मुखपृष्ठ पिछले अंक हिन्दू : जीने का समृद्ध कबाड़
जुलाई 2016

हिन्दू : जीने का समृद्ध कबाड़

प्रभात त्रिपाठी

एक अविस्मरणीय मराठी कृति/ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित



‘हिन्दू : जीने का समृद्ध कबाड़’ पाठक को अभिभूत कर देने वाली रचना है। एक पाठक की हैसियत से मेरी प्रथम और तात्कालिक प्रतिक्रिया यही है, कि विकल, विचलित और उद्बुद्ध कर देने वाली ऐसी कोई कृति पिछले कई बरसों से मैंने नहीं पढ़ी। तुलसीराम के ‘मुर्दहिया’ के पाठ ने कई बार मेरे रोंगटे जरूर खड़े कर दिये थे, लेकिन पाठ का ऐसा प्रभाव, जैसा नेमाड़े के ‘हिन्दू’ के पाठ के बाद हो रहा है, मेरे लिए एक व्याख्यातीत, किन्तु भीतरी तौर पर सर्जनात्मकता के एक निजी अनुभव की तरह है। रवीन्द्रनाथ ने कभी लिखा था, ‘एई भारतेर, महामानवेर सागर तीरे’ तो वह एक तरह से सदाशय बखान की तरह इस भूखण्ड की समावेशी संस्कृति को, शिष्टता से दर्ज करने जैसा मामला ही था, लेकिन इस किताब को पढऩा तो, एक तरफ लगातार पाठ में बहते रहना है, दूसरी तरफ इस महासागर में ऊभते चूभते, बिलकुल निजी स्तर पर अपने को देखते रहने जैसा, आत्मसंवाद करते रहने जैसा भी है। पल पल यह महसूस करते रहना भी है, कि यह खुद से की जाने वाली बातचीत कोई ऐकान्तिक साधना जैसी बात नहीं है। दरअसल यह बातचीत, यह पाठ, यह अनुभव, अपने स्वयं के आत्मविस्तार को, अपने होने की ऐतिहासिक और आस्तित्विक निरंतरता को, एक कल्पनाशील कलात्मक शब्दविन्यास में देखना है। यह आईना काम चलाऊ दर्शन, दिग्दर्शन का मामला नहीं है, जिसे कुछ हिकमतों, कुछ शब्द चातुर्य के आधार पर गढऩे का एक रिवाज, आधुनिक या उत्तरआधुनिक भारतीय साहित्य में देखने को मिल सकता है। इसकी अद्वितीयता या असाधारणता  की सबसे बड़ी खूबी यह है, कि यह साधारण रोजमर्रे के जीवन से उद्भूत एक ऐसी असाधारणता है, जिसका पाठक से सहज संवाद हो जाता है। बेशक यह जरूरी नहीं कि पाठक, वह सब कुछ तुरंती तौर पर पा जाएँ, जो इसकी जटिल संरचना की सतह में और गहराई में मौजूद है, क्योंकि यह एक ऐसी रचना भी है, जिसकी शाब्दिक संरचना में, हर पाठ के बाद, यह महसूस होते रहता है कि पाठ के अनुभव को आकार देना कितना मुश्किल है।
संस्कृति, प्रकृति और विकृति को, समाज के सगुण साकार जीवन्त रूपों में पाठक तक पहुँचाने वाली और शायद पाठक को झिंझोड़ देने वाली यह रचना, जैसे हमारे लोक जीवन की एक अविस्मरणीय गाथा की तरह मन में आती है। एक जाति या संप्रदाय के रूप में जाने माने, जाने वाले, इस विशाल जन समुदाय के विविधवर्णी जीवन को, आत्मस्थ लोकजीवन की ऐसी प्रवाहमयी भाषा में यह मूत्र्त करती है, कि काल के किसी सरलरैखिक बोध से परे, हम इतिहास, पुराण, लोकवार्ता, गीत, संगीत, रूढि़, कर्मकाण्ड, जनम मरण, तीज त्यौहार के विविध दृश्यों में, व्यक्ति और व्यक्तित्व के धनी अजब गजब चरित्रों की विचित्र स्वाभाविक और रोजमर्रा की गतिविधियों में, अपने आत्म के अनेक रूप देखते हुए, विचलित, विकल और विस्मित होते हुए, इस पुस्तक के शब्दों के प्रवाह में आगे बढ़ते जाते हैं, और इसके पहले कि हम एक प्रमुख पात्र के बयान में जारी, इसके अन्त तक पहुँचें, हमें यह लगता है, कि हमें थोड़ा पीछे मुडक़र भी देख लेना चाहिए, कि हम कहाँ से निकले हैं और कहां तक आ गए हैं।
मुझे लगता है, कि उपन्यास एक निश्चित, निर्धारित, भूखण्ड और काल में बंधा होकर भी, प्रथमत: और अन्तत: एक सर्जनात्मक कृति है। अपनी विशिष्ट संरचना में इतिहास को जज्ब करती हुई, एक ऐसी रचना, जिसका कालबोध लगभग प्रागैतिहासिक कल्पनाओं से उतना ही अविच्छिन्न है, जितना वह रोजमर्रा के तथ्यधर्मी ऐतिहासिक यथार्थ से जुड़ा है। पर इतिहास की उस पश्चिमी धारणा से ही नहीं, जातीय स्मृति के उस खजाने से भी उसका गहरा, अन्तरंग और आत्मीय संपर्क है, जो लोकसाहित्य में, बल्कि संपूर्ण लोकवार्ता में, तरह तरह के रूपाकारों में मौजूद है।
‘हिन्दू: जीने का समृद्ध कबाड़’, शीर्षक को पहली बार पढ़ कर ही एक तरह से मेरी सोच में यह बात आ गयी थी, कि इस तरह के शीर्षक के पीछे नैतिक राजनैतिक दोनों तरह के दबाव क्रियाशील रहे हैं। पर पाठ के पहले एक शंका भी मन में आयी थी, कि कहीं यह शीर्षक सांप्रतिक, राजनैतिक हिन्दुत्व के विरोध की अकादमिक, या कि निरी राजनैतिक दिशा को संकेतित करने का प्रयत्न तो नहीं है? मेरी शंका निर्मूल है, इसका अनुभव मुझे इसके शुरूआती चरण में ही हो गया था। खंडेराव विट्ठल, कभी किस्सों की तरह, कभी किंवदंतियों की तरह, कभी बहसों की तरह, अपनी स्मृति को पूरे लोकजीवन के विशाल, विविधवर्णी और जटिल परिप्रेक्ष्य में खोजता है और बखान करता है, और तब उसके बखान की शैली में ही, उपस्थित और अनुपस्थित, जीवित और जड़, वनस्पति जगत और जीव जगत, उसके भीतर से बोलने लगते हैं। याने निरे अकादमिक शास्त्रीय या आधुनिक अर्थ में ही, यह खंडेराव उपन्यास का वाचक नहीं है, शायद इसलिए, कि हिन्दू जीने का स्मृद्ध कबाड़, इस तरह के किसी सीमित अर्थ में एक महत्वपूर्ण या प्रासंगिक आधुनिक उपन्यास भर नहीं है। उसे रचने की रचनात्मक विकलता गहरी और बहुआयामी है।
इस जटिलता का, इस बहुआयामी आख्यान का, एक अहम मुद्दा निश्चित ही ‘हिन्दुत्व’ है। इसलिए ही नहीं, कि स्वयं लेखक ने इसका नाम ही ‘हिन्दू’ रखा है, बल्कि इसलिए कि एक व्यक्ति, एक गाँव, एक समाज के रुप में, संभवत: कथावाचक खंडेराव के माध्यम से, लेखक स्वयं हिन्दू ‘आत्म’ को एक व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, और लोकव्यवहारी सामाजिक सन्दर्भ में पहचानते हुए, एक तरह से संवेदनात्मक आत्मविस्तार की दशाओं और दिशाओं के बीचमबीच से गुजरना चाहता है। उपन्यास के नायक पात्र के रूप में उसने आत्मसजग कुर्मी किसान को लिया है। यह कुर्मी किसान, आख्यान की कथा के आरंभ में पाकिस्तान स्थित मोहेनजोदड़ों की खुदाई वाले हिस्से में एक शोधकर्ता के रूप में मौजूद है। बिलकुल शुरूआत में ही, वह अपने आप से दार्शनिक सा लगने वाला प्रश्न पूछता है, और विकल जिज्ञासा के उत्तर में, किसी तरह के दार्शनिक निरुपण में उलझे बगैर वह मान लेता है, कि मैं, तुम, वह, सब एक ही हैं और तभी वह खुद अपने आप से कहानी सुनाने के लिए कहता है। कहानी, खंडेराव द्वारा अपना शोध लेख प्रस्तुत करने के विषय में, जिस ढंग से आरंभ होती है, उसमें अन्तर्निहित, या कि लगभग मुखर विडम्बना के स्वर से ही, यह समझ में आ जाता है, कि यह आरंभिक वर्णन, फैंटेसी और विद्रूप की शैली में ही प्रस्तुत है। यह एक स्वप्न के हिस्से की तरह आता है, जहां आक्रामक आक्रोश के स्वर में हम खंडेराव से सुनते हैं, ‘‘ये देखो, इक्कीस बार पृथ्वी को निब्र्राह्मण करने के लिए, वैट्ठल खंडेराव आया है।’’
                                                                                                               हिन्दू : पृष्ठ 16
इसके ठीक पहले और ठीक बाद की पंक्तियों को भी इस संदर्भ में देखा जाना उचित है, कि मोहेनजोदड़ों से प्राप्त तथ्यात्मक वैज्ञानिक अनुसंधान यहाँ अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। वास्तव में प्रमुख चरित्र के मन में गूँजता, ब्राह्मण वर्चस्वी हिन्दुत्व के प्रति जाहिर और तीखे आक्रोश को ही कथानायक सामने लाना चाहता है। वह आर्य और अनार्य के विवाद में गहराई और विस्तार से उलझे बगैर, अपनी अनुभूति और स्मृति को स्पष्ट करने के लिए, एक फैंटेसी की रचना करता हुआ मालूम पड़ता है, कि मोहेनजोदड़ों की आर्यपूर्व संस्कृति को आर्य संस्कृति ने हथिया लिया था। यह बात भी, वह थोड़ी ही देर में स्वीकार करता है, कि अंतत: पाँच हजार साल से, आज तक लगातार जारी संस्कृति की सत्ता यहाँ हर हमेशा ब्राह्मणों या आर्यों की ही रही है और रहने वाली है।
सिंधु संस्कृति के साथ सुदूर मोरगाँव में रहनेवाले खंडेराव का सम्बन्ध निरे शोधार्थी का अकादमिक सम्बन्ध भर नहीं है। और यह भी वह सांप्रतिक अनुभवों के बीचमबीच रहकर महसूस करता है, कि ब्राह्मण वर्चस्व से पनपी और विकसी, सवर्ण संस्कृति के हिन्दुत्व को आलोचनात्मक विश्लेषण के केन्द्र में लाये बगैर, शायद हिन्दुत्व की विविधता, बहुलता और उसके समावेशीपन के साथ साथ, उसी के कारण और उसके बावजूद विकसित हुई, वह जीवनविधि, जिसके चलते सदियों से इस भूखण्ड के किसानों, मजदूरों और सीमान्तजनों का शोषण होता रहा है, की सार्थक और उद्बुद्ध कर सकने वाली पहचान संभव ही नहीं हो सकती। वास्तव में, उपन्यास के इस विस्तृत कलेवर में न सिर्फ मोहेनजोदड़ों से जुड़े सामुदायिक आत्म का यह प्रसंग बार बार रेखांकित किया जाता है, बल्कि अपने सांप्रतिक जीवन के साधारण अनुभवों के दौरान भी, वह, हिन्दुत्व के इन रूपों की पहचान करने की कई कई मानसिक प्रतिक्रियाओं से गुजरता हुआ देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए सोलहवें पृष्ठ के इस उद्धहरण के बाद 29 वें पृष्ठ में हम मोहेनजोदड़ों से हिन्दू आत्म को जोडक़र देखने वाले और अपने अन्तरंग अनुभवों के आधार पर, उसे मोरगाँव के सांप्रतिक जीवन तक ले आने वाले इस उपन्यास में, फिर पढ़ते हैं हिन्दू के बारे में :
‘‘हिन्दू लोग कुछ भी फेंक नहीं देते। सिन्धुकाल से लेकर हमने सारा कबाड़ ठूँस ठूँस कर रखा है। यह सबकुछ वहीं कहीं अँधेरे में रखा होता है। भले वह दिखाई न दे, गुम हो जाए, स्मृति से भी चला जाय, कुछ नहीं बिगड़ेगा, कभी न कभी मिल ही जाएगा।’’
                                                                                                               हिन्दू : पृष्ठ 29
उद्धरण का यह शान्त स्वर ही इस बात का प्रमाण है, कि यह एक आलोचनात्मक वक्तव्य नहीं है। अपने आत्मलाप और स्मृतिचारण में, अनुभवों के आईने में, अपने दुचित्तेपन और अपने मन में छिपे हिन्दुत्व की काली तस्वीरों को देखने वाले, नायक या वाचक खंडेराव का वक्तव्य यह नहीं है। उसके साथ शोध के काम में मोहेनजोदड़ों में मौजूद विदेशिनी मण्डी कह रही है यह सब। पर इसके शायद नायक को उस तरह की कोई कट्टर सैद्धांतिक आपत्ति नहीं है। पर अपने अन्दर जाते हुए, वह फिर महसूस करता है, कि उसे अपने शुद्ध हिन्दुत्व पर वैसा यकीन नहीं है, कि वह सिर्फ अपने आपको सदियों के विचारहीन संस्कार के आईने में ही देखता रहे। उसकी अन्तर्यात्रा और इस यात्रा में उसका स्मृतिचारण अपनी निजी हालत का निरा भावुक बखान नहीं है, हालाँकि जाहिर तौर पर इस उपन्यास में द्वन्द्व और तनाव से गुजरते खंडेराव की निजी भावना का भी संदर्भ, तिरोनी बुआ की स्मृति के प्रसंग के माध्यम से जुड़ता है। वास्तव में हिन्दू होने का यह आत्मालोचन, अनुराग और आलोचना के सर्जनात्मक आयामों को, एक विशाल परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश के चलते संभव हुआ है। अनुराग को हम मोरगाँव में गुजरे उसके समूचे जीवन के बहुविध प्रसंगों में देखते हैं, लगभग इस तरह जैसे हम बचपन से जवानी तक की अपनी ही निजी स्मृतियों को आँखों के सामने रूबरू देख रहे हों। इसके बावजूद बीसियों बार इस देखने के दौरान, वह तरह तरह से वास्तविक व्यावहारिक, सांप्रतिक हिन्दुत्व को, कभी दो टूक आलोचना की भाषा में और कभी गहन अन्तरावलोकन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, कुछ इस तरह से हमारे सामने रखता है कि हमारे सामने सुदूर मोरगांव की नहीं, अपने पास पड़ोस की कथा ही उभरने लगती है। मसलन कबाड़ की तरह हमारे अन्तर्मन में मौजूद तरह - तरह के धर्मों से निर्मित, प्रभावित, प्रेरित हिन्दुत्व की इस पहचान के तुरंत बाद, एक सामान्य सी घटना की प्रतिक्रिया में, अपनी भीतरी सचाई को उघारता नायक कहता है, ‘‘रहे हम मराठी ही, कम आर्य, ज्यादा शक, मुंडा द्रविड़।’’
                                                                                                               हिन्दू : पृष्ठ 59
वस्तुत: संवेदना और अनुभव के जिस व्यापक धरातल पर यह महाआख्यान विकसित हुआ है, वह धरातल ही इस तरह की एक निरंतर जारी रहने वाली आलोचना का कारक है। यहाँ ‘हिन्दू’ होने का अनुभव, मुसलमानों को किसी स्थायी घृणा और अन्य के केन्द्र की तरह देखने की आधुनिक शहरी और सवर्णी दृष्टि से नहीं जुड़ा है। एक तरह से यह पूरा आख्यान गाँव के सामूहिक और सामुदायिक प्रतिपक्ष को चिन्हित करने वाला है। इसकी इतिहास दृष्टि से इसीलिए निम्न और दलित जातियों, किसान और ग्रामीण कामगारों की दुनिया की एक प्राणवन्त सक्रियता है। इसी वजह से एक चरित्र के स्मृतिचारण के माध्यम से, एक जीवन्त जटिल बहुवर्णी ग्राम समाज को, जीती जागती दुनिया की तरह हमारे सामने लाने वाला यह उपन्यास ‘हिन्दू’ या हिन्दुत्व को अपने विन्यास से अलग नहीं कर पाता, क्योंकि ग्राम समाज की जिस गहरी तकलीफ और जानलेवा संघर्ष को आत्मसात करने के बाद लेखक ने यह उपन्यास लिखा है, वहाँ अपने हिन्दू होने से ही अन्तर्निहित पीड़ा और संघर्ष को बरका सकना, न तो उसके लिए संभव था और न ही वांछनीय।
स्मृतिचारण के इस प्रसंग के उल्लेख में महारों द्वारा हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिए जाने का जिक्र है। उपन्यास की कथा में ठीक इसके पहले खंडेराव अपने दूधपीते दिनों की याद करता है। इस स्मृति के पीछे उसकी दादी की याद है। माँ का न सही, किसी दूसरी माँ बनी स्त्री के स्तन का दूध भी उसे मिल जाए, तो यह बच्चा जिन्दा रह सकता है, यही सोचकर खंडेराव को उसकी दादी, उन्हीं दिनों मां बनी एक मातंग स्त्री अम्बूमाय के पास ले जाती है। बचपन में जब वह कुछ ही दिनों का नन्हा बच्चा था, एक मातंग स्त्री का स्तनपान करने के बाद ही जिंदा रह पाया था। आज जब वह पाकिस्तान में मोहेनजोदड़ों की खुदाई के पास वाली जगह से अपने पिता के सीरियस होने की खबर सुनकर, उतावली हड़बड़ी और भीषण तनाव की मानसिकता में घर लौट रहा है, तो वह मोहेनजोदड़ो के इतिहास के साथ अपने अनुभव में अंकित इसी हिन्दुत्व को ही जोड़ रहा है और यहाँ उसे महार मुहल्ले में अनुभूत सच के सन्दर्भ में, हड़प्पा संस्कृति के पतन के एक बहुत बड़े कारण की तरह अकाल के वे दृश्य दिखाई दे रहे हैं, जो ईसा पूर्व के समय से, ऐन आज तक भारत के गाँव गाँव की तबाही के कारण रहे हैं। एक तरफ नव बौद्ध बनते महारों की बस्ती में पुराने साथी के साथ उभरती स्मृति में, गाँव का अकाल और दूसरी तरफ कुछ पल बाद ही फिर इतिहास के धुंधले समय में उसी अकाल का खयाल, लेकिन कुछ इस तरह :
‘‘अकाल के कारण भी मोहेनजोदड़ो की समूची घाटी सूनी हो गयी होगी। ईसा पूर्व 2000 में यहाँ सब कुछ उजड़ गया.... छठी सदी से दसवीं सदी तक बार बार पडऩे वाले भयानक अकाल।...’’
‘‘ऐसे कंगाल समय में इसे मत छुओ, उसको पवित्र मानो, जैसे अनुत्पादक हिन्दूधर्मी सनातनी नियम पुख्ता होते गए। मुफ्तखोर बाँदे, धंधे करने वाली कुछ जातियाँ, समाज की मूल समांतर आड़ी संरचना को, खड़ी करने के लिए हाथ पैर मारने लगीं। मेहनतकश गँवार जातियों को अकाल की स्थिति में सिर्फ जिन्दा रहने के अधिकार मिले। लँगोट और झोपड़ी बनाने के लिए आमदनी के टटपूंजिया साधनों से भी वंचित, जातियों को नीचे गुलामी में धकेल कर उन्हें पेट की खातिर खटवाया गया। अछूत जातियाँ ऐसे ही बनी ही होंगी।’’
‘‘उधर पंजाब, सिंध और बंगाल में भी हिन्दू, मुसलमानों के साथ ऐसा ही बर्ताव करते थे। महार मातंगों को तो हम लोग कुचलते ही थे।...’’
‘‘हिन्दू समाज को तोडऩे वाले बाबा साहब ही अछूतों का उद्धार करते हैं।’’
‘‘खंडेराव तुम इस पाखण्डी एकता के पक्ष में कभी खड़े मत रहना। हमेशा तोडऩे वालों के पक्ष में खड़े रहना।’’
‘‘मोहेनजोदड़ो में उत्खनन से बने उन ढेरों पर मैं चूहा बनकर फिसलता हूँ।’’
                                                                                                                               हिन्दू पृष्ठ 142-43
‘‘जातिभेद को तोडऩेवाला, हमारा इतना बड़ा वारकरी संप्रदाय, इन ब्राह्मणों ने ही खराब किया है। फिर वारकरी संप्रदाय के माध्यम से ब्राह्मण धर्म ही लादा है हम पर, पेशवाई से अब तक।’’
                                                                                                                                     हिन्दू पृष्ठ 146
वास्तव में इन उपरोक्त उद्धरणों में सन्दर्भ का महत्व और प्रासंगिकता उजागर है। गाथा नायक के किसानी जीवन की स्मृतियाँ ही प्रमुख हैं इस स्मृति चारण में। लेकिन इसी बीच वह महसूस करता है, कि समाज की आड़ी संरचना को ‘खड़ी’ करने की कोशिश भी, इसी दौरान कुछ जातियों ने की होगी। बेशक यह नितान्त हायपोथिटिकल विचार भी हो सकता है। लेकिन मातंगों और महारों की बदहाली को, बचपन से जवानी तक के अपने जीवनानुभवों में जानने वाला और उन्हीं के बरक्स एक ग्रामीण कुर्मी किसान की अपेक्षाकृत संपन्नता को भी अनुभव करने वाला, अगर आनुमानिक ढंग से भी इस खड़ी संरचना के शीर्ष पर विराजमान लोगों के बारे में इस तरह से सोचता है, तो उस सोच को महज आनुमानिक या गैरतथ्यात्मक कह कर नहीं टाला जा सकता। शायद ऐसी कोई कोशिश, भारत के हर अंचल में मौजूद, हिन्दू जीवनविधि और उनकी आस्तिक धार्मिकता से जुड़े मातंग और महार जैसी सैकड़ों जातियों की यातना और संघर्ष भरी जिन्दगी की सचाइयों को जानबूझकर ओझल या ओट किए रहने जैसी कोशिश ही होगी।
जीवनानुभवों के इन विशाल, जटिल जीवन्त सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में ही, मैं ‘हिन्दुत्व’ या ‘बौद्ध’ की उसकी आलोचना की बात कर रहा हूँ। याने कोटेवल कोट की तरह मैं यह नहीं बता रहा हूँ, कि मुख्य नायक पात्र के माध्यम से लेखक जगह -जगह पर इस संदर्भ में अपना आक्रोश प्रगट करता रहा है। मैं यह संकेत करना चाहता हूँ, कि गाँव की जिन्दगी को गहरे में अनुभव करने के बाद, लोक कथाओं, लोकगीतों, तमाशा, नौटंकी के जीवन्त दृश्यों में, लोगों को इतिहास और वर्तमान में जानने के बाद, उनकी सांप्रतिक हालत के यथार्थ की यातना को समझते और महसूस करते हुए ही, एक गहरे कंसर्न के साथ उसने आलोचना की प्रखरता के ऐसे प्रसंगों की उद्भावना की है। मसलन अपने कॉलेज के दिनों के किन्हीं हिन्दू शास्त्रज्ञ देवदत्त जी की आकस्मिक याद के दौरान वह सोचता है, ‘‘लेकिन वे यह भी बोले कि जैन और बौद्ध संप्रदाय धर्मचौर्य करने वाले संप्रदाय हैं। पूँजीवादी हैं। कई बड़े बड़े श्रमणक दार्शनिक मोहेनजोदड़ों काल से आर्यावर्त में जनजागृति कर रहे थे। उनके विचार महावीर और गौतम बुद्ध ने सीख लिए और उन्हें ठेंगा दिखा दिया। मख्खली गोबाल, पुरण कस्सप, आलार कोलाम, पकुध कात्यायन, अजित केशकंबली, संजय बेलट्ठीपुत्र और भी कई उद्दक रामपुत्र, निगंतानातपुत्त, वगैरह विलक्षण विचारक निचले दर्जे, यानी निम्न जातियों के, शूद्र तबके, आदिवासी गरीब कुनबों के, रंक लोग लगते हैं, महावीर बुद्ध की तरह क्षत्रिय राजपुत्र यकीनन नहीं थे।’’
धार्मिक संस्कृति की इस आलोचना में स्पष्ट और जाहिर तौर पर कामगार और निम्न जातियों की उपेक्षा का मुद्दा ही प्रमुख रहा है। किसी भी आत्म सजग व्यक्ति के लिए आत्म की पहचान की अन्र्तयात्रा तभी संभव और सार्थक हो सकती है, जब वह जातीय अस्मिता की अपनी पहचान को जाति और वर्ण व्यवस्था की असलियत से बराबर जोड़े रखे। असलियत याने आज की तारीख में उसका लोकव्यवहारी रुप। रोटीबेटी, खानपान, छूआछूत के विशिष्ट भारतीय संदर्भों में अपनी अस्मिता की पहचान। लोक गाथाओं और लोक भाषा के मुहावरों में जीवन्त इसका यथार्थ। आर्थिक बदहाली के संदर्भ में, ग्रामीण जीवन के व्यापक और विविध परिप्रेक्ष्य में, लोगों के जीवन कर्म के भीतर से गुजरते हुए ही, हिन्दू आत्म को, किसान ग्रामीण आत्म के साथ जोड़ा जा सकता है। ऐसी जातियों के बीच की अन्तक्रिया के बदलते संदर्भों में नेमाड़े ने, खंडेराव की स्मृतिकथा को अभूतपूर्व आनुभविक और संवेदनशील कल्पनाशील के साथ, सिरजा है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जिसके पाठ के कई रस्ते संभव हैं। सो एक यह भी, कि इसके जटिल कथा विन्यास को थोड़ा संक्षिप्त करते हुए, हम इसकी कहानी से गुजरने की कोशिश करें।
*
विचारों की जड़ें भावना में हों तो, विश्वस्यनीय ही होती है।
उपन्यास के बिलकुल ही आरंभ में मोहेनजोदड़ो, आर्य, परशुराम फरसाराम, सिंधुलिपि के पाठ आदि के संदर्भ में, अतिस्वप्न की एबसर्डिटी की भाषा में, जो कुछ तथ्यात्मक या वैचारिक सा लगने वाला वक्तव्य वह देता है, उसके पीछे भी हम उसकी भावप्रवणता को ही सक्रिय देख सकते हैं। विदेशिनी स्कॉलर मंडी के शोध से प्रभावित प्रेरित, मोरगाँव के आज के जीवन को, मोहेनजोदड़ो उत्खनन में प्राप्त चित्रों या मिट्टी के बैलों से जोडऩे की बात से ही, इस पेशेवर काम से उसका भावात्मक संबंध बना है, ऐसी बात नहीं। यह आग्रहपूर्वक इस बात पर बल देता है, कि संस्कृति की भौतिक तथ्यात्मकता के साथ, उस समय के संवेदनात्मक पर्यावरण पर भी यथोचित बलाघात दिया जाना चाहिए। आख्यान की दृष्टि से यह भी एक रोचक तथ्य है, कि यूनेस्को के इस काम में लगे रहने के अलावा, मोहेनजोदड़ो के उत्खनित साइट पर, वह लगातार जिसके बारे में पूरी भावुकता के साथ सोच रहा है, वह है उसकी तिरोनी बुआ। यही नहीं, आख्यान के शुरूआती दौर में उसकी खोज में मठों और खानकाहों में भटकता, वह उत्खनन में प्राप्त सिंधु सभ्यता या उसकी लिपि और चित्रों से कहीं ज्यादा एकाग्रता से, अपनी बुआ को खोजने के भावुक उत्खनन के काम में ही रत दिखाई देता है। बहुत पहले, आजादी या तकसीम के घमासान के दौर में, यह ‘बुआ’ जो जन्म से पहले ही सन्यासिनी हो गयी थी और महाराष्ट्र के महानुभाव पंथ के जत्थे के साथ पेशावर की तरफ आ गयी थी, उसी बुआ के बचपन की स्मृति के रस्ते, वह बार बार अपने कुनबे और अपने गाँव की दुनिया में आता है। यही नहीं, मोहेनजोदड़ों में वह ढाबे में जो समय बिताता है, या अपने पाकिस्तानी सहकर्मी अली से जो बात करता है, हिन्दी फिल्मों के गाने और फैज की नज़्मों, ग़ज़लों को सुनते जो वक्त गुजारता है, या मोहम्मद अज करांची ढाबे में बैठा, दिलवर की दास्तान सुनता रहता है, उसी सब से यह स्पष्ट होने लगता है, कि लेखक का इरादा कोई ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का नहीं है। यह बताने की जरूरत है, कि बिलकुल आधुनिक ऐतिहासिक समय में भी, उसके गाँव में, उसके परिवार में, खुद उसके दिल और दिमाग में, सुदूर के समय के अमिट निशान बचे रह गये हैं और वहीं से जुडक़र ही, वह इस समृद्ध कबाड़ से अपनी सांप्रतिक जिजीविषा की कोई दिशा खोज सकता है और इसी खोज के दौरान कभी वह पाता है:
‘‘बाद में जलील साहब दिल्ली के स्थान पर इस्लामाबाद और जमात-ए-इस्लामी पार्टी को जनसंघ कहने लगे। इस कारण उपमहाद्वीप की कुल राजनीतिक स्थिति की सादृश्यता के बारे में हमें यकीन होता गया। क्या फर्क पड़ता है यार, इसकी बजाय वह या उसकी बजाय यह कहने से? कहिए किसी समझ में आती है कुरआन की ऋचाएं या वेदों की आयतें? वही तो?’’
                                                                                                               हिन्दू : पृष्ठ 46
यह कौतुक और व्यंग्य से वक्र उद्धरण, उत्खनन के कार्य में लगे वयोवृद्ध डॉ. जलील का है, जो उम्र के चलते स्मृतिभ्रंश के शिकार हैं, पर खंडेराव जैसे युवा पुरातत्वज्ञ, उनकी इस बात को आनुभविक स्तर पर समर्थन देते प्रतीत होते हैं। कुछ तो इसलिए, कि बिलकुल आज की हालत के सन्दर्भ में बहस में आए इस बयान की सचाई, किसी भी आत्मसजग पाठक को कोंचती है, और कुछ इसलिए भी कि अकादमिक तौर पर, उत्खनन के कार्य में लगे नायक खंडेराव की जवानी के प्रथम चरण के अनुभवों में बहुत कुछ ऐसा है, जो उसे इस तरह के बयानों से, इतना विचलित नहीं होने देता, कि वह इस पर फसाद तो क्या कोई गंभीर बहस भी करने की सोच सके। और अगर कभी अपने काम के दौरान वह अपने पूर्वजों के बारे में सोचता भी है, तो उसका भागता हुआ जिज्ञासु दिमाग उसे अजब और थोड़े सन्दर्भच्युत सवालों की ओर ही धकेलने लगता है :
‘‘यारु, हमने मोहेनजोदड़ों में अपने पूर्वज कभी नहीं ढूँढ़े। पूर्वज यानी कहाँ तक पीछे जाना चाहिए? हमारे महाराष्ट्र में शिवाजी तक पीछे जाते हैं। ब्राह्मण पुजारी तो बिना किसी संबंध के, भृगु और कौशिक, वशिष्ट और परशुराम जैसे पराये आर्यों को पूर्वज मानते हैं। यानी उनसे पहले पूर्वज नहीं थे। याने ओरांगउटांग और चिम्पैंजी और गोरिल्ला जैसे अपने असली पूर्वजों पर किसी को भी गर्व महसूस नहीं होता।’’
                                                                                                                हिन्दू: पृष्ठ 71
ये दोनों ही उद्धरण स्मृति कथा की तारतम्यता के थोड़े अधिक अस्थायी हिस्से हैं। पहले उद्धरण में तो शोधार्थी मित्रों की बातचीत भर का सन्दर्भ है, और दूसरा तब का है, जबकि पिता की आसन्न मृत्यु की खबर के बाद, खंडेराव अपने घर, कुनबे और गाँव की बेतरतीब यादों में डूबा है। बेशक इन नहीं लौटने वालों ‘उद्धरणों’ या इसी तरह के ‘गौण चरित्रों’ की भी उपन्यास की संरचना में एक मानीखेज भूमिका और अहमियत है। वैसे तो पूरी कहानी में सतही तारतम्यता लाने या दिखाने की कोई कोशिश नहीं है, लेकिन पाठ के दौरान हम हमेशा यह महसूस करते हैं, कि यह खंडेराव के गाँव और कुनबे का औपचारिक स्मरण नहीं, बल्कि भावनात्मक और वैचारिक पर्यावरण है। इस गांव का हर पात्र एक तरह की अंतरात्मिक सामुदायिकता का अविभाज्य हिस्सा है। उपन्यास के इस पहले अध्याय में ही, दुखद समाचार थोड़े ही पहले, जिस तिरोनी बुआ को ढूँढ़ते हुए वह पूरे पाकिस्तान में भटकता और निराश होता रहा था, वह तिरोनी बुआ भी एक रास्ता है, जिसके सहारे हम हिन्दू किसान स्त्रियों के वृहत्तर और व्यापक जीवन के जीवन्त चित्रों का साक्षात करते हैं, हालांकि जैसा कि हम इसी अध्याय में जानते हैं, कि खुद तिरोनी बुआ को किसान गृहस्थिन होने का अवसर नहीं मिला था। हिन्दू रिवाज के कारण ही, मन्नत के चलते उसे जन्म से पहले ही सन्यासिनी हो जाना पड़ा था। लंबे घने बालों वाली, अप्सरा सी सुन्दर तिरोनी बुआ की सन्यास दीक्षा के समय की छवि, खंडेराव को मोहेनजोदड़ो पहुँचने के बाद से ही हांट करती रही थी और पिता की आसन्न मृत्यु की खबर के बाद की लंबी यात्रा में तो, वह जैसे चलचित्र की तरह अपने गुजरते हुए जीवन को देख रहा था, तो उसे सिर्फ तिरोनी बुआ की, या मोहेनजोदड़ों की ही नहीं, बल्कि कितनी सारी स्त्रियों और पुरुषों की याद आ रही थी। ये ही वे लोग थे, जिनके पास जीने के इस समृद्ध कबाड़ की असली चाबी है। बिना इनके, इस दारुण समय में, दोचित्ता, दो फाड़ दिमाग से लौटता खंडेराव सचमुच बेसहारा है।
*
उपन्यास को पढ़ते हुए, बल्कि बिलकुल शुरुआत में ही, मोरगांव की जिस ‘स्त्री’ के प्रति मन में आकर्षण जागता है, वह है झेंडी। ना, सिर्फ झेंडी, बल्कि उसकी पूरी वंशावली और यह तथ्य कि यह मोहगांव की जातियों में से नहीं, बल्कि बाहर की गैरमराठी भाषी स्त्री है, जिसकी परदादी का उल्लेख गांव के लोकगीतों में सम्मान के साथ किया गया है। यही नहीं, बल्कि बाद में यह भी, कि यह इसी भूखंड की घुमन्तू आर्य जाति है, जिसे यूरोपीय विद्वानों ने रूमानी जिप्सी नाम दे रखा था। पर झेंडी के पुरखों की कथा के पहले ही, खंडेराव की स्मृति के माध्यम से, सरल, सहज ढंग से लेखक बताता है, कि गांव में मातंग, महार, धनगर, लुहार जैसी जातियों के अलावे और भी बहुत सी जातियां आकर बसी थीं और कुछ इस तरह, कि वे, अपनी पहचान अलग बनाने के बावजूद, गांव का हिस्सा थीं। आखिर सुदूर उत्तर से आये सलवार और पजामा पहननेवाली, मेहतर स्त्रियों के परिवारों को भी, शादी ब्याह में गांव के किसान चूल्हा न्यौता देते थे। इन जातियों की गांव में बसाहट को लेकर, लेखक सहज शब्दों में लिखता है:
‘‘कुल मिलाकर बाहर से आए सभी लोग गांव में अलग अलग ढंग से समा गए। खून से, रोटी बेटी के व्यवहार से फासला बनाकर, कभी विरोधी बनकर, रीति रिवाज, खाना पीना अलग होने से दूर रहकर, उदासीन, तटस्थ, बेफिक्र, निष्ठुर, निरपेक्ष, सभी प्रकार के सम्बन्ध बरकरार रखकर भी, एक समाज की तरह बनी रहने वाली जाति व्यवस्था। रंग बिरंगे फूलों की तरह पंखुडिय़ों पर जहां जगह मिली, वहां अपना स्वतंत्र अस्तित्व संभाले हुए, एक दूसरे के पूरक बने अन्तर्समूह। पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोग एक साथ शान से रहते आए हैं।’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 103
दरअसल विविध जातियों के साथ यह समय, लेखक के अपने स्मृतिचारण का समय नहीं है। अपेक्षाकृत आदर्श सी लगने वाली इस जाति व्यवस्था का समय, मोरगांव के विशेष संदर्भ में, मराठाशाही और होल्कर के पिंडारियों के आतंक का समय भी है। विशिष्ट सामयिकता के अर्थ में, यह वह समय भी है, जब पास के गांव हरिपुरा के ध्वस्त कर दिये जाने के बाद, वहां की दो अत्यंत सुंदरी लभानी मां बेटी, वारु और गजरा, खंडेराव के सातवें पूर्वज नागोराव के वक्त में, मोरगांव आयी थीं। इन दिनों मोरगांव पर भी पिंडारियों के हमले की ताजा खबर जारी थी। लेकिन मोरगांव के बुजुर्ग और जवान नागरिकों ने, न सिर्फ इन सुन्दर स्त्रियों को गांव में जगह दी थी, बल्कि उनकी प्राणरक्षा के लिए लडऩे के लिए भी तैयार हो गए थे। तब मां और बेटी दोनों ने, पूरे गांव को बरबादी से बचाने के लिए पिंडारियों के सम्मुख समर्पण कर दिया था। लेकिन कथावाचक नायक, खंडेराव के सातवें पुरखे नागोराव ने, अंग्रेजों से संधि करके पिंडारियों को तबाह कर दिया था और वही, फिर से इन दोनों को गांव वापस ले आया था। सो उन्हीं के बाद की सातवीं पीढ़ी है झेंडी, जिसकी इस कथा में एक खास जगह है और जो इस कथा के आतंरिक तानेबाने में मौजूद, ग्रामीणजीवन के तदयुगीन यथार्थ के कई मुद्दों मामलों से अविभाज्य भाव से जुड़ी है। लेकिन जिस पूरे राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक, सांस्कृतिक सन्दर्भ में, खंडेराव यह सब याद कर रहा है, उसके पीछे केवल निजी स्मृतियों की भावप्रवणता ही सक्रिय नहीं, हालांकि उसका नितांत अभाव भी नहीं है, क्योंकि झेंडी की दीर्घ केशकलापिनी बेटी हरखू है, जिसकी याद उसके दिल में उसके आरंभिक युवा दिनों की पहली चाहत की तरह बसी हुई है और इस याद के कई और प्रसंग भी उपन्यास में किंचित विस्तार से वर्णित हैं, जबकि उसी के पुरखों की याद करते हुए, वह स्वतंत्रतापूर्व के ग्रामीण भारत के यथार्थ का जो चित्र प्रस्तुत करता है, वह तब के ही नहीं, बल्कि आज के समकालीन भारत के गांवों की सचाई की ओर भी संकेत करता सा प्रतीत होता है। मसलन झेंडी के पुरखों की संक्षिप्त चर्चा के दौरान, झेंडी की मां आवंती, याने हरखू की दादी और खंडवा की तरफ रहने वाली उसकी बड़ी बहन खरखोती की चर्चा करते हुए, श्रुति कथा की तरह खंडेराव याद करता है, कि आवंती गर्भपात कराने में माहिर थी और खरखोती गुप्त रोगों का इलाज करने में। इन दोनों की मां इरदंती जचकी कराने में। जाहिर है, कि ये लभानी स्त्रियां महज रूपजीवा या देह व्यापार में लगी स्त्रियां नहीं थीं। और गांव सचमुच उस समय ऐसे थे, कि इस तरह के देशी विशेषज्ञों की जरूरत गांव की स्त्रियों के लिए अहम थी। परोक्ष रूप से इस तरह की विशेषज्ञता की यह जरूरत, यह संकेत भी देती है, कि ग्रामीण कामज संसार में काम सम्बन्धों के चलते ऐसी परिस्थिति आए दिन उपस्थित होती ही रहती थी। खरखोती के मोरगांव आने पर उसके पास लगने वाली भीड़ पर टिप्पणी करते हुए, इसी तरह का मुखर संकेत किया गया है:
‘‘तब कहां थे ऐसे रोगों के डॉक्टर और वैद्य? पेनसिलीन की खोज भी कहां हुई थी? जिले से छोटे छोटे गांवों में अब भी इसका कौन डॉक्टर मिलता है? और शहर के पुरुष वैद्य की कोठी पर कौन बेचारी गुप्त रोग से पीडि़त औरत चार कोस चलकर जाएगी और मुझे जांचिए कहकर धोती खोलेगी? किसी कुंआरी से रहा नहीं गया, किसी परित्यकता के पैर डगमगाए, किसी आश्रिता का मुंह बन्द कर अपने ही घर में जबर्दस्ती...
चाहे जो हो, लेकिन ऐसी चिंता करनेवाला गांव में ही है जानकर कितना बड़ा संबल मिलता होगा।’’
                                                                                                      हिन्दू : पृष्ठ 127, 128
स्पष्ट करूं कि मैं, ये पंक्तियां झेंडी और हरखू की पुरखिनों के स्तुतिवाचन के लिए नहीं उद्धृत कर रहा हूं। गांव में, बल्कि छोटे छोटे कस्बों में आज भी बीसियों हिन्दू स्त्रियां ऐसी मिल जाएंगी, जो अपने तरह तरह के कष्टों के लिए, ऐसे लोगों के शरण जाती हुई देखी जा सकती हैं, कि जो लोग सामाजिक, धार्मिक मर्यादाओं की दृष्टि से, उनके व्यवहार-वृत्त के बाहर के लोग हैं, लेकिन हिन्दू धर्म और व्यवहार के इस अजीब कबाड़ में आपद्धर्म के कई ऐसे रास्ते हैं, जिन पर चलकर अन्य के साथ सम्बन्ध ही नहीं, बल्कि उन्हें अनन्य तक बनाया जाता रहा है। बेशक राजनैतिक हिन्दुत्व के वर्चस्व के चलते, अब अन्यता ही चारों ओर काबिज दिखाई पड़ती है। खंडेराव के इस कामज स्मरण संदर्भ के सिलसिले में ही, उपन्यास से एक और महत्वपूर्ण बात सामने आती है। वह है :
‘‘फिर भी यह कोठी चित्र के बगीचे के कृत्रिम फव्वारे की तरह पहले जैसी ही गांव की ओर रतिक्षोभकारी पीठ किए अलग बैठी है। हरी लहलहाती नीचे की नदी के जैसा प्रवाहमान अस्तित्व बरकरार रखती आयी है। इन परायी सुन्दर आत्मनिर्भर स्त्रियों ने, ब्राह्मण, महानुभाव, वारकरी, मुसलमानों, सभी की इस सनातनी लैंगिक व्यवस्था में व्यभिचार की कल कल करती पुरातन आदिम धारा को प्रस्थापित कर उसे जिलाए रखा है। ...बच्चा गिराने वाली माधो की मां, सुरैया के गाने सुनने के लिए श्याम जी सेठ के पास आने वाली महानुभाव, सन्यासिनी शेवंता, रजपूत हलवाई दुलारी और मजदूर स्त्रियां, हरित क्रांति वाले किसानों के पास, केले के बगीचों का पैसा आना शुरू होने पर, बगीचे बगीचे में रखवाली के लिए रखी गयी कोतील स्त्रियां -सारी जनजाति इन नवधनाढ्य कुर्मियों ने कुतर डाली है।’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 123
उपर्युक्त उद्धरण की तथ्यात्मकता के बारे में, समाजशास्त्री विशेषज्ञों की राय चाहे जो भी हो, या कि सांप्रतिक बदलाव के सन्दर्भ में यौन व्यवहार की ऐसी परिस्थितियों की प्रामाणिकता चाहें संदिग्ध ही क्यों न हो गयी हो, लेकिन इसी तरह की कामजता के थोड़े बदले रूप आज भी देश के गांवों और कस्बों में देखने को मिल ही जाते हैं। मुख्य बात यह है, कि उपन्यास की इस कथा में इन स्त्रियों का उल्लेख लोकगीतों के माध्यम से, भत्र्सनामूलक ढंग से नहीं, बल्कि प्रशंसात्मक ढंग से ही आता है। अलावा इसके यह, कि ग्रामीण जनस्वास्थ्य के विशेष सन्दर्भ में तो, जचकी, गर्भपात, या दीगर बीमारियों के इलाज के लिए, गांव के लोग आज भी इसी तरह के नीमहकीमों, ओझाओं और तांत्रिकों को, उनकी सांस्कृतिक अन्यता के  बावजूद, स्वीकार करने में तत्पर ही रहते हैं। इसी उपन्यास में इस प्रसंग के कई वर्षों बाद की घटना का उल्लेख करते हुए, लेखक ने खंडेराव के चाचा, नीलू की बहन सुमी की जचकी का जो दृश्य दिखाया है, वह इस बात का प्रमाण है, कि भारतीय गांव आज भी कई मामलों में परंपरागत चिकित्सा विज्ञान के जानकारों पर ही आश्रित हैं, फिर चाहे उसका नतीजा मरीज की मौत ही क्यों न हो। नीलू चाचा की बहन की जचगी के इस प्रसंग में भी, ग्रामीण हिन्दू संस्कृति में अन्य की तरह स्वीकृत, सुकन्या भील को बुलाया जाता है और आंगन में झेंडी उसी समय प्रजनन प्रक्रिया से संबंधित लोककथा के अपने अनुभव सुना रही होती है। कोई, कहीं कोने में, बचपन में सुनी जिवती के कोप की लोककथा सुना रहा होता है। अंतत: जब सुकन्या भील लाया जाता है और प्रसववेदना से छटपटाती सुमी का इलाज शुरू करता है, तो नतीजे में जच्चाबच्चा दोनों की मौत ही हो जाती है।
                                                                                                         हिन्दू : पृष्ठ 319-20
जाहिर है कि वारू गजरा जैसी लभानियां, या भील या गोंड ही नहीं, बल्कि तड़वी मुसलमान जैसी जातियों को भी मोरगांव की वारकरी हिन्दू जीवनविधि और व्यवहार में एक जरूरी और सम्मानित जगह प्राप्त थी। वास्तव में गांवों में मौजूद हिन्दू संस्कृति में, कृषि संस्कृति के आरंभिक दिनों से ही एक प्रकार का लचीलापन रहा है। इसीलिए, आधुनिक हिन्दुत्व के व्यापक प्रभाव के पहले तक, या कि टेक्नोलॉजी की व्यापक पहुंच के पहले तक, सिर्फ व्यवहार के स्तर पर ही नहीं, मूल्यचेतना के स्तर पर भी, ‘अन्य’ के लिए जगह थी, शायद अन्य की जरूरत भी थी। जाति-व्यवस्था में मौजूद भेदभाव की बीसियों क्रूरताओं के बावजूद, सामूहिक, सामुदायिक जीवन का हिस्सा होने, मानवीय रिश्तों के बीच जीने का मूल्यबोध, संस्कार के स्तर पर भी सक्रिय रहता था। लेखक ने इस तथ्य को ग्रामीण जीवन के अन्तरंग में रहकर और जीकर महसूस किया है।
इसके पहले, कि मैं इस उपन्यास के एक और महत्वपूर्ण स्त्री चरित्र के विषय में कुछ बातें करूँ, यह स्पष्ट कर देना जरूरी है, कि यह उपन्यास स्त्री चरित्र प्रधान उपन्यास नहीं है। यह जरूर है, कि वाचक खंडेराव की स्मृति के माध्यम से लेखक ने, स्वतंत्रता के कुछ वर्ष बाद और कुछ वर्ष पहले के ग्राम जीवन और किसान जीवन की जो मार्मिक गाथा लिखी है, अकाल, ग्रामीण शिक्षा, तीज त्यौहार से जीवन्त ग्राम समाज के जो दृश्य पाठक को दिखाए हैं, वहां ‘स्त्री’ अधिक जीवंत, आत्मीय और अंतरंग रूप में मन में आती है। पुरुष पात्रों की तुलना में उनका चित्रण विशद है। इस वजह से नहीं, बल्कि इस वजह से, कि गांव के किसान के जीवन की कर्मठता के पीछे भी, ऊर्जा का वास्तविक स्रोत स्त्री ही है। प्रसंगवश यह उल्लेख्य है, कि स्त्रियों की कर्मठता परिवार में और परिवार के बाहर हर जगह देखने को मिलती है। लेखक ने इस प्रसंग में एकाधिक बार उसकी यातना और उसकी मेहनत के बारे में विस्तार से लिखा है। उदाहरण के लिए एक किसान स्त्री के जीवन के रोजमर्रा के कामों का लेखाजोखा पाठक के सामने रखते हुए वे थोड़े रोचक ढंग से कहते हैं, ‘‘दिन भर ये औरतें मानो भरतनाट्यम की अलग अलग मुद्रायें करती रहती हैं। उंगलियां, अंगूठे, गर्दन, कंधा, हाथ, कलाई, जंघा, पैर, कमर- कितनी मुद्रायें? हवा में, जमीन से झुककर, उठकर, बैठकर, चूल्हे के आगे भी लोटना, बेलना, थापना, पकाना, चालना, फटकना, चुनना, ...इस आदिम नारी नृत्य के ताल पर ही तो सारी कृषि संस्कृति दस हजार सालों से डोलती आ रही है। घर घर में खलिहानों में, खेतों में यह समूह नृत्य मदहोश होकर किये जाते हैं।’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 187
रोचक यह भी है, कि स्त्री कर्मठता के प्रति इतनी संवेदना के बावजूद, वे कहीं भी नारी मुक्ति की पश्चिमी भाषा का इस्तेमाल करते नजर नहीं आते। जिस पश्चिमी स्त्री के माध्यम से उन्होंने एक दो बार स्त्री विमर्श का सवाल उठाया है, उसी के माध्यम से वे यह भी बताते हैं, कि भारत जैसी जगह में पश्चिमी नारी विमर्श को ज्यों का त्यों लागू करना, न तो वांछनीय है न ही जरूरी।
स्मृतिचारण के तीसरे हिस्से में खंडेराव उस ट्रेनिंग की याद करता है, जो उसने बड़ौदा में ली थी। संयोग से वहां के गेस्ट मास्टर, खंडेराव के गांव के उनके कुनबे के ही रिश्तेदार निकल आते हैं। वे तुरन्त उसे अपने घर ले जाते हैं और वहां उसकी भेंट, उसकी चिंधी बुआ की सहेली से हो जाती है। वह मोरगांव के उसके परिवार की स्मृति में, इस तरह डूब जाती है, जैसे वह, वो सारा गुजरा जमाना अभी भी अपनी आँखों से देख रही हो। इसी दौरान वह चिन्धी बुआ की याद करती है। याने खंडेराव के पिता विट्ठलराव की सौतेली बहन की। कथा विन्यास के इस संयोग की एक रोचकता यह भी है, कि पाठक कथा के बिलकुल पहले चरण में, पाकिस्तान के खानकाहों मठों में भटकते और तिरोनी बुआ को खोजते, खंडेराव की बेचैनी की याद करता है। यह चिन्धी बुआ, तिरोनी की सौतेली बहन है। वास्तव में इसे ही दत्तात्रेय की सेवा के लिए अर्पित किया जाना था। लेकिन इसके ननिहाल वालों की चालाकी के चलते, यह एकदम बचपन में ही धरणगांव के ऊंटमारे देशमुखों की गढ़ी में ब्याह दी गयी थी। इस तरह देवार्पण के लिए अयोग्य हो चुकी थी। इधर इसके जनमते ही, इसकी मां मर गयी थी और इसके देखते देखते, इससे साल भर बड़ा सगा भाई भी मर चुका था। यह भी एक रोचक संयोग है, कि उपन्यास के विन्यास में, चिन्धी बुआ के चरित्र और जीवन की बड़ी घटनाओं के कुछ पहले, बड़ौदा वाली बुआ की भावुक स्मृति के बखान से ही हम जानते हैं, कि चिन्धी बुआ की सगी मां की मौत कितनी करुण थी और उसके पिता याने खंडेराव के दादा के उस समय के व्यवहार को सोचें, तो कितनी क्रूर भी।
सिर्फ चिन्धी बुआ ही नहीं, इस उपन्यास के किसी भी मानवीय चरित्र को, उसकी सर्जनात्मक जीवन्तता और पाठक पर पडऩे वाले उसके मार्मिक प्रभाव को, कथा के प्रासंगिक प्रवाह से जुड़ते हुए ही समझा जा सकता है। जनमते समय से ही, पुरुष की क्रूरता की मासूम शिकार, बचपन में अपनी सौतेली दादी से भरपूर प्यार पाती है। लेकिन बचपन में मुक्त रहकर धींगामुश्ती और मौज मस्ती में अपना समय गुजारने वाली यही चिन्धी, ब्याह के बाद अपने को एक ऐसे वातावरण में पाती है, कि उसका चरित्र और व्यक्तित्व ही बदल जाता है। ब्याहता के रूप में वह धरणगांव के ऊंटमारे देशमुखों की गढ़ी की एकाधिक बहुओं में एक बहू है, जो अपने पुराने नाम और स्वभाव को बरबस भूल कर गृह मर्यादा को निभाने और पति को परमेश्वर मानने की सवर्ण हिन्दू परंपरा को निभाने में प्राणपण से लगी है।
मोरगांव की चिन्धी, धरणगांव के देशमुखों की बहू बन जाने के बाद, वहां की गढ़ी में कैद ही हो जाती है। इसी दौरान एक के बाद एक, दो बच्चियों की मां भी बन जाती है। वहां ससुराल में ननदों और जेठानियों के साथ रहती हुई, अपने मूल स्वभाव के चलते, वह सीमित मुक्ति की कोशिशें भी करती रहती है। लेकिन उसका अय्याश जुआरी और शराबी पति, पतनोन्मुख सामन्ती पुरुष चरित्र का एक क्रूर उदाहरण है। वह स्टैम्प पेपर में उससे अंगूठे का निशान लगवाकर, उससे जबरन तलाक लेना चाहता है। और तब यह चिन्धी, नौकरानी जिवली की प्रेरणा और सहयोग से यह निश्चत कर लेती है, कि इस अय्याश पति को मारकर, मुक्ति की नई राह खोजने में ही, वह अपने जीवन की सार्थकता हासिल कर सकती है। इस पूरी परिस्थिति को और सामन्तवादी पतनोन्मुख जीवन को, लेखक ने इतनी जीवन्तता के साथ रचा है, कि यह पूरा प्रसंग एक मार्मिक फिल की तरह पाठक अपने मन में देखता रहता है और लोकव्यवहार और विश्वास में जारी नैतिकता के बीच, एक विद्रोही स्वर की गूँज भी सुनता रहता है:
‘‘तुलजापुरे के भगत धुडुम धुडुम नाचते हुए तारस्वर में कौन सा भारुड़ गाते थे, अचानक कान में गूंजने लगे
रोट चढ़ाऊंगी तुझे भवानी मां
मांगती हूं मनौती, पति को मार दे
रोट चढ़ाऊंगी तुझे भवानी मां,’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 216
प्रस्तुत प्रसंग में, यह थोड़ा अवान्तर लेकिन थोड़ा रोचक और कुछ विचारोत्तेजक तथ्य भी है, कि चिन्धी के जन्म के बाद, उसकी मां के मर जाने के तत्काल बाद, माँ की बीमारी से उदासीन और क्रूर तथा उसकी मौत के बाद बदहवास, चिन्धी के पिता को, उस समय एक बिलकुल ही दूसरा लोकस्वर सुनने को मिला था। यह लावनी का स्वर कहता है:
‘‘अरे खुशकिस्मत की बीवी मरती है
और बदकिस्मत का बैल होऽऽ रामा रे जी जीजी
इरे हांऽऽ पवल्याऽऽ’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 202
लोकव्यवहार के इस विशिष्ट स्वर को, यहां चिन्धी के प्रसंग में याद करने का प्रयोजन, पुरुष क्रूरता या वर्चस्व की ओर संकेत करना भर नहीं है, कि बीवी का मरना खुशकिस्मती और बेल का मरना बदकिस्मती है, बल्कि सार्थक संकेत तो यही है, कि हिन्दू जीवन विधि में, जातिगत, संप्रदायगत और घनघोर आर्थिक वैषम्य के बावजूद, सैद्धांतिक कट्टरता इस अर्थ में नहीं है, कि इसे आप्तवचन या नैतिकता के एकमात्र मानदंड की तरह स्वीकार कर लें। यह जरूर है कि आज की तारीख में भी स्त्री की हैसियत ऐसी नहीं बन पायी है कि उसकी मृत्यु को सामान्यजन किसी गम्भीर सर्जनात्मक क्षति की तरह याद करें, बावजूद इसके कि उनका अपना जीवन उनके परिवार की स्त्रियों के चलाये ही चलता है। इस तरह के उदाहरणों से यह भी महसूस होता है, कि बन्द समाज और खुले समाज या मुक्त समाज की सैद्धांतिक अवधारणाओं के आधार पर भारत के जनजीवन की समग्र पहचान शायद संभव नहीं है। बहरहाल।
*
यह पूरा उपन्यास खंडेराव की यादों की दास्तान ही है। वह रिश्तों के एक गाझिन और निश्चिय ही, गतिशील संसार में जीता है। इसलिए उसके ‘चरित्र’ को, किसी एकल अस्मिताबोधक अर्थ में ग्रहण करना संभव नहीं है। पचीस छबीस की उम्र के इस कुर्मी किसान युवक के मन की इस स्मृतियों में, केवल उसकी उम्र के ही नहीं, बल्कि परंपरा, परिवेश, इतिहास, पुराण, सामयिक प्रसंग, लोक जीवन की भी स्मृतियां शामिल हैं। शायद इसलिए, अगर वह हर पल किसी और के साथ है, तो कभी नितांत अकेला भी है। वह रिश्तों की इस दुनिया में, उन सभी लोगों की तरह है, तो उनसे कतई अलग भी। उसके चरित्र को, या एक ‘पाठ’ के रूप में इस तरह के किसी चरित्र की सार्थकता को, उपन्यास के पूरे विस्तार में ही समझा  जा सकता है, पर पाठ के दौरान एकाधिक बार यह महसूस होता है, कि यह चरित्र और इसके रिश्तों का संसार, हमें अपनी स्मृतियों में झांकने के लिए भी उकसाता रहता है।
यह भी एक रोचक तथ्य है, कि उपन्यास में यों तो मुसलमान का जिक्र विरल है, लेकिन बिलकुल शुरू से लगभग अन्त तक, बिना किसी विस्तृत चर्चा या सन्दर्भ के महज खंडेराव के चरित्र के द्वारा, हम यह अनुभव करते हैं, कि उसके मन में मुसलमानों के प्रति एक तरह की आत्मीय कोमलता है। अलावा इसके यह भी, कि अपनी आत्मसजग और अपेक्षाकृत वयस्क उम्र में तो वह उर्दू शायरी के आशिक की तरह नजर आता है। अपनी उच्च शिक्षा के दिनों में नाज होटल के इस्माइल और पानवाले बशीर के साथ उसकी बातचीत और मोहेनजोदड़ो के खुदाई स्थल में निवास के दौरान अली का साथ और दिलवर के ढाबे में बीता उसका वक्त, निरे वर्णन कौशल से कुछ अधिक की व्यंजना करते हैं। मगर वहाँ पाकिस्तान में महानुभाव पंथी सन्यासिनी, अपनी तिरोनी बुआ की खोज में तरह तरह के लोगों से मिलता और उनसे जानकारी लेने की कोशिश करता, खंडेराव जब इसी सिलसिले में सलीम नामक एक मराठी मुसलमान से मिलता है, तो इस मुलाकात में ही हम एक अर्थगर्भ और प्रासंगिक व्यंजकता की अन्तर्धवनि भी सुनते हैं। यह सलीम, बंबई से आया मुसलमान है। उसका बचपन अहमदनगर में बीता है। पर है वह सिद्दीकी मुसलमान। याने हब्शी मुसलमान, जो अरसा पहले गुलामों के रूप में इथियोपिया या अन्य अफ्रीकी देशों से भारत लाए गए थे। इनमें से आज भी कुछ हजार लोग गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक में पाए जाते हैं। सलीम से खंडेराव की बातचीत के दौरान, जब उसकी किसी फिल्म की बात चलती है, तो खंडेराव उससे यह प्रस्ताव करता है, कि वे, मलिक अंबर और चाँद बीवी जैसे लोगों पर फिल्म क्यों नहीं बनाते। बिलकुल शुरू के चरण में, उपन्यास में, इस मशहूर अफ्रीकी या सिद्दीकी मुसलमान का यह जिक्र भी महज जिक्र की तरह नहीं लगता, बल्कि हम महसूस करते हैं, कि मलिक अम्बर जैसे व्यक्तित्व के लिए खंडेराव के मन में शायद उसी तरह का लगाव है, जैसा लगाव, उसके अपने अंचल के सहपाठी डोंगर इब्रिया के लिए है और जिससे वह संगीत की बारीकियों  पर बातचीत करता हुआ भी पाया जाता है। मलिक अंबर के जिक्र में यह ऐतिहासिक चेतना भी है, कि उसके अपने अंचल के साथ इतिहास के उस दौर में, मुसलमानों का संबंध कितना अंतरंग और आत्मीय था। ध्यातव्य है, कि मलिक अम्बर, इतिहास के उस दौर में दिल्ली के मुगलों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। इसी संदर्भ में एक आखिरी बात यह, कि यक्ष प्रश्न के दौरान, सिर के बाल उतरवाने के लिए मुंजोबा के मंदिर तक जाने के दौरान, वह जैसे अपनी दादी की प्रार्थना को याद करता है, ठीक उसी तरह उपन्यास के एकदम अंत में, नींद में ही वह गांव के लोगों की प्रार्थना को अपने मन में गूंजती हुई महसूस करता है।
क्या गांव के जीवन की उसकी सारी आलोचना का सार, उसकी इसी प्रार्थना में है?
*
यह उपन्यास पढ़ते हुए मुझे मुक्तिबोध द्वारा एकाधिक बार इस्तेमाल किए गए शब्द युग्म संवेदनात्मक ज्ञान या ज्ञानात्मक संवेदना की याद आती रही है। उसकी पारिभाषिकता या वैज्ञानिकता के अर्थसंदर्भ में नहीं, संवेदना और ज्ञान के सहज स्वत: स्फूर्त बहुलार्थी व्यंजकता के संदर्भ में। शायद इन शब्दों को इसके कथा विन्यास में कई कई रूपों में रूपायित होते देखा जा सकता है, लेकिन इस रूपायन का विश्लेषण करते हुए, इसे अलग अलग करने की कोशिश करें, तो लगता है, कि इसका प्रभाव इसकी बहुआयामिता की संग्रथित संरचना के कारण ही है और यह प्रभाव न तो कोरमकोर सूचनात्मक है, न संवेदनात्मक, न बौद्धिक वैचारिक। सच तो यह है, कि इस उपन्यास में कुछ भी कोरमकोर नहीं है। हर जगह कुछ में और बहुत कुछ की गूँज है। लेखक का कमाल इसी में है, कि अपनी इस समावेशी सर्जनात्मक कल्पना को, यह ‘विषय’ की जड़ स्थिरता में बंधने नहीं देता और इसलिए जब इसके किसी एक पहलू पर हम अलग से सोचना शुरू करते हैं, तो हमें लगता है, कि इससे जुड़े दूसरे बहुत सारे पहलू भी, हमारे दिल दिमाग में मंडरा ही रहे हैं। यह बात मैं अपने निजी पाठ के ताजादम अनुभव के चलते लिख रहा हूं। थोड़ा स्थूल ढंग से मैं यह सोचने की कोशिश कर रहा था, कि खंडेराव की इस कहानी में संयुक्त परिवार, वहाँ मौजूद पारिवारिक रिश्ते, गांव के वे सारे सीमान्तजन और जाति के लोग ग्रामीण परिवेश और किसान जीवन के रोजमर्रे का यथार्थ, लोकवार्ता, गांव में घुसता शहर, शहर की ओर भागते गांव, गांव में मौजूद देस, नयी शिक्षा, नया देश, राष्ट्र, अस्तित्व के गहरे सवाल, ये सब के सब एक निरंतरता के साथ मौजूद हैं। कथा की दीर्घता को देखते हुए भी, यह नहीं कहा जा सकता, कि संयुक्त परिवार या गांव के किसान जीवन की स्थिति यहां इतनी केन्द्रीय है, कि वह पूरी कथा की गति का दिशा निर्देश करे। फिर भी यह लगता है, कि संयुक्त परिवार, खाते पीते किसान के परिवार के व्यक्ति के इस आत्ममंथन में, ‘परिवार’ वह आधारभूमि है, जिसके गांवों और शहरों में आने वाले बदलावों को संवेदनात्मक और बौद्धिक स्तर पर थोड़ी हिस्सेदारी के साथ समझा जा सकता है। सिर्फ बदलावों को नहीं बल्कि राजनीति के आज के व्यावहारिक रूप को भी परिवार के आधार पर समझने की जरूरत है। खंडेराव के आत्ममंथन में, आत्मालोचन की जो साफगोई है, उसकी जो प्रखर धार है, उसका संबंध गांव के यथार्थ की उसकी समझ से भी काफी गहरा है और लोकव्यवहार में मौजूद हिन्दू जीवनविधि की असलियत से तो है ही। शायद इसीलिए मोरगांव के यथार्थ को सुदूर अतीत के अकाल के दिनों में देखते हुए, वह महज उसका वर्णन नहीं करता, बल्कि अपने ‘बचपन’ की दहशतनाक स्मृति की तरह उसे उकेरता है, तो संवेदनाशीलता का एक ऐसा रूप दिखाई पड़ता है, जो गांव से उसके आंतरिक लगाव का परिचायक है। इस प्रसंग में वह गांव के जितने भी दृश्यों को याद करता है, उसमें एक तरह की आवयविक विकलता है, लेकिन फिर भी यह अकाल के वास्तविक शिकार, महार, मातंग, कोरकू आदि जंगल के पत्ते खाकर जीने वाले लोगों के वास्तविक अनुभव की यातना से थोड़ा दूर है। खंडेराव या उसके परिवार के पास मिन्नत की वह भिखारी भाषा नहीं है, जो एक रोटी, या एक लोटा पानी के लिए खंडेराव के दरवाजे पर आकर गिड़गिड़ाने वाले लोगों के पास है। वर्गबोध का यह अंतर गांव के प्रति उसके संवेदनात्मक लगाव के बावजूद, उपन्यास में जगह जगह पर उजागर है।
                                                                                                         देखें हिन्दू : पृष्ठ 155
पर इसी दृश्य के ठीक बाद सिंधु मौसी के घर आने के बाद का दृश्य है, जहां उसकी दादी और उसकी मां का झगड़ा है, और फिर कुछ ही देर बाद, सडक़ बनाने, गिट्टी तोडऩे के काम में जुटी मजदूर औरतों के साथ सिंधु मौसी के काम करने का दृश्य। बच्चों को अफीम चुसवा कर सुलाने के बाद, काम करती औरतें। फिर गांव के अपेक्षाकृत संपन्न कुर्मी किसानों का कंट्रोल की दुकान जाने के दृश्य के दौरान होने वाली बहस में, नीलू चाचा द्वारा यह बताया जाना, कि यह अंग्रेजों की लूट के चलते है। इसी बहस में हिन्दू राष्ट्र और रा.स्व.से.संघ की सख्त जरूरत पर थोड़ा भाषण। फिर सिंधु मौसी की बरबादी की कथा और इस प्रसंग के कुछ ही देर बाद गांव के बुजुर्गों की महफिल में, भास्कर सेठ द्वारा गंगिया की बेटी के बलात्कार और फिर उसे उसी के द्वारा रोजाना के काम में रखे जाने की चर्चा। तत्काल बाद फिर अकाल के दौरान मारवाड़ी सेठों के शोषण पर टिप्पणी।
                                                                                                       हिन्दू : पृष्ठ 155-187
उपन्यास में प्रसंगों की गति की क्षिप्रता कई बार, थोड़ी अतिरिक्त लगती है। यह महसूस होता है कि स्थानीय प्रश्न को राष्ट्रीय प्रश्न की तरह देखने के प्रसंग में भावना की वैसी तीव्रता नहीं है, जैसी गांव की स्थिति को ग्रामीण की तरह देखने के दृश्यों में है। शायद लेखक ने सधे हुए कौशल और भावपोषित कल्पना के साथ इन प्रसंगों को पूरे उपन्यास में कथा की क्रमागतता की तरह नहीं, बल्कि स्मृति की लय की विविधता की तरह रखने और रचने की कोशिश की है। प्रसंगों का इस तरह का रख-रखाव उपन्यास के समग्र विस्तार में मौजूद है। दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय में, पारिवारिक सन्दर्भों की प्रमुखता के साथ ही गांव का सन्दर्भ उभरता है, पर इन प्रसंगों को पढ़ते हुए भी हम महसूस करते हैं, कि न सिर्फ कोंडू, मातंग या सांडू कुर्मी जैसे लोग, बल्कि स्वयं उसके परिवार में उसकी बुआ और बहनें, गांव में शहर के प्रवेश के दरवाजों की तरह से हैं। वास्तव में एक तरह से आधुनिक शिक्षा और आधुनिक चिकित्सा दो ऐसे मुख्य दरवाजे रहे हैं, जिनसे गुजर कर लोग, गांव से शहर और शहर से गांव आते जाते रहे हैं। और उनका शोषण भी करते रहे हैं। शायद अनुभव के स्तर पर खंडेराव इस तथ्य को, निजी स्तर पर भी जानता है और एक परिवार, एक कुनबे, एक गांव के नागरिक की तरह भी। शायद यही दुख उसकी रचना का प्रमुख कारक है और कभी कभी परिवार के भावुक प्रसंगों में वह इसी दुख को तिलमिलाहट की सी भाषा में कुछ इस तरह भी कहता है:
‘‘ऐसी निचली सतह के गरीब किसानों के लडक़े इस बात का सबूत ही हैं, कि वारकरी हिन्दू धर्म की नींव कितनी भुरभुरी हो गयी है। पढ़ लिख कर ऊपर पहुंचे और किसानों का ही पैसा खाने लगे। किसान के हल का फाल ही उसका काल बन गया। बीज बेशर्म निकला रे स् स् स् मौसम बरबाद हो गया...’’
‘‘खंडेराव, साला हम हिन्दू लोगों का वंश ही तो कहीं भ्रष्टाचारी नहीं।’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 277
‘‘मेरे मन में अचानक घर, पवित्र लगने वाली हिन्दू कुटुम्ब व्यवस्था की सड़ी गली पूंजीवादी नींव के प्रति घिन उत्पन्न होने लगी। मैं ही बार बार पिताजी से कहता था, कि लड़कियों से लडक़ों की तरह बर्ताव करना चाहिए और असल में चिन्धी  बुआ की लड़कियों का भी तो अधिकार है। और भावडू के प्यार का मोल? उसकी बीवी का, लडक़ी का क्या मोल? गंदी हिन्दू कुटुम्ब व्यवस्था।’’
                                                                                                             हिन्दू : पृष्ठ 529
मैंने ये दोनों उद्धरण इसलिए दिए हैं, कि हम संयुक्त कुटुम्ब में व्यावहारिक स्तर पर मौजूद हिन्दुत्व को थोड़े नजदीक से पहचान सकें। यह भी देख सकें, कि इन दोनों ही प्रसंगों में खंडेराव की शहरवासिनी बहनें, अपने शहर के सरकारसेवक पतियों के साथ, गांव के अपने मायके में क्या गुल खिला रही हैं। वास्तव में यह तो शुरुआती शहरीकरण के उपभोगऔर लालच में फंसे कुटुम्बजनों के लोभ का एक मामूली प्रसंग है। खतरनाक प्रसंग तो वह है, जिसे राजनैतिक प्रचारधर्मी हिन्दुत्व के शुरुआती चरण के रूप में, लेखक ने उपन्यास के 292 से 300 पृष्ठों तक, नीलू चाचा के चरित्र और उनकी करामातों के माध्यम से पाठकों के सामने रखा है। राष्ट्रवादी हिन्दुत्व, शहरप्रसूत विचारधारात्मक हिन्दुत्व है। वैसी किसी एकल विचारधारात्मक हिन्दुत्व की संभावना, भारत के विविधवर्णी बहुलताधर्मी, स्थानीयता के लोकाचारों से समृद्ध, गांवों में नहीं थी। पर आज की तारीख में वह गांवों में उसी तरह जड़े जमा चुकी है, जैसे शहरी उपभोग और कृषि विमुखता की नयी जीवनविधियों ने। शहरीकरण के इस तरह के व्यापक प्रसार के समान्तर ही, नये राजनैतिक हिन्दुत्व की पैठ गांवों में संभव हो सकी है। उपन्यास पढ़ते हुए हम कई बार महसूस करते हैं, कि इस शहरीकरण का ही एक कारण, प्राचीन अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का टूटना है। खंडेराव स्वयं अपने को गांव में लगाव और अलगाव की दुचित्ता स्थिति में पाता है, लेकिन संवदेनशील आत्मसजगता के चलते वह यह भी महसूस करता है कि गांव के किसानों की वास्तविक व्यावहारिक स्थितियों की पहचान आज की स्थिति में जरूरी है। एक पाठक की हैसियत से तो मैंने यही महसूस किया है, कि यह सांप्रतिक, राजनैतिक हिन्दुत्व की कट्टरता का एक सर्जनात्मक प्रतिरोध तो है ही, इसके साथ साथ करोड़ों लोगों की आस्तिकता और जिजीविषा को, शब्दों के जीवन्त विन्यास में दर्ज करनेवाली एक अद्भुत कृति भी है। इसे पढ़ते हुए, हम मानवीय रिश्तों के एक गतिशील संसार में रहने और जीने का अनुभव करते हैं, और शायद सिर्फ अनुभव ही नहीं करते, बल्कि विचार की ऐसी कर्मोन्मुख प्रक्रिया में भी शामिल होते हैं, कि निजी स्तर पर जीने की ऐसी कोई दिशा खोज सकें, जो जिजीविषा के इस समृद्ध कोष को थोड़ा और बेहतर, थोड़ा और मानवीय बना सके।
उपन्यास का अनुवाद सुपाठ्य है। सुपाठ्यता के कारण ही, इसे सहजता से पढ़ सकना मुमकिन हो सका। गोरख थोरात, ऐसे सुन्दर अनुवाद के लिए बधाई के पात्र हैं। अनुवाद न होता तो ऐसी अविस्मरणीय कृति के पाठ से हम वंचित रह जाते।


Login