मुखपृष्ठ पिछले अंक डिजिटल पूंजीवाद : कारपोरेट संस्कृति का विमर्श
अक्टूबर-2017

डिजिटल पूंजीवाद : कारपोरेट संस्कृति का विमर्श

राजेश्वर सक्सेना

विमर्श

 

समुदाय और भीड़ की अवधारणा के एक नये युग में

 

उत्तर आधुनिक समाजविषयक अध्ययनों में विज्ञान, विज्ञान की पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के निष्कासन के बाद से सिद्धांत, सिद्धांत विषयक दृष्टि भी धूमिल हो जाती है। कहिये कि सिद्धांत-चर्चा ही समाप्त सी हो जाती है। अधिक से अधिक अब सिद्धांत को एक परिकल्पना (Hypothesis) की तरह देखा जाने लगता है। अब ऐसी परिकल्पना में 'पूर्वानुभविक सत्य' (a-priori truth) की जगह खुलने लगती है। कांट की इस 'पूर्वानुभविक कोटि' को एक नये उभार की तरह देखा जाने लगता है। साथ ही साथ इन्द्रियबोध से परे मन का महत्व भी बढऩे लगता है। ऐसे में अब 'निदर्शनात्मक आम रायों पर विश्वास किया जाना लगता है। समाज विषयक चिंतन में एक नई परिस्थिति दिखाई पडऩे लगती है। अब व्हाया 'प्रतिमान-स्थानांतरण' (कुह्न) के दृष्टिकोण से अवधारणा का विचार अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लेता है। इस तरह आज हम अवधारणाओं के समय में हैं, जो संकेतविज्ञान के भी अनुकूल है।

कई बार एक नई अवधारणा में आना ही एक नई घटना में होने जैसा होता है। भले ही वह घटना कितनी विस्फोटक और विच्छेदकारी क्यों न हो, अनिवार्य लगने लगती है।

डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्मार्ट इंडिया अर्थात् आज का भारत अपनी एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी के साथ घातांक तकनालाजी Exponential Technology) की क्रांति के प्रवेश द्वार पर खड़ा है, जो बहुतायत के अर्थशास्त्र वाली है। (बहुतायत का यह विचार 'भूमंडलीकृत दृष्टि' की तरह है।)

स्पष्ट है कि आज का भारत 'बहुतायत के अर्थशास्त्र' की एक नई अवधारणा में है। वह कैशलैस के विचार में इसी तरह बुलेट ट्रेन में सफर करने लायक समाज के बदलाव के विचार में है। यह कहा जा सकता है कि मुद्राविहीन आर्थिक क्रियाओं में आना आज के फुर्तीले भारत का एक लक्षण है, एक अनिवार्य लक्षण है।

 

                                          (1)

 

आनंद प्रधान ने कहा है कि भारत एक अजगर की तरह है जिसकी पूंछ आदिम युगों में है और उसका मुंह इक्कीसवीं सदी में है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी का भारत अपने अधि-मानस की शांत-प्रशांत दीर्घ विरासत की जय जयकार करते हुए, पौराणिक मिथकों की जिन्दगी जीते हुये, मिथक-परम्परा को माथे पर तिलक की तरह लगाये हुए, आज की ई-तकनालाजी की वेगपूर्ण गति के नवाचार में है।

तो क्या यह कोई अन्तर्विरोध है? विरोधाभास है? नहीं। यह तो भारत के आत्मवाद (Subjective idealism) की विरासत का भी एक संरुपणात्मक या आकृतिमूलक स्थानांतरण है, आज की डिजिटल तकनालाजी के प्रयोग का एक नया आकारिक गठन है।

जैसा कि हम जानते हैं कि मनुष्य जाति के विकास का एक महत्वपूर्ण अध्याय आधुनिक, आधुनिकता के विचार का भी है जिसमें पहली बार ज्ञान और क्रिया के रुपांतरणशील वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण की रचना, जीवन की अन्तर्वस्तु के विकास की दृष्टि-रचना संभव हो सकी है। ऐसी वस्तुनिष्ठ रचना के आधार से ही एक प्रश्न उठाया जा सका है कि अभी तक तो हमारी इस दुनिया की व्याख्या की जाती रही है, प्रश्न तो इस दुनिया को बदलने का है। तो यह 'बदलना' प्रकृतिवादी विकासवाद की परिधि से छलांग लगाकर बाहर निकलने के अर्थ में है। प्रकृति की द्वन्द्वात्मक शक्ति को जानने, पहचानने, जीवन सम्बन्धों की गतिकी के नियमों को जानने पहचानने के अर्थ में है।

यह प्रश्न आधुनिक युग के उस दार्शनिक ने उठाया जो दर्शन को विज्ञान, तकनालाजी और उद्योग की शक्ति से अलग करके नहीं देखता था। उसने पहली बार यह स्पष्ट किया कि दर्शन जीने की 'एक आवश्यकता' है और यह आवश्यकता दिक्काल सापेक्ष विकास की संभावना का विषय है और यह संभावना होने और क्रिया करने में फलित होती हुई है।

कार्ल माक्र्स का यह प्रश्न (दुनिया को बदलना है) विज्ञान, दर्शन और जीवन सम्बंधों के विकास की दृष्टि वाला, इतिहास-विचार की दृष्टि वाला था। कह सकते हैं कि यह प्रश्न मनुष्य जाति की जीवन-यात्रा में, पहली बार, एक 'सकारात्मक ठोस' में उठाये गये कदम की तरह था। वह जीवन के वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण की रचना की आवश्यकता में था। इस प्रश्न के साथ दर्शन को यथार्थवादी और भौतिकवादी अर्थमीमांसा में खींचकर लाया जा सका है। इस प्रश्न के साथ ही दर्शन की आत्मा विस्फोटित हो उठती है और जागरण की किरणें दिग्-दिगंत तक फैलने लगती हैं। अब मनुष्य और मनुष्यता के विचार का फलक केन्द्र पर आने लगता है।

बस, एक गुनाह हो गया, दर्शन को ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिये जाने का, जिसकी सज़ा मनुष्य जाति को अभी तक भुगतनी पड़ रही है। बस, एक गुनाह हो गया 'वस्तुनिष्ठता' के विचार को उकेरने का, स्पंदित करने का, उत्कर्षित करने का, जिसकी सज़ा अभी तक भुगतनी पड़ रही है। दर्शन के 'आत्मनिष्ठ' पर प्रश्न उठाने की जो हिम्मत की गयी थी, उसकी सज़ा विज्ञान और इतिहास को यह मिली कि अब, आज के इस डिजिटल समय को 'उत्तर सत्य' का समय कहा जाने लगा है।

उद्योग और विज्ञान की क्रान्ति के कारण कभी दर्शन में जो विस्फोट हुआ था, फलस्वरूप नये-नये ज्ञानानुशासन अपना-अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने लगे थे, आज वे सभी ज्ञानानुशासन स्वत्वहीन होकर, अपनी अपनी अंतर्वस्तु के साथ विलुप्त हो जाने को अभिशप्त से हो गये हैं। तो इस तरह, मनुष्य जाति आज के डिजिटल समय में पुन: आत्मनिष्ठ आदर्शवादी मोड़ ले चुकी है। वह अब 'क्यों' से पैदा होने वाले सवालों से बाहर हो चुकी है और 'कैसे' से पैदा होने वाले सवालों की होकर रह गयी है। वह अब 'तकनालाजी केवलम्' के विचार की होकर रह गयी है।

 

                                          (2)

 

‘...rather than the internet of information it’s the internet of value or of money’

Blockchanin Revolution

कौन नहीं जानता कि आधुनिक युग में उत्पादन के अर्थशास्त्र का सांस्कृतिक तर्क एक मुख्यधारा की रचना के अर्थ वाला था, वह वस्तुनिष्ठ यथार्थ की प्रक्रियाओं वाला था। वह अनुभववादी परिधि में था।

इसी तरह उत्तर आधुनिकतावादी दौर में उपभोक्ता के अर्थशास्त्र का सांस्कृतिक तर्क हर तरह की धारा (विचारधारा) के विखंडन का था। वह वस्तुनिष्ठता की कोटि के निरसन का था। यहीं से संस्कृति का विचार भी इतिहास और समाज की अनुभववादी ज्ञानमीमांसा से मुक्त होता दिखाई देता है।

जबकि, आज के कारपोरेट तंत्र, कम्पनी तंत्र के समय के 'सृजनशील अर्थशास्त्र' (Creative Economy) का सांस्कृतिक विमर्श डिजिटलाइज्ड होने का है। मतलब यह कि जो काम मानवीय बुद्धि से सम्पन्न होता है, चाक्षुष प्रत्यक्ष, वाक्-अभिज्ञान, निर्णय लेने और भाषांतरण से सम्पन्न होता है, वह अब कम्प्यूटर के द्वारा निष्पादित होता है। इस 'सृजनशील अर्थशास्त्र' को ज्ञान का अर्थशास्त्र (गणित के आंकड़ों, कम्प्यूटर के डाटाज़) भी कहा जाता है जो आईडियाज़ का कारोबार करता है। ऐसे में अब एक आइडिया स्वयं में एक धंधा-स्वरूप है। स्पष्ट है कि, आज हम आइडियाज़ का, कहिये कि मानसिक रूपरेखा का या युक्ति का व्यवसाय करते हैं। सूचना का आदान प्रदान करते हैं। इन आइडियाज़ का उत्पादन-सृजन करने, उन्हें एकत्रित करने और उन्नत रूप में (परिष्कृत रूप में) परियोजित करने तथा उनका विनिमय-वितरण करने की योग्यता हासिल करते हैं। इसे अपने एक सांकेतिक अर्थ में इस तरह भी समझा जा सकता है कि हम आइडियाज़ का वस्तुकरण करने की योग्यता हासिल करते हैं।

रेखांकित करने योग्य है कि इस 'सृजनशील अर्थशास्त्र' की, डिजिटल अर्थशास्त्र की यह विशेषता है कि उसमें 'सिस्टम के किसी विचार को, सिस्टम के व्यूहन (matrix) के विचार को महत्व नहीं दिया जाता है।' अब, अर्थक्रिया के विचार का पूरा ताना-बाना बिखर गया है। अब, व्यूहन का विचार भी पीछे छूट चुका है। तो इस तरह यह स्पष्ट है कि आज की 'डिजिटलाइड अर्थक्रिया में सिर्फ गति, कम्पन या स्पंदन की अस्थिरता' रहती है। वह हर क्षण नये की, नवाचार की ज़रूरत में होती है।

यह कि 'अर्थशास्त्र  सिस्टम नहीं है, यह एक मोशन है'। सिस्टम संतुलन चाहता है, जबकि, मोशन के विचार में हर समय नये की मांग, हर क्षण नई प्रयोगिता में होने या बने रहने को लक्षित किया जाता है। इसीलिए, इसे 'पेचीदगी के अर्थशास्त्र' (Complexity Economics) की तरह भी समझा जा सकता है।

The economy not as system in equilibrium but as one in motion, perpetually ‘computin itself, perperctually constructing itself a new. This new framework exmphasises contingency, indeterminacy, sense making and openness to change... until now, economics has been a Noun-based rather than Verb-based science.’

Exponential Organisations

इस तरह आज के इस सृजनशील अर्थशास्त्र की माँग है कि उसके चयापचय को त्वरित किये जाते रहना ज़रूरी है। क्योंकि अर्थशास्त्र अब भौतिक गुणों से रहित हो गया है। अब वह सूचना आधारित हो गया है।

तो ऐसा है आज का नया परिदृश्य जिसमें जीवन सम्बन्धों का और चेतना के उत्पादों का भी हर विचार डिजिटलाइड हो गया है। इसका संदेश एकदम स्पष्ट है कि

'या तो घातांकी तकनालाजी में आओ, या फिर मिट जाओ।' हर चीज़ गूगल से, 'कृत्रिम ज्ञान से'

ऐसे में, भविष्य में हमारी ज़रूरत' पर ही सवाल उठ गया है? Why the future does not need us? Robotics, nanotechnology, genetic engineering - all threaten human species, leaving us only one clear course of action... we are being propellec into this new century with no plan, no control, no brakes.’

Abundance

इस जगह पर, बिल क्लिंटन की इस उक्ति को पेश करना रोचक है कि -

Today we are learning the language with which God created the world.’

Abundance

बिल क्लिंटन की यह उक्ति क्या संकेत करती है? पहला पाठ यह कि यह व्याकरण बाह्य है, यह पश्यंतीवाक् से परे का जैसे कोई एक कर्तृत्ववाक् है, क्रियापदित वाक् है जिसे ईश-वाक् की तरह समझा जाता है। यही इस उक्ति की तत्वमीमांसा हो सकती है।

इस उक्ति का दूसरा पाठ यह भी हो सकता है जो हमें हमारे आद्य, प्राक्, आदिम, आदि-जात या आदित्व या बीजभूत और अबोध, तर्क और विवेक शून्य के भ्रमजाल में फँसाये रखता है, पूर्वानुभविक और ज्ञानातीत के भ्रमजाल में फँसाये रखता है।

इस उक्ति का तीसरा पाठ यह भी हो सकता है कि आज का डिजिटल वाक्, मानव-क्रिया के उत्पाद को नहीं जानता। वह बाह्य भौतिक पर्यावरण की गति-शक्ति के साथ मानव-संलग्नता, मानव क्रिया सापेक्ष संलग्नता को, इस तरह विज्ञान को, विज्ञान के दर्शन को नहीं जानता। इस तरह यह डिजिटल वाक् अज्ञेयतावादी वाक् है। इस डिजिटल वाक् को पैदा करने वाली गणित की विखंडीयता का विचार भी अज्ञेयतावादी है। इस तरह, आज हम अज्ञेयतावादी भाष्यों में होने और सीखने के समय में हैं। यह विशुद्ध आत्मनिष्ठ-आदर्शवाद के अलावा और कुछ नहीं है। ऊपर कहा भी है कि यह डिजिटल तकनालाजी का अज्ञेयतावाद है जो विराट शून्य की असंख्य और अनंत छवियों को बनाता-बिगाड़ता है। यह डिजिटल पर्यावर्णिकी का वाक् है।

 

                                            (3)

 

अब और आगे बढ़कर देखते हैं। आज का नया परिदृश्य है कि ज्ञान और क्रिया के क्षेत्र में छ: डी.(ह्यद्ब3 ष्ठ.ह्य) को देखा और समझा जाना ज़रूरी हो गया है -

1. Digitalization डिजिटलाइज़ेशन

2. Deceptiveछलयुक्त, भ्रमोत्पादक

3. Disruptive विच्छेदकारक, विध्वंसकता

4. Demonetize विमुद्रीकरण

5. Dematerialise भौतिक गुणों से रहित, विभौतिकीकरण

6. Democratise प्रजातांत्रीकरण

स्पष्ट है कि उक्त छ: डी.ज़ के चलते न सि$र्फ अर्थशास्त्र, बल्कि अर्थशास्त्र की पूरी संस्कृति, वैचारिक, कार्यकुशलता और व्यावहारिकता डिजिटलाइज्ड होकर स्मार्ट मांग और स्मार्ट पूर्ति के लिये जाने वाले व्यापार की 'लांग टेल' का विषय हो गयी है। क्रिस एंडरसन ने अपनी पुस्तक (The Long Tale - The New Economics of Culture and Commerce) में, जो कि 'बहुतायत के अर्थशास्त्र' में है, कहा है कि आज का 'एक उपभोक्ता व्यवसाय की लांग टेल में है और उसे अपनी चाहत का पसंदगी के अनुरूप अपरिमित विश्वस्तता उपलब्ध है।'

आज की डिजिटल पर्यावरर्णिकी में आइडियाज़ को कारोबारी बनाये रखने के वास्ते उनका उत्पादन, वितरण और उनका भोग-उपभोग करना और कुछ नहीं है, बल्कि, वह एक तरह का तकनालाजीकृत मानसिकतावाद ही है। यांत्रिक गति का मानसिकतावादी अर्थग्रहण ही है। आइडियाज़ का तकनालाजी के द्वारा किया गया आत्मकरण है। यह उपभोक्तावादी आत्मकरण है। विखंडीयता के विचार में उपभोक्तावादी आत्मकरण है। यह उपभोक्तावादी आत्मकरण 'आत्म' के वस्तुकरण और वस्तु के आत्मकरण की पहेली भी 'सत्ता मीमांसा के दर्शन की नहीं है, वह गणित की है (बोद्यू) गणित की विखंडीयता के विचार में है।

इस प्रकार आज की इस डिजिटल पर्यावर्णिकी में गणित के सापेक्षवाद को समझा जा सकता है कि डिजिटल तकनालाजी स्वयं में अनंत स्त्रोतों (infinite computing) वाली है। वह भौतिक-क्रिया से मुक्त है।

चूंकि, इस निबंध की मूल समस्या संस्कृति की है, कारपोरेट-संस्कृति की है, इसलिए, तकिन दार्शनिक स्तर पर पहुंचते हुए डिजिटल पर्यावर्णिकी के अत्मनिष्ठिीकरण, मनोगतिकीकरण को देखने का मन कर रहा है।

कहने का अर्थ यह है कि इस डिजिटल पर्यावरर्णिकी का सापेक्षवाद (आत्मवाद) प्रत्यक्षत: तो किसी भी तरह के पूर्वानुभविक और ज्ञानातीतीय (apriori and transcendental) से सम्बद्ध नहीं है, अध्यात्मवाद से सम्बद्ध नहीं है, परन्तु, परोक्षतया, वह आध्यात्मोन्मुख रूझान पैदा कर दे सकता है।

क्योंकि, सत्य-असत्य के विचार से परे का चित्त, शून्य के भाव से भर गये चित्त, रिक्त या खाली होकर रह गये चित्त में जो भी भराव होगा, या जो भी गैर आनुभविक (non-empirical) भराव होगा, इन्द्रिय ग्राह्य से रहित चित्त (mind away from senses) का जो भी भराव होगा, वह 'आत्म निजरूप' से ही होगा, या हो सकता है। अत: यह 'आत्मनिजरूप, डिजिटल पर्यवर्णिकी का आत्मनिजरूप 'अध्यात्म संकेतित' हो सकता है.

आज तो ऐसे विचार भी अपना अस्तित्व ले रहे हैं कि जॉक लकाँ के अवचेतन तंज्ञ को पतंजलि के ध्यानतंज्ञ से जोड़कर देखा जा सकता है। तो यह सब आत्मनिष्ठ आदर्शवाद की चकाचौंध है, इसके अलावा यह और कुछ नहीं है।

अब, जमीन पर पैर रखते हुए यह कह सकते हैं कि आज की कारपोरेट संस्कृति जो पूरी तरह से छ: डीज़ की पकड़-जकड़ में है, वरचुअल रियल के नज़ारे में है, वह भाषाई-आत्मवाद का डिजिटल अर्थग्रहण ही है, इसके अलावा वह कुछ भी नहीं है।

 

                                           (4)

 

यह डिजिटल क्रिया और उसका अर्थग्रहण क्या है? उसे छ: डीज़ की अति वेगवान-गति वाली आर्थिक-क्रियाओं से तथा उनके नतीजों से समझा जा सकता है। ये डिजिटलाइड नतीजे कारपोरेट संस्कृति के विशेष की तरह हैं।

इन नतीजों और उनके विशेषों को इस प्रकार समझा जा सकता है। मान लीजिए कि आज से पहले ज्ञानार्जन के लिए कई कई वर्ष, कई कई महीने लगते थे। अब उसे पाने के लिए कुछ घंटे या आधा घंटा लगता है। इसी तरह पहले दय सा पंद्रह वर्षों में पाठ्यक्रम को बदलने की ज़रुरत पड़ती थी, अब कुछ दिनों में ही उसके बदलाव की ज़रूरत को समझा जाने लगा है।

इसी तरह आज के कम्पनी तंत्र का हाल यह है कि अब एक्सपोनैनशियल हुये बगैर कोई 'सप्लाई चेन', काम नहीं कर पा रहा है।

कि पहले एक बड़ी कम्पनी को एक अरब रुपये कमाने में कई वर्ष लगते थे, जबकि आज एक छोटी कम्पनी कुछ दिनों में एक अरब रुपये कमा लेती है।

पहले अ से ब तक पहुंचने में वर्षों और महीनों का सफर तय करना पड़ता था, आज कुछ घंटों में ही गंतव्य तक पहुँचा जा सकता है।

अब, 'पंचवर्षीय योजना के विचार की मृत्यु' हो चुकी है। (Abndance, 127) अब योजना बनकर काम करने का समय नहीं रहा है।

अब व्यवसाय के सामने एक बड़ी समस्या यह है कि अतिवृद्धि तो है किन्तु इस अतिवृद्धि की गुणवत्ता में भी नवाचार, गुणवत्ता का नवाचार दिखना चाहिए। स्पष्ट है कि इस कारपोरेट-संस्कृति में जाति और वर्ग दोनों की संरचना इस बात पर निर्भर है कि किसके पास कितनी सूचना है और उस सूचना का उपयोग किस तरह किया जाता है। तकनालाजी ने सबको, मुक्त कर दिया है। अत: जाति और वर्ग दोनों का कोई सामान्य अर्थ बाकी नहीं रह गया है। दोनों का अमूर्त ध्वस्त हो गया है। अब हरेक को, अपने अपने तरीके से सोचने, बोलने और करने की छूट हासिल हो गयी है। अपने इस तरह के अर्थ में तकनालाजी प्रजातांत्रिक सी दिखाई देती है।

तो अब, इस डिजिटल के संदर्भ में प्रजातंत्र को समझना ज़रूरी हो गया है। कि यह डिजिटल प्रजातंत्र है, जो 'राजनीति नहीं' के विचार में है।

कहना चाहें तो यह कह सकते हैं वह गैर राजनीति की राजनीति या राजनीति विरोध की राजनीति करने के विचार में है।

इसी तरह, यह डिजिटलाइड प्रजातंत्र एक संस्था के विचार में नहीं है, वह एक स्ट्रक्चर की तरह है। वैसे भी डिजिटल क्रिया संस्था के विचार का विखंडन करने वाली होती है। इस तरह, आज एक राजनीतिक संस्था के रुप में प्रजातंत्र का उच्छेदन-विच्छेदन हो गया है।

 

 

 

                                                 (5)

 

समुदाय और भीड़ की अवधारणा

अब इस विषय के ढेर सारे बिन्दुओं को छोड़ते हुए सीधे समुदाय और भीड़ की अवधारणा-गठन के विचार पर आते हैं। स्पष्ट है कि समुदाय और भीड़ की ऐसी कोई अवधारणा अभी तक के समाजविज्ञानों में और मानविकी के विषयों में नहीं मिलती है।

सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि समुदाय और भीड़ का यह वर्गीकरण आज की डिजिटल तकनालाजी, डिजिटल पारिस्थितिकी, विशेषकर, आज की घातांक तकनालाजी और 'बहुतायत के अर्थशास्त्र' से सम्बद्ध है।

तब फिर, इस बहुतायत के अर्थशास्त्र का यदि कोई समाज विज्ञान और सामाजिक मनोविज्ञान हो सकता है तो वह विच्छेदनकारी परिस्थितियों की व्याख्या का और विच्छेदनकारी वृत्तियों-मनोवृत्तियों की व्याख्या का ही हो सकता है।

आज हम विलक्षणता के या एकवचनात्मकता (singularity) के समय में हैं। आज हम 'यह स्वयं करो' (Do it yourself - D.I.Y.) के विचार के समय में हैं। कहिये कि 'सेल्फी-सिन्ड्रोम' के समय में हैं। आज हमें यह ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है कि विच्छेदन एक डिजिटल-स्वभाव है।

 

सबसे पहले इस डिजिटल समय में डिजिटल तकनालाजी के प्रभाव की समझदारी हासिल कर लेना ठीक है ताकि इसकी आलोचना के वास्ते बेमतलब के घिसे-पिटे सवालों को उठाने से बचा जा सके। और यदि नये सवाल नये को नकारने के बारे में ही होंगे तो यथास्थितिवाद से मुक्त भी नहीं हुआ जा सकता।

In this digital age, techology is at the heart of just about every thing-good and bad. It enables numans to value and to violate one another’s rights in profound new ways. the explosion in online communication and commerce is creating more opportunities for cyber crime. Moore’s Law of the Annual Doubling of Processing Power doubles the power of fraudster and thieves- ‘Moore’s outlaw’ - not to mention spammers, indentity thieves, phishers, spies, zombie farmers, hackers, cyberbullies and datea-nappers - criminals who unleash ransomware to hold data hostage - the list goes on.

Don Trapscott & Alex Tapscott

Blockcchain Revolution. Page 4

उक्त उद्धरण की पृष्ठभूमि में ही आज के समुदाय और भीड़ के वर्गीकरण को देखा जाना ठीक है।

कि मानव गैर ज़रूरी होता जा रहा है और तकनालाजी नवाचार में है।

कि इस डिजिटल समय में पूरी मानव जाति मध्यवर्गीय विचार में आ गयी है।

अब, इस धरती पर, कहीं पर भी, कोई सर्वहारा-विचार बा$की नहीं रह गया है। अब, यह मान लिया गया है कि जो 'डाटा धर्म' को नहीं जानता, 'डाटावाद' के प्रति बेखबर है, वह विनष्ट किये जाने योग्य है, या फिर, बायोमास में घटकर रह जाने योग्य है।

 

'समाज जैसा कुछ नहीं होता है, समुदाय होते हैं, समुदाय-समूह होते हैं, परिवार होते हैं।' माग्र्रेट थैचर

यह समाज नामक पद जो कल तक अपने ऐतिहासिक विकास की प्रक्रियाओं में था, सम्बंधों की वस्तुनिष्ठ पहचानों में था, समाज विज्ञान और मानविकी के विषयों की ज्ञानकोटियों में था, समाज के वैज्ञानिक ज्ञान (S.S.K.) के अध्ययनों में था तथा ऐसे अध्यनों में नि:सृप्त होती हुई संवेदना की विधाओं में कल्पनाओं और अनुभूतियों में भी था, वह समाज, सामाजिक दृष्टिकोण आज विखंडित हो चुका है।

अब, आज की डिजिटल परिस्थिति में जिसे समुदाय की तरह और भीड़ की तरह देखा जाता है वह किसी परम्परा (इतिहास और नृविज्ञान की) से जुड़ा हुआ पद नहीं है। ये दोनों पद, समुदाय और भीड़ निर्मितिमूलक हैं, डिजिटल निर्मित हैं।

रेखांकित किये जाने योग्य यह है कि डिजिटल कंस्ट्रक्ट और डिजिटल इकॉनामी के संदर्भ में इन दोनों पदों का जो अर्थ है, वह नस्ल, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के संदर्भों वाला बिल्कुल नहीं है।

डिजिटल अर्थशास्त्र में यह समुदाय एक अन्तर्दृष्टि प्रधान समुदाय (intuit community) है। अर्थात् यह प्रत्यक्ष-ज्ञान या अन्र्तज्ञान वालों का समुदाय है। इस समुदाय को हर समय गुंजायमान (vibrant) बनाये रखा जा सकता है। क्षेत्र, प्रांत और पूरे राष्ट्र की सामुदायिकता के विचार को गुंजायमान बनाये रखा जा सकता है। इस समुदाय को तकनालाजी के नवाचार से गुंजायमान किया जा सकता है। स्पष्ट है कि, ऐसा नवाचार दक्षता प्राप्त, कौशलयुक्त और विशेषज्ञों के द्वारा ही संभव हो सकता है।

यह दक्षता प्राप्त, कौशलयुक्त 'डिजिटल इलीट्स' का समुदाय वर्ग है, यह साफ्टवेयर इंजीनियर्स और सर्विस क्लास का, नौकरशाहों का, सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारी वर्गों का समुदाय वर्ग है। उद्योग और व्यापार में कार्यरत लोगों का समुदाय है जिसे डिजिटल समाज की संज्ञा दी जा सकती है। तो इसे प्रबंधन की संस्कृति का वर्ग कहा जा सकता है।

भीड़ की अवधारणा क्या है?

Talent is not universal, but it’s widely spread : give enough people the capacity to create, and inevitably gems will emerge.

(The Long Tail, Page 54)

गढ़े हुये या निर्मित किये गये डाटाज़ और आंकड़ों के अर्थशास्त्र में लाखों, करोड़ों लोगों को नवाचार के कार्यों में लगाने और उन्हें प्रोत्साहन देने के वास्ते, 'स्टार्ट-अप' के विचार से जुडऩे और जोडऩे के वास्ते हज़ारों हज़ार और लाखों लाख प्रोजैक्ट बनाये जाते हैं। इन प्रोजैक्ट्स को आज के 'क्राउड-बेस्ट' 'स्टार्ट-अप' के विचार का, जन समूहों को नवाचारोंन्मुख करने के विचार का ज़रिया या स्रोत माना जाता है।

जनसमूहों (भीड़) की रचनात्मक गत्यात्मकता को कारगर बनाने और उससे लाभ कमाने का ज़रिया या स्रोत माना जाता है। इस तरह के उपक्रम से जनसमूहों को, भीड़ को समुदाय वर्ग में लाया जा सकता है। जनसमूहों को भी 'बहुतायत के अर्थशास्त्र' में ले लिया जा सकता है।

यह रेखांकित करने योग्य है कि जिसे यहाँ पर भीड़ कह रहे हैं, जनसमूह कह रहे हैं वह बहुतायत के अर्थशास्त्र की एक आर्थिक कोटि है। यह भीड़ आज के ग्लोबल गाँव वाले आर्थिक परिदृश्य में उपभोक्ता वर्गों की इधर उधर बिखरी हुई, मनमाना आचरण करने वाली एक आर्थिक कोटि है।

यह भीड़ शिक्षित है, स्वस्थ है तथा आज की डिजिटल तकनालाजी के इस्तेमाल की हर योग्यता हासिल करने लायक है।

यह भी कि इस भीड़ की कोई अन्तर्वस्तु नहीं होती है। कोई विचार-वस्तु नहीं होती है। यह किसी के नियंत्रण में नहीं होती है। यह आत्मसंयमित नहीं होती, बेलगाम या निर्बन्ध होती है।

यह भीड़ कम्पनी के संभारतंत्र से इतर के कार्यों को पूरा करने में मददगार हो सकती है। इस भीड़ को एक मुक्तदायी सृजनशील शक्ति (liberating creative power) की तरह उपयोग में लाया जा सकता है। (औद्योगिक पूंजीवाद के समय के संगठित सर्वहारा विचार की स्मृति जगाती है।) इस भीड़ को किसी खास प्रयोजन या उद्देश्य के लिये संगठित भी किया जा सकता है।

हम देखते हैं कि आज के बहुतायत के अर्थशास्त्र में क्राउड संसाधन का, क्राउड फंडिंग का विचार बहुत कारगर साबित होता दिखाई देता है।

आज के डिजिटलाइज्ड जीवन-सम्बंधों की एक उपयोगितावादी (pragmatic) अवधारणा यह है कि यह भीड़ चुनौतियों से भरी समस्याओं में मददगार साबित हो सकती है। मतलब यह कि, लाखों-लाख लोगों, कहिये कि, लाखों-लाख दिमागों को आज की ग्लोबल इकोनामी में शामिल किया जा सकता है। ये लाखों-लाख दिमाग आर्थिक क्रियाओं को उन्नत करने और पूरा करने में सहायक हो सकते हैं। इस भीड़ की अवधारणा का उपयोगितावाद यह भी है कि डिजिटल तकनालाजी के द्वारा आज की आवारा वित्तीय पूँजी के अनाप शनाप विनिमय-वितरण का जो बाजार तंत्र है, उसमें इस क्राउड फंडिंग को मुना$फा कमाने का एक स्त्रोत या ज़रिया बनाया जा सकता है।

सार यह है कि भीड़ को एक नये आर्थिक वर्ग की तरह मानना आज के दौर एक नई परिघटना (phenomena) है। आज क्राउड फंडिंग को एक आर्थिक नीति की तरह माना जाता है, इसे प्रतिमान-स्थानांतरण (paradigm shift) की तरह समझना ठीक लगता है।

 

क्राउड और क्राउड फंडिंग के ऐसे तकनीकी अर्थ के बाहर की भीड़ और 'भीड़ निधीयन' पर एक नज़र डालना बहुत ज़रूरी है। यह भीड़ 'नृविज्ञान' के विषय क्षेत्र की है। ये भीड़ वंश विषयक स्वभाव (geneological characteristic) वाली है। नीत्शे की भाषा में कहें तो पशु-समूहों की नैतिकता (Herdanimal morality) में आश्वस्त रहने वाली है। नस्ल, गोत्र, वंश, कबीले, धर्म, सम्प्रदाय आदि के रूढ़ विचारों में, रूढ़ रीति-रिवाजों में बनी रहने वाली भीड़ है। यह तरह तरह के मिथकीय नमूनों का नवीनीकरण करने वाली भीड़ है। प्रकृतिवाद इसकी जीवनचर्या है और आत्मवाद इसका मनोलक्ष्य है।

यह भीड़ इतिहास मार्ग से भी आती है। आज के ऐतिहासिक दौर में यह भीड़ इसलिए भी है कि वह अपनी राजनीतिक चेतना और सामाजिक चेतना खो चुकी है। आज हाशिये पर या हाशियों पर आ गये जनसमूहों को, उनकी पृथक-पृथक पहचानों के विमर्शों में वर्गीकृत किया जाता है। पहचान का यह विमर्श अलगाववाद को बढ़ावा देता है, यह विखंडनवादी विमर्श है, इस अर्थ में यह इतिहास निषेध का विमर्श है। ऐतिहासिक को नृवैज्ञानिक में तब्दील कर दिये जाने वाला विमर्श है।

 

आज जिसे 'रचनाशील ध्वंस' (creative destruction) कहा जाता है, इसी तरह आज जिसे 'षडयंत्रकारी सिद्धांत' (conspiracy theory) कहा जाता है, उक्त दोनों का प्रयोग भीड़ को रैडीकल तरीके से उकसाने और वक्ती स्वार्थों को पूरा करने के लिये किया जाता है। इसलिये अब 'ध्वंस', 'षडयंत्र' और क्राउड फंडिंग पर नये सिरे से सोचना पड़ता है।

ये ध्वंस और षडयंत्र एक नई वैचारिकी की तरह आज के नवउदारवादी क्रियाकलापों में सहजतया दिखाई देते हैं, नवउदारवादी कूटनीतिक और रणनीतिक तौर तरीकों में साफ-साफ दिखाई देते हैं। कौन नहीं जानता कि आज के परिदृश्य में 'ह्यूमन रिसोर्स' का विचार भी जैसे इस क्राउड रिसोर्स के विचार में तब्दील होकर रह गया है। (वैसे भी, अब रोज़-रोज़ चेताया जाता है कि मनुष्य और मनुष्यता का, मानवीयता का युग समाप्त हो गया है।) नवउदारवादी अर्थशास्त्र में ऊंची छलांग लगाने के विचार वाली अनेक लोकतांत्रिक सरकारें ह्युमन के विचार को पीछे छोड़ चुकी हैं। लगता है कि जैसे वे भीड़ की, भीड़ के द्वारा और भीड़ के अर्थद्योतन वाली होकर रह गयी हैं। कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि आज एक देश और एक राष्ट्र का देश, भीड़ का राष्ट्र होकर रह गया सा दिखाई पडऩे लगता है।

आज, जबकि लगभग पूरी मनुष्य जाति ही डिजिटल तकनालाजी से मुखातिब है। अब वह डाटाज़ और आंकड़ों में सोचने लग गयी है। 'डाटाज़ धर्म' को मानने लग गयी है। ऐसे में जब हम डिजिटल इंडिया का उच्चारण करते हैं तो ऐसा उच्चारण पूरे देश या पूरे राष्ट्र का समुदाय और भीड़ में वर्गीकृत हो चुके एक नये रुप का आकृतिमूलक स्थानांतरण (gostalt shift) जैसा कुछ दिखाई देने लगता है। स्पष्ट है कि इस तरह आज हम डिजिटल अर्थ मीमांसा के रच-रचाव में हैं। यह ध्वनि क्षेत्र का रच-रचाव है, जो वस्तु के अस्तित्व को नकारता है।

 

''इस क्राउड फंडिंग का लाभ हमेशा दक्षिणपंथी ताकतों को मिलता है। दक्षिणपंथी राजनीति करनेवालों को मिलता है।''

आज के इस भूमंडलीकृत डिजिटल अर्थशास्त्र के समय में डिजिटल साम्राज्यवादी और डिजिटल उपनिवेशवादी करतूतों की और उनके मंसूबों की अनदेखी नहीं की जा सकती।

वे नव साम्राज्यवादी और नव उपनिवेशवादी एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के देशों में झूठ, फरेब, $फरत और हिंसा की, अपराध की चित्त-रचना या मनो-रचना के लिये अकूत धन मुहय्या करते हैं। इन तमाम देशों की अपनी पारम्परिक बौद्धिक चेतना (rationality) और उनके आधुनिक विवेक को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए धन मुहय्या करते हैं। वे इन देशों की मानवीय पूंजी और प्राकृतिक सम्पदा की लूट के वास्ते, ज़रुरत पडऩे पर मानवीय चेहरा लगाकर, तरह तरह की फंडिंग करते हुए, छल, छद्म की वक्तृता का प्रयोग करते हुए इन देशों में गृह युद्ध के हालात पैदा करते हैं। इन देशों का 'सृजनशील ध्वंस' करते हैं। कौन नहीं जानता कि आज का आतंकवाद, जो अब एक ग्लोबल परिघटना की तरह है उसका दारोमदार क्राउड फंडिंग की देन है। कौन नहीं जानता कि अरब देशों की तबाही के पीछे इस क्राउड फंडिंग का बड़ा हाथ है। फूट डालो और मारो की साम्राज्यवादी शतरंज बिछी हुई है। लगता है कि पूरी मनुष्य जाति ही इस खेल को खेलने के लिए विवश सी हो गयी है।

गोला-बारूद इतना है कि पूरी धरती को कई कई बार विनष्ट किया जा सकता है। तबाही मचा देने वाले षडयंत्रकारी सिद्धांतों की भी कोई कमी नहीं है। तो इस तरह के घटना-युद्ध, आज के गृह-युद्ध के एक नये रुप की तरह हैं। इनमें अवधारणा-युद्ध की तरह भी देखा जा सकता है।

खतरनाक यह है कि अब घटना के साथ निधीयन (event and funding) के मूर्त-अमूर्त का एक सैद्धान्तिक फलक जैसा कुछ तैयार हो गया है। मतलब यह कि फंडिंग से की जाने वाली घटनायें जैसे आज अपने व्यक्तीयन (individuation) रुप में महत्व वाली हो गयी है।

लगता है कि जैसे घटनाओं का चेतनात्वारोपण हो गया है। नतीजा यह हुआ है कि चारों तरफ एक तरह के अहंमात्रवाद का शंखनाद सुनाई पडऩे लगा है। कह सकते हैं कि आज विध्वंस की एक ऐसी आत्मपरक छवि बन चुकी है जो एक उपभोक्ता को मनोगतवादी सुख का आनंद प्रदान करती है। विध्वंस के संदर्भ में क्या यह किसी तरह के 'अस्तित्व का सौन्दर्यशास्त्र' है? क्या इसे रुढि़वादियों (अनुभव-प्रत्यक्ष की सत्ता को नहीं मानने वाले) के अस्तित्व का विचार दर्शन कहा जा सकता है? क्या इसे अहंमात्रवादियों के अस्तित्व का अतियथार्थवादी अभिव्यंजन कहा जा सकता है?

ऐसी हालत में, सत्ता पक्ष के द्वारा 'इकोनामिक शाक थैरेपी' का प्रयोग करना, जो आज के डिजिटल पूंजीवाद की आवश्यकता हो सकता है, आसान हो जाता है। यह किसी एक देश की नहीं, बल्कि भूमंडलीकृत दुनिया के तमाम देशों की समस्या है। ऐसे में जनसंख्या की अनावश्यक बढ़त का ग्रा$फ नीचे किया जा सकता है। सोशल-इंजीनियरिंग के द्वारा गैर-ज़रुरी मान लिये गये का सफाया किया जा सकता है। कचरा हो चुकी ज़िन्दगी को कचरेदान में फेंका जा सकता है। इसे 'ईश्वर की इच्छा' की तरह समझा और समझाया जा सकता है।

अंत में यह कि आज का डिजिटल तकनालाजी ने एक और बड़ा खतरा यह पैदा कर दिया है कि कहीं नवाचार के वास्ते कोई विचार-युद्ध (war of ideas) न शुरु हो जाए? यदि ऐसा होता है तो समुदाय नामक वर्ग भी संकट में पड़ जा सकता है? सम्पूर्ण व्यापार जगत उलट पलट जा सकता है। आज व्यापार-युद्ध की बात की जाने लगी है। यदि व्यापार-युद्ध शुरु होता है तो इसे विचार-युद्ध के लक्षम की तरह समझा जा सकता है। तब फिर, वैसी हालत में कारपोरेट-प्रबंधन की संस्कृति को बचाये रखना मुश्किल हो जा सकता है।

 

-प्रवासी (समुदाय और भीड़) समस्या और अमेरिका

डिजिटल जीवन शैली वाले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सात मुस्लिम देशों के आप्रवासियों को अमेरिका प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है और जो गलत ढंग से रह रहे हैं, उन्हें निकाल दिया जाएगा, ऐसा आदेश दिया है।

राष्ट्रपति के इस आदेश का विरोध अमरीका और योरोप के देशों में हो रहा है। अमेरिकीन न्यायालय, जो उच्च मानकों वाला माना जाता है, वह भी इस आदेश पर सन्देह करता दिखाई देता है।

हड़कम्प इसलिये मचा हुआ है कि इस आदेश से आज की भूमंडलीकृत मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था के मानकों पर बुरा असर पड़ेगा, संरक्षणवाद को बढ़ावा मिलने लगेगा। दुनिया भर की भू-राजनीति, जो आमरायों को $कायम करके चलती है या चलाई जाती है, उसमें रुकावटें पैदा हो जा सकती हैं। उत्तर और दक्षिण के आर्थिक सम्बंधों में गिरावट आ सकती है। कुल मिलाकर, मुक्त बाज़ार के प्रजातांत्रिक ढाँचे की साख को बट्टा लग जा सकता है।

यहाँ पर समस्या के क्या और क्या में न जाते हुए, इसी तरह अमेरीकी नव्य प्रैग्मैटिज़्म की संस्कृति पर कोई टिप्पणी न करते हुए, बस, इतना भर कहना चाहते हैं कि यदि सामाजिक सम्बंधों के बारे में डिजिटल अर्थशास्त्र के द्वारा किये गये वर्गीकरण (समुदाय और भीड़) की दृष्टि से देखा जाए तो अमेरिका में आप्रवासी, मुख्य रूप से मुस्लिम देशों के आप्रवासी भी अमेरीकन अर्थतंत्र के नवाचार को बनाये रखने में मददगार हैं। मुसलमान आप्रवासी अमेरीकन समुदाय की संस्कृति का अंग हैं। वे वहाँ के शिक्षा, स्वास्थ्य विभागों में, वहाँ के सामान्य प्रशासन में अपनी योग्यता का परिचय दे रहे हैं। ज्ञान के कोर अनुशासनों में भी उनका योगदान है। अमेरीकन एकादमिज़्म में उनकी अपनी पहचान है। अत: उनका विरोध अमेरीका के हित में नहीं है। वह नवउदारवाद के और भूमंडलीकृत मुक्त बाज़ार के भाव के विरुद्ध है।

अमेरीका के डिजिटल परिदृश्य में ऐसी नस्लवादी सोच क्यों है? इस पर मैंने खूब विस्तार से लिखा है। आज जिसे 'उत्तरसत्य' के समय की तरह देखा जाता है (जिससे एक कारक के रुप में डोनाल्ड ट्रंप भी हैं) वह, वास्तव में कुछ नहीं है, वह अमेरीकन 'नव्य प्रैग्मैटि ज़्म' की ही एक नई वक्तृता, एक नई राजनीतिक वक्तृता भर है।

यह अमेरीकन 'नव्य प्रैग्मैटि ज़्म' है जिसमें व्हाया डिजिटलाईज़ेशन मनुष्य का विचार ही गुम चुका है। यह भी अतिदक्षिणपंथी रुझान के अनुरुप है कि मनुष्य जाति, जो भीड़ की तरह है, उसे कम कर दिया जाना ठीक है।

कौन नहीं जानता कि विज्ञान के सामने खड़ा होकर सवाल करने के समस्त रास्तों को बंद कर दिया गया है। विज्ञान की सोच वर्जित है, कि विज्ञान नास्तिक है। विज्ञान का मूल्यों से कोई सम्बंध नहीं होता है, वह मूल्य-मुक्त है। विज्ञान की वस्तुनिष्ठता का विचार असंगत है, मिथ्या है। ई-तकनालाजी के नवाचार ने हमें वस्तुनिष्ठ विचार के वर्चस्ववाद से मुक्त कर दिया है। ऐसे में प्रतिरोध और विकल्प के विचार की भौतिक शक्ति विखंडित हो गयी है। प्रतिरोध और विकल्प के विचार का विज्ञान विखंडित हो गया है।

ऊपर के परिच्छेद में 'अमृत मंथन' की ज़रूरत बताई गयी है। स्पष्ट है कि आज दुनिया को, विशेषकर अमेरीका को, एक नये रिनासा की ज़रूरत है। अमेरीका को अपने पुराने रिनासा को खंगालने की और उसे नया बनाने की ज़रूरत है।

अत: 'तकनीकी रुढ़' हो चुके अमेरीका को एक 'जीवंत तकनालाजी' की ज़रुरत है। तकनालाजी को गुणात्मक विचार में लाने की ज़रुरत है। क्या मतलब? मतलब यह कि तकनालाजी के, डिजिटल तकनालाजी के पदों का, जटिल परिभाषिक पदों का हमारे दिन-प्रतिदिन की जीवन-चर्या पर जो घना घटाटोप छाया हुआ है, उससे मुक्त होने की आवश्यकता है। आज तो ज्ञान और क्रिया के सम्पूर्ण क्षेत्र का उच्चारण ही डिजिटल हो गया है।

जरुरत है कि जीवन के विचार को, विज्ञान की भाषा में, विज्ञान की अति सूक्ष्म जटिल प्रक्रियाओं की भाषा में, जीवन सम्बन्धों के विज्ञान की भाषा में, जीवन सम्बंधों की अति सूक्ष्म जटिल प्रक्रियाओं के विकास की भाषा में, व्यापक कोटि के अनुकूलन को स्पष्ट करने वाली भाषा में व्याख्यायित किया जाए।

विज्ञान तकनालाजी नहीं है, वह दर्शन भी है। ज्ञान मीमांसा के बगैर विज्ञान में पदार्थ और ऊर्जा का, गति और शक्ति का स्पंदमान और उत्कर्षमान स्वरुपांकन और मूल्यांकन संभव नहीं हो सकता। इसके वास्ते यह ज़रुरी है कि 'मूल्य मुक्त' हो चुके विज्ञान के विचार को 'मूल्ययुक्त' के विचार में तब्दील किया जाए।

चूंकि, अमेरीका का विज्ञान डार्विन के विकासवाद को महत्व देता है, इसलिए, डार्विनवादी विज्ञान के रास्ते से 'जीवन और विचार' के बारे में, डिजिटल तकनालाजी के समानान्तर 'जीवन और विचार' के विज्ञान पर जो विश्वसनीय शोध हुआ है और लगातार जारी है।

आँख से दिखने वाले ज्ञान को तकनालाजी में डाल दिया गया है। किन्तु जो नहीं दिखता वह? जीवन का अमूर्त और विचार का अमूर्त, जो अपनी अनंतता में असंख्य रुपों, गुणों और क्रियाओं का उद्भावक है, मूर्तमान होता हुआ है, ज्ञात में आता हुआ है। अत: अमूर्त से मूर्त और मूर्त से अमूर्त की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान का सत्य है, विज्ञान के दर्शन का सत्य है। और फिर, तकनालाजी अमूर्त को नहीं जानती।

 

 

हिन्दी के शीर्ष मार्क्सवादी आलोचकों में डॉ. सक्सेना की प्रतिष्ठा है। नये से नये गलियारों में आपका अध्ययन है। बिलासपुर छत्तीसगढ़ में निवास।


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