इस अंक में अन्दरुनी मुखपृष्ठ पर हरिशंकर परसाई की कुछ पंक्तियों से हमने अपनी शुरुआत की है। ये पंक्तियां हमें बताती हैं कि एक बड़ा विजनरी लेखक किस तरह हमें समय के साथ जोड़ता है। परसाई दीवारों पर और दीवारों के पार लिखते थे। वे अपने आज और कल को प्रकट कर रहे थे। इस प्रकार समकालीन भारतीय समाज की चाल को सृजनकारी समझ और मौलिक नजरिये से पहचान सके। वे हमें महान रचना ''बार्बेरियन्स आर कमिंग'' सो जोड़ रहे थे। इन्हीं कारणों से परसाई मृत्योपरांत भी जीवित हैं, कालजयी हैं।पहल 109 में परसाई की इस शुरुआत के बाद नई रचनावली में भी एक सूक्ष्म उम्मीदभरी परपंरा आगे आ रही है और उन्हें छापते हुए हम परसाई के विचार को समृद्ध होते देखते हैं। पहल सामग्रियों का पुलिंदा नहीं है, वह समयावत विचारों की लड़ी है। भीड़ के बारे में सर्वश्री देवेन्द्र आर्य, अमित श्रीवास्तव की कविता ''डिस्क्लेमर'', सुधांशु फिरदौस की कविता ''सूखते तालाब की मुरगाबियां'' और भारतीय मध्य वर्ग पर पलाश कृष्ण मेहरोत्रा की टिप्पणी ''ख़ुदगर्ज भी हम, कमज़र्फ भी हम'' को पाठक हमारी ही कुछ पंक्तियों के अग्रलेख के रुप में देख सकते हैं। चाहे साक्षात्कार, चाहे कहानियां चाहे भूमिकाएं चाहे मीमांसा, ये सभी एक मालाकार रूप है। मार्क्सवादी लेखक और विचारक राजेश्वर सक्सेना का भीड़ की अवधारणा पर लेख कारपोरेट संस्कृति पर एक नवीनतम अध्ययन है। विमलचंद्र पांडे एक अनोखे कहानीकार की एक आकर्षक गवेषणा शंभू गुप्त ने की है। और पहल में पहली बार छपे अशोक बाजपेयी का साक्षात्कार कुछ नया उपलब्ध कराता है। देशांतर में स्पेनिश और अरबी कविताएं और देश में मराठी की कुछ दुर्लभ रचनाएं पाठक भीड़ संस्कृति की अवधारणाओं के अन्तर्गत पढ़ सकते है। देश देशांतर से हमारा वास्तविक भू्मंडल बन पाता है। आगामी अंकों में आप महेश कुंचवार और विष्णु खरे के ताज़ा साक्षात्कार भी पढ़ सकेंगे। |