मुखपृष्ठ पिछले अंक अक्टूबर क्रांति के सौ वर्ष
अक्टूबर-2017

अक्टूबर क्रांति के सौ वर्ष

जीतेन्द्र गुप्ता

एक महान क्रांति

की शताब्दी

 

सारी सत्ता सोवियतों के हाथ में! लाखों-करोड़ों आम मज़दूरों, सिपाहियों, किसानों के प्रत्यक्ष प्रतिनिधियों के हाथ में! हमें ज़मीन चाहिए, हमें रोटी चाहिए। बेमतलब की लड़ाई का खात्मा चाहिए... क्रांति ख़तरे में है, और उसके साथ सारे संसार में जनता का ध्येय ख़तरे में है!

अक्टूबर क्रांति के समय बोल्शेविकों का नारा

 

बीसवीं शताब्दी क्रांति का युग थी। अक्टूबर क्रांति से आधुनिक मनुष्य सभ्यता का एक नया अध्याय शुरु होता है। इस गौरवपूर्ण क्रांति का स्वप्न लगभग 60 वर्ष पूर्व 'कम्युनिस्ट मेनीफैस्टो' के प्रकाशन के साथ देखा गया था। महान परिवर्तन का यह स्वप्न दुनिया की गरीब, वंचित, शोषित और उत्पीडि़त जनता के लिए था। सामंती दौर के उत्पीडऩ से मुक्ति की एक सुनहरी इबारत फ्रांसीसी क्रांति ने विश्व सभ्यता के परचम पर लिखी थी। मनुष्यों के बीच समानता के अधिकार की घोषणा के साथ फ्रांसीसी क्रांति ने जनतंत्र के जिस राजमार्ग को प्रशस्त किया, अक्टूबर क्रांति* (1917) उसकी तार्किक परिणिति थी।

बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के आते-आते पूंजीवादी व्यवस्था के चेहरे पर मौजूद उदारता का नकाब उतर चुका था और मुना$फाखोरों के असहनीय शोषण से सर्वहारा जनता व्यवस्थागत विकल्प की तलाश में बेचैन थी। यूरोप की तुलना में रूस का औद्योगिक विकास बहुत क्षीण था, लेकिन यूरोपीय जनता की तुलना में रुसी सर्वहारा वर्ग का शोषण अत्याधिक तीव्र था। क्रांति के पूर्व रुस की 80 फीसदी जनता कृषि पर निर्भर थी, इसके बावजूद कृषि भूमि पर जनता का अधिकार नहीं था। एक तिहाई किसान भूमिहीन थे और अधिकांश भूमि पर भू-पतियों या सामंतों का अधिकार था। ज़ार एलेग्जेंडर द्वितीय के दौर में 1861 में भू-दासता की प्रथा को कानूनी तौर पर ख़त्म कर दिया गया था, लेकिन इस $कानून में इतनी कमियां थीं कि यह कानून भी किसानों की स्थिति में कोई बेहतरी नहीं ला सका था। और 1912 तक रूस के कई हिस्सों में भूदास प्रथा विद्यमान थी।

औद्योगिक क्षेत्र में भी क्रांति से पहले रुस ने कोई खास प्रगति नहीं की थी। विद्युत और मशीन निर्माण का कार्य ही औद्योगिक स्तर पर होता था। संयुक्त राज्य अमरीका में उस वक्त प्रति व्यक्ति लोहे का उत्पादन 336 किलोग्राम था, जबकि रुस में यह औसत 30 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति का था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाकी के उद्योगों की क्या स्थिति होगी। इसका परिणाम किसानों के ऊपर भी पड़ा। रूसी किसान लोहे के हलों का इस्तेमाल क्रांति के बाद करना शुरू कर पाए! हालांकि कई सारो उद्योगों और बैंकों में विदेशी पूंजी काफी मात्रा में लगाई गई थी। और ज़ार निकोलस द्वितीय के दौर में विदेशी पूंजी का एकाधिकार लगातार बढ़ता ही गया।

रूसी औद्योगीकरण की एक विशेष प्रवृत्ति पर ध्यान देना ज़रूरी है और इसका सामाजिक परिवर्तन से गहरा रिश्ता है। रूसी उद्योगों में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति थी। रूसी सर्वहारा वर्ग का आधे से अधिक हिस्सा उन कारखानों में काम करता था, जहां मज़दूरों की संख्या 500 या उससे अधिक थी। इसके अलावा इन कारखानों का भू-क्षेत्र के हिसाब से भी गहरा संकेंद्रण था। पेत्रोग्राद, जो रूस की उस वक्त राजधानी भी था, इस तरह राजनीतिक केंद्र होने के साथ औद्योगिक केंद्र भी था। ज़ार निकोलस द्वितीय की सर्वसत्तावादी नीतियों के कारण मज़दूरों के जीवन की स्थितियां भी किसानों के जीवन स्थितियों के समान दयनीय थीं। 1908 में गठित एक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 60 फीसदी मज़दूरों को एक कमरे में रहना पड़ रहा है, जिसे एक से तीन परिवार साझे तौर पर इस्तेमाल में लाते हैं। इसके अलावा काम करने की स्थितियां उत्पीड़क होने के साथ गंदगी और भीड़ में भरी होती थी। इसके साथ सरकार ने मज़दूरों के विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों के िखलाफ कठोर दंड की व्यवस्था कर रखी थी। संयुक्त कार्यवाही में भागीदारी का अर्थ साइबेरिया के क्षेत्रों में निर्वासन या कारावास ही होता था।

प्रथम विश्वयुद्ध में रूस की भागीदारी ने रूसी समाज की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सामरिक स्थितियों को दयनीय स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। विश्वयुद्ध में युद्धरत दूसरे अन्य राष्ट्रों की तुलना में रूस को ज्यादा नु$कसान उठाना पड़ रहा था क्योंकि आर्थिक पिछड़ेपन के कारण वह शत्रुओं का मुकाबला करने में ही सक्षम नहीं था। सैनिकों को बिना किसी सैन्य सामग्री के सीमाओं पर भेजा जा रहा था और उनसे अपेक्षा की जा रही थी कि शत्रुओं के हथियारों को छीने और फिर संघर्ष करें! पश्चिमी राष्ट्र भी इस मामले में रूस की कोई मदद नहीं कर पा रहे थे क्योंकि युद्ध के कारण रेलवे की व्यवस्था बिल्कुल ध्वस्त हो गई थी। रेलवे के कारखानों को सैन्य सामग्री के उत्पादन में लगा दिया गया था और कई सारे रेलवे कर्मचारियों को युद्धस्थल पर युद्ध के लिए भेज दिया गया था!

ज़ार निकोलस द्वितीय और उनकी सरकार ने रूसी जनता का विश्वास 1905 में ही खो दिया था। रूस-जापान युद्ध के दौरान जनवरी 22, 1905 को रविवार के दिन लगभग डेढ़ लाख लोगों ने ज़ार के सम्मुख अपनी मांगों को रखने के लिए शाही महल की ओर मार्च किया। यह जनता अब तक ज़ार पर अटूट विश्वास करती थी और भरोसा करती थी कि ज़ार अपनी उदारता का परिचय देंगे। इसीलिए इस प्रदर्शन में मज़दूर और उनकी पत्नियां ज़ार के बड़े-बड़े चित्रों को लेकर चल रहे थे। लेकिन जनता पूरी तरह से भ्रम में थी। इस प्रदर्शन का खूनी दमन किया गया। लगभग 130 लोगों की तत्काल मृत्यु हो गई और सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में लोग जख्मी हुए।

'खूनी रविवार' की प्रतिक्रिया में मज़दूरों ने असंख्य हड़तालें की। ज़ार को मज़बूर होकर सुधारवादी कदमों की घोषणा करनी पड़ी। ज़ार ने प्रतिज्ञा की कि वह प्रतिनिधि संसद का आयोजन करेगा। इसके साथ व्यापक स्तर पर प्रशासनिक सुधारों के अलावा नागरिक स्वतंत्रता के लिए भी ज़ार ने वायदा किया। लेकिन ज़ार निकोलस द्वितीय अपने पूर्ववर्तियों की ही तरह 'राजत्व के दैवीय सिद्धांत' पर विश्वास करता था। अगले दस वर्षों का इतिहास प्रतिनिधि सभा द्यूमा (ष्ठह्वद्वड्डह्य) के अधिकारों और शक्तियों के पतन का इतिहास है। अक्टूबर क्रांति से पहले तक ये संस्थाएं नख-दंत विहीन सलाहकारी संस्थाओं की भूमिका मात्र में रह गई थीं।

1915 तक आते-आते एक ओर जनता के उत्पीडऩ में बढ़ोत्तरी होती गई, दूसरी ओर ज़ार की निरकुंशता अपनी सारी सीमाएं पार कर चुकी थी। सैन्य पराजयों ने ज़ार को मज़बूर किया कि वह सेना की कमान स्वयं संभालें। लेकिन निकोलस द्वितीय में किसी तरह की कोई सैन्य क्षमता नहीं थी। इसलिए स्थितियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दूसरी ओर ज़ार का शाही महल 'विंटर पैलेस' एक तरह से षडयंत्र के केंद्र में तब्दील हो गया था। ज़ार की अनुपस्थिति में ज़ारीना ने शासन तंत्र की कमान अपने हाथों में लेने का प्रयास किया। ज़ारीना जर्मन मूल की थीं, इसलिए जनता ने उसके निर्णयों पर न तो विश्वास जताया, न उनका अनुकरण किया। इसके अलावा रासपुतिन जैसे लोगों के कारण स्वयं शाही परिवार में असंतोष बढ़ता गया।

क्रांति के बारे में यह बिल्कुल असमान्य तथ्य है कि इसे कोई नहीं पहचान पाता है और पहचानने से पहले क्रांति इतिहास में अपनी जगह बना चुकी होती है। फ्रांसीसी क्रांति के बारे में भी यही सत्य है और रूसी क्रांति के बारे में भी। फ्रांसीसी क्रांति को पहले एक साधारण सा विद्रोह समझा गया था। विक्टर ह्यूगो ने अपने उपन्यास 'ले मिजरेबल' में इसे बड़ी आत्मीयता से दर्ज किया है। बिल्कुल इसी तरह 1917 से 8 से 11 मार्च के बीच पेत्रोग्राद में डबलरोटी और कोयले की बढ़ती असहनीय कीमतों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की शुरूआत हुई। इन कीमतों की वृद्धि के लिए भी ज़ार निकोलस की सनक ही जिम्मेदार थी।

उसने बढ़ते सैन्य खर्च से निपटने के लिए अधिक रूबलों को छापने का आदेश दे दिया था। 1914 की तुलना में 1917 में दस गुने से अधिक रूबल नोट प्रचलन में आ गए थे। अब यह मुहावरा बहुत सार्थक था कि टोकरी भर पैसों से हथेली भर सामान मिल पाता था।

रूस के ग्रेगेरियन कलेंडर के हिसाब से 1917 से 8-11 मार्च (जूलियन कलेंडर के हिसाब से 23-26 फरवरी) के बीच हुए महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों का परिणाम असाधारण था। महिलाओं के इन विरोध प्रदर्शनों में बोल्शेविक नेता अलेक्सेंद्राना कोलोंताई की बड़ी सार्थक भूमिका थी। इन विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए पुलिस और प्रशासन के अधिकारी भय के कारण छुप गए और 12 मार्च तक तो यह स्थिति हो गई कि सरकार का आदेश मानने के लिए केवल 'विंटर पैलेस' मे ंकाम करने वाले नौकर और कर्मचारी ही शेष बचे थे।

सरकार के अलावा इस समय क्रांतिकारी भी संशय में थे। उन्हें ख़्याल ही नहीं था कि क्रांति हो गई है और वे अभी भी 'क्रांति कैसे हो' के स्वप्न देख रहे थे। अंत में उन्हें, यानि क्रांतिकारियों को अहसास हुआ कि क्रांति तो गई है और शक्ति उनमें निहित है! लेकिन अब वे चिंतित थे कि शक्ति किसे सौपी जाए! अब मार्च (जूलियन कलेंडर कि हिसाब से फरवरी) क्रांति संपन्न हो चुकी थी।

समय का चक्र वहीं आकर शुरू हो गया था, जहां 1905 में उसे रोका गया था। ऐसा विश्व-इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। रूस में रोमानोव वंश के शासन का अंत हो चुका था। इसके साथ ही सोवियतों का युग का आरंभ हुआ, हांलाकि अभी इसके लिए कुछ महीनों का इंतज़ार था।

12 मार्च को ही हड़तालों के नेताओं की समितियां, कारखानों के चुने हुए प्रतिनिधि और समाजवादी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ मज़दूरों की परिषद बनाने के लिए इक्कट्ठी हुईं। राजधानी के सैनिकों ने भी अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर उन्हें इस सोवियत का सदस्य बना दिया। इसीलिए सोवियत का नाम परिवर्तित करके उसे 'मज़दूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सभा' कहा गया। 1905 में समय का चक्र इसी बिन्दु पर आकर रूका था। 1905 में ही इस संस्था का निर्माण किया गया था और 12 वर्षों के बाद यह संस्था पुनर्जीवित हुई थी।

इसके बाद अस्थायी सरकार का निर्माण किया गया। ज़ार द्वारा स्थगित की गई द्यूमा के कई सदस्यों के साथ राजकुमार ल्योव के प्रधानमंत्रित्व के अंतर्गत एक सरकार का निर्माण किया गया। इस सरकार में कैडेटवादी नेताओं के साथ अक्टूबरवादी नेता भी शामिल थे। इस सरकार में केवल एक समाजवादी नेता शामिल थे, अलेग्जेंडर केरेंस्की। लेकिन यह सरकार क्रांति को पीछे धकेलने जैसी थी। यह सरकार कोई शक्ति नहीं रखती थी। उदारवादियों और बुर्जुआ वर्ग के लोगों का इस सरकार में प्रभुत्व था। लेकिन यह वर्ग क्रांति से भयभीत था। इस सरकार में सशस्त्र मज़दूरों का सामना करने की हैसियत भी नहीं थी। असली सत्ता सोवियत के हाथों में थी। सोवियतों की रूसी समाज में अत्याधिक प्रतिष्ठा थी। ये केवल मज़दूरों की ही वास्तविक प्रतिनिधि सभाएं थीं, बल्कि सैनिकों की भी अपनी सोवियतें थी। सोवियत का निर्माण प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा किया जाता था, और मतदाता चुने हुए प्रतिनिधियों को कभी भी वापस बुलाने का अधिकार रखते थे। यही कारण  है कि सोवियतों को जनभावनाओं की गहरी समझदारी थी। वे जनता की भावनाओं से कभी अनभिज्ञ नहीं होती थी।

राजकुमार ल्यूब से केरेंस्की तक कई सरकारों के परिवर्तन के बावजूद इन सरकारों की नीतियां ज़ारशाही से भिन्न नहीं हो पाईं। केंद्रीकृत नौकरशाही के साथ जातीय समस्याएं वैसी की वैसी ही थीं। रूस में मौजूद विभिन्न जातीयताओं और राष्ट्रीयताओं के ऊपर ज़ार ने रूसी भाषा को थोप दिया था। अस्थायी सरकार इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर पाईं थी। यह सरकार इन समुदायों की स्व-निर्णय की मांग भी नहीं स्वीकार कर पा रही थी।

सोवियत क्रांति की कल्पना लेनिन के बिना की ही नहीं जा सकती है। लेनिन के बड़े भाई अलेक्जांदर उल्यानोव रूसी अराजकतावादी क्रांतिकारी धारा नरोदवाद का समर्थन करते थे। ज़ार की निरंकुश सरकार ने क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था। इस तरह लेनिन अपनी किशोरावस्था से ही विचारों के संघर्ष में मुब्तिला रहे। कजान विश्वविद्यालय में औपचारिक अध्ययन स्थगित करके वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हुए और रूसी जनता के संघर्ष को ज़मीनी स्तर पर समझा।

लेनिन का स्पष्ट रूप से मानना था कि 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है।' लेनिन को समझने का यह आधार सूत्र है। उन्होंने वैश्विक पूंजीवाद के अध्यन के साथ रूस के ज़मीनी हालातों को अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने दिया। फरवरी क्रांति के समय लेनिन विश्वयुद्ध में तटस्थ राज्य, स्विटजरलैंड में निर्वासन में थे। फरवरी क्रांति की सूचना पाते ही वे रूस लौट कर आए। सोवियतों की स्थिति के साथ कैडेट और दूसरे उदारवादी दलों के साथ उदारतावादी समाजवादियों के विचारों व कार्य-रणनीति का उन्होंने गहराई से मूल्यांकन किया। संशोधनवादियों के कारण क्रांति के ऊपर लगातार ख़तरा बढ़ता जा रहा था। लेनिन ने नई रणनीति को सैद्धांतिक स्तर पर व्याख्यातित करते हुए 'अप्रैल थीसिस' को प्रस्तुत किया। यह क्रांतिकारी मसौदा सार्वजनिक रूप से 7 अप्रैल (1917) को 'प्रावदा' में प्रकाशित हुई। मूलगामी परिवर्तन की मांग इस थीसिस का मुख्य-विषय था। लेनिन ने इस थीसिस में लिखा, 'रूस में वर्तमान परिस्थिति का विशिष्ट लक्षण यह है कि देश क्रांति के पहले चरण से - जिसने सर्वहारा की अपर्याप्त वर्ग चेतना और संगठन के कारण, सत्ता पूंजीपति वर्ग के हाथों में दे दी - दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा है, जिसे सत्ता अवश्य ही सर्वहारा और किसानों के सबसे गरीब हिस्सों के हाथों में दे देनी चाहिए।'

लेनिन की इस थीसिस के प्रकाशित होने के साथ उन पर असाधारण हमले हुए। बोल्शेविको के खिलाफ बदनामी का भयानक अभियान छेड़ा गया। इस वैचारिक संघर्ष को इस स्तर पर समझा जा सकता है कि स्वयं प्लेखानोव ने घोषणा कर दी कि 'अप्रैल थीसिस' अराजकतावाद और ब्लांकीवाद की मिश्रण है। समाजवादी नेता फ्लोदोर इल्यीच दान ने यहां तक कह दिया कि 'लेनिन अभी-अभी यहां पहुंचे हैं, वह रूस को नहीं जानते।' लेकिन शायद लेनिन से बेहतर रूस को कोई और नहीं जानता था। पार्टी कांग्रेस में अप्रैल थीसिस के अनुमोदन के साथ लेनिन ने क्रांति का नेतृत्व किया। पूंजीपतियों और राजतंत्रवादियों के षडय़ंत्रों के बीच लेनिन ने सोवियतों की सर्वोच्च संस्था मज़दूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की पेत्रोग्राद सोवियत के कमिसार की हैसियत से 25 अक्टूबर (7 नवंबर, 1917) अस्थायी सरकार के पदच्युत होने के घोषणा के साथ रूस की संप्रभुता सोवियत में निहित होने की घोषणा की। खून का कतरा बहाए बिना मज़दूरों और सैनिकों की अनुशासित टुकडिय़ों ने ज़ार के शरद प्रासाद पर अधिकार कर लिया। अब क्रांति पूर्ण हो चुकी थी, लेनिन क्रांति के नेतृत्वकर्ता थे।

अक्टूबर क्रांति का ढ़ांचा लगभग वही था, जैसा पेरिस कम्यून का था, जिसे कार्ल मार्क्स ने प्रेरणा के रूप में देखा था। अक्टूबर क्रांति ने इस स्वप्न को साकार कर दिया था कि पूंजीवाद का विकल्प मौजूद है और यह विकल्प समाजवाद है।

 

                                            (2)

 

अक्टूबर, 1917 में महान लेनिन के नेतृत्व हुई क्रांति ने कुत्सित और मनुष्य विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था के एक प्रतिवाद को जन्म दिया। इस क्रांति ने करोड़ों-करोड़ लोगों को स्वतंत्रता और मुक्ति का अहसास कराया। पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य जहां आर्थिक चक्र में मात्र एक पुर्जा बन कर रह जाता है, वहां श्रम की वास्तविक महत्ता को इस क्रांति ने सजीव रूप में साकार किया। सामूहिकता के आधार पर कृषि कार्यों को पुर्नसंयोजित किया गया। संक्रमण काल में रूसी मज़दूरों ने जिन कारखानों की पूंजीपतियों और विदेशी पूंजी के ठेकेदारों के अलावा राजतंत्रवादी कैडेटों के विध्वंस से सैनिकों की तरह रक्षा की थी, उन्हीं कारखानों को ऐसी श्रमगाह में तब्दील कर दिया गया कि पहले पंचवर्षीय योजना के बाद औद्योगिक उत्पादन में रूस जैसा पिछड़ा देश जर्मनी और अमेरिका को चुनौती देने की हैसियत में पहुंच गया।

सोवियत संघ में पहली बार दुनिया में 'बहुजातीयता' को गरिमा प्रदान की गई। क्रांति के समय रोजा लक्जमबर्ग के विरोधी सिद्धांत के बावजूद लेनिन ने बहुजातीयता को सैद्धांतिक जामा पहनाते हुए आत्मनिर्णय के उसूल को स्वीकारा। यही कारण था कि मज़दूरों और सैनिकों की सोवियतों के समर्थन के साथ बोल्शेविकों को कज्जाखों और दूसरी जातीयताओं का पूरे मन से समर्थन प्राप्त हुआ। आज के दौर में यह सैद्धांतिकी असाधारण महत्व रखती है क्योंकि यह नीति आज के व$क्त में मौजूद 'आंतरिक उपनिवेशवाद' जैसी पूंजीवादी प्रवृत्ति का विलोम रचती है।

सोवियत क्रांति ने सदियों से पिछड़े पड़े लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं दीं। ये सुविधाएं पूंजीवादी राज्यों की नीतियों के विपरीत राज्य के सामाजिक दायित्व के स्तर पर दी गई। क्रांति के कुछ सालों में शिक्षा व्यवस्था में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हुए उसने पंूजीवादी राज्यों को हैरत में डाल दिया। क्रांति के साथ ही शिक्षा के प्रति बोल्शेविकों ने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दी थी। जन-शिक्षा के कमिसार की हैसियत से प्रसिद्ध लेखक लुनाचास्र्की ने अपनी पहली आज्ञप्ति में लिखा, 'एक ऐसे देश में, जहां निरक्षरता और अज्ञान का बोलबाला है, प्रत्येक जनवादी सत्ता को शिक्षा के क्षेत्र में इस जहालत से संघर्ष करना अपना प्रथम उद्देश्य बनाना होगा। उसे आधुनिक शिक्षा-विज्ञान की आवश्यकताओं के अनुरूप स्कूलों का एक जाल बिछा कर कम से कम समय में सार्विक साक्षरता को उपलब्ध कराना होगा। उसे सबके लिए सार्विक, अनिवार्य, नि:शुल्क शिक्षा आरंभ करनी होगी, और साथ ही ऐसे शिक्षण-संस्थानों और ट्रेनिंग स्कूलों का एक जाल बिछा देना होगा, जो कम से कम समय में जन-शिक्षकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार कर देंगे, जो हमारे निस्सीम रूस की जनता की सार्विक शिक्षा के लिए ज़रूरी है।'

शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का आलम यह था कि सोवियत दौर (1917-1990) के बीच भौतिकी और रसायन के क्षेत्र में सोवियत संघ के 5 वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। आंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी असाधारण प्रगति सोवियत रूस के हिस्से में है। संयुक्त राज्य अमरीका से पहले ही सोवियत संघ के नागरिक यूरी गैगरीन पहली बार चंद्रमा पर पहुंचे। सोवियत संघ ने सोवियत नागरिकों का किस रूप में विकास किया इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सोवियत संघ ने अपने पूरे इतिहास में 9 बार ओलंपिक खेलों में भाग लिया, जिसमें 6 बार पदक तालिका में सर्वोच्च स्थान पर रहा आरै 3 बार दूसरे स्थान पर।

भारतीय उपमहाद्वीप के महान कवि और 'राष्ट्रवाद' को मानवीय स्वतंत्रता में बाधक मानने वाले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने 1930 में सोवियत रूस की यात्रा की थी। 'रशियार चिट्ठी' शीर्षक से सोवियत संघ के विषय में उनके पर्यवेक्षण प्रकाशित हुए। सोवियत संघ में मात्र 12 सालों में हुई प्रगति को देखकर गुरुदेव ने लिखा, 'रुस पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां के किसान और श्रमिक, जो आठ वर्ष पूर्व भारतीय जनमानस की तरह नि:सहाय, निरन्न और निरक्षर थे, जिनका दु:-भार कई विषयों में हमारे भार से कम नहीं वरन अधिक ही था, आज थोड़े ही समय में इतनी शिक्षा प्राप्त कर सके।' गुरूदेव ने इसके आगे लिखा, 'मैंने अपने-आपसे अनेक बार पूछा हैऐसी आश्चर्यजनक सफलता कैसे संभव हुई? मेरे मन ने यही उत्तर दिया कि लोभ की बाधा कहीं नहीं थी, इसीलिए यह हो सका। शिक्षा के द्वारा सभी मनुष्य यथोचित क्षमता प्राप्त कर सकते हैं, इस बात को रूस में सर्वत्र बेखटके माना जाता है। दूर एशिया में तुर्कमेनिस्तानवासियों को भी पूरी शिक्षा प्रदान करने में इन्हें कोई आशंका-बोध नहीं होता, बल्कि इसके लिए इनके मन में प्रबल आग्रह है। 'तुर्कमेनिस्तान का प्रथागत अज्ञान ही वहां के दु:खों का कारण है', इस तरह की बात रिपोर्ट में लिखकर रूस के शासक उदासीन नहीं होते।'

सोवियत संघ ने केवल अपने गणराज्यों में ही शिक्षा और स्वास्थ के विषय में कार्य किया हो, ऐसा नहीं है। साम्यवाद की अंतर्राष्ट्रीयता की भावना से वशीभूत होकर एशिया, अफ्रीका और कैरेबियाई देशों के नवयुवकों को सोवियत संघ ने अपने यहां आमंत्रित करके उन्हें न केवल शिक्षित किया, बल्कि इन देशों के साहित्य और संस्कृति के साथ सोवियत संघ का रिश्ता कायम किया। विश्व में मौजूद श्रेष्ठ साहित्य का रूसी और गणराज्यों की भाषाओं में अनुवाद कराया गया, और सोवियत संघ की जनता को पढऩे के लिए प्रेरित किया गया। बिल्कुल इसी तरह सोवियत साहित्य को भी संसार की दूसरी भाषाओं में अनूदित किया गया और उन देशों की जनता को लगभग नगण्य कीमतों पर उपलब्ध कराया गया। सिनेमा व कला के दूसरे क्षेत्रों में भी यही स्थिति रही।

इसके अलावा सोवियत संघ ने जिन मूल्यों और सिद्धांतों के आधार पर स्वयं को स्थापित किया था, उसने वशीभूत होकर मनुष्यता पर हुए सबसे गंभीर आघात का सामना सीधे अपने सीने पर किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी फौज़ें जब फ्रांस को रौदती हुई लंदन पहुंचने की कोशिशों में थीं, तब सोवियत संघ ने सीधे तौर पर हिटलर की फौजों का सामना किया और उसे पराजित किया। इस हिटलर को पूंजीवाद ने ही जन्म दिया था। सोवियत संघ ने इस युद्ध में लगभग 2 करोड़ सोवियत नागरिकों-सैनिकों को खोया। लेकिन यह याद रखना चाहिए इक ऐसे व$क्त जब सभी पूंजीवादी और उपनिवेशवादी शक्तियों ने हथियार डाल दिए थे, सोवियत संघ ने विश्व-मानवता की रक्षा की।

सोवियत संघ ने उपनिवेशवाद के विरूद्ध न केवल उपनिवेशित देशों की मदद की, बल्कि वैश्विक स्तर पर इन उपनिवेशवाद, विरोधी आंदोलनों की मदद की। ये प्रेरणाएं किस रूप में थी, इसका सर्वाधिक मौजू उदाहरण जवाहरलाल नेहरू का पर्यवेक्षण है। 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में नेहरू ने लिखा है, 'हममें से अधिकतर के सामने सोवियत संघ का उदाहरण मौजूद था, जिसने युद्ध और नागरिक संघर्ष की स्थितियों के अलावा पहाड़ जैसी समस्याओं की मौजूदगी के बावजूद मात्र दो दशकों में असाधारण प्रगति की। इस समय कुछ लोग साम्यवाद के प्रति आकर्षित हुए, कुछ नहीं भी हुए, लेकिन सभी लोग शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ वहां के नागरिकों के शारीरिक विकास के क्षेत्र में सोवियत संघ की असाधारण प्रगति से विस्मित-मुग्ध थे। इसके साथ सोवियत संघ ने जिस तरह वहां मौजूद विभिन्न राष्ट्रीयताओं की समस्याओं का समाधान किया था, उसने हमें अभिभूत कर लिया था। पुरानी दुनिया की तलछट से एक नई दुनिया के निर्माण का यह अकल्पनीय और अपूर्व प्रयास था। यहां यह रवींन्द्रनाथ टैगोर जैसे अत्याधिक व्यक्तिपरक व्यक्ति भी इस नई सभ्यता के प्रशंसक हो गए और उन्होंने वहां अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों से बिल्कुल विपरीत स्थितियों को देखा। यहां तक अपनी मृत्यु-शय्या पर होते हुए भी उन्होंने संदर्भित किया कि बीमारियों और अशिक्षा से संघर्ष करने हेतु रूस ने असाधारण शक्ति से अज्ञान और गरीबी को ख़त्म करने के साथ एक व्यापक महादेश से उत्पीडऩ को दूर भगा देने में सफलता पाई। यह सभ्यता एक वर्ग से दूसरे वर्ग, एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय के बीच मौजूद सभी घृणित विभेदों से स्वयं को मुक्त कर पाई है।'

नेहरू ने आगे लिखा, 'इस सभ्यता ने जितनी अधिक तीव्रता के साथ विस्मयपूर्ण प्रगति की है, वह मुझे आनंद देती है, साथ ही थोड़ी जलन का भाव भी उत्पन्न करती है।... जब मैं 200 राष्ट्रीयताओं को देखता हूं, जो मात्र कुछ वर्ष पहले तक विकास की एक भिन्न अवस्था में थीं, आज वे शांतिपूर्ण प्रगति और सौहार्द के पक्ष पर अग्रसर हैं। और जब मैं अपने देश को देखता हूं तो पाता हूं कि बहुत अधिक विकसित और ज्ञानी व्यक्ति बर्बरता की अव्यवस्था का शिकार होकर निष्क्रिय हो गए हैं। ऐसे में मैं दो तरह की शासन वय्वस्थाओं के बीच अंतर करने से स्वयं को रोक नहीं पाता हूं, इसमें से एक व्यवस्था सहयोग पर आधारित है, वहीं दूसरी व्यवस्था का मूलाधार शोषण है।'

सोवियत रूस ने केवल वर्गों और राष्ट्रीयताओं के बीच ही शोषण स्थिति को नहीं ख़त्म किया, बल्कि स्त्रियों के अधिकारों के विषय में असाधारण व्यवस्था निर्मित की, जिसकी आज के दौर के विकसित पूंजीवादी देशों से भी तुलना की जा सकती है। अलेक्सेंद्राना कोलोन्ताई कॉमरेड लेनिन की सक्रिय सहयोगी थीं। सोवियत क्रांति के साथ ही महिलाओं को राजनीतिक बराबरी यानि मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया, जिसके तीन साल बाद संयुक्त राज्य अमरीका में महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हो पाया। सोवियत ब्लाक में महिलाओं को पारंपरिक पितृसत्ता आजादी बहुत आसानी से प्राप्त हो पाई। महिलाओं के आर्थिक अधिकार सबसे पहले सोवियत संघ में ही राजनीतिक तौर पर स्वीकृत किए गए। क्रांति के साथ ही शिक्षा व नागरिक अधिकार महिलाओं को प्राप्त हो गए थे। मध्य एशिया के रूढि़वादी समुदायों तक में महिलाओं को मातृत्व के लिए विवाह की अनिवार्यता नहीं थी।

बिल्कुल इसी तरह सोवियत संघ में विभिन्न जातीयताओं और राष्ट्रीयताओं के अधिकारों को स्वीकृत किया गया। उनके सांस्कृतिक अधिकारों को अक्क्षुण रखा गया। आज के परिप्रेक्ष्य में देखो, तो ऐसी व्यवस्था विकसित पूंजीवादी देशों में भी नहीं उपलब्ध हो पाई है।

यही कारण है कि सिडनी व बिट्रिस बेव जैसे फेबियनवादियों को अपनी कृति 'सोवियत कम्युनिज्म : ए न्यू सिविलाइजेशन' में लिखना पड़ा, 'समस्त सामाजिक इतिहास में इस तरह का चमत्कारपूर्ण और प्रेरक अनुभव बिल्कुल भी नहीं मौजूद है।' लिंकन स्टेंफन ने सोवियत संघ की यात्रा के बाद आश्वस्तिपूर्ण शब्दों में लिखा, 'मैं भविष्य में जा चुका हूं, और यह व्यवस्था काम करती है।' और आंद्रे ग्रिदे ने तो अतिश्योक्तिपूर्ण शब्दों में दावा किया कि 'एक भूमि जहां यूटोपिया यथार्थ में बदल गया है।'

 

                                                                                (3)

 

अक्टूबर क्रांति का यह शताब्दी वर्ष है। लेकिन क्रांति खत्म हो चुकी है! स्वप्न धूल-धूसरित हो चुका है! सोवियत रूस का परचम अब अतीत हो गया है! निरंकुश पूंजीवाद अपनी अपराजेयता का गीत गाते हुए मनुष्यता का नृशंस संहार कर रहा है! ऐसे में सोवियत क्रांति का स्मरण क्या सबक देता है, यह इस समय सबसे मौजू सवाल है। लेकिन इसके साथ यह भी दोहराने की ज़रूरत है कि सोवियत क्रांति का पतन मार्क्सवाद का पतन नहीं है। यह पतन शोषित सर्वहारा वर्ग के अधिकारों की वैधता को और अधिक पुरजोर तरीके से सामने रखता है। यदि मनुष्यता का बुनियादी उसूल स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व है, तो पेरिस कम्यून की तरह सोवियत क्रांति प्रेरणा का स्रोत है और रहेगी।

इस समय पहला प्रश्न यह है कि अक्टूबर क्रांति का पतन क्यों हुआ? असल में इस प्रश्न का स्रोत क्रांति की सैद्धांतिकी के साथ जुड़ा है। ऐसा नहीं है कि क्रांति की सैद्धांतिकी को लेकर प्रश्न गोर्बाचोव के पेरेस्त्रोइका व ग्लासनोस्त कार्यक्रम के बाद उठाए गए। इसके बजाए क्रांति के साथ ही इस तरह के प्रश्न सामने आ गए थे।

अक्टूबर क्रांति के साथ विचारों की दुनिया में भी एक भयावह बौद्धिक संघर्ष आरंभ हो गया था। यह संघर्ष उन बौद्धिकों के बीच था, जो स्वयं को मार्क्सवादी मानते थे। ऊपर प्लेखानोव को उद्धृत किया ही जा चुका है। प्लेखानोव रूस में भौतिकवाद और मार्क्सवाद के आदि बौद्धिक कार्यकर्ता थे। इसके बावजूद लेनिन को अराजकतावादी कहना और प्रकारांतर से अक्टूबर क्रांति को अराजकतावाद की देन कहना क्रांति के विषय में प्लेखानोव के रूढि़वादी विचारों को ही व्यक्त करते हैं। यह स्थिति बाद में तब और अधिक भयावह होती गई, जब चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति हुई। इसके बाद क्यूबा और दूसरे देश इस कड़ी में शामिल ही होते गए।

मार्क्सवाद के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होने के बावजूद कुछ बौद्धिक अक्टूबर क्रांति के समर्थक थे, और कुछ विरोधी। इसके पीछे मार्क्सवाद की व्याख्या का मामला था। कार्ल मार्क्स ने 'कम्युनिस्ट मेनीफैस्टो' में और खासतौर से 'जर्मन आइडियोलॉजी' में मनुष्य सभ्यता के विकास को बहुत ही तरतीब के साथ व्याख्यायित किया था, जिसमें आदि साम्यवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद जैसे सभ्यतागत संस्तरों का उल्लेख किया गया था। इसके साथ कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सर्वाधिक उत्पीडि़त वर्ग माना था, और उसकी चेतना व रणनीतिक कार्यवाहियों पर विश्वास करते हुए साम्यवादी क्रांति का स्वप्न देखा था।

इस आधार पर यह 'मान लिया गया' कि मार्क्स सामाजिक विकास के क्रमिक संस्तरों के भौतिकवादी सिद्धांत को प्रस्तावित करते थे। सीधे शब्दों में जिनका अर्थ यह है कि आदिम साम्यवाद के बाद सामंतवादी व्यवस्था का जन्म होता है, सामंतवादी व्यवस्था के बाद पूंजीवाद का जन्म होता है, और पूंजीवाद के बाद जाकर कहीं साम्यवादी व्यवस्था अपना अस्तित्व निर्धारित करती है। इस तरह से सामाजिक विकास की इन मंजिलों को 'आर्थिक नियत्व के लोह नियम' के अनुरूप माना गया। हालांकि एंगेल्स ने अपने अंतिम दिनों में भी इस तथ्य को बार-बार स्पष्ट किया कि कार्ल मार्क्स के विचारों को 'आर्थिक नियत्ववाद' में सीमित करना कार्ल मार्क्स के विचारों की हत्या के समान है।

प्लेखानोव मार्क्सवाद के 'आर्थिक नियत्ववाद' को स्वीकार करते थे। इसी कारण वे अक्टूबर क्रांति के पूंजीवादी चरित्र यानि फरवरी प्रारूप से तो इत्तेफाक रखते थे लेकिन इसके अक्टूबरवादी चरित्र यानि लेनिन के क्रांतिकारी कार्यक्रम से सहमत नहीं हो पाए। यही बात घुमा-फिराकर अभी तक भी कही जाती रही है कि 'लेनिन को मज़बूरी में क्रांति करनी पड़ी'। हांलाकि इसके साथ यह हमेशा याद रखना चाहिए कि कार्ल मार्क्स ने पेरिस कम्यून की घटना का बड़े गर्व के साथ और प्रेरणास्रोत के रूप में उल्लेख किया था। साथ ही यह कि कार्ल मार्क्स के लिए क्रांति स्वयं से साकार होने वाली घटना नहीं है, बल्कि जनचेतना पर निर्भर है। इस तरह कार्ल मार्क्स क्रांति की सृजनात्मकता पर विश्वास करने वाले बौद्धिक थे। 'आर्थिक नियत्व' पर विश्वास करने वाले लोगों को अक्टूबर क्रांति के प्रत्यक्षदर्शी महान लेखक जॉन रीड की पुस्तक 'टेन डेज़ दैट शोक द वल्र्ड' के इन वाक्यों  को पढऩा चाहिए, 'वे (मज़दूर) सभी यह मानते थे कि हमारी (अमरीकी) उनकी संस्थाओं से बेहतर हैं, लेकिन वे इसके लिए बहुत व्यग्र नहीं थे कि वे एक जालिम को हटाकर दूसरा जालिम (अर्थात पूंजीपति वर्ग) को लायें...'

बीसवीं सदी के महान इतिहासकार एरिक हाब्सबॉम ने 'एज ऑफ एक्ट्रीम' में दर्ज किया है कि 'यदि रूस तथाकथित मार्क्सवादी सर्वहारा वर्गीय क्रांति के लिए तैयार नहीं था, तो यह उदारवादी 'बुर्जुआ क्रांति' के लिए भी तैयार नहीं था। और जो लोग इससे ज्यादा की चाहत नहीं रखते थे, उन्हें इसके लिए कोई तरीका खोजना था क्योंकि वे रूसी उदारवादी मध्यमवर्ग पर विश्वास नहीं कर सकते थे। यह रूसी उदारवादी मध्यमवर्ग अपनी नैतिक शक्ति और जन समर्थन की दृष्टि से तो कमजोर था ही, साथ ही प्रतिनिधि सरकार की संस्थानिक परंपराओं से भी वाकि$फ नहीं था। उदारवादी बुर्जुआजी की पार्टी, कैडेट, के पास 1917-18 की संविधान सभा में 2.5 फीसदी से भी कम स्वतंत्र रूप से चुने प्रतिनिधि थे।' हाब्सबॉम ने इसके आगे लिखा, '1917 में उन्हें (लेनिन) दूसरे सभी रूसी और गैर-रूसी मार्क्सवादियों की तरह यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया था कि रूस में समाजवादी क्रांति के लिए स्थितियां आसानी से मौजूद नहीं हैं। रूस के मार्क्सवादियों के लिए उनकी क्रांति को दूसरी जगहों पर प्रसारित होना था।'

इससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। पहली, रूस में क्रांति की अनिवार्यता। दूसरी क्रांति के साथ रूस का एकांकीपन। यह तो बिन्दु हैं, जिसके कारण रूस में क्रांति हुईं और जो भविष्य में अक्टूबर क्रांति के पतन के कारण भी बने।

अक्टूबर क्रांति का दीर्घजीवी होना इस स्थिति पर निर्भर करता था कि वह आंतरिक और बाह्य स्तर पर कैसे उत्तरजीवी होती है। बाह्य स्तर पर उत्तरजीवी होने के लिए क्रांति के आरंभिक दौर में उत्पादन के साथ भौतिक संसाधनों को सक्रिय करने की योजना पर कार्य किया गया। नई आर्थिक नीति (हृश्वक्क) की घोषणा लेनिन के दौर में ही हो गई थी।  इसे कई बार पूंजीवादी आर्थिक निर्माण के सदृश्य घोषित किया गया और इसके बाद इसके लिए समाजवाद की ओर संक्रमण के लिए अपनाई गई नीति की संज्ञा दी गई। स्तालिन के दौर में जिन आर्थिक नीतियों को अपनाया गया, उसमें भी यह द्वंद बहुत तीव्रता से व्यक्त होता है। लेकिन स्तालिन के दौर तक आते-आते द्वितीय विश्वयुद्ध आदि के गंभीर प्रभावों (आर्थिक नु$कसान, व्यापक जनहानि आदि) के परिणामस्वरूप क्रांति की सृजनशील आत्मा विलुप्त होती गई। रोजर गरोडे के शब्दों में, यह ह्रास 'एक धर्मसिद्धांतीय छद्म वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद को द्वंदवाद का लिबास पहनाने के रूप में हुआ। इसके साथ ही इसका भौतिकवाद के तीन सिद्धांतों, द्वंदवाद के चार नियमों और ऐतिहासिक भौतिकवाद के पांच संस्तरों आदि के रूप में संहिताकरण हुआ, जिसने एक प्रोकास्टियन बिस्तर निर्मित किया, जिस पर विज्ञान और रचनात्मकता की निरंतर काट-छांट की गई।'

मार्क्सवाद के भीतर पनपा यह 'आर्थिक नियत्ववाद' पहली ही नज़र में हास्यास्पद था। सामान्य मेधा का व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता है कि राजनीतिक तौर पर या सत्ता परिवर्तन के आधार पर भले ही कह लिया जाए कि फरवरी (1917) में हुआ विद्रोह 'पूंजीवादी क्रांति' थी और अक्टूबर में 'समाजवादी क्रांति' संभव हो पाई! केवल छह-सात महीनों में देश के उत्पादन साधनों में इतना तीव्र विकास कि उसने पूंजीवाद की मंजिल तय कर ली! यह बिल्कुल उस कहानी को दोहराने जैसा है कि फ्रांसीसी क्रांति के बाद संसद ने अक्टूबर 11, 1789 में घोषणा कर दी कि आज से 'फ्यूडिलिज्म' का अंत किया जाता है, जब कि 'फ्यूडिलिज्म' का आंतरिक ढांचा बरकार था। असल में इस तरह की सिद्धांत लेनिन की महानता को पहचानने में चूक है। लेनिन ने हमेशा क्रांति को संभव करने की तव्वजों दी, जिसका अर्थ अब दोहराने की ज़रूरत नहीं। लेनिन ने अपने देश और समाज की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के सापेक्ष उस सृजनात्मकता के साथ देश में क्रांति को कल्पना की थी, जिसकी मांग कार्ल मार्क्स ने की थी। एंगेल्स ने मार्क्स की इस कल्पनाशीलता पर टिप्पणी की है, जिसे अभी भी याद रखने की ज़रूरत है, 'मार्क्स के उद्धरणों को मत खोजिए, न ही उसके उद्धरणों को किसी धर्मशास्त्रीय अभिवचनों की तरह स्वीकार कीजिए, बल्कि यह सोचिए कि आप मार्क्स के स्थान पर होते, तो क्या सोचते।' लेनिन ऐसा करने में सक्षम थे।

आज यह यूटोपिया खत्म हो चुका है। यह अतीत हमें यह सबक देता है कि क्रांति एक निरंतर प्रक्रिया है, क्रांति को उत्तरजीवी रखना होता है आरै यह भी कि क्रांति के विषय में किसी भी तरह की रूढि़वादिता क्रांति की उत्तरजीविता के लिए प्रश्नचिंन्ह पैदा करती है। क्रांति एक सृजन है, इसीलिए लेनिन और िफदेल कास्त्रों को केवल महान क्रांतिकारी कहना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इन्हें महान सृजनशील व्यक्तित्व भी कहना पड़ेगा। यही अक्टूबर क्रांति का सबक भी है और प्रेरणा भी है।

 

* ज़ारशाही रूस में जूलियन कलेंडर प्रचलित था, जो ग्रेगेरियन कलेंडर से 13 दिन पीछे था। इस तरह अक्टूबर क्रांति ग्रेगेरियन कलेंडर के हिसाब से नवंबर माह में हुई। क्रांति के बाद सोवियत सरकार ने फरवरी, 1918 में ग्रेगेरियन कलेंडर अपना लिया।


Login