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नवम्बर 2016

कुछ पंक्तियाँ

ज्ञानरंजन


पहल के नये पाठकों को हम 10-12 साल पीछे ले जाएँगे। स्मृति-लोप और नवोन्मेष के माहौल में यह प्रयास अतीतगामी नहीं है, केवल विचारों की लड़ाई की एक मिसाल मात्र है। आपातकाल के आघातों में राजसत्ता उतनी शामिल नहीं थी जितना अधिक मीडिया के नौकर चाकर और कुछ प्रबल लेखक साहित्यकार थे। 2003 में लगभग यही शैली फिर लौटी, पहल पर प्रहार करो...। तब तक पहल ने तीन चार आयोजन दिल्ली में किए थे। दो व्याख्यान - वरवर राव और एज़ाज़ अहमद के भाऊ समर्थ पहल व्याख्यान माला के अन्तर्गत तथा मंगलेश डबराल और चंद्रकांत देवताले को पहल सम्मान के। इनकी सार्थकता और सफलता कुछ लोगों को चुभी और तंग करती रही। नीचे प्रकाशित पत्रों से पाठक संदर्भ समझेंगे। परदे के पीछे के.एन. सिंह सभी जगह होते हैं। आपात काल के दौर में के.एन. सिंह हमारे प्रिय जबलपुर में ही थे और इस बार वे लखनऊ में थे कई रूपों में। 2003 में पहल-सम्मान चंद्रकांत देवताले को दिया गया। गठजोड़ घुर्रा रहा था। के.एन.सिंह ने छापाखानों, अखबारों पर छापा मार रखा था। यह पहल के साथ ही नहीं होता है, दूसरे व्यक्तियों, सकारात्मक-वैचारिक काम करने वालों के साथ भी होता है। प्राय: आज भी हालात नहीं बदले हैं, सोशल मीडिया में ये लात-जूते चलते रहते हैं। लोग कुछ अधिक विचलित हो गए हैं। हालात बदले नहीं फूलकर और विषैले हुए हैं। हम चाहते हैं कि कुछ विश्राम मिले पर वैसा होता नहीं - अब लड़ते लड़ते घोड़े पर सो लेते हैं और काम चलता रहता है। के.एन.सिंह का भी चलता है और हमारा भी। आपात काल में पहल प्रहार पर प्रमुख भूमिका धर्मयुग और कादम्बिनी ने निभाई थी और 2003 में हंस और सहारा ने। इसके पीछे के.एन.सिंह जिंदा था। हमने एक प्रतिवाद पुस्तिका जारी की थी जिसमें हमारा क्षोभ अधिक था, संभवत: जिससे हमको बचना चाहिए था। पर हमें सैकड़ों सकारात्मक पत्र सपोर्ट में प्राप्त हुए। उनमें से यहाँ तीन प्रकाशित किए जा रहे हैं। इन पत्रों में हिदायत है, विमर्श है कार्यशैली के संकेत हैं। इनसे हमने अपना तरन्नुम बेहतर किया और आगे बढ़े। गोलमाल चेहरों का भी पता चला।
पत्रों में पर्याप्त संदर्भ हैं। देहरादून में विद्यासागर नौटियाल को पहल सम्मान के समय के संदर्भ हैं, दिल्ली आयोजनों के संदर्भ हैं। हमें खेद है कि हमारे दो अग्रज स्व. राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस के संदर्भ हैं जो कभी हमें प्यार करते थे कभी हमसे नफरत। और नामवर सिंह का हश्र तो पूरा हिन्दी समाज देख ही रहा है। फिर भी हम यह नहीं मानते कि बुरे लोगों को भगवान सजा देता है। सजा उन्हें समाज ही देता है।
पत्र देखें -

पत्र
सुभाष पंत, भगवान सिंह और विनोद शाही


22.5.2003

आदरणीय भाई साहब
अभी अभी पहल का प्रतिवाद पढ़ा। 'हंस' और 'राष्ट्रीय सहारा' ने 'पहल' के खिलाफ जो अभियान चलाया है, उससे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य की बात तो यह है कि उनका यह विष-वमन इतनी देर से क्यों हुआ। यह तो राजेन्द्र जी की अपने को साहित्य में जमाए रखने की पुरानी रणनीति है। लीलाधर जगूड़ी पर प्रकाशित एक विध्वंसक लेख को 'हंस' में पुन:प्रकाशित करके उन्होंने पिछले वर्ष ही अपने अद्भुत सम्पादकीय विवेक और कौशल का परिचय दिया। दूसरे को भ्रष्ट, बेईमान और टुच्चा सिद्ध करके अपनी छवि को भव्य, गरिमामय और पाक-साफ बनाए रखने का खेल उन्होंने जीवन भर खेला है और वे इसे आगे भी खेलते रहेंगे। इसके अलावा 'महीनों की श्रेणी' में बैठे रहने का उनके पास और कोई विकल्प नहीं बचा है। अपनी इसी महारथ के चलते उन्होंने दिखा भी दिया है कि एक ..... और पस्तदम आदमी दंगल जीत का एलान कर के सबसे बड़ा पहलवान कैसे बन सकता है। लेकिन इस बार वे गड़बड़ा गए। कहते हैं न कि तैराक पानी में डूबकर मरता है। कुछ ऐसा ही हो गया उनके साथ भी। वे 'पहल' पर आक्रमण की साजिश में शामिल हो गए। यह सोचे-समझे बिना कि 'पहल' न तो ज्ञानरंजन है, न कोई पत्रिका बल्कि वह तो विचार है। इस देश के करोड़ो लोगों का साझा विचार। मुझे तो उनकी इस बचकाना हरकत पर तरस आ रहा है। आपको भी आना चाहिए। वे अपने कपड़े और लंगोट उतार कर नंगा ही होना चाहते हैं तो हम क्यों कर सकते हैं? वे छोटे होते तो उन्हें समझाया जा सकता था। डांटा भी। वे तो अग्रज हैं। उनके नंगपन को भी नमस्कार।
नामवर जी पतन की जिस सीमा पर हैं, वह किसी से छिपी नहीं है। जिस 'राष्ट्रीय सहारा' के वे आज सलाहकार हैं, वह कमलेश्वर जी की जूठन है। चिटफंड से रुपये कमा कर सुब्रतो राय को जब दृष्टि प्राप्त हुई और पतनशील समाज के उद्धार का भूत उनके सिर पर खेलने लगा जिसके चलते वे समाचार-व्यवसाय में आए तो कमलेश्वर जी उनके पहले सम्पादक और सलाहकार थे। 'राष्ट्रीय सहारा' की रूपरेखा और ब्लूप्रिंट कमलेश्वर जी ने ही तैयार किए थे। लेकिन इससे पहले कि अखबार बाज़ार में आता वे सुब्रत राय और उनकी मंशा को समझ गए थे और उस पद को लात मार कर बाहर निकल गए थे, जिस पर आज हिन्दी के तथाकथित सर्वोच्च आलोचक आरूढ़ हैं और टुच्चा खेल खेल रहे हैं। व्यवसायी का एक मात्र लक्ष्य पैसा है और उसे ही कमाने के लिए वह अपनी भंगिमाएं बदलता रहता है। फासिस्ट ताकतों का विरोध व्यवसाई नहीं, समझदार जनता करती है।
मुद्राराक्षस जी के आचरण से मन को जरुर क्लेश हुआ। हमारे मन में उनकी जुझारू वैचारिकता के लिए गहरा सम्मान भाव था, हालांकि उनके व्यक्तिगत आचरण का परिचय तो यात्री जी ही दे सकते हैं। उस पर कुछ न कहा जाना ही अच्छा है। आज तो मुद्रा का वर्चस्व और राज है। वह आदमी को किसी भी सीमा तक समझौते करने को भी विवश कर सकते हैं और और जब चाहे उसे राक्षस का सा व्यवहार करने को बाध्य भी। माया तेरे कितने नाम परसा, परसू, परसराम।
अशोक वाजपेयी, जिसका लेखन देश के खाए-अधाए लोगों का समर्थक है, को कवि-लेखक मानने का कोई औचित्य मुझे दिखाई नहीं देता। उन्हें चर्चा में लेकर आप उन्हें वह सम्मान दे रहे हैं जिसके वे कतई काबिल नहीं हैं। बड़े पदों पर रह कर जितना अहित वे साहित्य का कर सकते थे, उन्होंने कर लिया। सामान्य जन से न उनके साहित्य को कभी आदर प्राप्त हुआ और न होने ही वाला है। अपने प्रशंसकों की जो फौज़ उन्होंने खड़ी की थी, वही उनके साहित्य के ताबूत पर आखरी कील भी ठोकेगी। संयोग से विद्यासागर नौटियाल जी के पहल-सम्मान देहरादून के स्थानीय संयोजकों में मैं भी शामिल था। यही पहला अवसर था जब मैं पहल-सम्मान के किसी आयोजन में सम्मिलित हुआ और आयोजकों की बैठक में हमने आपस में मिलकर कुछ धन एकत्रित करके राजेश सकलानी को दिया था ताकि वह किसी आकस्मिक आवश्यकता के समय उपयोग में लाया जा सके और ज्ञान जी को इसकी जानकारी भी न हो। एक छोटी-सी राशि होने के बाद इसका हमारे लिए बहुत महत्व था क्योंकि यह इस आयोजन के प्रति हमारी भावनाओं का इज़हार करती थी। यह बताना कतई जरूरी नहीं था। लेकिन इसलिए... ताकि लोगों को पता चले कि पहल-सम्मानों की शालीन और भव्य सफलताओं के पीछे शुभेच्छुओं की ऐसी स्वत: स्फूर्त विनम्र सदेच्छाएं और भावनाएं होती हैं। आयोजन में आमंत्रित लेखकों के आवागमन के लिए कांतिमोहन, जितेन्द्र भारती आरै गुरुदीप खुराना की गाडिय़ां हर वक्त रहीं। यहां मैं विनम्रतापूर्वक यह भी बता देना आवश्यक समझता हूं कि इन तीनों में कांतिमोहन को छोड़कर किसी की भी कोई रचना कभी 'पहल' में नहीं छपी। इसके अलावा विजय गौड़, राजेश सकलानी, अरुण असफल वगैरह ने अपने स्कूटरों और खर्चों पर आयोजन के लिए कितनी दौड़-धूप की इसका लेखा न संभव है और न उसे बताने की कोई जरूरत ही। आयोजन इतना भव्य, शालीन, रचनात्मक और गरिमामय हुआ कि यह देहरादून की स्मृति में एक अमिट छाप की तरह अंकित है। आयोजन का दुखद पहलू सिर्फ यही रहा कि राजेन्द्र जी ने अपनी कुत्सा का परिचय यहां भी दे दिया। आयोजन के मुख्य वक्ता के रूप में उन्हें विद्यासागर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ बोलना था। लेकिन अपने पूरे वक्तव्य में उन्होंने भूल से भी नौटियाल जी या उनके रचना-संसार पर एक शब्द भी नहीं बोला। समझ में नहीं आया कि वे नौटियाल जी से इतना आतंकित क्यों थे। अतिथि रचनाकारों की इस पर क्या प्रतिक्रिया रही यह तो मालूम नहीं। पर देहरादून के लोग आहत थे और उनकी यह कतई समझ में नहीं आ रहा था कि ज्ञान जी ने इस आयोजन में लीद करने के लिए राजेन्द्र जी को क्यों बुलाया। दरअसल यह नौटियाल जी का नहीं देहरादून का अपमान था।
'पहल' के दिल्ली आयोजन में मैं नहीं गया था। मेरे पास ऐसी कोई सूचना भी नहीं थी और न मैं आमंत्रित ही किया गया था। ऐसा क्यों हुआ? यह न मैंने जानने की कोशिश की और न ऐसी कोई इच्छा ही हुई। यह तो उनके विवेक पर था। बुलाते तो आता। नहीं बुलाया तो कोई मलाल नहीं। मैं तो वैसे ही चुपचाप-सा लिखने वाला हाशिए का लेखक हूं। नहीं गया तो यह भी पता नहीं चला कि ये राकेश मंजुल साहब कौन हैं। पहल-सम्मान के आयोजनों में ऐसे स्थानीय आयोजकों की तादाद अब तक सैकड़ों में पहुंच गई होगी। वे आयोजन के एक दो दिन बाद भुला दिए जाते हैं। मंजुल भी ऐसे ही भुला दिए जाते। अगर वे फासिस्टों के समर्थक जैसे कुछ हैं तो और भी जल्दी भुला दिए जाते। यह तो 'पहल' के खिलाफ बने नैक्सस की महान कृपा है कि इसने इन साहब को अमर बनाने का ठेका उठा लिया है। आप और आपकी पत्रकारिता धन्य है। आने वाली पीढिय़ों को आपसे सीखना होगा कि विद्रोही भंगिमा बनाए रख कर प्रगतिशील इरादों को तोडऩे की साजिश कैसे रची जाती है। इस नैक्सस अपनी इस know-how  का पेटेन्ट करा ले तो निश्चित ही बाजार और राजनीति दोनों को लूट लेगा।
अन्त में, ऐसी बचकानी हरकतों पर कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता। लेकिन इस बार लगा कि यह व्यक्ति पर नहीं विचारों पर हमला है तो...
आशा है सेहत ठीक होगी। कृपया इसे ठीक रखें। लड़ाई लम्बी है।
आपका
सुभाष पंत

 



पत्र/दो
12.5.2003

प्रिय ज्ञानरंजन
पहल का अंक 73 मिल गया था और इसे पूरा पढ़ कर आपको पत्र लिखने वाला था कि इसी बीच पहल की ओर से जारी एक पुस्तिका भी मिल गई। उसे उसी दिन पढ़ गया। राष्ट्रीय सहारा में राजेन्द्र यादव के साक्षात्कार में फिर आपकी पुस्तिका की चर्चा देखी।
मुझे पुस्तिका पढ़कर अच्छा नहीं लगा था। ज्ञानरंजन को अपने विषय में किसी तरह की सफाई देने की जरूरत नहीं है, न ही अपने ऊपर किसी आक्षेप से विचलित होने की जरूरत है। उसे समझने वालों की और प्यार करने वालों की और प्यार करने वालों की संख्या इतनी बड़ी और प्रबुद्ध है कि कुछ लोगों का अपनी तिलमिलाहट में कुछ भी करना या कहना, उसकी हैसियत को घटा नहीं सकता। उल्टे हानि ऐसे लोगों की होती है। हमें लिखते या बोलते समय अपने श्रोताओं या पाठकों को मूर्ख नहीं समझना लेना चाहिए कि जो कुछ हमने लिख दिया, वे उसे उसी रूप में मान लेंगे। केवल मझोले कद के लोग इस तरह का भ्रम पालते हैं आरै सोचते हैं कि इस बार लिख कर तो मैंने अमुक को ध्वस्त कर दिया। इस विषय में रामविलास जी अच्छी मिसाल कायम कर चुके हैं। ज्ञानरंजन के संदर्भ में भीतर का रागभाव इतने विलंब से बाहर क्यों आया, इसी पर आश्चर्य है। हो सकता है कि जब तक अपने को हिन्दी साहित्य का शिखर स्वीकार कराने की प्रतिस्पर्धा में जुटे लोगों को ज्ञानरंजन से कोई खतरा न अनुभव हुआ हो। ठीक अपनी आँखों के सामने, दिल्ली नगरी में ही, यह देख कर कि सभी शिखरसंभव जन मिलकर भी उतने लोगों को पूरे हिन्दी जगत से जुटा नहीं सकते, तिलमिलाहट अनुभव करने लगे हों कि स्नेह, सम्मान और विश्वसनीयता को मामले में वे ज्ञानरंजन से कितने छोटे पड़ते हैं। इसकी पहली अभिव्यक्ति मंगलेश के पहल सम्मान देने के अवसर पर ही हो गई थी जब एक वक्ता ने इस बात का अंदेशा उसी मंच से व्यक्त किया गया था कि ज्ञानरंजन ने दिल्ली पर कब्जा जमाने के लिए इसका आयोजन दिल्ली में किया है। दूसरे शिखर संभव ने जो भाषा जानते हैं उसमें विनोद में 'उंगल करने' का इरादा जाहिर किया था। यह उनके स्तर और उनके भय को प्रकट करता है, न कि आत्मविश्वास को। तब तक तो वह प्रकरण भी नहीं था जिसका इस बार बहाना बनाया गया। वे इस सीधा तर्क तक नहीं समझ सकते कि उन्होंने जो कुछ किया है। अपने लिये किया है, इसलिए उनकी महिमा और आसन के बावजूद उस तरह का स्नेह और समर्थन वो पा ही नहीं सकते, जब कि ज्ञानरंजन ने जो कुछ भी किया है हिन्दी के उन उज्जवल नक्षत्रों को सम्मानित करने के लिए किया है, जिनको उनके स्वाभिमान और यश:प्रार्थिता के प्रति उदासीन रहने के कारण लगातार उपेक्षा होती आई थी। इसका एकमात्र अपवाद मंगलेश को माना जा सकता है, क्योंकि वह तब तक कुछ पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित हो चुके थे। जहाँ तक दीपा मेहता की फिल्म के विरोध का प्रश्न है, उसका विरोधी मैं भी रहा हूँ, परंतु साथ ही मैं उसका विरोध जिस रूप में किया जा रहा था और जिन कारणों से, जिनके द्वारा किया जा रहा था, उनके भी विरुद्ध था, इसलिए पक्ष विपक्ष दोनों ओर से कुछ कहना या किसी आंदोलन में साथ होना मेरे लिए संभव न था। आज से लगभग चार साल पहले लखनऊ में एक शाम को जब मैं, मुद्रा और अखिलेश शाम को बैठे थे - अखिलेश तो शाम का बैठकर भी न बैठे जैसे ही रखते हैं - इसकी चर्चा आने पर जब मैंने कहा कि मैं मानता हूँ कि ऐसी फिल्में नहीं बनाई जानी चाहिए, तो दोनों एक साथ चौंक पड़े। मुद्रा ने कहा, 'यह क्या कह रहे हो तुम।' मैंने कहा, 'ये शुद्ध व्यावसायिक तकाजे से बनाई जाने वाली फिल्में हैं जिसमें नग्नता और गंदगी के लिए सचेत रूप से जगह तैयार की जाती है। इनको अंग्रेजी में बनाने के पीछे भारतीय जनमानस को कोई संदेश देना नहीं होता, अपितु विदेशी बाजार में, यह दिखा कर कि तीसरी दुनिया के लोग कितने हैवान, कितने गंदे, कितने संवेदनशून्य हैं, पैसा बटोरना होता है। तीसरी दुनिया के विविध देशों पर इस तरह की फिल्में पश्चिमी देशों को बहुत पसंद आती हैं। इसका डॉक्युमेंटेशन इससे भी महत्वपूर्ण होता है। जब कभी किसी देश से संबंध में तनाव पैदा हुआ, इन्हें दिखा कर विश्व जनमत को, जिसमें पश्चिम का जनमत भी आता है, यह समझने में आसानी होती है कि इनसे सभ्य आचरण की उम्मीद ही नहीं की जा सकती और ऐसे लोगों से कठोर कदम उठा कर ही निपटा जा सकता है। यदि किसी डॉक्यूमेटरी का प्रयोजन सामाजिक विकृति के विरुद्ध अभियान चलाना और अपने समाज में जागरूकता पैदा करना हो, तो उसे अपने समय में जारी विकृतियों से लडऩा होगा, न कि ऐसी विकृति से जो तीस साल पहले थी अब क्रमश: स्वयं समाप्त हो चुकी है। दूसरे उसकी भाषा भारतीय भाषाओं में से कोई एक होगी, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से अपने समाज से संवाद कायम किया जा सकता है। ये दोनों बातें इनमें नहीं हैं इसलिए मैं इसे कलात्मक वेश्यावृत्ति से धन कमाने की दौड़ से अधिक कुछ नहीं मानता। इसे अभिव्यक्ति पर संकट वगैरह के नारे देना अविवेकपूर्ण।' मेरी बात सुनने के बाद उनके पास कोई उत्तर न था। इसके बावजूद उसी को मुद्राराक्षस ने ज्ञानरंजन के विरुद्ध खंजर बना कर प्रयोग में लाना चाहा, उनकी अपनी सीमा है।
सच तो यह है कि आन्दोलनों से जुड़ जाने के बाद लोग अपने विवेक से काम लेना और स्वतंत्र रूप से सोचना बंद कर देते हैं। मार्क्सवाद/वामपंथ के साथ भी यह दोष कम नहीं रहा है।
खैर, मैं जिस कारण ज्ञानरंजन को जादूगर कहता हूँ उसी कारण ज्ञानरंजन से शिखरसंभव विभूतियों को ईष्र्या हो तो आश्चर्य क्या! जादूगर असंभव को संभव कर देता है। यह काम ज्ञानरंजन ने हिन्दी साहित्य में अकेले किया है। पूरे इतिहास में इसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। आज के गिरावट के दौर में तो यह अकल्पनीय है। पर ईश्वर, यदि वह कहीं हो तो, कुछ ऐसा अवश्य करे कि ज्ञानरंजन स्वयं इस विषय में सचेत न हों। इससे ज्ञानरंजन की हानि होगी, दूसरों की कामनापूर्ति ही होगी। जिस आत्मविश्वास से पहल सम्मान को आयोजनों में प्रकट अनुपस्थिति-उपस्थिति से ज्ञानरंजन मंच पर न हो कर ही मंच पर दिखाई देते हैं, वही उनकी सबसे बड़ी शक्ति और सुरक्षा है।
गालिब का एक शेर मुझे ऐसे अवसरों पर अक्सर याद आता है :

हदस सजा-ए-कमाल-सुखन है, क्या कीजे।
सितम बह-ए-मता-ए-हुनर है, क्या कहिए।।

ज्ञानरंजन को विचलित होने की जगह इसका मजा लेना चाहिए। आशा है वह भविष्य में अपनी सफाई में कुछ कहने की जरूरत नहीं समझेंगे न ही इस बात की अपेक्षा करेंगे कि कोई उनके बचाव में आएगा। इसका निर्णय हिन्दी समाज अपने ढंग से करता रहता है।
मुद्रा को उसकी यह बदफहमी बहुत हास्यास्पद बना देती है कि वह अपनी प्रतिभा के बल पर जरूरत होने पर किसी को ध्वस्त कर सकता है। यह मुद्रा का ही कमाल है जो ब्राह्मण और अब्राह्मण में 'ब्राह' को उभयनिष्ठ पा कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न करे कि भारत में केवल ब्राह्मण बाहर से आये थे। अब सामी भाषा और आर्य भाषा में कहीं कोई तुक हो न हो, पूरा सांस्कृतिक संदर्भ सिर से गायब हो, इससे फर्क तो पड़ता नहीं। दिन ऐसे हैं कि ऐसे विचारोत्तेजक लेखों के महत्व को समझने वाले संपादक भी मुद्रा को मिल जाते हैं। संतुलन के अभाव के कारण एक प्रखर प्रतिभा कैसे अपने को ही जलाने लगती है, इसका अद्भुत उदाहरण हैं, मुद्राराक्षस। विचित्र और मेरे लिए प्रिय भी।

भगवान सिंह

 



पत्र/तीन

श्री ज्ञानरंजन जी
सादर अभिवादन
संदर्भ 'पहल' पुस्तिका। विवाद और प्रतिवाद की नौबत आयी, यह बात हिन्दी के सांस्कृतिक परिदृश्य के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस दौर में 'पहल' पर शुरूआती समय में आक्रमण हुआ, वह सांस्कृतिक धुव्रीयता की वजह से समझ में आता है। व्यापक रूप में देखें तो उस समय एक ओर विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं हैं तो दूसरी ओर अस्तित्ववादी 'चुनाव का संकट' वह बेहद तीखा और स्पष्ट अंतर्विभाजन है। परन्तु आज अगर हमें विविध रूपों में 'प्रतिबद्ध' संस्कृतिकर्मी ही एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं तो यह स्थिति गहरी चिंता और चिंतन की ज़रूरत पैदा करती है। यानी आज मसला यह नहीं है कि ज्ञानरंजन, राजेन्द्र यादव अथवा नामवरसिंह (जो तीन विविध प्रगतिशील समीकरणों के - सृजनधर्मी, विविधताधर्मी और समन्वयधर्मी - का प्रतिनिधित्व करते हैं) - में से किसे 'चुना' जाये, बल्कि यह कि मौजूदा बहुलतावादी (विविध सांस्कृतिक ब्रांडों के प्रति उपभोक्तावादी आकर्षण पैदा करके उन्हें अधिकाधिक अंतर्विभाजित व प्रतिस्पर्धी बनाने की) व्यवस्था के द्वारा जिस तरह सही और गलत के बीच विभ्रम पैदा किया जा रहा है - उससे उबरा जाये? आर्थिक सहायता की आड़ में अंतत: किसी को भी भ्रष्ट साबित करके उससे नेतृत्व का नैतिक अधिकार छीन लेने की राजनीति आज साम्राज्यवादी तंत्र की मुख्य राजनीति हो गयी है। इसके सहारे तीसरी दुनिया में क्रांतिकारी नेतृत्व के उभरने की संभावनाओं को खत्म किया जा रहा है। यही काम आज संस्कृति के क्षेत्र में भी होने लगा। इससे सावधान होने की ज़रूरत है। परोक्ष आर्थिक सहायता के किसी विशिष्ट रूप से हमारे क्रांतिधर्मी सरोकार भी भ्रष्ट हो जातें - यह विभ्रम हमें नष्ट करने का आधार बन सकता है, हमारे प्रगतिकामी प्रयत्नों को अंतर्विभाजित कर सकता है। अत: वित्तीय पूंजी के प्रकार और प्रगतिकामी सरोकार के बीच सही रिश्ता क्या है - इसकी शिनाख्त किये बिना विरोध-प्रतिरोध की भंगिमा में उतर जाना नासमझी होगी। यह एक गहरी अंतर्विरोध पूर्ण साजिश का हिस्सा है। इसकी शुरूआत होती है पश्चिमी वित्तीय पूंजी के तंत्र के द्वारा 'कमीशन' के जायज़ और 'रिश्वत' के भ्रष्ट करार देने वाले दोहरे मापदण्ड का सहारा लेने के साथ। यानी वही सौदा एक के लिए जायज़ और दूसरे के लिए भ्रष्ट हो जाता है। इसके सहारे तीसरी दुनिया की गरीब आर्थिकता को नैतिक तौर पर तबाह कर दिया गया है। अब इसे और कारगर बनाने के लिये यह नया बहुलतावाद आया है। सामाजिक रूपांतर के बहुलतावादी तरीकों को छात्रवादी, स्त्रीवादी, दलितवादी, मजदूरवादी, आदिवासी-वादी, लोकवादी आदि को - प्रोत्साहित किया जा रहा है तथा कोशिश की जा रही है कि ये सभी एक दूसरे के विरोध में स तरह खड़े कर दिये जायें कि कोई संगठित क्रांतिधर्मी चेतना निर्मित ही न हो सके। 'पहल' संबंधी इस विवाद में ध्रुवायन के नायक हैं तो सही, पर पीछे खड़े हैं और प्रगतिधर्मी लोग 'विवाद' में उलझा दिये गये हैं। राकेश मंजुल का कोई विचारधारात्मक असर 'पहल' पर न दिखाते हुए भी 'पहल' को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। तो यहां फासिज़्म की कूटनीति का शिकार असल में कौन हुआ है? - क्या पूरा प्रगतिधर्मी मोर्चा ही अपने अंतर्विभाजनों की वजह से एक दूसरे के विरोध में दिखाई देता हुआ संकटग्रस्त नहीं हो रहा है? आरोप लगाने वाले और आरोपग्रस्त - दोनों की इससे गहरी हानि होती है। फासिज्म की शक्तियों से इस तरह तो मुकाबला नहीं किया जा सकता। यानी हमें समझना यह होगा कि विविधता और बहुलता में फर्क होता है। और यह भी कि वित्तीय पूंजी के उत्पातों के बावजूद सांस्कृतिक तल पर श्रम और उत्पादन के बीच के सहज और ठोस संबंधों को 'अंतर्विभाजन' के द्वारा ही तोड़ देने का सपना अंतत: यथार्थ नहीं, 'सपना' ही साबित होगा।
शुभकामनाओं सहित

आपका
विनोद शाहीं


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