मुखपृष्ठ पिछले अंक राहुल सांकृत्यायन और हिमालय
जुलाई - 2017

राहुल सांकृत्यायन और हिमालय

शेखर पाठक

व्याख्यान




 7 दिसम्बर 2013 को राहुल प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में दिया गया 20 वां राहुल सांकृत्यायन व्याख्यान
 
राहुल सांकृत्यायन एक बड़ी प्रतिभा थे। बहुआयामी और बहुपर्ती। लगातार बदलते हुए और विकसित होते हुए एक भारतीय से वे एशियाई बने और फिर विश्वमानव। कुलवन्ती और गोवर्धन पाण्डे के केदारनाथ (जन्म: 9 अप्रैल 1893, पन्दहा, आजमगढ़-मृत्यु: 14 अप्रैल 1963, दार्जिलिंग) नामधारी बेटे, जब जोगी बने तो रामोदार (रामउदार) दास कहलाये। आर्य समाजी भी बने पर नाम यही रहा। फिर बौद्ध बने तो राहुल हो गये। कभी कभी रामोदारदास सांकृत्यायन कहलाये। 1930 में जब उन्हें काशी के पंडितों ने 'महापंडित' का तमगा दिया तो तब तक वह कहीं आगे निकल गये थे। वह मार्क्सवादी, साम्यवादी, समाजवादी से भी आगे मानवतावादी बने (इसीलिये उन्होंने 'मज्झिम निकाय' का यह बुद्ध बचन 'मैंने बेड़े की तरह पार उतरने के लिये विचारों को स्वीकार किया है, न कि सिर पर उठाये फिरने के लिये। जिसे हमने अधर्म मान लिया उसे तो छोड़ देना ही पड़ता है किन्तु जिसे हमने धर्म मान रखा था, और कालान्तर में हमें लगा कि वह धर्म भी अब त्याज्य है, तो उसे भी छोड़ ही देना चाहिये' अपना आदर्श बना लिया था) और स्वाभाविक ही जन्म शताब्दी के समय गुणाकर मुले ने उन्हें 'स्वयंभू पंडित' का संबोधन दिया।
वह लेखक बने- कहानीकार, उपन्यासकार, जीवनीकार। यात्रा लेखक बने- कठिनतम और दुर्लभतम इलाकों के यात्री। कहने को वे अपने को 'संयोग से बना लेखक' भी कहते थे। पुरातत्व तथा मूर्तिकला की तरफ चाहे उन्होंने शौकिया नजरों से देखा हो, पर इतिहासकार के रूप में उन्हें ख्याति मिली- विशेषकर हिमालय और मध्य एशिया के इतिहासकार के रूप में। लोक इतिहास में उनकी पैठ थी और उसका उन्होंने सतत् उपयोग किया। क्लासिकल भाषाविद् होने के साथ ही लोक भाषाओं में भी उनकी गहन रुचि थी। हिन्दी के आदि रूप को 'कौरवी' नाम उन्होंने ही दिया। बौद्ध और बोन्पा इतिहास तथा संस्कृति के अन्वेषक के रूप में उनका अलग स्थान है। हिमालय और तिब्बत के तो वे सतत् अन्वेषक रहे। एक संग्रामी, किसान नेता, साम्यवादी कार्यकर्ता, वृहत् सकारात्मक परिवर्तनकामी और रचनात्मकता से लबालब भरा व्यक्तित्व तो वे थे ही।
राहुल सतत् प्रयोगशील रहे। इसीलिए बाल विवाह (1904 में 11 साल की उम्र में) के दौर की पत्नी को छोड़कर वैराग्य भाव से वशीभूत होकर जोगी बन गये राहुल (1910) फिर संस्कृत की पढ़ाई में लगे तो मंत्र साधना में भी (1911-12)। जरा बाद दक्षिण भारत के एक मठ के मुखिया के दामोदराचारी नाम्ना शिष्य बने (1913)। आगे वे पक्के आर्य समाजी बने, लिखने लगे और 50 साल की उम्र पूरे होने तक अपने जिले की सीमा न छूने की शपथ उन्होंने ले ली (1916)। 1921 में असहयोग आन्दोलन में हिस्सेदारी की और कुर्ग में रहे। बाढ़ पीडि़तों की सेवा की, गिरफ्तारी दी, कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गये और अपनी पहली किताबें लिखीं-वह भी संस्कृत में। फिर वे बौद्ध भिक्षु और बौद्ध अध्येता हो गये- 'त्रिपिटकाचार्य'। सविनय सत्याग्रही और हिमालय, तिब्बत, रूस और अन्य भूगोलों के सतत यात्री, अन्वेषक और लेखक। लोला से प्रेम और फिर उनके और पुत्र के साथ एक संक्षिप्त गृहस्थी (1945-47) रही। दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में यह परिवार बिखरा सा रहा। राहुल जेल में थे और लोला अपने राष्ट्र के साथ द्वितीय विश्व युद्ध से जूझ रही थी। कुछ समय बाद कमला से प्रेम और विवाह (1950) हुआ। अगले 13 साल उनकी गृहस्थी चली और बीमारी के बावजूद वे लेखन कार्य कर सके। लोला से उन्हें ईगोर और कमला से जया तथा जेता मिले। इन तीनों के पिता वे यों ही नहीं बने। यात्रा, अध्ययन-अन्वेषण और प्रेम का संयुक्त कार्यकलाप इसके लिये जिम्मेदार था। राहुल के जीवन का अंतिम दशक लेखन को समर्पित रहा। बीमारियों से लड़ते हुये और बचे काम करते हुये राहुल डटे रहे।
* * *
लेकिन मैं उन्हें महानतम घुमक्कड़ और महान हिमालयविद् के रूप में देखता हूँ। यह उनके महामानव का सार था। उनके सम्पूर्ण बौद्धिक-सांस्कृतिक योगदान की धुरी हिमालय-तिब्बत, मध्य एशिया  और बौद्ध धर्म-परम्परा ही हैं और उनकी घुमक्कड़ी का विस्तृत और कठिन भूगोल भी यहीं है। उनके प्रिय बर्फ, देवदार, बुरांश, हरितिमा, और पशुपालन इसी हिमालय से जुड़े थे, जो अनेक बार उन्हें विह्वल और व्यक्तिगत सपने देखने को विवश कर देते थे। लाल बहादुर वर्मा के शब्दों में 'हिमालय यदि भौगोलिक महाकाव्य है तो राहुल का जीवन एक सांस्कृतिक महाकाव्य है। दोनों में ही उध्र्वता (वर्टिकलीटी) और क्षैतिजता (होरिजैन्टलिटी) साथ साथ निहित है'। राहुल ने लिखा भी था कि 'हिमालय किसको अपनी ओर आकृष्ट नहीं करता?' या 'मैं नगाधिराज का परम भक्त हूं।' वे तो हिमालय की मुहब्बत में 1910 में ही आकंठ डूब गये थे। 'प्रेम पर्वत' हिमालय ही उनका मुख्य कर्म स्थल, यात्रा क्षेत्र और मृत्यु स्थान भी बना। मतलब यह नहीं है कि बाकी देश और एशिया से वे बेगाना हो गये थे। इस समय भी वे लगातार एशिया तथा यूरोप के अनेक इलाकों में घूमते रहे थे और शोध और लेखन कर रहे थे।
हिमालय को पहली बार उन्होंने समग्रता में देखने की कोशिश की थी। कालिदास ने जिस हिमालय को काव्य में देखा था और एस.जी. बुर्रार्ड तथा एच.एच. हेडेन या हेम और गैन्सीर अथवा डी.एन. वाडिया ने भूगोल और भूगर्भ में; उसे समाज, इतिहास, धर्म-संस्कृति, भाषा-साहित्य में पहली बार राहुल ही देख सके थे। यों तो लंका में भी उन्होंने बौद्ध धर्म को देखा-समझा पर हिमालय और तिब्बत में बौद्ध धर्म और परम्परा का अधिक गहन अन्वेषण उन्होंने किया। उसमें वे रम से गये। बौद्ध धर्म के अवसान के बाद भारत में जो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामान खो गया था, उसका कुछ हिस्सा वे तिब्बत से ले आये, जो अनुवादों के मार्फत वहां सदियों से सुरक्षित था। उस सामान का अधिकांश अभी पटना संग्रहालय में होना चाहिये।
इतिहास और वर्तमान पर उनकी नजर साथ साथ होती थी। इसलिए उनका हिमालयविद् अत्यन्त अन्वेषी और विवेकसम्मत दृष्टि को लिये है। जिस तरह उन्होंने बहुत सारे मिथ तोड़े थे वैसे ही हिमालय के बारे में 'देवभूमि' का सतही भ्रम भी उन्होंने तोड़ा। इन तमाम रचनात्मक और प्रतिभा सूत्रों के कारण वे बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण भारतीयों में स्थान पा सके। उन्हें 'नवजागरण पुरुष' कहने में किसी को आपत्ति नहीं होती है। शंभुनाथ उन्हें विवेकानन्द की तरह ही भारतीय नव जागरण का शिखर पुरुष मानते हैं। एक उस युग के पूर्वार्ध में था और दूसरा उत्तरार्ध में। बल्कि राहुल को एशियाई नव जागरण का सिपहसालार भी मानना चाहिये, जिसने वोल्गा से गंगा और मंचूरिया से श्रीलंका तक को जोडऩे वाले सूत्र खोज डाले। वे गैर धार्मिक पर सांस्कृतिक 'नवजागरण पुरुष' थे, जिनका बनना और विकसित होना एशिया में अधिक कठिन था। एक बार नैनीताल में उन्होंने बांकेलाल कंसल से जो कहा था, वह उनके मानस की तासीर बताने को काफी है:
'अपने नसीब, अपने मुकद्दर का क्या करूं ?
गैरों का दर्दे दिल भी मेरे जिगर में है'
हिमालय पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें 'किन्नर देश में' (1948), 'दार्जिलिंग' (1949-50), 'कुमाऊँ' (1950) 'गढ़वाल' (1953), 'जौनसार भाबर' (1961), 'नेपाल' (1953), 'हिमाचल प्रदेश' (1954), 'वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली' (1955) आदि प्रमुख है। 5 खंडों और 2770 पन्नों में फैली उनकी आत्मकथात्मक 'मेरी जीवन यात्रा' (1940, 44, 51 तथा 56) भी उनकी हिमालय, तिब्बत और मध्य एशिया की यात्राओं और अनुभवों का दस्तावेज है। दुर्भाग्य से इस ग्रन्थमाला को जितना महत्व मिलना चाहिए था, वह अभी तक नहीं मिला है। मिलेगा जरूर। सार रूप में कहा जाय जो उनकी दो दर्जन किताबें हिमालय-तिब्बत आदि से सम्बंधित हैं।
उनकी किताबों में हिमालय के तमाम पक्षों के साथ उन व्यक्तित्वों का भी जिक्र आया है, जिनसे उनका सामना हुआ था। जैसे बोसी सेन, इमरसन सेन, उदय शंकर, रवि शंकर, सुमित्रानन्दन पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, पी.सी. जोशी (अल्मोड़ा); सत्यकेतु विद्यालंकार, सत्य प्रसाद रतूड़ी (मसूरी), मायादास, बांकेलाल कंसल, हीरालाल साह (नैनीताल); गोविन्दा अनागरिक लामा, पादरी जोजफ  गेर्गन (जम्मू कश्मीर और लद्दाख); विभिन्न लामा और चोग्याल (सिक्किम), मुकन्दीलाल, चन्द्र सिंह गढ़वाली, प्रणवानन्द, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', यमुना दत्त वैष्णव 'अशोक', दलाई लामा, निकोलाई रोरिक, स्वेतस्लाव रोरिक और जॉर्ज रोरिक, चाल्र्स बै्ल, नागार्जुन, किशोरीदास बाजपेयी, मंगोल विद्वान गोन्-कर-क्यब, अम्दो के बौद्ध चित्रकार गेदुन छोम्फेल जैसे तमाम लोगों से उनकी मुलाकात हिमालय या तिब्बत में ही हुई थी। हिमालय में रहते हुए भी उन्होंने हिमालय-तिब्बत सम्बन्धी तथा अन्य किताबें लिखी थीं। चार दशक की विभिन्न यात्राओं के बाद 1948 में उन्होंने 'घुमक्कड़ शास्त्र' कलिङपोङ  में लिखी थी। तब वे 56 वें साल में प्रवेश कर चुके थे। पृथ्वी सिंह आजाद की जीवनी का दूसरा संस्करण उन्होंने मसूरी में तैयार किया था। सरदपा की कविताओं का अनुवाद उन्होंने कलिङपोङ में किया था। ऐनी की रचनाओं की पुनर्रचना उन्होंने मसूरी में की। अदीना (1951) तथा अनाथ (1948) तभी प्रकाशित हुये थे।
दरअसल उनकी सबसे महत्वपूर्ण दो पुस्तकें 'वोल्गा से गंगा' (1942) तथा 'मध्य एशिया का इतिहास' (दो खंड, 1951-52) अन्तत: हिमालय से जुड़ जाती हैं। बोल्गा और गंगा के बीच हिमालय और मध्य एशिया उतनी ही स्वाभाविकता से आता है जितनी स्वाभाविकता से मध्य एशिया के इतिहास में हिमालय। इसके अलावा 'जय यौधेय' (1993, 1950, 48-58) में हिमालयी जीवन की झलक मिलती है तो 'विविध प्रसंग' तथा 'घुमक्कड़ स्वामी' में हिमालय का संदर्भ आ जाता है। 'राहुल निबंधावली' (1970: 48-52) में भी उनका एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख 'मारवाड़ी और पहाड़ी भाषाओं का सम्बंध' संकलित है।
हालांकि जैसा मैंने राहुल सांकृत्यायन की जन्म शताब्दी के समय उनको लिखे पत्र में कहा था कि, 'बाबा कभी कभी लगता है कि आपकी भी सीमायें थीं। कुछेक बार आप ज्यादा स्पष्ट बोलने से कतरा गये या आप नहीं समझ सके कि आपको इन मामलों में ज्यादा बोलना है। जैसे रूस की भीतरी हालात के बारे में। जिस तिब्बत की आपने चार विराट यात्रायें की उसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बाबत आपका स्टेंड ज्यादा स्पष्ट होना चाहिये था। असली साम्यवादी कभी विस्तारवादी नहीं हो सकते। एक साथ तिब्बत की सांस्कृतिक हिफाजत और उसे चीन के तहत देखना बड़ी चूक थी। चीनी क्रांति और उनका नव निर्माण अपनी जगह पर है, पर विस्तारवाद उसकी अपरिहार्यता नहीं है। तिब्बत में अपनी जड़ों से भी परिवर्तनकामी आन्दोलन उग सकते थे..' (पहाड़ 7-8, संपादकीय, 1995)।
पर आज के व्याख्यान में मैं राहुल की हिमालयी यात्राओं की चर्चा करना चाहता हूं। अत्यन्त विनम्रता और हार्दिकता के साथ। राहुल के इन रास्तों में से कुछ में मुझे भी जाने का मौका मिला। तब मैं या तो 'पंडितों के पंडित' नैन सिंह रावत को याद करता या 'महापंडित' राहुल को या पुराने बौद्ध विद्वानों तथा यात्रियों को।
हिमालय की ओर
राहुल के समस्त साहित्य और जीवनियों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि राहुल ने कम से कम 17 बार हिमालय-तिब्बत की यात्राएं कीं। वैसे पहला पर्वत जिससे 1902 में बालक राहुल का सामना हुआ था, वह विंध्याचल था। हिमालय की उनकी पहली यात्रा 1910 में उत्तराखण्ड की थी। 16 साल का केदार तब हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग, टिहरी, यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, जोशीमठ और बद्रीनाथ तक गया था। यह मूलत: चारधाम की प्रसिद्ध प्रचलित यात्रा थी और पुराने पैदल मार्ग से हुई थी। तब वही आड़ा और तिरछा मार्ग प्रचलित था। इस तरह इस यात्रा से शुरू हुआ हिमालय प्रेम, हिमालय कौतूहल और हिमालय अन्वेषण आजन्म चला। देहान्त के समय भी वे हिमालय में ही थे।
13 साल बाद मार्च-अप्रैल 1923 में, जब केदारनाथ सामाजिक-राजनैतिक कार्य करने लगे थे और रामोदारदास नाम धारण कर चुके थे, उनकी दूसरी हिमालय यात्रा हुई। यह पहली नेपाल यात्रा थी। हिमालय और देशों में भी फैला है, यह उनका पहला भान था। इस यात्रा में वे दो हफ्ते तक एक गुफा में रहे, बौद्ध धर्म से कुछ और निकट का परिचय हुआ और 'बाइसवीं सदी' नामक उनकी कृति का वृतान्त यहीं से शुरू होता है।
तीन साल बाद 1926 में उनकी तीसरी हिमालय यात्रा सम्पन्न हुई थी। यह उनकी पहली लद्दाख और किन्नौर यात्रा थी। हिमालय का एक अलग चेहरा इस बार उन्होंने देखा, जो उत्तराखण्ड और नेपाल से भिन्न था। अभी वे वैष्णव साधु के साथ पंजाब के आर्य समाजी प्रचारक के रूप में कार्यरत थे। देश असहयोग आन्दोलन के बाद दो चुनावों से गुजर कर अपेक्षाकृत शान्त था। इस समय वे खैबर दर्रे की ओर लंडीकोतल तक गए। श्रीनगर, लेह, हेमिस मठ गये। चीनी तुर्किस्तान के काशगर, यारकन्द और खोतान शहरों तक न जा सकने का उन्हें मलाल रहा (वे इस क्षेत्र में कभी नहीं जा सके) क्योंकि तब उनके पास पासपोर्ट नहीं था पर लेह से खरदुंग ला पार कर वे नुब्राघाटी तक हो ही आये। कराकोरम पर्वतमाला का और झेलम, सुुरु, नुब्रा, सिन्धु नदियों का पहला दर्शन उन्होंने इसी यात्रा में किया। इसी यात्रा में एक दृश्य देखकर उन्होंने अपने लिए भी सपना देखा। दरअसल कुछ स्त्री-पुरुष अपने भेड़ों की पीठ पर नमक और अन्य सामान लादे जा रहे थे। उनके साथ 1-2 गधे भी थे, जिन पर तंबू, चाय मथने का फोंका (चादुंङ) और अन्य सामान लदा था। वे किस तरह सपना देखने लगे, उन्हीं के शब्दों में:
'उस वक्त मेरे दिल में एक जबर्दस्त लालसा पैदा हुई। क्या ही अच्छा होता कि मैं भी इसी तरह कुछ भेड़ों, 1-2 गदहों और तिब्बती तरुणी के साथ एक जगह से दूसरी जगह घूमता-फिरता। जहाँ मन आता वहाँ तंबू लगाता। तरुणी और मैं मिलकर गदहों और भेड़ों से सामान उतारते। दो बड़े कुत्ते हमारी चीजों की रखवाली करते। तरुणी चाय बनाती; फिर उस निर्जन, निर्वृक्ष नंगी पार्वत्य उपत्यका में हम दोनों एक निद्र्वन्द्व विचित्र सा जीवन बिताते। इस प्रकार कभी लद्दाख, कभी मानसरोवर, कभी ब्रह्मपुत्र की उपत्यका में टशील्हुनपो, कभी ल्हासा और कभी-कभी खम हमारे पैरों के नीचे रहता।' (मेरी जीवन यात्रा, भाग 1, 415)।
इस यात्रा ने उनके मन में हिमालय की भौगोलिक, जलवायु और सौन्दर्यगत विविधताओं का अनुभव भरा। और ये सब आयाम समाज-संस्कृतियों को किस तरह प्रभावित करते हैं यह भी उनकी समझ में आया। पता नहीं कैसे वे कवि होने से बचे रहे!
1927-28 में वे डेढ़ साल के लिए श्रीलंका गये। यह उनकी पहली श्रीलंका यात्रा थी। यह भारतीय उप महाद्वीप के दूसरे छोर और समन्दर का स्पर्श देने वाली यात्रा भी थी। इस यात्रा ने उनके मन में भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता का संदर्भ रख दिया था।
चौथी-पांचवीं बार
राहुल की चौथी हिमालय यात्रा दो गैर भारतीय हिमालयी क्षेत्रों-क्रमश: नेपाल और तिब्बत- की थी। इसी यात्रा में वे खुन्नू छेवङ (यानी किन्नौर का छेवङ) बने थे, जैसे कि पंडित नैनसिंह रावत 1865-66 में अपनी पहली तिब्बत यात्रा में बुशहरी व्यापारी बने थे। राहुल को किन्नौरी और कहीं-कहीं लद्दाखी व्यक्ति समझा गया था, क्योंकि एकदम विपरीत डीलडौल के बावजूद उनका यही परिचय बनाया गया था, तिब्बत में घुसने के लिये।
इस यात्रा में राहुल ने तीन सरकारों को छकाया था। ब्रिटिश भारतीय, नेपाल और तिब्बत सरकार को। क्योंकि इस समय फरी जोङ  से तिब्बत जाने का मार्ग नहीं खुला था। अत: नेपाल से जाना पड़ा। उनका मार्ग वही था जो आज काठमाण्डू-ल्हासा मार्ग है। उन्होंने डुकपा लामा से भी सम्पर्क किया और अपने को बौद्ध धर्म का अध्येता और प्रचारक बताया। फिर पकड़े जाने के भय से वे वेश बदल कर काठमांडू के महाबौधा स्तूप के पास डुकपा लामा के घर में रहने लगे। धीरे धीरे भोटिया भाषा सीखी। फिर वे एल्मो गांव जाकर लामा की प्रतीक्षा करने लगे। काठमाण्डू से तातोपानी होकर भोट कोसी नदी के किनारे-किनारे जाने वाले रास्ते से वे तिब्बत की ञेनम (कुत्ती) मंडी पहुँचे। इस समय उन्होंने असमय बर्फ पड़ती देखी, नशे का बहु प्रचलन और तिब्बत में पहली बार औरतों को सहजता से नंगा नहाते देखा था। जिस गौरी शंकर की वे चर्चा करते हैं दरअसल वह चोमोलंगमा यानी एवरेस्ट शिखर था। जिसे नेपाली सागरमाथा कहते हैं। यह तिब्बत में कोसी-अरुण नदियों (अन्तत: गंगा का) का जलागम था।
थोङला दर्रा पार कर वे टिंगरी के विशाल मैदान में पहुँचे। यह वही तिब्बत था, जिसे 1642 में मंगोलों ने छोटे-छोटे राज्यों के रूप में जीतकर दलाईलामा को भेंट किया था। कहा जाता है कि प्रथम शासक पाँचवे दलाई लामा बने। राहुल की तिब्बत यात्राओं के समय 13वें दलाई लामा थे। बाद में 14वें दलाई लामा का आगमन हुआ, जो तिब्बती इतिहास के कठिनतम दौर में हमारे बीच हैं पर तिब्बत में नहीं।
राहुल आगे बढ़े तो शेगर आया। यहाँ पर आज भी एक किले के खंडहर हैं। एक छोटी सी नदी बगल में बहती है। फिर एक दर्रे के बाद सांगपो नदी का दांया किनारा आया। यहाँ ल्हार्चै नामक रियासत थी। राहुल का यह प्रथम सांगपो दर्शन था। यही नदी असम में पहुँचकर ब्रह्मपुत्र बनती है।
फिर वे ल्हार्चै के बाद याक के चमड़े की नाव से टशील्हुनपो/सिगास्ते पहुँचे, जो अपने मठ और किले के साथ पंचम लामा के स्थान के रूप में जाना जाता था। इस मार्ग में यह तिब्बत का पहला बड़ा नगर उन्हें मिला। यहाँ नेपालियों की बहुत सी दुकानें थीं। किन्नौर के भिक्षु यहाँ उन्हें मिले। 7 जुलाई 1929 को राहुल ग्यान्त्से पहुँचे, जो अपने मठ के लिए सुप्रसिद्ध था और यहाँ ब्रिटिश ट्रेड ऐजेन्ट भी रहता था। वे आगे बढ़े और 19 जुलाई को उन्हें पोटाला महल के शिखर दूर से ही दिखाई दिये। फिर सातवीं शताब्दी में शुरू हुये ल्हासा पहुँचे। यह तिब्बत की राजधानी थी, जहाँ राहुल का पहला आगमन हो रहा था। डेपुङ, सेरा, गनदन आदि मठों के साथ जोखंङ और पोटाला महल आदि सभी गेलुकपा संप्रदाय के स्थल थे। दलाई लामा के सम्मान में लिखे राहुल के पदों का तिब्बती में अनुवाद कर दलाई लामा के पास पहुंचाया गया। राहुल किसी मठ में रह कर बौद्ध अध्ययन को समर्पित हो जाना चाहते थे। दलाई लामा से उनको अध्ययन तथा ल्हासा में रहने की स्वीकृति मिल गई। अब वे अज्ञातवास से बाहर निकल सकते थे। इस समय ल्हासा में तिब्बती और नेपाली सरकारों के बीच तनाव भी चल रहा था। 1929 का साल यों ही गुजरता रहा।
आचार्य नरेन्द्रदेव तथा भदन्त आनन्द कौशल्यायन उनकी मदद कर रहे थे। राहुल ने बहुत गहराई से ल्हासा, इसके निवासियों, बौद्ध परम्परा, व्यापार, ल्हासा की गंदगी, तमाम मठों की स्थिति और दलाई लामा आदि के बाबत जानकारी प्राप्त की। बौद्ध ग्रंथों तथा चित्रों की खोजखबर भी वे लेते रहे। मार्च 1930 में वापसी की तैयारी करने लगे क्योंकि उनको अब श्रीलंका जाना था। तमाम पुस्तकों तथा चित्रों की खरीद का सिलसिला चला। तिब्बत के सबसे पुराने बुद्ध मंदिर यानी जोखङ (ल्हासा) को वे देख चुके थे। अब वे तिब्बत के सबसे पुराने मठ यानी साम्ये को देखने के लिये 5 अप्रैल 1930 को चले।
नाव द्वारा पहले वे ल्हासा नदी और फिर ब्रह्मपुत्र में आ गये। करीब में ही ब्रह्मपुत्र के दांये किनारे पर साम्ये मठ था, जो तिब्बत के सबसे पुराने मठों में गिना जाता था और जहाँ आठवीं सदी में भारत से गये शांत रक्षित और उनके शिष्य विरोचन भी रहे थे। ग्यारहवीं सदी में दीपंकर श्रीज्ञान यहां आये और उन्होंने पाया कि अनेक ग्रंथ जो यहाँ हैं वे विक्रमशिला में नहीं हैं। दीपंकर का निर्वाण स्थान नेथङ पास में था, जहाँ राहुल अगली तिब्बत यात्रा में गये। राहुल ने शांत रक्षित और विरोचन की मूर्तियाँ देखी और शांत रक्षित के उस कपाल को देखकर भावुक हो गये, जिसके भीतर स्थित मस्तिष्क से 'तत्व संग्रह' जैसा महान ग्रंथ निकला था। यहाँ राहुल ने पुराने ग्रंथ और चित्र खरीदे।
ल्हासा लौटकर वे गनदन मठ देखने गये और 17-18 खच्चरों में ग्रंथ, चित्र तथा अन्य सामग्री कलिङपोङ के लिये रवाना कर दी गई। कंजुर तो राहुल को मिल गये थे पर तंजुर नहीं मिले थे। ल्हासा लौटकर 18 अप्रैल को वे फिर से जोखङ के दर्शन को गये। 24 अप्रैल 1930 को भारत वापसी शुरू हुई और उन्होंने ल्हासा छोड़ा।
राहुल की वापसी ग्यांत्से, सिगास्ते, नरथङ, शलू, फरी, जेलप ला, गंतोक की राह हुई। यह वही मार्ग था जहाँ से होकर यंगहजबैंड की ल्हासा में हमला करने वाली ब्रिटिश भारतीय फौज 1904 में गई थी। आज का नाथुला इससे जरा ऊपर है, जहाँ से तिब्बत का सबसे विकसित मार्ग खुल गया है। अब (2014) वहां से कैलास-मानसरोवर की यात्रा भी शुरू हो गई है।
1930-33 के बीच राहुल दो बार श्रीलंका गये, यूरोप की यात्रा की और सविनय अवज्ञा आन्दोलन में हिस्सेदारी की। इसी बीच 'बुद्धचर्या' और 'अभिधर्मकोश' दोनों प्रेस के लिये तैयार हो गये।
* * *
राहुल की पाँचवी हिमालय यात्रा 1933 में 4 जुलाई से 16 सितम्बर के बीच सम्पन्न हुई। यह उनकी दूसरी लद्दाख यात्रा थी। जम्मू होकर वे श्रीनगर गये। यहाँ से इस यात्रा में सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान गोविन्दा अनागरिक लामा उनके साथ आ गये। बौद्ध विद्वान के अलावा गोविन्दा चित्रकार और फोटोग्राफर भी थे। वे जर्मन पिता और बोलिवियाई माता की संतान थे। राहुल की इच्छा इस बार गिलगिट जाने की थी। 15 मई को जम्मू और 17 को वे श्रीनगर पहुँचे और 5 जून तक वहीं रुके रहे। 6 जून को श्रीनगर से चलकर 11 जून को जोजिला दर्रा पार कर वे द्रास, कारगिल, मुलबेक, लामायुरू, रिजोङ गोम्बा पहुँचे। फिर सस्पोला, नीमू होकर 11 वीं सदी की बौद्धकला के अप्रतिम नमूनों को सुरक्षित सम्भालने वाली अल्ची गोम्पा में पहुँचे। फिर वे लेह और हेमिस गोम्पा गये। हेमिस गोम्पा में उन्होंने वहाँ का मशहूर धार्मिक नृत्य देखा। तिब्बती इतिहास, भाषा तथा साहित्य पर कार्य करने वाले पादरी जोजैफ  गेर्गन से उनकी मुलाकात हुई। गेर्गन ने डाक्टर ए.एच. फ्रैंके के साथ काम किया था, जो लद्दाखी इतिहास के विशेषज्ञ थे। यहाँ से गोविन्दा लामा वापस चले गये। वे तब शांतिनिकेतन में अध्यापन करते थे। अब राहुल 4 जुलाई से 16 सितम्बर तक लेह में रहे। इस अवधि में स्थानीय भ्रमण के साथ उन्होंने लेह महल, गोम्पा का ग्रंथालय तथा चित्र संग्रह देखा। यहाँ उन्हें पता चला के डोगरा सेनापति जोरावर सिंह ने बहुत सारे कंजूर ग्रंथों को यहाँ की छतों को पाटने में लगाया था। इसकी हमारे इतिहास में कम चर्चा होती है। लेह में उन्होंने 'मज्झिनिकाय' का हिन्दी अनुवाद किया और कुछ अन्य पुस्तकें तथा लेख लिखे।
राहुल की तुर्किस्तान जाने की इच्छा थी और इस बार वे पासपोर्ट बनाकर गये थे। लेकिन हूण, उग्वेर, तुर्क तथा मंगोल के द्वंद्व में वहाँ अशान्ति थी। अत: इस बार भी वहाँ जाना संभव नहीं हुआ। फिर वे थिकसे गोम्पा होकर मीरू गये और 17 हजार फीट ऊँचे ताङताङला दर्रा से लाहुल, खोकसार, रोहतांग दर्रा होकर कुल्लू और फिर बैजनाथ पहुँचे। वहां से वे लाहौर आ गये। इसी बीच अजन्ता, ऐलोरा की यात्रा की।
दूसरी बार तिब्बत
राहुल की छटी हिमालय यात्रा 1934 में सम्पन्न हुई। यह उनकी दूसरी तिब्बत यात्रा थी। तभी 10 अपै्रल 1934 को उनकी 'तिब्बत में सवा वर्ष' नामक पुस्तक प्रकाशित हो गई थी। 1933 में 13वें दलाई लामा का निधन हो गया था और 14वें दलाई लामा (वर्तमान) का युग एक नन्हें तिब्बती बालक ने शुरू किया। 1934 में तिब्बत-नेपाल-बिहार क्षेत्र में मारक भूकंप आया था। राहुल तब राहत कार्य में जुटे थे। यहाँ से निकल वे फिर हिमालय की ओर बढ़े।
17 अप्रैल 1934 को वे कलिङपोङ पहुँचे और 19 को गन्तोक। गन्तोक में वे पालिटिकल आफीसर विलियम्सन से मिले, जो स्वयं तिब्बत के अच्छे जानकार थे और राहुल के कार्य से परिचित थे। उन्होंने ग्यांची के ट्रेड ऐजेन्ट के लिये पत्र लिख दिया। गन्तोक में राहुल की चोग्याल और उनकी पत्नी से भी मुलाकात हुई। जालेप ला से फरीजोंग होकर उन्होंने तिब्बत में प्रवेश किया। 18 मई को आचार्य दीपंकर का निर्वाण स्थान तथा तारामंदिर देखा। यहाँ तब तक दीपंकर के घोड़े की काठी रखी हुई थी। 19 मई को राहुल ल्हासा पहुँचे। इस बार उनके साथ एक युवक राजनाथ पांडे भी थे। धर्मकीर्ति, जो पिछली तिब्बत यात्रा में उनके साथ भारत-श्रीलंका आये थे, अब उन्हीं के साथ वापस तिब्बत जा रहे थे।
ल्हासा में उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों की खोज का कार्य जारी रखा। इस समय ल्हासा में उन्होंने एक ओर 'विनयपिटक' का अनुवाद किया और दूसरी ओर 'साम्यवाद ही क्यों' पुस्तक 20 मई 1934 से लिखनी शुरू की। सेरा मठ में उनकी मुलाकात मंगोल विद्वान गोन्कर क्यब से हुई। ल्हासा के डे-पुङ् गोम्पा में ही उनकी मुलाकात आम्दो के चित्रकार गेदुन छोम्फेल से हुई। इस बीच 1933 में 14वें दलाईलामा का युग शुरू हो चुका था। इस बार ल्हासा में जो अनेक ग्रन्थ उन्हें मिले, उनमें माघ के शिशुपालवध काव्य पर भवदत्त की टीका 'तत्वकौमुदी' तथा 'अभिसमयालंकार' पर बुद्धश्रीज्ञान की कृति 'प्रज्ञ प्रदीपावलि' ग्रन्थ प्रमुख थे। इनकी बहुत सावधानी से प्रतिलिपियां बनाई गई।
ल्हासा से वे उत्तर की ओर स्थित ग्यारहवीं सदी में बने रेेडिङ  मठ गये पर वहाँ पुस्तकालय तथा तालपोथियाँ देखने का मौका उन्हें नहीं दिया गया। फिर तिब्बत के 15वीं सदी के नालंदा विहार गये। यहीं मार्ग में उन्होंने मुर्दे को काटकर गिद्धों को खिलाया जाता हुआ देखा। यह काम राकोबा जाति के लोग करते थे।
रास्ते में आम्दो (मंगोलिया के मार्ग में दो माह की दूरी पर) से यहाँ आई हुई दो महिला यात्री मिलीं। पास में ही बहुकोणीय यमद्रक ताल था। यहाँ उन्होंने लोगों को मछली सुखाते हुये देखा। इन्हें सिर्फ अनाज के बदले लिया जा सकता था। इसी मार्ग में चलते हुए 13 सितम्बर 1934 को नम्पाशिवा नामक गाँव में प्रसिद्ध तिब्बतविद् और पूर्व पालिटिकल ऐजेंट चाल्र्स बै्ल (ष्टद्धड्डह्म्द्यद्गह्य क्चद्गद्यद्य) और उनका दल मिला। 70 साल के बै्ल को देखकर अपेक्षाकृत युवा राहुल प्रसन्न हुए। जब बै्ल ने कुछ रुपये देने चाहे तो राहुल ने किसी तरह की मदद लेने से इंकार किया। यहाँ से वे 11वीं-12वीं सदी में निर्मित रालुङ गोम्पा गये। चौरस सी घाटी के उपर यह एक छोटी-सी मीनार वाला गोम्पा है।
फिर वे पहले पोइखङ् और ग्यान्तसे पहुचे। पोइखङ् गोम्पा में पता लगा कि यहाँ विक्रमशिला के अंतिम संघराज साक्य श्रीभद्र (1127-1235) रहे थे। श्रीभद्र के वस्त्र, जूते, भिक्षापात्र और जलपात्र यहाँ रखे थे। 100 से अधिक चित्र इस गोम्पा में थे और बहुत से संस्कृत ग्रन्थ भी। ग्रंथों की फोटो लेने के साथ उन्होंने इनकी एक सूची बनाई। फिर सिगात्से को आये। यहाँ से शलू गये। जो ग्रंथ दिखाये गये उनके फोटो तथा विवरण राहुल ने नोट किये। 1 अक्टूबर को नरथङ् से ङोर गोम्पा गये। यहाँ पोथियों के संग्रह को खोलने के लिये लामा तैयार नहीं होते थे। यह काम समय और श्रम साध्य था। 3-4 अक्टूबर को उन्होंने अनेक पोथियाँ देखी और नकल कीं। कुछ की फोटो भी खींची।
राहुल 11 अक्टूबर 1934 को साक्या गये। यहाँ 17 दिन तक रहे। साक्या विहार की स्थापना तो सन् 1073 में हो गई थी और जिन भवनों को राहुल ने देखा वे उन्हें 12वीं-13वीं सदी के लगे। तिब्बत में दलाई लामा और पंचेन लामा के बाद यहाँ के लामा का स्थान था। यहाँ राहुल को ग्रंथ देखने की इजाजत मिल गई। पूर्ण ग्रंथों तथा खंडित ग्रंथों के अलावा यहाँ चित्र और धातु तथा संगमरमर की मूर्तियाँ भी थीं। यहाँ प्रभाकर गुप्त कृत 'वार्तिकालंकार' की प्रति मिली। इसकी राहुल ने फोटो ली और स्वयं अपनी कापी में इसे उतारा भी। अन्तत: 27 अक्टूबर को साक्या से चले। तिङरी, तातोपानी मार्ग से होकर 17 नवम्बर 1934 को वे काठमाण्डू वापस पहुँचे।
1935 में राहुल ने सिंगापुर, हांगकांग, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि (मास्को, बाकू आदि) इरान, बलोचिस्तान की यात्रा की और अन्त में वे बोलान दर्रे से लाहौर वापस आये थे। यह यात्रा भी प्रकारान्तर में पश्चिमी हिमालय-हिन्दूकुश इलाके और उससे जुड़े मध्य एशिया की समझ बढ़ाने वाली सिद्ध हुई।
तीसरी बार तिब्बत और आठवीं बार हिमालय
राहुल की सातवीं हिमालय यात्रा, जो तीसरी तिब्बत यात्रा थी, 1936 में सम्पन्न हुई। 18 फरवरी से 14 अप्रैल 1936 तक वे काठमाण्डू में रहे। जहाँ उनकी मुलाकात कैलास-मानसरोवर के प्रसिद्ध यात्री और अन्वेषक प्रणवानन्द से हुई। प्रणवानन्द लाहौर में उनके साथ रहे थे। सत्रह साल बाद दोनों की मुलाकात हो रही थी। दोनों अब अलग अलग राहों के राही थे पर दोनों मित्रों में खूब गपशप हुई।
15 अप्रैल 1936 को वे काठमाण्डू से चले। तातोपानी, ञेनम और लङकोर होकर वे 6 मई 1936 को साक्या पहुँचे। यहाँ 8 मई को उन्हें प्रज्ञाकर गुप्त कृत प्रमाणवार्तिक भाष्य यानी 'वार्तिकालंकार' की प्रति मिली। 13वीं सदी के दार्शनिक असंग की 'योगाचार भूमि' की प्रतिलिपि भी उन्होंने तैयार की। इस ग्रन्थ में 8000 श्लोक थे। इस ग्रंथ को पाकर वे अत्यन्त खुश थे। तब उन्होंने लिखा था-
'मुझे नाम और सम्मान कोई ऐसी ठोस चीज मालूम नहीं होती। ठोस चीज है वह काम, जो स्वयं तो नष्ट हो जाता है, लेकिन आगे काम करने वालों को धक्का देकर एक कदम आगे बढ़ा देता है।......' (जीवन यात्रा-2/247) फिर वे ङोर और शलू विहार में आये। शलू में राहुल को 'मध्यमक हृदय' (भाव्य), 'विग्रहव्यावर्तनी' (नागार्जुन), 'प्रमाणवार्तिकवृत्ति' (मनोरथनंदी) और 'क्षण भंगाध्याय' (ज्ञानश्री) ग्रन्थों को तीन महीने तक साथ रखने और अध्ययन करने की इजाजत गोंपा के पंचों ने दी थी।
राहुल ग्यान्त्से में 17 अगस्त से 17 सितम्बर तक रहे। ग्यान्त्से से शाक्या मठ को लौटते समय जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे वे फिर भावुक हुए और एक बार फिर सपनों की दुनिया में चले गये-
'पशुचारकों का गाँव मिला, जगह-जगह चवरियाँ चर रही थीं। लोग सिर्फ  सत्तूभर के लिए खेती करते हैं। उनकी प्रधान जीविका है भेड़ और चंवरी। ऊपर घास का मैदान था। अब घासें पीली पड़ गयी थी। यहाँ खुले डांडे और खुले आसमान के नीचे हजारों भेड़ें चर रही थीं। एक ओर काले तंबू से धुंआ निकल रहा था। पुरानी इच्छा फिर जागृत हो आई। कभी मैं भी साल-दो साल ऐसे बिता पाता। लेकिन अब वह जीवन बहुत दूर था। फिर उतराई उतरते पहिले वाले रास्ते आ गये।'
* * *
राहुल की आठवीं हिमालय यात्रा 1937 के मई-अगस्त के बीच हुई। यह उनकी लाहुल की दूसरी यात्रा थी। यात्रा लाहौर-अमृतसर-पठानकोट, मंडी होकर हुई और वे कुल्लू पहुँचे। करीब में ही ब्यास नदी के पार स्थित नगर में उनकी निकोलाई रोरिक, श्रीमती रोरिक, उनके पुत्र जॉर्ज (बौद्ध विद्वान तथा 'ब्लू अनल्स' के लेखक) तथा स्वेतस्लाव (चित्रकार तथा देविकारानी के पति) से अत्यन्त यादगार मुलाकात हुई। देवदार के पेड़ों से घिरे इस परिसर में उनके सबसे ऊपर के मकान में स्थित पुस्तकालय में राहुल अनेक दिनों तक अतिथि के रूप में रहे।
फिर वे खोकसर होकर केलङ, खङसर गये और के. पी. जायसवाल की बीमारी की खबर पाकर वापस नगर आये और तुरन्त पटना चले गये, जहाँ 4 अगस्त 1937 को जायसवाल का देहान्त हो गया था।
राहुल फिर वापस आये। सितम्बर 1937 में वे इरान की यात्रा पर गये। 1937-38 में उन्होंने दूसरी बार रूस की यात्रा की। मास्को से वे लेनिनग्राड गये। यहाँ उनको प्रो. श्चेरवात्सकी के साथ काम करना था। 17 नवम्बर 1937 से 13 जनवरी 1938 तक राहुल ने ओरियंटल इन्स्टीट्यूट में काम किया। संस्थान के भारत-तिब्बत विभाग में वे बैठने लगे। सबसे पहले उन्होंने 'वार्तिकालंकार' के तिब्बती अनुवाद को इसकी मूल संस्कृत प्रति से मिलाने का काम किया। इस विभाग की सचिव लोला (एलेना) नारवेरतोवना कोजेरोवसकाया अनेक दिनों से बीमार थी। अत: राहुल के किसी घर में रहने की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी।
 लेनिनग्राड में लगातार बर्फ  पड़ रही थी। राहुल को यह प्रिय था पर उन्हें अभी इसमें चलना नहीं आता था। अपार ताजा बर्फ  में 28 नवम्बर 1937 को राहुल फिसले और कहना चाहिये कि लोला के प्रेम ने उन्हें खड़ा किया। उसी दिन उनकी लोला से पहली मुलाकात हुई। बहुभाषी लोला ने राहुल को रूसी और राहुल ने लोला को संस्कृत पढ़ाने का निर्णय 'एवमस्तु' कह कर लिया। लोला प्रो. श्चेरवात्सकी की प्रिय शिष्या थीं।
इसी अवधि में उनकी लोला से घनिष्ठता बढ़ी। जिस प्रेमिका को वे हिमालय या तिब्बत के बुग्यालों में पाने की कल्पना करते थे वह उन्हें लेनिनग्राड के प्राच्य संस्थान में मिली। यह घनिष्ठता गहरी होती गई। राहुल के ही शब्दों में, 'अन्त में 22 दिसम्बर (1937) आया, जिस दिन कि हम दोनों एक दूसरे के हो गये'। दो माह से भी कम समय के बाद 13 जनवरी 1938 को उन्हें लेनिनग्राड से विदा लेनी थी। स्टेशन पर लोला ने उन्हें विदाई दी। राहुल ने अतिशय कंजूसी से लिखा, '...आधी रात बीती। गाड़ी का इन्जन सन सन करने लगा। हमारे हृदयों में कांटा सा चुभने लगा। विदा होने का समय आया। आखों से करुणा बरसाते लोला ने विदाई ली। गाड़ी रवाना हुई। देर तक वह प्लेटफार्म पर खड़ी देखती रही।' अपनी मन:स्थिति बताते हुये महापंडित शरमा गये।
उनकी वापसी अफगानिस्तान होकर थी। यह जल्दी सिर्फ  इसलिये थी कि उन्हें शेष काम को पूरा करने, पुस्तकों तथा चित्रों की प्रतिलिपि बनाने के लिये तिब्बत जाना था। 23 दिन पुराने उनके पहले प्रेम ने उन्हें रोकने में कामयाबी नहीं पाई। लोला का प्रेम तिब्बत तथा बौद्ध अन्वेषण में अवरोध नहीं बना।
अंतिम तिब्बत यात्रा और 10 वीं हिमालय की
राहुल की नौवीं हिमालय यात्रा, चौथी और अंतिम तिब्बत यात्रा थी। यह अप्रैल-सितम्बर 1938 के मध्य सम्पन्न हुई। यह अपेक्षाकृत सुविधापूर्ण यात्रा थी पर कम लाभदायक सिद्ध हुई। 23 अप्रैल को वे गंतोक में थे। फिर वे कलिङपोङ आये। 4 मई को वहाँ से चले और फरी होकर 21 मई को ग्यांत्से पहुँचे। 27 मई से 28 जून तक वे शलू मठ में रहे ताकि अन्य ग्रन्थों का अवलोकन कर सकें। इस बार यहाँ उन्हें नैयायिक विद्वान ज्ञानश्री के लिखे 12 ग्रन्थ मिले। 'योगाचार भूमि' के खंडित अध्याय भी यहाँ मिले। तिब्बती हस्तलिखित ग्रंथों में छगलोचवा की जीवनी मिली। छगलोचवा सन् 1220 के आसपास भारत आये और नालन्दा में राहुल श्रीभद्र के पास रहे।
19 जून 1938 को वे शिगात्से वापस आये। यहाँ से 27 जून को पोइखंङ् पहुंचे और 2 जुलाई तक पुस्तकों और चित्रों की फोटो खींचते रहे। फिर शिगात्से वापस आये। जुलाई का माह लगभग विश्राम का रहा। 31 जुलाई से 15 अगस्त तक वे ङोर में रहे। फिर नरथङ होकर साक्या आये। यहाँ भी ग्रंथों तथा चित्रों के फोटो खीचे जाते रहे। 16 सितम्बर को साक्या से विदाई ली। 28 सितम्बर 1938 को पुन: लाछेन होकर वे वापस आये और 2 अक्टूबर 1938 को गंतोक पहुँचे। इस बार उन्होंने तिब्बती बेगार प्रथा को देखा।
तिब्बत से भारत लौटते ही राहुल किसान-मजदूरों के बीच काम करने लगे। यह सभी को आश्चर्यजनक लग सकता है कि वे अपने भीतर छिपे अन्वेषक-तिब्बतविद् और एक किसान आन्दोलनकारी को किस तरह साथ-साथ सक्रिय रखे थे। साल के अंत में वे किसान सम्मेलन में व्यस्त रहे। अगले साल किसान संघर्ष में शामिल रहे। वे घायल हुए और हथकड़ी लगाकर उन्हें जेल ले जाया गया। फरवरी से मई 1939 तक वे सीवान जेल में रहे। पार्टी (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) का काम करते रहे और भारतीय किसान सम्मेलन के सभापति बने।
1940-42 में वे 29 माह तक जेल में रहे। पहले हजारीबाग और फिर रेगिस्तानी देवली कैंप में। वापस फिर हजारीबाग जेल ही लाये गये। वहाँ जेल में वे लगातार रचनात्मक कार्य करते रहे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की। इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध और व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आन्दोलन मुख्य घटनाएं थीं।
राहुल की दसवीं हिमालय यात्रा मई-जून 1943 में सम्पन्न हुई। यह 1910 के बाद उत्तराखण्ड की दूसरी यात्रा थी। इस यात्रा में उनके साथ बाबा नागार्जुन थे, जो तब एक बौद्ध भिक्षु का रूप लिये थे। यह उनका साहित्यकार से अलग रूप था। ऋषिकेश से नरेन्द्रनगर और टिहरी होकर वे उत्तरकाशी पहुँचे। फिर गंगनाणी और सुक्खी होकर गंगोत्री। राहुल 34 साल बाद गंगोत्री पहुँचे थे और बाढ़ से गोरखों द्वारा बनाया गया गंगोत्री मंदिर बह गया था। जून के पहले सप्ताह वे हरसिल में रहे और तिब्बत यात्रा की तैयारी होती रही। उनका लक्ष्य पश्चिमी तिब्बत के थोलिंग मठ तक पहुँचने का था, जो इस क्षेत्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र था। 9 जून को वे क्षेत्र के अंतिम और जाड़ समुदाय के महत्वपूर्ण गाँव नेलङ  पहुँचे। बाढ़ से जाडग़ंगा में भी ख्यानत बहुत हुई थी। भूस्खलनों के साथ पुल बह गये थे। राहुल जिस घोड़ी का उपयोग कर रहे थे वह जाडग़ंगा के एक द्वीप में फंस गई और जब नहीं निकल सकी तो नागार्जुन थोलिंग को और राहुल मसूरी को लौटे। बाबा नागार्जुन का इस यात्रा का विवरण बहुत पठनीय और सुप्रसिद्ध है। बाबा की 'बादल को घिरते देखा है' जैसी कविता इस यात्रा के बिना शायद संभव नहीं होती।
समय न गँवाने की अपनी प्रतिभा के तहत वापसी में राहुल ने मसूरी से जौनसार भाबर की यात्रा की। वे अन्य अनेक स्थानों के साथ कालसी, चकरौता और अन्तत: देहरादून गये। यह यात्रा उनकी 'जौनसार देहरादून' नामक पुस्तक का आधार बनी।
कुमाऊँ और कश्मीर
राहुल की ग्यारहवीं हिमालय यात्रा इसी साल अक्टूबर (1943) में हुई। इस बार वे कुमाऊँ, पंजाब  और कश्मीर गये थे। 'नये भारत के नये नेता' पुस्तक के लिए वे तमाम प्रतिभाओं से भेंट कर रहे थे। 4 अक्टूबर को अल्मोड़ा में वे उदय शंकर केन्द्र में ही सुमित्रानन्दन पंत, उदय शंकर तथा रविशंकर से मिले। फिर वैज्ञानिक बोसी सेन और उनकी विदुषी पत्नी इमरसन सेन आदि से मिले। तभी उन्होंने अल्मोड़े में पी.सी. जोशी का घर भी देखा।
भवाली (नैनीताल) सेनीटोरियम में वे यशपाल, प्रकाशवती और भारद्वाज से मिले। श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला, बारामूला में अजय घोष से मिले। फिर वे जहांगीर के बसाये हसन इब्दाल, एबटाबाद, रावलपिंडी, पेशावर होकर 1944 में वापस लौटे। कुछ साल पहले प्रो. श्चेरवात्सकी के पत्रों से खबर मिल चुकी थी कि लोला ने उनके बेटे इगोर को जन्म दिया है। लोला का वह पत्र भी मिल चुका था, जिसमें साफ -साफ  कहा था कि 'साथ रहना जरूरी है। लेनिनग्राड आओ या हमारे भारत आने का इन्तजाम करो।' पर राहुल के जेल में होने की खबर लोला या श्चेरवात्सकी तक नहीं पहुंची थी। इसी बीच श्चेरवात्सकी का देहान्त हो गया। 1944 के प्रारम्भिक महीनों में राहुल के पासपोर्ट के बनने की सूचना आ गई। पर अब सोवियत वीसा मिलना था। अन्तत: ईरान होकर रूस जाने का वीसा मिल गया। ईरान में उनको सात महीने का कठिन तथा आर्थिक रूप से ध्वस्त करने वाला इन्तजार करना पड़ा। यह उनकी तीसरी रूस यात्रा थी।
जून 1945 में वे लेनिनग्राड पहुंच गये। साड़े सात साल निकल गये थे। दुनियाँ ने, यूरोप ने और विशेष रूप से रूस ने एक विनाशकारी युद्ध का सामना किया था। जीतने के बावजूद युद्ध में कोई जीतता नहीं है। रूस में सबके चेहरों पर और लोला के चेहरे पर भी यह पढ़ा जा सकता था। साढ़े सात साल बाद लोला ने राहुल को देखा। सात साल का होने जा रहा इगोर अपने बाबा को देख रहा था।
1945-47 में वे आचार्य के रूप में रूस में रहे। पहले उन्होंने प्रो. श्चेरवात्सकी के साथ काम किया। वे 1942 में स्वर्गवासी हो गये थे और प्रो. बरान्निकोव उनकी जगह आ गये थे। राहुल ने अब प्रो. बरान्निकोव के साथ काम किया। राहुल इस समय लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। 5 जुलाई 1947 को 2 साल 1 माह रहने के बाद वे वापस लौट रहे थे। उन्हें यह पता नहीं था कि लोला और इगोर से फिर मुलाकात होगी कि नहीं!
 राहुल की बारहवीं हिमालय यात्रा मई-अगस्त 1948 में हुई। यह उनकी किन्नौर की दूसरी यात्रा थी। इस यात्रा में वे शिमला के बाद सराहन, चिनी, लिप्पा, कानम, स्पू और नमग्या गये और वहाँ रहे। फिर वे सांग्ला घाटी में रहे और रामपुर बुशहर में भी। वापसी के समय वे कोटगढ़, ठियोग और शिमला होकर सितम्बर में लौटे। इस यात्रा का एक फल 'किन्नर देश में' पुस्तक थी।
1947 के बाद राष्ट्रभाषा तथा तमाम भारतीय भाषाओं के बारे में उन्होंने स्पष्ट राय दी और अपनी पार्टी से उनका द्वंद्व चला। उन्होंने हिन्दी के साथ भारत की तमाम भाषाओं के संरक्षण और इस्तेमाल की वकालत की। जनपदीय दृष्टि को उन्होंने बहुत स्पष्टता से प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि यदि पार्टी उनकी बात से सहमत नहीं है तो वे पार्टी से इस्तीफा दे देंगे। यही हुआ। इसका असर रूस तक गया और लोला पर नजर रखी जाने लगी। उन पर दबाव पड़ा। राहुल और लोला के पत्र एक दूसरे को मिलने बन्द हो गये। लोला से कहा गया कि राहुल से सम्पर्क या पत्राचार न करो। भारतीयों से नहीं मिलो। हो सके तो उससे तलाक ले लो (यह जानकारी स्वयं इगोर ने जेता को दी थी)। यह स्थिति शायद राहुल के 1956 में पुन: पार्टी में आने पर समाप्त हुई। ये साल राहुल परिवार के दोनों हिस्सों के लिये बहुत कठिन रहे।
हिमालय में प्रेम और विवाह
राहुल की तेरहवीं हिमालयी यात्रा 1949 में हुई। यह उनके दूसरे प्रेम और विवाह से जुड़ी यात्रा थी। अप्रैल में वे कलिङपोङ  में रहे। जून में पुन: आये। सितम्बर में कमला से उनका सम्पर्क हुआ। वे विभिन्न कार्यों में उन्हें सहयोग देने लगी और फिर विवाह का निर्णय हुआ। 1948 में उनकी सुप्रसिद्ध रचना 'घुमक्कड़ शास्त्र' का प्रकाशन हुआ। यह बड़ा रोचक है कि दुनिया को घुमक्कड़ी का संदेश देने वाले लगभग 56 साल के राहुल अपने दूसरे प्रेम को विवाह का रूप दे रहे थे और यह नीड़ की खोज की शुरुआत भी थी।
राहुल की चौदहवीं हिमालय यात्रा 1950 में हुई। तब वे नैनीताल और रामगढ़ में रहे। इस समय सत्यकेतु विद्यालंकार नैनीताल के मेट्रोपोल होटल में रह रहे थे। नैनीताल में बांकेलाल कंसल और हीरालाल साह से उनकी दोस्ती हुई। 'ओक लॉज' उनके लिए खोजा गया। पाँच माह वे नैनीताल में रहे। इस बीच वे 'दार्जिंलिंग' लिख रहे थे। फिर उन्होंने 'कुमाऊँ' और 'गढ़वाल' (हिमालय का इतिहास भाग-1) लिखा। इसी समय वे भवाली, अल्मोड़ा, कटारमल, कौसानी, बैजनाथ, बागेश्वर, द्वाराहाट, रानीखेत आदि जगहों में गये।
15 जून 1950 को सत्यकेतु विद्यालंकार मसूरी गये तो राहुल और कमला भी मसूरी चले गये और 8 साल वहाँ रहे। मसूरी में 'हर्नक्लिफ' उनका घर बना। 18 जुलाई 1950 को टिहरी की महारानी कमलेन्दुमती शाह ने हर्नक्लिफ की रजिस्ट्री राहुल के नाम की। 23 सितम्बर 1950 को यहीं राहुल-कमला का विवाह हुआ। डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार पुरोहित बने और संयोग से हिमालय यात्री राहुल के विवाह के मौके पर बर्फ भी गिरी। वरना सितम्बर में मसूरी में बर्फ  दुर्लभ ही मानी जाती है। इसी साल 'मधुर स्वप्न', 'दार्जिलिंग परिचय' छपे और 'कुमाऊँ' प्रेस में गया। 1951 में गढ़वाल की विस्तृत यात्रा उन्होंने की, जिसका उपयोग 'गढ़वाल' में हुआ। 'गढ़वाल' के 200 पृष्ठ लिखे गये और 'मध्य एशिया का इतिहास' लिखने का सपना उन्होंने देखा। अगले कुछ सालों में यह छप गया। राहुल को साहित्य अकादमी पुरस्कार इसी इतिहास ग्रंथ के लिये दिया गया था, जैसे कवि रामधारी सिंह दिनकर को 'संस्कृति के चार अध्याय' के लिये।
मसूरी में 20 अगस्त 1953 को बेटी जया का जन्म हुआ। इस समय उनकी रूसी पत्नी लोला से जन्मा बेटा इगोर 15 साल का हो गया था। जेता का जन्म 31 जनवरी 1955 को दिल्ली में हुआ। मसूरी में ही उन्होंने 'कश्मीर' लिखने का निर्णय लिया। 1953 में उन्होंने 300 पृष्ठ लिखे। मसूरी से वे अप्रैल 1954 में नाहन, रेणुका, शिमला, विलासपुर, मनाली, मंडी, कांगड़ा, ज्वालामुखी, धर्मशाला, डलहौजी, चंबा, भरमौर की यात्रा में गये। इसे उनकी पन्द्रहवीं हिमालय यात्रा कहा जा सकता है। पर यह हिमालय से हिमालय में थी। मसूरी में ही बैरिस्टर मुकुन्दी लाल उनसे मिलने आये और चित्रकार मौलाराम की काव्यकृतियाँ राहुल को सौपी, जिनका उपयोग उन्होंने 'गढ़वाल' में किया। इस बीच वे बीमार रहने लगे। मधुमेह उन्हें हो गया था। फिर अन्य बीमारियों ने घेरा।
यहीं से उन्होंने 1956 में नेपाल की तथा 1958 में कश्मीर की यात्रा की। इन्हें उनकी सोलहवीं तथा सत्रहवीं हिमालय यात्रा कहा जा सकता है। हालांकि ये हिमालय से हिमालय में थीं। मानसरोवर और मणिपुर की यात्रायें उनके सपनों में बनी रहीं। हिमालय में विहंगम भ्रमण के लिये अनेक स्वस्थ जीवन चाहिये। राहुल ने एक जीवन में अनेक जीवन का काम कर दिखाया।
1958 में मसूरी का घर बेच दिया। मसूरी से मन भर गया था। कमला का मन वहाँ लगता ही न था। कुछ समय देहरादून रहे। पर मन लगा नहीं। अगले साल दार्जिलिंग चले गये। फिर वे चीन और श्रीलंका गये। परिवार भी साथ गया। यह एक प्रकार से शोध, शिक्षण तथा परिवार की सुव्यवस्था का कार्य साथ साथ था। पर बीमारी साथ नहीं छोड़ रही थी। बाद में राहुल को स्मृतिलोप हो गया था। जब उन्हें इसी हालत में रूस यानी मास्को ले जाया गया तो एक अत्यन्त मार्मिक घटना घटी। यहां राहुल की दोनों पत्नियों का पहला और अंतिम मिलन हुआ। कमला को शंका थी कि यहां लोला हैं। पता नहीं क्या होगा। राहुल तथा कमला मास्को में थे, लोला तथा इगोर सेंटपीटर्सबर्ग में। एक भारतीय मूल के कामरेड चन्द्रा ने इस समय किसी तरह लोला तथा इगोर का मास्को आने हेतु परमिट बनाया। जुलाई से दिसम्बर तक का समय परमिट बनाने में लग गया। अन्तत: लोला तथा इगोर मास्को के अस्पताल आये। लोला अंग्रेजी भी बोलती थी। उसने कमला को बाहों में ले लिया और कहा कि बहिन अब आपको ही राहुल जी को देखना है। इगोर को राहुल ने पहचान लिया था और लोला को भी। पर वे बोल नहीं सकते थे। पता नहीं आंखों आंखों में कितनी जो बात हो सकी होगी! पर कमला अपनी बड़ी बहन को पाकर परम प्रसन्न थी। उनकी शंका निर्मूल थी। बोल्गा की बेटी और गंगा की बेटी भी तो बहनें थीं, एक दूसरे से दूर और अनजानी। एक दूसरे पर शक करती हुई सी। पर उन्हें क्या पता था कि उनका उनको जोडऩे वाले राहुल से ही नहीं एक दूसरे से भी प्यार था। आमना सामना नहीं हुआ तो प्यार कहां से प्रकट होता। मास्को में मौका मिला तो प्रकट हो गया।
* * *
दार्जिलिंग में आज भी 'राहुल निवास' अपनी जगह पर है। राहुल और कमला की अनुपस्थिति में जेता सांकृत्यायन ने इस परिसर को कायम रखा है। आज उसे एक संग्रहालय बनाने की समझ प्रान्त और देश की सरकारों और समाज को आनी चाहिये। यहीं 14 अप्रैल 1963 को राहुल का निधन हुआ। दूर देश हंगरी से आये सोमा द कोरोसी के बगल में एक और हिमालयविद, एक चिर घुमक्कड़, एक बेचैन अन्वेषक सो गया।


Login