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अप्रैल 2017

हिंदुस्तानी शेक्सपीयर : आग़ा हश्र कश्मीरी

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष










''नौजवान तुमसे पूछने आया करेंगे, हमे बताओ, आग़ा हश्र कौन था? वह किस अंदाज़ में बैठ कर लिखा करता था? उसके गुफ़्तगू करने का ढंग क्या था? वह किस तरह का लिबास पहनता था? वह किरदार कैसे तरतीब देता था? हमे बताओ कि आग़ा हश्र को तुमने किस-किस रंग में देखा है?''

यह बयान है 20वीं सदी की मशहूर अदाकारा-गुलूकारा मुख़्तार बेग़म का, जो आग़ा हश्र की बीवी भी थीं। और यह सवालिया मक़ालमे निकले हैं ख़ुद आग़ा हश्र की ज़बान से, जिनका ख़याल था कि उनकी मौत के बाद ज़माने मे उनके काम की कद्रो-कीमत बढ़ेगी और नए दौर में लोग उनके बारे में जानने को बेताब हो जाएंग़े।
यह उम्मीद बेजा न थी। हिंदुस्तानी रंगमंच के सदियों पुराने इतिहास की दास्तान में एक से एक आला और एक से एक नायाब ड्रामा नवीस पैदा हुए और अपना-अपना किरदार निभाते हुए रुख़्सत भी हो गए। लेकिन 82 बरस पहले इस महफ़िल से रुख़्सत हो चुके इस शख्स का हर कारनामा आज भी महफ़िलों में ज़िंदा है। जबकि उसी दौर के दूसरे नामचीन ड्रामानिगारों के बारे में यह बात इतनी पुख़्तगी से नहीं कही जा सकती।
सौ बरस पहले हश्र के लिखे नाटक 'यहूदी की लड़की' (1915) का आज भी मंचन होता है और पसंद किया जाता है। 'रुस्तम-सोहराब' को आज भी सराहा जाता है। 'बिल्वा मंगल' को अब तक याद किया जाता है।
अब जो सवाल बाकी रहे; कि कैसे दिखते थे? क्या पहनते थे? कैसे बोलते थे? तो इस सारे सवालों के जवाब एक और उस्ताद, सआदत हसन मंटो, भी जानना चाहते थे। उनकी ख़ुशकिस्मती की आग़ा हश्र तब हयात थे। सो उन्हें जवाब मिल भी गए और उनकी बदौलत आज हमें मुहैया हैं।
''बाहर सहन में कुर्सियों पर कुछ आदमी बैठे थे। एक कोने में तख़्त पर पंडित मोहसिन बैठे गुडग़ुड़ी पी रहे थे। सबसे पहले एक अजीबो-ग़रबी आदमी मेरी निगाहों से टकराया। चीख़ते हुए लाल रंग की चमकदार साटन का लाचा, दो घोड़े की बोस्की की कालर वाली सफेद कमीज़, कमर पर गहरे नीले रंग का फुंदनों वाला इज़ार बंद, बड़ी-बड़ी बेहंगम आंखें - मैंने सोचा, कटरा घनिया का कोई पीर होगा, लेकिन फ़ौरन ही किसी ने उसको ''आग़ा साहब'' कहकर मुख़ातिब किया- मुझे धक्का सा लगा।
...दफ़अतन मुझे महसूस हुआ कि मेरा सर चकरा रहा है। तेज़ ख़ुश्बू के भबके आ रहे थे। मैने देखा आग़ा साहब के दोनों कानों में इत्तर के फोए ठूंसे हुए थे और ग़ालिबन सर भी इत्तर से ही चिपड़ा हुआ था।''
आग़ा हश्र का आबाई वतन कश्मीर ज़रूर था लेकिन उनकी पैदाइश से काफ़ी पहले उनका ख़ानदान कश्मीर से हिजरत कर अमृतसर और फिर बनारस में सुकूनत इख़ि्तयार कर चुका था। आग़ा हश्र, जिनका पैदाइशी नाम आग़ा मुहम्मद शाह था, ने 'हश्र' तख़ल्लुस पसंद किया। वतन से दूरी के अहसास को कम करने की ग़रज़ से तख़ल्लुस के साथ 'कश्मीरी' भी जोड़ लिया जबकि बनारस के दोस्तों की राय थी कि वो ख़ुद को 'बनारसी' लिखे।
दरअसल हश्र के वालिद आग़ा ग़नी शाह के बड़े भाई अज़ीज़ उल्ला शाह और मामू सैयद अहसन उल्ला शाह पशमीना शालों के बड़े व्यापारी थे। तिजारत के सिलसिले में ही श्रीनगर छोड़ बनारस तक जा पहुंचे थे, जो कारोबार के लिहाज़ से बेहतर जगह थी। बाद को मामू ने आग़ा ग़नी को भी वहीं बुला लिया। बनारस पहुंचने तक आग़ा ग़नी की शादी नहीं हुई थी। यह काम भी मामू ने ही 30 जुलाई 1878 को अपनी साली से शादी करवा कर अंजाम दिया। चंद माह बाद 1 अप्रैल 1879 आग़ा हश्र का जन्म हुआ। आग़ा हश्र के बड़े भाई आग़ा मुहमूद शाह हश्र के बारे में लिखते हैं, ''आग़ा मुहम्मद शाह 'हश्र' यकुम (एक) अप्रेल 1879, जुम्मे के रोज़ नारियल बाज़ार मुहल्ला, गोबिंद कलां, शहर बनारस में पैदा हुए। ज़िंदगी भर उन्होंने अपनी वतनियत को अपनी ज़ात से अलहिदा करना पसंद न किया और ख़ुद को हमेशा कश्मीरी कहते हैं और लिखते रहे।''
हश्र के वालिद साहब ज़रा रूढ़ीवादी किस्म के इंसान थे। इसी वजह से उन्होंने बेटे को स्कूल भेजने की बजाय घर पर भी उनकी शुरुआती तालीम - अरबी-फ़ारसी की पढ़ाई- का इंतज़ाम कर दिया। बाद के बरसों में जाकर उसका जय नारायण मिशन हाई स्कूल में दाख़िला करवाया। इस जगह पहुंचकर पहली बार बाकायदा किस्म की पढ़ाई शुरु हुई। इसी जगह उन्होंने अंग्रेज़ी का पहला सबक सीखा।
स्कूल पहुंचकर भी स्कूल की किताबों से कुछ ख़ास लगाव पैदा न हुआ। अभी छठी जमात में ही थे कि ज़बान पर शेर आने लगे। इस रियाज़ की रफ़्तार बढ़ी तो इन शेरों के सुनने वालों का दायरा स्कूल के दोस्तों की हद से निकलकर उस्ताद 'फ़ाइज़ बनारसी' तक जा पहुंचा। हौसला अफ़ज़ाई हुई तो छिट-पुट मुशायरों में भी शिरकत होने लगी।
दिलचस्प बात यह है कि जिस आग़ा हश्र का दिल स्कूल की किताबों में कभी न लगा उन्हीं को बाद की ज़िंदगी में पढऩे का इस बला का चस्का लगा कि दिन-रात जुटकर अरबी-फ़ारसी के साथ ही साथ संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी, गुजराती और बांग्ला भाषाएं भी सीख लीं। इलाकाई बोलियों को भी जानने और इस्तेमाल करने की कोशिश में जुटे रहे। उनका यह सारा हुनर उनके लिखे में साफ़ दिखाई भी दे जाता है।
आग़ा हश्र के पढऩे के शौक़ को लेकर कई सारी कहानियां मशहूर हैं। हद तो यह कि हाथ आए किसी काग़ज़ को बिना पढ़े छोड़ते ही नहीं थे। फिर वह काग़ज़ चाहे घर के किसी सौदे-सुल्फ़े की पुडिय़ा में साथ आया हो या फिर हवा में उड़कर घर-आंगन में गिरा हो। इसी सिलसिले की एक छोटी सी लेकिन दिलचस्प कहानी मंटो ने भी कही है।
''इतने में पान आ गए, जो अख़बार के काग़ज़ में लिपटे हुए थे। नौकर अंदर चला तो आग़ा साहब ने कहा : ''काग़ज़ फेंकना नहीं, संभाल के रखना।''
इस शौक़ का नतीजा यह था कि उन्हें ज़माने भर की मामूली और ग़ैर मामूली चीज़ों की ख़बर रहती थी। उस पर कुदरत की देन यह कि एक बार जो चीज़ पढ़ लेते या सुन लेते वह सब उनके ज़हन में हमेशा के लिए महफ़ूज़ हो जाती थी। और तो और राह चलते या फ़िर बज़ार में किसी दुकान पर चलती गुफ़्तगू कान तक आ जाती तो वह भी ज़हन में रिकार्ड हो जाती। इस कमाल की यादाश्त के नमूने ख़ासकर तब नुमाया होते जब वो कोई तक़रीर करते या फिर किसी बहस-मुबाहिसे में हिस्सा लेते।
धार्मिक शास्त्रार्थ के मैदान में
हश्र यूं तो अपने अक़ीदे से इस्लाम के मानने वाले थे लेकिन उन्हें मुला-मौलवियों के कट्टरपंथी रवैये से ज़रा भी इत्तिफ़ाक़ न था। अपनी ज़ाती ज़िंदगी में अपने सारे आमाल के मद्दे-नज़र, देने वाले उन्हें 'क़ाफ़िर' करार दे सकते थे लेकिन किसी ने कभी यह जुर्रत की नहीं।
नमाज़ पढ़ते उन्हें कभी किसी ने देखा नहीं और रोज़ा रखने की फ़ुरसत कभी मिली नहीं। जिस क़दर टूट कर औरतों से इश्क़ फ़रमाते थे, उससे ज़्यादा खुलकर शराब पीते थे। ज़बान पर अल्लाह का नाम कम और फ़ाश गालियों का क़ाफ़िला ज़्यादा बना रहता। वो खड़े-खड़े ऐसी गालियां ईजाद कर लेते थे कि पहली बार सुनने वाले के होश फ़ाख़्ता हो जाते और बाद को हंस-हंस कर पेट दोहरा हो जाता। कहा जाता है कि जितनी गालियां उन्होंने अपनी तमाम उम्र में ईजाद की होंगी उनसे बा-आसानी पूरा एक दीवान बन सकता था।
दीन-ओ-मज़हब की हिदायतों से इस क़दर फ़ासले पर रहने वाले आग़ा हश्र के किरदार का यह भी एक अनोखा रंग था कि वक़्त आने पर वे अपने मज़हब के हक़ में सीना तानकर खड़े भी हो जाते थे। जब-जब उन्हें बुलाया गया तो उन्होंने अपने धर्म के लिए अपने फ़न को हथियार की तरह इस्तेमाल करने में ज़रा भी गुरेज़ न की।
बीसवीं सदी के उस शुरुआता दौर में ईसाई मिशनरीज़ का 'कनवर्शन' अभियान और आर्य समाज का 'शुद्धि आंदोलन' ज़ोरों पर था। एक तरफ़ हिंदू समाज ने ख़ुद को पुनर्गठित करने और मुसलमान और ईसाई बने हिंदुओं की 'शुद्धि' कर वापस उन्हें हिंदू बनाने का आर्य समाजी आंदोलन चला रखा था। आज के दौर में इस तरह के किसी अभियान का अंत सिवाय किसी ख़ून-ख़राबे और मार-काट के नहीं हो सकता। लेकिन उस दौर में यह मुमकिन था कि इतने नाज़ुक मामले में भी हथियारों की बजाय, आमने-सामने की बातचीत भी मुमकिन थी। इसी वजह से तब आर्य समाजी, मुसलमानों और ईसाइयों की खुली सभाएं होतीं। शास्त्रार्थ होता। अपने-अपने पक्ष में दलीलें दी जातीं और दूसरे की दलीलें काटी जातीं। उसी बहस से नतीजे भी निकाले जाते थे।
आग़ा हश्र ने मुसलमानों की तरफ़ से अपने दोस्त मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ मिलकर यह ज़िम्मेदारी क़ुबूल कर रखी थी। बहस में आमने-सामने के मुक़ाबले की तैयारी के लिए हश्र ने हिंदुओं और ईसाइयों के लगभग सारे धर्म ग्रंथ पढ़कर पी लिए। इसी काम के लिए उन्होंने पहले संस्कृत सीखी और अंग्रेज़ी को भी कुछ मज़बूत किया।
अपने इस दौर के हालाते ज़िंदगी के बारे में आग़ा हश्र ने कुछ इस तरह लिखा है। ''वह ज़माना था भी अजीब। मैं ड्रामे भी लिखता था, शराब भी पीता था। न कभी नमाज़ पढ़ी न रोज़ा रखा। लेकिन दीनी हरारत से दिल गुदाज़ था। आर्य और ईसाई इस्लाम पर ऐतराज़ करते थे। मैं और अबुल कलाम जवाब देते थे। इसी शौक़ में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की किताबें पढ़ीं। आर्यों और ईसाइयों के रद्द में रिसाले लिखे, मनाज़िरे (शास्त्रार्थ) किये और जिस दंगल में उतरा फ़तेह पाई।''
इन मनाज़िरों में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अलावा ख़्वाजा हसन निज़ामी, मौलाना अबू अल नस्र, सज्जाद देहलवी और नज़ीर हुसैन 'सखा' जैसे दानिशमंद थे।
हश्र के बारे में कहा गया है कि 'अंजूमन हिमायत-ए-इस्लाम' के लाहौर जल्से में जिस वक़्त उन्होंने उपनी न•म 'शुक्रिया यूरोप' के मुनाजात का पहला बंद पढ़ा तो सुनने वालों पर जादू सा हो गया।
आह जाती है फ़लक पर रहम लाने के लिए
बादलो हट जाओ, दे दो राह जाने के लिए
''...सामईन के हाथ बे-इख़ि्तयार दुआ के लिए उठ गए और आंखों से अश्कों का सैलाब जारी हो गया।'' (डा. अंजुमन आरा अंजुम - उर्दू ड्रामा और आग़ा हश्र)
इसी सिलसिले में आग़ा साहब ने ख़ुद अपनी एक मुख़्तसिर सी 'आप बीती' में एक किस्सा बयान किया है कि किस तरह उन्होंने एक ईसाई पादरी को अपने ज़बानी हमलों से बिना बहस ही भागने पर मजबूर कर दिया।
''उन दिनों पादरी अहमद मसीह का बड़ा ज़ोर था। एक तो अंधा, दूसरे हाफ़िज़ क़ुरान। कतरनी की तरह ज़बान चलती थी। वह दिल्ली में फ़व्वारे पर अक्सर तक़रीरें करता था। मेरे और उसके कई मार्के हुए और मैदान हमेशा मेरे हाथ रहा। वो किसी दूसरे को ख़ातिर में नहीं लाता था। सिर्फ़ मुझ से उसकी कोर दबती थी। अक्सर मनाज़िरों में तू-तकार तक नौबत पहुंच जाती थी। मैं उस पर फब्तियां कसता था। वो मुझ पर।
एक दफ़ा पादरी अहमद मसीह बम्बई आया। और एक-दो मारिके (वाद-विवाद) की तक़रीरें कीं। उन दिनों मेरे क़याम का सिलसिला कुछ ठीक नहीं था। कभी कलकत्ता, कभी देहली। लेकिन इत्तिफ़ाक़ यह हुआ कि अहमद मसीह को बम्बई आए सिर्फ़ दो दिन हुए थे कि मैं भी पहुंचा। लोगों ने मुझे मनाज़िरे के लिए कहा। मैंने कहा 'मैं चलने को तो तैयार हूं लेकिन उसे मेरा नाम न बताना। ग़रज़ मुझे ले गए और अहमद मसीह से सिर्फ़ इतना कहा कि एक मौलवी साहब मनाज़िरा करने आए हैं। लेकिन मैंने जब तक़रीर शुरू की तो वह आवाज़ पहचानकर बोला।
''आगा साहब हैं?''
मैंने कहा ''जी हां।''
वो कहने लगे, ''अरे किसी मौलवी को लाए होते। इस भांड को क्यूं लाए?''
मैं बोला, ''पादरी साहब, किसी भले मानस के यहां कुत्ता घुस आए तो ख़ुद उठ के उसे नहीं धुतकारता। बल्कि नौकर से कहता है कि ''इसे बाहर निकाल दो। फिर तुम्हारे मुक़ाबले में कोई मौलवी क्यूं आए?''
पादरी चीख़ के बोला, ''ये मजलिसे मनाज़िरा है या भांडों की मंडी?''
मैने कहा, ''भांडों की मंडी सही, लेकिन उनमें चपत खोरे तुम हो।''
पादरी ने कहा, ''अरे तू तो थियेटर का नचैया है। तुझसे कौन ज़बान लड़ाए।''
मैंने कहा, ''अब तुम्हें थियेटर पर ही नचाऊंगा।''
ग़रज़ मैंने मारे फब्तियों के उत्तू कर दिया और वो साफ़ इंकार कर गया कि मैं आग़ा से बहस नहीं करता।''
आग़ा हश्र कश्मीरी में कहीं न कहीं मिर्ज़ा ग़ालिब के 'अजब आज़ाद मर्द' वाली अदा हमेशा ही दिखाई दे जाती है। मसलन इन्हीं मनाज़िरात के बारे में मंटो से बात करते हुए उन्होंने एक किस्सा बयान किया है जिससे ज़ाहिर होता है कि उन्होंने मज़हब के लिए मुहब्बत अपनी जगह बनाए रखी तो शराब पर ईमान को अपनी जगह बराबर कायम रखा। बल्कि ग़ालिब के मशहूरे ज़माना मिसरे ''ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर'' को अमल में भी लाकर दिखा दिया।
''अजीब दिन थे वो... आज़ाद ढील से पेंच लड़ाने का आदी था। मुझे आता था मज़ा ख़ींच के पेंच लड़ाने में। एक हाथ मारा और पटिया काट लिया। हरीफ़ मुंह देखते रह गए... एक दफ़ा आज़ाद बुरी तरह घिर गया। मुक़ाबला चार निहायत ही हठधर्मी ईसाई मिशनरियों से था। मैं पहुंचा तो आज़ाद की जान में जान आई। उसने इन मिशनरियों को मेरे हवाले किया। मैंने दो तीन ऐसे अड़ंगे दिए कि वो बौखला गए। मैदान हमारे हाथ रहा। लेकिन हलक सूख गया। क़यामत की गर्मी थी। मस्जिद दोज़ख़ बनी हुई थी। मैंने आज़ाद से कहा: वह बोतल कहां है? उसने जवाब दिया : मेरी जेब में। मैंने कहा : खुदा के लिए चलो। मेरा हलक सूख के लकड़ी हो गया है। दूर जाने की ताब नहीं। वहीं मस्जिद में एक ग़ुसलख़ाने के अंदर झक मारनी पड़ी।''
इन मज़हबी मनाज़िरों में पंडित-पादरियों से उलझने वाले आग़ा हश्र बाहर निकलते ही कुछ दूसरी वज़ा के इंसान हो जाते थे। अपनी दुनियावी अमल में वो उस गंगा-जमुनी तहज़ीब के एक सच्चे और नुमाया किरदार बन जाते थे जिसकी दुहाई दे-दे कर इस मुल्क के सियासतदानों ने सारे समाज को बेवक़ूफ़ बनाया है। उनका हर अमल इस सोच का ईमानदाराना सुबूत है। उनकी टीम में हमेशा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी यानी हर क़ौम और हर $िकस्म के लोग शामिल रहते थे। इनमें से ज़्यादातर को वे ही सिर्फ़ हुनर की बिना पर मुल्क भर से ढूंढ कर लाते थे।
थियेटर की दुनिया में
आग़ा हश्र के शायरी से नाटक की तरफ़ आने की भी एक बेहद दिलचस्प सी कहानी है। यह किस्सा उस वक़्त का है जब आग़ा हश्र अभी तालिबे इल्म थे और शायरी का शौक़ पाल बैठे थे। शायरी की इस शौक़ में कहीं-न-कहीं ड्रामे का भी एक अहम रोल था। स्कूल के ज़माने में ही उन्होंने नवाब अली शाह के दरबारी आग़ा हसन अमानत का लिखा नाटक 'इन्द्र सभा' (1853) पढ़ लिया था। नस्र में लिखे इस नाटक से उन्हें इस बला की मुहब्बत थी कि अक्सर अपने स्कूली दोस्तों को स्कूल के पास ही बने एक कब्रिस्तान में ले जाते और चादरें तानकर स्टेज बना लेते और इन्द्र सभा सजा लेते थे।
1896 में जुबिली थियेट्रीकल बनारस आई हुई थी। कंपनी ने छात्रों के लिए दिए जाने वाले रियायती टिकट देने से इंकार कर दिया। इस बात से नाराज़ होकर आग़ा हश्र ने एक अभियान सा चला दिया। नतीजे में कंपनी वालों ने घबराकर आग़ा हश्र को फ्री पास भिजवा दिए।
''1896 में टीनूचंद घटक का जुबिली थियेटर बनारस आया लेकिन पैसे की कमी और रियायती टिकट न मिलने पर हश्र को थियेटर देखने में बड़ी दिक्कत हुई थी। इस पर दोस्तों ने उन्हें इस थियेटर के ख़िलाफ़ मज़मून लिखने पर उकसाया और उन्होंने 'रफ़ी-उल-अख़बार' में एक पुरज़ोर मज़मून थियेटर के ख़िलाफ़ लिख डाला। जिसका जवाब थियेटर वालों ने दिया और फिर ऐसे मज़ामीन का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन इसका नतीज़ा यह हुआ कि वह शेरो-शायरी और ड्रामों के शौक़ में स्कूली तालीम से बिल्कुल बेपरवाह हो गए।
इसी दौरान अल्फ़्रेड थियेटर बनारस पहुंची और उसने उस दौर के मशहूर ड्रामा नवीस मुंशी मेहदी हसन 'अहसन लखनवी' के ड्रामे पेश किए। हश्र ने ये ड्रामे देखे और उनके मशहूर ड्रामे 'चन्द्रावली' से मुतासिर होकर, उसी तर्ज़ पर एक ड्रामा 'आफ़ताब-ए-मुहब्बत' क़लमबंद किया और बड़े ज़ोक़-ओ-शौक़ से अल्फ़्रेड थियेट्रीकल कम्पनी के मालिक के पास ले गए जिन्होंने ड्रामा अहसन लखनवी को दिखाया।
अहसन ने ड्रामा पढ़कर हश्र को सिर्फ़ ड्रामानवीसी से अहतराज़ (परहेज़) करने के लिए ही नहीं बल्कि बड़े तंज़िया और तहक़ीराना (हिकारत भरे) अंदाज़ में यह भी कहा कि ; ''ड्रामानिगारी बच्चों का काम नहीं है।''
ताहम हश्र ने हिम्मत न हारी। उन्होंने वह ड्रामा बिस्मिल्ला (ख़ान) नामी एक कुतुब फ़रोश के पास साठ रुपए में फ़रोख़्त कर दिया। जिसने उसे अपने '(मतबा) जवाहर अक्सीर' से शाया कर दिया। ताहम यह ड्रामा स्टेज न हो सका।'' (नंद किशोर विक्रम - आज कल (उर्दू) - अप्रैल 1979)
अहसन लखनवी की इस तल्ख़-मिज़ाजी के पीछे भी एक कहानी है। जिस वक़्त आग़ा हश्र को ड्रामो के फ़्री पास देकर बुलाया गया तो उस वक़्त उनकी मुलाक़ात कंपनी के डायरेक्टर अमृतलाल और लेखक अहसन लखनवी से भी हुई थी। उसके बाद मुलाक़ातों का सिलसिला सा बन गया। एक दिन हश्र ने उनकी खिल्ली सी उड़ाते हुए कहा था कि जैसे ड्रामे वो लिखते हैं वैसे ड्रामे तो वे चलते-फिरते ही लिख सकते हैं। यह बात अहसन साहब को चुभ गई थी।
बहरहाल 'आफ़ताब-ए-मुहब्बत' छप गया। इस ड्रामे के छप जाने के बाद हश्र के हौसलों को बड़ी परवाज़ मिली। किताब में उनका परिचय 'शाइर-ए-नाज़ुक-ख़याल' के तौर पर दिया गया है। 17 बरस की उम्र में लिखे गए इस ड्रामे से ही पूत के पांव दिखाई दे जाते हैं। वक़्त-ज़रूरत, मौका-महल के मुताबिक़ इस्तेमाल की गई अलग-अलग भाषा, लेखक के भाषा पर गहरी पकड़ की शहादत है। गीतों में शाइराना सलाहियत का भी सबूत मिल जाता है।
एक गीत है;
हसरतें दीद में ज़ालिम जो कहीं दम निकले
ना-उम्मीदी मिरा करती हुई मातम निकले
मर्ग लैला की ख़बर जब कि ज़माने में उड़ी (मर्ग-मौत)
हाथ मजनू के कफ़न से पए मातम निकले (पए - के लिए)
ख़ू हमारी न गई, ज़ुल्म तुम्हारा न गया
बेवफ़ा तुम तो हुए अहले-वफ़ा हम निकले

और दूसरे गीत का अंदाज़ देखिए;

सखी जिया ना लागे करूं कौन जतन
बिरहा धत न पढ़त चैन
दरस दिखा के, जियरा लुभा के
सुध नहीं लीनो सुघर सजन सखी
सखी जिया न लागे करूं कौन जतन
एक ड्रामा जो छप गया तो हज़ार नई तमन्नाएं जाग उठीं। अब वो बतौर ड्रामा निगार एक ऊंचा मकाम हासिल करने के मंसूबे बांधने लगे। उधर उनके वालिद अब्दुल ग़नी बेटे को क़ौम की ख़िदमत की राह पर डालने की ख़्वाहिश लिए बैठे थे।
''वह (हश्र के पिता) पुरानी वज़ा के आदमी थे और मुझे मुल्ला-ए-मक़तबी बनाना चाहते थे लेकिन मुझे मुलाईयत से नफ़रत थी। अभी मसें भी नहीं भीगी थीं कि बनारस से भागकर बम्बई पहुंचा। वहां पारसियों ने थियेटर का ऐसा तिलिस्म बांध रखा था कि अदना-व-आला, सब उस पर ग़श थे। मैंने भी ड्रामा लिखने को ज़रिया-ए-माश (आय का साधन) बनाया और एक-दो ड्रामे लिखकर शेक्सपीयर पर हाथ साफ़ किया। अगरचे उन दिनों बम्बई में बड़े-बड़े इंशा-परताज़ और शाइर मौजूद थे। लेकिन ख़ुदा की क़ुदरत कि थोड़े दिनों में सब गर्द हो गए।'' (आग़ा हश्र कश्मीरी- आप बीती नंबर - 'नक़ूश' लाहौर)
जिस वक़्त आग़ा हश्र यह कहते हैं कि उन्होंने 'शेक्सपीयर पर हाथ साफ़ किया' तो यह एक ईमानदाराना बयान है। उन्होंने अपनी शुरूआत के लिए 'मुरीद-ए-शक़' के लिए शेक्सपीयर के 'अ विंटर्स टेल' का सहारा लिया तो बाद में 'किंग जान' पर 'सैद-ए-हवस', 'किंग लीयर' पर 'सफ़ेद ख़ून', 'मैकबेथ' पर 'ख़्वाब-ए-हस्ती' की इमारत तामीर की।
जिस वक़्त आग़ा हश्र बम्बई पहुंचे, उस वक़्त अपने मज़बूत इरादों के अलावा उनके पास दिखाने के लिए अख़बार में छपा एक नाटक था। बम्बई में एक बार फिर सामना था अल्फ़्रेंड थियेट्रीकल कंपनी के मालिक कावस जी पालनजी खटाऊ से। हश्र को ड्रामों से दूर रहने की धमकी भरी नसीहत देने वाले 'अहसन लखनवी' तब भी यहीं मौजूद थे। लेकिन इस बार के हालात पिछली बार से जुदा थे। इस बार उन्हें ड्रामे लिखने की नौकरी पर रख लिया गया। तनख़्वाह तय हुई 15 रुपए। यहां उनका लिखा पहला ड्रामा था वही शेक्सपीयर के 'अ विंटर्स टेल' का बेहद आज़ाद एडाप्टेशन 'मुरीद-ए-शक'। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया भर के ड्रामानिगारों की तरह हिंदुस्तान के ड्रामानिगारों और फ़िल्मकारों ने भी शेक्सपीयर की रचनाओं का सहारा लेकर बार-बार वैतरणी पार की है।
हिंदुस्तान में शेक्सपीयर के नाटकों के पहले मंचन का काल अठारहवीं शताब्दी का समय माना गया है। इसकी शुरुआत व्यापार के लिए हिंदुस्तान आने वाले अंग्रेज़ व्यापारियों के साथ होता है जो माल से लदे बड़े-बड़े समुद्री जहाज़ों पर मनोरंजन के लिए शेक्सपीयर के नाटकों का मंचन करवाते थे। बाद को इन्हीं जहाज़ों से उतरकर शेक्सपीयर ने सर-ज़मीने हिंद पर भी कदम रखे और देखते ही देखते सारे मुल्क को अपने जादू में बांध लिया।
इस काम का सेहरा एक अंग्रज़ी कलाकार-नाटककार और थियेटर मैनेजर डेविड गैरिक (1717-1779) के सिर बंधता है। शेक्सपीयर के नाटक 'रिचर्ड ढ्ढढ्ढढ्ढ' में मुख्य भूमिका निभाकर डेविड ने ख़ूब नाम कमाया था। उसी की मदद से 1775 में द कलकता थियेटर्स की स्थापना हुई और शेक्सपीयर के नाटक खेले गए। धीरे-धीरे इन नाटकों के हिन्दुस्तानी वर्शन बनने लगे और ख़ूब क़ामयाब भी होते रहे।
जिन हिंदुस्तानी नाटककारों ने शेक्सपीयर को हिंदुस्तानी रंगत की उनमें से ही एक प्रमुख नाम था 'अहसन लखनवी' का। आगा हश्र की आमद से पहले तक पारसी थियेटर की दुनिया में अहसन लखनवी के नाम की धूम थी। उन पर वाजिद अली शाह के लिए नाटक 'इंद्र सभा' लिखने वाले आग़ा हसन 'अमानत' के शायराना अंदाज़ का असर था तो दूसरी तरफ शेक्सपीयर के हुनर की आशिक़ी। उन्होंने इन दोनों की हुनरमंदी को अपने शायराना शऊर की चाशनी में बांधकर नाटक लिखने शुरु किए और ड्रामानिगानी के तख़्ते-ताऊस पर जा बैठे। उनका लिखा नाटक 'चंद्रावली' इस दौर के सबसे कामयाब नाटकों में शुमार होता है।
आग़ा हश्र ने भी अहसन की राह ली और उसी अल्फ़्रेड कम्पनी से शुरुआत भी की। यहां उनका लिखा पहला ही नाटक 'मुरीद-ए-शक़' बेहद कामयाब हुआ। इसके लगातार 60 शो हुए। देखने वालों के दिल पर कुछ ऐसा जादू चला कि वो लौट-लौट कर दुबारा-तिबारा नाटक देखने आने लगे। इस कामयाबी से ख़ुश कंपनी के मालिकों ने फ़ौरन ही आग़ा हश्र की तनख़्वाह 15 रुपए से बढ़ाकर 40 रुपए कर दी।
''हमारे ड्रामे की तक़रीबन सौ बरस की तारीख़ में आम-ओ-ख़ास दोनों में जो मक़बूलियत आग़ा हश्र के हिस्से में आई, उससे दूसरे लिखने वाले महरूम रहे। जिस ज़माने में हश्र ने ड्रामे की दुनिया में कदम रखा अहसन (लखनवी) और (नारायण प्रसाद) बेताब का बड़ा शुहरा था। नाटक कम्पनियों में उनके ड्रामें मुंह मांगे दामों में बिकते थे। लेकिन जब आग़ा हश्र के ड्रामे स्टेज पर आए तो कम्पनी के मालिकों ने महसूस किया कि इस नौजवान ड्रामाटिस्ट के ड्रामों में कोई न कोई ऐसी बात है जो देखने वालों को अपनी तरफ़ खींचती है। चुनांचे हर अच्छी कम्पनी की कोशिश होती थी कि आग़ा हश्र उनके लिए ड्रामे लिखें। और हुआ भी यूं की हश्र का तालुक़ जिस कम्पनी के साथ हुआ उसके दिन फिर गए।'' (आग़ा हश्र और उनके ड्रामे - वक़ार अज़ीम - उर्दू मरकज़, लाहौर)
मादन थियेटर कम्पनी के एक मशहूर एक्टर मुहम्मद तुफ़ैल साहब ने आग़ा साहब की मक़बूलियत का हाल बयान करते हुए एक वाकिये का ज़िक्र किया है।
''...मैं जिस कम्पनी में काम करता था उसकी हालत कई महीने से बहुत ख़राब थी। आग़ा साहब कम्पनी में आए तो सबसे पहले 'सिल्वर किंग' स्टेज करवाया। उस खेल को इतना पसंद किया गया कि सात महीने तक चलता रहा। कम्पनी की आमदनी बहुत बढ़ गई। मुलाज़िमों की तनख़्वाहों के अलावा अलाऊंस भी मिलने लगे। एक शो की आमदनी मुलाज़िमीन में तक्सीम हुई। इस खेल से कम्पनी की शुहरत बहुत फैल गई।'' ('आगा हश्र मादन थियेटर में', रोज़नामा 'इमरोज़' लाहौर, 1 मई 1950)
आग़ा हश्र की ड्रामा निगारी के दौरे को चार हिस्सों में बांटकर देखा गया है;
पहला दौर 1901 से 1905 : इस दौर में अल्फ़्रेड थियेट्रीकल कंपनी के लिए उन्होंने पांच ड्रामे 'मुरीद-ए-शौक़', 'मार आस्तीन' (आस्तीन का सांप), 'पाक दामन', 'मीठी छुरी' और 'असीर-ए-हिर्स' लिखे।
दूसरा दौर : 1906 से 1909 : इन तीन बरसों में - 'शहीदे नाज़', 'ख़ूबसूरद बला', 'सफ़ेद ख़ून' और 'सैदे हवस' का शुमार है।
तीसरा दौर : 1910 से 1916 : यह आग़ा साहब का मकामे उरूज़ है, जिसमें 'सिल्वर किंग', 'ख़्वाबे हस्ती', 'यहूदी की लड़की', 'सूरदास' (बिल्वा मंगल), 'बन देवी' और 'पहला नक़्श' जैसे बेहद कामयाब ड्रामे उन्होंने लिखे।
चौथा दौर : 1917 से 1924 : यह आग़ा हश्र के कलकत्ते के कयाम का ज़माना है। इस ज़माने में आग़ा साहब ने ज़्यादातर हिंदी के ड्रामे लिखे। 'मधुर मुरली',  'भागीरथ गंगा', 'भारत रमणी' (क़दीम बन देवी), 'हिंदुस्तान' (जिसके तीन हिस्से हैं), 'श्रवण कुमार', 'अकबर' और 'आंच', 'तुर्की हूर', 'आंख का नशा', 'पहला प्यार' और 'भीष्म' इस दौर की यादगार हैं।
'सीता बनवास' (28), 'रुस्तम-सोहराब' (29) जैसे और 1930 से 32 तक 'धर्मी बालक', 'भारती बालक' और 'दिल की प्यास' ड्रामों की गिनती है।
आग़ा हश्र कश्मीरी के नाटकों की कामयाबी का सिलसिला ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता त्यों-त्यों बाज़ार में उसकी मांग बढ़ती जाती। तमाम ड्रामा कम्पनियां उन्हें बेहतर तनख़्वाह देकर अपनी कंपनी में शामिल करने की कोशिशें करती रहती थीं। इसी वजह से एक बार जब आग़ा साहब अल्फ़्रेड की 40 रुपए की नौकरी छोड़कर 150 रुपए माहवार की तनख़्वाह पर दूसरी कंपनी में चले गए तो अल्फ़्रेड के मालिक खटाऊ ने उन्हें 350 रुपए देकर वापस खेंच लिया। यह खेंच-तान लगातार चलती रही और लगातार आग़ा हश्र की तनख़्वाह में इजाफ़ा होता रहा।
हिंदुस्तान भर के ड्रामा देखने के शौक़ीन लोगों के बीच आग़ा हश्र की मक़बूलियत में हर दिन इस क़दर इज़ाफ़ा होता जाता था कि यकीन करना मुश्किल होता था। अपनी इसी कामयाबी को भुनाने की गरज़ से चंद तजुर्बेकार दोस्तों की सलाह की बिना पर 1909 में उन्होंने हैदराबाद में ख़ुद अपनी एक कंपनी - द ग्रेट अल्फ़्रेड थियेट्रीकल कंपनी आफ़ हैदराबाद - कायम कर ली।
इसी कंपनी के बैनर में 'ख़ूबसूरत बला', 'सिल्वर किंग उर्फ़ नेक परवीन' और 'यहूदी की लड़की उर्फ़ मशिर्की हूर' जैसे ड्रामे खेले गए, जो बेहद कामयाब साबित हुए।
आग़ा हश्र ने सलाहकारों की बात मानकर कंपनी बना तो ली और कामयाब भी हुए लेकिन उनमें कारोबारी सलाहियत बिल्कुल भी न थी। नतीजतन बमुश्किल ढाई साल बाद ही उन्होंने कंपनी बंद कर दी और 1912 में जालंधर में भाई ज्ञान सिंह की तश्कील ड्रामा कंपनी में 500 रुपए माहवार की नौकरी कर ली।
इंसान अपनी फ़ितरत से आज़ादी पसंद होता है। और इंसान अगर आग़ा हश्र सा हो तो उसे तो इस बात की कुछ ज़्यादा ही तलब होगी। नौकरी के दौर में बाकी तमाम झंझटों से भले ही निजात मिल जाती हो लेकिन पूरी तरह से काम की आज़ादी नहीं मिल पाती। आग़ा हश्र जैसी शख़ि्सयत को भी अक्सर इस तरह की दुश्वारियों से दो-चार होना पड़ता था।
हर दौर में पूंजी लगाकर बैठे कंपनी के मालिकान को इस बात का भरम रहता रहा है कि वो कारोबार बेहतर जानते हैं। इसी यकीन के भरोसे वो हर काम में दख़ल देना ज़रूरी समझते हैं। इस मामले में भी ड्रामा कंपनी के मालिकों और उनके मुंह लगे चंद मुसाहिबों की बार-बार की दख़लंदाज़ी से आग़ा हश्र झुंझला उठते थे। अपने लिखे में किसी तरह की फेर-बदल या कांट-छांट उन्हें क़तई बरदाश्त न होती थी। और जब ऐसा हो जाता तो वो आज़ादी की अंगड़ाई लेकर खड़े हो जाते थे।
1913 में भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने एक बार फिर अपनी ही एक ड्रामा कंपनी - इंडियन शेक्सपीयर थियेट्रीकल कंपनी - लाहौर में कामय कर ली।
''1913 में आग़ा हश्र ने अपनी ड्रामों की अदाकारा हूर बानो से लाहौर में शादी कर ली। इसी ज़माने में उन्हें देहली में एक अवामी इस्तक़बालिया दिया गया जिसमें उन्हें 'इंडियन शेक्सपीयर' के ख़िताब से नवाज़ा गया। लाहौर पहुंच कर उन्होंने अपनी दूसरी कंपनी इंडियन शेक्सपीयर थियेट्रीकल कंपनी की बुनियाद डाली। यह कंपनी मुख़्तलिफ़ शहरों का दौरा करती हुई कलकत्ता पहुंची। यहां आग़ा हश्र रेल्वे प्लेटफ़ार्म से नीचे गिर गए जिसके नतीजे में उनके दाएं पैर की पिंडली की हड्डी टूट गई। चुनांचे उन्हें काफ़ी अरसे अस्पताल में रहना पड़ा। इसी अलालत के दौरान उन्होंने बिस्तर पर लेटे-लेटे अपना पहला हिंदी ड्रामा 'भगत सूरदास उर्फ़ बिल्वा मंगल' (1914) लिखवाया जो उनके छोटे भाई आग़ा महमूद शाह की हिदायत में पहली बार स्टेज हुआ।'' (कुल्लियात आग़ा हश्र कश्मीर - सं. आग़ा जमील कश्मीरी - याकूब यावर - क़ौमी क़ौंसिल बराए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान नई दिल्ली)
इस दौर में आग़ा हश्र की ज़ाती ज़िंदगी में कई तरह के हादिसात पेश आए, कई तूफ़ान आए जिन्होंने उन्हें बुरी तरह से हिला डाला। पहले तो टांग टूटने की वजह से ख़ुद अरसे तक बिस्तर दाख़िल रहे। उसके बाद जब वो ड्रामा लेकर बनारस गए हुए थे तो वहां उनके घर एक बेटे की पैदाइश हुई। लेकिन यह ख़ुशी बहुत दिन कायम न रह सकी। तीन माह बाद ही इस बच्चे की मौत हो गई।
इस सदमे से उबर कर कंपनी के साथ ड्रामा लेकर शहर-दर-शहर घूमते जब वापस सियालकोट पहुंचे तो वहां एक और बड़ी ट्रेजडी उनका इंतज़ार कर रही थी। लाहौर में आग़ा साहब की शरीक़-ए-हयात हूर बानो का एक लंबी बीमारी के बाद इंतकाल हो गया।
इस हादिसे ने आग़ा साहब को तोड़ डाला। इस सदमे से उबरने में उन्हें काफ़ी वक़्त लगा। आख़िर एक लंबी ख़ामोशी के बाद उन्होंने अपनी कंपनी पर ताला डालकर एक बार फिर कलकत्ते का रुख़ किया। मादन थियेटर्स की दावत पर 1918 में उन्होंने फिर से नौकरी क़ुबूल कर ली। धीरे-धीरे उन्होंने वापस अपनी रफ्तार पकड़ी और फिर एक के बाद एक कामयाब ड्रामों की तख़्लीक़ की।
''इस कंपनी के लिए उन्होंने 'मशिर्की सितारा उर्फ शेर की गरज' (1918) लिखा। चूंकि कलकत्ते के मारवाड़ी अवाम हिंदी ड्रामों के शौक़ीन थे, इसलिए आग़ा हश्र ने इस ज़माने में बतौर-ए-खास हिंदी में लिखना शुरू किया। 'मधुर मुरली' (1919), 'भारत रमणी' (1920), 'भगीरथ गंगा' (1920) और 'प्राचीन और नवीन भारत' (1921) जैसे ड्रामे लिखे। उसके बाद उर्दू में 'तुर्की हूर' (1922), और हिंदी में 'संसार चक्र उर्फ पहला प्यार' (1922) लिखा। इस ज़माने में स्टार थियेट्रीकल कंपनी के लिए उन्होंने बंगला ज़बान में 'अपराधी के' (1922) और 'मिस्र कुमारी' (1922) भी लिखे।'' (कुल्लियात आग़ा हश्र कश्मीरी)
हश्र फ़िल्मी दुनिया में
कलकता की मादन कंपनी का एक ज़बरदस्त गौरवशाली इतिहास रहा है। इस कंपनी के संस्थापक थे जमेशदजी फ्रामजी मादन। जमशेदजी उन्नीसवीं शताब्दी के उस दौर के रंगमंच कलाकार थे जब स्टेज पर मर्द, औरतों के भेस में किरदार निभाते थे। जमशेदजी भी ऐसे ही कलाकारों में से एक थे।
''जे.एफ़. मादन, जिन्होंने आगे जाकर कलकता में एक मनोरंजन की दुनिया में विशाल साम्राज्य स्थापित किया, स्टेज पर ज़नाना किरदार निभाते थे। उन्हें एक बेहतरीन  गायक माना जाता था और सिर पर मटकी रखकर शानदार झूमर डांस भी करते थे।'' (स्टेजिज़ आफ़ लाईफ - कैथरीन हैंसन - एंथम प्रेस)
जमशेदजी ने ही 1890 में मादन थियेटर्स की स्थापना की। पहले ड्रामे और फिर उनके बेटे जीजीभाय जमशेदजी मादन ने फ़िल्म की दुनिया में कदम रखा और ज़बरदस्त धाक जमाई। पहले सिनेमाघर कायम किए और फिर फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूशन और फिर प्रोडक्शन।
साइलेंट सिनेमा के दौर में जीजीभाय ने जब फ़िल्म निर्माण का कारोबार शुरू किया तो आग़ा हश्र को भी साथ ही रखा। 1919 से 1924 के बीच आग़ा साहब के लिखे नाटकों के फ़िल्मी वर्शन बनाए। इनमें से कुछ फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय भी किया।
1925 के आते-आते आग़ा हश्र को एक बार फिर नाटक कंपनी बनाने की सूझी। द ग्रेट अल्फ़्रेड थियेट्रीकल कंपनी एक बार फिर कायम हुई। इस बार नाम के आख़िर में हैदराबाद की जगह था कलकता। कुछ बरस बाद इस कंपनी का भी वही हश्र हुआ जो पहली दो का हुआ।
1929 में इम्पीरियल थियेट्रीकल कंपनी, बम्बई के लिए 'रुस्तम सोहराब' लिखकर फिर उसी मैदान में लौट आए। एक बार फिर मादन के साथ जुड़कर कुछ ड्रामे लिखे।
1930 के आसपास जे.जे. मादन ने बोलता सिनेमा बनाने का फ़ैसला किया। पहली फ़िल्म के लिए चुना आग़ा हश्र की लिखी 'शीरीं फ़रहाद'। मादन श्रेष्ठ गुणवता के चक्कर में विदेशी मशीनरी के इंतज़ार में मार खा गए और बम्बई में बैठे अर्देशिर ईरानी ने उनसे पहले 'आलम आरा' (31) रिलीज़ करके पहली बोलता फ़िल्म बनाने का सेहरा पहन लिया। 'शीरीं फ़रहाद' रिलीज़ हुई 30 मई 1931 को, मतलब 'आलमारा' के कोई ढाई माह बाद रिलीज़ में पिछड़कर भी यह फ़िल्म मेकिंग और टेकनीक के लिहाज़ से बहुत बेहतर साबित हुई और 'आलमआरा' से कहीं ज़्यादा कारोबार किया।
इसी फ़िल्म के ज़रिए आग़ा हश्र ने फ़िल्मी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा, नाटक को फ़िल्म में किस तरह तब्दील कर नए अंदाज़ में पेश किया जा सकता है या किया जाना चाहिए, 'शीरीं फ़रहाद' इसकी एक मिसाल थीं। किस तरह ड्रामे से इतर फ़िल्म के लिए गीत-संगीत-नाच और डायलाग के बीच एक संतुलन कायम किया जाए, यह बात उन्होंने अपनी पहली फिल्म स्क्रिप्ट से ही दिखा दी।
इस कामयाबी से आग़ा हश्र को भी बड़ा फायदा हुआ। फ़िल्मी दुनिया में भी उनकी मांग बढ़ गई। मादन के लिए 'भारती बालक' (1931), 'आंख का तारा' और 'बिल्वा मंगल' (1932) के बाद 1933 में न्यू थियेटर्स के लिए अपने ही नाटक 'यहूदी की लड़की' को फ़िल्म स्क्रिप्ट में बदला। इस फ़िल्म के लिए कुंदनलाल सहगल की आवाज़ में हश्र के गीतों-ग़ज़लों का नशा आज तक कायम है। ''ये तसर्रुफ़ अल्ला-अल्ला तेरे मैख़ाने में है/अक़्ल की सब पुख़्ता-कारी, तेरे दीवाने में है'', ''लाख सहीं हा पी की बतियां/एक सही ना जाए'' और ''लग गई चोट करेजवा में हाय राम'' इसका नमूना हैं। इसी तरह रतन बाई की आवाज़ में ''अपने मौला की जोगन बनूंगी, वियोगन बनूंगी' भी इसी दर्जे में आता है।
इसी कंपनी की 'चंडीदास' (1934) में सहगल और उमा शशी की आवाज़ में 'प्रेम नगर में बनाऊंगी घर मैं, तज कर सब संसार' आज तक पुराना नहीं हुआ है। इसी फ़िल्म में 'बसंत ऋतु आली, आली, फूल खिले डाली-डाली' (उमा शशी) और 'तड़पत बीते दिन रैन' (सहगल) भी बेहद कामयाब हुए।
टाकी सिनेमा के आगाज़ के वक़्त आग़ा हश्र काफ़ी बीमार थे। उनके पैर की एक चोट किसी तरह ठीक होने ही न आती थी। हालत, 'मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यूं-ज्यूं दवा की', वाली हो चली थी। मगर आग़ा साहब जिस्मानी तकलीफ को भी दर किनार कर काम करते रहे। 1934 में उन्होंने अपनी एक फिल्म कंपनी बना ली और अपने ही ड्रामे 'रुस्तम सोहराब' पर फ़िल्म बनाने की तैयारी में जुट गए। इसी तैयारी के सिलसिले में लाहौर गए जहां मर्ज़ और बढ़ गया।
दोस्त-अहबाब के दबाव में आकर लाहौर में रुक तो गए लेकिन फ़िल्म बनाने की ज़िद इस क़दर थी कि उन्होंने लाहौर में ही दूसरा प्रोजेक्ट 'भीष्म प्रतिज्ञा' शुरू कर दिया। शूटिंग भी शुरू हो गई। नतीजे में सेहत की लगातार अनदेखी होती रही।
18 अप्रैल 1935 को आख़िर इस मर्ज़ ने काम तमाम कर दिखाया। हिंदुस्तानी थियेटर के 'शेक्सपीयर' का 'कर्टेन काल' हुआ तो इस बार तालियों की गडग़ड़ाहट की जगह आंसुओं का सैलाब था।
राईटिंग प्रोसेस
आग़ा साहब के किरदार के कई अनाखे रंग हैं। उनका राईटिंग प्रोसेस भी इन्हीं रंगों में एक रंग है। कहा जाता है कि उन्होंने सिवाय अपने एक शुरुआती नाटक के अपने हाथ से कोई नाटक नहीं लिखा।
''उनका मामूल यह था कि वह बरजस्ता (तत्काल/बिना किसी पूर्व तैयारी) मक़ालमात बोलते जाते थे और ब-यक-वक़्त कई मुंशी उन्हें कलमबंद करते रहते थे। मुंशियों के लिखे हुए इन मसौदों को वह शायद हमेशा देखते भी नहीं थे। और उन मुंशियों की उर्दू बस वाजिबी सी थी और इम्ला नाकिस। (विकृत शब्द विन्यास) चुनांचे इन मसौदों में जगह-जगह इम्ला की गलतियां मौजूद हैं, जिन्हें मुर्तबीन (संग्राहक) ने दुरुस्त किया है। आग़ा हश्र की नज़र में इन मसविदों का मक़सद सिर्फ़ इतना ही था कि हुकूमत की तरफ़ से सेंसर के लिए मुक़रर्र हाकिम मजाज़ कहानी को समझ ले कि इसमें कोई क़ाबिले-ऐतराज़ बात नहीं है और किरदार अदा करने वाले एक्टर इनकी मदद से अपने मक़ालमे याद कर लें। उन्होंने इन मसविदों की तैयारी के दौरान कभी यह सोचा भी न होगा कि इनका इस्तेमाल इन्हें शाया करने के लिए भी किया जा सकता है।'' (कुल्लियात)
हिंदुस्तान में आग़ा हश्र की कुल्लियात 2003 में छपकर सामने आई लेकिन उससे बहुत पहले 1960 में आग़ा हश्र के ड्रामों पर एक बड़ा काम वक़ार अज़ीम साहब ने किया जो किताब की शक्ल में ''आग़ा हश्र और उनके ड्रामे'' के नाम से उर्दू मरकज़, लाहोर से प्रकाशित है। वक़ार अज़ीम ने भी आग़ा हश्र की इस लापरवाही के नतीजे में हुए घपलों पर बड़ी हैरान करने वाली सच्चाई का खुलासा किया था।
''यूं आग़ा हश्र के बाज़ ड्रामों की तसहीह (दुरुस्त) करके उन्हें शाया करने का ख़्याल एक और वजह से भी पैदा हुआ। फरवरी 1950 में एम.ए. (उर्दू) के तुल्बा को नाविल और ड्रामा पढ़ाने का काम मेरे सुपुर्द हुआ तो बाज़ दूसरी चीज़ों के अलावा आग़ा हश्र के ड्रामों की तलाश शुरू हुई।
बाज़ार में ख़ासी तलाश व जुस्तजू के बाद सिर्फ़ तीन ड्रामें किसी कबाड़ी के यहां से दस्तयाब हुए। कुछ ड्रामे पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी में मिले। और कुछ मुहतरमी इम्तियाज़ अली 'ताज' साहब के कुतुब खाने में। पब्लिक लाइब्रेरी और ताज साहब के ज़ख़ीरे में वो तीनों ड्रामे भी मौजूद थे, जो मैने कबाड़ी से ख़रीदे थे। यह सब ड्रामे लाहौर के नाशिर (प्रकाशक) संत सिंह ने छापे थे। काग़ज़ और किताबत के घटियापन के अलावा बेशुमार अग़लात (ग़लतियों) से पुर थे। मशहूर है कि नाशिर साहब किसी न किसी तरह उन एक्टरों को इकट्ठा कर लेते थे जिन्होंने आग़ा हश्र के ड्रामों में पार्ट किए थे। उनकी ज़बान से सुन-सुन कर ड्रामे मुरत्तब (संग्रहीत) करवा लेते थे। इस तरह मुरत्तब किए हुए ड्रामों में ग़लतियों का होना नागुज़ीर (आवश्यक) था। अव्वल तो इसलिए कि पार्ट एक्टरों के ज़हन में ज़्यादा अरसे तक महफ़ूज़ नहीं रह सकते। और दूसरे इसलिए कि यह एक्टर अपनी कम इल्मी की बिना पर आग़ा हश्र के मक़ालमों और गानों में जो तहरीफ़ (मनमानी बदल) कर लेते थे उससे असल की सूरत ख़ासी बदल जाती थी। कभी-कभी तो ये भी होता था कि एक्टर एक ड्रामे का पार्ट दूसरे ड्रामे के पार्ट में मिला देता था। और इस तरह कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा मिलकर यह भानुमती का पिटारा तैयार हो जाता था।
ड्रामे का मसौदा यूं तैयार हो गया तो वो क़ातिब के सुपुर्द किया गया। क़ातिब ने अपनी तरफ़ से उसमें कुछ इस्लाहें दीं। कापियां पढऩे वालों ने भी हस्बे-तौफ़ीक़ (अपनी समझ से) उसमें कुछ तरमीमे और इज़ाफ़े किए और इस तरह कापी छापाख़ाने पहुंच गई। संगसाज़ी और तबाअत की मंज़िलें आईं तो इबारतों और लफ़्ज़ों की सूरतें और मस्ख (विकृत) हो गई। और यूं जब आग़ा हश्र का कोई ड्रामा छपकर तैयार हुआ तो उसमें और असल में बाज़ ऐसे फ़र्क पैदा हो गए जो तसव्वुर में भी मुश्किल से आ सकते हैं। यही ड्रामे हैं जो तलाश व जुस्तजू के बाद किसी कबाड़ी की दुकान से किसी लाइब्रेरी से, या किसी अदब नवाज़ के ज़ाती सरमाए से मिल जाते हैं। और पढऩे वाला उन्हीं को आग़ा हश्र के ड्रामे समझकर पढऩे पर मजबूर होता है। लेकिन हक यूं है कि हमें संत सिंह का बेहद ममनून (शुक्र गुज़ार) होना चाहिए कि उसने जिस तरह भी हो इन ड्रामों को महफ़ूज़ करने की सूरत तो पैदा कर दी। वरना अजब नहीं था कि लोग आग़ा हश्र के नाम से तो वािकफ़ होते और उनकी बुरी-भली कोई चीज़ देखने तक को नसीब न होती।''
बाद को बड़ी मेहनत से वक़ार अज़ीम साहब ने ख़ुद के मुताले और दीगर जानकारों की मदद से सुधार किया। इन मददगारों में इम्तियाज़ अली ताज का नाम सरे-फ़ेहरिस्त है।
दिलचस्प बात यह है कि इस घपले की शुरुआत ख़ुद आग़ा साहब की ज़िंदगी में ही हो चुकी थी। वो सब कुछ देखकर भी इसकी अनदेखी करते रहे।
मैंने उनसे पूछा : ''आग़ा साहब! आपके ड्रामे जो बाज़ार में बिकते हैं...'' मैंने अभी जुमला पूरा भी न किया था कि आग़ा साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा ''लाहौल वला... आग़ा हश्र के ड्रामे और... के चीथड़ों पर छपें... बग़ैर इज़ाज़त के इधर-उधर से सुन-सुनाकर छाप देते हैं।'' उसके बाद उन्होंने बहुत ही मोटी गाली उन पब्लिशरों को दी, जिन्होंने उनके ड्रामे छापे थे।
''मैंने उनसे कहा : ''आप उन पर दावा दाइर क्यों नहीं करते?''
आग़ा साहब हंसे : ''क्या वसूल कर लूंगा इन टट पूंजियों से?''
बात दुरुस्त थी। मैं ख़ामोश हो गया।''
(मंटो - आग़ा हश्र से दो मुलाक़ातें)
दास्तान-ए-इश्क : आग़ा हश्र - मुख़्तार बेग़म
आग़ा साहब की शख़ि्सयत का एक और भी रंग था जिसके बूते उन्होंने अपनी शायरी और अपनी ज़िंदगी को रंगीन बनाया। वह था उनकी रूमानियत। और इस रूमानियत का सबसे नुमाया रंग नज़र आता है उनके आख़िरी रूमान की कहानी में; यानी मुख़्तार बेग़म की कहानी में।
मुख़्तार बेग़म अपने दौर की मशहूर गायिका-नायिका थीं। लाहौर के बाज़ारे हुस्न से ताल्लुक़ रखती थीं। मशहूर गुलूकारा फ़रीदा ख़ानम उनकी छोटी बहिन थीं और मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां उनकी मुरीद। नूरजहां के अपने बयान के मुताबिक उन्होंने मुख़्तार बेग़म से मुतासिर होकर ही सफ़ेद कपड़े पहनना शुरु किए, उन्हीं की तरह स्टेज पर खड़े होकर उन्हीं के अंदाज़ में गाने की कोशिश की।
मुख़्तार बेगम एक वक़्त बाज़ार से उठकर रंगमंच और सिनेमा की दुनिया में जगह बनाने की गरज़ से कलकता जा पहुंची थीं। उस वक़्त कलकते में आग़ा हश्र के हुनर और नाम दोनों की धूम थी। लिहाज़ा हर नया आने वाला उनका आशीर्वाद प्राप्त करने और कुछ सीखने के लिए उनकी झोपड़ी पर हाज़िरी ज़रूर देता था। मुख़्तार बेग़म ने भी कलकता पहुंचकर इसी रिवायत को निभाया।
''फ़न सीखने के लिए मेरा आग़ा हश्र साहब के पास आना-जाना शुरु हुआ। यह मुलाक़ातें ख़ुलूस और अपनाईयत के रिश्ते मज़बूत करती चली गई। इतिफ़ाक से इन्हीं दिनों मेरे पेट में शदीद दर्द रहने लगा। इस दर्द की वजह से बाज़ औक़ात तो पूरी रात आंखों में कटती। डाक्टरों से मशविरा किया तो उन्होंने फ़ौरी आपरेशन के लिए हुक्म सादिर फ़रमाया जिस पर वालिद साहब बहुत परेशान हुए क्योंकि उस ज़माने में लोग आपरेशन के लफ़्ज़ से ख़ौफ़ज़दा हो जाया करते थे। आपरेशन का मतलब मौत समझा जाता था। चुनांचे हमारे घर में रोना-पीटना शुरु हो गया।
हस्पताल जाने से पहले मैं आग़ा साहब के घर गई तो वह घर में मौजूद नहीं थे। मैं दो सतरें लिखकर छोड़ आई : 'आज मेरा आपरेशन है। ज़िंदगी मौत से लडऩे जा रही है। अगर ज़िंदगी जीत गई तो ज़रूर मुलाक़ात होगी। वरना, ख़ुदा हाफ़िज़'।
हस्पताल की नर्स मुझे ट्राली में बैठाकर आपरेशन थियेटर में ले जाने वाली थी कि आग़ा साहब भी पहुंच गए। आप बहुत घबराए हुए थे। हसरत-ओ-यास से मेरी तरफ़ देख रहे थे और बड़े मुल्तिजाना लहजे में नर्स से कहने लगे : 'क्या आप मुझे इज़ाज़त देंगी कि इन्हें मैं आपरेशन थियेटर तक ले जाऊं?' वह सब आग़ा हश्र की शख़ि्सयत से व$िकफ़ थे, इसलिए इंकार न हुआ।
यह मंज़र भी देखने के क़ाबिल था। सबकी नज़रें इंडियन शेक्सपीयर पर जमी थीं। आग़ा साहब की हालत देखकर मेरा दिल तेज़ धड़कने लगा। उन्होंने अपने आंसू रोक रखे थे और ज़बान पर मेरे लिए दुआओं का एक सिलसिला था, साथ ही उन्होंने मुझे अपना ये शेर सुनाया :
सब कुछ ख़ुदा से मांग लिया, तुझको मांगकर
उठते नहीं हैं हाथ मेरे, इस दुआ के बाद
मैंने तुझे अपने ख़ुदा के सुपुर्द किया और जो चीज़ ख़ुदा के सुपुर्द कर दी जाए उसकी वह ख़ुद हिफ़ाज़त करता है। इसीलिए वह सबसे बड़ा इंसाफ़ करने वाला है। मैंने उन्हें तस्सली देते हुए कहा, ''ज़िन्दगी और मौत ख़ुदा के हाथ में है लेकिन मेरा दिल यह कहता है कि आपकी दुआ ज़ुरूर क़बूल होगी।'' (परवेज़ राही, लाहौर की पुस्तक 'आग़ा हश्र कश्मीरी और मुख़्तार बेग़म' में मुख़्तार बेगम का बयान)
और फिर हुआ भी वैसा ही। मुख़्तार बेग़म का आपरेशन कामयाब हुआ। उनकी सेहतयाबी के बाद दोनों की शादी भी हो गई।
आग़ा साहब मुख़्तार बेग़म से बेइंतिहा मुहब्बत करते थे। इसी मुहब्बत ने उनकी ज़िंदगी में कई बदलाव भी किए। बकौल मुख़्तार बेग़म : ''मैं जब उनकी ज़िंदगी में दाख़िल हो गई तो उन्होंने बताया कि मैं सारी ज़िंदगी अपने आप को मिसरा समझता रहा। तुम्हारे मिलने से शेर बन गया हूं। मेरी नामुकमिल ज़िंदगी के साथ-साथ तुमने मेरी शाइरी को भी मुकमिल कर दिया है। अब मेरी तहरीर इस क़दर बलंदी पर जा पहुंची है कि मुझे कोई दूसरा नज़र ही नहीं आता।''
आग़ा हश्र के बलंदी वाले दावे को साबित करती हुई उनकी एक ग़ज़ल है, जो उनहेंने अपने ड्रामे 'औरत का प्यार' में इस्तेमाल की है। ड्रामे में इसे मुख़्तार बेग़म ही गाती हुई दिखाई देती थीं। इस ग़ज़ल को अपने दौर में इस बला की मक़बूलियत हासिल थी कि दर्शकों के दबाव में एक ही शो में इसे दस-दस बार तक दोहराना पड़ा था।
ग़ज़ल है :
चोरी कहीं खुले न नसीमे बहार की
ख़ुश्बू उड़ा ले लाई है गेसुए यार की
अल्लाह रखे उसका सलामत गुरुर-ए-हुस्न
आंखों को जिसने दी है सज़ा इंतज़ार की
गुलशन में देखकर मस्ते शबाब को
शर्माए जा रही है जवानी बहार की
ऐ मेरे दिल के चैन मेरे दिल की रोशनी
आ, और सुबह कर दे शबे इंतज़ार की
ऐ 'हश्र' देखना तो यह है चौदहवीं का चांद
या आसमां के हाथ में है तस्वीर यार की
इस ग़ज़ल को अनेक नामवर गुलूकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में गाया है और यह सिलसिला आज भी बरक़रार है।
आग़ा हश्र की शाइरी
ड्रामाई दुनिया से आग़ा हश्र का नाम इस क़दर वाबस्ता हो गया कि उनकी शाइरी का सही मूल्यांकन ही नहीं हो पाया। वरना हक़ीक़त यह है कि उनके लिखे सैकड़ों शेर आज भी लोगों की ज़बान पर होते हैं लेकिन बिना अपनी वल्दियत के।
इस बात का सबसे बड़ा सुबूत उनका मशहूरे-ज़माना शेर, ''सब कुछ ख़ुदा से मांग लिया, तुझको मांग कर/उठते नहीं है हाथ मेरे, इस दुआ के बाद' तो है ही लेकिन उनका बकाया कलाम भी क्या ख़ूब रूमानियत से लबरेज़ है।
अगर सिर्फ़ नमूने भर को देखा जाए तो :
सू-ए-मैक़दा न जाते तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते तो कुछ और बात होती
गो हवा-ए-गुलिस्तां ने मेरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती
ये खुले-खुले से गेसू, इन्हें लाख तू संवारे
मेरे हाथ से संवरते, तो कुछ और बात होती
गो हरम के रास्ते से वो पहुंच गए ख़ुदा तक
तेरी रहगुज़र से जाते तो कुछ और बात होती
आग़ा हश्र कश्मीरी - आख़िरी मंजर
आग़ा हश्र की मौत पर उनके चाहने वालों के साथ उनके हरीफों ने भी ख़ूब आंसू बहाए। दिल खोल कर उनके हुनर को तस्लीम किया, दाद दी, सजदे किए और उनकी शान में कसीदे पढ़े। हफ़ीज़ जालंदरी, फ़रहत उल्ला बेग, मुंशी दिल लखनवी और न जाने किस-किस ने यह काम किया। हश्र के पेशेवर रक़ीब पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' भी ख़ुद को न रोक सके और जी खोलकर अपने जज़्बात का इज़हार किया।
ऐ हश्र तू रक़ीबे फन था मेरा
आख़िर मुझे तूने जीत कर ही छोड़ा
लिखने में तो था ही तू हमेशा आगे
मरने में भी बेताब से पीछे नहीं रहा
नाटक जो लिखा मुल्क में मक़बूल हुआ
फ़िक़रा जो तराशा वही मंक़ूल हुआ
था रंगे ज़बां भी इस क़दर मानी ख़ेज़
स्टेज पे थूका भी तो फूल हुआ
(पर्दा)


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