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जुलाई - 2017

प्रतिक्रियाएं

रमेश उपाध्याय / राजेश जोशी




आम तौर पर हम पत्र तथा प्रतिक्रियाएं नहीं छापते पर पिछले अंक में जाकिया मशहदी की कहानी किस्सा जानकी रमण पांडे पर हमें दो प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश उपाध्याय और राजेश जोशी की टिप्पणी और पत्र मिले है जिन्हें हम प्रस्तुत कर रहे हैं।


'पहल-107' (अप्रैल, 2017) में प्रकाशित ज़ाकिया सुलताना मशहदी की लंबी कहानी 'किस्सा जानकी रमण पांडे लंबी ही नहीं, बड़ी कहानी भी है। देश में आजकल मुसलमानों के खिलाफ हिंदू सांप्रदायिकता का ज़हर जिस तेज़ी से और जितने बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है, उसे देखते हुए ज़रुरी हो गया है कि दिन पर दिन विकराल होती जा रही इस समस्या पर गहराई से सोचा जाये और इसका कोई सृजनात्मक समाधान खोजा जाये।
कहानी में समस्या और समाधान की बात से कई लेखक बिदकते हैं। उनमें से कुछ लोग तो सिरे से ही यह नहीं चाहते कि कहानी में सामाजिक समस्याएं उठायी जायें और बाकी लोग यह घिस-पिट चुकी बात दोहराते हैं कि लेखक समस्या उठा दे, यही काफी है, समाधान देना उसका काम नहीं है। लेकिन उन समस्याओं का क्या किया जाये, जिन्हें कुछ सामाजिक-राजनीतिक शक्तियाँ उत्तरोत्तर बढ़ाने और देश-देशांतर में फैलाने में ही अपना लाभ देख रही हों, जबकि वे सामाजिक-राजनीतिक शक्तियाँ, जिन्हें उन समस्याओं को हल करना चाहिए, उन्हें हल न कर पा रही हों? उन समस्याओं के समाधान तो सृजनशील लेखकों-कलाकारों तथा चिंतकों-विचारकों को ही खोजने होंगे। अगर यह उनका काम नहीं, तो फिर किसका काम है? बेशक, उन्हें यह काम नेताओं और उपदेशकों की तरह प्रचारात्मक ढंग से नहींं, सृजनशील और कलात्मक ढंग से करना होगा, लेकिन करना तो होगा।
'किस्सा जानकी रमण पांडे' कहानी की सबसे बड़ी खूबी और खासियत, मेरे विचार से, यही है कि उसमें बड़े ही कलात्मक ढंग से सांप्रदायिकता की समस्या उठाकर उसका समाधान खोजने की एक गंभीर और सार्थक कोशिश की गयी है।
मेरे विचार से अच्छी कहानी में अंतर्वस्तु और रुप अलग-अलग नहीं होते। उसमें रूप भी अंतर्वस्तु ही होता है। 'किस्सा जानकी रमण पांडे' में किस्सागोई वाला शिल्प भी इस तथ्य को सामने लाता है कि भारतीय समाज में हिंदू और मुसलमान, उन्हें आपस में लड़ाने की तमाम सियासी कोशिशों के बावजूद, सदियों से एक साझी ज़िंदगी जीते आ रहे हैं और आज जब उस साझेपन को जान-बूझकर तरह-तरह से ख़त्म किया जा रहा है, उसे बचाना और बढ़ाना निहायत ज़रूरी है। लेकिन यह कहानी उस साझेपन के ख़त्म होने का रोना नहीं रोती, उसे लेकर निरर्थक भावुकता पैदा नहीं करती, बल्कि हल्के-फुल्के हँसी-मज़ाक वाले अंदाज़ में आज भी उसकी उपस्थिति और ज़रुरत को सामने लाती है।
इस काम के लिए किस्सागोई से बेहतर और कोई शिल्प इस कहानी का हो ही नहीं सकता। कहानी में किस्सागो हैं के.के. यानी कृष्णकांत मामा, जो ''लंबे समय से लखनऊ में रह रहे थे, अच्छी उर्दू बोलते थे और किस्से सुनाने में पारंगत थे। नख्खास के किसी दास्तानगो की आत्मा ने उनके अंदर प्रवेश पा लिया था।'' किस्सागो हिंदू हैं और उनके श्रोताओं में हिंदू-मुसलमान दोनों हैं, जिनमें अनवर बेग की पत्नी नय्यरा बेग भी शामिल हैं। उनमें एक विपिन भैया हैं, जो सरेआम मुसलमान औरत को मुसलमंटी कहते हैं। इस पर नय्यरा बेग नाराज़ होती है, तो वे देवर के रिश्ते से हँसी-मज़ाक में उनसे कहते हैं, ''कितनी बार कहा, कोई अपनी जैसी खूबसूरत मुसलमंटी ढूँढ़कर ला दो, आज तक न लायीं। हम तो अब तुम्हीं पर आशिक होने वाले हैं।'' और मुसलमान भाभी हिंदू देव को फटकारती हैं, ''मर, कमबख्त हिंदुचे!''
कृष्णकांत जिन जानकी रमण पांडे का किस्सा सुनाते हैं, वे विवाहित और दो बच्चियों के बाप होते हुए भी एक मुसलमान स्त्री रौशन आरा से प्रेम करते हैं, उनसे निकाह करने के लिए मुसलमान बनते हैं, मगर हिंदू भी बने रहते हैं। हिंदू पत्नी और उससे पैदा हुई बेटियों के प्रति अपना कत्र्तव्य निभाते हुए वे मुसलमान पत्नी के प्रति भी ईमानदार और ज़िम्मेदार रहते हैं। रौशन आरा भी अपना धर्म, रहन-सहन और खान-पान नहीं बदलतीं, लेकिन वे अपने हिंदू पति के धार्मिक विश्वासों, खान-पान के तरीकों और उसकी पहली पत्नी के साथ बिताये जाने वाले जीवन में कोई दखल नहीं देतीं। रखैल बनकर रहना उन्हें मंजूर नहीं, इसलिए वे निकाह को जरुरी मानती हैं। इसके लिए वे पांडे पर कलमा पढ़कर नाममात्र के लिए मुसलमान बन जाने के लिए तो ज़ोर डालती हैं, लेकिन उनके हिंदू बने रहने पर ऐतराज नहीं करतीं। पांडे जब उनके पास रहते हैं, वे उन्हें शाकाहारी खाना बनाकर खिलाती हैं। वे उनकी पहली पत्नी का हक छीनने की कोशिश नहीं करतीं और उन्हें यह छूट देती है कि वे जब चाहें, तब उनके पास आये और उतने ही दिन रहें, जितने से उनका अमन-चैन खतरे में न पड़े।
जानकी रमण पांडे दो शहरों में रहते हैं। एक शहर में हिंदू बनकर, दूसरे शहर में मुसलमान बनकर। इस प्रकार वे 'आउटसाइडर' भी हैं और साथ ही 'इनसाइडर' भी। शाकाहारी वैष्णव भी हैं और मस्जिद में फेंके गये गोश्त से भड़के हुए मुसलमानों को शांत करने के लिए गोश्त को खुद ही उठाकर फेंकने और मस्जिद को धोकर साफ करके सांप्रदायिक दंगा होने से रोकने वाले मुसलमान भी।
मैंने सांप्रदायिकता पर लिखी हुई जितनी भी रचनाएँ पढ़ी हैं, उनमें से किसी में भी जानकी रमण पांडे जैसा अनूठा चरित्र मुझे नहीं मिला। कहानी की लेखिका ने यह चरित्र वास्तविक ज़िंदगी में लिया हो या अपनी सृजनशील कल्पना से गढ़ा हो, यह एक अद्भुत चरित्र तो है ही, कहानी में उठायी गयी समस्या और उसके समाधान को सामने लाने के लिए निहायत ज़रुरी चरित्र भी है, लेकिन समाधान नितांत निराला है। इस कहानी की लेखिका द्वारा सुझाया गया समाधान यह है कि ये दोनों (या कोई भी) संप्रदाय प्रेमपूर्वक साथ तभी रह सकते हैं, जब उनके भेदों को ख़त्म करने के बजाये उन्हें मान्यता दी जाये और उनका सम्मान करते हुए एक-दूसरे से प्रेम किया जाये। भिन्न संप्रदायों में जबर्दस्ती एकरुपता पैदा करने की कोशिश में उनके भेदों को बुरा माना जाता है, उन भेदों के आधार पर नफरत पैदा की जाती है और उन भेदों को मिटाने के नाम पर हिंसक तरीके अपनाये जाते हैं। इससे सांप्रदायिकता की समस्या हर होने के बजाय और बढ़ती है, बढ़कर वह हिंसक रुप धारण करती है और वह हिंसा किसी एक समाज या देश तक सीमित न रहकर वैश्विक या भूमंडलीय हिंसा बन जाती है, जिसके विभिन्न रुप आज हम दुनिया भर में देख रहे हैं। इस समस्या का समाधान ज़बर्दस्ती एकरुपता पैदा करना नहीं, बल्कि विविधता में एकता बनाये रखना ही है।
इस नज़र से देखें, तो 'किस्सा जानकी रमण पांडे' एक अच्छी ही नहीं, जरूरी कहानी भी है। इसे लिखने के लिए लेखिका ज़ाकिया सुलताना मशहदी तथा प्रकाशित करने के लिए 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन दोनों बधाई के पात्र हैं।

डॉ. रमेश उपाध्याय
107, साक्षरा अपार्टमेंट्स,
ए-3, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063


प्रिय ज्ञान जी,
पहल-107 में ज़ाकिया मशहदी की कहानी किस्सा जानकी रमण पांडे पढ़कर बहुत दिन बाद कहानी पढऩे का, कहना चाहिए कि मजा आया। उर्दू कहानी ने अपनी दास्तानगोई या कहें कि किस्सागोई को उस तरह तलाक नहीं कहा है जैसा कि हिंदी कहानी में आधुनिकता के नाम पर हुआ। उसने किस्सागोई को नया भी किया है। रवानी और मुहावरों का बहुत ही समुचित उपयोग कहानी की भाषा में वहाँ बना रहा है। ज़ाकिया मशहदी की कहानी पढ़ते हुए एक साथ कहानी कहने के अंदाज में पुराने और नये का स्वाद महसूस किया जा सकता है। इस एक ही वाक्य में इस खूबी को समझा जा सकता है - वह हमारे अम्मा के फुफेरे भाई की साली के जेठ की चचेरी बहन होती थीं। एक तरह यह कहानी हमारी स्मृति और हमारे आज दोनों के बीच टूट गये पुल को मरम्मत कर देती है।
दूसरी एक बात जो मुझे बहुत आकर्षित करती है कि यह कहानी बिना बहुत मुखर हुए बहुत सटल ढंग से सारी स्थितियों और हमारे समय के विवादों पर भी टिप्पणी करती चलती है। कुछ वाक्य यहाँ उद्धरित करना चाहता हूँ - यूं तो जिन्दों पर भी मिट्टी का तेल डालकर फूंकने की परम्परा, काफी दिन हुए कि कायम हो गई है। एक और वाक्य देखें - और भाई, सौ बातों की एक बात यह कि आस्थाएं वही अच्छी लगती हैं जो अपनी मर्जी और सुविधा से मेल खाएं वरना उठाया डंडा और अपनी मर्जी मनवाने पर तुल गए। किस्सागोई की इस भाषा में एक बहुत दिलचस्प किस्म का चुटीलापन भी है और चुइटी तोड़ लेने की सलाहियत भी।
यूं तो साम्प्रदायिकता के सवाल पर बल्कि कहना चाहिये कि सवाल से ज़्यादा बवाल पर कई अच्छी और ज़्यादातर बुरी कहानियाँ लिखी गयी हैं। जिस तरह अस्मिता विमर्श के तहत होने वाले लेखन का अधिकांश हिस्सा लगभग फार्मूला लेखन हो गया है, इसी तरह सामप्रदायिकता जैसे सवाल पर होने वाला लेखन भी एक क्लीशे बनकर रह गया है। इस कहानी की एक खूबी यह भी है कि वह उन पुराने सम्बंधों को भी और उनके बीच चलने वाली छेड़छाड़ को भी याद करती है। भोपाल के पुराने बाशिंदे याद कर सकते हैं कि किस तरह हिन्दू महासभाई मंचों और मुस्लिमलीग के राजनीतिक मंचों से उसके नेता आग लगाऊ भाषण दिया करते थे और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही दोनों तरह की सभाओं का मजा लेते और ठहाके लगाते हुए सभाओं से लौटते थे। अब ज़रा इन दो छोटे छोटे उद्धरणों पर गौर कीजिये:
ब्रेक में बिपिन भाई साहब ने छत-उखाड़ ठहाका लगाया। कहने लगे यह तो हम सबको मालूम है कि वह सूरत वाली मुसलमनटी थीं...। और आगे का एक वाक्य है- नय्यरा ने बिपिन की गर्दन पर थोड़ी सी गरम चाय छलकाई। मर कमबख़्त हिन्दुचे।
यह कहानी एक साथ कई मसले उठाती है। धर्म परिवर्तन के पीछे चलती चालाकियाँ और इस्लाम में जेन्डर के सवाल। यह छोटा सा उद्धाण काफी होगा: उन्होंने छह बेटियों के बाद बेटा होने पर ऊंट की कुर्बानी दी थी। ...लोग बेटी पैदा होने पर ऊंट क्या बकरी की भी कुर्बानी ने दें। लाख तुम कहते रहो कि इस्लाम में औरत का दर्जा बुलन्द है।
मैं इस अच्छी कहानी को बहुत ज़्यादा खोलने की हिमाकत नहीं करूंगा वरना पढऩे का लुत्$फ ख़तम हो जायेगा। आखिर में इस कहानी का एक वाक्य सुनाकर अपना यह ख़त बंद कर दूंगा, यह वाक्य कहानी से बाहर इस समय के राजनीतिक हालात के संदर्भ में भी आप चाहें तो पढ़ सकते हैं... मगर हम क्या करें बेटा, भगवान को भी मूर्खों से विशेष लगाव है इसलिए उसने इतनी बड़ी तादाद में मूर्ख पैदा किये हैं। क्या करोगी, सब्र करो।
 

आपका

राजेश जोशी
मो. 08988051304   


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