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जनवरी 2017

विरासत की पुनर्व्याख्या का सवाल और मार्क्सवाद

विनोद शाही

धारावाहिक
भूरी ख़ाक धूल में दवी चिंगारियां/तीन







संस्कृति हमें बुलाती है कि वह हमें अनुभव के उस विराट संसार से जोड़े रख सके, जिसे समाज के सामूहिक चित्र ने सदियों के महान अंतरालों में धीरे-धीरे गढ़ा और संवारा है। लेकिन दिक्कत यह पेश आती है कि उसे अति-विविध चेतना-संसार के पास हमें उसके वे चरण दिखाई नहीं देते, जो ज़मीन पर टिके हों और जो हमें स्पष्ट दिशाओं में ऐसे सफर पर अपने साथ ले जाते हों, जो सफर हमें प्रगति-मूलक लगता हो, हमें इस रूप में बदलता हो कि हम भविष्य को देख पा रहे हों। आम तौर पर अपने अमूर्त आदर्शवादी रूप में यह संस्कृति हमें 'मुक्त' करने और एक 'आत्मा' प्रदान करने का वायदा करती है; परन्तु हमारी वास्तविक दुनिया के अंतर्विरोधों का कोई समाधान हमें नहीं देती। वह हमें हमारे दुखों के पार ले जाने के लिए आंतरिक साधनाओं का रास्ता दिखाती है, परन्तु वे दुख जिन दमनात्मक या शोषण-मूलक हालात से उपजते हैं, उनकी कोई विश्वसनीय व्याख्या हमें नहीं देती। हालाकि हमारे दुखों और हमारी मुक्ति की ज़रुरतों के बीच जो एक रिश्ता हुआ करता है, उसे यह संस्कृति और इसके धर्म अवश्य अपना प्रस्थान बनाते हैं। इसीलिए कार्ल मार्क्स को परंपरागत धर्मों में 'पीडि़त मानवता की आह' छिपी तो दिखाई दी, परन्तु समाधान ऐसा मिला जो दुखों पर पर्दा डालने वाले किसी 'आध्यात्मिक नशे' जैसा था। इसका अर्थ इतना ही है कि यथार्थ और संस्कृति के बीच के रिश्ते की सम्यक व्याख्या करने वाली जो कड़ी है - उस पर हमें काम करना होगा। वह कड़ी है - 'प्रगतिगामी इतिहास बोध' के जरिए संस्कृति की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश और परिवर्तनगामी या प्रगतिशील इतिहास-बोध की सांस्कृतिक विरासत की पुनर्व्याख्या का सवाल, जो ऊपर से देखने पर जितना सीधा-सरल नजर आता है, उतना वह दरअसल है नहीं। वजह है कि प्रगतिशील इतिहास-बोध कोई बना बनाया सिद्धान्त नहीं है, जिसे हर सांस्कृतिक रूप पर लागू करके निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकता हो। हर समाज अपनी सांस्कृतिक विरासत के संदर्भ में जितना अद्वितीय है, उतना ही वह अपनी सामाजिक अंत: संरचना के संदर्भ में भी है।
डी.डी. कोसाम्बी ने 'मार्क्सवाद और भारतीय इतिहास' पर पुनर्विचार करते हुए पाचवें-छठे दशक में इस बात को बड़े तर्क-संगत रूप में हमारे सामने रखा था कि भारतीय इतिहास के विकास का ढांचा, यूरोप के इतिहास के विकास वाले माडल से अनेक  अर्थों में अलग है। इस संदर्भ में उन्होंने 'एशियायी उत्पादन पद्धति' के 'अपरिवर्तनीय होने' तथा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं के 'प्राच्यवादी स्वेच्छाचार' (ओरिएंटल डेस्पोरिज्म) का शिकार होने से ताल्लुक रखने वाली कार्ल मार्क्स की धारणाओं को भी खारिज कर दिया था। परन्तु मार्क्सवाद को, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को, एक 'वैज्ञानिक दृष्टि' के तौर पर ग्रहण करते हुए, अपने 'यथार्थ की भिन्न किस्म की पुनर्व्याख्या' को उन्होंने, अपनी अध्ययन-पद्धति के तौर पर अपनाया था। यह रास्ता मुश्किल है, परन्तु यही वह रास्ता है जो हमें अपने इतिहास और अपनी सांस्कृतिक विरासत की प्रगतिशील पुनर्व्याख्या के संदर्भ में 'सरलीकरणों' से बचा सकता है।
जैसे देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की बेहद प्रसिद्ध तीन और उल्लेखनीय पुनर्व्याख्या है, जो 'लोकायत' पर केंद्रित है, इसे वे पूर्व वैदिक काल के समाज और उसके सांस्कृतिक परिदृश्य को समझने के लिए 'आधार' बनाते हैं। उनकी नजर में भारत में उस दौर में 'असंगठित भौतिकवाद' और 'नास्तिकवाद' एक बेहद गौरतलब बौद्धिक 'चुनौती' की तरह मौजूद था, जिसका प्रत्याख्यान करना शेष सभी आदर्शवादी धर्म-विमर्शों के लिए - ब्राह्मणवाद से लेकर बौद्ध-जैन विमर्शों तक के लिए ज़रूरी हो गया था। मानव वैज्ञानिक साक्ष्यों का इस्तेमाल करते हुए वे इसे 'प्रकृति' (यानी भौतिकवाद) आधारित चिंतन-पद्धति के 'मातृसत्तात्मक परिदृश्य के अवशेष' की तरह देखते हैं। बाद में जो शास्त्रीय दर्शन प्रकट हुए, जिसमें नास्तिक और भौतिकवादी भंगिमा वाला 'सांख्य दर्शन' भी है, जो इस 'प्रकृति' के साथ 'पुरुष' की मौजूदगी तक चला गया है। इसे वे बाद में प्रकट होने वाले 'पितृसत्तात्मक परिदृश्य' के पर्याय की तरह देखते हैं, जो प्रकृति-मूलक भौतिकवादी चिंतन-पद्धति को अपदस्थ करता है। देवीप्रसाद का यह विवेचन चमत्कृत करने वाला है, तथापि इस पर नंबूदरीपाद की यह टिप्पणी भी कम गौरतलब नहीं कि यहां हमें 'मार्क्सवादी सिद्धान्त' के 'आरोपण से उपजे सरलीकरण' की झलक दिखाई देती है। प्राचीनकाल में आदर्शवाद के मुकाबले में भौतिकवाद के आरंभिक रूपों को यहां 'अतिशय महत्व' इसलिए दिया गया है, ताकि कार्ल मार्क्स की इस सैद्धांतिक धारणा को पुष्टि मिल सके कि मानवजाति के आरंभिक दौर में अविकसित किस्म का भौतिकवाद ही पहले प्रकट हुआ था, आदर्शवाद में श्रम-विभाजन की सामाजिक जटिलताओं के प्रकट होने के समानांतर सामने आया था। अपनी इस टिप्पणी के साथ नंबूदरीपाद यह सवाल भी पूछते हैं कि मार्क्सवाद के सबसे बड़े प्रस्तोता और प्रस्थापनकर्ता के तौर पर हम जिस लेनिनवादी मार्क्सवाद की चर्चा करते हैं, वह अपने अंतिम दौर में 'हीगेलवाद' की ओर रुख क्यो करता है? ज़ाहिर है कि देवीप्रसाद इन सवालों को अनुत्तरित छोड़ देना बेहतर समझते हैं। तथापि, इस लिहाज से डी.डी. कोसाम्बी जो रास्ता अख्तियार करते हैं, वहां सरलीकरणों के लिए गुंजाइश कम होती चली गई है। वे भारतीय समाज के विकास के विविध चरणों को समझने की प्रक्रिया में यह देख पाने में समर्थ होते हैं कि कैसे भारत का विकास, यूरोप के सामाजिक विकास से भिन्न तरह के माडल को गढ़ता है? और इसीलिए वे भारतीय सांस्कृतिक विरासत को भी उसी 'भिन्नता की आधार-भूमि' के द्वारा पुनर्व्याख्यायित करने की और उन्मुख होते हैं। कोसाम्बी ने ऋग्वेद में 'कक्षवान' की मौजूदगी पर हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि यहां हमें एक दासी-पुत्र, एक ब्राह्मण के तौर पर अधिष्ठित नजर आता है। भारत में 'दास', 'अवर्ण' कोटि थी। यानी वे जो चारों वर्णों के बाहर के कुल या कबीले थे, परन्तु जो अभी वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं थे, दास कहलाते थे। परन्तु ये दास, यूरोपीय दासों की तरह, विजेता की 'निजी संपत्ति' न होकर, समाज में आत्मसात होने लायक जनसमूह की तरह थे, जिन्हें आमतौर पर शूद्र का दर्जा मिलता था। इस तरह दास 'बाहर के आदमी' (गैर आर्य) से समाज के 'निचले तबके' में आ जाते थे। और उसमें से कुछ, जैसे कक्षवान, ब्राह्मण तक के पद के अधिकारी भी समझे जाते थे। तो, उस व्यवस्था में, संस्कृतियों की 'विविधताओं' के 'आत्मसातीकरण' के द्वारा 'संस्कृति की मुख्यधारा' का निर्माण हो रहा था। इसे कोसाम्बी, अविकसित किस्म की जनतांत्रित व्यवस्था की तरह देखते हैं। 'लोकायत' जैसे भौतिकवादी विमर्श की मौजूदगी, उस दौर की संक्रमणात्मक सामाजिक स्थितियों की ओर इशारा करती है। तथापि, यह कहना कठिन है, 'लोकायत' अपने मूल रूप में कैसा दर्शन था? इसे चार्वाक ने बृहस्पति-स्मृति से ग्रहण किया था। यह स्मृति, मनु-स्मृति जैसा ग्रंथ थी, जो अब अनुपलब्ध है। इसके कुछ खोजे जा सके सूत्रों में मन और प्राण को आत्मा के पर्याय की तरह ग्रहण करने का प्रस्ताव मिलता है। ऐसा भी उल्लेख है कि इस स्मृति के चार सूत्रों की रचना 'पुरंदर ने की थी, जो इंद्र का दूसरा नाम है। तो, अगर 'लोकायत' किसी 'स्मृति', यानी किसी विधि-विधान निर्देशक ग्रंथ से प्रेरित था, तब उसके 'नितांत भोगवादी' स्वरूप को लेकर उठने वाली शंकाएं निर्मूल नहीं हो सकती। यह जरूर कहा जा सकता है कि कुछ दास-कुलों के भोगवादी विमर्श को उस दौर में व्यापक वाद-प्रतिवाद-संवाद का आधार माना जा सका होगा।
यहां एम.एन. राय का 'लोकायत' का अध्ययन हमारे सामने एक और परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करता है। वे इस ग्रंथ को 'ग्रीक एपीक्यूरियन विमर्श का भारतीय संस्करण' मानते है। इस बात को भी वे इसकी मौजूदगी के द्वारा प्रमाणित हुआ देखते हैं कि मानवजाति के आरंभिक दौर के बौद्धिक विकास में भौतिकवाद की भूमिका अहम थी। तथापि वे इसे 'नैतिक चेतना' विरोधी विमर्श के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि 'सम्यक भौतिकवादी दृष्टि अनिवार्यत: नैतिक होती है, क्योंकि वह तर्क-सम्मत व्यवहार पद्धति पर आधारित होती है।' इससे हम एक अन्य अनुमान तक पहुंच सकते हैं कि 'ऋण कृत्वा घृतम् पीवेत्' जैसे सूत्र लोकायत-विरोधी ब्राह्मणवादियों के प्रक्षेप होंगे। परलोक को न मानने के बावजूद, लोकायतवादी यह तो मानते ही हैं कि सभी भौतिक-दैहिक परिवर्तन, मानसिक और चेतना-मूलक परिवर्तनों का हेतु होते हैं: और परिवर्तन घोर-व्यक्तिपूलक वस्तु ही नहीं, सामाजिक परिणामों वाले भी होते हैं। अत: भौतिकवादी नैतिकता, अपने आप में एक स्वत: सिद्ध प्राकृतिक परिणाम होती है। सृष्टि में सारा अस्तित्व नियमों के आधार पर काम करता  है। इसे एम.एन. राय 'दैहिक भौतिकवाद' कहते हैं जिसमें 'देहगत विचारों' के होने के भी अपने नियम होते हैं।
अब अगर हम 'लोकायत' को 'बृहस्पति-स्मृति' से प्राप्त और बृहस्पति-प्रदर प्रणीत ग्रंथ मानते हैं, तो हमें ऋग्वेद को बृहस्पति-सूक्तों (जिनमें से कुछ ब्रह्मणस्पति सूक्त के नाम से भी हैं) की आ्ेर देखना चाहिए, जहां इंद्र बृहस्पति को 'ऋतु का, यानी सृष्टि के मूल नियमों' का उद्घाटक मानता है संभव है कि, जैसा कोसाम्बी ने देखा कि भारत में गैर-आर्य कुल-गोत्रों का आर्य वर्णों और जातियों में विलय होता चला गया था, उसी प्रकार यह जो 'मूलभूत भौतिकवादी विमर्श' है, वहीं शक्ल बदलकर, मुख्यधारा कहलाने वाली ब्राह्मणवादी आर्य संस्कृति में 'समाहित या आत्मसात' हो गया हो। यहां हम कार्ल मार्क्स की उस प्रसिद्ध पंक्ति की ओर लौट सकते हैं, जिसमें वे 'आदर्शवाद की सिर के बल खड़ी अंर्तवस्तु को पुन: अपने पैरों पर खड़ा करने' की बात करते हैं यानी हमें करना यह है कि अपने उपलब्ध सांस्कृतिक स्रोतों में जाना है और वहां हमें जो बातें 'आदर्शीकृत' रूप में मौजूद नजर आएं, उनकी तह में जाकर यह देखना है कि उनका 'वास्तविक' रुप क्या हो सकता है?
कोसाम्बी द्वारा रेखांकित दासी पुत्र कक्षवान के ब्राह्मण हो जाने के समानांतर छांदोग्य उपनिषद में सत्यकाम का आख्यान मिलता है, जो यहां अर्थपूर्ण है, सत्यकाम एक दासी पुत्र है। वह अध्ययन के लिए कश्यप के आश्रम जाता है। कुल गोत्र जाति-वर्ण आदि के बारे में पूछे जाने पर वह अपनी अज्ञानता ज़ाहिर करता है। जानने के लिए वह अपनी मां के पास आता है, मां उससे सत्य नहीं छिपाती। वह कहती है कि जब वह गर्भ में आया था, वह अनेक श्रीमंतों के यहां काम पर जाती थी। वह उनमें से किस का पुत्र था, यह बता पाना उसके लिए संभव नहीं था। सत्यकाम ऋषि से यही सब कहता है तो वे उसके और उसकी मां के सत्याचरण के कारण उसे 'ब्राह्मण' के रूप में स्वीकार कर लेते हैं परन्तु शिक्षा-दीक्षा के स्थान पर सत्यकाम को दो सौ गाय संभालने के कार्य में लगा देते हैं। वे उसे इन गायों को वन में ले जाने को कहते हैं और आदेश देते हैं कि जब वे एक सहस्त्र हो जाए तो वह लौट आए।एक तरह से यह उसे आशय से दूर रखने का उपाय प्रतीत होता है, दूसरी ओर उसे ब्राह्मण के रुप में शिष्य बनाने के पीछे ऋषि की यह मानसिकता भी हो सकती है कि ऐसा करने से समाज में फैले ब्राह्मणों व सवर्णों के द्वारा दासियों के दैहिक शोषण से जुड़े व्यभिचार पर पर्दा डालने और ऋषि के रुप में अपने उदार व मानवीय होने का प्रदर्शन करने में मदद मिल सकती है। संभव है कि सत्यकाम को शिष्य बनाने से ऐसी स्थिति पैदा हो गई होगी कि ब्राह्मणों-सवर्णों को अपने पुत्रों के साथ अपने व्यभिचार की जारज संतान की मौजूदगी आश्रम में आपत्तिजनक लगी होगी। आपत्ति होने पर या विरोध जताए जाने पर ऋषि को अपनी वर्णवादी उदारता का आशय, एक विवादास्पद निर्णय जैसा लगने लगा होगा। अत: बीच का रास्ता खोजते हुए सत्यकाम को एक तरह का अघोषित वनवास दे दिया गया। ग्राम-नगर मूलक मुख्यधारा की प्रगतिधर्मी समाज-व्यवस्था में वनवास एक तरह की युक्ति की तरह रहा होगा, जो अवांछित तत्वों, प्रवृत्तियों या व्यवहारों को 'व्यवस्था के बाहर रखने' के काम आता होगा। वन पिछड़ी हुई कबीलाई व्यवस्था के पर्याय रहते होंगे। यो भी दास-समुदाय सवर्ण के तौर पर अधिकांशत: वनचारी ही होते होंगे। तो, एक तरह से यह कथा अपने भीतर अवर्णों के वर्ण-व्यवस्था में आत्मसातन की समस्याओं के ऊपर से पर्दा उठाती है और दूसरी तरफ वर्णवाद के भीतर सवर्णों में जो पतनशील व्यवहार व मूल्य पनपने लगे थे, उन्हें भी बेनकाब करती है। तथापि यह कथा, आगे और गहरे में उतरकर, संस्कृति के निर्माण की कथा के रूपक में बदल जाती है, जिससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि संस्कृतियां क्यों कैसे 'आदर्शीकरण' एवं 'अमूर्तीकरण' का सहारा लेकर, सामाजिक अंतर्विरोधों पर आवरण डालने का तथा उनके छद्म-व्यवस्थापन का 'रुपकात्मक-अभिनय' किया करती हैं?
तो, इस कथा का संस्कृति-सर्जक आदर्शीकरण वाला रुपक-पक्ष तब सामने आता है, जब एक दिन सत्यकाम से उसे गौओं के समूह में मौजूद एक बैल यह कहता है कि अब हम एक हजार हो गए हैं, अत: अब तुम हमें ऋषि के आश्रम में वापस ले जाओ। अशिक्षित सत्यकाम को गिनना भी कहां आता होगा, तो इस पर पर्दा डालने के लिए बैल अब एक रूपक का 'प्रतीकात्मक बैल' बन जाता है। वह न सिर्फ उसे गायों की गिनती बताता है, अपितु ब्रह्म-ज्ञान भी देता है। वह कहता है कि 'ब्रह्म के चार चरण हैं। मैं पहले चरण के बारे में तुम्हें बताऊंगा। ब्रह्म का वह जो चरण या पाद या अधिष्ठान है, उसे प्रकाशवान कहते हैं।'' सत्यकाम आश्रम की ओर लौट पड़ता है।रास्ते में अंधेरा घिर जाता है तो वह आग जलाता है। अग्नि प्रकट होकर उसे ब्रह्म के दूसरे अधिष्ठान के बारे में बताती है कि वह अनन्तवान है। फिर सुबह होने पर एक हंस आता है वह ब्रह्म के तीसरे पाद को ज्योतिवान बताता है। अंतत: एक समुद्र का पक्षी आकर उसे ब्रह्म के आयतनवान होने की खबर देता है। इस तरह सत्यकाम ऋषि के उपदेश के बिना ही ब्रह्म-ज्ञानी हो जाता है। यहां ब्रह्म में जो है, उसे उलटाते ही हमें दिखाई देगा- हाशिये पर पड़ा अधिकार - वंचित दास-दासी समाज और उसका जीवन-यथार्थ जैसे के चार पाद या पक्ष है - अंधकारमयता, क्षुद्रता, प्रभावहीनता और समाज में उनके लिए माकूल जगह (आयतन) की गैर-मौजूदगी और यह सब देखने-दिखाने के लिए हमें किसी भौतिकवादी विमर्श की जरूरत नहीं, यह जो ब्रह्मवाद है वह अपनी पोल खुद खोलने के लिए पर्याप्त है।



संपर्क- विनेद शाही (गुडग़ांव) -09814658098


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