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अप्रैल 2017

मयनमार: भगवानों (और तानाशाहों) की सरज़मीन पर..

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती, परबत बरत..

                                                                  
कई लोगों ने मुझसे पूछा  कि मयनमार के रक्तरंजित इतिहास में कहीं हमारे अपने देश के वर्तमान या कि आने वाले दिनों की रूपक कथा तो शामिल नहीं है? हम सब चाह रहे हैं कि ऐसा न हो, लेकिन जिस मदांध, जन-विरोधी और एक विशिष्ट वर्ग के स्वार्थों की रक्षा करने वाले लगभग तानाशाह युग में हम जी रहे हैं, उसमें इन परेशान करने वाले सवालो का उठना लाजिमी है। दरअसल धर्म, जाति और विपन्नता के आधार पर ध्रुवीकृत किए जा रहे एक समाज का हश्र उसी जैसे किसी दूसरे समाज से अलग या मुख्तलिफ  हो ही नहीं हो सकता। यह महज़ इत्त$फाक नहीं है कि 1987 में मयनमार में हुई भयानक नोटबंदी और अपने देश की  2016 में रातोंरात तुगलकी फरमान द्वारा घोषित नोटबंदी के भयानक परिणामों के बीच आपको कोई खास फर्क दिखाई नहीं देगा। दोनों में ही समाज का सबसे बड़ा वंचित वर्ग अपनी  खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से रातोंरात वंचित हो, काम-धंधा छोड़ बैंकों की कतारों में खड़ा होने पर मजबूर कर दिया गया। यह भी संयोग नहीं है कि दोनों फरमानों के जारी किए जाने के बाद दोनों देशों में  आर्थिक संस्थानों, बैंकों और छपे हुए नोटों की सारी विश्वसनीयता चूर-चूर हो गयी। इसी के समानांतर  तंत्र की सारी प्रचार मशीनरी इस कदम को चोरबाज़ारी, आतंकवाद और काले धन के विरुद्ध छेड़ा गया ऐतिहासिक अभियान और गरीब जनता के पक्ष में लिया एक अभूतपूर्व कदम बतलाने की देशव्यापी कवायद में जुट गयी। मयनमार में भी ठीक यही हुआ था। और हिटलर के ज़माने में भी नाज़ियों द्वारा गढ़ा गया हरएक झूठ इसी तरह सौ-दो सौ बार उच्चारित किया जाने के बाद किसी सत्य की सी विश्वसनीयता धारण करता प्रतीत होता था। तुलना अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती है, लेकिन हिटलर के समय उनके नुमाइंदे गैस चेम्बरों के बाहर कतारों में मौत का इंतज़ार करते  यहूदियों को समझाते रहे थे कि चैम्बरों में सरकार की ओर से गर्म पानी के स्नान और जुएं मारने की मुकम्मल व्यवस्था की गयी है। कुछ इसी तर्ज़ पर वर्तमान में हमारे यहां  बैंकों और ए टी एमों के बाहर लगी लंबी कतारों में खड़े असहाय लोगों को समझाया गया कि उनकी कैश एवं बैंकों में उम्र भर अर्जित सारी संपत्ति पर अंकुश लगाकर सरकार दरअसल पूरे देश से काले धन का आमूल सफाया करने वाली है। दोनों हालात काफी अलग-अलग हैं, लेकिन प्रचार पद्धति हू-ब-हू वही है। हिटलर के ज़माने में भी यहूदी सामूहिक प्रतिरोध दिखाने की जगह चुपचाप कतारों में खड़े हो गये थे और हमारे यहां भी अधिकांश जनता घंटों लाइनों में खड़े होने को देशभक्ति एवं किसी संदिग्ध स्वर्णिम भविष्य के लिए किया जाने वाला सर्वोच्च बलिदान समझकर मौन है। देखना होगा कि यह धैर्य परीक्षा चुनावों के दौरान क्या रंग लाती है। सात्र्र ने कहा भी था कि समाज की सबसे संपन्न शक्तियां जब आपसी सम्पत्ति के बंटवारे की खातिर कोई नया महा-अभियान छेड़ती हैं तो उसकी सबसे करारी मार समाज के सबसे  खस्ताहाल लोगों पर पड़ती है।
लेकिन पूरे देश की 86 प्रतिशत रोकड़ा संपत्ति के एक झटके के साथ अवैध करार दिए जाने और बैंकों से अपने स्वयं के पैसे निकालने पर अंकुश की इस दोहरी मार की दूसरी मिसाल मयनमार क्या, दुनिया के किसी देश के इतिहास में नहीं है। और इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि यह घटना किसी तानाशाही हुकूमत में नहीं बल्कि दुनिया के उस सबसे बड़े जनतंत्र में घटित हुई है जहां 80 से 90 प्रतिशत जनसंख्या आज भी रोटी, भूख और उपचार की मौलिक ज़रूरतों से उबरने के लिए संघर्ष कर रही है। पिछली शताब्दी में ज़िंबाब्वे, सोवियत यूनियन और दूसरे कई देशों में जहां भी आंशिक रूप से नोटबंदी की गयी है, वहां पुराने नोटों को नई करेंसी में बदलने की प्रक्रिया तत्काल और पूरी तरह पूर्वनियोजित थी। इसके बावजूद इन देशों ने नोटबंदी के भयानक परिणाम भुगते। मयनमार में तो देशव्यापी गृहयुद्ध का आगाज़ ही 1987 की नोटबंदी के बाद हुआ और सोवियत यूनियन की 1991 की नोटबंदी को उसके विघटन का प्रमुख कारण बताया जाता है। 
पत्रिका 'फ्रंटलाइन' ने अपने मुखपृष्ठ पर लिखा- 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी देश में गरीबों के हर तबके में खून के आंसू रुला जितनी असमानता पैदा कर रही है, उतनी स्वतंत्रता के बाद से आज तक कभी देखने को नहीं मिली!'
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने कहा- 'नोटबंदी से अर्थव्यवस्था की विश्वसनीयता ही संकट में पड़ गयी है। जब आप हर नोट पर लिखित रूप से धारक को निर्धारित रकम देने का वादा करते हैं और फिर अपने वादे से साफ मुकर जाते हैं तो इसे तानाशाही निरंकुशता के अलावा क्या कहा जा सकता है?'
सम्मानित अर्थशास्त्री और देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा- 'जो लोग कहते हैं कि तात्कालिक तौर पर इससे कष्ट और असुविधा होगी लेकिन दीर्घकाल में यह कदम देश के हित में होगा, उन्हें मैं जॉन कीज़ की यह उक्ति याद दिलाना चाहूंगा कि 'दीर्घकाल में तो हम सब मृत हो जाएंगे!' (यथा ग़ालिब--हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक!)... हमारे देश की 90 प्रतिशत जनता अनौपचारिक क्षेत्रों में कार्यरत है और इस कदम से उन सब पर भयानक विपदा आन पड़ी है। 65 (अब तक 120 से ऊपर) लोगों की जानें जा चुकी हैं।... मेरा अनुमान है कि इस कदम से देश की सकल सम्पदा में कम से कम दो प्रतिशत की कमी आएगी (एक प्रतिशत गिरावट की घोषणा तो विश्व बैंक अभी से कर चुका है। )। ... मैं प्रधानमंत्री से दुनिया के किसी देश का नाम जानना चाहूंगा जहां लोगों से अपने पैसे बैंकों में जमा करने के लिए कहा गया और बाद में उसे वापस निकालने पर पाबंदी लगा दी गयी! ...जिस अंदाज़ में यह कदम उठाया गया है उसे 'सुनियोजित लूट' और 'वैध नोच-खसोट' की संज्ञा ही दी जा सकती है!'
और 'न्यूज़ व्यूज़ इंडिया' के संपादक एवं प्रमुख अधिकारी पंकज मिश्रा ने लिखा-''यदि भीतरी जानकारों का यह दावा कि- '8 नवंबर की रात का मोदी का भाषण वास्तव में 'लाइव' नहीं था' - सचमुच सच है तो मुझे यह कहने में कोई संशय नहीं कि भारत अपनी जनतांत्रिकता खो देने की कगार पर है!''
इस सारी कटु आलोचना के बीच मोदी के समर्थकों ने नोटबंदी को पाकिस्तान पर हुई सेना की तथाकथत 'सर्जिकल स्ट्राइक' की तर्ज़ पर नोटबंदी को 'काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक' बताया, जबकि समाजशास्त्रियों का मानना था कि काले धन का दो प्रतिशत से भी कम हिस्सा कैश की शक्ल में है और शेष पहले ही ज़मीनों, कंपनियों, सोने और जायदाद की शक्ल ले चुका है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि इस कदम से एक पैसे का भी काला धन वापस नहीं आया है, और सिर्फ  वैध नोट ही बैंकों में जमा हुए हैं। इसी पर चर्चा करते हुए टेलिविजन पर अभय दुबे ने व्यंग से कहा भी कि यह कवायद दरअसल 'सफेद धन पर सर्जिकल स्ट्राइक' प्रतीत होती है!
नोटबंदी के दो-ढाई महीने गुज़र चुकने के बाद अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इस कदम से सारे पुराने अवैध नोट अब दो हज़ार के सुविधाजनक गुलाबी नोटों में तब्दील हो गए हैं, हवाला व्यापारियों को इनके ज़रिए नयी संजीवनी बूटी मिल चुकी है और देश में काला बाज़ार पहले की ही तरह फल-फूल रहा है। लेकिन सरकार द्वारा निरीह जनता पर जान बूझकर थोपी गयी नोटों की यह किल्लत हमें विभूतिभूषण के उपन्यास और सत्यजित राय की फिल्म 'अशनि संकेत' में वर्णित 1942 के उस मानव निर्मित अकाल की याद दिलाती है जिसमें सरकारी गोदामों में अन्न भरा होने के बावजूद हजारों लोग पैसे पास होने के बावजूद अन्न के अभाव में भूख से मारे गए थे।
'इकोनोमिक टाइम्स' के अनुसार बैंकों ने स्वीकार किया कि नए नोटों की जितनी राशि उन्हें मिली, उसका 10 प्रतिशत ही पहले दो महीनों में उन्होंने ए टी एम में डाला और शेष 90 प्रतिशत उन्होंने अपने बड़े पैसे वाले अकाउंट धारियों और विशेष ग्राहकों के बीच वितरित कर दिया। इसी के तहत कुछ जगह हुए इनकम टैक्स के छापों में बड़े उद्योगपतियों के पास नए दो हज़ार नोटों के करोड़ों के भंडार बरामद हुए। लेकिन ये छापे सिर्फ एक संकेत मात्र थे। यह नोटबंदी दरअसल बड़ी मछलियों के लिए काली संपत्ति को सफेद बनाने का एक कारगर ज़रिया साबित हुई और इनमें से अधिकांश पहले ही इनकम टैक्स के छापों से महफूज़ हो चुके थे। राजस्व बैंक ने अपनी अपारदर्शिता को कुछ और आगे बढ़ाते हुए सूचना की जानकारी के तहत राशि वापस आने और प्रति बैंक नई करेंसी जारी किए जाने के सवालों के उत्तर देने से साफ  इंकार कर दिया और आर बी आई के गवर्नर भी संसदीय कमेटी की सुनवाई के दौरान एक मूक गवाह की तरह लगातार खामोश बने रहे। नोटबंदी के पहले पचास दिनों में ही पुरानी करेंसी का 97 प्रतिशत से अधिक बैंकों और दूसरे संस्थानों को वापस मिल चुका था और इससे आगे सिर्फ एक अंधेरी खाई ही दिखती है। स्पष्ट है कि नोटबंदी की यह कवायद काले धन को समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि सारे काले-सफेद धन को सफेद बनाने और बैकों तथा उनके कर्ज़दारों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए रची गयी थी। इस कुचक्र के परिणामस्वरूप कृषि तथा छोटे-बड़े उद्योगों के अधिकांश महकमों को भयानक मंदी का सामना करना पड़ा और इनमें से कई तो बंद हो जाने की कगार पर आ खड़े हुए हैं।
नोटबंदी का यह दर्दनाक हादसा किसी बहुत बड़े स्कैम से कम नहीं था।  इस कदम पर सुविधाजनक पर्दा डाल सरकार अब काले धन की जगह 'कैशलैस' और 'कैशलेस पर लॉटरी' जैसे लचर टोटकों की ओर मुड़ गयी है। सरकार, बैंकिंग सिस्टम, रिजर्व बैंक और अर्थव्यवस्था की यह अविश्वसनीयता आज से पहले कभी देखी नहीं गयी। प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों का खौफनाक प्रचार तंत्र बेशर्मी से इसे भी एक 'रणनीति' की तरह परोस रहा है और इंटरनेट पर तो समर्थकों की एक पूरी फौज असहमति के हर स्वर को दबाने एवं विपक्षियों को तरह-तरह की गंदी गालियों से नवाज़ने का काम पूरी मुस्तैदी से कर रही है (इस खौफनाक प्रचार तंत्र का कच्चा चिठ्ठा आप पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी की नयी अंग्रेजी पुस्तक- 'आई ऐम ए ट्रॉल: इनसाइड दि सीक्रेट वल्र्ड ऑफ  बी जे पी डिजिटल आर्मी' द्वारा बखूबी जान सकते हैं! )
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक देश में जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उन्हें देखकर प्रधानमंत्री (पत्रिका 'फ्रंटलाइन' के शब्दों में 'एम्परर मोदी')की तरह एक क्षण हंसना और दूसरे क्षण रोना भी संभव नहीं है। लगता यही है कि पूरा 'रोम जल रहा है' और बादशाह नीरो अपने संपन्न साथियों के साथ संगीत में खोया हुआ है...

कदम कदम पर मंदिर मस्जिद,
कदम कदम पर गुरुद्वारे
भगवानों की इस बस्ती में
ज़ुल्म बहुत इंसानों पर.....
                      
कवि नीरज की ये पंक्तियां ऐरावती नदी के किनारे बसे शहर बगान पर सच्चाई के बहुत करीब दिखाई देगी। दस हज़ार से भी अधिक बौद्ध/हिंदू मंदिरों और पगोडाओं वाले इस शहर की तुलना अक्सर कम्बोडिया के अंगकोर वात से की जाती है।
मयनमार का क्षेत्रफल काफी बड़ा है और इसकी दो हज़ार किलोमीटर लंबी तटरेखा कई प्रांतों और प्रदेशों तक फैली हुई है। दो बड़े शहरों यांगोन और मंडाले से आगे यहां हज़ार-दो हज़ार पुराने कई गांव, कस्बे और उपनगर हैं, जहां वास्तविक मयनमार की पुरातन भव्यता के अवशेष और क्रूर शासनों तले मौलिक जरूरतों से वंचित जन-मानस की मुश्किल जिंदगी बिखरी दिखाई देगी। चीन और भारत को छूने वाले देश के सबसे उत्तरी प्रांत कचिन का बड़ा हिस्सा बर्फीली पहाडिय़ों से ढंका है, जहां मिलिट्री के तानाशाही युग में विदेशियों को जाने की इजाज़त नहीं थी। यही वह प्रदेश है जहां किसी समय दुनिया के सबसे दुर्लभ पक्षियों, जीवों और वनस्पतियों का वास था। पिछले कई दशकों में यह खज़ाना सीमा पार से आने वाले चीनी शिकारियों, वन्य संपदा के तस्करों और गरीब स्थानीय भिक्षुओं की मिली-भगत में बेरहमी से लूटा जा चुका है। यहीं 1914 से 1956 के दौरान अंग्रेज़ वनस्पति शास्त्री फ्रैंक किंग्डम वार्ड ने जाने कितने दुर्लभ ऑर्किड फूलों और वनस्पतियों की शिनाख्त की थी। और उसके बाद सैनिक शासन के दौरान अमरीकी पर्यावरण विषेशज्ञ ऐलेन रैबिनोविट्ज़ ने यहां आने की विशेष अनुमति प्राप्त करने के बाद अपनी चर्चित पुस्तक 'बियांड दि लास्ट विलेज' में पहली बार प्रदेश की लगभग विलुप्त चार फुट कद के बौनों की तारोन जाति के आखिरी बारह सदस्यों से मुलाकात की थी। उन्होंने प्रदेश के अत्यंत दुर्लभ जंगली जानवरों सुनहरी टाकिन, लाल गोराल, नीली भेड़ और लीफ  काकड़ के क्रमश: विलुप्त होते जाने के गंभीर संकट के बारे में भी दुनिया को बताया था। लेकिन हरिताश्म और माणिक्यों की खदानों, लकड़ी के आयात के लिए बर्मा टीक की लकड़ी पर विदेशी व्यापारियों की लोलुप निगाहों और पड़ोसी चीन में कामोत्तेजक गैंडे के सींग, बाघ के नाखुनों और जंगली जानवरों के विभिन्न अंगों की अंधी मांग के चलते इस देश की बची खुची बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा भी और कितने दिनों तक बचा पाएगी, इसका अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।
मयनमार की सर्वव्यापी विपन्नता के पीछे सबसे बड़ा हाथ सैनिक सरकार के तानाशाही शासन और उसकी अंधाधुंध बंदर-लूट का रहा है। इसने मनमाने ढंग से जनमानस को रौंद उसके मनोबल को लगातार तोड़ा है और 1980 के बाद से जनता के आक्रोश और राजनीतिक उफान को देखते हुए अब उसने अपना ध्यान राजनीति सत्ता से हटाकर आर्थिक सत्ता के संपूर्ण नियंत्रण की तरफ  मोड़ दिया है। 2015 के आम चुनाव और इसी वर्ष औंग सान सू क्यी के राज्य सभासद नियुक्त हो जाने के बाद भी देश की ज़मीनी हालत में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है और इस स्थिति प्रज्ञता के गहरे आर्थिक कारण हैं। जैसा कि यांगोन में हमारे एक स्थानीय मित्र ने हमसे कहा भी कि ''2015 के चुनावों से देश सिर्फ 30-40 प्रतिशत ही सेना के चंगुल से आज़ाद हुआ है, पूरी आज़ादी प्राप्त करने में काफी समय लगेगा!'' औंग सान सू क्यी, जिसे सेना ने बरसों तक नज़रबंद कर रखा था, अब सत्ता में आने के बाद बहुत काफी संभल-संभलकर कदम रख रही है, क्योंकि नागरिक जीवन और व्यवसाय में आज भी हर तरफ  सेना या उसके प्रतिनिधियों का वर्चस्व है और उनसे सीधे भिडऩा खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने हर क्षेत्र में बरसों मनमानी की है और आज भी वे मयनमार की आर्थिक दुनिया में सबसे निर्णायक भूमिका में है। इस वस्तुस्थिति को रातोंरात बदल सकना संभव नहीं है। अपनी यात्रा के दौरान हमें हर प्रदेश और हर महकमे में सैनिक शक्ति का अदृश्य वर्चस्व दिखाई दिया। देश में फैली सैनिक तबके की यह आर्थिक तानाशाही इतनी व्यापक है कि उसकी इजाज़त के बगैर वहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता।  
यांगोन के बाद हमारा अगला पड़ाव बगान था। सड़क पर  आठ-नौ घंटों की कठिन यात्रा के मुकाबले यांगोन से बगान के लिए घंटे भर की फ्लाइट लेना अधिक व्यावहारिक था। प्रमुख पर्यटक स्थल होने के नाते बगान के लिए दिन में कई हवाई उड़ानें उपलब्ध हैं। लेकिन यांगोन के आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल से बाहर कुछ फासले पर खड़े पुराने अंतर्जातीय हवाई अड्डे में प्रवेश करना एक तरह से शताब्दी ट्रेन के पहले दर्•ो के नए वातानुकूलित डिब्बे से निकलकर छपरा एक्सप्रेस के असुरक्षित श्रेणी डिब्बे में प्रवेश करने जैसा ही कुछ था। फर्श पर यहां-वहां बैठे और सोए यात्रियों का जमावड़ा था, हमारे अपने हावड़ा या सियालदाह स्टेशन की तरह! 'चेक इन' की कतार में खड़े होना किसी हाउसफुल सिनेमा की धक्कामुक्की भरी कतार में जगह बनाने से कम मुश्किल नहीं था। खुशकिस्मती से हम सारा सामान एजेंट के हवाले कर एक तरह से निश्िचत हो गए थे। 'चेक इन' के बाद प्रस्थान हॉल में जाने के लिए सुरक्षा लगभग नहीं के बराबर थी। हाथ के सामान पर नाम-पहचान का बिल्ला लगाने की जगह एयरलाइन के कर्मचारी ने हास्यास्पद ढंग से एक रंगीन 'स्टिकर' हमारी कमीज़ों की जेब पर चिपका दिया। हमारी फ्लाइट उम्मीद के मुताबिक दो घंटे लेट थी और इस सूचना के बाद जब उसी कर्मचारी ने जेबों पर लगे रंगीन 'स्टिकर' के आधार पर हॉल में बैठे यात्रियों को कोल्ड-ड्रिंक की बोतलें बांटना शुरू किया था तो हमें उस दूर से पहचान में  आ जाने वाले 'स्टिकर' की  वास्तविक उपयोगिता का अहसास हुआ था।
एयरलाइन 'एयर के बी ज़ेड', जिसके विमान से हमें सफर करना था, एक तरह से मयनमार की  वर्तमान एकाधिकारिक औद्योगिक व्यवस्था का सटीक उदाहरण है।  2011 में निजी क्षेत्र के ग्रुप के कानबावज़ा इंडस्ट्रीज़ ने इसकी स्थापना की थी। यही ग्रुप एक और एयरलाइन मयनमार ऐयरवेज़ इंटरनेशनल और एक निजी बैंक का मालिक भी है। कानबावज़ा ग्रुप के कारखानों का फैलाव सिविल निर्माण, रेडीमेड कपड़ों, इंश्योरेंस, बैंकिंग, तेल, दूरसंचार, सीमेंट से लेकर ऐविएशन और खदानों तक है। ग्रुप के मालिक ऑग विन यूं तो अपने आपको अध्यापक बताते हैं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी योग्यता इनके मयनमार सेना के नंबर दो जनरल माँग आये से निकट पारिवारिक संबंध है। इनकी पत्नी एक अन्य बड़े मिलिट्री जनरल की भांजी है। आज मयनमार के उद्योग का सबसे बड़ा हिस्सा कानबावज़ा और उसी जैसे बीस-तीस औद्योगिक घरानों के शिकंजे में है। इनमें से अधिकांश का सैनिक सत्ता से नज़दीकी रिश्ता रहा है, जिसका इन्होंने भरपूर लाभ भी उठाया है। देश में जनतंत्र बहाल हो जाने के बाद भी इनकी व्यापक आर्थिक ताकत में कोई परिवर्तन नहीं आया है और इस बात को औंग सान सू क्यी और अन्य निर्वाचित जन-प्रतिनिधि अच्छी तरह समझते हैं। बैंकाक में पिछले साल प्रकाशित एक रिपोर्ट में लेखक आँग मिन और तोशिहिरो कुडू लिखते हैं-
 ''मयनमार के इन प्रमुख औद्योगिक संगठनों की सफलता के पीछे सबसे बड़ा हाथ सैनिक सरकार से संबंधों और इनके विदेशी सहयोगियों का रहा है। देश में आर्थिक सुधार लाने की पहली शर्त यह है कि इन संस्थानों के मालिक अपने विवादास्पद इतिहास से हटकर आने वाले आर्थिक सुधारों में सकारात्मक भूमिका निभाने पर ज़ोर दें। इन बड़े संस्थानों में से अधिकांश 1980 के बाद सैनिक सत्ता के क्रमश: कमज़ोर पड़ते जाने के बाद अस्तित्व में आए हैं।''
देखा जाए तो सैनिक सत्ता की छत्रछाया में विकसित हुए इन संस्थानों ने अपने तगड़े सैनिक संबंधों के सहारे देश में एक तरह की आर्थिक घेराबंदी शुरू कर दी है, हमारे अपने देश के अम्बानी, बिड़ला और सहारा संस्थानों की तर्ज़ पर। जनतंत्र और चुनावों में कोई भी पार्टी सत्ता में आए, इन आर्थिक महाशक्तियों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। हकीकत यह है कि मयनमार में आज भी अर्थव्यवस्था के सारे सूत्र सैनिक नेताओं और उनके द्वारा प्रायोजित इन उद्योगपतियों के हाथ में हैं और इनके पास जन-प्रतिनिधियों को प्रभावित एवं संचालित करने का सारा सामान भी है। ऐसे में देश की व्यापक विषमताओं को दूर करने और जनतांत्रिक सत्ता का लाभ देश के सबसे पिछड़े वर्ग तक पहुंचने में अभी लंबा समय लगेगा। 
यांगोन से भी अधिक बगान अपने देश का प्रमुख पर्यटन केंद्र है। नवीं से तेरहवीं शताब्दी तक बगान (प्राचीन नाम-पगान) इसी नाम से जाने वाले राज्य की राजधानी था। ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में प्रदेश में बौद्ध धर्म के स्वर्णिम काल के दौरान यहां के साधन संपन्न राजाओं और उनकी प्रजा ने मैदानों में कोई दस हज़ार मंदिर, पगोडा, बौद्ध विहार और स्तूप बनाए गए। लगभग सौ वर्ग किलोमीटर फैले इन मैदानों में कोई दो से ढाई हज़ार बौद्ध मंदिर और पगोडा जर्जर हालत में आज भी खड़े हैं। भगवानों की यह अनूठी बस्ती दसवीं से बारहवीं शताब्दियों के अपने स्वर्णिम काल में न सिर्फ  इन पगोडाओं बल्कि अपनी संस्कृति और अपने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए भी विख्यात थी। यह प्रदेश पाली, प्यू और मोन भाषाओं में बौद्ध, वैष्णव और महायना एवं तांत्रिक बौद्ध अध्ययन एवं व्याकरण की विधाओं के लिए इतना जाना-माना था कि भारत, श्रीलंका और दूसरे प्रदेशों से भिक्षुक एवं विद्यार्थी यहां अध्ययन के लिए आते थे। साम्राज्यवादी राजाओं और फिर अंग्रेज़ों तथा सैनिक शासन के लंबे वक्फे के दौरान संस्कृति और ज्ञान की यह सारी सम्पदा धूल में मिल चुकी है। वर्तमान तथाकथित 'राष्ट्रवादी' सैनिक सत्ता की सारी कोशिश भी इस बहुमूल्य खज़ाने को बचाने की जगह इसके हर संभव व्यावसायिक दोहन पर केंद्रित है। पाली का पुरातन ज्ञान कहीं विलुप्त हो चुका है और आकाश में भी पक्षियों के कलरव की जगह अब हर तरफ  दैत्याकार गर्म हवा के गुब्बारे दिखाई देते हैं, जिनपर चढ़कर विदेशी पर्यटक इस उजड़ी हुई धरती का विहंगम नज़ारा देख सकते हैं। मीलों तक सपाट बंजर ज़मीन पर खड़े सैंकड़ों जर्जर पगोडा, मंदिर और अधटूटे स्तूप आज किसी युद्धस्थल से सटकर फैले विशालकाय कब्रिस्तान का आभास देते हैं और शाम के धुंधलके में यह अहसास और भी गहरा हो उठता है।
बगान का हज़ारों वर्ष पुराना इतिहास हमारे अपने नालंदा विश्वविद्यालय की याद दिलाता है जहां ईसा से 5 शताब्दी पहले दस हज़ार विद्यार्थियों और दो हज़ार शिक्षकों का वास था। उस स्वर्णिम इतिहास को पुनर्जीवित करने की कोशिश में 1951 में यहां नव नालंदा महाविहार की स्थापना की गयी थी और 2006 में इसे मान्य विश्वविद्यालय का दर्ज़ा भी दिया गया था। भारत सरकार के अलावा चीन, सिंगापुर, थाइलैंड, ऑस्ट्रेलिया ने 3000 करोड़ की लागत से एक महत्वाकांक्षी योजना बनायी गई। 2014 में पहले 15 चुने गए अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों को यहां दाखिला भी मिला था। इसके ख्याति शासी मंडल में अमत्र्य सेन, सिंगापुर के जार्ज यिओ, हारवर्ड के सुगता बोस, मेघनाद देसाई और कई अंतर्राष्ट्रीय विद्वान थे। जैसा कि अपेक्षित था, मोदी सरकार के आने के बाद उनकी तानाशाही शैली और विचारधारा से असहमति रखने वाले अमत्र्य सेन, सुगता, जार्ज यिओ, देसाई सहित सारे विद्वान अब इस शासी मंडल से अलग हो चुके हैं। इनके स्थान पर अब बी जे पी और संघ के प्रतिनिधियों को इसके मंडल में जुटाया जा रहा है। देखा जाए तो आपके लिए नालंदा के इस राजनीतिक हस्तक्षेप और मयनमार-बगान के सैनिक व्यावसायीकरण के बीच कोई फर्क करना शायद मुश्किल होगा। क्या दोनों का हश्र भी एक जैसा ही होगा?
बगान के छोटे-बड़े, उपेक्षित और पूज्य, जर्जर और पुनर्निर्मित प्राचीन आराधना-गाहों में सबसे प्रसिद्ध आनंद मंदिर कोई एक हज़ार वर्ष पुराना है। सन् 1105 में राजा क्यंज़िता द्वारा बनाया गया यह मंदिर 1975 के भूकंप में बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया था और इसके कई हिस्सों को दुबारा बनाया गया है। पुराने और नए का यह फर्क कई जगह बेहद साफ दिखाई देता है। इसके चारों कोनों पर बुद्ध की भव्य प्रतिमाएं हैं।
किस्सा यूं है कि एक दिन हिमालय से आठ सन्यासी राजा के पास भिक्षा मांगने के लिए आए। जब उन्होंने बताया कि वे हिमालय के नंदमूला गुफा मंदिर में कई वर्षों तक रह चुके हैं तो राजा ने उन्हें महल में आने का निमंत्रण दिया, जहां उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से राजा को हिमालय के उस मंदिर के दर्शन करवाए। राजा ने उसी आधार पर राज्य के श्रेष्ठ कारीगरों से वहां वैसा ही मंदिर बनवाया और बाद में उन कारीगरों की हत्या करवा दी ताकि वे दुबारा वैसा कोई मंदिर न बना सकें। रात की रोशनियों में भव्य आनंद मंदिर आज भी चमकता है लेकिन बगान के मैदानों में चक्कर काटती गर्म लू भरी आंधियों में गोया कि उन कारीगरों की आत्माएं आज भी भटकती हैं।
अपने सीने में इतिहास की विस्मृत तस्वीरें लिए बगान पिछली सदी के मध्य तक लगभग खंडहरों में तब्दील हो चुका था। 1975 में भूकंप ने इसे एक और झटका दे दिया। उसके बाद सैनिक तानाशाही को यहां व्यवसाय और पर्यटन की अनंत संभावनाएं दिखाई दी। पुरातत्व-शास्त्रियों और इतिहास के जानकारों से मशविरा और सहयोग लिए बगैर सैनिक सत्ता ने रातोंरात बगान का नक्शा बदल डालने की ठानी। टूटे हुए गुम्बदों पर जल्दबाजी में नए आकार बना दिए गए, दीवारों को लीप-पोतकर नया बनाया जाने लगा। किसी 'क्विक फिक्स' समाधान की तरह बगान भी एक चालू विज्ञापन में बदल दिया गया। शहर के पुराने बाशिंदे और वयोवृद्ध टूरिस्ट गाइड सान थी कहते हैं-
''यह एक अनोखा ऐतिहासिक शहर है। युनेस्को और दूसरी संस्थाओं को यहां गंभीरता से हस्तक्षेप करना चाहिए। वर्ना इस शहर का बचा-खुचा इतिहास भी धूल में समा जाएगा। अधिकारियों ने जल्दबाज़ी में इन गुम्बदों पर जो ईंटे लगायी हैं, उनमें से अधिकांश अभी से उखडऩे लगी हैं। ठोका-पीटी से शहर को फिर से दुरुस्त किया जा रहा है। जिन स्तूपों का ऊपरी हिस्सा सदियों से टूटा हुआ था, उन पर भी इन्होंने जल्दी-जल्दी नए गुम्बद बना दिए हैं जो पुरानी इमारतों से मेल भी नहीं खाते हैं....''
1996 में मयनमार की सैनिक सरकार ने युनेस्को को अपने देश में 'विश्व विरासत स्थल' (वल्र्ड हेरिटेज साइट) का दर्ज़ा पाने के लिए छ: स्थलों का प्रस्ताव दिया था। इनमें बगान भी एक था। लेकिन यूनेस्को ने इसे मंजूरी नहीं दी। (दृष्टव्य है कि भारत में फिलहाल नालंदा सहित 35 ऐसे स्थल हैं जिन्हें 'विश्व विरासत स्थल' का दर्ज़ा प्राप्त है)। बगान के बारे में युनेस्को का कहना है कि सांस्कृतिक संरक्षण के पुख्ता इंतज़ामों के बगैर बगान को युनेस्को का दर्ज़ा नहीं मिल सकता। बौद्ध धर्म में मंदिर बनाने एक बड़ा सत्कर्म समझा जाता है, जिसके चलते बगान में सैनिक शासनकाल में भी कई नए मंदिर बनाए गए। इनमें से एक तो जनरल शान थ्वे को समर्पित है। इन नए मंदिरों के बनने और प्राचीन मंदिरों की बचकानी एवं फूहड़ मरम्मत पर कटाक्ष करते हुए पुरातत्व विशेषज्ञ डॉन स्टेडनर कहते हैं-
''बगान में सेना के हस्तक्षेप से यहां की पुरातात्विक समग्रता को गहरा नुक्सान पहुंचा है। युनेस्को द्वारा बगान के आवेदन को स्वीकृति देना एक तरह से दुनिया में मूलभूत पुरातात्विक मूल्यों को नकारने और सेना द्वारा प्रायोजित इस बेसिरपैर के खयाली जीर्णोद्धार को पुरस्कृत करने जैसा होगा!''
हमारी निगाह अचानक स्तूपों के बीच खड़ी एक विचित्र सी इमारत पर ठहर जाती है। हमारा गाइड थेट विन हँसकर बताता है कि यह सैनिक तानाशाहों द्वारा हाल ही में बनाया गया एक आधुनिक 'वॉच टॉवर' है जिसे स्थानीय लोग मज़ाक में 'कुरूप मीनार' ('अगली टॉवर') कहकर पुकारते हैं। इसके नीचे एक महंगा पांच सितारा होटल और रेस्त्रां भी हैं।
पर्यटक क्षेत्र का ठप्पा लग जाने के बाद बगान में सैंकड़ों की संख्या में अवैध होटल आनन-फानन में उग आए हैं। इन होटल मालिकों में से अधिकांश के सेना अधिकारियों से पुरज़ोर रिश्ते हैं। फिर एक सैनिक अधिकारी ने जॉर्डन देश की नकल पर बगान में गर्म हवा के विशालकाय गुब्बारे उड़ाने की सोची। इंग्लैंड से विदेशी पायलटों के साथ बैलून मंगवाए गए और दुनिया के सबसे खस्ताहाल मुल्क में पर्यटकों के लिए एक और सुविधा मुहैया हो गयी। गैस की लौ से गर्म हवा पैदा करने वाले इन गुब्बारों में आप हवा में उड़ते हुए बगान के इन सदियों पुराने खंडहरों का लुत्फ  उठा सकते हैं, बशर्ते आपके पास प्रति घंटे पांच सौ डॉलर अदा करने की कुव्वत हो। ऐतिहासिक ज़बानों, संस्कृतियों और बहुधर्मीय आध्यात्मिक मान्यताओं वाले एक हज़ार वर्ष पुराने बगान के नाम पर अब जर्जर दीवारों वाले ये जर्जर खंडहर और चंद गैस के बैलून ही बाकी बचे हैं।
आनंद मंदिर के उत्तर में एक छोटे से शाकाहारी रेस्त्रां 'दि मून' में केले के पत्तों पर लज़ीज़ भोजन हमें मयनमार के पारंपरिक भोजन की बानगी देता है। यदि बगान के पर्यटन वाले इलाके को छोड़ दें तो पूरे मयनमार में रेस्त्राओं की जगह आपको इसी तरह के छोटे-बड़े ढाबे मिलेंगे जहां चावल या नूडल्स के साथ आपको कई तरह की कच्ची सब्जिय़ां खाने को मिलेंगी। सलाद में साबुत हरे बैगन, शाक और कच्ची भिंडी शौक से खायी जाती हैं, हरी मिर्च और मूंगफली के साथ। यंागोन के छोटे ढाबों में जहां दीवार पर थाइलैंड की नकल पर सारी 'डिशेज़' की तस्वीरें टंगी दिखेंगी, वहीं दूसरी जगहों पर ढाबे कहीं अधिक मामूली और आडंबर-विहीन दिखेंगे। हमने देखा कि अधिकांश रेस्त्राओं में भोजन पकाने का जिम्मा स्त्रियों के हाथ में है और काउंटरों के पीछे भी वही महिलाएं खिलखिलाती दिखाई दे जाएंगी।
बौद्ध धर्म में शराब को पसंद नहीं किया जाता। मयनमार के मुसलमानों और हिंदुओं में भी पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर या खुले आम शराब पीने का रिवाज नहीं है। लेकिन फिर भी मयनमार में विदेशी वाइन से लेकर अंग्रेज़ी शराब, बियर और स्थानीय ताड़ी या ठर्रे तक सभी का व्यापक प्रचलन है। बड़े शहरों के पर्यटक इलाकों में और शहरों के बीच विदेशियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सड़कों पर आपको अक्सर आम परचून दुकानों पर भी विदेशी शराब और बियर बिकती है। लेकिन इन रास्तों के अलावा गांवों-कस्बों में आपको सिर्फ ताड़ या गन्ने से बनने वाली स्थानीय शराब या सस्ते दामों वाली चाइनीज़ शराब ही मिलेगी। हमारे स्थानीय मित्र ने बताया कि शराब का अधिकांश व्यापार भी सैनिक सरकार के हाथ में रहा है और इसके 'ड्रग्स' व्यापार से भी अंतरंग संबंध रहे हैं। उत्तरी राज्यों में पर्यटकों को शराब लेते समय सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है क्योंकि अक्सर यहां की शराब में 'ड्रग्स' भी मिली रहती हैं। लेकिन इन सारी 'ड्रिंक्स' से ऊपर गरीब मयनमार का राष्ट्रीय पेय निस्संदेह चाय है, और इसे आम तौर पर बिना दूध मिलाए पिया जाता है। हम जहां भी गए, हमें हर जगह चाय मिली। स्थानीय ढाबों में हमें चाय का एक विचित्र सलाद भी देखने को मिला। हमारे गाइड ने बताया कि इसे गीली चाय की पत्तियों को अचार की सी पद्धति से तैयार किया जाता है और स्थानीय लोग इसमें नमक, लहसुन, तेल और कभी-कभी भुने हुए तिल मिलाकर बड़े चाव से खाते हैं। कई ग्रामीण इलाकों में इसे चाय की उबली हुई पत्तियों से भी बनाया जाता है।
बगान से पूर्व में ऐरावती नदी के चौड़े मुहाने को पकोकू पुल से पार करते हुए हम पश्चिमी मयनमार के प्रवेशद्वार तक आ आते हैं, जहां भारत की सीमा से सटा हुआ चिन प्रदेश है, जहां की सबसे ऊंची चोटी विक्टोरिया तक हमें जाना है। यह मयनमार का अंदरूनी इलाका है, जहां दक्षिण में एक ओर बांग्लादेश की सीमा को छूता और तीन तरफ बंगाल की खाड़ी से घिरा अराकन (नया नाम रखिने) प्रदेश फैला है।
यूं तो मयनमार प्रदेश आज़ादी के बाद से ही अपने पुराने बाशिंदों-हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बहुत सौहाद्र्रपूर्ण नहीं रहा है, लेकिन पिछले पचास वर्षों में रखिने प्रदेश के दस लाख रोहिंग्या मुसलमानों पर ढाए गए ज़ुल्म रोंगटे खड़े कर देते हैं। पिछले अक्टूबर में सेना ने एक बार फिर प्रदेश के तथाकथित 'इस्लामी जेहादियों' पर धावा बोलते हुए इन्हें खदेडऩा शुरू किया। इस हमले में 130 से अधिक लोगों की जानें गयी और तीस हज़ार से भी अधिक रोहिंग्या मुसलमान विस्थापित हो गए। अपने ही देश में बेवतन होने के बाद ये गरीब रोहिंग्या कभी बांग्लादेश तो कभी भारत की ओर भाग रहे हैं और कोई भी देश इन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। दृष्टव्य है कि 2015 में जब भारतीय सेना पर तथाकथित आतंकवादियों की तलाश में मयनमार की सीमा के भीतर घुसकर इन्हें पकडऩे का अभियोग लगा था तो मयनमार की सेना खामोश बनी रही थी। कई लोगों ने यहां तक कहा था कि भारतीय और मयनमार की सेनाओं के बीच इस मामले में एक अलिखित समझौता था। दरअसल हर मुसलमान को आतंकवादी मानने वाले भारतीय कट्टरपंथियों और मुसलमान विरोधी मयनमार सेना की सामाजिक विचारधारा में कोई खास अंतर नहीं है और यही विचारधारा पिछले पचास वर्षों से मयनमार सेना के रोहिंग्या मुसलमानों पर बर्बर प्रहारों के लिए भी जिम्मेदार रही है। मयनमार की सेना असैनिक ठिकानों पर प्रहार से इंकार करती रही है, लेकिन पिछले अक्टूबर की सैटेलाइट से ली गयी तस्वीरें दिखाती हैं कि सेना ने हज़ारों मकानों में आग लगा दी और वहां से भागते लोगों को बेरहमी से भून डाला। 'हिंदू' समाचारपत्र ने अपने संपादकीय में लिखा-
''मयनमार में सेना द्वारा रोहिंग्या जाति के उत्पीडऩ के इतिहास को देखते हुए अक्टूबर के इस ताज़ा हमले पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये रोहिंग्या पिछली कई पीढिय़ों से राखिने राज्य में रहते आए हैं, लेकिन फिर भी बौद्धों के इस देश में कई लोग इन्हें बांग्लादेश से भागकर आए अवैध शरणार्थी मानते हैं। 1970 में मयनमार सेना ने 1970 में व्यापक स्तर पर इन लोगों को पकड़कर खदेडऩे की प्रक्रिया आरंभ की थी, जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों रोहिंग्या बांग्लादेश निष्कासित कर दिए गए थे और जो बचे थे, उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। सेना अक्सर बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय का समर्थन पाने के लिए भी समय समय पर रोहिंग्या समस्या को तूल देती रहती है।
लेकिन सबसे आश्चर्यजनक है इस पूरे हादसे पर वर्तमान मयनमार की सबसे बड़ी नेता ऑंग सान सू क्यी की खामोशी, जिन्होंने रखिने में रोहिंग्या जाति के क्रूर दमन के बारे में अब तक एक शब्द भी नहीं कहा है। पिछली अप्रैल में जब सू क्यी की पार्टी ने सैनिक शासन से सत्ता संभाली थी तो सभी उम्मीद कर रहे थे कि इस बदलाव से मयनमार में जनतंत्र और शांति के एक नए युग का आरंभ होगा। लेकिन यह नयी सरकार अब तक आंतरिक सुरक्षा बहाल करने और मानवीय समस्याओं को सुलझाने में अक्षम रही है। रखिने में रोहिंग्या पर हुए ताज़ा हमले इंगित करते हैं कि कहीं कुछ नहीं बदला है और सेना अब भी इस देश में सर्वशक्तिमान है। सुरक्षा और डिफेंस जैसे महकमे अब भी उसके कब्•ो में हैं और देश की अर्थव्यवस्था पर अब भी उसका शिकंजा कसा हुआ है। राखिने के रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो कुछ हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी अब सेना जनरलों पर नहीं बल्कि सू क्यी की पार्टी पर है क्योंकि वही इस समय सत्ता में है!'' 
    रोहिंग्या मुसलमान सदियों से मयनमार में रहते आए हैं लेकिन बहुसंख्यक बौद्धों से उनका संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहा है। उन्हें अक्सर प्रताडऩा, बलात्कार, मनमानी नज़रबंदी और हत्या का शिकार बनाया जाता है। मयनमार सैनिक सरकार इन्हें अवैध घुसपैठिए मानती रही है। उनके अनुसार ये सब बंगाली मुसलमान हैं जो अंग्रेज़ों के शासनकाल में मयनमार आए थे। सरकार इन्हें विदेशी शरणार्थियों का दर्ज़ा देकर इनके साथ मनमानी करती रही है। पिछले कई वर्षों में बहुत से रोहिंग्या मयनमार से भागकर अवैध रूप से बांग्लादेश, भारत और थायलैंड आ चुके हैं लेकिन इनके लिए यहां भी नागरिकता के रास्ते बंद हो चुके हैं।
विक्टोरिया के आधे रास्ते में हम झाड़-झंखाड़ के विशालकाय जंगल के बीच हैं। यहां कभी सागौन के बेशकीमती जंगल हुआ करते थे। वे पेड़ अब अतीत का हिस्सा बन चुके हैं। हमारा गाइड बताता है कि स्थानीय निवासियों में इतनी हिम्मत नहीं कि पेड़ों को काटने की जुर्रत कर सकें। अधिकांश जंगल सेना के चाय के साथ ताड़ के गुड़ की स्वादिष्ट भेलियां मिलती हैं। ढाबे के मुसलमान पति-पत्नी से हम अल्पसंख्यक बौद्धों के बीच जीवन के बारे में पूछना चाहते हैं, लेकिन वे कुछ घबराए हुए हमारी ओर देखते रह जाते हैं। हमारा गाइड इशारे से हमें इन सवालों को मुल्तवी करने की सलाह देता है। पूरे मयनमार में सामान्य लोगों के बीच एक अनकहा डर व्याप्त मिलेगा। वे अपनी कठिनाइयों को अजनबी विदेशियों के साथ बांटने के खतरे को बखूबी समझते हैं।

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अतीत के मयनमार से वर्तमान के जयपुर में स्थानीय समाचार की सुर्खियां पढ़ता हूं कि हिंदी के नब्बे प्रतिशत कवि सही मायने में कवि हैं ही नहीं। ये नरेंद्र कोहली हैं, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बोलते हुए। जयपुर के इस सालाना पांच सितारा उत्सव में इस बार कई मंच आर एस एस को समर्पित थे। लेकिन हिंदी कवियों के बारे में कोहली का रहस्योद्घाटन अनुत्तरित ही रह जाता है. क्योंकि उन नब्बे प्रतिशत कवियों या उनके लाखों चाहने वालों में से एक भी वहां मौजूद नहीं है। पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों को फेस्टिवल ने इस बार डिग्गी हाउस से दूर ही रखा है। कोहली कहते हैं कि यदि वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होते तो उन्हें बहुत बड़ा उपन्यासकार मान लिया जाता। उनका यह अफसोस भी मंच पर और श्रोताओं में बैठे आर एस एस के कार्यकर्ताओं, छुटभैयों और चंद गैर साहित्यिक तमाशबीनों के बीच कोई खास प्रतिक्रिया नहीं जगाता। हिंदी साहित्य और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता पर नरेंद्र कोहली के गहरे उपकार को दर्ज़ करते हुए मैं इस संदर्भ में अपने मित्र का कथन याद करता हूं कि जीवन में एक बार घूरे के भी दिन बदलते हैं। शायद देश में आजकल यही दौर चल रहा है। लगता है कि मयनमार के देहातों में व्याप्त संशय और भय के जिस माहौल को मैं मयनमार में छोड़कर आया हूं, वही पिछले कई महीनों से भारत के जन-मानस में भी धीरे-धीरे व्याप्त होता जा रहा है और इस खयाल के साथ ही मुझे फिर एक बार हिटलर के नाज़ी युग की याद आती है जहां ज़बान खोलना ही जान से खेल जाने के बराबर मान लिया जाता था। अपने अनेकानेक भाषणों की भीड़ में राहुल गांधी पहली बार एक ज़रूरी  आह्वान देते हैं कि 'डरो मत, बोलो!' लेकिन असहमति के स्वरों का गला घोंटने के व्यापक माहौल में उनकी बात भी उस शोर में खो जाती है।   
इस बीच दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमरीका की जनता ने एक नए राष्ट्रपति का चुनाव किया है जिसके विचारों में हर पल हमें अपने प्रधानमंत्री जैसी ही वादाखिलाफी और उद्दंडता दिखाई देती है। यदि अपने देश की रूपक कथा को अमरीका के राष्ट्रपति की लफ्फाज़ी और मयनमार की पिछले साठ वर्षों के सैनिक शासन की व्यथा कथा से जोड़कर देखें तो मयनमार के सैनिक तानाशाहों और ट्रम्प अथवा नोटबंदी के तानाशाह मोदी के बीच में से किसी एक को चुनना बेहद मुशिकल होगा।
और एक तीसरे मोड़ पर हमें इंग्लैंड की अंतर्राष्ट्रीय अनुदान संस्था ऑक्सफैम की ताज़ा वैश्विक रिपोर्ट मिलती है, जिसमें कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक आर्थिक असमानता ने नयी ऊंचाइयां बनायी हैं। दुनिया के एक प्रतिशत लोगों के पास दुनिया के आधे गरीब लोगों से अधिक संपत्ति है जबकि दुनिया के हर नौ लोगों में से एक व्यक्ति आज भी भूखा सोता है। विश्व संस्था न्यू वल्र्ड वेल्थ द्वारा भारत पर दिए गये आंकड़े तो इससे भी भयानक हैं। भारत में पिछले पंद्रह वर्षों में 100 करोड़ डॉलर (7000 करोड़ रुपए) से अधिक संपत्ति वाले धनी लोगों की संख्या 2 से बढ़कर 65 हो गयी है जिनके समानांतर गरीब और भी गरीब होते चले गए हैं। अपनी कुल लगभग छ: लाख करोड़ डॉलर की सम्पत्ति के साथ भारत आज दुनिया के दस सबसे धनी देशों में से एक है। लेकिन यहां के एक प्रतिशत धनियों के पास आज की तारीख में देश की कुल 54 प्रतिशत सम्पत्ति है, जबकि सन 2000 में यह प्रतिशत 37 प्रतिशत ही था। दृष्टव्य यह भी है कि इन सारे धनी लोगों की संपत्ति में यह इजाफा सरकारी नीतियों की छत्रछाया में हुआ है। इन एक प्रतिशत अमीर लोगों की संपत्ति से भारत की कुल गरीबी को एक नहीं, दो बार समाप्त किया जा सकता है। और अंत में  ऑक्सफैम ने यह भी कहा है कि यदि व्यापक परिवर्तन नहीं लाए गए, जिसकी फिलहाल कहीं कोई उम्मीद नहीं दिखती, तो वर्तमान वर्ष में धनिकों और गरीबों के बीच का यह फासला और बढ़ जाएगा। इन सारे भयावह आंकड़ों के बीच यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए कि यह विश्व धीरे-धीरे किस दिशा में जा रहा है और मयनमार हो या भारत, अमरीका हो या नाइजीरिया, सरकारें अपनी नीतियों, अपने ऐलानों, अपनी नोटबंदियों और अपनी असहिष्णुशीलता से किन गिने चुने लोगों या उनके परिवारों की खिदमत में जुटी है। इन आंकड़ों तले समय बहुत मुश्किल, बहुत भयावह और बहुत अंधकारमय दिखाई देगा। विडंबना यह है कि इसी अंधकारमय समय में हमें अपना रास्ता ढूंढने की ज़िद भी तलाशनी है। बकौल फैज़-

या खौफ से दर गुज़रें या जाँ से गुज़र जाएं
मरना है कि जीना है इक बात ठहर जाए

(अगले अंक में जारी)






संपर्क: मो. 09460885550


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