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जुलाई - 2017

मयनमार: राष्ट्रवाद, धर्म और पर्यावरण..

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती, परबत परबत...



अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और उससे आगे बांग्लादेश और मयनमार में घटनाएं इन दिनों ऐसे अंतस्संबंधों का शिकार होती चली जा रही हैं कि एक प्रदेश को दूसरे से काटकर देख पाना असंभव हो चला है। अफगानिस्तान में गैर-परमाणु श्रेणी का सबसे बड़ा 'बमों का बाप' गिराकर अमरीका अपनी अंतर्राष्ट्रीय सैनिक हस्तक्षेप की दशकों पुरानी विदेश नीति पर धमाके के साथ लौट आया है। इस्लामाबाद में सैनिक मार्शल कोर्ट द्वारा भारत के तथाकथित जासूस कुलभूषण जाधव उर्फ  'हुसैन मुबारक पटेल' के मृत्युदंड की घोषणा ने भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को एक नयी दुरभिसंधि की ओर धकेल दिया है। दिल्ली में काले अफ्रीकियों के विरुद्ध शर्मनाक रंगभेद पर पर्दा डालने के लिए आरएसएस के तरुण विजय काले दक्षिण भारतीयों के साथ रहने को अपनी रंग-निरपेक्षता का सबूत बता डालते हैं। उधर  श्रीनगर की सड़कों और गलियों में कश्मीरी नौजवानों का भारतीय सैनिक बलों के खिलाफ प्रदर्शन और पथराव बदस्तूर जारी है। बांग्लादेश की सरकार ने मयनमार से भागकर आए हज़ारों रोहिंग्या शरणार्थियों को काले पानी से भी बदतर एक द्वीप में बसाने की पेशकश की हैै, जिसके जवाब में रोहिंग्या प्रतिनिधि कहते हैं कि वे ऐसी निष्कासित जिंदगी के मुकाबले अपने जन्मस्थल मयनमार में गोलियों से मारे जाना अधिक सम्मानजनक समझेंगे। और मयनमार में जनतांत्रिक चुनावों से सत्ता में आने वाली सर्वशक्तिमान ऑंग सान सू क्यी की सरकार अपने देश के विभिन्न अल्पसंख्यकों के मौलिक सामाजिक अधिकारों की रक्षा करने और देश के कठपुतली सैनिक आकाओं का सामना करने में सर्वथा अक्षम दिखाई देने लगी है।
कहना न होगा कि धर्म, जाति, खान-पान, रंग और आर्थिक असमानता के आधार पर पूरे प्रदेश का यह ध्रुवीकरण गहरी चिंता और संकट का विषय है। दिक्कत यह है कि जनतांत्रिक रास्तों से प्रभुता हासिल करने के बावजूद प्रदेश की अधिकांश राजनीतिक शक्तियां आज मानवीय सहिष्णुता, धार्मिक उदारता और वंचितों की सुरक्षा जैसे सवालों पर अति-राष्ट्रवाद, जातिवाद और अंधे औद्योगीकरण के विनाशकारी पालों  में खड़ी दिखाई देती हैं।
मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद के कांचा इलाइयाह शेपहर्डं-
'' वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही देश में राष्ट्रवाद की हर बहस अति-राष्ट्रवाद की ओर मोड़ी जाने लगी है। इसके लिए एक ऐसा दुश्मन ईजाद करना ज़रूरी था, जिसे पूरा देश आसानी से पहचान सके। यथा पाकिस्तान अब लगातार हमारे सामने है और पिछली सरकार के तथाकथित 'मुस्लिम तुष्टीकरण' खत्म किए जाने के बाद अब मुसलमानों को बार-बार देश के साथ खड़ा होने या फिर पाकिस्तान चला जाने के लिए कहा जा रहा है। गाय अब 'भारत माता' बन गयी है और गौमांस खाने वाले सब देशद्रोही करार दिए गए हैं। पशुओं पर क्रूरता और उनके बाज़ार पर लाए गए नए नियमों ने गाय को राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया है और इस नयी छड़ी सेे मुसलमानों और दलितों को पीटना अब बेहद आसान हो गया है। बरसों पहले अमरीकी राष्ट्रपति केनेडी ने एक भाषण में कहा था कि जैसे ईश्वर ने सारे जीवों को समान बनाया है, उसी तरह अमरीका ऐसे सच्चे राष्ट्रवाद में यकीन रखता है जिसमें सारे नागरिकों के पास एक जैसे अधिकार हों। मोदी सरकार इसके ठीक उलट में यकीन रखती है।  अति-राष्ट्रवाद आज देश में निरंतर संघर्ष की स्थिति बनाए रखने और लोगों के बीच वैमनस्य बढ़ाने  की खतरनाक भूमिका निभा रहा है...'' 
ध्रुवीकरण के इस कठिन दौर में हम बहुत उम्मीद के साथ अपने सबसे बड़े कवि रवींद्रनाथ ठाकुर की ओर लौटते हैं जिन्होंने संघर्ष की ऐसी ही किसी घड़ी में बहुत उद्वेग के साथ कहा होगा कि-
'देशप्रेम कभी हमारा आखिरी ठिकाना नहीं हो सकता; हमारा आखिरी आश्रय है मानवतावाद! मैं हीरक के मोल देकर कांच के टुकड़े कैसे खरीद सकता हूं! मेरी देह में जब तक एक भी सांस बाकी है, मैं मानवता को कभी देशभक्ति के हाथों पराजित नहीं होने दूंगा!'



यह जानना दिलचस्प है कि सार्वजनिक घृणा के इस दौर में दिल्ली की संस्था 'सहमत' ने रवींद्रनाथ के इस संदेश को एक खूबसूरत पोस्टर की शक्ल दी है!

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वनों की अंधाधुंध कटाई और छंटाई के बावजूद मयनमार की विक्टोरिया पहाड़ी के इर्दगिर्द फैला नटमटौंग राष्ट्रीय वन आज भी बेहद खूबसूरत है। आज से साठ सत्तर साल पहले इन वनों में बाघ के अलावा लाल पांडा, लीफ हरिण, टाकिन, लाल गोरल और कई अन्य दुर्लभ वन्य प्राणियों का वास था। उत्तरी सीमा के पार आए चीनी शिकारियों और वन में हथियारों के साथ घूमने वाले स्थानीय भिक्षुओं ने कुछ दशकों में ही इस बहुमूल्य जन संपदा का जड़ से सफाया कर दिया है। बहुत तलाशने पर हमें एक अदद पीले गले वाला वनबिलाव मिला, हमसे नज़रें मिलते ही बिजली की रफतार से भागकर ओझल होता हुआ। कुछ साल पहले अमरीकी पर्यावरणशास्त्री डॉक्टर ऐलेन रबिनोविट्ज़ ने इन वनों की यात्रा करने के बाद फौजी अधिकारियों से देश में कई अभयारण्यों के गठन की सलाह दी थी। उसी के परिणामस्वरूप नटमटौंग अभयारण्य और कई अन्य राष्ट्रीय वन अब मयनमार में दिखाई देते हैं। लेकिन यह कदम बहुत देर हो जाने के बाद, बहुत अनमने और अविश्वसनीय ढंग से उठाया गया है। इस दौरान मयनमार के कई प्राणियों की दुर्लभ प्रजातियां सदा के लिए अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। दुनिया में मानव जाति पर ढाए जाने वाले अन्याय के खिलाफ अदालतें बैठती हैं, लेकिन प्रकृति पर हुए इस अकल्पनीय अत्याचार भरे अपराध के लिए दुनिया की किसी अदालत में कोई सुनवाई नहीं है।


नटमटौंग जंगल में सूर्योदय
हमारा गाइड थेट विन बेहद विनम्र और चुप्पा व्यक्ति है। पौधों, पक्षियों और जानवरों की शिनाख्त के अलावा उससे किसी भी अन्य विषय पर बात करना मुश्किल है। रास्ते में मिले तमाम दूसरे लोगों की तरह कोई अनुविधाजनक सवाल पूछा जाने पर वह बिना कुछ कहे, चुपचाप मुसकराने लगता है, बिना ज़ाहिर किए कि सवाल पर उसका जवाब सकारात्मक है या नकारात्मक। बर्मियों की यह व्यवहार-कुशलता शायद सैनिक सत्ता द्वारा बड़बोलेपन पर मिलने वाले कठोर दंडों का परिणाम है। लेकिन शाम ढलने के बाद पाइनवुड विला के भोजनघर में, ताज़ा कटी हरी मिर्च वाले 'थुपका' के साथ बियर के दो गिलास पी चुकने के बाद थेट विन अचानक आवाज़ धीमी करते हुए बहुत कटु हो जाता है (अंग्रेज़ी में)- आपको क्या मालूम हम किन तकली$फों के बीच काम कर रहे हंै। कानून सिर्फ  मामूली लोगों के लिए बनाए जाते हैं, फौज तक पहुंच रखने वाले खास लोगों के लिए इनका कोई मतलाब नहीं होता। इन जंगलों की बरबादी के लिए भी यही खास लोग जिम्मेदार हैं। हमें बताया जाता है कि इस पूरे राष्ट्रीय वन के भीतर कोई व्यावसायिक गतिविधि, कोई चाय की टपरी या दुकान नहीं बनायी जा सकती। लेकिन इसी चाहरदीवारी के भीतर फौजियों के रिश्तेदारों ने बड़े-बड़े रिसार्ट बना रक्खे हैं जहां पहुंचकर सारे नियम बेकाम हो जाते हंै। आपने इस जंगल में इतनी दूर से आकर जो भी कुछ देखा है, पांच-सात साल के बाद वह भी बाकी नहीं बचेगा।
मयनमार में सैनिक सत्ता द्वारा देश की बहुमूल्य सम्पदा को विदेशी व्यापारियों और कंपनियों के हाथों बेचे जाने का सिलसिला अंतहीन है। रंगून से दक्षिण में समुद्र में स्थित है यादाना गैस भंडार जिसमें अनुमानित 150 अरब घन मीटर गैस के भंडार हैं जिन्हें 30 वर्षों में निकाला जाना है। मयनमार सैनिक सत्ता ने अमरीकी कंपनियों यूनोकोल, शेवरान और फ्रांसीसी कंपनी टोटल की आर्थिक सहायता से यादान से तट पर स्थित दामिनसेक तक पाइपलाइन बनायी है। यहां से आगे यह पाइपलाइन कारेन जाति के आदिवासियों की ज़मीन से होती हुई थाइलैंड जाती है। 2010 में एक दूसरी पाइपलाइन रंगून के लिए भी पूरी की गयी है। मयनमार में कारेन अल्पसंख्यकों की संख्या सत्तर लाख के आसपास बतायी जाती है। ये बौद्ध नहीं हैं। अंग्रेज़ों के प्रभाव में बहुत से कारेन ईसाई हो गए हैं और बहुत से दमन के कारण मयनमार छोड़कर थाइलैंड भाग गए हैं। जिन कारेन आदिवासियों की धरती से यह पाइपलाइन गुज़रती है वहां बरसों तक इनसे बेगार मजदूरी करवायी जाती रही। पूरी प्रोजेक्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी मयनमार सैनिक सत्ता के हाथ में है। कंपनी यूनोकोल के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में चल रहे मुकदमे के दौरान गांववालों से जबरन काम करवाने वाले एक सेना के अधिकारी ने अपने बयान में कहा-
''हमें बताया गया था कि तीस वर्षों की अवधि में इसका लाभ मयनमार और विदेश कंपनियों के बीच आधा आधा बांटा जाएगा (जब कि वास्तव में लाभ का केवल 15 प्रतिशत हिस्सा सैनिक सैनिक सत्ता द्वारा नियंत्रित मयनमार ऑयल ऐंड गैस एंटरप्राइज़ के पास है और बाकी 85 प्रतिशत विदेशी कंपनियों के पास है!) सैनिक गांव वालों को गोला बारूद, सामान, भोजन और भारी औजार उठाने को कहते हैं और इंकार करने पर उन्हें पीटा जाता और कभी-कभी मार भी दिया जाता है।''
दृष्टव्य है कि इस पूरी योजना से स्थानीय लोगों को कोई लाभ मिलना तो दूर, उन्हें बेगार श्रम, प्रताडऩा, बलात्कार और हत्या का शिकार बनना पड़ा है। संस्था अर्थ राइट्स इंटरनैशनल के अनुसार पिछले तीस सालों में स्थानीय आदिवासियों पर हुए अत्याचार के अलावा पर्यावरण पर भी इसका प्रभाव भयानक रहा है। अवैध खुदाई, पेड़ों की कटाई और जीव-जंतुओं की बेहिसाब हत्या से पूरा इलाका तहस-नहस हो गया है।
 पहाड़ों से नीचे मैदानों में जंगलों के बेहिसाब काटे जाने के बाद धूप अब बर्दाश्त के बाहर लगने लगी है। सागवान के पेड़ों के स्थान पर हर जगह जंगली खरपतवार और सूखे झाड़-झंखाड़ फैले दिखाई देते हैं। कलाव शहर में पिछले कई सालों से पानी की कमी बढ़ती चली गयी है और अब वहां जापानियों की मदद से पहाड़ों से पानी लाने की व्यवस्था कई सालों से चल रही है। जापानी काम पूरा करने से अधिक उसके प्रचार में विश्वास रखते हैं। हमें हर जगह खूबसूरत शिलालेख मिले जिनमें पानी पहुंचाने और गरीबी हटाने के जापानियों के संकल्प को दोहराया गया था। फौजियों और निजी जापानी कंपनियों की साठगांठ के बाद इस योजना का कितना लाभ जनमानस तक पहुंचेगा, इसके जवाब में हमारा सूत्रधार थेट विन फिर एक लंबी, मानीखेज़ चुप्पी खींच जाता है।
                  

जापान और मयनमार के सहयोग को रेखांकित करता शिलालेख

लू के थपेड़ों से झुलसते बगान शहर से हमें एक और उड़ान हेहो के लिए पकडऩी है। शान राज्य का यह इलाका अपनी उपजाऊ ज़मीन और फलों की पैदावार के कारण मयनमार के अपेक्षाकृत समृद्ध इलाकों में गिना जाता है। पर्यटकों के लिए इस इलाके का सबसे बड़ा आकर्षण है मीठे पानी की झील- इनले,  जिसका पहला नज़ारा हमें बरबस श्रीनगर की डल झील की याद दिलाता है। यहां भी उसी तरह फूलों और सब्ज़ियों की खेती होती है और उसी तरह शिकारों से कहीं बड़ी नावें यहां सामान बेचने के लिए घर-घर रुकती चलती हैं। लेकिन डल से छ: गुना बड़ी इनले झील एक ओर संपन्नता और दूसरी तरफ गरीबी का एक अजीबोगरीब अहसास देती है। झील के आसपास रहने वाले अधिकांश निवासी किसी न किसी रूप में इस झील पर आश्रित हैं। छोटे मछुआरे, पर्यटकों के लिए छोटा-मोटा सामान ले जाने वाले, मल्लाह, मोटरबोट चलाने वाले, उनके सहायक, सब्ज़ी बेचने वाले और सामान ढोने वाले मजदूर और कुली।
2015 में युनेस्को ने इस झील को विश्व जीवमंडल सम्पदा में शामिल किया है- अपनी अनोखी वनस्पतियों, मछलियों और घोंघों की अनोखी नस्लों के लिए, जो पूरी दुनिया में कहीं और नहीं मिलती। भारत मेें यूनेस्को से सम्मानित ऐसे दस प्रदेश हैं लेकिन मयनमार में इनले ऐसा पहला प्रदेश है। इसकी बदौलत यहां विदेशी पर्यटकों का आगमन कुछ बढ़ा है, जिससे छोटे-धंधे वालों और मजदूरों को नौकरी मिलने की संभावनाएं कुछ बेहतर हो गयी हैं, लेकिन गरीबी में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।
 
        
इनले झील में घोंघे और झींगे पकडऩे वाला मछुआरा

झील का संवेदनशील वनस्पति और जीवमंडल जिस एहतियात और पर्यावरण/प्रदूषण के जिन सख्त नियमों की अपेक्षा करता है, उसका यहां सर्वथा अभाव है। झील के आसपास बसे मकानों का सारा कचरा और दूषित जल प्रवाह वापस इसी झील में आता जाता है। किनारों पर हर रोज़ उगने वाले नए रिसोर्ट और होटल इस जल संपदा के लिए एक गंभीर चुनौती बनते जा रहे हैं। तेज़ रफ्तार से दौड़ती मोटरबोटों के इंजनों से निकलता डीज़ल का धुंआ अब हर जगह व्याप्त दिखाई देता है।
 
                   
झील में सैर-सपाटे पर निकले विदेशी पर्यटक

मयनमार की सत्ता अब हर जगह 'धार्मिक पर्यटन' को किसी भी कीमत पर बढ़ावा देने के लिए तत्पर है और इनले झील भी इसका अपवाद नहीं है। झील के किनारे बना फौंग दावू पगोडा आज भी देश विदेश से हज़ारों बौद्ध श्रृद्धालुओं को आकर्षित करता है।


  
फौंग दावू पगोडा

पगोडा में बुद्ध की पांच प्रतिमाएं हैं जिनपर श्रृद्धालु सोने के वर्क चढ़ाने आते हैं। हज़ारों वर्कों से ढंकी ये प्रतिमाएं अब अपना मूल आकार खोने लगी हैं। हालांकि पगोडा में प्रवेश की अनुमति सभी को है लेकिन  हमारे अपने मंदिरों की पुरुष केंद्रित सत्ता के अनुरूप प्रतिमाओं पर वर्क चढ़ाने की अनुमति सिर्फ पुरुषों को ही है। एक अन्य अनुष्ठान 'थिंगन' में पर्यटक इन प्रतिमाओं पर वस्त्र चढ़ाते हैं और बाद में इसे उतार, अपने निवास में बनी बुद्ध की निजी प्रतिमा के लिए घर ले जाते हैं। ज़ाहिर है कि इन कर्मकांडों में बौद्ध समुदाय का गहरा विश्वास है। कहा जाता है कि शुद्ध सोने से बनी ये प्रतिमाएं कई शताब्दियों पहले राजा अलौंगसिथु द्वारा इनले झील के इस पगोडा में लायी गई थी।
सितंबर-अक्टूबर के महीनों में हमारी अपनी दुर्गा पूजा की तर्ज पर पगोडा में 18 दिन का वार्षिक उत्सव मनाया जाता है जिसमें इन पांचों प्रतिमाओं में से चार को विशेष रूप से तैयार की गयी रथ-नुमा नाव में  पूरी झील में घुमाने के बाद विधिवत एक स्थानीय मंदिर में कुछ समय रक्खा जाता है जहां स्थानीय राजा उसका स्वागत करता है। राजाओं के चले जाने के बाद यही काम अब स्थानीय फौजी उच्च अधिकारियों  के सुपुर्द कर दिया गया है। कहा जाता है कि 1960 में जब पूरी झील पर तूफानी हवाएं चल रहीं थी तो रथ पर से ये प्रतिमाएं पानी में गिर गयी थीं और बहुत खोज-बीन के बाद भी चार में से केवल तीन प्रतिमाएं ही वापस मिल पायी थी। लेकिन श्रृद्धालुओं के अनुसार जब लोग वापस पगोडा में लौटे थे तो वह खोयी हुई चौथी प्रतिमा यथावत अपने स्थान पर विराजमान पायी गई थी। इस घटना की प्रामाणिकता पर संषय करना संभव नहीं है क्योंकि इन्हीं की मदद से जन साधारण के बीच धार्मिक आस्थाओं को मज़बूत करने में मदद मिलती है। इनले, कलाव, बगान और दूसरे शहरों, जंगलों में जहां भी हम गए, हमें सामान्य लोगों के बीच आस्था के समानांतर एक भय, आतंक और अंधविश्वास का माहौल भी दिखाई दिया। शायद इस आतंक और अंधविश्वास के सहारे पहले प्राचीन राजाओं, फिर अंग्रज़ों और अब सैनिक अधिकारियों के लिए जन-सामान्य पर हुकूमत करना बेहद सुविधाजनक था। फौज के अधिकांश बड़े अधिकारी टोटकों और ज्योतिषियों के सुझाए रास्तों से प्रेरित होते रहे हैं, बशर्ते कि इनसे  सत्ता पर काबिज होना संभव होता रहे।
मयनमार का कई शताब्दियों का रक्तरंजित इतिहास वंचितों के दमन और उनके मानवीय अधिकारों के ह्रास का भी इतिहास रहा है और इसने धर्म के समानांतर अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और ज़मीन से जुड़े लोगों के बीच एक अजीबोगरीब जन-संस्कृति को भी जन्म दिया है, जिसके अंतर्गत प्रेतात्माओं या कि बलि पर चढ़ाए गए शोषितों का पूजन एक विशेष स्थान रखता है। मयनमार में बौद्ध धर्म के समानांतर प्रेतात्माओं के पूजन की परंपरा रही है। ये प्रेतात्माएं या 'नट' वे आत्माएं हैं जो अपने जीवनकाल में किसी हिंसक या क्रूरतापूर्ण मृत्यु का शिकार हुई। मयनमार के इतिहास और इससे जुड़ी किंवदंतियों में 37 प्रमुख 'नट' प्रेतात्माओं का जिक्र है। इन प्रेतात्माओं के प्रति आस्था गांवों और सुदूर जंगली इलाकों में अधिक है। सघन जंगल के बीच किसी बड़े पेड़ के नीचे आपको अचानक एक अमूर्त आकृति की अस्पष्ट प्रतिमा और उस प्रतिमा के पास ताज़ा फलों, फूलों और मिठाइयों की चढ़ाई गयी आहुति मिल जाएगी। यह किसी 'नट' का स्वत:स्फूर्त मंदिर है। ये 'नट' वायु, जल, अग्नि, खुशबू आदि किसी भी अमूर्त शक्ति से जुड़े हो सकते हैं। हमने पाया कि हमारे अपने सूफियों की तरह इन 'नट' प्रेतात्माओं के प्रति आस्था व्यापक रूप से सभी धर्मों के मानने वालों के बीच है। बल्कि सुदूर इलाकों में तो इनकी मान्यता धार्मिक आस्थाओं से भी कहीं अधिक मज़बूत और गहरी है। एक अन्य स्तर पर 'नट' प्रेतात्माओं के प्रति आस्था का यह विपुल भंडार धर्म के कठोर ढांचे, इसके अन्याय, इसकी सीमाओं और असमर्थताओं के खिलाफ अमूर्त सांस्कृतिक चिन्हों की पुरज़ोर बगावत के रूप में •िांदा है। इन 'नट' प्रेतात्माएं के लिए जीवन की वे सारी जीवन पद्धतियां जायज़ हैं, जिनकी सामान्य धार्मिक आचरण में सख्त मनाही है।
बगान शहर से कुछ ही दूरी पर स्थित है पोपा पहाड़ी जो सदियों पहले मैदानी इलाकों में एक ज्वालामुखी के विस्फोट में निकले लावा से निर्मित हुई है। ज्वालामुखी अब शांत हो चुका है लेकिन पहाड़ी पर बसी बस्ती एक तरह से इन 'नट' प्रेतात्माओं की जन्मभूमि कही जा सकती है।
         

पोपा पहाड़ी पर बसा प्रेतात्माओं का संसार

इस पहाड़ी पर बसे मंदिर में रंग बिरांगी पोशाकों में सजी देश की 37 सबसे महत्वपूण 'नट' प्रेतात्माओं का वास है। इनमें से हरएक प्रेतात्मा की कहानी इतिहास के किसी भीषण रक्तपात और किसी व्यक्ति की नृशंस हत्या के बाद उसके प्रेतात्मा बन जाने की कहानी कहती है। एक तरह से यह पगोडा या मंदिर उन हुतात्माओं के प्रति श्रृद्धा और आस्था का प्रतीक भी है। पगोडा की 777 सीढिय़ों पर चढऩा आसान नहीं है। लेकिन फिर भी पूर्ण चंद्रमा के दिन यहां हज़ारों की संख्या में श्रृद्धालु चढ़ावा लेकर आते हैं। समय के साथ धार्मिक आस्था और 'नट' प्रेतात्माओं की पूजा के बीच का अंतर्विरोध अब समाप्त हो चला है।
पोपा पहाड़ी की मान्यता को लेकर कई कहानियों में से सबसे प्रचलित यह है कि ग्यारहवीं शताब्दी में बगान में राजा अनावृता का साम्राज्य था। राजा ने एक दिन अपने सेवक ब्यत्ता से पोपा पहाड़ी से फूल चुनकर लाने को कहा। पहाड़ी पर राक्षसी माइ वन्ना का वास था जो केवल फूल खाती थी। सेवक ब्यत्ता पहाड़ी पर आने के बाद माइ वन्ना के प्रेम में फंस गया और कालांतर में उनके दो बेटे हुए। राजा ने पहले ब्यत्ता और माइ वन्ना तथा बाद में दोनों बेटों को मौत के घाट उतार डाला और वे सब 'नट' प्रेतात्माएं बन गए। अगस्त के महीने में मंडाले के नज़दीक ताउंगब्योन में 'नट' प्रेतात्माओं का विराट उत्सव मनाया जाता है जिसमें माइ वन्ना के दोनों बेटों की पूजा की जाती है। समाज से निष्कासित हिजड़े (स्थानीय ज़बान में 'नटकाडाव') स्त्रियों का वेश धर नशे में झूमते, 'नट' प्रेतात्माओं द्वारा वशीकरण का नाटक कर भरपूर नाचते हैं और जगह-जगह लोग उनके साथ बहकते, मौज-मस्ती करते, खाते-पीते और 'नट' प्रेतात्माओं पर आहुति चढ़ाते हैं। 'नट' प्रेतात्माओं की पूजा की यह परंपरा एक तरह से सत्ता, धार्मिक कट्टरता और रूढि़वाद के खिलाफ  एक प्रतीकातमक विरोध भी लग सकती है।
किसी समय प्रदेश की संस्कृति का केंद्रबिंदु रहे मयनमार में धर्म, राजनीतिक उलटफेर, सैनिक दमन और इतने दशकों से शोषित वर्ग की स्थिति प्रज्ञता बेचैन करने वाली है क्योंकि जो कुछ वहां हो रहा है, वह  पूरे प्रदेश के ध्रुवीकरण का ही एक दर्दनाक रूपक है जिसे बहुत चाहकर भी प्रगति और विकास की धोखादेह सुर्खियों में गुम नहीं किया जा सकता।
अपने नए उपन्यास के प्रकाशन से जुड़े एक ताज़ा इंटरव्यू में अरुंधती रॉय कहती हैं कि-
''...मुझे लगता है कि आज हम अत्यंत खतरनाक समय में जी रहे हैं जहां मेरे या किसी भी व्यक्ति के साथ क्या हो जाएगा, कुछ ठीक नहीं है। हर जगह लोगों के उग्र जमावड़े हैं, जो तय कर रहे हैं कि किसे मारना है, किस पर गोली चलानी है, किस की पिटाई करनी है, और किस के साथ क्या करना है! शायद पहली बार इस देश में हम उसी तरह का आतंकी सदमा महसूस कर रहे जैसा कभी चिली और लैटिन अमेरिका के लोगों ने बरसों पहले किया था। ...स्थितियां नियंत्रण के बाहर चली गयी हैं।  ...आज यदि आप मुसलमान हैं तो आप बस या ट्रेन में अपनी जिंदगी पर कोई खतरा महसूस किए बगैर कैसे सफर कर सकते हैं?....''
सांस्कृतिक या धार्मिक शिनाख्त के आधार पर पैदा होने वाला यह खतरा आज अकेले भारत में नहीं है।  इसका प्रभाव आज ना•िायों के 'हॉलोकास्ट' की तरह पूरे प्रदेश पर किसी ज़हरीले धुंए की तरह फैला दिखाई देता है। यदि आप हिंदू हैं तो अफगानिस्तान में कैसे रह सकते हैं? अगर आप पंडित हैं तो श्रीनगर की गलियों से होकर कैसे गुज़रेंगे? अगर आप भारतीय मुसलमान हैं तो आपको तय करना होगा कि आप क्या खाएंगे और क्या नहीं? अगर आप बांग्लादेश में हैं तो आपका सहिष्णु मुसलमान होना खतरे से खाली नहीं है। और अपने पुरखों के देश मयनमार में  अगर आप रोहिंग्या मुसलमान हैं तो बस्तियों से खदेड़े जाना और नागरिकता से हाथ धोना आपके लिए लाजिमी है...
मयनमार की इस रूपक कथा में हम एक बार फिर उस घटनाचक्र की ओर लौटते हैं जो बहुत खुरदरा, बहुत बदसूरत और शायद अब बहुत जाना-पहचाना भी है! लेकिन इतिहास से सबक सीखना शायद इंसान की फितरत नहीं है।
मयनमार में मुसलमान ग्यारहवीं शताब्दी से रहते आए हैं। लगभग छ: सौ वर्षों तक वहां उनके अपने ढंग से जीने और रहने पर किसी को ऐतराज नहीं था। फिर अचानक 1752 में तत्कालीन राजा अलौंगपया ने मुसलमानों द्वारा पशुओं के हलाल पर पाबंदी लगा दी। 1782 में राजा बोवदापया ने चार प्रतिष्ठित मुसलमानों को सुअर का मांस खाने पर मजबूर किया और जब उन्होंने खाने से इंकार किया तो उसने उनका कत्ल कर दिया। अंग्रेज़ों के दौर में सारे मुसलमानों को 'इंडियन' समझा जाता था हालांकि बर्मी मुसलमान सांस्कृतिक धरातल पर भारतीय मुसलमान से बिल्कुल अलग थे। लेकिन अंग्रेज़ों के लिए वहां हिंदुओं और बर्मी एवं भारतीय मुसलमानों सहित सब 'काले' थे। पहले विश्व युद्ध के बाद बर्मा में भारतीयों और मुसलमानों के प्रति नफरत का भाव बढ़ता दिखाई दिया। उनके अनुसार मुगलों के शासन में वहां बौद्ध बेतरह प्रताडि़त किए जा रहे थे। 1930 में जब रंगून बंदरगाह में भारतीय मजदूरों ने हड़ताल कर दी तो अंग्रेजों ने उनके स्थान पर बर्मी मजदूरों को काम पर लगा दिया। आखिरकार इससे भारतीय मजदूरों की हड़ताल टूट गयी लेकिन अंग्रेजों ने जब स्थानीय मजदूरों को हटाकर भारतीय मजदूरों को वापस काम पर लिया तो दोनों मजदूर दलों के बीच दंगे भड़क उठे। कम से कम दो सौ भारतीय मजदूरों को कत्ल कर पानी में फेंक दिया गया। मुसलमानों और स्थानीय मजदूरों के बीच ये दंगे बाद में सारे देश में फैल गए और इन्होंने अंग्रेज़ विरोधी रुख भी अपना लिया। दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों ने जब रोहिंग्या मुसलमानों के इलाकों पर कब्ज़ा करना शुरू किया तो कई हज़ार रोहिंग्या भागकर चटगांव (अब बांग्लादेश) के आस पास के इलाकों की ओर भागे। 1962 में सेना प्रमुख ने विन के शासनकाल में मुसलमानों को बर्मी सेना से निकाला जाने लगा। मुसलमानों की स्वतंत्रताएं लगातार संकुचित की जा रही थी। ऑल बर्मा मुस्लिम यूनियन पर आतंकवाद के कई आरोप भी लगाए गए। 1997 के दौरान मंडाले में 1784 की एक भव्य बुद्ध की प्रतिमा फौजी अधिकारियों द्वारा पुर्नस्थापित की जा रही थी। सुना गया था कि प्रतिमा के भीतर वह दुर्लभ पदम्य माणिक छिपा है जिसे पाने के बाद उसके स्वामी को युद्ध में हरा सकना असंभव हो जाता है। फौजियों ने उस माणिक की तलाश में प्रतिमा के सिर में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोद डाला। बाद में इस बात पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए अफवाह फैलाई गयी कि कि मुसलमान युवकों ने एक बौद्ध लड़की का बलात्कार करने की कोशिश की है। इस खबर के फैलते ही पूरे शहर में दंगे भड़क उठे जिसमें तीन लोग मारे गए और कई सौ घायल हुए। बाद में अफवाह के झूठा साबित होने पर कई बौद्ध भिक्षुओं को भी कुछ समय के लिए गिरफ्तार कर बाद में छोड़ दिया गया। 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में बौद्ध मूर्तियों के तोड़े जाने के बाद मयनमार में बौद्ध भिक्षुओं ने मुस्लिम विरोधी पर्चे बांटे और दंगों में हनथा मस्जिद में 20 नमाज़ियों को मार दिया। कहा जाता है कि कई और को फौजियों ने पीट पीटकर खत्म कर डाला। बौद्ध भिक्षुक मांग कर रहे थे कि अफगानिस्तान के बामियान में विनाश के बदले उन्हें तौनगो में  हनथा मस्जिद को तोडऩे की इजाज़त दी जाए। 18 मई 2001 को बुलडोज़रों की मदद से हनथा मस्जिद और निकटवर्ती तौनगू रेलवे स्टेशन को नेस्तनाबूद कर दिया गया। दंगों के बाद तौनगू में सैंकड़ों मुस्लिम परिवार शहर छोड़कर दूसरे शहरों की ओर भागने लगे। कई दिनों की लूटपाट के बाद सेना हरकत में आयी। ....2012 में राखिने राज्य में 166 रोहिंग्या मुसलमानों की जान गयी। फिर इसके बाद 2014 और 2016 से आज तक  सेना की देखरेख में हज़ारों रोहिंग्या मुसलमानों का विधिवत दमन जारी है। ग्यारहवीं शताब्दी से मयनमार में रहने वाले ये मुसलमान आज अपने ही देश में अजनबी हैं। लगभग आठ लाख रोहिंग्या विस्थापित हैं। और मयनमार में उनपर कई पाबंदियां लागू हैं-- वे अपना मनपसंद भोजन नहीं खा सकते, ज़मीन नहीं खरीद सकते, दो से अधिक बच्चे नहीं पैदा कर सकते और अधिकारियों की अनुमति के बगैर यात्रा नहीं कर सकते! बौद्ध भिक्षुओं का जिक्र आते ही हमारे •ोहन में दलाई लामा का शांतिपूर्ण चित्र उभरता है। लेकिन मयनमार में बौद्ध भिक्षुओं के तेज़-तर्रार नेता अशिन विराथू अपने भाषणों में मुसलमानों के विरुद्ध इतना ज़हर उगलते हैं कि उन्हें सहज ही 'बर्मीज़ बिन लादेन' की उपाधि हासिल हो गयी है। वे फौजी अधिकारियों से लेकर औंग सान सू क्यी तक किसी के वश में नहीं हैं। वे मयनमार को एक मुसलमान-रहित बौद्ध राष्ट्र बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं!...देश में कई मस्जिदें पहले ही नष्ट की जा चुकी हैं और बहुत से अल्पसंख्यक कैम्पों में नज़रबंद हैं ....देश में इससे आगे की कहानी क्या होगी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए.....
यह रूपक कथा आपको बहुत कही-सुनी, बहुत परिचित लग सकती है। किरदारों के नाम बदलकर इसे भारत, कश्मीर, अफगानिस्तान, चटगांव, मुज़फ्फरपुर, नागपुर या जाफना, कहीं भी निर्यात किया जा सकता है, उसी विश्वसनीयता के साथ। हम चाह रहे हैं कि ऐसा न हो। हममें से हरएक अपने लिए इस कहानी से अलग किसी मुख्तलिफ मुकद्दर की अनकही दुआ पर ज़िंदा है। लेकिन मजाज़ के शब्दों में कहें तो--

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तेरी ज़ुल्फों का पेंच-ओ-ख़म नहीं है!

(अगले अंक में -नागालैंड-प्रलय आने से पहले...)




जितेन्द्र भाटिया 'पहल' के स्थायी स्तंभ लेखक हैं। जयपुर में रहते है। मो. 9840991304


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