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नवम्बर 2016

मयनमार : शहर और देश का व्याकरण

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती, परबत परबत...../दो





     
शहर का व्याकरण ठीक करने के लिए
एक हल्लागाड़ी
गश्त कर रही है......
              
लेकिन 'पेलेट गन' के हज़ारों छर्रों से छलनी शहर के व्याकरण की अशुद्धियां सुधारना लगभग असंभव हो चला है। अब यहां कोई मित्रवत् चेहरा नहीं बचा है, नेपाल या बांग्लादेश या श्रीलंका या फिर मेरे दृष्टव्य मयनमार की तरह! 'गिनेस बुक' का सूट पहने, निरंतर दिग्-दिगंतर की अश्वमेध यात्राओं पर निकले प्रधानमंत्री से देश के कमतर नागरिकों या गरीब पड़ोसियों के मुख्तलिफ  चेहरों को देख उनमें से हर एक के  सम्मान की रक्षा कर पाना  ज़्यादती होगी। कश्मीर पर पाकिस्तान की तिलमिलाहट के जवाब में वे पहली बार बलोचिस्तान का नाम लेते हैं। कश्मीर और बलोचिस्तान एक दूसरे के पर्याय या प्रतिप्रश्न नहीं हैं।  प्रधानमंत्री ने अगर नवाज़ शरीफ  के साथ अपने 'बहुत अच्छे दिनों' के दौरान बलोचिस्तान का ज़िक्र किया होता तो हमें उसकी सदाशयता पर बेहतर यकीन आता। ओवैसी जब जानना चाहते हैं कि हरियाणा में जाटों के संघर्ष के दौरान पेलेट गनों के इस्तेमाल की नौबत क्यों कभी नहीं आती, तो हमें उनके सवाल से असहिष्णुता की बू आती है, लेकिन तर्क दोनों के लगभग एक ही हैं। ये तर्क चैनेलों पर हर रोज़ देखी जा सकने वाली लचर बहसों के 'रीप्ले' हैं जिनमें सत्ताधारी पक्ष अपनी ज़्यादतियों का ज़िक्र छिड़ते ही दर्शकों को विपक्ष के शासनकाल में हुई वैसी या उससे भी बड़ी  ज़्यादतियों का स्मरण दिलाता है। लेकिन  ज़्यादतियों का समाधान किसी की जिम्मेदारी नहीं बनती। पाकिस्तान के साथ नूरां कुश्ती में जुटे पहलवानों ने उस पार के प्रदेश को नर्क तो घोषित कर दिया है, लेकिन इस ओर के वास्तविक स्वर्ग के भी क्रमश: उसी दिशा में ढकेले जाने की भयावहता उन्हें नज़र नहीं आती! उनकी मानें तो ये कच्ची उम्र के चंद भटके हुए गुमराह विद्यार्थी हैं जो अपने स्कूल का रास्ता भूलकर सड़कों पर उतर आए हैं। दिक्कत यह भी है कि जिस शहंशाह ने अमीर खुसरो की पंक्तियों का इस्तेमाल कर पहली बार इस सरज़मीन को धरती का स्वर्ग का बतलाया था, उस जहांगीर के तो नाम तक को किताबों से हटाने की कवायद अब पूरे देश में जारी है।  कश्मीर पर चिंता व्यक्त करना तक  'संगीन' अपराध बन चुका है और इसके लिए ऐमनेस्टी इंटरनैशनल की तरह आप पर भी देशद्रोह का मामला दर्ज़ किया जा सकता है। पर्यावरण के प्रति सजगता फैलाने वाली 'ग्रीनपीस' और ऐसी ही कई दूसरी संस्थाओं को पहले ही देश से रवाना किया जा चुका है। सच बोलने या असहमति का साहस दिखाने वालों की सज़ा भी अब दाभोलकर/पानसरे/कलबुर्गी की तरह पिस्तौल की गोली मुकर्रर हो चुकी है।

मगर सुनो, तुमने अपने कुत्ते को
दिन में क्यों खोल दिया है
इसके पहले कि वह पकड़ लिया जाए
और चीर-फाड़ की
किसी धारणा को साबित करते हुए
अस्पताल में हलाल हो
अगर तुम उसे नगरपालिका की नज़र से
बचाना चाहते हो-
उसके गले में एक पट्टा बांध दो
सचमुच मजबूरी है
मगर ज़िंदा रहने के लिए
पालतू होना ज़रूरी है!
        -धूमिल
           
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कामकाजी बाध्यता से बाहर सिर्फ स्वेच्छा के लिए बर्मा जाने का खयाल लोगों को आसानी से समझ में नहीं आता था। मयनमार ही क्यों? मेरे बहुत से जानकार दोस्त सवाल दागते थे। 'मयनमार क्यों नहीं ?' किसी पलटवार की शक्ल में मेरा बदतमीज़ जवाब होता था। मेरी यात्रा किसी लॉटरी के नंबर द्वारा तय नहीं की गयी थी और न ही मैं निदा फाज़ली की तरह किसी अपरिचित देश या शहर पर उंगली लगाने के इरादे से घूमते हुए ग्लोब के आगे बैठा था-

नक्शा उठा के शहर कोई ढूंढिए नया
इस शहर में तो सबसे मुलाकात हो गई

किसी अमूर्त सी तलाश में हम पांच के छोटे से गिरोह ने बहुत सोच-समझकर मयनमार का चुनाव किया था। उसकी ज्वलंत राजनीति या उसके विनष्ट होते पर्यावरण के बारे में हमारी जानकारी नहीं के बराबर थी। जहां तक मेरा सवाल था, तो वहां के प्रमुख शहर यांगोन (रंगून) से मेरा परिचय पचासों वर्ष पहले के सी रामचंद्र 'चितलकर' और शमशाद बेगम द्वारा गाए उस अत्यंत लोकप्रिय और अपने समय के हिसाब से अत्यंत अजीबोगरीब गीत के निहायत असाहित्यिक मुखड़े से अधिक नहीं था-

मेरे पिया गए रंगून
किया है वहां से टेलीफून
तुम्हारी याद सताती है.....   

स्थानीय नामकरण की जन-आकांक्षाओं के अनुरूप रंगून अब यांगोन है और ब्रिटिश साम्राज्य में सागौन (टीक) के घने जंगलों के लिए विख्यात बर्मा अब मयनमार! सागौन के अधिकांश जंगल अब नहीं हैं और उनकी जगह झंखाड़ों से भरी खाली ज़मीन पर फिर से सागौन के नए पौधे लगाकर उन जंगलों को पुनर्जीवित करने की कोशिश जरूर जारी है। यह योजना यदि सफल हुई भी तो इसमें कई दशक लग जाएंगे। तब तक इन कच्चे पौधों को बढ़ती आबादी के दबावों से बचाना कितना मुश्किल होगा यह कोई नहीं बता सकता।
जहां तक 'टेलीफून' का सवाल है, तो सन 1949 के 'पतंगा' के उस गीत से लेकर आज तक टेक्नॉलॉजी में जो क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं, उनकी उस वक्त कल्पना करना भी मुश्किल रहा होगा। गीत के प्रारंभ में नायक 'गोप' की आवाज़ है-
''हैलो, हिंदुस्तान का देहरादून? हैलो, मैं रंगून से बोल रहा हूं! क्या मैं अपनी पत्नी रेणुकादेवी से बात कर सकता हूं...?''
उस ज़माने में दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन ऑपरेटरों के ज़रिए आवाज़ एक जगह से दूसरी जगह पहुंचती थी, और तमाम कोशिशों के बावजूद कभी-कभी नहीं भी पहुंचती थी। फोन पर सामने वाले की आवाज़ न सुन पाने को लेकर कई तरह के लतीफे उस समय प्रचलन में थे।
फोर जी के इस युग में यांगोन के हवाईअड्डे में विदेशी मुद्रा बेचने वाले काउंटर के बराबर मोबाइल सर्विस प्रोवाइडरों के चार-पांच बूथ थे। दो सौ रुपयों के बदले मिले 3600 क्यात में तीन मिनटों से भी कम समय में काउंटर की लड़की ने हमारे मोबाइल फोन में स्थानीय 'सिम' लगा दिया था, जिससे दो हफ्तों तक स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय कॉल के अलावा हर जगह इंटरनेट वाई फाई की सुविधा अब हमारे स्मार्ट फोनों को प्राप्त हो गयी थी। लेकिन आधुनिकता के इस छोटे से टापू को लांघते ही हमें यांगोन के असली, क्षत-विक्षत चेहरे से रू-ब-रू हो जाना था.....
1949 के 'पतंगा' के गीत से लेकर आज तक के 67 वर्षों के अंतराल में दो टुकड़ों में बंटे 'माउथपीस' और सुनने वाले यंत्र से लेकर 'ऐनेलॉग' काले डिब्बे, डिजिटल, मोबाइल और आज के फोर जी स्मार्ट फोन तक टेलीफोन की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुके हैं, लेकिन इस टेक्नॉलॉजिकल विकास के समानांतर इंसान की सामाजिक प्रेषणीयता और एक-दूसरे को सुनने, समझने और स्वीकार करने की काबिलियत में शायद ही कोई खास इजाफा हुआ हो। ईरान के प्रसिद्ध फारसी कवि फेरये दून मोशिरी की कविता 'सैटेलाइट युग'  की पंक्तियां हैं-

घर में बैठे-बैठे तुम्हें दिखाई दे जाता है
कि शांत समंदर की गहराइयों में
हमसे हज़ारों साल पहले, किसी मछली की कोई खास नस्ल
कैसे नष्ट हो गयी थी....
घर में बैठे-बैठे तुम पढ़ लेते हो
सैंकड़ों प्रकाश वर्ष दूर किसी ग्रह की रोशनी
कब, कितने बजे
हमारी आकाशगंगा से गुज़र
सातों आसमानों को आलोकित करने वाली है...
अपने घर में बैठे-बैठे, ऐसी ही कितनी बातें
तुम हर दिन देखते, पढ़ते और समझते हो....
लेकिन तुम्हें मालूम नहीं
कि यह तीसरा दिन है
जब तुम्हारा बीमार पड़ोसी 
बगल के कमरे में
अपनी कसी हुई मुठ्ठियां दीवार पर पीट-पीट
आखिरकार 
दुनिया से चला गया.....

टेलीफोन की डिजिटल क्रांति के 67 वर्षों में अपने-आसपास की संवेदनशील आहटें सुनकर हम अपने लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कोई बेहतर या अधिक सौहार्दपूर्ण दुनिया बना पाए हों, ऐसा नहीं लगता। मयनमार में जनतंत्र की बहाली के बाद भी तानाशाहों के उत्तराधिकारियों ने समूची  अर्थव्यवस्था को अपनी मुट्ठी में दबोच रखा है। तथाकथित विकास के घेरे से बाहर खड़े आम आदमी की सहमी हुई आवाज़ें हमारे देश की तरह वहां भी कोई मायने नहीं रखती हैं। कोलकाता से यांगोन पहुंचने के लिए जिस बांग्लादेश की धरती पर से गुज़रना पड़ता है, वहां भी इधर धर्म के नाम पर कट्टरवादी नृशंस हत्याओं का अंतहीन सिलसिला जारी है। देखा जाए तो श्रीनगर से लेकर काठमांडो और केरल से लेकर कोकराझाड़ तक कौनसी सरज़मीन आज सामाजिक और धार्मिक असहिष्णुता के दबावों से अछूती रह गयी है?
धर्मशाला में बैठे दलाई लामा की मानवतावादी छवि और हिमालय के दुर्गम पहाड़ों में बसे अनगिनत बौद्ध मठों की नीरवता हमें अहसास देती थी कि गौतम बुद्ध की धरती पर और चाहे जो हो, हमारा साबका   उस कट्टरता और असहिष्णुता से नहीं होगा जिसे सुर्खियों की शक्ल में हम अपने पीछे छोड़कर आ रहे थे। लेकिन यह हमारी खामखयाली थी। सत्ता का रक्त होंठों से लग जाने के बाद धर्म द्वारा सिखाया जाने वाला समानता, भाईचारे और सहिष्णुता का हर पाठ बेमानी हो जाता है.....
दो हज़ार से अधिक वर्ष पहले नेपाल में स्थित लुंबिनी में जिस अलौकिक बालक सिद्धार्थ ने जन्म लिया था, उसकी विचारधारा का प्रभाव दुनिया के सबसे बड़े धर्मों की शक्ल में ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद से भारत और नेपाल से हिमालय, तिब्बत, चीन, जापान और उधर इंडोनेशिया तक फैलता गया था। कुछ इसी अंदाज़ में इसके समानांतर या इससे भी पहले ईसा पूर्व 200 वर्षों से इसी प्रभावक्षेत्र पर हिंदू धर्म का विस्तार भी इन्हीं धाराओं के ज़रिए कुछ इसी तरह हुआ था। चीन के बीजिंग संग्रहालय में आपको उसी इलाके में खुदाई से प्राप्त हुई गणेश और लक्ष्मी की मूर्तियां मिलेंगी। इन मूर्तियों में इन देवी-देवताओं के नाक-नक्श आपको बेतरह चाइनीज़ नज़र आएंगे, लेकिन हैं ये हमारे लक्ष्मी और गणेश ही। तब इस समूचे प्रदेश को सुवर्णभूमि या सुवर्ण द्वीप नाम से जाना जाता था। जिन रास्तों से इन धर्मों का विकास हुआ, वे अधिकांश व्यावसायिक यात्रियों द्वारा प्रचलन में आए जन-मार्ग थे जिनके जरिए  प्रदेश में वाणिज्य और उत्पादों का सक्रिय आदान-प्रदान पुरातन समय से चला आ रहा था। दृष्टव्य यह है कि भारत से हिंदू और बौद्ध धर्म का विस्तार एक साथ समानांतर ढंग से हुआ और कई शताब्दियों तक इन दोनों धर्मों के बीच सह-अस्तित्व और एक दूसरे के प्रति आदर और सहिष्णुता भाव के चलते संघर्ष की स्थिति कभी नहीं आयी। अंतत: कई प्रदेश पूरी तरह बौद्ध धर्म की ओर चले गए, लेकिन धर्म-परिवर्तन की यह प्रक्रिया भी स्वत:स्फूर्त थी और इसमें  परस्पर शत्रुता या 'घर वापसी' जैसे दबावों के लिए कोई जगह नहीं थी। ईसा से 200 वर्ष पूर्व मौर्यं नरेश सम्प्रति के राज में  जैन धर्म के प्रचार की कोशिशें भी कुछ इसी तरह से हुईं और राजा के निर्देश पर कई जैन प्रचारक सुवर्णभूमि में भेजे गए, हालांकि इनका प्रभाव बौद्ध या हिंदू धर्मों जितना व्यापक नहीं रहा। बताया जाता है कि पिछली शताब्दी के प्रारंभ में मयनमार में कोई पांच हज़ार जैन परिवार थे, जो अब धीरे-धीरे बिखर गए हैं। पुराने यांगोन के लथा मुहल्ले में तीन-चार मंदिरों और मस्ज़िदों के साथ-साथ जर्जर अवस्था में एक पुराना जैन मंदिर भी है जिसका जीर्णोद्धार करने वाला भी आज कोई नहीं है।  
चौथी शताब्दी तक भारत से पूर्व में चीन तक स्थापित व्यापारिक मार्गों के प्रभाव में बांग्लादेश और उससे आगे मयनमार की ऐरावती घाटी का अधिकांश हिस्सा बौद्ध धर्म अपना चुका था। इस प्रदेश में इस्लाम का अभ्युदय नवीं और बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के आसपास हुआ। तब बांग्लादेश में पाला और सेना बौद्ध वंशों का साम्राज्य था और मयनमार में बगान साम्राज्य सत्ताधीन था। तेरहवीं शताब्दी के आसपास मुस्लिम व्यापारियों, सूफियों एवं यात्रियों के प्रभाव में बांग्लादेश और उससे आगे पूर्वी मयनमार तक में सामूहिक रूप से बौद्ध और हिंदू धर्म को छोड़ इस्लाम को अपनाया गया। इसके लगभग समानांतर बारहवीं शताब्दी में मलेशिया प्रायद्वीप की दो रियासतों केडाह और मलक्का के राजाओं ने इस्लाम को स्वीकार किया और इससे जनसाधारण में इस्लामीकरण की प्रक्रिया ने और ज़ोर पकड़ा। कालांतर में यह प्रभाव आगे इंडोनेशिया तक फैलता चला गया और इस प्रसार में ख्वाजाओं-सूफियों, व्यापारिक यात्रियों और राजघरानों की प्रमुख भूमिका रही। बांग्लादेश में कुछ लोगों और अंग्रेज़ इतिहासकारों का मानना है कि इस प्रक्रिया में ज़मींदारों द्वारा रियाया पर लगाए जाने वाली अनाप-शनाप वसूली का भी हाथ रहा। बहरहाल पूर्वी बंगाल, मलेशिया और इंडोनेशिया में जहां एक बड़े बहुमत ने इस्लाम को स्वीकार किया, वहीं पूर्वी मयनमार और उससे आगे थाइलैंड और कम्बोडिया में बौद्ध धर्म के वर्चस्व को उस हद तक बदल पाना संभव नहीं हुआ।
थाइलैंड (93 प्रतिशत) और मयनमार (88 प्रतिशत); दोनों ही देशों में 88-93 प्रतिशत लोग थरवदा बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। लेकिन जहां थाइलैंड में भारी बौद्ध बहुमत के बावजूद धर्मनिरपेक्षता का बोलबाला है, वहीं  मयनमार में बौद्ध धर्म अधिक मुखर और उग्र दिखाई देता है। बर्मा की स्वतंत्रता के बाद देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री यू न्यू ने वोट बैंक के तहत 1961 में चुनावों से पहले एक अधिनियम के द्वारा बौद्ध धर्म को राज्य का धर्म घोषित कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप चुनावों में उनकी अभूतपूर्व जीत हुई थी। लेकिन इसके फौरन बाद 1962 में देश जब सेना प्रमुख ने विन ने देश के तानाशाह प्रमुख बने, तो उन्होंने सबसे पहले देश को गृहयुद्ध की आग से बचाने के लिए यू न्यू के डेढ़ वर्ष पहले के उसी अधिनियम को रद्द कर दिया था। लेकिन समाजवाद की दुहाई देने के बावजूद तानाशाहों का सत्ता के अलावा कोई और धर्म नहीं होता और इस बात को देश के 10 प्रतिशत अल्पसंख्यकों (6 प्रतिशत चिन, कचिन और करेन जातियों के ईसाई; 4 प्रतिशत रोहिंग्या और भारतीय/बांग्लादेश मूल के मुसलमान और आधा प्रतिशत हिंदू ) लोगों से बेहतर कोई नहीं समझता। 1978 में जब सेना ने रोहिंग्या के मुसलमानों पर अराकान में 'किंग ड्रैगन' अभियान चलाया था तो देश के ढाई लाख मुसलमानों को बांग्लादेश भागना पड़ा था। फिर 1988 के कुख्यात '8888' अभियान में पुलिस ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाकर हज़ारों कचिन अ-बौद्धों और विद्यार्थियों को मार डाला था। और अभी कुछ वर्ष पहले 2012 में मयनमार के राखिने प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्धों के बीच के सांप्रदायिक दंगों में कई सौ मुसलमान मारे गए और हज़ारों बेघर हो गए। दृष्टव्य है कि मुसलमानों के विरुद्ध लड़ रहे इन दंगाई बौद्धों को सरकार का पूरा समर्थन था। इस समस्या पर टिप्पणी करते हुए देश के एक मंत्री ने उस वक्त बेशर्मी से कहा था कि ये रोहिंग्या मुसलमान हमारे नागरिक नहीं हैं और ये सारे दंगे बाहरी लोगों ने देश में घुसकर करवाए हैं। 'हिंदू' समाचारपत्र के अनुसार 1982 से अब तक कोई साढ़े सात लाख रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश और मयनमार के बीच अधर में लटक रहे हैं। दोनों ही देशों की सरकारें इन्हें स्वीकार करने से इंकार कर रही हैं। 'ग्लोब मॉनिटर' के संपादक सूफियान बिन उज़ार के अनुसार मयनमार की सरकार नए नियम बना रही है जिसके तहत अल्पसंख्यकों के लिए अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध लगाने के अलावा उनके परिवारों को ज़बर्दस्ती सीमित रखने करने का प्रावधान है। वे लिखते हैं-
''सबसे बड़ा दुख इस बात का है कि इन नए कानूनों को मबाथा नाम से जाने वाले उग्रवादी बौद्ध सन्यासियों का पूरा समर्थन है। वे 13 लाख बौद्धों द्वारा हस्ताक्षरित एक दस्तावेज़ प्रसारित करवा चुके हैं, जिसमें साफ-साफ  शब्दों में देश सेे मुसलमानों के सफाए की बात कही गयी है।... मबाथा और '969' अभियान अब खुले-तौर पर मयनमार को एक बौद्ध राष्ट्र बनाने की मांग कर रहे हैं!....
2013 में इस्लामी सहयोग संस्थान का एक प्रतिनिधिमंडल जब यांगोन आया तो उसका स्वागत बड़े-बड़े पोस्टरों से हुआ जिन पर लिखा था-- 'इस्लाम वहशियों और बेहिसाब बच्चे पैदा करने वालों का मज़हब है!'  देखा जाए तो  इस सारे फासीवादी प्रचार में बौद्धों को हमारे अपने देश के कट्टर हिंदूवादियों से अलग पहचानना भी मुश्किल होगा। दुखद यह भी है कि ये सब उसी गौतम बुद्ध के अनुयायी हैं जिन्होंने वर्षों पहले पूरे विश्व को शांति, बलिदान और त्याग का संदेश दिया था...
मयनमार में आने वाले पर्यटकों में भी सबसे अधिक संख्या बौद्ध धर्म के अनुयायियों की है जो शांति की तलाश में देश के अनगिनत बौद्ध विहारों और पगोडाओं की ओर खिंचे चले आते हैं। यांगोन शहर अंग्रेज़ों द्वारा बसाए गए सबसे बड़े बहु-सांस्कृतिक कॉस्मोपोलिटन शहर के साथ-साथ अपने भव्य पगोडाओं के लिए भी जाना जाता है। यहां के बोतातांग, सुले और सबसे बड़े श्वेदागौंग पगोडाओं को दुनिया के किसी भी वास्तुकला के आश्चर्यों के समकक्ष रखा जा सकता है। कहा जाता है कि ये तीनों पगोडा बुद्ध के जीवनकाल में लगभग 2500 वर्ष पहले बनाए गए थे और बाद में निरंतर इनका जीर्णोद्धार, पुनर्निर्माण और विस्तार होता रहा। इनमें से सबसे भव्य सुनहरी श्वेदागौंग का निर्माण ईसा से 588 वर्ष पहले गौतम बुद्ध के चार बालों वाले स्मृतिचिन्हों पर हुआ था। बाद में सदियों तक तत्कालीन राजाओं एवं नेताओं ने इसकी रक्षा कर इसे और बढ़ाया। आज यह 100 मीटर ऊंचा आलीशान पगोडा हमारे ताजमहल की तरह यांगोन ही नहीं, पूरे मयनमार की सबसे सुपरिचित पहचान बन चुका है। इसके परिसर में कई दूसरे विहार, मंदिर और छोटे पगोडा भी स्थित हैं।
 












यांगोन का श्वेदागौंग पगोडा

मयनमार को उत्तर से दक्षिण तक दो भागों में बांटती, देश की जीवन-दायिनी नदी ऐरावती एक तरह से इस देश की सभ्यता का केंद्रबिंदु रही है। बौद्धकाल से पहले इसका नाम मृन्माइक्का था, फिर नदी की घाटी में आ बसे बामा निवासियों से जुड़कर इसे मृन्मा कहा जाने लगा। बामा और मृन्मा--इन्हीं दो से अंग्रेज़ी में बर्मा और बर्मी/पाली में मयनमार नामों का जन्म हुआ! पाली से ही नदी को नया नाम मिला ऐरावती! इंद्र के सफेद हाथी ऐरावत की ही तरह बौद्ध देवता सक्का के तीन मुंह वाले हाथी का नाम भी ऐरावत था। नदियां तब प्राय: स्त्री हुआ करती थी-यथा ताप्ती, सरस्वती, भागीरथी, इरावती (रावी), अछिरावती और मयनमार में हाथियों की नदी ऐरावती। बारहवीं शताब्दी में ऐरावती घाटी में बगान राज्य स्थापित हुआ। यहां आसपास कई अन्य राज्य भी थे जिनमें निरंतर युद्ध चलता रहता था। सोलहवीं शताब्दी में राजा तबिन्श्वेती ने इन सबको संगठित कर तौंगू राज्य बनाया, जिसका शासन कोई ढाई सौ वर्षों तक चला। तबिन्श्वेती के बाद उनके उत्तराधिकारी बायिनौंग ने भी राज्य-विस्तार करते हुए पूर्व में सियाम (अब थाइलैंड) और पश्चिम में मणिपुर (अब भारत में) को तौंगू राज्य में मिला लिया। राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से तौंगू एक अत्यंत समृद्ध राज्य था जिसमें आधे से अधिक पुरुष और पांच प्रतिशत महिलाएं पढ़ी लिखी थी। राज्य में सुदृढ़ कानूनी और राजनीतिक व्यवस्था लागू थी और खेती में जुटा एक व्यापक वर्ग सरकारी करों या लगान में अपना हिस्सा बंटाता था। तौंगू वंश के बाद अठ्ठारहवीं शताब्दी में कोनबौंग वंश के आने के बाद भी प्रदेश में प्रगति और स्थिरता का यही दौर कायम रहा। इस समय तक भारत में अंग्रेज़ों के अलावा पुर्तगाली और फ्रेंच, पूरे प्रदेश में अंगुली से आगे पहुंचा पकडऩे के लिए स्थानीय राजाओं से मिलकर हर जगह लूटपाट और आगजनी फैलाने में मशगूल थे। लेकिन कोनबौंग वंश के कवच को भेद पाना काफी मुश्किल था। 1759 तक कोनबौंग वंश के राजा अलौंगपया ने न सिर्फ  राज्य को सुदृढ़ कर लिया था, बल्कि दुश्मन रियासतों को हथियार देने वाले अंग्रेज़ों, पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों को भी अपने प्रदेश के बाहरी मुकामों से खदेडऩे में कामयाबी पायी थी। उनके बाद आए  राजा बोदावपया ने तो राज्य की पश्चिमी सीमा पर आगे बढ़ते हुए 1817 तक मणिपुर और असम को भी अपने कब्ज़े में ले लिया था। कौनबैंग की सीमाएं अब ब्रिटिश भारत की पूर्वी सीमाओं को छूने लगी थी। अंग्रेज़ रह-रहकर असम की सीमाओं का अतिक्रमण कर गुरिल्ला युद्ध जैसी हरकतें करतेे और दूसरी ओर कौनबेंग से भी इसका मुंहतोड़ जवाब मिलता। आखिरकार प्रदेश को हथियाने के लिए अंग्रेज़ों ने कौनबैंग पर चढ़ाई कर दी। 1824 से 1826 तक चले डेढ़ वर्ष के इस 'पहले ऐंग्लो-बर्मा संघर्ष' को अंग्रेज़ों के इतिहास का सबसे महंगा युद्ध बताया जाता है, जिसमें दो करोड़ पाउंड झोंक चुकने के बाद आखिरकार अंग्रेज़ों ने अराकान, असम और मणिपुर को अपने कब्ज़े में ले लिया।  फिर इससे भी आगे बढ़ते हुए 1852 और 1885 में दूसरे और तीसरे ऐंग्लो-बर्मा युद्धों के ज़रिए अंग्रेजों ने बर्मा के बचे हुए हिस्सों को भी जीतकर वहां के तत्कालीन राजा थिबाव और उनके परिवार को भारत में नज़रबंद कर लिया।
अब बर्मा ब्रिटिश भारत का ही एक प्रांत बन गया था। राजा थिबाव की शाही राजधानी मंाडाले में थी, लेकिन अंग्रेज़ों ने दक्षिणी तट पर मछुआरों के एक पूरे गांव को हटाकर यांगोन में राज्य की नयी राजधानी बनाने का फैसला किया। सम्पूर्ण बर्मा पर अंग्रेजों का नियंत्रण हालांकि तीसरे  बर्मी युद्ध के बाद 1885 में ही हो पाया था, लेकिन यांगोन सहित देश का दक्षिणी हिस्सा 1852 से ही अंग्रेज़ों  के कब्ज़े में था। अंग्रेज़ों ने शहर में बहुत सी नई इमारतें बनायीं। मुद्रा विभाग की सोएफर बिल्डिंग जिसका डिज़ाइन बगदाद के एक यहूदी व्यापारी ने बनाया था। नदी के मुहाने पर स्थित स्ट्रैंड, जो आज भी वहां के सबसे महंगे होटलों में गिना जाता है और विक्टोरियन शैली में बना शहर का सचिवालय जहां से ब्रिटिश सरकार हुकूमत करती थी और बाद में देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी जिस इमारत की सक्रिय हिस्सेदारी रही। 
देश में अंग्रेजी राज्य स्थापित हो जाने के बाद भी उत्तरी बर्मा के कई इलाकों पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण बेहद  कमज़ोर था। यहां घने जंगल, धान के विस्तृत खेत, पुराने सांस्कृतिक शहर और कुछ तेल के कुंए थे। विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने यहां दमन की नीति अपनायी। बौद्धों की पारंपरिक सामंती व्यवस्था में सेंध लगा उन्होंने कई गांवों को पूरी तरह नष्ट कर वहां अपने भरोसेमंद नए पंच और अधिकारी नियुक्त किए।  अंग्रेजों के राज में शहरों के इर्दगिर्द अर्थव्यवस्था में सतही तौर पर कुछ सुधार ज़रूर हुए, लेकिन इनका अधिकांश फायदा भी स्थानीय लोगों की जगह अंग्रेज़ी कंपनियों, ऐंग्लो-बर्मी और बेहतर काम की तलाश में भारत से बर्मा आए हिंदुस्तानियों को मिला। नए शहर के निर्माण और सरकार चलाने के लिए हज़ारों मजदूरों और कर्मचारियों की ज़रूरत थी और इसके लिए अंग्रज़ों का विश्वास स्थानीय निवासियों की अपेक्षा हिंदुस्तानी मजदूरों और कर्मचारियों पर अधिक था। लिहाजा सिविल सर्विस और सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों को लगभग वंचित रखा गया। यूं भी बर्मी जनता की निगाह में यांगोन उनकी अपनी ही धरती पर विदेशी ताकत के जीते-जाते प्रतीक के रूप में खड़ा था। भारत में जन्मे प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक जार्ज ऑरवेल ने 1922 से 1927 तक पांच वर्ष बर्मा में पुलिस की नौकरी करते हुए गुज़ारे थे। उनके उपन्यास 'बर्मीज़ डेज़' में अंग्रेज़ों के बर्मी काल के अंदरूनी भ्रष्टाचार और सरकारी 'पक्के साहबों' के शासन का सिलसिलवार ब्यौरा है-
''....'नेटिव्ज़' अंतत: 'नेटिव्ज़ ही थे...  निस्संदेह वे दिलचस्प ज़रूर थे, लेकिन उन्हें विषय बनाते हुए भी लगातार अहसास रहता था कि आखिरकार हैं वे हमसे कहीं कमतर, काले चेहरों वाले लोग ही....'' 
बीसवीं सदी के आते-आते बर्मा के विभिन्न प्रदेशों से अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर उठने लगे थे। राज्य को चुनौती देने वालों में बौद्ध नेताओं, भिक्षुकों, गरीब किसानों और विद्यार्थियों का एक बड़ा तबका था। 1920 के दशक में यंगोन विश्वद्यिालय के छात्रों ने जहां नए यूनिवर्सिटी ऐक्ट के विरुद्ध व्यापक हड़तालें आयोजित कीं, वहीं गांवों में किसानों और सामान्य नागरिकों ने भारी टैक्सों के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई। बौद्धों के नेता भिक्ष्ुाक यू विसारा को देशद्रोह के अपराध में बंदी बना लिया गया, जहां 166 दिन की भूख हड़ताल के बाद 1929 में जेल में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। अब यांगोन की एक प्रमुख सड़क विसारा रोड है, जहां उनका स्मारक भी स्थित है। देश भर में प्रतिरोध के स्वर इतने व्यापक और उग्र थे कि इन्हें दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को सेना की कई टुकडिय़ां मुहैया करनी पड़ी।
1930 में एक अन्य बौद्ध भिक्षु साया सान ने गरीबी से जूझते हज़ारों भूमि-विहीन किसानों को संगठित कर स्वयं को देश का वास्तविक 'राजा' घोषित करते हुए, ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र मोर्चा खोल दिया। सान की गलोन (गरुड़) सेना के साथ अंग्रेज़ों का युद्ध कोई दो वर्षों तक चला और इसमें दस हज़ार से अधिक लोगों की जान गयी। अंग्रेजों ने आखिरकार साया सान को गिरफ्तार कर 125 सहयोगियों सहित फांसी पर लटका दिया। यांगोन में शाम के समय हम शहर के सबसे समृद्ध इलाके यान्किन में थे, जहां  प्रमुख सड़क साया सान के नाम से जानी जाती है। शहर के सबसे अच्छे रेस्त्रां, मॉल और नाइट क्लब इसी सड़क पर हैं, जिस पर तफरीह के लिए निकले अधिकांश पर्यटक शायद पचासी वर्ष पहले अंग्रेज़ों द्वारा फांसी पर चढा दिए जाने वाले उस अजीबोगरीब स्वतंत्रता सैनानी, चिकित्सक, बौद्ध भिक्षु और किसान राजा के नाम से भी अपरिचित होंगे।
1936 में यंगोन विश्वविद्यालय फिर से हड़ताल की चपेट में आ गया, जिसके परिणामस्वरूप छात्र नेता औंग सान और यू न्यू को युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया। ये दोनों ही आगे चलकर देश के अग्रणी राजनीतिक नेता और बर्मी स्वतंत्रता युद्ध के कर्णधार बनने वाले थे। स्वाधीनता के बाद यू न्यू स्वतंत्र बर्मा के पहले प्रधानमंत्री बने। औंग सान जीवित नहीं हैं लेकिन उनकी बेटी औंग सान सून क्यी आज जनतांत्रिक मयनमार की सबसे कद्दावर और महत्वपूर्ण नेत्री हैं।
देश में असंतोष की व्यापक लहर को देखते हुए अंग्रेज़ों ने 1937 में बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग, अंग्रेजों का एक स्वतंत्र उपनिवेश बनाकर स्थानीय नेता बा माव को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। दरअसल व्यावसायिक कारणों से अंग्रेज़ों के लिए बर्मा में विद्रोह को दबाकर शांति बनाए रखना बेहद ज़रूरी था। देश  की कई प्रमुख कंपनियां यहां से बेतहाशा पैसा कमाकर इंगलैंड भेजती थीं। बर्मा उनके लिए कच्चे माल का प्रमुख स्रोत था। देश में तेल के विपुल भंडार थे और 1853 से ही यहां बर्मा शेल कंपनी तेल  निर्यात करती थी। (दृष्टव्य है कि भारत में तेल व्यवसाय के सार्वजनिक बनाए जाने से पहले  भारत में भी बर्मा शेल सक्रिय थी। बाद में इसका नाम भारत पेट्रोलियम हो गया।)
1938 में तेल भंडारों में आरंभ हुई हड़ताल पूरे देश में फैल गयी और इसने शहरों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। यांगोन में सचिवालय पर विद्यार्थियों के घेराव में एक विद्यार्थी पुलिस की गोलियों का शिकार हो गया, जिसकी याद में आज भी मयनमार में 20 दिसंबर को शहीद ऑंग क्यांग दिवस के रूप में मनाया जाता है।

1939 में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ जाने के बाद बर्मा की राजनीति में भी तेज़ी से कई परिवर्तन आए। देश के सारे राष्ट्रवादी अब दो खेमों में बंट चुके थे। पहला खेमा युद्ध में शर्तों पर अंग्रेज़ों का साथ देने के ऐवज़ नए अधिकार और सुविधाएं वसूलना चाहता था, जबकि दूसरा खेमा युद्ध में अंग्रेजों से असहयोग का रास्ता अपनाना चाहता था। ऑग सान अब तक इस दूसरे खेमे के सबसे प्रखर नेता बन चुके थे। उन्होंने देश के विभिन्न घटकों को संगठित कर एक व्यापक 'स्वतंत्रता गठबंधन' (फ्रीडम ब्लॉक) बनाया, जिसका प्रमुख उद्देश्य अंग्रेज़ों को देश से हटाना था। इसके जवाब में अंग्रेज़ों ने इस गठबंधन के प्रमुख नेताओं पर जापान से साठगांठ का आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ्तारियां शुरू की, जिससे ऑग सान को बर्मा से भागना पड़ा। कहा जाता है कि वे चीन के कम्युनिस्टों से मिलना चाहते थे, लेकिन जापानियों ने इससे पहले ही उन्हें स्वतंत्रता का प्रलोभन दिखाकर अपने साथ मिला लिया। सुभाष चंद्र बोस की 'आई एन ए' की तर्ज़ पर ऑन सान ने बर्मा स्वतंत्रता सेना (बी एम ए) का गठन किया और 1942 में बर्मा पर होने वाले हमलों में इस सेना ने जापानियों की मदद भी की। युद्ध के दौरान 1942 से 1945 तक बर्मा पर जापानी सेना का शासन रहा। लेकिन झूठे वादों के बावजूद जापानी बर्मा को एक स्वतंत्र देश नहीं बनने देना चाहते थे। युद्ध के नाम पर देश में सामान्य नागरिकों का बेतहाशा नरसंहार जारी था। ऑग सान पर जब यह हकीकत खुली तो उन्होंने जापानियों को देश से निकालने के लिए कम्युनिस्टों और समाजवादियों के साथ मिलकर फासी विरोधी संस्थान ऐंटी फासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग (ए एफ पी एफ एल) का गठन किया। बताया जाता है कि जापानी फौज के दौर में कोई दो से ढाई लाख नागरिक मारे गए। आखिरकार ए एफ पी एफ एल, बर्मा राष्ट्रीय सेना और अंग्रेज़ी सिपाहियों के सम्मिलित सहयोग से 1945 में जापानियों को आखिरकार परास्त कर देश के बाहर धकेल दिया गया....
अब यहां से आगे देश में सबसे बड़ा मुद्दा स्वतंत्रता का था,  हालांकि अंग्रेज़ अब भी 1942 में आँग सान के जापानी संबंधों के लिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने का इरादा रखते थे। लेकिन ऑग सान की व्यापक लोकप्रियता एवं बर्मा की स्वतंत्रता वार्ताओं के मद्देनज़र  अंग्रेज़ी प्रतिनिधि लॉर्ड माउंटबैटन ने ऐसा होने नहीं दिया। 1947 जनवरी में ऑग सान और ए एफ पी एफ एल के दूसरे बर्मी नेताओं के प्रतिनिधिमंडल ने लॉड एटली के साथ स्वतंत्रता समझौते पर हस्ताक्षर किए। फिर अप्रैल 1947 के दौरान देश में आम चुनाव हुए जिसमें  ऑग सान और ए एफ पी एफ एल को अभूतपूर्व विजय मिली। लेकिन उनके कई घटकों में अब भी मतभेद था। कहा जाता है कि इन्हीं में से कुछ ने जुलाई 1947 में यंगोन सचिवालय में चल रही स्वतंत्रता-वार्ताओं के दौरान ही ऑग सान की हत्या को अंजाम दे दिया। हालांकि अधिकांश लोग आज भी इस हत्या के लिए अंग्रेज़ों को ही जिम्मेदार मानते हैं। आखिरकार  जनवरी 1948 में जब देश आज़ाद हुआ तो अंग्रेज़ों के विरुद्ध देश का गुस्सा इस कदर बरकरार था कि तत्कालीन सरकार ने अंग्रेज़ों के कॉमनवेल्थ संगठन का सदस्य बनने से इंकार कर दिया। 
सवा सौ सालों के शासन के बाद अंग्रेज़ों ने बर्मा को अत्यंत संघर्षपूर्ण स्थिति में छोड़ा। देश के पहले प्रधान मंत्री यू न्यू को स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में ही देश के विभिन्न घटकों के बीच विद्रोह की स्थिति का सामना करना पड़ा। उत्तरी भाग चीनी कम्युनिस्टों के प्रभाव में था, तो पश्चिम में मुसलमान और मुजाहिद अप्रसन्न थे, जबकि दूसरे हिस्सों में क्रांतिकारी बर्मा सेना (आर बी ए) का दबदबा था। 1958 तक स्वतंत्रता की सबसे बड़ी पार्टी एफ पी एफ एल में भी दरारें साफ  दिखाई देने लगी थीं। आखिरकार हालात इतने बिगड़ गए कि 1958 में प्रधानमंत्री यू न्यू को देश की बागडोर अस्थायी रूप से देश के सेना प्रमुख ने विन को सौंप देने का निर्णय लेना पड़ा। ने विन ने स्थितियों पर काबू पाकर 1960 में आम चुनाव करवाए जिसमें एक बार फिर यू न्यू की यूनियन पार्टी भारी बहुमत से विजयी हुई। लेकिन अब भी बहुत से घटक देश को तोडऩे की दिशा पर अग्रसर थे। इससे पहले कि स्थिति से निपटा जा सकता, ने विन ने 1962 में अचानक सोलह अन्य वरिष्ट सेना अधिकारियों से मिलकर जनतांत्रिक सरकार का तख्ता पलटकर सत्ता हथिया ली और इस तरह देश में सेना की लंबी तानाशाही का सिलसिला शुरू हुआ। नेे विन ने जनतांत्रिक मूल्यों के स्थान पर देश में एक ही पार्टी बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी (बी एस पी पी) का एकछत्र राज स्थापित किया। 1962 से 1988 तक उन्होंने पहले सेना प्रमुख, फिर राष्ट्रपति और अंतत: बी एस पी पी का प्रमुख बन अपना तानाशाही शासन बरकरार रखा। ने विन और उसके बाद सेना के दूसरे तानाशाहों का यह 50 वर्षों का समय बर्मा या मयनमार के इतिहास का संभवत: सबसे अंधकारमय युग था। 1988 में जब सारे देश में विद्रोह भड़क उठा तो सेना ने बेरहमी से गोलियां चलाते हुए कोई दस हज़ार विद्यार्थियों और निहत्थे नागरिकों को मार गिराया। इतना भयानक नरसंहार देश ने अंग्रेज़ों के समय में भी नहीं देखा था। इसके तुरंत बाद 1988 में ही ने विन ने अपने पद से हटते हुए सेना के अन्य अधिकारियों के हाथ में सत्ता दे दी। इस दौरान देश पूरी दुनिया से कट चुका था और यहां हर तरफ  सैनिक तानाशाहों की मनमानी जारी थी। दुनिया की मानवाधिकार से जुड़ी संस्थाओं को देश में प्रवेश की भी मनाही थी। मयनमार में मानव अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता का साव वा के शब्दों में-
'सेना यहां जो भी चाहे कर सकती है। उसके लिए कोई नियम नहीं हैं!... यहां जनमानव के साथ साथ पर्यावरण का विनाश सर्वव्यापी है।... सागौन के कच्चे पौधों को यहां काटकर जला दिया जाता है।... जिन इलाकों में कभी टीक के पेड़ों के घने जंगल थे, वहां अब बांस के झुरमुटों के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। खदानों में इस्तेमाल होने वाले ज़हरीले रसायन सारे पानी को दूषित कर रहे हैं। पूरी धरती के स्वाभाविक गुण बदल रहे हैं, जगह जगह भूस्खलन हो रहा है और प्रति वर्ष अकाल से आबोहवा में अपरिवर्तनीय बदलाव आ रहे हैं..... यहां मानव अधिकारों के हनन और पर्यावरण के विनाश को एक दूसरे से अलग काट कर देखना संभव नहीं है... लोग इतने बदहवास हो चुके हैं कि बहादुरी और प्रतिरोध के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है।....वे अपने घरों से बाहर खदेड़े जा रहे हैं। हज़ारों शरणार्थी शिविरों में हैं और दस लाख से अधिक देश छोड़कर थाइलैंड जा चुके हैं।... हमें बाहर से देश में आने वाले लोगों और देश में काम कर रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इसके प्रमाण पेश करने होंगे, ताकि कम से कम देश के बाहर इन पर दबाव बनाया जा सके और वे यहां सत्ता से साठगांठ कर जन-विरोधी योजनाएं न लागू कर सकें...

ने विन ने अपने शासनकाल में यूं तो कई जन विरोधी और बेसिर-पैर के निर्णयों को अंजाम दिया, लेकिन इनमें से दो-तीन सचमुच पागलपन की हद तक भयानक थे। अमेरिका और योरोप के अधिकांश देशों में गाडिय़ां सड़क के दाहिनी ओर चलती हैं, जबकि इंग्लैंड और भारत सहित अंग्रेजों द्वारा शासित रहे मुल्कों में इसका उलट है। अंग्रेज़ों के ज़माने से मयनमार में ट्रैफिक हमारी तरह सड़क के बांयी ओर चलता था। फिर 1970 में देश के तानाशाह  ने विन ने पता नहीं किस झोंक में इसे रातोंरात बदलकर दाहिनी ओर कर देने का आदेश दे दिया। आप समझ सकते हैं कि मयनमार जैसे बड़े देश के लिए ऐसा करना कोई मामूली कदम नहीं रहा होगा। लेकिन फिर भी इस तुगलकी फरमान को जारी कर दिया गया। कुछ लोग कहते हैं कि इस निर्णय में नी विन की पत्नी का हाथ था, जिसके ज्योतिषी ने ट्रैफिक पलटने को शुभ बताया था। कुछ अन्य का मानना है कि ने  विन देश को वाम से दक्षिण की ओर मोडऩा चाहते थे और इसके लिए उन्हें सबसे पहले ट्रैफिक की दिशा बदलना ज़रूरी लगा। बहरहाल, तानाशाही के माहौल में यह नियम रातोंरात लागू कर दिया गया और किसी ने सवाल उठाने की जुर्रत नहीं की क्योंकि यूं भी उन दिनों हर छोटे-मोटे अपराध पर झट कारावास ही नहीं, मृत्युदंड सुनाने का रिवाज चल निकला था। निर्णय लागू करने के बाद कई दिनों तक देश के प्रमुख शहरों में असंख्य छोटी और बड़ी दुर्घटनाओं का जैसे सैलाब सा आ गया। सवाल सिर्फ  सड़क के ट्रैफिक की दिशा बदलने का नहीं था। जिन देशों में ट्रैफिक सड़क के दाहिनी ओर चलता है, वहां सारी गाडिय़ों में स्टीयरिंग व्हील बांयीं ओर होता है, कुछ इसी तरह जैसे हमारे देश की बसों में ड्राइवर दाहिनी ओर व्हील के पीछे बैठता है और सवारियां बांयीं ओर के दरवाज़ों से चढ़ती-उतरती हैं। मयनमार की सारी बसों और ट्रकों में स्टीयरिंग और दरवाज़े उलटी तरफ  थे और आज भी हैं। एक गरीब देश में गाडिय़ों को बदलना इतना आसान नहीं है। लिहाजा वहां आज भी ट्रैफिक सड़क के दाहिनी ओर चलता है, लेकिन अधिकांश गाडिय़ों के स्टीयरिंग व्हील और दरवाज़े खतरनाक ढंग से गलत तरफ  हैं। एहतियात के तौर पर अब शहरों की कई बसों ने बांयीं ओर के दरवाज़ों को बंद कर दाहिनी ओर से काम चलाऊ दरवाज़े निकाल लिए हैं लेकिन स्टीयरिंग व्हील ज्यों-के-त्यों हैं और कई चौराहों पर ट्रैफिक की बत्तियां अब तक गलत दिशा में लगी हुई हैं। शाम के समय लदी हुई बसों से सड़क के बीच उतरती भीड़ और इसके साथ ही दो पहिया, तीन पहिया और आठ सवारियों वाले गणेशनुमा टेम्पो की गहमागहमी मन में एक दहशत का भाव जगाती है।
अपने दूसरे चौंका देने वाले निर्णय में ने विन ने सितंबर 1987 में अचानक स्थानीय करेंसी क्यात के 45 और 90 नोटों को छोड़कर बाकी सभी नोटों को अवैध करार दिया। इससे देश के अधिकांश लोग रातों-रात अपनी सारी कैश सम्पत्ति से हाथ धो बैठे और अर्थव्यवस्था को इतना बड़ा झटका लगा कि देश दुनिया के सबसे गरीब देशों की पहली पंक्ति में आ गया। एक बार फिर कहा जाता है कि ने विन ने इतना बड़ा निर्णय सिर्फ  उस ज्योतिषी की सलाह पर किया था, जिसने 9 अंक को ने विन के लिए अत्यंत शुभ बतलाया था। 45 और 90, ये दोनों ही संख्याएं 9 से विभाज्य हैं और इनका योग भी 9 है।
पिछले पचास वर्षों के तानाशाही शासन के दौरान देश ने और न जाने कितनी अकथनीय विपदाएं झेली है। 1988 के व्यापक आंदोलन के बाद मिलिट्री की खुफिया सेवा ने इसके लिए बर्मा कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिगत शाखा पर निराधार आरोप लगाया। 1989 में सेना ने बर्मा को नया नाम मयनमार दिया और इसके साथ ही देश में अन्य राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध हटाकर आम चुनाव हुए जिसमें सत्ताधारी बी एस पी पी की करारी हार और औंग सान की बेटी औंग सान सू क्यी के नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एन एल डी) की अभूतपूर्व विजय हुई, लेकिन सैनिक सत्ता ने नई असेम्बली की बैठक पर ही रोक लगाकर सू क्यी को कई अन्य नेताओं सहित हिरासत में ले लिया। 1991 में सू क्यी को नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद दुनिया भर के अनेक देशों ने मयनमार पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। 1995 में सू क्यी अंतत: रिहा हुई लेकिन उन्हें देश से बाहर जाने की इजाज़त नहीं दी गयी। आखिरकार 1996 में असेम्बली की बैठक इस शर्त के साथ हुई कि भावी सरकार में सेना की भी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी होगी। इन सारे प्रतिबंधों के बीच एन एल डी के नेताओं ने 1995 में असेम्बली का बहिष्कार किया और अंतत: 1996 में चुनी हुई पूरी असेम्बली ही बर्खास्त कर दी गयी। साल 2000 से 2002 तक और फिर 2003 में दुबारा सू क्यी को हिरासत में ले लिया गया और एन एल डी के अन्य नेताओं पर भी अत्याचारों का सिलसिला शुरू हुआ। 2005 में तानाशाही सरकार ने नया संविधान बनाने के लिए नैशनल कनवेंशन बुलाया लेकिन एन एल डी और दूसरी प्रमुख पार्टियों को इससे बाहर रखा गया। इसी के अगले साल सैनिक तानाशाही ने अपनी असुरक्षा के तहत देश की राजधानी को यांगोन से हटाने का फैसला किया। लगभग इसी समय अंतर्राष्ट्रीय श्रम संस्थान (आई एल ओ)े मानवाधिकार अपराधों के लिए सैनिक सत्ता पर मुकदमे का फैसला ले चुकी थी। आई एल ओ के अनुसार उस समय वहां लगभग आठ लाख नागरिकों से बंधुआ मजदूरी करवायी जा रही थी।  
2007 में सैनिक सरकार ने जब अचानक पेट्रोल और डीजल के दाम दुगुने और गैस के दाम पांच गुने कर दिए तो पूरा देश विद्रोह की चपेट में आ गया। इस शांतिपूर्ण विद्रोह में आम जनता के साथ हजारों भिक्षुक भी सड़क पर आ गए थे। सेना ने जवाब में कई नागरिकों और भिक्षुकों को मार डाला और हज़ारों को हिरासत में ले लिया।

2008 में मयनमार ने प्राकृतिक विपदा की शक्ल में 'नरगिस' तूफान का कहर झेला जिसने ऐरावती घाटी में फैले समूचे कृषि प्रदेश को तहस-नहस कर दिया। अनुमान है कि इस तूफान में एक लाख तीस हज़ार लोग मारे गए और दस लाख से भी अधिक बेघरबार हो गए। जानकारों का मानना है कि तूफान से इतनी अधिक क्षति इसलिए भी हुई क्योंकि सैनिक सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के देशों से मदद और राहत सामग्री को देश में आने की इजाज़त नहीं दी।
2010 में देश में फिर से चुनाव हुए लेकिन सैनिक तानाशाही द्वारा लगाए प्रतिबंधों के तहत सू क्यी की एन एल डी पार्टी ने इनमें भाग लेने से इंकार कर दिया। 2012 के उपचुनावों में और अंतत: इन प्रतिबंधों के हटने के बाद पुन: 2015 में हुए चुनाव में सू क्यी की एन एल डी भारी बहुमत से जीती। लेकिन सैनिक सरकार ने कई वर्ष पहले, संभवत: दूरदर्शिता दिखलाते हुए देश के संविधान में कई परिवर्तन कर दिए थे, जिनके कारण कानूनी तौर पर सू क्यी को देश के राष्ट्रपति का पद नहीं मिल सकता क्योंकि उनका दिवंगत पति और उनके दो बेटे विदेशी नागरिक थे। फिर भी फिलहाल वे राज्य की सलाहकार के रूप में  देश की बागडोर संभालने में सक्रिय योगदान दे रही हैं।
आज भी मयनमार में सेना अपने लंबे शासनकाल में सत्ता के हर पहलू पर इस कदर काबिज हो चुकी है  और अर्थव्यवस्था के हर हिस्से पर उसका शिकंजा इस कदर सख्त है कि जनतंत्र की आंशिक बहाली के बावजूद देश के ज़मीनी हालात बदलने में अभी काफी व$क्त लगेगा।  2016 में गठित जनतांत्रिक सरकार से लोगों को बहुत उम्मीदें हैं, बशर्ते वह अपने आपको सेना के प्रभाव से असम्पृक्त रख सके...

तानाशाही के इस दौर में मयनमार और यांगोन का विकास मनमानी, या यूं कहिए कि काफी बेढंगी चाल से हुआ। आज यांगोन का चेहरा उस दकियानूसी अधेड़ महिला का सा दिखाई देता है, जिसने पारिवारिक उत्सव के दौरान नाती-नातिनों की ज़िद में होठों पर लिपस्टिक लगा तो ली हो लेकिन जिसे लोगों के सामने आने में संकोच का अनुभव होता हो। यांगोन में गिनी चुनी आधुनिक इमारतों को आप ज़रा सा खुरचें तो नीचे से शहर का अंदरूनी, खस्ताहाल और क्षत-विक्षत चेहरा सामने आ जाएगा। शहर के अधिकतर रेस्त्रां यांकिन इलाके में हैं। इसके बाहर आपको सिर्फ  बड़े-बड़े  ढाबा-नुमा भोजनालय मिलेंगे, जिनमें 'थोके' (बर्मी सलाद-नुमा खिचड़ी) और चाय की इस्तेमाल की गयी पत्तियों के सलाद के अलावा कुछ खास नहीं मिलेगा।
मयनमार की सुवर्णभूमि अपनी अप्रतिम प्राकृतिक सम्पदा के लिए विश्व विख्यात है। लेकिन सवा सौ साल तक ब्रिटिश शासकों और उसके बाद पचास साल मिलिट्री तानाशाहों ने इस अमूल्य खज़ाने का भरपूर दोहन किया है। और आज, जबकि देश में जनतंत्र के दरवाज़े खुलने को हैं, दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध निगाहें रंडीखाने के ग्राहकों की तरह इसके मांसल शरीर को हर ओर से तौलने और इसका सौदा पटाने में जुटी हुई हैं। इस धरती के अधिकांश लज़ीज लुकमे पहले ही अंग्रज़ों और तानाशाहों की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन जो कुछ बचा है, वह भी कम आकर्षित करने वाला नहीं है।  मयनमार के सागौन के जंगल दुनिया भर में इतने विख्यात थे कि दुनिया की इस श्रेष्ठतम लकड़ी को आज हम 'बर्मा टीक' नाम से पहचानते हैं। मयनमार में हरिताश्म (जेड) के भरपूर भंडार हैं  और आंकड़ों के अनुसार दुनिया के 90 प्रतिशत माणिक्य (रूबी) रत्न मयनमार से आते हैं। इसके अलावा यहां अन्य बहुमूल्य खनिजों की भी सम्पदा है और पिछली शताब्दी में यहां भरपूर नैचुरल गैस भी मिली है, जिसका अधिकांश हिस्सा थाइलैंड को आयात कर दिया जाता  है, जबकि देश में गैस की भारी कमी है। देखा जाए तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस धरती के पास इतनी बहुमूल्य सम्पदा है, उसी का सामान्य नागरिक आज एशिया में सबसे गरीब है। बल्कि आंकड़े बताते हैं कि उसकी गरीबी पड़ोसी एशियान (्रस्श्व्रहृ) संगठन के गरीब मुल्कों से भी कहीं अधिक है। समाज की ये गंभीर विषमताएं मयनमार में हर जगह दिखाई देंगी, लेकिन फिर भी पूछे जाने पर अधिकांश नागरिक एक लंबी चुप्पी खींच जाएंगे। यांगोन शहर में बसों पर लदी भीड़ें खामोशी से सब कुछ सहन करती चली जाती हैं। तानाशाही का भय अब भी सब जगह व्याप्त है। लगता यही है कि कहीं एक बहुत बड़ा सुप्त ज्वालामुखी किसी इशारे के इंतज़ार में फटने का इंतज़ार कर रहा है।
देखा जाए तो अंग्रेज़ों के ज़माने में यांगोन खुद अपने देश में ही एक विदेशी शहर था। 1931 की जनगणना के अनुसार तब वहां 55 प्रतिशत भारतीय थे जब कि यहां के स्थानीय बाशिंदे अल्पसंख्यक थे और जो थे भी, वे मुख्य शहर के केंद्र से दूर इसके उपनगरों में रहते थे। इस 'विदेशी' शहर में आज भी दो अलग-अलग चेहरे देखे जा सकते हैं। एक चेहरा अंग्रेज़ी कोलोनियल युग की किसी समय भव्य रही इमारतों का है, जिनकी वर्तमान खस्ता हालत देखते हुए कई लोग उसे एक 'खुले अजायबघर' की संज्ञा देते हैं। यहां अंग्रेज़ी स्थापत्य की इमारतें, बैंक, दफ्तर और मर्चेंट रोड, स्ट्रैंड रोड और बैंक ऐवेन्यू जैसे नामों वाली सड़कें थीं। और दूसरा चेहरा उस पुराने यंगोन का था जहां अंग्रेज़ों के ज़माने में शहर के तमाम दोयम दर्ज़े के नागरिक रहते थे, जिनके लिए उस समय अंग्रेज़ों के शराबखानों, क्लबों, होटलों और गेस्ट हाउसों में प्रवेश तक वर्जित था। इन बाशिंदों में से अधिकांश भारतीय प्रायद्वीप से आए प्रवासी थे -ट्रावनकोर के तमिल, उद्यमी सरदार, बांग्लादेश के मुसलमान, बंबइया पारसी और गुजराती बनिए, जिन्होंने सुविधा देखकर यांगोन को अपना घर बना लिया था। हक्का, कैंटन और होक्किएन प्रांतों की चाइनीज़ बोलने वाले कुछ चीनी भी थे, जिन्हें स्थानीय बर्मी निवासियों से अलग काटकर देखना मुश्किल था। इन्हीं सबके बूते पर अंग्रेज़ों का राज चलता था; इसी खलकत में से अंग्रेज़ी दफ्तरों के क्लर्क और छोटे अफसर, सरकारी कर्मचारी, पुलिस और फौज वाले, छोटे व्यापारी, दुकानदार और सूद पर पैसा देने वाले साहूकार आते थे। यहां स्थानीय बर्मी नागरिकों की तादाद कम थी और बाहर से आए बाशिंदों ने यहां अपना एक संसार, एक 'लिट्ल इंडिया', 'चाइनाटाउन' बना रखा था जहां छोटी-छोटी बस्तियां, दुकानें और मंदिर-मस्जिद-सिनेगॉग, बौद्ध मठ और गिरजाघर थे। तानाशाही हुकूमत आने के बाद अंग्रजों की नीति से ठीक उलट इन तमाम तथाकथित विदेशियों का सरकारी, फौज और पुलिस की नौकरियों में प्रवेश बंद कर दिया गया और पिछले पचास वर्षों में यह पूरा समुदाय एक तरह से  बिखर कर फिर से प्रवासी बन चुका है। उस पुराने शहर के टूटे-फूटे अवशेष अब भी पुराने यांगोन में उसी तरह खड़े हैं जिन्हें कुछ लोग बचाने की कोशिश में जुटे हैं। इस विरासत को बचाने के लिए बनी संस्था 'यांगोन हेरिटेज ट्रस्ट' के संस्थापक और प्रसिद्ध लेखक थ्यांट मियांट यू कहते हैं, ''मुझे पक्का यकीन है कि न्यूयार्क और लंदन सहित दुनिया के किसी भी देश या शहर में कोई ऐसा इलाका नहीं होगा जहां एक वर्ग मील क्षेत्र में एक ऐंग्लिकन कैथेड्रल, एक रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, दो पगोडा, सात सुन्नी और शिया मस्जिदें, एक यहूदी सिनेगॉग, पांच हिंदू मंदिर, गुरुद्वारा, पारसी अग्नि उपासनागृह, जैन मंदिर और आर्मेनियन चर्च एक साथ उपस्थित हों! यांगोन की इस बहु-धर्मी धरोहर को हमें किसी भी कीमत पर बचाना होगा!' लेकिन ऐसा करने के लिए जिस मनोबल और संसाधनों की आवश्यकता है, उन्हें जुटा पाना बहुत आसान नहीं होगा। फिलहाल इन संास्कृतिक इमारतों को बुलडोज़र चलाकर उस ज़मीन पर  बहुमंज़िला इमारतें, मॉल, पांच सितारा होटल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आलीशान दफ्तर उगाने की संभावना ही अधिक दिखाई देती है।  
2005 में तत्कालीन सेना द्वारा देश की राजधानी को यांगोन से एक नई जगह नायपिडाव में स्थानांतरित करने का अजीबोगरीब निर्णय सेना की असुरक्षा से जन्मा था। यूं भी तानाशाही का अंग्रेज़ों द्वारा बसाए गए शहर यांगोन के प्रति तिरस्कार का भाव जग जाहिर था और यहीं कारण था कि यांगोन की अधिकांश पुरानी इमारतें आज भी इतनी खस्ता हालत में हैं। लेकिन दुनिया के गरीबतम देशों में से एक के लिए, एक बियाबान में अरबों की लागत से नयी राजधानी बसाने का खयाल समझ पाना मुश्किल है। आठ वर्षों तक इस नयी राजधानी में विदेशियों के आने पर प्रतिबंध रहा है, जहां आज विशालकाय बिल्डिंगें, बड़े-बड़े होटल, शॉपिंग मॉल और बेहद चौड़ी सड़कें हैं लेकिन इस भुतहा शहर में किसी चीज़ की कमी है तो वह है लोग! सरकार ने यांगोन के विदेशी दूतावासों को नए शहर में ज़मीन दी है, लेकिन कोई भी दूतावास यांगोन से नए शहर में नहीं जाना चाहता! लगता है कि यह नया शहर सैनिक शासन का एक महंगा और आलीशान मकबरा मात्र बनकर रह गया है। अंग्रेज़ी समाचारपत्र 'गार्डियन' लिखता है-
'नायपिडाव आकर आपके लिए कल्पना करना मुश्किल होगा कि आप दुनिया के निर्धनतम देश में हैं। 4800 वर्ग किलोमीटर में फैला यह नया शहर आकार में न्यूयॉर्क से भी बड़ा है। जिस देश में सामान्य नागरिक के लिए बिजली की भारी दिक्कत हो, वहां चौबीसों घंटे बिजली, चार आधुनिक गोल्फ  क्लब, चिडिय़ाघर में पेंग्विनों के लिए वातानुकूलित कमरे  का होना एक वीभत्स स्थिति है। बीस-बीस गलियारों वाली सड़कें पदयात्रियों के लिए नहीं बल्कि गाडिय़ों की शोभायात्रा के लिए बनायी लगती हैं, या फिर यह ध्यान में रखते हुए कि यदि कोई प्रतिरोध या बगावत हो तो इन सड़कों पर हवाई जहाज़ 'लैंड' कर सकें...'
संस्कृतियों, ऐतिहासिक स्मृतिचिन्हों और परंपराओं को कुचलकर अपने लिए सुविधाजनक नए सांस्कृति कीर्तिस्तंभ बनाना साम्राज्यवादी इंसान की फितरत रही है। उत्तरी अमरीका में रेड इंडियनों, दक्षिणी अमेरिका में इंकाओं, न्यूज़ीलैंड-ऑस्ट्रेलिया में माओरी वंशजों और नाइजीरिया में ओगोनी जातियों के साथ यही हुआ और यही पूरी दुनिया में हर जगह घटित हो रहा है। हमारे अपने देश में स्वतंत्रता आंदोलन के असुविधाजनक नामों को इतिहास से हटाने, इतिहास को दुबारा लिखने और पाठ्य पुस्तकों से लेखकों और संदर्भों को हटाने की प्रक्रिया भी इसी दुराग्रही सांस्कृतिक अभियान का एक और उदाहरण है। मिलान कुंडेरा अपनी पुस्तक 'दि बुक ऑफ लाफ्टर ऐंड फॉरगेटिंग' में देश के प्रमुख को  'विस्मृति का प्रधानमंत्री' बताते हैं, जिसके नेतृत्व में एक समूचा राष्ट्र स्थिति प्रज्ञता की ओर अग्रसर हो रहा है। वे लिखते हैं-
 'देशों को नष्ट करने के लिए पहले उनकी स्मृति को लूट लिया जाता है। उनकी किताबों के साथ उनके ज्ञान, उनके इतिहास को नष्ट कर दिया जाता है। और फिर कोई और एक नई किताब लिखता है, नए ज्ञान की सीख देता है और एक भिन्न इतिहास का आविष्कार करता है!' 
योरोपियन लेखक इवान क्लीमा इसी उक्ति पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि जो कुछ देशों के साथ होता है, ठीक वही व्यक्तियों के, हम सबके साथ घटित होता है।
''अपनी स्मृति को खो चुकने के बाद अंतत: हम अपने आपको ही खो देते हैं। भूलना दरअसल मृत्यु का ही एक लक्षण है। बिना स्मृति के हम इंसान कहलाने के हकदार भी नहीं रह जाते!'' 
मयनमार का पिछले पांच सौ वर्षों का रक्तरंजित इतिहास इसी स्मृति को खोकर हर बार नयी स्मृतियां ईजाद करने का इतिहास है। लेकिन यह सच है कि इस समूचे रक्तरंजित इतिहास को आत्मसात् किए बगैर आप इसकी वर्तमान आत्मा तक नहीं पहुंच सकते....
(अगले अंक में जारी)


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