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नवम्बर 2016

एक दोपहर अमेरिकी पुरखों के साथ

लक्ष्मेंद्र चोपड़ा

यात्रा संस्मरण/अमेरिका की खोज : एक यात्रा पाठ

लगभग दो दशक पूर्व 'पहल' ने रेडइंडियन कविता की एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। कविताओं का चयन और अनुवाद सुप्रसिद्ध वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने किया था।
लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा एक मीडिया विश्लेषक है उन्होंने अपनी अमरीकी यात्रा में रेडइंडियन को एक नए सिरे से याद किया है।
पाठकों से निवेदन है कि वे इस लेख को पढ़ते समय भारत के विशाल आदिवासी समुदायों की विपत्तियों के बारे में भी विचारें।



एक सुबह फेसबुक खोली तो वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार रामशरण जोशी का बोस्टन से संदेश मिला :-
''भाई एक ही देश में हैं हम; पर मिलना नहीं हो सकता; इस भयानक शीत में बर्फ के बंदी बने बैठे हैं अपने-अपने अपार्टमेंट्स में।''
हम भयानक शीत के मौसम में थे। बर्फ की भभूत रमाए वृक्षों से जीवन गायब था। न पंछी थे; न हरियाली; न गिलहरियां। दिन-रात कुहासे की धुंध छाई रहती। सामने वाले पार्क की दूब; हरी बैंचें; अपार्टमेंट की नीली छतें सब बर्फ की मोटी चादरों से ढंके हुए थे। हिमपात होता था तो लगता मानों सेमल के फूल झर रहे हों। कभी दिन में कुछ देर के लिए सूरज निकलता तो अपार्टमेंट की छत में बर्फ शीशे सी चमकती।
ये सारी बर्फ अचानक नहीं आयी थी। यह सब भारतीय शास्त्रीय रागों की तरह हुआ। पहले अलाप में सूर्य में चमकने के घंटों को कुहासे ने शुबह-शाम में बांधना आरंभ किया। फिर पतझड़ के मंद सुरों में लाल, पीले, सुनहरे पत्तों ने प्रकृति को सम्मोहित करना शुरू किया। यह सब शीघ्र ही द्रुत लय में वृक्ष के संगीत राग बन गये। ये राग हवाओं के आरोह-अवरोह में नीचे बिछी दूब पर सम्मोहन के साथ बिखर गये। एक दिन मौसम की झंकार के साथ सारे रंग वृक्षों ने धरती पर लुटा दिये।
एक दोपहर हमने अपनी अपार्टमेंट लेन में मशीनी कार ट्राली के साथ दो मैक्सीकन श्रमिक देखे। ट्राली पर हमारे कस्बे का नाम अंकित था :-
पिसकेटवे टाउन;
न्यूजर्सी राज्य;
संयुक्त राज्य अमेरिका।
ट्राली में नमक की छोटी छोटी डलियां थीं। वे कंक्रीट लेन सड़क पर नमक बिछा रहे थे। क्यारियों में नए बीज डाल रहे थे। ये बीज शीत भर ज़मीन के अंदर आंखें मीचे पड़े रहेंगे। शीत की बर्फ की बौछारों के बाद आने वाले बसंत में नए रंगों की ताज़गी लिये पौधों के साथ खिल उठेंगे। यह सब आने वाले हिमपात के संकेत थे; जो नमक, बीज और श्रमिकों के श्रम द्वारा रचे जा रहे थे।
एक सुबह हम नींद से जागे तो खिड़की के बाहर हवा में बर्फ की सेमल के फूल उड़ रहे थे। हम अपने वातानुकूलित अपार्टमेंट में बैठे गर्म कॉफी के कप के साथ अपने जीवन के पहले हिमपात का आनंद ले रहे थे। देखते ही देखते सामने वाला पार्क, शाहलूत का वृक्ष; अपार्टमेंट की छतें सब बर्फ से ढंक गये। अमेरिका में बर्फ की शीत ऋतु का आरंभ हो चुका था।
बर्फ के दिन-रात कम से कम हम भारतीयों के लिए बहुत कठिन थे। बाहर निकलना बहुत कम हो गया था। बर्फ ढंके सफेद मैदानों में पैदल चलना हमारे लिए दुष्कर था। स्वेटर, ओवरकोट, मफलर, दास्ताने, मंकीकेप, बड़े जूतों में भी जोकों सी चलती बर्फ़ीली हवाएं पूरे शरीर को सुन्न कर देतीं। हवा में उड़ती बर्फ़ कभी-कभी महीन रेत सी उड़ती लगती। हम हफ्ते में एक दिन पाटीदार या सब्ज़ी मंडी ग्रॉसरी स्टोर जाते थे। अपनी नातिन नन्हीं मिशिता के लिये दूध तथा रसोई के अन्य आवश्यक सामान के लिये यह बहुत जरूरी था। मेरी पत्नी इंदु ने पड़ोस में ही रहने वाली एक गुजराती बेन से मित्रता कर ली थी। राजकोट जिले के एक गांव की बेन पिछले पच्चीस सालों में अपने परिवार के साथ अमेरिका में रह रहीं थीं। उनके पति अमेरिका के राजमार्गों पर टैक्सी चलाते थे। बेन स्वयं इस कस्बे के भारतीय परिवारों को भुगतान आधारित वाहन सुविधा उपलब्ध करातीं थीं। बच्चों को स्कूल पहुँचाना-लाना इनमें मुख्य था। इसके साथ ही वे हमारे जैसे परिवारों को निर्दिष्ट स्थानों पर छोड़ देतीं, और बाद में नियत समय पर वापस घर पहुँचा देतीं। इस प्रकार अच्छी-खासी आय हो जाती उन्हें। उनके दोनों बेटे मेडीकल कालेज में पढ़ रहे थे।
पाटीदार और सब्जीमंडी भारतीय स्टोर्स थे। भारतीयों की जरूरत का हर सामान वहां मिल जाता। दीपावली के दीपक और होली के रंग भी हमने वहाँ पाये थे। पोहा, दोसा, इडली जैसे नाश्ते बनाने की सामग्रियां भी। वहां पंजाबी और दक्षिण भारतीय रेस्टारेंट भी थे। इनमें आपको सारे भारतीय व्यंजन मिल सकते हैं। इडली, दोसा ही नहीं चाट और कुल्फी भी।
इतनी ठंड में भी प्रतिदिन के अमेरिकी जीवन में हमने कोई शिथिलता नहीं देखी। सुबह-शाम वे अपने पालतू कुत्तों को टहलाने जरूर निकलते थे। सुबह लगभग आठ बजे सारी कारें अपने कार्यस्थलों की ओर रवाना हो जातीं। शाम चार बजे के लगभग ये लौटना शुरू होतीं।
हमारी दोपहरें लगभग सुनसान रहती थी। दोपहर में हम पति-पत्नी मिशिता के साथ सूनी पड़ी कालोनी की गतिविधियां देखते खिड़की पर बैठे रहते। अमेरिका में ऑनलाइन शापिंग का प्रचलन जोरों पर है। बड़े-बड़े कूरियर वाहन समान पहुँचाने आते थे। आम तौर पर उसमें मज़बूत अश्वेत युवतियाँ अकेली होती थीं। वही वाहन चलातीं और सामान भी पहुँचातीं। अगर अपार्टमेंट में पार्सल पाने वाला नहीं भी है तो उसे उसके बरांडे में रख दिया जाता। इस पार्सल में टेलीविज़न उपकरण भी हो सकता है।
हर दोपहर डाक विभाग की एक लाल डाकगाड़ी कालोनी में आ कर खड़ी हो जाती थी। उसका चालक ही पोस्टमेन के दायित्व भी पूरे करता था। हर अपार्टमेंट के बाहर डाक के लिए विजनबाक्स लगे रहते थे। प्रत्येक बाक्स पर अपार्टमेंट के नंबर लिखे रहते थे। पोस्टमेन उतरता आरै लगभग हर अपार्टमेंट के विजन बाक्स में कुछ न कुछ डाक रखता जाता।
इस डाक में हमारा कोई आत्मीय पत्र नहीं होता था। लेकिन कस्बे के बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर्स की प्रचारात्मक पत्र-पत्रिकाएं उनमें शामिल रहती थीं। इनमें कोहल तथा डालसेट्री जैसे अमेरीकन मेगा स्टोर्स के कूपन भी रहते थे। इंदु को इनकी प्रतीक्षा रहती थी।
हमारी टाउनशिप की नगरपरिषद की एक साप्ताहिक पत्रिका भी इस डाक में होती थी। इस पत्रिका में कस्बे में होने वाली सामाज़िक घटनाओं, भावी आयोजनों, मौसम की सूचनाओं की भी जानकारी होती थी। समय व्यतीत करने और नन्हीं मिशिता के खेलने के लिये यह सामग्री एक अच्छा साधन थी। मेगा स्टोर्स की पत्रिकाओं के द्वारा अमेरिका में चल रहे ताज़ा फैशन की भी एक झलक मिल जाती थी।
टाउनशिप पत्रिका में भावी आयोजनों की सूची देखते देखते मेरी नज़र एक विज्ञापन पर पड़ी:-
''अमेरीकी संस्कृति - पुरखों पर सिनेमा और सेमीनार।''
एक गैर-सरकारी अमेरीकन सांस्कृतिक संगठन द्वारा इस कार्यक्रम का दोपहर में आयोजन किया जा रहा था। इस आयोजन में निशुल्क प्रवेश के साथ तीन डालर्स में गरम कॉफी के प्याले के साथ एक बर्गर की भी व्यवस्था थी। अमेरिकी पुरखों पर आधारित यह कार्यक्रम मुझे आकर्षक लगा। सिनेमा, जानकारी और भोजन सब एक साथ तीन डालर्स में! अमेरिका में इससे ज्यादा सस्ता क्या हो सकता है? उन दिनों वहाँ सिनेमा का टिकट ग्यारह डालर्स का आता था।
वह दिसम्बर की एक ठंडी दोपहर थी, जब एक छोटे से गरम प्रेक्षागृह में हम चालीस-पैंतालीस के $करीब लोग गरम कपड़ों में अमेरिका के पुरखों से मिलने पहुंचे थे। इनमें श्वेत-अश्वेत, वृद्ध सभी शामिल थे। कुछ युवक-युवतियां भी थीं। इनमें से कुछ उनके संगठन से सम्बद्ध थे। कुछ की सामाजिक मानवशास्त्र में रुचि थी। इस छोटे से उत्सुक समूह में संभवत: मैं अकेला ही भारतीय था।
आयोजन के आरंभ में ही उद्घोषणा कर दी गयी कि जिनकी भी कॉफी और बर्गर में रुचि हो वे तीन डालर्स ऐमीतोला के पास जमा कर दें। ऐमीतोला संगठन की युवा सदस्या थी। मैंने लक्षित किया सभी अतिथियों ने डालर्स जमा कर दिये। दरअसल, अमेरिकी खुलकर खाने-पीने में रुचि रखते हैं। वे चलते-फिरते, काम करते-करते भी खाते-पीते रहते हैं। उनके पेय पदार्थों के कप भी बड़े गिलास होते हैं, वो भी कम से कम सात सौ पचास मिलीलीटर के। ऐमीतोला ने डालर्स जमा करने के बाद उद्घोषणा की; कि हम सब अपने स्थान पर बैठ कर आयोजन का आनंद लें।
आयोजन के आरंभ में मानवशास्त्र के एक शोधछात्र ने संक्षेप में इस सिनेमा-सेमीनार के संबंध में जानकारी दी। अमेरिका की सम्मिलन संस्कृति से संबंधित दो फिल्म आज दोपहर दिखायी जाने वाली थीं।
पहली फिल्म एक डाक्यूमेंट्री थी। अमेरिका के न्यू मैक्सिको प्रांत के सांस्कृतिक कलानगर ''सेंटाफे'' पर केंद्रित थी :-
''Tricolour of Santafe''
हमें बताया गया कि यह डाक्यूमेंट्री विश्वविद्यालयीन विद्यार्थियों का अव्यवसायिक प्रयास है।
डाक्यूमेंट्री फिल्म अमेरिका की विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय के प्रतीक न्यू मैक्सिको राज्य की राजधानी सेंटा-फे का डाक्यूमेंटेशन था। सेंटा-फे अमेरिका के प्रसिद्ध सांस्कृतिक कलाओं के नगरों में सबसे ऊपर है।
सेंटा-फे मैक्सिको संस्कृति को उत्तरी अमेरिका में सुरक्षित रखने वाला क्षेत्र है। मैक्सिको का भवन स्थापत्य तथा भोजन शैली भारतीयता के निकट प्रतीत होती है। ये घर बनाने में कच्ची मिट्टी और फूस की ईंटों का प्रयोग करते हैं। इनके भोजन व्यंजनों में भी भारतीय मसालों का स्वाद आता है। उनका व्यंजन ''टोफोबैल' लगभग भारतीय ही है। यह मक्के के आटे से बनने वाला संपूर्ण भोजन है। अमेरिका के मूल निवासियों द्वारा उपजाई जाने वाली फसलों में मक्का, कद्दू, सेम उनके भोजन में शामिल रही है। बाद में उन्होंने कपास, सूरजमुखी, तंबाकू, मशरूम और अंगूरों की खेती भी सीख ली। ''टोफोबैल'' मक्की के आटे की पतली रोटी के अंदर सेम; मशरूम तथा टमाटर भर कर बनायी जाती है। इसका एक नाम टैक्किलो भी है। इनके अंदर मांस, सब्जियां तथा मसाले भर कर आग में पकाया जाता है। पकने के बाद ये टमाटर की चटनी तथा क्रीम, योगर्ट के साथ गरम-गरम परोसे जाते हैं। यह रेड इंडियंस परंपरा का व्यंजन है।
ये रेड इंडियन ही अमेरिका के पुरखे हैं। आज इन्हें अमेरिकन इंडियन कहा जाता है। मानव शास्त्र के अनुसार ये लगभग बारह हजार वर्ष पूर्व एशिया से अमेरिका पहुँचे थे। कुछ इतिहासकार इनका आगमन युरोशिया भू क्षेत्र से बताते हैं। युरोशिया में यूरोप तथा एशिया के कुछ देश शामिल हैं। जिनमें ब्रिटेन, आयरलैंड, आइसलेंड, जापान, फिलिपींस तथा इंडोनेशिया मुख्य है।
कोलम्बस ने अपनी खोज यात्रा में भ्रमवश अमेरिका के इस क्षेत्र को एशिया महाद्वीप की भूमि समझ लिया था। इसीलिए उसने इन मूल-निवासियों को रेड इंडियन नाम दिया। उसी ने वर्ष 1493 में इन्हें ''इंडियोस'' के नाम से संबोधित किया था। इनकी संस्कृति में टोटम, कृषि, शिकार तथा प्रकृति उपासना का विशेष महत्व रहा है।
रेड इंडियन समुदाय की विडम्बना यह रही कि इन्हें इस क्षेत्र में आने वाली लगभग सभी यूरोपियंस प्रजातियों से संघर्ष करना पड़ा। इनमें ब्रिटिश, पोर्तगाल, स्पेनियन, फ्रांसिसी शामिल है।
बाद में इन सारी यूरोपियन प्रजातियों ने मिलकर एक नयी अमेरीकन संस्कृति को जन्म दिया। इस नयी संस्कृति से भी इनका टकराव हुआ। एक समय ऐसा भी रहा जब ब्रिटिश सेनाओं ने अमेरिका के विरुद्ध रेड इंडियंस का सामरिक उपयोग  भी किया। अठारवीं सदी में रेड-इंडियंस के आदिवासी नेना हेकुमसेट ने अमेरिकी प्रसार के विरुद्ध आदिवासी कबीलों को संगठित कर सशस्त्र युद्ध छेड़ दिया। लेकिन वर्ष 1811 में टिपीकेनाय में अमेरिकी सेना ने कठिनाई से विजय प्राप्त की।
कई संघर्षों तथा उतार-चढ़ाव के बाद वर्ष 1819 में अमेरिकी मूलनिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रशासन ने धनकोष की व्यवस्था की। वर्ष 1924 में इनके पांच सौ से भी अधिक कबीलों को नागरिकता के अधिकार प्राप्त हो गए।
वर्ष 1930 में अमेरिका के रिपब्लिकन प्रशासन द्वारा रेड इंडियंस की संस्कृति के संरक्षण के लिए कई नयी योजनाएं लागू की गयीं। संभवत: आज की दोपहर का आयोजन भी इसी योजना का एक भाग था। इस आयोजन में पहले 'सेंटा-फे' पर डाक्यूमेंट्री दिखायी गयी।
'सेंटा-फे' पर दिखायी गयी डाक्यूमेंट्री एकल सूत्रधार शैली में थी। सूत्रधार के वाचन के साथ-साथ कैमरा दृश्य दिखा रहा था। पुर्तगालियों द्वारा बसाये गये अल्बुकर्के नगर के राजमार्ग के साथ कैमरा सेंटा-फे में प्रवेश करता है। अधिकांश घर मानो आदिम कलाओं के प्रादर्श। नक्काशीदार दरवाजे, हरी-भरी बेलें, फूलों की क्यारियों से सजे बड़े-बड़े आंगनों वाले घर। ये घर कम कलात्मक संग्रहालय अधिक लग रहे थे।
युनेस्को द्वारा घोषित अद्भुत सांस्कृतिक प्राचीन नगर सांटा-फे की स्थापना वर्ष 1610 में स्पेन से आये ईसाई धर्म प्रचारकों ने की थी। आज इस नगर में तीन संस्कृतियां एक साथ अपनी कलाओं के माध्यम से धड़क रही हैं। इनके मूल में है हजारों वर्ष पुरानी रेड इंडियंस की प्राकृतिक संस्कृति। वर्ष 1607 में इस क्षेत्र में स्पेन से आयी संस्कृति। इनके साथ नई अमेरिकी सभ्यता की आधुनिक संस्कृति।
रेड इंडियंस के धर्म के बारे में एक तथ्य स्पष्ट है कि वे प्रकृति के उपासक थे। प्रकृति ही उनका धर्म थी। वर्ष 1607 में स्पेन के उपनिवेशवादियों ने इन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित करने के उद्देश्य से यहाँ पहले चर्च की स्थापना की।
1912 में न्यू-मैक्सिको अमेरिका का 47 वां राज्य बना और सेंटा-फे इसकी राजधानी। डाक्यूमेंट्री में सूत्रधार की आवाज़ हमें बता रही थी - ''सेंटा-फे अनूठा नगर है... इसके कलात्मक संस्कार इसकी वैश्विक पहचान है... संस्कृतियों के सम्मिलन और संरक्षण ही इस प्राचीन अमेरिकी नगर की आस्था में हैं।''
प्राचीन स्पेनिश शैली के चर्च के शिखर का चित्रण करते हुए कैमरा समकालीन देशज कलाओं के संग्रहालय के भ्रमण के लिये सेंटा-फे नगर के अमेरिकन इंडियन आर्टस संस्थान को प्रस्थान करता है। वर्ष 1991 में स्थापित यह संस्थान चार वर्षीय, आदिवासी संस्कृति पर पाठ्यक्रम भी संचालित करता है। प्रेक्षक डाक्यूमेंट्री में अमेरिका की त्रि-रंगी संस्कृति की श्रेष्ठता, परस्पर सद्भाव देख रहे थे। इसमें इस क्षेत्र की भवन स्थापत्य कला, रीति-रिवाज, खान-पान, बर्तन-पात्र, वस्त्रों, आभूषणों, लोकसंगीत तथा पारंपरिक नृत्यों तथा मैखिक साहित्य में आदिम शैली के सांस्कृतिक उपादानों को आधुनिकतम तकनीक के माध्यम से दिखाया गया था। इन विशेषताओं में मैक्सिकों की कच्ची मिट्टी वाली शैली का परिवेश बहुत आकर्षक लग रहा था।
मुझे इस डाक्यूमेंट्री ने प्रभावित किया। डी.एच. लारेंस, जार्जिया कीफे तथा एन्सल आदम जैसे प्रख्यात लेखकों व कलाकारों का भी इस नगर से संबंध रहा था। डाक्यूमेंट्री में इनके विचारों तथा कृतियों की जानकारी देने के लिए ग्राफिक्स का उपयोग किया गया था। डाक्यूमेंट्री को रोचक बनाने के लिये मोंटाज़ और त्रिदेव तकनीक का प्रयोग किया गया था। डाक्यूमेंट्री के साथ कुछ प्रचार-सामग्री भी उपलब्ध थी। जिसमें सेंटा-फे तथा न्यू-मैक्सीकन राज्य की पर्यटन संबंधी जानकारी दी गयी थी।
डाक्यूमेंट्री के प्रदर्शन के बाद उसकी प्रोडक्शन टीम का भी दर्शकों से परिचय कराया गया। इसमें सभी विश्वविद्यालयीन विद्यार्थी थे। इनमें अमेरिकी, स्पेनी, पुर्तगाली प्रजातियों के साथ रेड इंडियन मूल की युवती ऐमीतोला भी शामिल थी। इस डाक्यूमेंट्री का आलेख उसी ने तैयार किया था। प्रेक्षकों की सबसे ज्यादा तालियां ऐमीतोला के ही हिस्से आयीं। संभवत: यह गर्म कॉफी के साथ-साथ डाक्यूमेंट्री में प्रस्तुत सांस्कृतिक विचारों की ऊर्जा का भी प्रभाव था।
अगली फिल्म का परिचय ऐमीतोला ने ही दिया। आत्मविश्वास से भरी ऐमीतोला को अपने नाम पर गर्व था। यह नाम उसके पुरखों की परंपरा से आया था, जिसका अर्थ होता है - ''इंद्रधनुष''।
अब हम सात आस्कर अवार्डस से सम्मानित प्रसिद्ध अमेरीकन फिल्म :-
''भेडिय़ों के साथ नाच''- देखने वाले थे।
यह फिल्म वर्ष 1990 में वेस्टर्न शैली में प्रदर्शित कालजयी फिल्म थी। जिसमें अमेरिका की आदिवासी संस्कृति के महत्व को सहानुभूतिपूर्ण कोण से चित्रित किया।
पश्चिमी शैली रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा, साहित्य, चित्रकला जैसी सर्जनात्मक कलाओं की शैली थी। जिसका आरंभिक विकास यूरोपियन, नव अमेरिकी तथा कनाडा के उन रचनाकारों ने किया जिन्हें अमेरिका के मूलनिवासियों के बारे में जानने और रचने की उत्सुकता थी। इस शैली की आरंभिक रचनाओं में इन आदिवासी कबीलों का नकारात्मक चित्रण किया गया। इन कलाकारों ने यूरोपीय जनों को सभ्य तथा अमेरीकी मूल निवासियों को क्रूर रूप में प्रस्तुत किया। टेलीविज़न तथा सिनेमा में भी इनकी परंपराओं को यूरोपीय-अमेरिकीयों ने नकारात्मक तथा हास्यास्पद ढंग से दिखाया। इस शैली में अमेरीकी आदिवासी कबीलों का चित्रण एक ऐसे समुदाय के रुप में किया जाता था, जिसमें लिखित कानून के राज्य की स्थिति शून्य है। ऐसे कबीली राज्य में आ बसे अभिजात्य श्वेतों के परिवारों को कुछ अराजक तत्व सता रहे हैं। कुछ कठोर ज़मीनदार मनमानी कर रहे हैं। अंत में उनका टकराव होता है और श्वेतों की विजय होती है।
इन कथाओं का मुख्य नायक अपने वफादार घोड़े पर बंदूक-पिस्तोल के साथ जंगलों, पहाड़ों में घूमने वाला वीर नायक होता है। अमेरिका की आरंभिक वेस्टर्न शैली की फिल्मों में श्वेतों का ही महिमागान किया गया है। इनमें अमेरिका के मूल निवासियों की नकारात्मक भूमिका भी यूरोप वंशी अमेरिकीयों ने ही की है। 1929 में, प्रदर्शित 'द लास्ट आफ मोहिकांस' तथा 1965 में प्रदर्शित 'एफ ट्रप' ऐसी ही फिल्म थीं। यह स्थिति वर्ष 1970 के बाद बदली जब यूरो-अमेरिकी कलाकारों के साथ-साथ अमेरिकी के मूलनिवासियों के समुदायों से भी कलाकार सिनेमा में स्थान लेने लगे।
वर्ष 1990 में प्रदर्शित ''डांसिज़ विद वुल्वज़'' - अमेरिकी सिनेमा में रेड-इंडियंस के प्रति चित्रित की जाने वाली विचारधारा में एक नए मोड़ में प्रेक्षकों के समक्ष आयी। पूर्ववर्ती वेस्टर्न सिने कहानियों की जगह इस फिल्म में पहली बार अमेरिका के आदिवासी समुदाय पर हुए अन्याय तथा उनकी संस्कृति की महान गाथाओं को आम प्रेक्षकों के लिये परदे पर प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार इस कृति ने अमेरिकन वेस्टर्न सिनेमा के प्रचलित ढांचे को ध्वस्त करते हुए एक नयी ऐतिहासिक सच्चाई की सिने परंपरा की शुरूआत की। इसमें रेड इंडियंस की जीवन शैली को यूरो-अमेरिकन चश्में से चित्रण न करते हुए अमेरिका के इतिहास में उनके प्रति हुई क्रूरता और अन्याय को दिखाया गया। इसके साथ ही एक नए देश के निर्माण में आने वाली नयी चुनौतियों की भूमिका के महत्व को भी चित्रित किया गया।
हमें दिखायी गयी फिल्म ''डांसिज़ विद वुल्वज़'' वर्ष 1851 से 1865 के कालखंड में अमेरिका के उत्तरी तथा दक्षिणी क्षेत्रों के बीच हुए गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस गृहयुद्ध में अमेरिकी सेना का एक लेफ्टिनेंट युद्ध के बाद तत्कालीन अमेरीकी सीमा पर तैनात होता है। यह सीमा आदिवासी क्षेत्र से जुड़ी हुई है। इस क्षेत्र में ''सू'' इंडियंस जनजाति रहती है। ''सू'' अथवा SIOUX उत्तर अमेरिका की एक जनजाति थी। जिसके अंतर्गत कई कबीले आते थे। इनमें एक प्रसिद्ध कबीला- ''लकोटा'' भी है।
फिल्म के नायक जॉन डनबार के अलावा उस चौकी पर कोई अन्य श्वेत व्यक्ति नहीं था। अपने एकांत से वह दुखी होने लगा। कहानी के अनुसार कबीले के कुछ लोग नायक के घोड़े को चुराने की कोशिश करते हैं। जिसके कारण उसका उनके झगड़ा होता है। एक नाटकीय घटनाक्रम में नायक कबीले के वैद्य की युवा पुत्री को आत्महत्या करने से बचाता है। वह उस युवती को कबीले को सौंप देता है। इस घटना से नायक की कबीले वालों से मैत्री हो जाती है।
अकेले नायक की चौकी पर एक भेडिय़ा आने लगा। उसकी भेडिय़े से मैत्री हो गयी। इस भेडिय़े के दोनों पंजे नीचे से सफेद थे। लगता था मानो भेडिय़े ने दो मौजे पहन रखे हों। नायक डनबार ने स्नेह से भेडिय़े का नाम - ''टू साक्स'' रख दिया।
डनबार और टू साक्स आपस में कई तरह के खेल खेलते रहते थे। कबीले के लोगों ने डनबार का नाम - ''भेडिय़े के साथ नाचने वाला'' रख दिया। यही इस फिल्म का नाम हुआ।
लकोटा इंडियन कबीले के साथ डनबार की घनिष्ठता बढऩे लग गयी। इस मित्रता के साथ नायक की समझ विकसित होती है। वह समझने लगता है कि रेड इंडियन आदिवासी समाज भी संवेदनशील मनुष्य हैं। कथित सभ्य अमेरिकी समाज में उनके बारे में प्रचलित धारणाएं मिथ्या हैं।
रेड इंडियन समुदाय के साथ नायक की मित्रता व सहानुभूति क्रमश: इतनी  बढ़ जाती है, कि वह लगभग उस आदिवासी कबीले का ही सदस्य बन जाता है। कुल मिलाकर यह फिल्म अमेरिका की विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिलन का सुंदर उदाहरण थी। इस फिल्म में अंग्रेजी के उपशीर्षकों के साथ कुछ संवाद लकोटा बोली के भी थे जो कि मुझे सामाजिक मानवशास्त्रीय शोध का सुंदर उदाहरण लगे।
इस फिल्म का दूरगामी प्रभाव हुआ। वर्ष 2009 में टेलीविज़न पर पांच भागों में अमेरिका के मूल निवासियों के इतिहास व योगदान पर डाक्यूमेंट्री धारावाहिक प्रस्तुत की गई। इस धारावाहिक के शोधमंडल में अमेरिका के मूल निवासियों के समुदाय के विद्वानों को परामर्शदाता के रूप में शामिल किया गया था। ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ अमेरीकन इंडियन समुदाय की अमेरिका के विकास तथा निर्माण में सहभागिता व उनकी संस्कृति के महत्व को भी इस धारावाहिक में चित्रित किया गया।
'डांसेस विथ वुल्वस' को वर्ष 1991 में अकादमी अवार्ड तथा गोल्डन अवार्डस से सम्मानित किया गया। वर्ष 2007 में अमेरिका की राष्ट्रीय फिल्म घोषित करते समय इस कालजयी सिने कृति के बार में कहा गया -
''सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा कला-सौंदर्य के नज़रिये से यह महत्वपूर्ण सिने कृति है।''
रेड इंडियन अब अमेरीकन इंडियंस के नाम से अमेरीकी संविधान के अंतर्गत सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। अमेरिका के इतिहासकार क्लेरेंस बगले के अनुसार अमेरिकी आदिवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि तथा पशुपालन था। वे भेड़ें पालते थे तथा ऊन के कंबल बनाना भी जानते थे। वे बिना किसी लिखित कानून और संविधान के अपनी प्रकृति में जीवन का आनंद ले रहे थे। यूरोपवासियों के आने के बाद उन्हें इस नई सभ्यता से एक लंबा संघर्ष करना पड़ा।
वर्ष 1854 में रेड इंडियन आदिवासियों को नई अमेरीकन जीवन शैली से समझौता करना ही पड़ा। उनके तत्कालीन नायक नोह सिएथल का तब भी प्रश्न था नई संस्कृति के नाम :-
किस तरह तुम बेच या खरीद सकते हो?
आकाश को,
पृथ्वी के स्नेह को?
यह बात हमें समझ नहीं आतीं
जब वायु की निर्मलता
जल की ओजस्विता
हमारी संपत्ति नहीं,
कैसे बेच सकते हैं हम उनको!
पृथ्वी के पुरखों की दंतकथाओं में आकाश पिता है और धरती माता। वायु बहन है और जल भाई। आइये इसे देखें इस कविता में :-

पृथ्वी के पुरखे
अज्ञान
अपरिचय
अनजाने
अन्चीन्हे अंचल।

घने जंगलों की
गहरी घाटियों में पसरे
हाथीघास के अजगर।

बंद हैं रास्ते सारे
बंद है द्वीपों की
समुद्री खिड़कियां।
बंद हैं
सरल हरियाली के
काठ दरवाज़े

पहाड़, वन, समुद्र
दूर आसमान के पार
कंक्रीट जंगलों
की मीनारों से
नदीं दिख रहे
अबूझे
अन्चीन्हे
पुरखों की संस्कृति
के भोजपात।

पुरखे,
आदिम पुरखे
प्रकृति के सुधी पाठक,
नैसर्गिक सरलता के उपासक।


वे नहीं जानते थे,
ईश्वर के
मानव रचे पाठ।

वेद-ऋचाऐं
आयतें
सुसमाचार,
धम्मपद,
लिपिबद्ध दीक्षाऐं।

ज्योतिषी ग्रह-चाल,
भविष्य शास्त्र।

वे जानते थे
बस इतना ही,
वर्तमान ही श्रेष्ठ है,
प्रकृति ही
जीवन ध्येय है।

प्रकृति के बाद
महत्वपूर्ण थे,
अनुभव,
पीढ़ी-दर-पीढ़े
संचित विश्वास।

नहीं पता था उन्हें
सामुद्रिक शास्त्र के  बारे में भी,
बस इतना जानते थे
जब आये सुनामी,
छोड़ देना समुद्र के किनारे,
चढ़ जाना
ऊँचे पहाड़ों पर।
करना आसमान से
नीले रंग की प्रार्थना,
काले पड़ते समुद्र के लिए।
हरे रंग की प्रार्थना
खाकी पड़ती पृथ्वी के लिये।
हरे रंग की प्रार्थना
खाकी पड़ती पृथ्वी के लिये।
सुनहरे अन्न,
खिलते फूल,
पकते फल के लिये।
कलरव गान की प्रार्थना
अपने समाज और
अपने पंछियों के लिये।

कृतज्ञ थे वे,
वृक्षों के प्रति,
सर्प-कच्छप
श्वान, गिद्ध, भालू के प्रति
अपने नैसर्गिक
जीवन के प्रति,
उस प्रेम रस की अनुभूति के प्रत,ि
जो पनपती थी
उनके युवागृहों में,
जो धड़कती थी
बढ़ते प्रेम-परिचय के पलों में।
नव सृष्टि
नवजीवन रचते,
किशोर-किशोरियों के
इंद्रधनुषी संसार में।

उनके मौखिक
नीतिशास्त्र में,
सामूहिक भावना,
आपसी परिचय,
परस्पर स्वतंत्रता
समान वितरण,
की दंतकथाऐं,
बिरखी पड़ीं थीं
जन्म से मरण तक।

वे जानते थे
मृत्यु के बाद,
गाड़ देते थे वे
संचित निधी भी
मृत देह के साथ।
बचा लेते थे
बस मृतक की श्रेष्ठता,
उसकी स्मृतियां,
आने वाले समय के लिये।

जीते थे वे,
अपना जीवन
अपना संगीत
अपनी प्रार्थनाओं
अपने अनुभवों
अपनी वृक्ष लताओं।

अपने भूमि-जंगल
अपने सूर्य-चंद्रमा-तारामंडल के साथ
बांट रहे थे वे अपना उल्लास
समूह में उपजाए अन्न के साथ।
अन्न, फल, मादक सल्फी
उनके लिये पूंजी नहीं,
बस थे धरती के उपहार।

वे जानते थे
वर्षा का फसल से संबंध,
अकाल के विरुद्ध
खेतों में वे लिखते थे
समान वितरण के विचार।

इस की मादकता को जानते थे
बाघ को भी बड़ा भाई मानते थे।
अंधकार को जीतना चाहते थे।

वे रोज रात
मांदर की थापों पर।
आधे  चंद्रमा की प्रतीक्षा में
प्रेम-चांदनी के गीत गाते।

वे पूजन रहे थे,
जिन वृक्षों को,
जिस माटी को,
जिन समुद्री लहरों को,
जिन पहाड़ों को।

किसने रख दिये
उन विश्वासों पर
अपने गड़े उपासना चिन्ह?
वे पूज रहे थे संपूर्णता को।


किसने चिन्हित कर दिये
उनके जीवन में
अपनी दिशा का ज्ञान?
लाद दिये अपने विश्वास
अपनी मुद्राऐं,
अपने आदेश,
अपने विचार
अपने हथियार।

बारूद तुम जानते हो तुमने क्या किया?

छीन लिया
उनसे उनका आसमान,
उनकी प्रकृति का इतिहास,
उनके अन्न से स्वाद
उनके गीतों से राग।

नहीं गाते थे वे
झिंगालाला हो...
वे गाते थे
पर्वों के गीत,
ऋतुओं के गीत,
देवांन के गीत,
पुरखों के गीत,
मौखिक सीखों के गीत,
चांद-तारों के गीत,
धरती-आसमान के गीत,
विरह-शोक के गीत,
प्रेम-रस के गीत,
अपने परिवेश में
अपने जीवन-राग के गीत।
सेमीनारों में उपजते प्रश्न
क्यों हैं वे निर्धन?
प्राकृतिक संपदा आधार
जगमग खनिज-रत्न करोड़ों हजार?
मानते हैं वे
पूजते हैं वे
प्रकृति को माता समान।
मां का नहीं है
कोई वाणिज्य शास्त्र
उनके पुरखों की
सीख कथाओं में।

बारूद तुम्हारा अंग चाहे जो हो
हरी दूब में मत घोलो हिंसा का ज्ञान।

उनके जीवन में
कोई अंधकार नहीं है।
बात समझो मित्र
उनके पुरखों की प्रकृति
में ही बसते हैं,
उनके सुख,
उनके उल्लास,
उनके जीवन के प्राण।


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