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जनवरी 2017

अडिय़ल उत्तेजना का सूरमा फ़िदेल

शिवप्रसाद जोशी

20 वीं सदी का एक अक्खड़ नायक





उसके दुश्मन कहते हैं कि वो ऐसा बेताज राजा था जिसे भ्रम था कि एकता में ही एकात्मकता है।
और उसके दुश्मनों की ये बात सही है।
उसके दुश्मन कहते हैं कि अगर नेपोलियन के पास ग्रेनमा जैसा अख़बार न होता तो कोई फ्रांसीसी वॉटरलू के विनाश के बारे में न जान पाता।
उसके दुश्मनों की ये बात भी सही है।
उसके दुश्मन कहते हैं कि वो बहुत बोलकर और कम सुनकर अपनी सत्ता आज़माता है, क्योंकि वो आवाज़ों से ज़्यादा प्रतिध्वनियां सुनने का आदी है।
और दुश्मन इसमें भी सही हैं।
लेकिन उसके दुश्मन जो नहीं कहते हैं: महज़ इतिहास की किताबों में बतौर चित्र प्रकाशित होने के लिए उसने हमलावरों की गोलियों के आगे अपना सीना नहीं खोला,
उसने अधंड़ों का सामना किया, एक के बाद एक अंधड़,
वो अपनी जिंदगी पर हुए 637 हमलों में बचा,
उसकी संक्रामक ऊर्जा एक उपनिवेश को देश बनाने में निर्णायक बनी,
और ये लूसिफ़र का शाप या ईश्वर का चमत्कार नहीं था कि उसका नया देश-अपनी गोदों में नैपकिन बिछाए, उसे खाने के लिए कांटे और छूरी के साथ तत्पर, दस अमेरिकी राष्ट्रपतियों से बचकर निकल आया।
और उसके दुश्मन कभी इसका ज़िक्र नहीं करते कि क्यूबा एक अकेला अद्वितीय देश है जो पायदानी होड़ में नहीं पड़ता है न गिड़गिड़ाता है।
और वे नहीं कहते हैं कि क्रांति, जिसे गरिमा के अपराध के लिए सज़ा मिली, वही है जो वो हो सकती थी और वो नहीं जो उसने बनना चाहा था। ये भी वे नहीं कहते हैं कि साम्राज्यवादी नाकाबंदी की बदौलत यथार्थ से इच्छा को अलग करने वाली दीवार और ऊंची और चौड़ी हो गई थी, जिसने क्यूबाई शैली के लोकतंत्र का दम घोंटा, समाजका सैन्यीकरण किया, और हर निदान के लिए एक समस्या के साथ हमेशा तैयार रहने वाली  नौकरशाही को वे बहाने मुहैया कराए जिनसे उसे ख़ुद को जस्टीफ़ाई करने और जारी रखने के लिए मदद मिलती थी।
और वे नहीं कहते हैं कि तमाम दुख के बावजूद, तमाम बाहरी आक्रमण और आंतरिक अक्ख़ड़ताओं के बावजूद, इस संतप्त और ज़िद्दी द्वीप ने लातिन अमेरिका में सबसे न्यूनतम अन्यायी समाज को जन्म दिया है।
और उसके दुश्मन ये नहीं कहते हैं कि ये कमाल उसके लोगों के त्याग का नतीजा था,और उस सूरमा की अडिय़ल उत्तेजना और सम्मान की पुरातन भावना का नतीजा था जो हमेशा गंवाने वालों की ओर से लड़ता था....
(पहल-100, एदुआर्दो गालियानो-इतिहास कहता है हम फिर मिलेंगे)

पिछले कुछ समय से वो सार्वजनिक सभाओं में समय पर पहुंच रहा है। और उसके भाषणों की मियाद ऑडियंस के मूड पर निर्भर करती है। शुरुआती वर्षों के अनंत भाषण, किंवदंती बन चुके अतीत का हिस्सा हैं, क्योंकि बहुत कुछ जो उस समय समझाया जाना था वो समझा जा चुका है। और फ़िदेल की स्टाइल भी खुद अब कई सारे सत्रों की भाषण कला के प्रशिक्षण के बाद संक्षिप्त हो गई है। उसे कभी भी कम्युनिस्ट रूढि़वाद के पेप्यरमैच (कुट्टी) सरीखे नारों को दोहराते नहीं सुना गया है। न ही वो सिस्टम के रस्मी जुमलों का इस्तेमाल करता है। वो उस फ़ॉसिल भाषा से दूर है जो बहुत पहले यथार्थ से अपना संपर्क खो चुकीहै और स्तुतिगान और स्मारक निर्माण में व्यस्त पत्रकारिता के साथ जिसका घनिष्ठ संबंध है। वो भाषा जिसका इरादा कुछ स्पष्ट करने के बजाय छिपा लेने का ही लगता है। फ़िदेल आला दर्जे का गैर-हठधर्मी है। उसकी रचनात्मक कल्पनाशीलता मतांतरों की खाई के ऊपर मंडराती रहती है। वो दूसरों की कही बातों को बहुत कम कोट करता है, न बातचीत में और न ही किसी मंच से। वो सिर्फ खोसे मार्ती के कथन ही कोट करता है जो उसका पसंदीदा लेखक है।
सीधे संपर्क पर उसका पक्का यकीन है... भीड़ के बीच से कोई उसे पुकार लेता है, खासकर हवाना से बाहर ये कोई असामान्य बात भी नहीं कि किसी पब्लिक मीटिंग में कोई उससे बहस करने लगे और शोरशराबा हो जाए। उसके पास हर अवसर के लिए एक भाषा है। और समझाने के विभिन्न तरीके... उसके पास विभिन्न सूचनाओं का भंडार है। और वो किसी भी माध्यम में आसानी से आवाजाही कर लेता है। लेकिन उसकी शख़ि्सयत इतनी जटिल और अप्रत्याशित है कि एक ही मुलाकात में हर कोई उसके बारे में अपना एक अलग इंप्रेशन बना सकता है।
(पहल-92, गाब्रिएल गार्सिया मार्केस : फ़िदेल कास्त्रो का एक निजी पोट्र्रेट)
लातिन अमेरिका को ''आशा'' शब्द बहुत प्रिय है। हमें स्वयं को ''आशा'' का महाद्वीप कहलाना पसंद है। संसद, राष्ट्रपति और अन्य प्रतिनिधि स्वयं को ''आशा के प्रत्याशी'' कहलाना पसंद करते हैं। यह आशा स्वर्ग का वायदा है, एक ऐसा वायदा जो कभी पूरा नहीं होगा। वह अगले चुनावों तक, अगले साल तक, अगली सरदी तक टलता जाता है। जब क्यूबा की क्रांति हुई तो लाखों लातिन अमेरिकी नींद से जगे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। एक ऐसा महाद्वीप जिसने उम्मीद करना ही छोड़ दिया था, वह इस पर कैसे विश्वास करता। लेकिन यहां फिदेल कास्त्रो था जिसे कोई जानता भी नहीं था जिसने उम्मीद को बालों से पकड़ लिया, पैरों पर खड़ा किया और कस कर पकड़ कर अपनी मेज पर बिछा लिया यानी लातिन अमेरिका के लोगों के घर में बिठा दिया।
(पाब्लो नेरुदा का संस्मरण : अनुवाद - कर्णसिंह चौहान, समालोचन ब्लॉग के साभार)

फ़िदेल के बारे में सबसे सही, सच्ची और पारदर्शी बात लिखने वालों में ग्राब्रिएल गार्सिया मार्केस, एदुआर्दो गालियाना और पाब्लो नेरुदा का नाम सर्वोपरि रहेगा। वरना तो उस व्यक्ति के बारे में इतनी सारी बातें इतनी सारी भाषाओं इतने सारे देशों के इतने सारे विचारों, महिमामंडनों, मंतव्यो, निंदाओं, गालियों और विरोधों और विरोधाभासों में प्रकट और प्रकाशित की जा चुकी है कि हैरानी होती है ये किसी इंसान के बारे में कही गई इतनी सारी बातें हैं या किसी ग्रह का बहुआयामी बहुस्तरीय बहुरंगी विवरण, इससे पहले शायद इतनी बातें समकालीन दुनिया में आइन्श्टाइन के बारे में हुई होंगी।
25 नवंबर 2016 की रात को फ़िदेल ने आखिरी सांस ली। वो सबसे लंबी रात थी और क्यूबा के लिए सबसे अंधेरी सबसे उदास रात। उसके आलोचक कहते हैं कि एक बर्बर तानाशाही का अंत हुआ। अमेरिका के मियामी में क्यूबा प्रवासियों के बीच जश्न की खबरें और फुटेज बड़े पैमाने पर निधन की खबर के साथ ही साथ रिलीज़ की गईं। डोनाल्ड ट्रंप का चार शब्द का ट्वीट सुर्खी बना दिया गया। ''फिदेल कास्त्रो इज़ डेड।'' लेकिन ये चार शब्द जैसे 90 साल के उस विशाल बूढ़े की काया के अंतरमहाद्वीपीय विस्तार और उसकी वैश्विक प्रासंगिकता के एक थके हुए और हताशा भरे कुबूल में परिवर्तित हो गए। मानो अमेरिकी निजाम लगभग छह दशक के इस प्रतिरोध को न हरा पाने और जीते जी कुछ न बिगाड़ पाने की झल्लाहट में बस इतना ही कह पाया हो। अमेरिका ने इस तरह से फ़िदेल कास्त्रो की ऐतिहासिकता कुबूल की। ज़रा कल्पना कीजिए कि अमेरिका का कॉरपोरेट मीडिया अगर डेमोक्रेट प्रतिद्वंद्वी उम्मीवार, अपने जन-संरक्षण और सिस्टम विरोधी विचारों के लिए मशहूर नेता बर्नी सैंडर्स को उतनी तवज्जो देता जितना उसने पहले हिलेरी क्लिंटन और फिर ट्रंप की दी तो आज अमेरिकी चुनाव के नतीजे कुछ और होते। डेमोक्रेट्स के थैलीशाह, बड़े बिजनेस घराने और डेमोक्रेट्स के ही बीच के महत्वाकांक्षी नेता अगर सैंडर्स की उम्मीदवारी को तवज्जो देते, अगर जनता ही एक सुर में आवाज़ लगा देती तो आज, अमेरिकी इतिहास कुछ अलग ही होता। अमेरिकी राष्ट्रपति, कास्त्रो के जनाज़े में शामिल होता और कतार दर कतार दुनिया के अन्य माननीय वहां होते। बहरहाल, संयुक्त राज्य अमेरिका के पास एक छोटे से द्वीप देश का क्रांतिकारी नेता अपनी मृत्यु के समय भी विजेता था। वो शांति और साहस में मरा।
कास्त्रो के बारे में सिर्फ कथित अधिनायकवादी संदर्भों में लिखेंगे और सोचेंगे तो जल्द ही काम पूरा हो जाएगा लेकिन अगर उस विराट क्यूबाई और लातिन अमेरिकी स्वप्न को संदर्भ बनाकर लिखेंगे जिसने क्रांति को जीत दिलाई, हमलों और नाकाबंदियों का मुकाबला किया, दुष्प्रचार और विश्वनेताओं की सिलसिलेवार अनदेखी को डटकर बर्दाश्त किया, अपनी संप्रभुता और स्वाभिमान का निर्माण किया, आत्मसम्मान पर ठेस नहीं लगने दी, सबको शिक्षा सबको स्वास्थ्य साकार किया - तो फिर कास्त्रों के बारे में लिखते रहने की एक मुश्किल तफ्सील से गुज़रना होगा। ये सिलसिला रुकेगा नहीं। जैसा कि हम इधर कास्त्रो के निधन के बाद दुनिया भर से फूटे शोक संदेशों, उदास सलामियों और उनकी अंतिम विदाई के विलक्षण नजारों में देख सकते हैं। कास्त्रो की निंदा के नैरेटिव पर ये अफ़सोस भारी पड़ता है। कास्त्रो को स्मारकों और मूर्ति प्रतिष्ठा से नफ़रत थी। उसकी ये इच्छा थी कि मौत के बाद ऐसा कुछ न हो उसका स्मारक बन जाए, जहां तहां तस्वीरें टांग दी जाएं। क्यूबा के राष्ट्रपति और फिदेल के भाई राउल कास्त्रो ने इस बात का ऐलान कर दिया है। वो बस दिलों में रहेगा।
20 वीं सदी की विश्व राजनीति के एक अहम किरदार की आखिरी विदाई के मौके पर दुनिया के बड़े देशों के शासनाध्यक्ष और राष्ट्राध्यक्ष अनुपस्थित थे। चाहे वे ग्रुप सात हों या ग्रुप इलेवन या और भी दूसरी ग्रुपबंदियां, पड़ोसी देश कनाडा के सुकुमार और अपनी लिबरल अदाओं से मोहित करने वाले और समारोहों में यदाकदा भांगड़ा करते रहने वाले राष्ट्रपति जस्टिन ट्रेडेड तक कन्नी काट गए। जिनके पिता और कनाडा के पूर्व राष्ट्रपति पियरे ट्रेेडेड का फ़िदेल कास्त्रो से एक मज़बूत दोस्ताना था और कास्त्रो जिनके निधन पर कनाडा पहुंचे थे। उनके सुपुत्र डर गए। डोनाल्ड ट्रंप के ट्वीट ने बहुत से दूसरे देशों को डराया। नोबेल शांति पुरस्कार बटोर चुके जाते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी आखिरी दिनों में नई करवट नहीं ले पाए। कुछ लातिन अमेरिकी देशों के नेता, दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति और अन्य चुनिंदा अफ्रीकी देशों के शासनाध्यक्ष अंतिम संस्कार में पहुंचे। बारी देशों ने अपने प्रतिनिधि भेजकर रस्म अदायगी की। भारत ने गृहमंत्री को भेजा। इसमें दो संकेत हैं। पहला संकेत तो बिल्कुल संदेश ही है। बात साफ़ है कि क्यूबा नहीं जाना है। एकजुटता दिखाने की हल्की सी कोशिश भी नहीं दिखानी है। क्यूबा के संताप से इस नई अनुदारवादी एकजुटता का भला क्या नाता। एक नया वैश्विक समीकरण आकार ले चुका है, इसकी एक शक्ल बन चुकी है।
खैर... बड़े मुखिया पहुंचे न पहुंचे हों लेकिन उनकी अनुपस्थिति ने भी जैसे कास्त्रो को सलामी ही दी। वे नहीं गए लेकिन नज़रअंदाज न कर पाए। विश्व की नागरिक बिरादरी में कास्त्रो का ऐसा प्रभाव और सम्मान है कि ये नेता चौंक जाते होंगे कि आखिर एक सुदूर द्वीप के 90 साल के बूढे जर्जर नेता के पास कौनसा जादू था जो लोग उसे बेतहाशा याद कर रहे हैं। यहीं पर वो संदर्भ फिर से याद करने की जरूरत है, जो वंचितों के स्वप्न से जुड़ा है। और जो संदर्भ वृहद तौर पर वर्चस्व के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के हौसले से जुड़ा है। कास्त्रो की राजनीति को अपने विरोधियों के दमन और समाजवादी प्रयोगों में देश को झोंक देने वाली सनकी नेता के तौर पर बेसक माप लीजिए लेकिन ये भी जांचना न भूलिए कि अमेरिकी साम्राज्यवाद और पूंजीवादी आधिपत्य से निर्मित भूमंडलीकृत वर्चस्ववाद के सामने प्रतिरोध की अंतहीन राजनीति के नायक के रूप में कास्त्रो होने का अर्थ क्या है।
कथित रूप से मुक्त दुनिया की बड़ी ता$कतें जिन्हें अक्सर 'अंतरराष्ट्रीय समुदाय' कह देने में कॉरपोरेट मीडिया को जरा भी हिचक नहीं होती, अमेरिका और ब्रिटेन की अगुवाई वाले ये ताकतें जब दक्षिण अफ्रीकी नस्लभेदी सरकार और अंगोला के प्रतिक्रियावादियों के पक्ष में खड़ी रहती थीं तब क्यूबा ही था जो सेना भेजने का साहस और जोखिम उठा सकता था।  वाम-लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने वाली पश्चिमी सत्ताओं की सेना और खुफिया तंत्र को परास्त करने का माद्दा यूं ही नहीं आता। अमेरिका के अश्वेत आंदोलनकारी और राष्ट्रवादी नेता मैल्कम एक्स ने कहा था, ''गोरा आदमी गोरिल्ला लड़ाई का मुकाबला नहीं कर सकता है। गोरिल्ला कार्रवाई में दिल-गुर्दा चाहिए, दिलेरी चाहिए- और उसके पास ये नहीं है। वो तब तो बहादुरी दिखा लेता है जब उसके पास टैंक होते हैं। विमानों के साथ वो बहादुर हो जाता है। वो बमों के साथ बहादुर हो जाता है। वो पूरी सेना के साथ आता है तो बहादुर हो जाता है। लेकिन अगर अफ्रीका और एशिया के उस अदने से शख़्स को देखा, उसे ब्लेड के साथ जंगलों में खुला छोड़ दो। उसे बस उतना ही चाहिए। उसे बस एक अदद ब्लेड की ज़रूरत होती है। और जब सूरज नीचे उतर जाता है और अंधेरा घिर जाता है, तब ये लड़ाई बराबरी की हो जाती है।'' (गार्गा चटर्जी)
उत्पीडि़तों के अंतरराष्ट्रीयवाद और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता में फ़िदेल कास्त्रो और नेल्सन मंडेला साथ थे। अमेरिका कास्त्रो को 'तानाशाह' कहता रहा और मंडेला को वो 'आतंकवादी' कहता था। अब आप इन विशेषणों को समझ लीजिए और इनके संदर्भ में भी इन नेताओं को परखिए कि आखिर कैसा इनका जलवा रहा होगा जो बड़ी ता$कतें तो इनसे खुंदक खाती रहीं और तमाम छोटे साधारण लोग इन्हें चाहते रहे। 1991 में जब मंडेला क्यूबा गए तो उनके बीच सार्वजनिक रूप से जो बात हुई उसके कुछ दिलचस्प अंश देखिए:
मंडेला : इससे पहले कि हम लोग कुछ कहें, आपको बताना होगा कि आप दक्षिण अफ्रीका कब आ रहे हैं? अब ये मत कहिएगा-नहीं, ये नहीं कि एक मिनट रुको, एक मिनट रुको, एक मिनट रुको।
कास्त्रो: जितना जल्दी हो सके उतना अच्छा रहेगा।
मंडेला: हमारे यहां विभिन्न किस्मों के लोग दौरा कर चुके हैं। और हमारा दोस्त, क्यूबा, जिसने हमारे लोगों को प्रशिक्षित किया, हमारे संघर्ष के लिए संसाधन मुहैया कराए, हमारे लोगों को बतौर डॉक्टर प्रशिक्षित किया, और स्वापो (साउथ वेस्ट अफ्रीका पीपुल्स एसोसिएशन-नामीबिया की आजादी का राजनैतिक आंदोलन के बाद में एक राजनैतिक दल बन गया। की मदद की... और आप हमारे देश नहीं आए हैं। आप कब आएंगे, बताइये?
कास्त्रो: मैं अभी तक अपने दक्षिण अफ्रीकी घर नहीं जा पाया हूं। मैं जाना चाहता हूं। मैं उसे मातृभूमि की तरह प्यार करता हूं मैं उसे वास्तव में प्यार करता हूं और आपको और दक्षिण अफ्रीकी जनता को प्यार करता हूं।
(गार्गा चटर्जी, रायोट.ओर्ग से साभार)
फ़िदेल कास्त्रो आख़िरकार 1998 में दक्षिण अफ्रीका गए। वहां संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने बताया था कि अफ्रीकी महाद्वीप में आज़ादी के लिए या विदेशी हमलों के ख़िलाफ़ क्यूबा के तीन लाख 81 हजार 432 सैनिक ज़मीनी लड़ाई में अफ्रीकी सैनिकों के साथ तैनाथ थे। इस लड़ाई में क्यूबा के कई सैनिक मारे गए। लॉस एंजिलिस टाइम्स की 1987 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1976 से अंगोपाल में दस हज़ार क्यूबाई सैनिक मारे गए। ये संख्या वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों की मौतों से कहीं ज़्यादा थी। 1975 में अंगोला के मुक्ति संग्राम से लेकर 1988 में दक्षिण अफ्रीकी सेना के खिलाफ लड़ाई में क्यूबाई सैनिकों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। क्यूबा ने जब अपनी सेना अंगोला और दक्षिण अफ्रीका को भेजी थी तो सिर्फ एक आमने सामने की लड़ाई का अभियान नहीं था। क्यूबा के डॉक्टर, तकनीशियन और गुरिल्ला लड़ाके अफ्रीकी जाबांज़ों को प्रशिक्षित करने भी गए थे। नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, ''पहली बार किसी दूसरे महाद्वीप का कोई देश अफ्रीका में आया था कुछ लेने के लिए नहीं बल्कि अफ्रीकियों को अपनी आज़ादी हासिल करने में मदद के लिए।'' $करीब एक सदी का जीवन फ़िदेल कास्त्रो का रहा है। 20 वीं सदी के संघर्षों, यातनाओं और विडंबनाओं के चुनिंदा चश्मदीदों में वो थे। शीत युद्ध उपरांत विश्व की उथल-पुथल के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सशक्त प्रवक्ता, क्यूबा में समाजवाद के अनूठे प्रयोग के निर्माता और दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका और उसके युद्धोन्मत राष्ट्रपतियों के विभिन्न कार्यकालों के साए में छोटे से क्यूबा को खड़ा रख पाने वाले योद्धा और राजनीतिज्ञ थे फिदेल कास्त्रो, उनकी प्रासंगिकता कुछ ऐसी है कि दबदबे और आधिपत्य और नवउदारवादी कब्ज़ों से चोट खाई और सताई दुनिया के लिए अब भी सांत्वना और साहस का काम करती है। खासकर दक्षिण एशिया के आंदोलनों के लिए तो कास्त्रों लड़ाई का एक बड़ा प्रतीक हैं ही।
कास्त्रो के मित्र और कोलंबियाई उपन्यास गाब्रिएल गार्सिया मार्केस का वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड (1967) के फ़ौरन बाद, 1975 में एक उपन्यास आया था: द ऑटम ऑफ़ द पैट्रियार्क, मार्केस के मुताबिक ये उनका सबसे प्रिय उपन्यास था। अगर वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड उनकी ज़िंदगी की धुरी का प्रतिबिंब था तो ये उपन्यास उनके रचनाकर्म की चूल थी। कहा तो ये भी जाता है कि द ऑटम ऑफ़ द पैट्रियार्क में कास्त्रो के भी कुछ शेड्स हैं। हेबेर्टो पादिला क्यूबा के कास्त्रो विरोधी एक लेखक थे जिन्हें 1971 में जेल में डाल दिया गया था। जिनके लिए कहते हैं। मार्केस ने रहम की पैरवी की थी और उन्हें देश छोडऩा पड़ा था। वो घटना लातिन अमेरिकी इतिहास में पादिला अफेयर के नाम से मशहूर है जिसके बाद बहुत से लातिन अमेरिकी लेखकों और बुद्धिजीवियों ने कास्त्रों से किनारा कर लिया था। मार्केस के पूर्व मित्र मारियो वर्गास खोसा भी उनमें एक थे जिन्होंने मार्केस को कास्त्रो का दोस्त बने रहने के तीखी आलोचना की। उन्होंने मार्केस को कास्त्रो का दरबारी तक कहा। लेकिन कास्त्रो की शख्सियत का जादू था या मार्केस पर उनके कद का प्रभाव या उनके मन में उनके प्रति दोस्ती की अटूट चाहत- वो कास्त्रो से कभी अलग नहीं हो पाए। बेशक मध्यम आवाज़ में और निजी मुलाकातों में वो उनकी आलोचना करते रहे। मार्केस क्यूबा की क्रांति से भी बहुत प्रभावित थे। कास्त्रो जब 60 साल के हुए तब मार्केस ने उन पर एक शब्दचित्र भी लिखा था (अनुवाद: पहल 92) मार्केस ही थे जिनके कहने पर जेल में बंद कास्त्रो विरोधियों को छोडऩे को लेकर चर्चा शुरू हो पाई थी। अपने एक परिचित को छुड़ाने में मार्केस सफल भी रहे थे। लेकिन कास्त्रो पर लिखे अपने निबंध में मार्केस ने क्यूबा की सैन्य अफ़सरशाही के निकम्मेपन का ज़िक्र भी किया है। उन्होंने लिखा, ''अफसर उससे तो सबसे गंभीर सच्चाई छिपाते हैं वो कमियों के बारे में है। क्योंकि क्रांति को $कायम रखने वाली बड़ी उपलब्धियों के बावजूद-राजनैतिक, वैज्ञानिक, खेल, सांस्कृतिक उपलब्धियां- इन सबके बावजूद अफ़सरशाही की एक विराट अयोग्यता रोज़मर्रा के जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रही है। और सबसे बढ़कर घरेलू ख़ुशी को खाए जा रही है।''
क्रांति विरोधियों के प्रति कास्त्रो बेरहम थे, लेकिन उनकी शख़ि्सयत को इसी आधार पर आंककर छोड़ देना सही नहीं होगा। 19 वीं सदी में स्पेन से क्यूबा के मुक्तिसंग्राम के अगुआ मार्ती एक बड़े लेखक थे। उन्होंने कहा था: हमारी शराब बेशक कड़वी है लेकिन ये हमारी शराब है। खोसे मार्ती न सिर्फ फ़िदेल कास्त्रो के नायक थे वो आम क्यूबाई नागरिक के भी नायक हैं। मार्ती के बाद सबसे ज़्यादा यादगार व्यक्तित्व क्यूबा के इतिहास में कास्त्रो का ही है। आज अमेरिका और उसका मीडिया और दुनिया भर में फैले उसके प्रचारक कहते नहीं थक रहे कि कास्त्रो के साथ एक बर्बर युग का अंत हुआ। क्यूबा के लोग आजाद हुए, उनकी बहुत सी आज़ादियां लौट आई। ये वो अमेरिका कह रहा है जो विभिन्न नागरिक आज़ादियों को कुचलने के लिए कुख्यात रहा है। जिसकी कुख्याति के ताज़ा दाग चेल्सी मैनिंग, एडवर्ड स्नोडेन और जुलियन असांज और ग्वांतनामो बे में विचाराधीन कैदियों के दमन से जुड़े हैं। और इराक, अफगानिस्तान और सीरिया और गज़ा और कश्मीर की बरबादियां तो एक लगातार बनी हुई सिरहन की तरह हैं ही। अमेरिकापरस्त मीडिया भी यही बताता आ रहा है कि फ़िदेल कास्त्रो की वजह से ही दुनिया एटमी युद्ध की कगार पर पहुंच गई थी। इसके लिए क्यूबा में तैनात तत्कालीन सोवियत मिसाइलों का हवाला दिया गया था। लेकिन नॉम चॉमस्की जैसे एक्टिविस्ट ही बता पाते हैं कि ये एक झूठ है जिसे सुनियोजित और सामरिक रूप से फैलाया गया। कोई नहीं बताता कि अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ़ जब तुर्की में अपनी जुपिटर मिसाइलें तैनात की और न हटाने पर आमादा रहा तो सोवियत सत्ता ने भी अपनी मिसाइलें क्यूबा में लगा दीं। कास्त्रों को अमेरिकी वर्चस्व के विरुद्ध एक बड़े डेटेरेंट की जरूरत थी। ये काम आया, क्यूबा क्यूबा....अमेरिकी सत्ता के दिलोदिमाग में उसका इतना ख़ौफ़ है, न जाने क्यों। जबकि वो कुल देश उसके एक राज्य पेनसिलवेनिया से भी छोटा है। इस ख़ौफ़ की प्रचंडता ही थी कि अमेरिका ने 1959 के बाद लगातार सैकड़ों कोशिशें की, फ़िेदल कास्त्रो को अपदस्थ करने की, उन्हें मारने की लेकिन हर वार नाकाम रहा। गोरिल्ला अनुभव वाले नेता को मात देना आसान नहीं था। कास्त्रो ने अमेरिकी हमलों के जवाब में एक बार कहा था, ''वे समाजवाद के फेल हो जाने की बात करते हैं लेकिन ये बताइये कि अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में पूंजीवाद की सफलता कहां हैं?''
आखिर अमेरिका या अमेरिकी झकाव वाली विदेश नीतियों और क्यूबाई विदेश नीति में क्या अंतर है। इस बात को  वेनेजुएला में तैनात क्यूबा के एक डॉक्टर ने एक लेखक पत्रकार को कुछ इस तरह समझाया: हम भी युद्ध क्षेत्रों में लड़ते हैं लेकिन ज़िंदगियां बचाने के लिए। विनाश का निर्यात नहीं किया, कास्त्रो के क्यूबा ने दुनिया भर में अपने डॉक्टर भेजे। द न्यूयार्क टाइम्स की 2009 की एक रिपोर्ट में बताया गया कि क्रांति के 50 साल करे दौरान क्यूबा ने कम से कम 103 देशों में मेडिकल अभियानों के तहत एक लाख 85 हज़ार चिकित्साकर्मी भेजे थे। पश्चिम अफ्रीका के तीन देशों में एबोला वायरस घातक होकर फैला तो वहां जाने और देर तक रुकने वाले राहतकर्मियों में क्यूबा के ही साहसी वॉलंटियर थे। 2010 में हैती के प्रलंयकारी भूकंप और उससे पहले 2005 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आए भीषण भूकंपों के दौरान तबाही के बाद जो मानवीय मदद याद की गई तो वो क्यूबाई चिकित्सा दलों की ही थी।
फ़िदेल कास्त्रो अपनी जनता की सच्ची निराशा के प्रतिनिधि थे। वो उनकी सच्ची कामनाओं के प्रतिनिधि भी थे। उनके निधन पर अगर पूरी दुनिया में उनसे एक जुड़ाव महसूस किया गया तो इसकी एक बड़ी वजह यही है कि कास्त्रो ने अपना एक विशिष्ट लातिन अमेरिकी समाजवाद विकसित किया था। सोवियत मॉडल से हटकर कास्त्रो ने लातिन अमेरिकी परिवेश में जो प्रयोग किया और समाजवाद के साथ ईसाइयत की प्रेरणाओं को पिरोया, उससे लोगों में नई उम्मीद जगाई। आज जब पूंजीवादी सिस्टम को लेकर कई सवाल और चिंताएं सामने हैं, खुद अमेरिका एक बड़े अनिश्चय से गुजर रहा है- ऐसे में फ़िदेल कास्त्रो का समाजवाद एक नई मानवीय जनपक्षीय विश्व संरचना की मांग की ज़िंदा रखेगा। आख़िर में शोक और दुख में व्याकुल क्यूबा के एक नागरिक ने एक रिपोर्टर से फ़िदेल की याद में बस इतना पूछा: अगर फ़िदेल फेल था और क्रांति भी फेल थी तो हमारी अपनी ज़िंदगियां क्या थीं।

संपर्क - शिवप्रसाद जोशी (देहरादून) - 09756121961


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