मुखपृष्ठ पिछले अंक 'आज चा सुधारक' खामोश
जुलाई - 2017

'आज चा सुधारक' खामोश

बसंत त्रिपाठी

समापन पर कृतज्ञता





बीते 27 सालों तक अपनी उपस्थिति से मराठी भाषी समाज को उन्नत और विवेकवादी बनाने की प्रक्रिया में प्राण-पण से समर्पित 'आज चा सुधारक' ने अंतत: अपनी खामोशी की घोषणा कर दी। और आश्चर्य कि उसने अपनी खामोशी की घोषणा अंतिम अंक के लोकार्पण के लिए आयोजित एक समापन समारोह में की! मेरी जानकारी में ऐसी पहली घटना है जब किसी नियतकालिक मासिक ने अपने समापन की घोषणा किसी समारोह में अपने अंतिम अंक के लोकार्पण के साथ की हो। भविष्य की इस खामोशी को चुनने के लिए भी उसने संवाद का मंच निर्मित किया ! और इस समापन समारोह में कुमार केतकर जैसे व्यक्ति की उपस्थिति और एक अत्यंत दिलचस्प और विचारोत्तजक व्याख्यान।
देश ही नहीं दुनिया में नई पत्र-पत्रिकाएँ शुरू और बंद होती रहती हैं. फिर 'आज चा सुधारक' का बंद होना क्यों अलग है, इसे जानना ज़रूरी है। अपने आरंभिक दौर से ही सुधारक की टीम ने केवल और केवल सदस्यता शुल्क के खर्चे से इसका प्रकाशन शुरू किया। अपने पास का पैसा भी लगाया लेकिन यह अपने को स्थापित करने अथवा समाज में अपनी प्रबुद्धता का डंका पीटने का मामला नहीं था। यह केवल संवाद की प्रक्रिया में सहभागिता और उसे संवर्दि्धत करने का मामला था। इसलिए इसकी साज-सज्जा का स्वरूप एक आम भारतीय की ही तरह बिल्कुल साधारण था। यह निरंतरता अंतिम अंक तक बनी रही। श्वेत-श्याम के अलावा न कोई रंग, न कोई विज्ञापन और न कोई आकर्षक मुख-पृष्ठ। पहले पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक केवल पाठ-सामग्री। सोलह-सोलह पृष्ठों के तीन फर्मे को केवल स्टेपल कर दिया गया और अंक तैयार। हर अंक जैसे यह घोषणा करती हुई कि विवेक को दिखावे और बनावटीपन की जरूरत नहीं। लेकिन यह तो बाहरी आवरण हुआ। प्रत्येक अंक में सुचिंतित और विद्वतापूर्ण गंभीर लेख और पाठकीय प्रतिक्रियाएँ इसका अनिवार्य हिस्सा रही। प्रतिक्रियाएँ भी प्रशंसात्मक नहीं बल्कि बहस को विस्तार देने वाली। कुछ बहसें तो महिनों चलीं। इसमें वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी, गाँधीवादी, अंबेडकरवादी से लेकर सावकरवादी और हिंदूवादी तक शामिल रहे।
'आज चा सुधारक' महाराष्ट्र ही नहीं शायद भारत की अकेली ऐसी पत्रिका थी जो विवेकवाद को अपना प्रस्थान बिंदू मानती थी। गोपाल गणेश आगरकर ने 1888 में 'सुधारक' नाम से एक पत्र निकालकर विवेकवाद को स्थापित करने की कोशिश की थी। उसके लगभग सौ साल बाद अप्रैल 1990 में दि य देशपांडे के संपादन में पहले 'नवा सुधारक' फिर 'आज चा सुधारक' नाम से विवेकवाद पर संवाद कायम करने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत हुई। दिय के नाम से जाने जाने वाले दि य देशपांडे मूलत: दर्शन के अध्येता थे। अपनी पत्नी के साथ मिलकर उन्होंने आगरकर ग्रंथावली का संपादन भी किया है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात उन्होंने दिवाकर मोहिनी के साथ मिलकर 'आज चा सुधारक' निकाला। अपने ढंग की इस अनूठी पत्रिका ने मराठी भाषा-भाषी समाज में अपनी जगह बनाई। दिय के बाद दिवाकर मोहिनी इसके दूसरे संपादक बने। उसके बाद प्र.ब.कुलकर्णी, नंदा खरे, संजीवनी कुलकर्णी, अनुराधा मोहिनी, प्रभाकर नानावटी, रवींद्र रुक्मिणी पंढरीनाथ क्रमश: इसके संपादन के दायित्व का निर्वहन किया। संपादकों ने गत 27 वर्षों में लगभग 25 विशेषांकों का संपादन किया। जिसमें से धर्म, शिक्षण, पानी, खेती, नगर रचना, स्त्री-पुरुष संबंध, आगरकर और डार्विन जैसे विषयों पर केंद्रित अंकों की व्यापक चर्चा हुई। विगत 27 वर्षों में न तो अंक निकालने में कभी विलंब हुआ और न ही कोई अंक स्थगित हुआ। निरंतरता और नियमितता 'आज चा सुधारक' की विशेषता थी।
यह काम कितना चुनौतीपूर्ण है इसका अनुभव मुझे तब हुआ जब 2000 से 2004 तक हिंदी में भी इसका प्रकाशन हुआ। उस समय हर शनिवार को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में दिवाकर मोहिनी के साथ प्रकाश चंद्रायन, शांतनु श्रीवास्तव, नामदेव लाघवे और मेरी लगभग नियमित बैठकें होती थीं। बैठक में अंक की योजना के साथ-साथ प्राप्त सामग्री पर विस्तार से चर्चा होती। चूँकि मूल हिंदी में लिखी सामग्री का अभाव हमेशा बना रहता इसलिए इसकी पूर्ति अक्सर मराठी और अंग्रेजी के अनुवाद के जरिए पूरी की जाती। खर्च वगैरह भी मराठी के अंक से ही जुटाया जाता रहा। हालाँकि बाद में हिंदी में भी सामग्री मिलने लगी थी लेकिन वह पर्याप्त नहीं थी। हिंदी में जिसे चार साल में ही बंद करना पड़ा वह मराठी में 27 साल तक लगातार चलती रही, यह रेखांकित किए जाने योग्य है। 
मराठी समाज का जागरुक नागरिक का एक वर्ग 'आज चा सुधारक' का नियमित पाठक रहा। इसमें साधारण विद्यार्थी, शिक्षक, संस्कृति-कर्मी, लेखक, पत्रकार, संपादक, भाषाविद, अभिनेता, समाज-सुधारक से लेकर चिंतक, दार्शनिक एवं सुधारक तक शामिल थे। ये विभिन्न विचार-सरणियों से जुड़े हुए लोग थे। और 'सुधारक' का एजेंडा मुख्यत: विचार-परिवर्तन एवं विकास का मार्ग तलाशना एवं संवर्दि्धत करना था। इस काम में सुधारक की टीम कितनी सफल हुई और असफलता के किन कारणों से जूझते हुए उन्हें इसके प्रकाशन को बंद करना पड़ा, इसका निर्णय तो इतिहास ही करेगा, लेकिन इतना ज़रूर है कि इसकी उपस्थिति मराठी समाज में गौरवपूर्ण रही।
अंतिम अंक की संपादकीय 'पूर्णविराम या स्वल्पविराम' शीर्षक से लिखते हुए हालाँकि रवींद्र रुक्मिणी पंढरीनाथ ने संकेत दिया है कि भविष्य में इसे फिर से शुरू किया जा सकता है। दिवाकर मोहिनी जी से कारण पूछने पर उन्होंने समाज में तार्किकता के लोप होने और उचित प्रतिसाद न मिलने की बात कही। अंतिम अंक में इसके प्रकाशक भरत मोहिनी ने डाक की सुविधा खत्म कर देने तथा पोस्ट ऑफिस द्वारा तीन लाख रुपए से अधिक के दंड लगाने की बात कही। जाहिर है कि इसे बंद करने के पीछे ये सभी कारण जिम्मेदार रहे हों। लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि यह फिर शुरू होगा। आज संवाद और विचार के ऐसे मंचों की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक है।  


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