों में गीत लिखते थे तो हिंदुस्तान की फ़िल्मों के लिए भी ख़ूब लिखते रहे।

क़तील की आमद पर दूसरे शहरों के मुक़ाबले बम्बई में बड़ी ज़बरदस्त आव-भगत होती थी. एक-एक दिन में दो-दो दावतें, जिनमें अदब, सिनेमा, सियासत और सहाफ़त का हर बड़ा नाम मौजूद रहता। ऐसे ही एक मौके पर जब क़तील एक लंबे अरसे बाद बम्बई गए तो वहां उनकी शान में जिस तरह के जलसे हुए, जो इज़्ज़त और मुहब्बत मिली तो वे बहुत भावुक हो गए। ऐसे ही जज़्बात में डूबे लम्हों में उन्होंने एक नज़्म लिखी - 'बम्बई ऐ बम्बई'.

मुझको धड़का था तुझे शायद नहीं हूं याद मैं

आया हूं तेरे सामने कितने ही बरसों बाद मैं

लेकिन ये आलम देख कर फिर हो गया दिलशाद मैं

वा$िकफ हैं मेरे नाम से नस्लें पुरानी और नई

ऐ बम्बई...ऐ बम्बई

आया था इस शहर में दो-चार दिन की सैर को

तूने लगाया है गले दो माह तक इस 'ग़ैर' को

मैं ढूंढता ही रह गया आपस के पिछले बैर को

थी दोस्ती की आरज़ू शायद हरम से दैर को

वहमो-यक़ीं के दरमियां मैने बुने सपने कई

ऐ बम्बई... ऐ बम्बई

नफ़रतों के सौदागरों को भी सरहदों के आर-पार कभी-कभी मुहब्बतों की ऐसी दुनिया में एकदम तन्हा छोड़ देना चाहिए। तब  शायद उन्हें अहसास हो कि लोग किस तरह बाहें खोले, एक दूसरे को तपाक से गले लगाते हैं।

हिंदुस्तानी फ़िल्मों में क़तील ने मनोज कुमार की फिल्म 'पेंटर बाबू' (83), महेश भट्ट की 'फिर तेरी कहानी याद आई' (93), और 'सर'(93), के लिए गीत लिखे। इसके अलावा 'नाराज़' (94), 'नाजायज़'(95) के गीतों का हिस्सा भी रहे हैं।

इन फिल्मों के कुछ चुनिंदा गीत याद दिला दूं।' तेरे दर पर सनम चले आए / तू ना आया तो हम चले आए, 'दिल देता हैं रो रो दुहाई, किसी से कोई प्यार ना करे', (फिर तेरी कहानी याद आई), 'आज हमने दिल का हर किस्सा तमाम कर दिया' (सर), 'कब तलक शमा जली याद नहीं' और 'जब याद की बदली छाती है'

हिंदुस्तान में उनके ग़ेर फ़िल्मी एल्बम्स के नाम पर सबसे पहले याद आता है  1980 में जारी हुआ जगजीत-चित्रा का एल्बम ''ए माईलस्टोन।'' इस एक एल्बम के बाद जगजीत के लंबे संघर्ष का अंत हुआ। इस रिकार्ड की ऐसी रिकार्ड बिक्री हुई कि यह जोड़ी आसमान की बुलंदी पर जा पहुंची। क़तील की उन ग़ज़लों को लोग आज तक नहीं भूल पाए हैं।

'अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको / मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बना ले मुझको', 'परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ', 'मिल कर जुदा हुए तो ना सोया करेंगे हम /इक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम', 'ये मौजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे / कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख्म आए मुझे', 'तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते / जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते', 'पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये / फिर जो निगाहे यार कहे मान जाइये'

क़तील की शायरी की यही ख़ूबी रही है कि उन्होंने पापुलर होने के लिए शायरी से बिना समझौता किए ही अवामी मक़बूलियत हासिल की। इसके सबसे ख़ूबसूरत मिसाल है उनकी एक लाज़वाल ग़ज़ल 'ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं / मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा।' 

एक दिलचस्प बात यह है कि आज इस ग़ज़ल की पहचान मेहदी हसन की ग़ज़ल की तरह होती है लेकिन हक़ीक़त यह है कि क़तील ने इसे 1973 में रिलीज़ हुई पाकिस्तानी फिल्म 'अज़मत' के लिए लिखा था जिसे संगीतकार नाशाद ने मेहदी हसन से गवाया था। बाद के सालों में फिल्म का नाम तो पीछे चला गया लेकिन यह ग़ज़ल मेहदी हसन की हर महफ़िल की जान ज़रूर बनी रही।

ग़ुलाम अली ने क़तील शिफ़ाई की एक निहायत ख़ूबसूरत ग़ज़ल गायी है। यह उनकी बहुत सी ग़ज़लों की तरह उतनी मशहूर नहीं लेकिन निहायत बामानी ग़ज़ल है।

मेरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए

तेरा वज़ूद है लाज़िम मेरी ग़ज़ल के लिए

सदा जिए मेरा शहर बेमिसाल, जहां

हजार झोपड़े गिरते हैं इक महल के लिए

और आखिऱ में शायर की बात जो न जाने कितने दिलों की बात है।

'क़तील' ख्म सहूं और मुस्कराता रहूं

बने हैं दायरे क्या-क्या मेरे अमल के लिए

हर अच्छे और बड़े शायर की ही तरह क़तील शिफ़ाई के कलाम की लूट ख़ूब हुई है। अब जैसे 'घुंघरू टूट गए' को न जाने कितने लोगों ने कितनी तरह से जोड़-तोड़ करके फिल्म और ग़ैर फिल्मी एल्बम्स में बिना इजाज़त, बिना क्रेडिट दिए इस्तेमाल कर लिया। मजबूरन क़तील शिफ़ाई ने अपने दस्तूर से हट कर फिल्मी गीत को मुशायरे में सुनाना शुरू कर दिया कि ज़माने को खबर रहे कि यह गीत उनका है। एक मुशायरे में उन्होंने कह ही दिया - ''ये इंडिया की चार फ़िल्मों में आ चुका है और पाकिस्तान की तीन फ़िल्मों में। और इस वक़्त ये मेरी ख़ुश्ब$ख्ती है कि हिंदुस्तान-पा$िकस्तान का हर गवैया जब तक इसे न गाए, उसे गवैया नहीं माना जाता।''

एक दिलचस्प बात और बताता चलूं। साहिर लुधियानवी और क़तील के बीच खासा दोस्ताना था। साहिर ने क़तील की एक ग़ज़ल का मतला 'जब भी चाहें इक नई सूरत बना लेते हैं लोग / एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग' को फिल्म 'दाग़' (73) में 'जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग / एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग' बनाकर इस्तेमाल किया था। खैर ! यह तो एक दोस्ताना लेन-देन का मामला है वरना हमारे दौर के उच्चके तो चोरी भी बाप का माल समझ के करते हैं। यह और बात है कि कभी-कभी 'बाप' को ग़ुस्सा आता है तो फिर....

हर कामयाब अदीब-शायर के राईटिंग प्रोसेस को लेकर पढऩे वालों के मन में हमेशा एक $ख्वाइश बनी रहती है। अक्सर एक-दूसरे से अलहिदा होने के बावज़ूद यह होता बड़ा दिलचस्प है। प्रकाश पंडित ने क़तील के इस पहलू को बड़ी ख़ूबसूरती से उजागर किया है। उस पर मज़ीद यह कि क़तील के साथ-साथ कई और उस्ताद शायरों के बारे में भी बेहद दिलचस्प बातें लिख डाली हैं।

''किसी शायर के शेर लिखने के ढंग आपने बहुत सुने होंगे। उदाहरणत:, 'इक़बाल' के बारे में सुना होगा कि वे फ़र्शी-हुक़्क़ा भरकर पलंग पर लेट जाते थे और अपने मुंशी को शेर डिक्टेट कराना शुरू कर देते थे। 'जोश' मलीहाबादी सुबह-सवेरे लम्बी सैर को निकल जाते हैं और यों प्राकृतिक दृश्यों से लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। लिखते समय बेतहाशा सिगरेट फूंकने, चाय की केतली गर्म रखने और लिखने के साथ-साथ चाय की चुस्कियां लेने के बाद (यहां तक कि कुछ शायरों के सम्बंध में यह भी सुना होगा कि उनके दिमाग़ की गिरहें शराब के कई पैग पीने के बाद) खुलनी शुरू होती हैं। लेकिन यह अंदाज़ शायद ही आपने सुना हो कि शायर शेर लिखने का मूड लाने के लिए सुबह चार बजे उठकर बदन पर तेल की मालिश करता हो और फिर ताबड़-तोड़ डंड पेलने के बाद लिखने की मेज़ पर बैठता हो। यदि आपने नहीं सुना तो सूचनार्थ निवेदन है कि यह शायर 'क़तील' शिफ़ाई है।

'क़तील' शिफ़ाई के शेर लिखने के इस अंदाज़ को उसके लिखे शेरों को देखकर आश्चर्य होता है कि इस तरह लंगर-लंगोट कसकर लिखे गए शेरों में कैसे झरनों का-सा संगीत, फूलों की सी महक और उर्दू की परम्परागत शायरी के महबूब की कमर जैसी लचक मिलती है...'

अब ज़रा सोच देखें कि 'जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ / जाने क्यों लोग मेरे नाम से जल जाते हैं' जैसा रूमानियत से भरपूर शेर लिखने के लिए क़तील ने कितने डंड पेले होंगे। या फ़िर हो सकता है उठक-बैठक लगाई होगी।

 

इसी तरह ज़िंदगी को रंगारंग अंदाज़ से जीते, मुहब्बतों के नग़मे गाते-गुनगुनाते 11 जुलाई 2001 को इस जहाने फ़ानी को अलविदा कह गए। 


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