मुखपृष्ठ पिछले अंक रोशनी के बीज बोने का माद्दा
नवम्बर 2016

रोशनी के बीज बोने का माद्दा

सुभाष गाताडे

किताबें

 



दाभोलकर, पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी की हत्या और इनके रास्ते पर चलने वालों की प्रताडऩा के पश्चात् पूरा परिदृश्य खेदजनक है। झुंझलाहट तो तब होती है, जब देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा राजनैतिक स्वार्थ, नासमझी व भावुकता के कारण उत्पीड़कों को समर्थन देता रहता है। यहाँ सब से महत्वपूर्ण है कि इस प्रकार के प्रकरण में शासन की कोई भी उचित प्रतिक्रिया नहीं मिली। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि निहित धार्मिक स्वार्थों के विरुद्ध बोलने पर देश का कोई भी नागरिक सुरक्षित नहीं है और ऐसे प्रकरणों में शिकायत करने वालों की बात पर शासन गंभीर भी नहीं है। इससे समाज को सीधे चेतावनी मिलती है कि असहमति को सहन नहीं किया जाएगा। दाभोलकर, पानसरे व कलबर्गी की हत्याओं पर चुप्पी रखी जाए। हत्याओं का विरोध करने वाले भी बख्शे नहीं जा रहे हैं। उन्हें विरोध की सजा दी जा रही है और इसमें शासन भी अपवाद नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं बौद्धिक समाज के रसातल में जाने की शुरुआत है।



'अंधविश्वास उन्मूलन' पुस्तकत्रयी के बहाने चन्द बातें

श्मशान में कवि सम्मेलन और वह भी अमावस की पूरी रात।
पिछले साल के अन्त में पुणे से आयी इस खबर की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान गया था। उधर शहर में लोग दीपावली मना रहे थे और वहां सैकड़ों की तादाद में एकत्रित लोगों के बीच कविताएं पढ़ी जा रही थीं, एक कविता संग्रह का विमोचन भी हो रहा था, कुछ सांस्कृतिक समूह भी बीच बीच में अपनी प्रस्तुतियां दे रहे थे। पुणे के उपनगर बोपोडी की श्मशानभूमि का परिसर उस अलग ढंग के कार्यक्रम का गवाह बना था।
'अमावस्या की पवित्र रात में श्मशान में कवि सम्मेलन' शीर्षक से आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य आयोजक थे, महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति - जिसके निर्माण में शहीद विचारक डा. नरेन्द्र दाभोलकर ने पहल की थी तथा सिद्धार्थ संघ और सिद्धार्थ महिला संघ। समिति के सदस्यों द्वारा गया एक गीत काफी चर्चित हुआ, जिसके बोल थे 'बो रहे हैं हम प्रकाश बीज'।
भूतों-प्रेतों के 'अस्तित्व' या उनके 'विचरण' को लेकर समाज में व्याप्त भ्रांत धारणाओं को चुनौती देने के लिए अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के बैनर तले आयोजित इस कार्यक्रम ने बरबस कुछ समय पहले कर्नाटक के बेलागावी सिटी कार्पोरेशन के अन्तर्गत आते बैकुंठ धाम श्मशान में हुए एक अन्य आयोजन की याद ताजा कर दी थी, जहां कर्नाटक के उत्पादनशुल्क/एक्साईज मंत्री जनाब सतीश जरकीहोली ने सैकड़ों लोगों के साथ वहीं रात बिताई थी और वहां भोजन भी किया। याद रहे कि महाराष्ट्र की तर्ज पर कर्नाटक विधानसभा में अंधश्रद्धा विरोधी बिल लाने में अत्यधिक सक्रिय रहे मंत्री महोदय दरअसल लोगों के मन में व्याप्त इस मिथक को दूर करना चाहते थे कि ऐसे स्थानों पर 'भूत निवास' करते हैं।
याद रहे कि 'काला जादू कानून' नाम से अधिक चर्चित इसी कानून के निर्देशों के मद्देनजर ऐसे कई पाखंडी बाबाओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजा जा चुका है, जो चमत्कार दिखा कर लोगों को गुमराह कर रहे थे। स्वयं महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के पास रिकार्ड मौजूद हैं, जो बताते हैं कि उनकी संख्या डेढ़ सौ से अधिक हैं। उपर्युक्त कानून का निर्माण डा. दाभोलकर की शहादत के बाद ही हुआ था, जिसके लिए उन्होंने वर्षों संघर्ष किया था। $खबरों के मुताबिक समिति महाराष्ट्र, कर्नाटक या गोवा में अपनी तीन सौ शाखाओं के जरिए ऐसे तमाम मामलों में सक्रिय है। एक तरफ आस्था का दोहन करते तमाम बाबाओं, साध्वियों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती दिखती है, वहीं यह जानना दिलचस्प है कि ऐसी समानान्तर प्रक्रियाएं भी देश में चल रही हैं, जो भारत की संविधान की धारा 51 ए - जो मानवीयता एवं वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती हैं- के दायरे में सम्मिलित कामों को ही अपने स्तर पर आगे बढ़ाती दिखती हैं।
अपनी किताब 'डिसएनचेन्टिंग इण्डिया : आर्गनाइज्ड रेशनेलिजम इन इण्डिया' (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012) में लेखक जोहान्स क्वैक भारत के तर्कवादी आन्दोलन पर जब निगाह डालते हैं, तो इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति देश का सबसे सक्रिय तर्कशील संगठन है। अतीत के अनुभवों से लेकर आज की सक्रियताओं पर निगाह डालनेवाली इस किताब में कई सारे पन्ने समिति के कामों पर ही केन्द्रित है। प्रस्तुत किताब भारत के तर्कशील आन्दोलन के अलक्षित इतिहास को, उसकी तमाम शख्सियतों को भी उजागर करती है। इसमें ज्योतिबा फुले, गोपाल आगरकर, शाहू महाराज, रामास्वामी नायकर, जवाहरलाल नेहरू, डा. अम्बेडकर, एन.एन. रॉय, गोपाराजू राव 'गोरा', अण्णादुराई और कई अन्य शामिल है।
पिछले साल को ही बात है जब डा. नरेन्द्र दाभोलकर के बेटे हामिद दाभोलकर ने / कैचन्यूज, http://www.catchnews.com/india-news/every-radhe-maa-kills-my-fater-again1440106007.html@ को दिए अपने साक्षात्कार में बताया था कि किस तरह डा. दाभोलकर की शहादत के बाद कई सारे ऐसे कार्यकर्ताओं में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्य के लिए अपने आप को पूरी तरह समर्पित किया है और किस तरह उस मशाल को मजबूती से आगे बढ़ाया है, जिसे दाभोलकर ने प्रज्वलित किया था। गोया वह इस बात को प्रमाणित करना चाह रहे थे कि उनकी मौत उनके विचारों को समाप्त नहीं कर सकतीं।
हामिद का कहना था कि 'हमारा यह लक्ष्य था कि उन्होंने जिस मकसद के लिए अपने आप को कुर्बान किया था, उसे आगे बढ़ाया जाए क्योंकि अगर हम उसमें असफल होते तो इसका मतलब होता कि हत्यारों की जीत हुई।... जब भी किसी नेता की मौत होती है, तो उसके अनुयायी, आवेग में आकर हिंसक हो जाते हैं। हम लोगों ने उससे अपने आप को दूर रखा और मेरा मानना है कि यह उनके विचारों की जीत है, जो उन्होंने हमारे सामने रखे।'

चार्वाकों का आधुनिक वारिस


अपने आप को सहिष्णु कहलानेवाले भारत की सरजमीं पर तर्कशीलता एवं बुद्धिवाद की पताका बुलन्द करने वाले लोगों को किन खतरों से गुजरना पड़ता है, इस बात को हम विगत तीन सालों के अन्दर हुई - प्रोफेसर कलबुर्गी, कामरेड गोविन्द पानसरे और डा. दाभोलकर - इन तीन हत्याओं से देख सकते हैं। और इन हत्याओं का सिलसिला एक तरह से डा. दाभोलकर की हत्या से शुरू हुआ था। 20 अगस्त 2013, पुणे/ अलसुबह टहलने के लिए निकलते वक्त जबकि ठीक साढ़े ग्यारह बजे की प्रेस कान्फ्रेंस तय थी - जहां उन्हें पर्यावरण अनुकूल गणेश मूर्तियों के मसले पर बात रखनी थी - डा. नरेन्द्र दाभोलकर ने यह शायद ही सोचा होगा कि ओंकारेश्वर पुल पर मौत उनका इन्तजार कर रही होगी।
अभी चन्द रोज पहले ही उनकी हत्या की साजिश रचने के लिए 'सनातन संस्था' नामक आध्यात्मिक कहलाने वाली संस्था के कारिन्दे को सीबीआई ने पकड़ा है, जिस संगठन का ही एक अन्य कार्यकर्ता कामरेड पानसरे की हत्या के आरोप में जेल में है। इसी संगठन के कार्यकर्ता पनवेल, ठाणे आदि स्थानों पर हुए आतंकी विस्फोटों/अप्रैल 2008/ और मडगांव तथा सनकोले की आतंकी कार्रवाईयों में /अक्टूबर 2009/ में सक्रिय पाए गए हैं तथा इनमें से कई आज भी फरार चल रहे हैं।
मालूम हो कि अस्सी के दशक के अंतिम दौर से डा. दाभोलकर अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में जुटे थे - जिन्होंने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस को छोड़ कर जनप्रबोधन के काम में अपने आप को झोंक दिया था - वैसे ऐसा नहीं कहा जा सकता था कि डा. दाभोलकर को इस बात का एहसास नहीं था कि फुले-रानडे-गोपाल हरि आगरकर-अम्बेडकर की जिस विरासत को लेकर वह अपनी मुहिम में मुब्तिला है, धर्म के ठेकेदारों द्वारा साधारण जनों की आस्था का दोहन करनेवाले जिन तत्वों की वह मुखालिफत अपने संगठन 'महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति' के बैनर तले कर रहे हैं, वह कभी भी आक्रमण कर सकते हैं। उनकी हत्या के तत्काल बाद उपजे जनाक्रोश से बचने एवं एक तरह से अपनी झेंप मिटाने के लिए सूबे में सत्तासीन तत्कालीन कांग्रेस-राष्ट्रवादी की सरकार ने 18 साल से लम्बित उस विधेयक पर अध्यादेश जारी करने का निर्णय लिया, जिसे पारित करने के लिए डा. दाभोलकर लम्बे समय से सक्रिय थे। इस बिल का फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना रहा है। 'महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ ह्यूमन सेक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिक' शीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया था।
पुणे के पास स्थित सातारा में जन्में नरेन्द्र दाभोलकर ने मिरज मेडिकल कालेज में डाक्टरी की पढ़ाई की। सत्तर के दशक के प्रारम्भ में 'समाजवादी युवजन सभा' के एक सक्रिय सदस्य के तौर पर अपने सामाजिक राजनीतिक जीवन की शुरूआत करनेवाले डाक्टर दाभोलकर विभिन्न किस्म के सामाजिक आन्दोलनों से भी जुड़े थे। मेडिकल प्रैक्टिस दस साल करने के बाद वह उन्हीं दिनों डा. बाबा आढ़ाव की अगुआई में जाति उन्मूलन के लिए चल रही 'गांव एक पाणवठा' एक गांव एक जलाशय नामक मुहिम से जुड़े, इस दौरान उन्हें जिन अनुभवों से गुजरना पड़ा उसी आधार पर उन्होंने तय किया अंधश्रद्धा निर्मूलन पर अपने आप को केन्द्रित रखेंगे। इसी मकसद से लगभग पचीस साल पहले उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया। समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के काम को किस तरह एक आन्दोलन की शक्ल दी जा सकती है उसकी तरह से उन्होंने एक मिसाल कायम की है।
प्रश्न उठतता है कि डा. दाभोलकर के वे कौन से विचार थे जिसने तमाम लोगों को इस कदर प्रेरित किया कि इस सत्यान्वेषी की शहादत के तीन साल बाद भी उनके विचारों की मशाल आगे बढ़ाने में मुब्तिला लोगों की तादाद कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। राजकमल प्रकाशन द्वारा पिछले दिनों प्रकाशित पुस्तकत्रयी 'अंधविश्वास उन्मूलन - विचार/पहला भाग/अंधविश्वास उन्मूलन - आचार/ दूसरा भाग/ और अंधविश्वास उन्मूलन - सिद्धान्त/तीसरा भाग/ - जिनके रचयिता खुद डा. दाभोलकर रहे हैं, उस गुत्थी को सुलझाने में हमारी मदद करती हैं। प्रस्तुत पुस्तकत्रयी उनकी किताब 'तिमिरातुनी तेजाकड'/ तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात अंधेरे से प्रकाश की ओर/का हिन्दी अनुवाद है। उनके मुताबिक 1980 के दशक में जब समिति का काम शुरू हुआ तो उसे लोग भूत प्रेत, टोना टोटका, बाबावाद के खिलाफ चलनेवाली प्रगतिशील मुहिम के तौर पर देखते थे और उन दिनों यह काम दोयम दर्जे का माना जाता था। दो दशकों की अपनी यात्रा पूरी करके आन्दोलन एक पड़ाव पूरा कर 'अब अंधविश्वास उन्मूलन का शास्त्रीय विचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, धर्मनिरपेक्ष क्रांति, विवेकवादी विचाराधारा बन गया है।' विवेकवाद अर्थात रैशनेलिजम/तर्कशीलता के बारे में वह समिति के विचारों को यूं स्पष्ट करते हैं। 'एक यह कि ईश्वर और धर्म को लेकर जो लोग नैतिक आचरण करने के पक्षधर हैं, समिति उनका सम्मान करती है। परन्तु समिति खुद सदविवेक की नीति की पक्षधर है।' दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि 'विवेकशक्ति को संगठित कर समिति शांतिपूर्ण ढंग और रास्ते से सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप की हिमायती है। समिति चाहती है कि आज का सामाजिक जीवन भविष्य में वर्तमान से बेहतर बने। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यही इस विवेकवादी आन्दोलन का मकसद है।' व्यक्ति को विवेकशील बनाकर ही विवेकवादी समाज-निर्माण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।' (पेज 9, पहला भाग) हमारे समाज में ऐसा सहजबोध व्याप्त है जिसके तहत धर्म को नैतिकता से जोड़ा जाता है। इस सहजबोध को प्रश्नांकित करते हुए अपने मंतव्य में डा. दाभोलकर जोड़ते हैं कि 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण धारण करने वाले व्यक्ति के नैतिक होने की संभावना अधिक होती है। इसका सीधा-सामान्य कारण यह होता है कि वह व्यक्ति अक्सर यही सोचता, व्यवहार करता देखा जाता है कि वह दूसरों के साथ वही व्यवहार करता रहे जिसकी उसे दूसरों से अपेक्षा रहती है। इस व्यवहार में निहित कार्य-कारण भाव से वह पूरी तरह से वाकिफ होता है और आश्वस्त भी। वही उसकी नैतिकता की नींव होती है। विवेकवादी व्यक्ति नीतिमान समाज निर्माण को तरजीह देता रहा है। यही कारण है कि वह ईश्वर और धर्म की संकल्पना का प्रयोग नीतिपूर्वक करने वाले लोगों का सम्मान करता है।'
मालूम हो डा. दाभोलकर ने अपने जीवनकाल में अंधविश्वास उन्मूलन के लिए एक दर्जन से अधिक किताबें लिखीं। प्रस्तुत पुस्तकत्रयी 'अंधविश्वास उन्मूलन - विचार (पहला भाग), अंधविश्वास उन्मूलन - आचार (दूसरा भाग) और अंधविश्वास उन्मूलन - सिद्धान्त (तीसरा भाग) के सम्पादन का काम डा. सुनील कुमार लवटे, जो मराठी तथा हिन्दी के साहित्यिक समीक्षक, अनुवादक तथा संपादक हैं, ने किया और अनुवाद का जिम्मा डा. चंदा गिरीश, डा. विजय शिंदे और प्रकाश कांबले जैसे उनके पूर्व छात्रों एवं सहयोगियों एवं मराठी-हिन्दी के उभरते विद्वानों ने किया। अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में डा. लवटे इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि इन तीनों में किसी ने भी अनुवाद के लिए मानदेय राशि नहीं ली। उन्होंने लिखा है कि जब अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की तरफ से उन्हें अनुवाद के लिए मानदेय राशि की पेशकश की गई तो उन्होंने विनम्रता से उसे लेने से इन्कार किया और कहा कि 'इस महत्वपूर्ण कार्य में यह हमारा छोटा सा योगदान समझिएगा।'
पहले भाग 'अंधविश्वास उन्मूलन - विचार' में आंदोलन से संबंधित बुनियादी बातों पर रोशनी डाली गयी है जिसके अन्तर्गत 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' किसे कहते हैं, 'विज्ञान की कसौटी पर ज्योतिष', 'वास्तुशास्त्र नहीं वास्तुश्रद्धाशास्त्र', 'छद्म विज्ञान अर्थात स्युडो साइंस', मनोविकार, भूतप्रेत बाधा या भूतावेश, 'सम्मोहन'/हिप्नाटिज्म 'देवी सवारना' जैसे मसलों पर चर्च की गयी है, ताकि यथार्थ और भ्रम के बीच व्याप्त अंतराल को स्पष्ट किया जा सके। दूसरे भाग 'अंधविश्वास उन्मूलन: आचार' में धर्म के नाम पर जारी पाखंड, विभिन्न बाबाओं के मायाजाल और उनके खिलाफ चलनेवाले जनजागरण कार्यक्रमों, मुहिमों एवं भंडाफोड़ प्रयासों का विवरण है। पुस्तकत्रयी का आखिरी हिस्सा 'अंधविश्वास उन्मूलन: सिद्धांत' पुस्तक में गहराई में जाकर ऐसे कई विषयों पर विचार किया गया है जिनसे तर्कशील आन्दोलन के हर कार्यकर्ता को रूबरू होना पड़ता है, जिसमें ईश्वर, धर्म, विश्वास-अंधविश्वास, स्त्रियां और अंधविश्वास उन्मूलन, धर्मनिरपेक्ष तथा विवेकवाद पर फोकस है।
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“Scientific temperament is a process of thinking, method of action, search of truth, way to life, spirit of a free man”
-Jawaharlal Nehru, 1953, explaining independent India’s Science Policy on the floor of the Parliament.
किताब का पहला भाग जो अंधविश्वास उन्मूलन के 'विचार' पर केन्द्रित है, उसमें पहला लम्बा आलेख वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर है, जिसकी वह शुरूआत में ही आसान परिभाषा देते हैं कि 'किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित कार्य-कारण को जान लेना अथवा दो भिन्न घटनाओं के बीच के पूरक संबंधों को जान लेना ही 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' है। फिर उसकी विशिष्टताओं की चर्चा करते हुए वह बताते हैं कि
- किसी भी ग्रंथ में लिखे हुए अथवा किसी अधिकारी व्यक्ति के कहे हुए वचन को सच मानना गलत है क्योंकि अंतिम सत्य का निकष प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा निरीक्षण होता है
- विश्व का चक्र विशेष नियमों पर चलता है। इसका पता हमें प्रयोग, अनुमान और पड़ताल से चलता है। विज्ञान से संबंधित भौतिक विश्व मनुष्य की अनुभूति के परे हैं। नियमित प्रक्रियाओं के माध्यम से उनमें परिवर्तन आता है
- अंतिम और श्रेष्ठ ज्ञान मनुष्य को उसकी बुद्धि से नहीं, साक्षात्कार और उसके अन्तर्गत इंद्रियों के अनुभवों से प्राप्त होता है, ऐसी धार्मिक श्रद्धा अथवा तत्वज्ञान को वैज्ञानिक दृष्टिकोण नकारता है
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रमाणित करने के लिए जो प्रयोग किया जाता है, जिस परिस्थिति में किया जाता है, उस पर वैज्ञानिक का नियंत्रण होता है। वह किसी अज्ञात शक्ति पर निर्भर नहीं होता
- विज्ञान सार्वजनिक होता है। इसका सत्य वैश्विक होता है। ...श्रद्धा को आधार माननेवाला मत व्यक्तिगत होता है जबकि विज्ञान व्यक्तिनिष्ट नहीं बल्कि वस्तुनिष्ठ होता है। (पेज - 33)
उनके मुताबिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने निम्नलिखित मूल्यों का निर्माण किया है : स्वायत्तता, शोध वृत्ति, सम्यकता, नम्रता और निडरता। यहां स्वायत्तता का अर्थ है 'विश्व स्वतंत्रता है उसके नियमों को टाल कर कुछ भी घटित नहीं होता। यह मूल्य विचार मनुष्य को ईश्वर और नियति नाम की कल्पनाओं से दूर रख सकता है और घटनाओं का कार्य-कारण भाव ढूंढने के लिए प्रेरित कर सकता है। नम्रता के सन्दर्भ में यह बात कही जा सकती है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपने निष्कर्ष या अपने शब्द को कभी अंतिम सत्य नहीं मानता जबकि धर्म हमेशा आज्ञा देता है कि 'विश्व का राज मैं जान चुका हूं अब केवल मेरी आज्ञा का पालन करो' इसके बरअक्स वैज्ञानिक दृष्टिकोण वस्तु अथवा घटनाओं की जांचने की तथा अज्ञात तत्व की पड़ताल जारी रखने की बात करता है। (पेज - 33-37)
वह भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव की पड़ताल करते हैं, जिसकी पूर्वपीठिका के तौर पर पहले के ग्रंथों में नज़र 'रसरत्नाकर' और 'काल्कपुरतंत्राम' जैसे रासायनिक संयुगों की जानकारी और उपयोग के ग्रंथ, वराहमिहिर के 'ब्रहतसंहिता' जैसे ग्रंथ जिसमें सूर्य को तारा संबोधित किया गया है और अन्य ग्रहों की जानकारी दी गयी है। आर्यभट्ट और भास्कराचार्य के गणित और खगोलशास्त्र पर आधारित सिद्धांत आदि की बात करते हुए वह बताते हैं कि आठवीं सती के अंतिम दशक में यहां 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' की प्रवृत्ति बढ़ती गयी और ज्ञान प्राप्त करने की लालसा कम होती गयी। उसके बाद लम्बे समय खोखली रूढि़ परंपराओं और शोषक धर्म से बने समाज में जनता अपना निष्क्रिय जीवन बिताती रही और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दी जा रही शिक्षा में भी इस बात को नज़रअंदाज किया गया। इस समूची स्थिति के निर्माण के लिए वह जाति व्यवस्था का अस्तित्व, उसकी गहरी जड़ें, स्त्री को ज्ञान के अधिकार से वंचित करना और विज्ञान के आधार के तौर पर प्रयोग और तर्क के बजाय यहां दर्शन की बुनियाद 'ब्रह्मं सत्य, जगत मिथ्या' जैसे दर्शन के हावी होते जाने में देखते हैं। उनके मुताबिक परिवार नामक संस्था भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में बड़ी बाधा रही है, जहां व्यक्ति का बहुआयामी विकास होने के बजाय उसे पिता के एकाधिकारी शासन में रहना पड़ता है। अन्त में वह इसके पीछे एक अहम कारण 'प्रगतिवादी विचारों के आधार पर समाज को आगे बढ़ानेवाली राजनैतिक शक्ति के अभाव में देखते हैं।
वह वैज्ञानिकों के व्यवहार के अवैज्ञानिक होने की विवेचना करते हैं। अपने कार्यक्षेत्र में विज्ञान की आराधना करनेवाले वैज्ञानिकों के प्रत्यक्ष व्यवहार उसके विपरीत होने को लेकर वह 'शास्त्रीय विचार प्रणाली और वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अंतर' की बात करते हैं। उनके मुताबिक 'शास्त्रीय पद्धति का आधार तर्क, निरीक्षण और सूत्राबद्ध व्यवहार होता है। अनुसंधान से परे इसकी दृष्टि पहुंचने की संभावना बहुत कम रहती है। यूरोप में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जरिए हुए अनेक आविष्कारों ने वहां के समाज को झकझोर दिया। भारत में ऐसी बारी नहीं आई। ब्रिटिशों के साथ विज्ञान भी बिना बुलाए मेहमान की तरह आ गया। ..यहां पर शास्त्रीय विचार प्रणाली जीवन का दृष्टिकोण नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप में उन्नति का प्रभावी साधन बनी। यूरोप में वैज्ञानिक अपनी बात को समाज के गले बांधने के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देते थे। भारत में अनुसंधानात्मक दृष्टिकोण तो सुविधा से स्वीकार किया गया। लेकिन उसके लिए आवश्यक निडर मानसिकता यहां पर नहीं पनप पाई। इस बात का भी हमें ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य केवल बुद्धि से नहीं, भावना के आधार पर भी जीवित होता है। वैज्ञानिकों के अवैज्ञानिक वर्तन का मूल कारण इसी बात में छुपा है।
किताब का अंतिम अध्याय जिसका शीर्षक है 'अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और हिंदू धर्म विरोध' में यह दरअसल उस दुष्प्रचार का जवाब देते हैं जिसके तहत समिति के विरोधी यह आरोप लगाते हैं कि वह सिर्फ हिन्दू धर्म का विरोध करती है। जाहिर है कि पूरे देश में तर्कशीलता के लिए समर्पित मुहिमों या विवेकवादी आन्दोलनों को बदनाम करने के लिए यही आरोप उछाला जाता है। ऐसा झूठा आरोप लगानेवालों को दरअसल समिति के लोकमानस को जागरूक करनेवाले प्रयासों से डर लगता है और उन्हें यह लगता है कि 'ऐसा सजग लोकमानस भविष्य में धर्म के संदर्भ में भी चौकन्ना रहेगा।' अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं : (देखें, पेज-170) अंधविश्वास को बढ़ानेवाले और शोषण करने वाले ढकोसलों एवं कर्मकांडों के विरोध में समिति के प्रयास खास धर्म तक सीमित नहीं हैं। चाहे इस्लाम धर्म हो, ईसाई, जैन या बौद्ध धर्म हो उसके अनुयायियों द्वारा किए जाने वाले ढकोसलों का समिति ने हमेशा ही विरोध किया है। इसी सन्दर्भ में वह हिन्दू धर्म के नाम पर अपनी स्वार्थी राजनीति चलाने वाली धार्मिक शक्तियों की भी आलोचना करते है जो अपने आप को हिन्दू कल्याण के ठेकेदार समझती है। धर्म के इन स्वयंघोषित रक्षकों की तानाशाही की 'समिति ठुकराती है' ऐसा ऐलान भी वह करते हैं।

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To abandon the struggle for private happiness, to expel all eagerness for temporary desires, to burn with passion for eternal things, that is emancipation, that is free man’s worship.
- Bertrand Russell

किताब का दूसरा भाग जो 'अंधश्रद्धा अन्मूलन : आचार' पर केन्द्रित है, उसमें प्रस्तुत अध्यायों को स्थूल रूप में तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा उन भण्डाफोड़ कार्रवाईयों का है जिसके तहत समिति के कार्यकर्ताओं ने गुमराह करने वाले ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ प्रत्यक्ष कार्रवाई की और वह सफल भी हुए - उदाहरण के लिए किताब में 'साहबजादी की करनी' शीर्षक अध्याय के लेखक बताता है कि किस तरह सतारा में उनके घर के एक परिवार में रहनेवाली साहबजादी नामक अशिक्षित एवं गूंगी मुस्लिम महिला के 'चमत्कार' ने उनके 'घमंड को चकनाचूर किया था।' उसके पास अपनी समस्या को लेकर जाने वाले व्यक्ति द्वारा नींबू निचोड़े जाने पर व्यक्ति के हाथ में कील और पिन के साथ ताबीज़ निकल जाता जिसका मतलब यह माना जाता था कि घर की करनी दूर हो चुकी है और फिर साहबजादी को भारी मात्रा में पैसे प्राप्त होते। लेखक बताता है कि किस तरह उन्होंने उसका भण्डाफोड़ किया और उसके अपराध को जगह देनेवाले नायब तहसीलदार के परिवारों पर मुकदमा दर्ज हुआ।
किताब के कुछ अध्याय प्रचारात्मक कार्रवाईयों को भी रेखांकित करते हैं। उदाहरण के लिए जब महाराष्ट्र सरकार ने उनकी रचना 'लढे अंधश्रद्धेचे' के लिए उन्हें पुरस्कार घोषित किया और यह ऐलान किया कि प्रस्तुत पुरस्कार तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख प्रदान करेंगे तो उन्होंने मुख्यमंत्री के नाम पत्र लिखा - जिसे बाद में सार्वजनिक किया गया - जिसमें उन्होंने साफ किया कि 'अंधविश्वास का आचरण सार्वजनिक तौर पर करनेवाले और उसका समर्थन करनेवाले आप जैसे मुख्यमंत्री के हाथों पुरस्कार लेना उचित नहीं होगा'। उन्होंने स्पष्ट किया कि किस तरह 'विधानसभा का सत्र चलते समय मुख्यमंत्री सत्य साईंबाबा से मिलने गए थे, उन्होंने न केवल उनके पैर छुए थे, बल्कि साईंबाबा द्वारा हाथ हवा में घुमा कर दी गई सोने की सांकल को फूहड़ जादू न मान कर दैवी कृपा का आविष्कार घोषित किया था और इस घटना का विरोध करने वाले समिति के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया था।' मदर टेरेसा को चमत्कारों के आधार पर संतपद प्रदान करने की रोमन कैथोलिक चर्च की कोशिशों को लेकर उन्होंने तत्कालीन पोप को लिखा था (मदर टेरेसा का संतपद, पेज 68-69) कि संत उपाधि बहाल करने के लिए 'चमत्कारों की खोज हो रही है तो यह प्रक्रिया गलत और संविधान के विपरीत है। इस कारण हमारी समिति इसका विरोध करेगी।' गैलीलियों को चर्च द्वारा दी गई सज़ा को चर्च द्वारा 350 साल बाद ईसाई धर्मपीठों द्वारा मांगी गयी माफी की याद दिलाते हुए पत्र के अन्त में यह जोड़ा गया था कि 'संतत्व को सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा किए गए चमत्कारों के ढूंढना उनका सम्मान न होकर अपमान ही है, ऐसी हमारी धारणा है।' कुलपतियों के नाम खुली चिट्ठी में उन्होंने 'वैदिक ज्योतिष विभाग विश्वविद्यालय में शुरू करने के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्णय के खिलाफ अपना मत प्रगट किया था।
किताब के कुछ अध्याय जनता के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए गए सार्वजनिक कार्यक्रमों पर रोशनी डालते हैं। मिसाल के तौर पर 'दैववाद की होली' नामक अध्याय में सतारा - जहां उनका घर था - आयोजित अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन और उसमें लोगों की बढ़ती रुचि को लेकर समिति द्वारा हाथ में ली मुहिम का विस्तार से वर्णन किया है। पहले चरण में समिति ने 'ज्योतिष शास्त्र कैसे नहीं है?' इस विषय को लेकर 21 प्रश्न ज्योतिष सम्मेलन के अग्रणियों को भेजे, जिसमें से किसी का भी उत्तर न इन कर्णधारों में से किसी ने और न ही संस्था ने दिया। मगर इस सम्मेलन को लेकर चर्चा 'इन प्रश्नों से नहीं बल्कि समिति के 'दैववाद की होली' जैसे अभिनव आन्दोलन से हुई। इसमें स्वयं की जन्म कुंडलियां दैववाद का प्रतीक समझकर कई लोगों द्वारा जलाई गईं। इसके साथ पंचाग के शुभ मुहूर्त, शुभ अशुभ जैसी बातों से कोई भी समय शुभ-अशुभ नहीं होता। गौरतलब था कि जब कार्यक्रम का ऐलान हुआ तो 'धमकियां मिलनी भी शुरू हो गईं। ...अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के वैचारिक विवेचन का खंडन करने के बजाय ज्योतिष को हिंदू धर्म का अंग बताने की पहल की गई। और अतिवादी हिन्दू संगठनों ने ऐलान किया कि ऐसा कार्यक्रम हिंदू धर्म पर हमला ही है और वह समिति के लोगों को सबक सिखाएंगे। इस 'हिंदू एकता में शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिंदू एकता आन्दोलन का समावेश था।' समिति अपने कार्यक्रम पर अडिग रही, उसकी तरफ से शहर में पर्चे बंटवाये गए और फिर नियत स्थान पर विद्वानों के भाषणों के बाद लोगों ने न केवल कुंडली की होली जलाई मगर उसके पहले 'सामूहिक संकल्प' भी लिया, जो इस प्रकार था :
'मेरे जन्म-समय से ग्रहों की स्थिति का मुझ पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं, इस पर मेरा पूरा विश्वास है। इसी कारण ग्रहों की स्थिति दर्शानेवाली यह जन्मकुंडली भ्रामक है, यह मुझे मान्य है। मेरी मान्यता है कि यह कुंडली मेरे जन्म के समय से ही अज्ञान से मेरे पैरों में बंधी दैववाद की हथकड़ी है। इसलिए सार्वजनिक रूप से मैं इसका दहन करना उचित समझता हूं। मैं इसे मानसिक गुलामी तथा दैववाद की होली मानता हूं।' (पेज-91)
उसी तरह किताब में इस बात का भी विवरण है कि किस तरह 'पुणे शहर की एक ख्यात पाठशाला ने अपने साठ साल पूरे होने के अवसर पर एक ही समय पर सत्यनारायण की साठ महापूजाओं का आयोजन किया था और इसके विरोध में समिति की ओर से पूरे दिन भर धरना दिया गया। विस्फोटक वातावरण को देखते हुए समिति के कार्यकर्ता केवल बैठे ही नहीं बल्कि उन्होंने वहां एक बन्द बक्सा रखा था जिस पर लिखा था कि अपनी प्रतिक्रियाएं दें। बक्सा खोलने पर दिखाई दिया कि आधे से अधिक प्रतिक्रियाएं समिति की गतिविधियों को समर्थन देने वाली थी। डा. दाभोलकर बताते हैं कि किस तरह इसके बाद 'पूना में किसी भी शिक्षा संस्थान में अपना रजत, स्वर्ण या हीरक महोत्सव मनाते समय सत्यनारायण की पूजा का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की हिम्मत नहीं दिखाई।' ज्योतिष जैसी दूसरी ब्राह्मणी विद्या - वास्तुशास्त्र जो वैज्ञानिक तरीके से पढ़ाए जानेवाले वास्तुशास्त्र से बिलकुल अलग है, जिसे असल में 'वास्तुश्रद्धाशास्त्र' कहा जाना चाहिए, उसके विरोध में भी समिति ने अभिनव तरीके से मुहिम चलायी। समिति ने इसके विरोध में वास्तुशास्त्र का वैज्ञानिक घोषणापत्र प्रस्तुत करने हेतु 'एक राजस्तरीय सम्मेलन का आयोजन पुणे में किया' जिसमें वास्तुनिर्माताओं की मदद से विवेकी वर्ग की सहायता लेकर प्रख्यात वैज्ञानिक जयंत नारलीकर के हस्ताक्षर से वास्तुशास्त्र का वैज्ञानिक घोषणापत्र प्रकाशित किया गया।
महाराष्ट्र के नासिक के सिंहस्थ मेले में स्नान करने हेतु लाखों श्रद्धालु उमड़ते हैं, जिसके लिए करोड़ों रुपये जनता के कर से सरकार खर्च करती है। समिति ने ऐसे मेलों के आयोजन पर भी सवाल उठाते हुए अभियान चलाया। दाभोलकर लिखते हैं 'समिति किसी भी मुहूर्त पर पाप से मुक्ति पाने के लिए स्नान करने का विरोध करती है। ...नागरिकों के कर की रकम मुहूर्त स्नान करने के लिए सुविधाएं जुटाने के बजाय शिक्षा, विकास और स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र पर खर्च होनी चाहिए। इसके साथ ही ऐसे मेले का वातावरण अंधविश्वास को बढ़ावा देनेवाला होता है।' इन्हीं बातों को मद्देनज़र रखते हुए समिति ने समान विचारवाले संगठनों की समिति बना कर इस संबंध में विरोध जताने का प्रयास किया। इस विषय पर पुस्तिका निकाल कर उसका विमोचन नासिक में ही किया गया। किताब में डा. दाभोलकर आसाराम बापू के विरोध में चलायी मुहिम पर भी रोशनी डालते हैं। (पेज 143) 'बापू ने 'यौवन सुरक्षा' नाम की एक किताब लिखी। काम जीवन से संबंधित अत्यंत अवैज्ञानिक जानकारी उसमें दी गई थी। इस प्रस्तुति का मुंहतोड़ जवाब देने वाली किताब, इस क्षेत्र के सुप्रसिद्ध विशेषज्ञ से लिखवाकर समिति ने उसे प्रकाशित किया। इसके लिए समिति को धमकियां झेलनी पड़ीं।' (पेज 143)
जनता को जागरूक बनाने के लिए समिति द्वारा हाथ में ली गई 'विवेक जागरण - वाद संवाद' मुहिम की भी डा. दाभोलकर चर्चा करते हैं। इस मुहिम में उन्हें प्रख्यात अभिनेता डा. श्रीराम लागू ने बढ़ चढ़ कर सहयोग दिया। डा. श्रीराम लागू 'बुद्धिप्रामाण्यवादी अर्थात रेशनेलिस्ट' थे और उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर अपने विचार जगह जगह प्रगट किए थे। सोलापुर जिले के बार्शी नामक स्थान पर इस सम्बन्ध में पहला कार्यक्रम आयोजित किया गया था, उसके लिए प्रकाशित पोस्टर आकर्षित करनेवाले थे: - (पेज 112)

विवेक जागरण : वाद - संवाद
प्रतिभागी
सिनेनाटय क्षेत्र के प्रसिद्ध बुद्धिवादी अभिनेता
डा. श्रीराम लागू
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के प्रवक्ता
डा. नरेन्द्र दाभोलकर
ईश्वर का अस्तित्व ही पहला अंधविश्वास है
ईश्वर को रिटायर करो
ईश्वर पर आधारित धर्म की आवश्यकता ही क्या? हमें चाहिए मानवधर्म?
हर श्रद्धा अंधविश्वास ही होती है

डा. श्रीराम लागू
श्रद्धा और अंधश्रद्धा में अंतर है
ईश्वर और धर्म के बारे में भी हम तटस्थ हैं
असली सवाल है अंधश्रद्धा निर्मूलन के कार्य का।
डा. नरेन्द्र दाभोलकर
ईश्वर का अस्तित्व, धर्म का प्रयोजन, श्रद्धा-अंधश्रद्धा, धर्मांधता, धर्मनिरपेक्षता
अंधविश्वास निर्मूलन जैसे विषयों पर जुगलबंदी

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Our life should be inspired by love and guided by knowledge
- Bertrand Russell


किताब का तीसरा भाग जो 'अंधश्रद्धा उन्मूलन : सिद्धांत' पर केन्द्रित है, उसमें उन मसलों पर विचार किया गया है जिनसे तर्कशीलता के प्रश्न से रूबरू या उसके लिए सक्रिय हर कर्मी को जूझना पड़ता है। जैसे 'ईश्वर', धर्म, विश्वास-अंधविश्वास, धर्मनिरपेक्षता, विवेकवाद आदि। इस भाग में डा. दाभोलकर ने स्त्रियां और अंधविश्वास उन्मूलन, महाराष्ट्र के समाजसुधारकों की निगाह में अंधविश्वास तथा अपने आध्यात्मिक आकलन की भी चर्चा की है। 'ईश्वर' शीर्षक पहले अध्याय में ईश्वर के बारे में मौजूद विभिन्न मतप्रवाह, विज्ञान के विकास के साथ इस अवधारणा की बढ़ती असंगतता आदि की बात करते हुए दाभोलकर अंधविश्वास  उन्मूलन में मुब्तिला लोगों द्वारा इस मसले के प्रति अख्तियार रुक की चर्चा करते हैं। और वह स्पष्ट करते हैं कि 'अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन को अगर सफल बनाना हैं तो देश और दुनिया के सभी बुद्धिवादियों का मानना है कि ईश्वर की कल्पना का आमूल उच्चाटन जरूरी है।' (पेज 26) उनके मुताबिक 'ईश्वर की धारणा को छोड़ कर समिति का सदस्य बन जाए,ऐसा कभी भी समिति ने किसी से नहीं कहा। लेकिन अनुभव यही हुआ कि उचित विचारों के प्रभाव से व्यक्ति स्वयं ही धीरे-धीरे उस ओर जा रहा है। व्यक्ति आत्मनिर्भर बनता है और ईश्वर की कल्पना को मानसिक स्थिति पर विकसित करता रहता है। यह कल्पना व्यक्तिगत होती है और कई लोगों की यह काल्पनिक धारणा खत्म भी होती है। समिति का अनुभव यही है कि ऐसे ही मतों का परिवर्तन करना चाहिए, यही मार्ग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में संगत लगता है।' (पेज-36) डा. दाभोलकर लिखते हैं कि 'ईश्वर की धारणा को मानना और उसके अनुरूप आचरण करने का मूलभूत अधिकार दिया है। उसी के तहत समिति ईश्वर की संकल्पना का विवेचन करना चाहती है।... समिति की ओर से सूत्र रूप में कहा जाए तो विश्व का निर्माणकर्ता कोई ईस्वर को मान रहा है तो समिति का दृष्टिकोण इस बारे में अज्ञेयवाद का है। इस दुनिया का निर्माणकर्ता ईश्वर है, यह विश्लेषण समिति अस्वीकृत करती हैं। ...ईश्वर इस कल्पना का मानसिक आधार काउंसलर अथवा शॉक ऑब्जर्बर के नाते होता है। समाज की इस मानसिकता से समिति भलीभांति परिचित है। ...चमत्कार करनेवाले ईश्वर के अस्तित्व को भी समिति अस्वीकार करती है। समिति को लगता है कि यह धारणा संवैधानिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सीधा विसंगति रखती है। ...समिति मानती हैं कि विवेक के आधार पर व्यक्ति नीति से जीवनयापन कर सकता है और प्रस्तुत विवेक ईश्वर की पुकार नहीं और न ही धर्म का आदेश है, यह मात्रा बुद्धि का निष्कर्ष है। (पेज 34)
विश्वास-अंधविश्वास शीर्षक अध्याय में वह इन दोनों की चर्चा करते हुए एक महत्वपूर्ण मसले पर गौर फरमाते हैं कि आखिर सुशिक्षितों का अंधविश्वास खत्म क्यों नहीं होता? यह स्पष्ट है कि एक तरफ जहां वैज्ञानिक विकास अपनी चरम पर पहुंच रहा है, वहीं साथ ही साथ अंधविश्वास का भी बोलबाला बढ़ता दिख रहा है। कई बार खुद वैज्ञानिक लोग भी अंधविश्वासों का समर्थन करते दिखते हैं। और आम लोगों में यह सवाल उठता है कि जिनका पेशा विज्ञान है वह भी अंधविश्वास के शिकार क्यों होते हैं? और फिर वह यूरोप के प्रबोधनात्मक विचारों के सदियों तक चले मंथन से उपजी वैज्ञानिक-वैचारिक क्रांति, धर्म की समीक्षा, पूंजीवाद का प्रसार और आधुनिकता के मूल्यों के पनपने- जिसमें स्वयं का परीक्षण करने और परिवर्तनवादी दृष्टि अपनाने की बढ़ती मानसिकता की बात कते हुए एक कड़वी सच्चाई को रेखांकित करते हैं कि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ (पेज-72) 'जिस देश में चार्वाक, लोकायत, बुद्ध की परंपरा थी वहां 11-12 वीं सदी से आगे सात आठ सौ साल तक लोग प्रश्न पूछना भूल गए।' अंधविश्वास के टिके रहने के बारे में उनकी समझदारी यह है कि अंधविश्वास चूंकि समुदाय की भावना  होती है, अत: उसके अनुकरण के समय समुदाय का आधार व्यक्ति को प्राप्त होता है, लिहाजा इस भावना को त्यागने की आवश्यकता उसे महसूस नहीं होती। उनके हिसाब से 'अंधविश्वास पालन के पीछे अदृश्य के भय से मुक्ति और अपूर्ण कामनाओं की पूर्ति की अभिलाषा रखना, यही दो महत्वपूर्ण कारण होते हैं।'
किताब के अंतिम अध्याय 'विवेकवाद' में वह एक तरह से विवेकवादी आन्दोलनों - जैसे अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति जैसे हस्तक्षेपों - के भविष्य की सम्भावित यात्रा' पर अपनी राय रखते हैं। उनके हिसाब से 'विविधता की हिफाजत करने वाले, न्यायसंगत समाज रचना के लिए कटिबद्ध रहनेवाले सार्वत्रिक सामूहिक विवेक की नवीन रूप में निर्मित हो सकती है, इन संभावनाओं की परख होनी चाहिए और यही विवेकवादी आन्दालेन के लिए आज की चुनौती है। अंधश्रद्धा निर्मूलन आन्दोलन के अब तक के सफर के वह कृति के आधार पर विचारों के क्षेत्र में पहुंचने की बात करते हैं जो क्रमश: 'धर्मालोचन, धर्मनिरपेक्षता के मार्ग से होकर मानवाधिष्ठित विवेकवादी मुकाम पर स्थिर होता है।' फिलवक्त भले ही इस आंदोलन की पहचान शोषण करनेवाले खुले अंधविश्वासों के विरोध के रूप में हो, लेकिन भविष्य में उसके सफर की व्यापक परिवर्तनवादी दृष्टि विवेकवाद तक पहुंच सकती है, इसका साफ एहसास समिति के सदस्यों में है।
डा. दाभोलकर के हिसाब से 'अंधविश्वास निर्मूलन से लेकर विवेकवाद तक के विकास का अर्थ आलोचनात्मक वृत्ति रखना, आंखें खुली रख कर व्यवहार रखना, उसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग करना और उससे विचार और कृति हेतु विवेकी दृष्टि प्राप्त कर लेना है। विवेकशीलता केवल मनुष्यप्राणी की असाधारण विशेषता है। वह प्रत्यक्ष जीवन के संदर्भ में होती है; क्योंकि उसका जीवन में प्रत्यक्ष आचरण करना पड़ता है।' उसके लिए 'अंधविश्वास निर्मूलन के कार्य को अगर एक वाक्य में बताना चाहें तो कह सकते हैं कि वह मूल्य-परिवर्तन का कर्मशील संवाद है।'
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पुस्तकत्रयी पढ़ कर इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि मौजूदा समय में जबकि आमूल चूल बदलाव के लिए समर्पित तथा व्यापक राजनीतिक-सामाजिक रूपांतरण के मकसद से चल रहे आन्दोलन विभिन्न कारणों से ढलान पर हैं, उस दौर में विवेकवाद पर केन्द्रित अलग अलग किस्म के हस्तक्षेप तथा आन्दोलनों से जो बकौल डा. दाभोलकर 'समाज का प्रमाणमूल्य बदलने' में कारगर साबित होते हैं, एक नयी जमीन तोड़ी जा सकती है क्योंकि 'विवेकीकरण का ही अर्थ प्रमाणमूल्य बदलना है। सामाजिक व्यवहार का जिन मूल्यों के आधार पर गलत या सही का निर्धारण होता है वही मूल्य प्रमाणमूल्य है।' (पेज - 147)
हिन्दी में किताबें न बिकने की शिकायत अक्सर की जाती है मगर वहीं यह देखना सुकूनदेह लगता है कि प्रस्तुत किताब का पहला संस्करण (2015) जल्द ही समाप्त हुआ और 2016 में राजकमल को किताब का नया संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। क्या महज इसी वजह से कि डा. दाभोलकर की शहादत ने जनमानस को उद्वेलित एवं आन्दोलित किया था और लोग उनके नाम की तरफ आकर्षित हुए थे या यह हिन्दी के प्रबुद्ध तबके में अन्दर ही अन्दर चल रहे उथल-पुथल को दिखाता है, जो खुद कहीं स्वत:स्फूर्त तरीके से तथा कहीं स्थानीय स्तर पर ऐेसे ही प्रयासों के बारे में गंभीर होता दिख रहा है।


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