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अप्रैल 2017

मुक्त बाज़ार और प्रतिबंधित साहित्यिकता

विनोद शाही

भूरी ख़ाक़ धूल में दबी चिंगारियां/चार






ऐसे हालात पैदा कर दिए गए हैं कि पाठक अच्छे और बुरे साहित्य के बीच फर्क करने के मामले में गहरे असमंजस का शिकार हैं। बाजार और सत्ता का ज्ञान और संस्कृति की संरचनाओं में ऐसा हस्तक्षेप दिखाई देने लगा है कि गहराई और सतह में; विरासत और समकालीनता में फर्क मिटता जा रहा है। शब्द की दुनिया लगातार बेबस होती जाती है और दृश्य लगभग साम्राज्यवादी तौर-तरीके से उन पर काबिज़ हुआ जाता है। शब्द के जरिए अर्थ की तलाश का मतलब हो गया है कि हमारा पसंदीदा अर्थमीमांसा का शिविर कौन सा है, जहां हमें अपनी कोई पहचान या अस्मिता का बोध हो सकता है। अर्थों की इस बहुलता में सब के पास 'अपने अपने सच' आ गए हैं, जो दूसरों के सच के पीछे झूठ को समझ पाने वाले 'आलोचनात्मक विवेक' से युक्त होने का दावा किया करते हैं। इससे एक ऐसी दुनिया पैदा हुई है, जिसे 'प्रयोजनवादी जनतांत्रिक व्यवस्था और चेतना' वाली दुनिया कहा जा रहा है। यह ऐसी दुनिया है जिसमें सभी को अपने अपने 'सीमित प्रयोजनों' के थोड़ा-बहुत सध सकने की उम्मीद करने लायक आज़ादी दे दी गई है। परन्तु इस उम्मीद की हकीकत यह है कि प्रयोजन क्या हैं और क्या होना चाहिए - जैसे सवालों की व्याख्या सभी को बाज़ार और सत्ता के तंत्र की मार्फत मिलती है। अब हम यहां जरा रुककर एक बुनियादी सवाल पूछ सकते हैं कि यह समकालीन (या वैश्विक) प्रयोजनवाद स्वरूपत: क्या है? ठीक से देखा जाए तो यह मानवजाति की रचनाशील होने की बुनियादी जरुरत का 'उपभोक्तावादी अनुवाद' है।
समकालीनता हमें सब कुछ देती है, सिवाय रचनाशील होने की हमारी कुदरती भूख के निवारण के लिए ज़रूरी हालात के इसीलिए हमारे दौर में ज्ञान और विज्ञान के विविध-बहुल विमर्शों की भरमार है; परन्तु कविता, नाटक या उपन्यास के अंत की चर्चा अब साहित्य के अंत की चर्चा तक चली आई है। समाजविज्ञानों से लेकर संस्कृति और मानवविज्ञानों तक बेशुमार नये विमर्श पैदा हो रहे हैं, परन्तु साहित्यालोचन में 'सिद्धान्त की मृत्यु' की संभावनाओं पर चिंता व्याप्त हो रही है। साहित्य के 'भाषा-पाठों' की 'व्याख्याओं' में कोई कभी नहीं है; परन्तु स्वयं 'साहित्यिकता' (या रचनाशीलता) की व्याख्या करने वाला कोई सिद्धान्त अब बचा हुआ नजर नहीं आता है। क्या वजह है?
वजह है, जिसे कभी कार्ल मार्क्स ने 'श्रम का बेगानापन' कहा था। थोड़ी गहराई में जाएंगे तो हमें इससे ताल्लुक रखने वाला 'विकास और प्रगति में निहित बुनियादी अंतर्विरोध' समझ में आने लगेगा वह जो कुदरती तौर पर 'रचनाशीलता' की प्रवृति है, वही यंत्र अथवा तकनीक पर आधारित 'उत्पादन पद्धति' का रूप ग्रहण करती हुई 'आत्म-भाव' और 'बेगानेपन' में विभाजित हो जाती है। जार्जी प्लेरतानोव ने इसे समझाने के लिए कबीलाई दौर की उत्पादन पद्धतियों का आधार बनाकर यह निष्कर्ष निकाला था कि उस दौर में रचनाशीलता और उत्पादन-पद्धतियों के बीच कोई अंतराल नहीं होता। हम जो रच रहे होते हैं, वह हमारा 'आनंद' भी होता है और हमारे लिए 'उपयोग में आने वाला उत्पादन' भी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वहां हम प्रकृति के साथ सीधा रिश्ता बनाते हैं और हमारी रचना व हमारा उत्पाद दोनों 'हमारे' होते हैं। उन पर किसी अन्य का अधिकार नहीं होता परन्तु जैसे ही यंत्र  या तकनीक बीच में आते हैं तो हम प्रकृति से सीधा रिश्ते को उन पर विजय पाने के लिए बनाए गए रिश्ते में बदल देते हैं। कार्ल मार्क्स की निगाह में यही विकास और प्रगति की ओर मानव-जाति के प्रस्थान की असल वजह है। पर अगर ऐसा है तो हमारी प्रगति में ही हमारे श्रम की रचनाशीलता का उत्पाद में बदलकर, हम से बेगाना हो जाना निहित है। हालांकि कार्ल मार्क्स की निगाह में इसकी वजह है, यंत्र या तकनीक जैसी उत्पादन-पद्धति मूलक पूंजीगत व ज्ञानगत संपदा का पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित होना। प्लेरतानोव के चिंतन में इसे लेकर मार्क्स से सीधी असहमति तो सामने नहीं आती, परन्तु रचनाशीलता की व्याख्या करते हुए जब वे प्रकृति व मनुष्य के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्तों की मौजूदगी की जरूरत की बात करते हैं, तो 'प्रकृति पर विजय हासिल करने निकले मनुष्य का पलड़ा भारी होता' जरूर दिखाई देने लगता है। इससे प्रकृति के संसाधनों का ही दोहन-शोषण प्रकट नहीं होता, मनुष्य की प्राकृतिक दैहिक श्रम-सामथ्र्य का और उसकी चेतना की नैसर्गिक संरचनाओं का बेगानापन भी सामने आने लगता है। यहां हम प्रकृति के ऊपर विजय हासिल करते हुए असल में प्रकृति के जिस रूपांतर की ओर आगे बढऩा चाहते हैं - वह है, प्रकृति के मानवीय रूप वाली नीति। अगर हम वहां पहुंचते हैं तो हम फिर से ऐसी उत्पादन-मूलक रचनाशीलता को पा लेंगे, जहां प्रगति और आनंद या सौंदर्य-चेतना में कोई दूरी नहीं रह जाएगी। परन्तु यंत्र और तकनीक के बाद अब उच्च तकनीकी का काम या प्रयोजन यह हो गया है कि 'प्रकृति में मनुष्य' की ऐसी मौजूदगी खड़ी हो जाए, जो 'मनुष्य की प्रकृति' को ही गैर-प्राकृतिक तरीके से भोगवादी या उपभोक्तावादी बनाये रखे। इससे प्रकृति और मनुष्य के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ते, पदार्थ और चेतना का ही द्विभाजन नहीं करते (जैसा औद्योगिक पूंजीवाद में होता है); अपितु वे चेतना को पदार्थमय बनाने के गैर-कुदरती तरीकों से इस चेतना में खण्डित-विखण्डित होने की वजह होने लगते हैं।
इसीलिए वित्तीय पूंजीवादी दौर की 'विलम्बित पूंजीवाद' के तौर पर व्याख्या करते हुए फ्रेडरिक जेम्सन यहां पदार्थ और चेतना के द्विखण्डन (स्किज़ोफ्रेनिया) की स्थिति के प्रकट होने के हालात को देखते हैं। इसमें मनुष्य विविध स्थितियों में विविध तरीके के, एक-दूसरे से विच्छिन्न व्यक्तियों की तरह व्यवहार करता है। 'पदार्थमय या उपभोक्तावादी चेतना' को समकालीन के लक्षण की तरह देखते हुए वे यहां इसके 'वास्तविक या इतिहास मूलक चेतना' से टूट जाने के लक्षण देखती हैं। इतिहास या विरासत के 'समकालीन बिम्ब' भर होकर रह जाने से होता यह है कि हम अपने प्रकृति से जुड़े उस रिश्ते को भूल जाते हैं, जिसने आदिम समयों से हमें मनुष्य की तरह रचा और गढ़ा है और जिन रिश्तों मैं हमारे फिर से रचनाशील होने और अपनी असल आत्मा को पा लेने की संभावना छिपी होती है। बेशक वह संभावना प्रकट तभी होती है जब हम प्रकृति के मानवीय रूपांतर वाली मंजिल तक आते हैं। यहां दो चीजें हमारी मदद कर सकती हैं। एक है संस्कृति और उसकी विरासत की मानवीय जनधर्मी किस्म की पुर्नव्याख्या। इससे हम इतिहास को केवल एक समकालीन दृश्य-बिम्ब बना देने से जुड़े दृश्य-श्रव्य क्रांति वाले उपभोक्तावाद से संपर्क करने की चेतना पा सकते हैं। दूसरी चीज है- साहित्य की मार्फत मानवजाति को उपलब्ध हो सकने वाली शब्द-मूलक रचनाशीलता, जो हमारे अंतर्जगत के अनवरत मानवीय पुनर्निर्माण के लिए हमारी संवेदनशीलता को तरल बनाकर नये साचों में ढल सकने लायक बनाती है।
इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हो सकती है कि साहित्य की 'साहित्यिकता' या 'रचनाशीलता' की व्याख्या को हमें सामाजिक यथार्थ, मनुष्य के इतिहास-बोध और प्रकृति के रूपांतर से प्रकट होने वाली विकास और प्रगति की संभावनाओं के उसके सौंदर्य-बोध या आनंदमय होने की जरूरत के साथ बनने वाले रिश्तों की मार्फत करनी होगी। यानी मानव जाति की जो उत्पादक श्रमशीलता है, उसके पीछे मौजूद उसकी रचनाशील होकर आनंदित होने की प्रवृत्ति के ही एक विशिष्ट रूप की तरह हमें इसे देखना होगा। वित्तीय पूंजीवाद की जिस उच्च-तकनीकी वाली उत्पादन-पद्धति ने इस रचनाशीलता के संसार को और इसके विशिष्ट रुप की तरह साहित्य को, अपनी मृत्यु की संभावना का साक्षी होने तक के हालात में घसीट लिया है, वहां अब इस रचनाशीलता और साहित्य को बचाए रखने के लिए हमे इससे जुड़े इतने ही बड़े परिदृश्य को अपने सामने रखने की जरूरत पड़ेगी। यानी, अगर आज हम साहित्य को 'संरचनावादी' - या उसके खास रूप मार्क्सवादी 'सिद्धान्त' के जरिए व्याख्यायित करने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं, तो हमें अपनी इस 'सिद्धान्त चेतना' को थोड़ा व्यापक तो बनाना ही पड़ेगा। दरअसल, इस चिंतन-पद्धति के जरिए हम जिन 'सिद्धान्तों' तक पहुंचे थे, वे यथार्थ के द्विभाजकों पर आधारित थे। वहां हम यथार्थ और चेतना , रूप और वस्तु, समयमय और इतिहास, प्रतीक और वास्तव, यथास्थिति और रुपांतर अथवा भाषापाठ और सामाजिक व्यवहार जैसी कोटियों के आपसी रिश्तों के तनावों, अंतर्विरोधों आदि की चर्चा करके द्वन्द्वात्मक समन्वयों की उम्मीद का दामन पकडऩे की बाबत सोच सकते थे। नतीजतन भाव और विचार, हृदय और बुद्धि, अनुभूति औैर संवेदनशीलता जैसी सृजन प्रक्रिया की कोटियां कल्पना और यथार्थ वाले द्विभाजन को पीछे छोड़ती हुईं विचारधारा और सौंदर्यानुभूति अथवा स्वायत्तता और सत्ता-ज्ञान के हस्तक्षेप आदि की बहसों तक चली आई थीं। इन बहसों ने साहित्य को नयी परिभाषाएं और नये सैद्धान्तिक बीज-शब्द प्रदान किए थे। परन्तु अब जो हालात दरपेश हैं वहां टेरी ईगल्टन जैसे महत्वपूर्ण मार्क्सवादी चिंतक भी 'सिद्धान्त की मृत्यु' पर एक पूरी व्याख्यान-माला प्रस्तुत कर चुके हैं, जहां उन्हें यह भय सताने लगा है कि 'भविष्य में अच्छे बुरे साहित्य के लिए फैसले भी बहुराष्ट्रीय बाज़ार के सीईओ जैसे लोगों के द्वारा संचालित होने लग सकते हैं।' हालांकि इसे 'सिद्धान्त का न तो विकल्प कहा जा सकता है, न पर्याय' साहित्य का सिद्धान्त तो पुन: पुन: अच्छी राख से उपजे अमर-पक्षी सा प्रकट होता ही रहेगा। परंतु चिंता जो व्याप रही है, उस पर गंभीरता से केंद्रित तो होना ही पड़ेगा। हिंदी आलोचना की बात करें तो मैनेजर पाण्डेय का 'इस अकालवेला में' शीर्षक वाला आलेख देख सकते हैं जहां अकाल-वेला, साहित्य के सिद्धान्त की अकाल-वेला के प्रतीक के तौर पर आई है।
अगर हम अब तक के हिंदी के साहित्य-मूलक सैद्धांतिक विवेचन की एक संक्षिप्त रूपरेखा बनाना चाहें, तो वह कुछ इस प्रकार हो सकती है। इसकी शुरुआत द्विवेदी काल में 'हृदय और बुद्धि में विभाजित' दृष्टिकोणों के रूप में होती है। बालकृष्ण भट्ट जहां साहित्य को 'जन-समूह के हृदय के विकास' के हेतु की तरह देखते हैं, वहीं महावीर प्रसाद द्विवेदी की निगाह में 'साहित्य जाति विशेष की ज्ञान राशि का संचित कोश' होता है, इस चिंतन-मूलक अंतर्विभाजन को समन्वित करने का प्रयास रामचंद्र शुक्ल के सैद्धान्तिक विवेचन की तरह सामने आता है। उनके लिए साहित्य 'जनता की चित्त-वृत्तियों का संचित कोश' है। यहां चित्त-वृत्तियों से उनका तात्पर्य मूलक 'भाव-जगत' से है, परन्तु वे 'बोध की दुनिया' को भी इसमें 'लोक-मंगल की साधनावस्था' की तरह समेटने का प्रयास करते है; हालांकि वहां यह बात स्पष्ट नहीं होती कि सामाजिक यथार्थ की व्याख्या करने वाली किन विचारधाराओं की मदद से यह लोक-मंगल मूत्र्त रूप ग्रहण करता है। इसीलिए कुछ विद्वान उनके चिंतन के इस पहलू को 'ब्राह्मणवादी और वर्णवादी' किस्म के परंपरा-पोषी लोक-मंगलकी तरह देखते है : तथापि इस साहित्य-चिंतन का इतना सरलीकरण सम्यक नहीं लगता, क्योंकि वे अन्यत्र यह स्पष्ट कर देते हैं कि साहित्य मूलत: 'ज्ञानयोग या कर्मयोग की बजाय भाव-योग' का क्षेत्र है। इसका अर्थ यह है कि साहित्य में हमें सामाजिक यथार्थ के ज्ञान-बोध मूलक या विमर्श अथवा विचारधारामूलक रूपों की ज्यों की त्यों मौजूदगी की तलाश नहीं करनी चाहिए, अपितु साहित्य की साहित्यिवता या उसके उस असल अर्थों को वहां खोजना चाहिए, जहां साहित्य हमें अपने मार्मिक प्रसंगों से 'भावित' करता है इस तरह साहित्य में लोक-मंगल, एक 'भाव-साधना' की प्रक्रिया की तरह घटित होता है।
यानी हिंदी में साहित्य-सिद्धान्त के तौर पर जो एक बड़ा विमर्श पैदा हुआ, वह इस बात पर केंद्रित है कि हमें साहित्य की व्याख्या, ज्ञान के अन्य सामान्य विमर्शों की तरह नहीं करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हिंदी का साहित्य-सिद्धान्त, साहित्य को एक विशिष्ट भाषा पाठ की तरह ग्रहण करता है, जहां 'साहित्यिकता' को 'बोध का ज्ञान के भाव-योग-मूलक अंत: रूपांतर' की तरह ग्रहण किया जाता है। यह संस्कृत की भरत मुनि से चली आ रही भाव-मूलक रस-मीमांसा से एक कदम आगे निकल आने का संकेत करता है। इसीलिए रामचंद्र शुक्ल के लिए साहित्य के मर्म से भावित होने का आधार आलम्बन का साधारणीकरण न होकर 'आलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण' हो गया है। आलंबन का आलम्बनत्व-धर्म किस बात में निहित है - इस पर हिंदी में पर्याप्त बहस अभी तक नहीं हुई है। परन्तु यह कहीं न कहीं लूकाश के आलम्बनगत 'प्रतिनिधित्व' धर्म के करीब आता मालूम पड़ता है।
इसके बाद की आलोचना में सैद्धान्तिकी का विकास मुक्तिबोध के द्वारा होता है। वे 'ज्ञानात्मक संवेदन के संवेदनात्मक' रूप में बदल जाने की चर्चा उठाते हैं। यहां हम पूछ सकते हैं कि शुक्ल जी को 'आलम्बनत्व धर्म' स्वरूपत: 'ज्ञानात्मक संवेदन' की तरह का होता है; - जिससे लोक-मंगल-मूलक 'संवेदनात्मक ज्ञान' तक पहुंचा जा सकता है; यहां इस सवाल को इसलिए उठाया गया है, क्योंकि मुक्तिबोध के विमर्श पर विमुग्ध हमारे आलोचक कभी यह नहींं पूछते कि मुक्तिबोध की साहित्य संबंधी या सिद्धान्त-चर्चा सामान्य सृजन प्रक्रिया' की व्याख्या वाले चरण से आगे निकलकर, कृति-समग्र की व्याख्या के लिए किन कृति-मूलक ठोस 'आधारों' को चुनती है? क्या ज्ञानात्मक संवेदन सामान्य मन: प्रवृत्ति है, कृति में आलम्बन-मूलक या भाषा-प्रतीक-बिम्ब मूलक अथवा विशिष्ट फेंटेसी-संरचना-मूलक आधार को ग्रहण करने वाली 'साहित्यिकता' भी है? मुक्तिबोध अपने विवेचन के इस अधूरेपन को भांप रहे थे, जिसकी आंशिक पूर्ति उनके फेंटेसी मूलक विवेचनों में होती हैं। परन्तु उससे कृति-समग्र की व्याख्या तक पहुंचना मुमकिन नहीं हो पाता। दरअसल वे जहां पहुंचना चाहते थे, वह था - 'सभ्यता के विमर्श' की तरह देखने की सैद्धांतिकी का विकास; जो सृजन-प्रक्रिया मूलक सैद्धान्तिकी बन कर रह जाती है। यहां यह जो विमर्श मूलक अंतराल हमारे सामने एक पूछे जाने वाले जरूरी सवाल की तरह उभरकर खड़ा हो गया है, उसका जवाब तक खोजने का कोई संजीदा प्रयास अब तक की, मुक्तिबोध-परवर्ती आलोचना में नजर नहीं आता। पर यहां तक हम साहित्य की सैद्धान्तिकी के जिस विवेचन से होकर गुजरे हैं, उसका सार कुछ यो हो सकता है - साहित्य में लोकमंगल की साधनावस्था अपने भाव-योग-मूलक रूप में अभिव्यक्त होती है। यह अभिव्यक्ति मूलत: आलम्बनत्व - धर्म की तरह साधारणीकृत होती है। यह आलम्बनत्व धर्म, 'आत्मा की संकल्पावस्था' (जयशंकर प्रसाद) जैसा हो सकता है, या 'ज्ञानात्मक संवेदना की भूमि से रचित' (मुक्तिबोध) हो सकता है - जिसका प्रयोजन है, 'सभ्यता' का 'लोक-हृदय-मूलक' या 'जन-धर्मी' किस्म का 'संवेदनात्मक ज्ञान' या 'संभावना-मूलक रूपांतर' इतना स्पष्ट हो जाने पर अब हमें यह पूछ कर सकते हैं कि इस विवेचन को हम साहित्यिकता और रचनाशीलता के पूर्व-विवेचित आधार पर कैसे आगे बढ़ा सकेंगे?
भरतमुनि से लेकर मुक्तिबोध तक की हमारी साहित्य-सैद्धान्तिकी 'भाव-संवेदन मूलक' आधार पर खड़ी नजर आती है, जिसे सामाजिक, लोकमंगल मूलक और जनधर्मी सभ्यता मूलक ज्ञानात्मक अंतर्विकास तक ले आना, हमारी समसमय से जुड़ी चुनौती है। जिसे हमें सामान्य ज्ञान-विमर्श वाले बौद्धिक ढांचों की तरह नहीं, अपितु कृति-मूलक या भाषापाठीय संरचनाओं की 'भीतरी दुनिया' के उपादानों की मार्फत देखने-समझने लायक होना है।
अत: यहां हमारा प्रस्थान 'निजता' की तह भूमि है, जिसे हम भावानुभूति-मूलक संवेदनों की तरह कृतियों में बिम्बों-प्रतीकों-पात्रों-घटनाओं - परिणितियों की तरह अभिव्यक्त होता देखते हैं ये सभी कृति-मूलक उपादान इस 'निजता' का 'भाषापाठीय या कृति मूलक अन्य' है यानी साहित्यिकता की पहली पहचान का आधार है - निजता की अन्यमयता। हमारे बेहद जटिल समय ने मनुष्य की निजताओं को उसके 'आत्म' से अलहदा और बेगाना बनाकर, द्विभाजित अथवा बहुलताओं में विखण्डित किया है। इससे 'व्यक्ति या नागरिक' वाली 'निजी संपत्ति-मूलक कोटि पहले पैदा हुई, जो 'परिवार' और 'राज्य' के साथ द्वन्द्वात्मक रिश्ता बनाती है। फिर वह वैश्विक संदर्भ में बहुलता-विविधता-मूलक  'अस्मिताओं' की तरह विखण्डित हो गई। इसका अर्थ यह है कि साहित्य में भावानुभूति मूलक संवेदनों की निजताएं, व्यक्ति-मूलक अथवा अस्मिता-धर्मी रूपों में साहित्यिक कृतियों के बिम्बों-प्रतीकों-पत्रों-घटनाओं-परिणितियों वाले उपादानों का 'आधार' या कच्ची सामग्री बनती हैं, कृतियों का आलम्बन-केंद्रित संसार इन निजताओं की अन्यमयता की मूर्त अभिव्यक्ति करने वाला संसार होता है। इस अन्यमय संसार की परिणितियां, इन निजताओं की अन्यमयता का विधान करती हुई; इनकी विकल्पावस्था का पर्याय हो जाती है। यहां हम नस्ल, वर्ग जाति या लिंग मूल्क अस्मिताओं के विकल्प के रूप में अन्यमयता के जनधर्मी रुपांतर की संभावनाओं को खोज सकते हैं इसे हमें भाव-संवेदनमूलक अन्यमयता के जनधर्मी साधारणीकरण का सिद्धांत कह सकते हैं। यहां साहित्य अन्यता-विकल्प समाधि का जन-योग है।




संपर्क: मो. 09814658098


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