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जुलाई - 2017

इक शम्अ है दलील-ए-सहर

अच्युतानंद मिश्र

विशेष
शताब्दी पुरुष
गजानन माधव मुक्तिबोध

मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य की पारंपरिक चेतना में फिट नहीं होते। उन्हें हम निराला के रास्ते भी ठीक से नहीं समझ सकते। इसी कोण से लेखक ने मुक्तिबोध की उलझनों को खोलने का प्रयास किया है।



मुक्तिबोध की मृत्यु 1964 में हुयी ।1964 में ही नेहरू की भी मृत्यु एवं कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ। तब से लेकर अब तक आधी सदी का समय गुजरा है। इस आधी सदी में न सिर्फ राजनीतिक अपितु बुनियादी सामाजिक एवं सांकृतिक परिवर्तन भी हुए हैं। अगर मुक्तिबोध की कविता का संदर्भ इन पचास वर्षों के बीच हुए बुनियादी परिवर्तनों से जुड़ता है तो वह हमारे वर्तमान की जटिलताओं को देखने का एक जरिया हो सकता है। इसी अर्थ में यह भी देखना गैर मुनासिब न होगा कि मुक्तिबोध की कविताओं को हम देश-काल की सीमाओं से परे गतिशील पाठ के रूप में, किस तरह व्याख्यायित कर सकते हैं? किसी लेखक या कृति के कालजयी होने के क्रम में, यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
50' वर्षों के हमारे सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक समय की गतिकी के बीच मुक्तिबोध की कविता किस तरह हमारे काम आती है? अपने समय की प्रवृत्तियों को आत्मसात करते हुए जिस तरह कोई युग बढ़ता है और परिवर्तित होता है, उसी तरह के परिवर्तनों से हर कृति को भी गुजरना होता है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण नहीं कि मुक्तिबोध की कविता भविष्य की कविता है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि बनते हुए भविष्य के समानांतर चलती हुयी कविता, वह है कि नहीं!
मुक्तिबोध की कविताओं को 50-60 के दशक में रखकर देखने की कोशिशें अधिक हुई। ऐसा नहीं है कि यह जरूरी नहीं था। लेकिन जिस तरह हर युग की कुछ प्रवृतियाँ भविष्योन्मुखी होती हैं, उसी तरह मुक्तिबोध की कविताएँ भी भविष्योन्मुखी थीं। ज्यों ही हम उनका मूल्यांकन सम-सामयिकता या समय केन्द्रीयता के आधार पर करने लगते हैं, एक बड़ा यथार्थ हमसे छूटने लगता है। यह कुछ-कुछ हाईजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत की तरह है, अगर आपने स्थिति का ठीक-ठीक पता लगाने की कोशिश की तो गति आपके हाथ से निकल जायेगी। ऐसे में आपको स्थिति और गति के बीच थोड़े अनिश्चय का संतुलन विकसित करना होगा। मुक्तिबोध की कविता भी अमूमन उन लोगो को अधिक अमूर्त जटिल या अव्याख्येय लगती है, जो लोग निश्चितता के पक्षधर होते हैं। इसी जमीन पर मुक्तिबोध को लेकर एक बहस साठ के दशक में हुयी। उस बहस के मूल में एक ओर जहाँ साठ के दशक की वैश्विक सामाजिक एवं राजनीतिक परस्थितियाँ थीं, वहीं कुछ स्थिर और रूढ़ मान्यताएं भी थी। मुक्तिबोध को इन रास्तों से मुक्कमल तौर पर समझना आसान न था। हाँ उनके विषय में इस रास्ते परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते थे, वह हुआ।
मुक्तिबोध को पढ़ते हुए जो सबसे जरुरी सवाल सामने आता है वह है, हम हिंदी कविता में मुक्तिबोध को कहां रखें? यह प्रश्न इसलिए भी कि समकालीन कविता के संदर्भ में अक्सर मुक्तिबोध की परम्परा का हवाला दिया जाता है लेकिन आमतौर पर वह दोनों ही को यानि समकालीन कविता और मुक्तिबोध को अव्याख्यायित रख छोडऩे की कवायद ही साबित होती है। इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि हम इस प्रश्न को बार-बार पूछें कि मुक्तिबोध की काव्य परम्परा से हम क्या समझे? कहना न होगा कि मुक्तिबोध के संदर्भ में इस प्रश्न को काफी पीछे छोड़ दिया गया है। परन्तु मुक्तिबोध पर शुरू होने वाली हर नई कोशिश को इस प्रश्न से बार बार गुजरना होगा।
मुक्तिबोध के संदर्भ में यह बात काबिले गौर है कि वे तमाम पुराने रास्तों को तोड़ते हैं। तोड़-फोड़ तो निराला से अधिक आधुनिक हिंदी कविता में शायद ही किसी ने की हो, लेकिन मुक्तिबोध की उलझन दूसरी है। वे कविता ,जीवन और जीवन दर्शन को एक साथ रखने की कोशिश करते हैं। वे अतीत वर्तमान और भविष्य को एक सीधी रेखा में नहीं रखते। वे इसका एक त्रिकोण बनाते हैं। यही वजह है कि यहाँ अतीत से भी भविष्य में जा सकते है।
तुम मेरी ही परम्परा हो प्रिय
तुम हो भविष्य -धरा दुर्जय
तुममे मैं सतत प्रवाहित हूँ
तुममे रहकर ही जीवित हूँ
तुम मृत न मुझे समझो
मेरी भविष्यवानियाँ सुनो!! (भविष्य-धारा, 116/2)
मुक्तिबोध भविष्य के रास्ते ही अतीत में प्रवेश करते हैं। वे जानते हैं, जो जीवित रहेगा, वह भविष्य ही है। इसलिए अतीत का सब कुछ निर्मित होने वाले भविष्य पर निर्भर करता है। मुक्तिबोध, इतिहास को रूढि़ या पहले से स्थापित किसी सत्ता के रूप में नहीं देखते। वे इसे लगातार आगे बढ़ रहे समय की धारा में खोजने की कोशिश करते हैं। वह समय जो इतिहास से टकराता है। परम्परा को चुनौती देता है। ऐसा करते हुए सबसे बड़ा संकट है दिशा-हारा होने का। मुक्तिबोध इतिहास से टकराते जरुर हैं, परम्परा को चुनौती देते हैं, लेकिन वे न तो इसे नकारते हैं और न ही उसे छोड़ते हैं। सहज भाषा में कहें तो मुक्तिबोध के लिए एक बौद्धिक की जिम्मेदारी है कि वह इतिहास से टकराकर इतिहास का पुनर्निर्माण करे।
आधुनिक हिंदी कविता, विशेषकर बीसवीं सदी की हिंदी कविता में दो रास्ते नज़र आते हैं। एक रास्ता है निराला का दूसरा मुक्तिबोध का। आप किसी सरलीकरण के रास्ते मुक्तिबोध को निराला से सम्बद्ध नहीं कर सकते। दोनों कवियों के मध्य फासला सिर्फ दो दशकों का है। बावजूद इसके एक बात जो दोनों को करीब लाती है, वह है, जिस तरह निराला को महज़ छायावाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता, ठीक उसी तरह मुक्तिबोध को भी नई कविता और प्रयोगवाद के भीतर रखकर नहीं समझा जा सकता है।
निराला की कविता के केन्द्र में किसान जीवन है। भारतीयता का एक अर्थ उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान विकसित हुआ। साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ते हुए यहाँ की जनता ने जो मूलत: किसान थी या किसान परम्परा से सम्बद्ध थी,एक राष्ट्र, एक राज्य के रूप में खुद को सुगठित किया। आधुनिक हिंदी कविता का मूल स्वर विशेषकर 1857-1947 के बीच इसी चेतना से जुड़ा। निराला इस चेतना की सर्वाधिक अग्रगामी आवाज़ थे। किसान जीवन की कुछ मान्यताएं एवं परम्पराएँ थी, जो नये मूल्यबोध को रचती थी। आप पाएंगे कि तमाम नये मूल्यबोधों की सर्वाधिक प्रखर पहचान निराला के यहाँ मिलती है। किसान जीवन की बड़ी विशेषता यही है कि वहां व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी इकाइयों के रूप में नहीं, बल्कि एक दूसरे से सम्बद्ध इकाई के रूप में देखा जा सकता है। निराला की कविताओं में आ रहा व्यक्ति इस अर्थ में समाज की चेतना को इंगित करता है। वहां व्यक्ति और समाज का द्वंद्व महत्वपूर्ण नहीं है। वहां महत्वपूर्ण है, व्यक्ति के आत्मविस्तार की संभावना। ऐसे में निराला जिस अकेलेपन की बात करते हैं, वह एक रुमान और वेदना से हमें भर देता है। मध्यवर्ग का हर व्यक्ति अपने स्वप्न में निराला के इस गहन अकेलेपन को पाना चाहता है। क्यों? क्योंकि वहां जीवन का रोमांच है। वह है, क्योंकि मनुष्य की संवेदनाएं व्यापक होती हैं। वे अपने भीतर एक दुनिया से साक्षात होती है।
यह तेरी रण-तरी
भरी आकाँक्षाओं से
घन, भेरी -गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल! (निराला रचनावली ,135/1)
किसान जब भी अकेला होता है, वह प्रकृति के पास जाता है। दूसरे अर्थों में प्रकृति, मनुष्य के भीतर के शून्य को अपनी तरह से भर देती है। उसे पूर्ण कर देती है।
आज़ादी के पश्चात भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुयी। किसानों का बड़े पैमाने पर दिहाड़ी मजदूरों के रूप में रूपांतरण होने लगा। नये रूप में शहर विकसित होने लगे। विस्थापन की हर नई लहर ने परिधि की नई परिमिति को रचा।
मुक्तिबोध किसान जीवन और उसकी रागात्मक संवेदना को नहीं लिखते। वे भविष्य के भारत में विकसित हो रही औद्योगिक संस्कृति को लिखते हैं। औद्योगिक संस्कृति के परिणामस्वरुप बहुत तेज़ी से सामूहिकता की चेतना का विघटन होने लगता है। निराला की कविताओं में इसलिए जहाँ पारिवारिक सम्बन्ध या उस सम्बन्ध की संवेदना से संचालित मानवीयता एवं उद्दातता नजऱ आती है ,वहीं मुक्तिबोध की कविताओं में उस संवेदना से छूटे हुए मनुष्य की वेदना, आत्महीनता एवं डर अधिक नज़र आता है। औद्योगिकीकरण ने भारतीय संस्कृति के विलोम को रचा। मुक्तिबोध की कविता, इस विलोम का आलोचनात्मक भाष्य बनती है। एक तरह से कहें तो मुक्तिबोध की कविताओं की भावभूमि यही है। वे सामूहिकता के मूल्यों के छीजने और उसके परिणामस्वरूप विकसित हो रही संस्कृति को लिखते हैं।
अधूरी और सतही जिंदगी के गर्म रास्तों पर
हमारा गुप्त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्सी एक गहरा स्याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमिटकर सिफर होना चाहता हो जल्द !!
(चकमक की चिनगारियां ,232/2)
जिंदगी के अधूरेपन ने इस गुप्त मन को रचा है। दूर कहीं स्मृतियों में वह भरीपूरी ज़िन्दगी मुस्कुराती है लेकिन स्मृतियों के पार चिलचिलाते यथार्थ की तपन में गुप्त मन अपराधबोध से भरकर बिलबिलाता है। मुक्तिबोध की बेचैनी यही है। पुराना समाज लौट नहीं सकता। नया समाज एक विकृति को रच रहा है। अनिश्चितता का यह द्वंद्व मुक्तिबोध को कचोटता भी है और कुछ न कर सकने के अपराध से भी भर देता है। इस अपराध बोध से मुक्त होने के लिए मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष की ओर बढ़ते हैं, लेकिन मुक्तिबोध इस आत्मसंघर्ष को बुद्धि और संवेदना के द्वैत से निर्मित करते हैं। इसे महज़ एक भाववादी आत्मसंघर्ष समझना मुक्तिबोध की मूल चेतना को ही नासमझने की कोशिश है। मुक्तिबोध की यह उलझन ही उस रचनात्मक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया है, जिसमे वर्तमान का आलोचनात्मक विवेक निर्मित होता है। रामविलास शर्मा जब मुक्तिबोध के अपराधबोध को महज एक मानसिक कवायद मानकर उसे नकारने लगते हैं, वही वे अपने भाववादी निष्कर्षों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने लगते हैं। मुक्तिबोध पर ऐसा करते हुए वे इतनी दूर निकल आते हैं जहाँ से मुक्तिबोध की कविता का कोई सम्बन्ध शेष नहीं रह जाता। 
औद्योगिक सभ्यता जनित विलगाव को मुक्तिबोध चिन्हित करते हैं। किसान जीवन अपने अर्थों में एक भरा पूरा जीवन था। वहां व्यक्ति ,परिवार और समाज की इकाइयों में बनता था। मनुष्य के हर राग-रंग के केंद्र में प्रकृति थी। औद्योगिक सभ्यता प्रकृति को जीवन से निकाल फेंकती है।
औद्योगिक सभ्यता ने खुद को जायज़ बनाने के लिए संस्थाओं का निर्माण किया। संस्थाओं के रास्ते एक नये तरह की सामाजिकता का विकास हुआ। मनुष्य के हर तरह के सम्बन्धों को संस्थाओं ने अपने गिरफ्त में ले लिया। संस्थाओं का उद्देश्य था, जीवन की प्रक्रिया का वस्तुकरण। वस्तुकरण की प्रक्रिया ही इस नई सामाजिकता की जड़ में थी। इसे संस्थाओं के द्वारा रोजमर्रा की संवेदना में स्वाभाविक बनाया गया। इस प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की संवेदना में तीव्र बदलाव आता गया। ऐसे में जिस तरह की पूर्णता और संवेदनात्मक भराव हम निराला में देखते हैं, मुक्तिबोध के यहाँ उसके ना हो पाने को समझा जा सकता है। मुक्तिबोध की तमाम कविताओं को ले, उसमें उनका मन किसी मित्र ,किसी प्रेमिका, किसी संगी से बात करने को व्याकुल नज़र आता है। क्यों? क्योंकि जीवन व्यापार-से उस सामाजिकता, संवादपरकता को निथार लिया गया है। उसका स्थान एक सूक्ष्म यांत्रिकता ने ले लिया है । मुक्तिबोध की हर कहानी, हर लेख संवाद से ही शुरू होती है, यहाँ तक कि उनकी तमाम कविताओं में भी एकायामी स्वर नहीं है। स्वरों की यह बहु-आयामिता मुक्तिबोध लेकर आते हैं। हिंदी में इस ओर कम ध्यान गया आखिर वे कौन सी जरूरतें थीं, कौन से कारण थे कि मुक्तिबोध को डायरी की शक्ल में आलोचना लिखनी पड़ी? क्यों वे अपनी कविताओं में स्वयं से ही संवाद करने लगते हैं? मुक्तिबोध का आत्मसंवाद इतना व्यापक गूढ़ और बेचैन करने वाला क्यों है? क्या इस आत्मसंवाद के द्वारा मुक्तिबोध के लिए आपने अंत:करण की बेचैनी को अधिक संगत रूप में रखना संभव नहीं होता? मुक्तिबोध को पढ़ते हुए लगता है कि इस संवाद-परकता के द्वारा समाज की सामूहिक चेतना को एकायामी होने से बचाया जा सकता है। मुक्तिबोध की बेचैनी के मूल में समाजपरकता को नये सिरे से विकसित करने की कोशिश है।
मनुष्य नगरों में आ चुका है। कृषि जीवन-समाज से बाहर आ चुके मनुष्य को सामाजिकता की तलाश है। यह तलाश उसे स्मृतियों में ले जाती है। वह स्वप्न जगत में विचरण करने लगता है। बाहर सड़कें हैं संस्थाएं हैं, पत्रकार हैं, डोमाजी उस्ताद और हत्यारा बलवान है। ये सब सिर्फ बाहर हैं, लेकिन भीतर प्रवेश पाने को आतुर। औद्योगिक समाज ने भीतर की दुनिया के खालीपन को विस्तृत कर दिया है। एक काफ्काई संसार रच दिया है। मुक्तिबोध की कविता इस अंधेरी दुनिया को अभिव्यक्त करती है। उसके अभिव्यक्त करने में ही उसका प्रतिकार अंतर्निहित है।
कि इतने में
उसी अँधेरे में
हाथ में लेकर एक रहस्यमय लालटेन
नंगे पाँव, लगातार तेज़ चलता हुआ,
ढूंढता हुआ हमें
कोई लक्ष्य आता है
जिसे देख
आभ्यन्तर ग्रन्थियां, बहि:समस्याएं।
चीख-चीख उठती हैं (एक स्वप्न कथा 268-269/2)
मुक्तिबोध अन्दर और बाहर के द्वंद्व को आधुनिक परिस्थितियों में अभिव्यक्त करते हैं। आधुनिक परिस्थिति का अर्थ क्या? वह ये कि एक छद्म बाहरी दुनिया बना दी गयी है, उस छद्म के परिणाम- स्वरुप एक छद्म अन्तस् भी निर्मित हो गया है। मनुष्य का यथार्थबोध कहीं गुम हो गया है। उसकी चेतना इस छद्म में लुप्त हो रही है। वह प्रतिरोध के छद्म से अपने को बचा लेना चाहता है, लेकिन वह जितनी कोशिश करता है, उतना ही वह इस छद्म के कीचड़ में फंसता जाता है। रास्ता क्या है? मुक्तिबोध को लगता है मनुष्य की इस निष्क्रिय होती चेतना को रोकने के लिए यह जरुरी है कि हम अपने इन्द्रिय-संवेदन को पुन: जागृत करे। बाहर की दुनिया के छद्म को ठीक-ठीक समझने के लिए यह जरुरी है कि हमारा इन्द्रिय-संवेदन दोष रहित रहे ।
खूंखार सिनिक संशयवादी
शायद मैं कहीं न हो जाऊं
इसलिए, बुद्धि के हाथों पैरों की बेड़ी
जंजीरे खनकाकर तोड़ी (मेरे सहचर मित्र 251/2)
जंजीरे जब भी टूटेंगी खनक तो होगी ही। लेकिन उसे सुनने के लिए यह जरुरी है कि हम संज्ञाशून्य न हो। इसलिए मुक्तिबोध अलग से बल देकर लिखते हैं कि जंजीरे खनकार तोड़ी, क्योंकि खनकने में इन्द्रियों को संवेदित करने की प्रक्रिया का संदर्भ है।

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मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति इतनी भयावह क्यों नज़र आती है? निराला पन्त या प्रसाद की कविताओं में प्रकृति और मनुष्य का एक सहचर रूप नज़र आता है। निराला के यहाँ प्रकृति मनुष्य की दृढ़ता, सौन्दर्यबोध और अनुराग को प्रदर्शित करती है। एक स्तर पर मनुष्य की चेतना का उद्दीपन भी करती है। कमोबेश यह बात छायावाद के तमाम कवि और नई कविता के अधिकांश कवियों के विषय में कही जा सकती है। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं.
क्यों मानव सुलभ सहज
आकांक्षाओं के तरु
यों ठूंठ हुए वृन्दावन के,
मानव-आदर्शों के गुम्बद से आज यहाँ
उलटे लटके चिमगादड़ पापी
भावों के।
क्यों स्वार्थ-घृणा-कुत्सा के
थूहर जंगल में
हैं भटक गये ये लक्ष्य (मेरे सहचर मित्र, 252/2)

वह कारण, सामाजिक जंगल का
घुग्घू है ,
है घुग्घू का संगठन , रात का तम्बू है।
यह भीतर की जिन्दगी नहाती रहती है।
हिय के विक्षोभों के खूनी फव्वारों में ,
अंगारे में। (मेरे सहचर मित्र ,253/2)

कटे उठे पठारों का दर्रों का
धँसानों का बियाबान इलाका ।
गुंजन रात
अजनबी हवाओं की तेज़ मार धाड़,
बरगदों बबूलों को तोड़-ताड़ फाड़,
क्षितिज पर अड़े हुए पहाड़ों से छेड़-छाड़,
नहीं कोई आड़। (चम्बल की घाटी में,401/2)
मुक्तिबोध की कविताओं से ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। प्रकृति का यह भयावह दुर्दमनीय एवं कठोर रूप हिंदी कविता में अन्यत्र नजऱ नहीं आता। आखिर प्रकृति का यह भयावह रूप क्यों? क्यों मुक्तिबोध की कविताओं में घुग्घू, उल्लू जैसे बिम्ब आते हैं। गतिशील और उद्दाम नदियों के स्थान पर ठहरे काले जल से भरी सुनसान बावड़ी क्यों है। भुतहे पीपल का जिक्र यहाँ वहां उनकी कविताओं में भरा परा है। आखिर मुक्तिबोध प्रकृति को इस तरह क्यों देखते हैं। क्या इस देखने में कोई संकेत, कोई दृष्टि नज़र आती है। मुक्तिबोध के संदर्भ ये जरूरी प्रश्न हैं।
मनुष्य और प्रकृति के बीच एक अटूट ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है। प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध उत्तरोतर विकसित होता गया। मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है। वह प्रकृति से संघर्ष भी करता है और मनुष्य होने की प्रक्रिया में प्रकृति के और निकट चलता जाता है। प्रकृति का बोध ही उसके भीतर सौन्दर्य बोध को उद्भूत करता है। प्रकृति की दुरुहता ही मनुष्य को साहस और दृढ़ता की नई मंजिलों तक लेकर जाती है। संक्षेप में हम प्रकृति के बगैर किसी मनुष्यता की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
औद्योगिक क्रांति ने इस सम्बन्ध को विकृत करना शुरू किया। मनुष्य प्रकृति से संघर्ष करता था, लेकिन हर बार जीत-हार से परे मनुष्य नये सोपान चढ़ता जाता था। प्रकृति की दुरुहता से संघर्ष करते हुए मनुष्य ने श्रम के सौन्दर्यबोध को अर्जित किया। नैतिकता, ईमानदारी सदयता जैसे मानवीय गुण इसी सौन्दर्यबोध के द्वारा समाज में स्वीकृत होते गये। कला संगीत कविता आदि की जरूरत मनुष्य को प्रकृति के और नजदीक लाती गयी। परन्तु औद्योगिक क्रांति ने इस सम्बन्ध को असंतुलित कर दिया। मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष द्विआयामी नहीं रह गया। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप एक तीसरी चीज़ विकसित हुयी। आरम्भ में मनुष्य ने यंत्रों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप निर्मित करना शुरू किया। मनुष्य के हाथों की तुलना में यंत्रों की गति अबाध थी। हर नई कोशिश उस गति को और तीव्र करती जाती थी। श्रम की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य की सामाजिकता का भी विकास और विस्तार होता गया। यंत्रों ने उसे भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। एक तरफ समाज-विहीनता की स्थिति तो दूसरी तरफ मशीनों से लगातार पिछडऩे का आत्मबोध। इन दोनों के सम्यक प्रभाव ने मनुष्य के भीतर एक विकृत सौन्दर्यबोध को रचना शुरू किया। वर्चस्व के बोध ने मनुष्य के भीतर एक बड़े शून्य को रचा। पश्चिम ने इसी वर्चस्व बोध के रास्ते पूरब को निगल लेना चाहा। यह देखना कठिन नहीं है कि साम्राज्यवादी न सिर्फ पूरब के लोगों से घृणा करते थे, अपितु वहां की प्रकृति से भी नफरत करते थे। वे सब कुछ का उन्मूलन चाहते थे।
द्विवेदी युग से लेकर छायावाद तक की हिंदी कविता में प्रकृति पर जोर है। बाह्य दृश्यात्मकता अधिक है। ऐसा इसलिए भी कि वे पूरब की प्रतिरोध की चेतना को प्रकृति के वर्णन के द्वारा भी रच रहे थे। प्रकृति वर्णन इस अर्थ में साम्राज्यवाद विरोध का एक तरीका था। आज़ादी के पश्चात भारत स्वयं पश्चिम के रास्ते पर चल पड़ा। वर्चस्ववादी आधुनिकता ने देश में जड़ें जमानी शुरू की। औद्योगीकरण का एकायामी मार्ग विकसित होने लगा। इस बात पर बल दिया जाने लगा कि स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान देश लगातार पिछड़ता गया है। उसकी भरपाई के लिए यह जरुरी है कि तीव्र आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया जाए। इस चेतना ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना में एक चौड़ी दरार उत्पन्न कर दी। मुक्तिबोध के समग्र लेखन में भारतीय चेतना में आई इस दरार को महसूस किया जा सकता है। मुक्तिबोध देश पर आसन्न संकट को प्रकृति की भयावहता के रूप में इंगित करते हैं। तीव्र औद्योगीकरण के असंतुलन ने उस चेतना को ही निगल लिया, जिसके रास्ते भारत की आधुनिक चेतना का निर्माण हुआ था, हो रहा था। मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति की भयावहता दरअसल उस असंतुलन को रेखांकित करने की कोशिश है। मुक्तिबोध प्रकृति में सघन मनुष्यता को महसूस करते हैं लेकिन यथार्थ में उन्हें में सब कुछ जालों से भरा भुतहा और अपसकुन की सूचना देने वाला प्रतीत होता है। यह महज़ मुक्तिबोध की कल्पना और यथार्थ भर का विभाजन नहीं है, बल्कि देश की मूल चेतना और वर्तमान की वर्चस्ववादी चेतना का भी विभाजन है। कहने का तात्पर्य यह कि मुक्तिबोध प्रकृति के जरिये जब मानवीय चित्रों को कल्पना और स्मृति में अभिव्यक्त करते हैं तो वे देश की वांछित चेतना को रेखांकित कर रहे होते हैं, लेकिन ज्यों ही वे यथार्थ की भावभूमि पर उतरते हैं, उन्हें एक भयवाह और दुश्ंिचताओं से भरा समय और समाज नज़र आता है।
इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है , ज्वाल नहीं है।
सिर्फ धुएं के बादल-दल हैं
और धुआंते हुए पुराने हवामहल हैं
लाख लाख घूमती चिंगारियां हैं मुतफन्नी (एक प्रदीर्घ कविता,295/2)
इस उद्धरण में चाँद सूरज और ज्वाल के स्थान पर धुंएँ के बादल-दल का होना बताता है कि मुक्तिबोध आधुनिक वर्चस्ववादी सभ्यता को किस तरह देख रहे थे। इसी कविता में आगे वे लिखते हैं कि वे बच्चे जो कभी जनता की आँगन में नंगे खेले थे-
किन्तु आज उनके चेहरे पर
विद्युत वज्र गिरानेवाले
बादल की कठोर छाया है
तारक मंडल पार पुरानी
ठंडकभरी सुदूर दूरियों की परछाई
उनके मुख पर
नंदन-वन की रूपाकारी
लन्दन-वन की फैली झांईं उनके मुख पर
(एक प्रदीर्घ कविता, 297-298/2)
इस अंश में बादल और लन्दन-वन से स्पष्ट समझा जा सकता है कि मुक्तिबोध वर्तमान को कैसे देख रहे थे। नन्दन-वन साम्राज्यवाद रूपक भी है और उस चेतना को भी इंगित करता है जिस पर भविष्य के भारत की नींव रखी गयी है।
मुक्तिबोध के लेखन की बड़ी खूबी यह है कि वे विधाओं का अतिक्रमण करते हैं। उनके साहित्य को आप किसी विधा की चौहद्दियों में रखकर समझ नहीं सकेंगे। उनकी आलोचना, कविता या कहानी सभी पारम्परिक अर्थों में विधाओं के निश्चित दायरे से बाहर निकल आती हैं। तो क्या मुक्तिबोध शिल्प के स्तर पर अपूर्ण साबित होते हैं? दरअसल मुक्तिबोध वैचारिक प्रवाह और अन्तराल के लेखक हैं, वे मनुष्य की चिंताओं का आन्तरिकीकरण करते हैं। यानी बाहर की दुनिया के समनांतर, भीतर भी एक दुनिया का निर्माण। ऐसा करते हुए मुक्तिबोध जानते हैं कि यह हुबहू करना संभव नहीं है। इनके बीच कोई न कोई अन्तराल छूट ही जाता है। मुक्तिबोध उन अंतरालों को सूत्रों में गढ़ते हैं। विधाओं के पूर्वनिर्मित दायरों में मुक्तिबोध को लगता है कि रचनाशीलता बाधित एवं विकृत होती है । उनका मूल उद्देश्य बाह्य का अन्तरिकीकरण और फिर उस अन्त: का बाह्यकरण है। रचना का वास्तविक सौन्दर्य अंतर-बाह्य के इस द्वंद्व में ही घटित होता है। यह कुछ न कुछ छूट जाने से ही उत्पन्न होता है। यही वह बिंदु है जहाँ लेखक विचार को रचना में बदलता है। इस प्रक्रिया को मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदना के संवेदनात्मक ज्ञान में रूपांतरण के तौर पर चिन्हित करते हैं। मुक्तिबोध इसे एकायामी मार्ग नहीं मानते। वे दोनों दिशाओं की सतत यात्रा को रचनाकार के लिए जरूरी मानते हैं। इस प्रक्रिया में लेखक की भूमिका तीसरे की है। वह छिपा हुआ है, परन्तु वह दोनों में मौजूद भी है और उसे दोनों से मुक्त भी होना है। मूल लेखकीय समस्या यहीं से उत्पन्न होती है। आमतौर पर रचनाकार स्वयं को बद्ध होने से रोक नहीं पाता। मुक्तिबोध के इस सूत्र में दो प्रक्रियाओं का जिक्र है। क्या ये दोनों प्रक्रिया एक क्रमिकता को रचते हैं। मुक्तिबोध यह नहीं मानते। वे इनके बीच मौजूद अंतरालों को महत्व देते हैं। रचनाकार का निर्माण इन्हीं अंतरालों में होता है। मनुष्य की संवेदनाओं का प्रकटीकरण भी अंतरालों में ही होता है। शब्दों के बीच के अन्तराल, वाक्यों के बीच के अन्तराल, सम्बन्धों के बीच के अन्तराल। मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता और रचनाशीलता को इन्हीं अंतरालों में विकसित करता है। यही वह पक्ष है जहाँ एक मौलिक रचनाशीलता विकसित होती है। संवेदना का निज आत्म-चेतस रूप विकसित होता है। औद्योगिक सभ्यता अंतरालों को नष्ट करती है। वह अंतरालों को वस्तुओं के अपरिमत संसार से भरती है। यह सतत वस्तुपरकता मनुष्य की संवेदनाओं को नष्ट करती जाती है। इसीलिए मुक्तिबोध ज्ञान और वस्तु के वर्चस्व को संवेदनात्मक विस्तार से रोकते हैं। वे इस सतत वस्तुपरकता के विरुद्ध सहज संवाद-परकता की परिकल्पना रखते हैं। क्योंकि मनुष्य के बीच इस वस्तुपरकता ने अजनबियत के बीज बो दिए हैं। मुक्तिबोध को लगता है:
अपने  समाज में अकेला हूँ बिलकुल
मुझमें जो भयानक छटपटाहट है
नहीं वह किसी में ,
इसलिए अपना ही श्रेणीगत
साम्य है जिनसे, उनसे ही गहरा है विद्वेष-
विरोध, विरोध, विरोध
किन्तु जो दूर हैं
अलग, पृथक हैं
जो अति भिन्न हैं
वे प्रियदर्शन सहचर मित्र हैं मेरे (चम्बल की घाटी में ,416/2)
यही वजह है कि मुक्तिबोध सतत विरोध की संवेदना का सृजन करते हैं। वे इसी का सौन्दर्यबोध रचते हैं।

मुक्तिबोध के संदर्भ में फैंटेसी की बात अक्सर होती है। उसे अमूमन उनकी काव्य कला या टेकनिक से जोड़कर देखा जाता है। इस बात पर कम ही विचार किया गया है कि आखिर मुक्तिबोध को फैंटेसी की जरूरत क्यों पड़ती है। क्यों वे कल्पना-लोक को शब्दों में परिवर्तित करते हैं? अपने समय के दबावों से तो मुक्तिबोध कहीं इस ओर नहीं मुड़ते? मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा को समझने के क्रम में ये जरूरी प्रश्न हैं। मुक्तिबोध की काव्य चेतना सतत विकासमान रही। वे तार सप्तक से शुरू करते हैं लेकिन वे धीरे धीरे अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। बाद की उनकी कविता अभिव्यक्ति के नये रूपों की तलाश करती है। मुक्तिबोध के लेखन को रूप और अंतर्वस्तु के तौर पर ज्यों ही हम विभाजित कर देखने की कोशिश करते हैं त्यों ही हमसे उनका सूक्ष्म यथार्थबोध छूटने लगता है। आज़ादी के बाद के बन रहे देश की दशा और दिशा को जिस तरह मुक्तिबोध ने 50' के दशक में पढ़ लिया था, वह अद्वितीय है। मुक्तिबोध जिसे लिख रहे थे, वह भविष्य का यथार्थ था। उसे सिर्फ वर्तमान के कार्य-कारण सम्बन्ध से स्पष्ट नहीं समझा जा सकता है। ऐसे में मुक्तिबोध के लिए फैंटेसी प्रकट-यथार्थ से एक रचनात्मक दूरी की तरह है, जिसमें वे भविष्य की घटनाओं को कल्पना चित्रों के द्वारा गढ़ते हैं।
एकाएक मुझे भान होता है जग का,
अखबारी दुनिया का फैलाव,
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
पत्ते न खड़के,
सेना ने घेर ली हैं सड़कें।
बुद्धि की मेरी रग
गिनती है समय की धक्-धक्।
यह सब क्या है
किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह
मॉर्शल-लॉ है!( अँधेरे में, 331/2)
इस अंश को को शिल्प और अंतर्वस्तु के विभाजन के तौर पर नहीं देखा जा सकता। यहाँ समय की गति से संवेदना की गति का मिलान होता है। एक लय निर्मित होती है। संवेदनात्मक प्रवाह इसी लय में मौजूद है। जो कवि के अवचेतन में घटित हो रहा है, उसे वह अपनी चेतना के बोध में लाता है। मुक्तिबोध की चिंता यही है कि जो संभाव्य है, जिसे इन्द्रिय अपनी जाग्रत संवेदना से देख पा रही हैं उसे यथार्थ अनुभव में कैसे बदला जाये। मुक्तिबोध की फैंटेसी को हम उनके अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं। यह मनोवैज्ञानिक उपक्रम भर नहीं है। समूची अँधेरे में कविता एक भविष्यकाल को निरुपित करती है। लेकिन मुक्तिबोध उस अनुभव को अपने अवचेतन से चेतन में बाहर निकाल लेते हैं। यही उस्कविता को एक सफल कविता बनाती है। वह कविता अपने समय की चौहद्दियों को तोडती है। 60' के दशक के यथार्थबोध में, समाज में उस तरह डोमाजी उस्ताद या हत्यारा बलवान या नगर सेठ उपस्थित न हो लेकिन मुक्तिबोध का अति संवेदन शील जागरूक मन, उसे संभाव्य मानकर अपने अवचेतन में दर्ज़ करता है। वह एक स्याह डर के रूप में, एक काले धब्बे के रूप में वहां अंकित है। भय का सृजन मुक्तिबोध के यहाँ अवचेतन से प्राप्त इन्हीं अनुभवों से होता है। वे इन अनुभवों को सामान्य अनुभव में फैंटेसी के माध्यम से बदलते हैं। मुक्तिबोध की फैंटेसी की अवधारणा एक गंभीर और सैद्धांतिक विश्लेषण की मांग करती है, ज्यों ही हम उसे शिल्प या टेकनिक तक महदूद करते हैं हम उसके प्रभाव को कम कर आंकने लगते हैं।
मुक्तिबोध को पढऩे के भिन्न भिन्न तरीकों को इजाद किया जाना चाहिए। मुक्तिबोध के लेखन से यह तो स्पष्ट ही है कि वे पारम्परिक पाठ विधि से स्पष्ट नहीं होते। वे एक ही समय में कई दिशाओं में विचार कर रहे होते हैं। सामान्य रूप से हम एक दिशा में विचार करते हैं ,उसके पश्चात हम दूसरी तरफ बढ़ते हैं। मुक्तिबोध के साथ ऐसा नहीं है। वे एक समय में कई दिशाओं में वैचारिक यात्रा कर रहे होते हैं। उनकी विचार प्रक्रिया बहुआयामी है। इस बात को दरकिनार कर जब हम सामान्य बोध के साथ या सहज बुद्धि के साथ मुक्तिबोध को पढऩे की कोशिश करते हैं तो दो तरह की कोशिशों की ओर मुब्तिला होते हैं। अव्वल तो हम मुक्तिबोध को खारिज कर दें, दूसरे हम अपने स्वीकृत तर्कों को मुक्तिबोध पर आरोपित करने की कोशिश करें। दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना की दोनों परम्पराओं ने इन्हीं रास्तों का अनुपालन किया है, और कहना न होगा कि इस रास्ते जो मुक्तिबोध का विश्लेषण नज़र आता है वह किसी समग्रता की बजाय अधूरेपन की तरफ ही ले जाता है।
मुक्तिबोध के समग्र लेखन में विधाओं की सीमाओं के परे, चेतना के विभिन्न एकात्मकताओं और द्वैत की तलाश की जानी चाहिए। मसलन उनकी किसी कविता के अंश को उनकी किसी कहानी के टुकड़े के साथ जोड़कर पढने की कोशिश की जा सकती है या डायरी के किसी अंश में मौजूद विचार को कविता में व्यक्त किसी संवेदना से मिलकर देखा जा सकता है। 
जिस तरह का समय और समाज हमारे इर्द गिर्द निर्मित हो रहा है उसमें मुक्तिबोध को नये सिरे से समझने की जरुरत महसूस होती है। मुक्तिबोध ने समाज को कभी एकायामी नहीं माना। वे राजनीति को केंद्र में रखकर समाज और संस्कृति को देखने के पक्षधर नहीं थे। पिछले पचास साल में यानी मुक्तिबोध के गुजर जाने के बाद से समाज और संस्कृति के रास्ते बुनियादी बदलाव किये गये हैं। मनुष्य की अवधारणा को ही बदल दिया गया। एक सतत समाजविहीनता क्रूरता और हिंसा समाज का स्थायी भाव होता जा रहा है। मनुष्य अपने ही खिलाफ साजिश में लगा हुआ है। उसके आत्म को ही अनुकूलित कर दिया गया है। मुक्तिबोध ने तो आत्मसंघर्ष, आत्मालोचना, आत्मचेतस जैसे पद दिए। हमारे लिए अब भी उन रास्तों पर चलना एक चुनौती है। वर्तमान स्थिति में तो अनिवार्यता भी है। मुक्तिबोध को वर्तमान में पढने का एक अर्थ यह भी है कि हम उस आत्म-संघर्ष आत्म-चेतना और आत्मालोचना की यात्रा फिर से आरम्भ करें। बकौल मुक्तिबोध-
प्रकांड अनबन ,
निज से ही संघर्ष
चाहिए मुझको दीप्त अनवस्था
इतनी कि स्वयं ही टूटकर
शून्य गगन में
ब्रह्माण्ड धूल के परदे सा बन जाऊं
फैल जाऊं तन जाऊं !!(चम्बल की घाटी में, 408/2)
मुक्तिबोध ने निज से संघर्ष कर ही इस दीप्त अनवस्था को आर्जित किया था। उनकी इस अनवस्था ने रचनात्मक विस्फोट के जिस चरम को रचा, वह आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है। वहीँ से अपलक ताकती दो इमानदार आँखें हैं जो हर दम हमारी पीठ पर गड़ी हुयी हैं।

* ग़ालिब के एक शेर से उधृत
 सभी उद्धरण मुक्तिबोध रचनावली से लिए गये हैं



अच्युतानंद मिश्र 'पहल' के लगभग नियमित लेखक है। वे मूलत: भौतिकी के छात्र रहे हैं, अब साहित्य में शोध कर रहे हैं। वे दिल्ली में रहते हैं। मो. 09213166256


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