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नवम्बर 2016

दबिश में

रवीन्द्र वर्मा

लंबी कविता






1

अपने आईने में पता नहीं चलता
कल रात दोस्त का आईना देखकर चौंका-
पेड़ की शाख पर जर्जर पत्ती हिलगी थी
और हवा में चहुँ ओर डोलती थी
वह किसी भी क्षण पेड़ से विदा लेगी
और हवा में नाचती हुई
धूल में मिल जाएगी।

यह कोई अनहोना दृश्य नहीं था
मृत्यु मेरी परिचित थी
अरसे से
मैं उसे
किताबों में, फ़िल्मों में, दुनिया में
उसकी अलग-अलग अदाओं में
देख रहा था -
मुझे यह गुमान था कि
वह मुझे कभी हैरत में नहीं डालेगी।
मगर कल रात यह जानना
दिमागी लगा
लगा कि मृत्यु पहली बार
दिमाग की भुरभुरी परतें तोड़कर
देह में उतर गई
जहाँ स्पिनोज़ा की उक्ति तैर रही थी:
पत्थर हमेशा पत्थर रहना चाहता है।
पत्थर सहसा ठहर गया गोया
कोई दबिश पड़ी हो
एक गहरी बेचैनी ने मुझे घेर लिया -
अब मेरा जाना सचमुच पक्का था!


2

गति तेज़ थी
        बहुत तेज़
चारों और अँधेरा था
ज़मीन और आसमान में
फ़र्क पता नहीं चलता था
काँच के इस तरफ़
कोई आवाज़ भी नहीं थी
जैसे हम शून्य में जा रहे हों।
गाड़ी का शहर के आकाश में प्रवेश
कुछ बत्तियों से पता चला
मगर रोशनी काफ़ी नहीं थी
मैंने हताश किले की ओर देखा
जो वहाँ नहीं था
जहाँ कोरा अँधेरा था।

रात का प्लेटफ़ार्म वीरान था
कुछ रोशनी उस वीरानी को नंगा करती थी
स्टेशन का प्रवेश-द्वार
शहर का प्रवेश-द्वार था
मैंने एक पैर आगे बढ़ाया
दूसरा हवा में झूल गया
ज़मीन पर जगह नहीं थी
लोग मैदान में लेटे थे
जैसे शहर का घेराव हो गया हो
ये शहर के आस-पास गाँवों के निवासी थे
जिन्हें सूखे ने बेदखल कर दिया था -
लोग, मार तमाम लोग, लाशों की तरह
धरती पर फैले थे।

मैंने अपने शहर को इस तरह
दबिश में कभी नहीं देखा था!

3

अपने शहर में होटल में रात बिताकर
सुबह-सुबह घर जाना ज़रूरी था
जब मैं बाज़ार से अपनी गली में मुड़ा तो
मेरे पैर काँप गए
या धरती घूमी
जैसे मैं अपने घर नहीं
अपनी प्रेमिका के घर जा रहा था।
मैं भूल गया था कि
मेरे घर के लोग बाहर जा चुके थे
और अब घर की जगह दुकान थी
जहाँ परचून बिकता था।
मैं नाहक उस परचून में
अपना बचपन ढूँढ़ रहा था,
अब न आँगन था
            न पेड़ था
            न कुआँ था
सिर्फ आसमान में खाली घूमती
             हवा थी
जिसे देखता मैं
दुकान के सामने खड़ा था।
मोहल्ले में हर तीसरे घर की कमर
के नीचे दुकान थी
गोया मोहल्ला बाज़ार हो गया हो
और बचपन बाज़ार में खेल रहा हो
गली में आहिस्ता-आहिस्ता धूप के साथ
बच्चे उतरे और तीन गाएँ, पाँच कुत्ते
तथा दो सुअर भी प्रकट हो गए।
मैं कितनी देर धूप और परचून के बीच
खड़ा रहा
मुझे खुद पता नहीं चला।

4

मुझे समय का तब पता चला
जब मैं मानिक चौक पहुँचा
जैसे मैं अभी भी बाज़ार में
जवानी ढूँढ़ रहा था
जब चौक में ताँगे चलते थे
और दोनों ओर दुकानों की कतारों के बीच
खूब खाली जगह होती थी
जहाँ लोग मटरगश्ती करते फिरते थे
वह लड़कों का लड़कियों से देखा-देखी का
ज़माना था जब अगली कार्रवाई के लिए
तेज़ाब या तमंचे की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
अब धूप तले
बाज़ार ठसाठस भर गया था,
सँकरी सड़क पर दोनों ओर जाती गाडिय़ाँ थीं
जिनके बीच चलते इंसान फँसे थे,
दोनों ओर दुकानें चीज़ों से पटी थीं
जैसे कोई बाज़ार का जुलूस
                अचानक
चलते-चलते थम गया हो।

मैं जुलूस में फँसा था।

मेरे शहर की अजीब कैफ़ियत थी
एक तरफ़ यह भूखों की दबिश में था
दूसरी तरफ़ बाज़ार के जुलूस में फँसा था।
मैंने जुलूस में फँसे हुए देखा :
दूर आकाश के एक कोने में
किले का एक बुर्ज नज़र आ रहा था
जिसकी दीवार पर काई जमी थी।

5

किले के पत्थरों पर जमी काई देखकर
मेरी देह पलटी
और मैं उल्टी दिशा में चल दिया
गुदड़ी की ओर
जहाँ माताप्रसाद रहते थे,
वे चन्द्रशेखर  आज़ाद के साथी थे
जब आज़ाद भूमिगत 1925 में झाँसी आए थे
और उन्होंने अपना क्रांतिकारी गुट बनाया था,
जिसमें यह शर्त लगती थी कि
देश के लिए पहले कौन कुर्बान होगा -
इन दिनों अलबत्ता अगले को कुर्बान करने का चलन है!
पता नहीं माताप्रसाद अभी थे या नहीं थे,
मैंने कुंडी खटखटाई
दरवाजा खुला
वे सीधे चट्टान-से खड़े थे
गोया वे समय के परे थे -
मैंने उनकी आँखों में अपने को
वृद्ध और जर्जर पाया
गोकि उनके चेहरे के बाल मेरे बालों से
ज़्यादा सफ़ेद थे।
मुझे अपने शक पर शर्म आई
उनकी कविता याद आई -
मेरे शोणित की लाली से कुछ तो
लाल धरा होगी ही।
उन्हें मैंने रात का दृश्य बताया
जिसमें शहर दबिश में था
वे हँसे और बोले कि
क्या तुम्हें नहीं मालूम कि
रानी लक्ष्मीबाई का शहर 'स्मार्ट सिटी' बन रहा है?
क्या तुम्हें नहीं मालूम कि
रोज़ रात रानी शहर के बाहर
अपने पत्थर के घोड़े से उतरकर
पार्क में बदहवास घूमती है
बाल खोले
उसकी चीख शहर-भर में गूँजती है:
तुमने मुझे बाहर कर दिया
दूसरी बार
मैं किले से बेदखल हो गई!

6

घर के बाहर
धूप कड़ी थी
मेरी आँखें तेज़ किरणें से टकराईं
आहिस्ता-आहिस्ता मेरे होश उडऩे लगे
गोकि मैं खड़ा था
और मिचमिचाती आंखों से कोई सपना-सा
देख रहा था:

स्मार्ट सिटी का केन्द्र सिविल लाइन्स था
जो अंग्रेज़ों ने रानी के बाद बनाया था
अब यहाँ अमरीकी तर्ज़ पर तीन
मॉल थे और किले से ऊँची
एक टॉवर थी
जो व्यवसाय-केन्द्र थी।

अलबत्ता अब सिविल लाइन्स के बाहर
मैदान खाली था
जहाँ क्यारियों में फूल खिल रहे थे
पहले यहाँ झुग्गी-बस्ती थी
जिसमें कामवालियाँ रहती थीं
अब इस झुग्गी-बस्ती को शहर के बाहर
लक्ष्मी-ताल के गल में
खदेड़ दिया गया था-
बस्ती लक्ष्मी-ताल के पानी पर जीती थी-
जहाँ से रोज़ सुबह
एक सरकारी बस में कामवालियाँ नए फ़्लाईओवर से
शहर के केन्द्र में
केसरिया साडिय़ाँ पहने
प्रवेश करती थीं।
टॉवर के दोनों ओर
अनगिनत सितारों के दो होटल थे
जिनके दसवें माले पर स्विमिंग पूल था
जिसमें देसी-विदेशी लोग रात के तारों के साथ
पानी में तैरते थे
बुन्देली रातें अपने चमचमाते तारों के लिए मशहूर थीं।

शहर के चारों ओर दूर-दूर खनिजों की खुदाई में
ग्रेनाइट और सेण्डस्टोन के अलावा लोहा मिल रहा था
और अब धरती के व्यापारी यहाँ चुम्बक-से
खिचे चले आते थे।
शहर गाँवों से घिरा था
जहाँ से नई पीढ़ी भाग रही थी,
शहर से भूखों और लोहे का निर्यात हो रहा था।

दिन में सैलानियों की गाडिय़ाँ
केन्द्र से किले की ओर
चम-चम फ़्लाईओवर पर दौड़ती थीं।
किले के उसी बुर्ज पर बार बना था
जिससे रानी घोड़े पर सवार नीचे कूदी थी,
सैलानी किले में घूमते
और दीवारों के बीच झाड़-झंखाड़
और रानी की ज़ंग लगी तोपें देखकर
बार में बियर पीते -
इनमें भूरे और गोरे, दोनों देखे जाते थे
जैसे दोनों में कोई फ़र्क न हो।
इनमें खजुराहों के यात्री भी थे;
इधर खजुराहो पर्यटन रोज़ बढ़ रहा था-
जैसे पहले लोग ताज की ओर भागते थे
अब खजुराहो में भीड़ें बढ़ रहीं थीं,
लोग मन्दिरों के चबूतरों पर खड़े
दीवारों पर पत्थरों की यौन-मुद्राएँ निहारते रहते
गोया यही मुक्ति हो!

मेरे मोहल्ले में सुअर बढ़ रहे थे।

 

7

सहसा मेरी मूर्छा टूटी
कड़ी धूप में नंगे सिर रास्ते पर खड़े
मैंने पहली बार जाना कि
मैं अपने शहर क्यों आया था
जब मैं उमा के घर की तरफ़ मुड़ा
तो मेरे पैरों तले धरती काँप गई।
मुझे पता चला था कि उमा अकेली
वापिस अपने शहर में अपने घर
रहने आ गई है,
मैं उसे आिखरी बार
आधी सदी बाद
एक बार
देखना चाहता था;
वह दरवाज़ा खोलकर सन्न रह गई
जैसे उसने मुझे
धवल दाढ़ी के पीछे
साठ बरस पहले
पकड़ लिया हो
जैसे मैंने उसे
सफ़ेद बालों के पीछे
साठ बरस पहले
पकड़ लिया था।
उन पहली नज़रों में यह बोध
चमका था कि तब साठ वर्ष पहले
हम द्विज हुए थे -
हमने एक-दूसरे को उस आपसी अनुष्ठान में
स्त्री और पुरुष बनाया था
जैसे हम पैदा हुए थे
मगर जानते नहीं थे!
यह पहला प्यार हमारी देह में बीज की तरह था

फिर हम अचानक
एक-दूसरे से लिपट गए -
हमें खुद पता नहीं था
कि यह मिलने का आवेश था
आिखरी बार
या जुदाई की हताशा।
पता नहीं कैसे
सहसा लगा जैसे
छत के नीचे पानी बरस रहा है

8

थोड़ा आगे पीपल के नीचे मन्नू का घर था -
प्रोफ़ेसर मन्नू शर्मा
जो बीस बरस पहले रिटायर हुए थे
और मेरे बचपन के दोस्त थे,
यह अजीब इत्तेफ़ाक था
कि उमा और मन्नू अगल-बगल रहते थे
जीवन और मृत्यु की तरह-
मन्नू तीन माह पहले
अचानक उदासी से घिर गए थे
जब डॉक्टर ने उनके दिल की चाल को
लाइलाज बताया और बताया कि बस
तीनेक महीने बाकी हैं;
मृत्यु जो अभी तक दूसरों के लिए थी
एकाएक अपनी हो गई
जो अनिश्चित और दूर थी
सहसा मुअय्यन और पास हो गई-
ऐसा कभी सोचा नहीं था
मन्नू को लगता कि उनके साथ धोखा हो गया!
इसीलिए उनके चेहरे पर
छले जाने का शाश्वत मान आ गया था
जो मैंने खुली किताब की तरह पढ़ा
जब चादर के अँधेरे से वे बाहर आए
और मुझे खड़ा देखकर नहीं मुस्कुराए-
ऐसा लगा कि वे कुछ टटोल रहे हैं
जो यहाँ नहीं है।
क्या ढूँढ़ रहे हो, मन्नू?
देखो, पीपल में कोंपल आए हैं
कहाँ? वे बुदबुदाए, पतझड़ है
पत्ते झर रहे हैं
क्या तुमने झरते पत्तों का हवा में नृत्य देखा, मन्नू?
कहाँ? अँधेरा है
अँधेरा है...

9

गुदड़ी के पीपल से विदा लेकर
जब मैं होटल पहुँचा
तो मैंने सारे कपड़े उतार दिए
और नंगा पानी के नीचे
             खड़ा हो गया
मैंने आँखें बन्द कर लीं
और भीतर-ही-भीतर अपनी देह को
पानी में घुलता देखता रहा
रफ़ता-रफ़ता मैं अपने को
             अपनी देह को
भूलने लगा
सिर्फ पानी याद रहा
जो पानी की तरह
             बह
              रहा था;
फिर एकाएक आँखें खोलकर
मैं आईने के सामने पहुँचा
जहाँ पीपल के कोंपल खिल रहे थे!

अब मुझे न आईना चाहिए था
न पानी चाहिए था
मैं जान गया था कि मैं
इन्हीं शब्दों को लिखते हुए
इन्हीं शब्दों में खो जाऊँगा।



रवीन्द्र वर्मा सातवें दशक के प्रतिष्ठित कथाकार हैं। अनेक उपन्यास चर्चा में हैं। लखनऊ में रहते है


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