मुखपृष्ठ पिछले अंक स्मरण : इंतिज़ार हुसैन
जुलाई 2016

स्मरण : इंतिज़ार हुसैन

जावेद अनीस



चंद साल पहले ‘‘वाइस आफ अमरीका’’ को दिए गये इंटरव्यू में इंतिज़ार हुसैन ने कहा था कि ‘‘अपने बुजर्गों से चौदहवीं सदी के बारे में जो सुना था वह दरअसल इक्कीसवीं सदी के बारे में था, मेरे लिए इक्कीसवीं सदी दरअसल चौदहवीं सदी है। मैंने जो कुछ लिखा वह बीसवीं सदी में लिखा था और यह चौदहवीं सदी उस समय आई है जब मेरी अफसानानिगारी अपने इख्तेमाम को पहुँच रही है, अब मुझे एहसास होता है कि मैं शायद इक्कीसवीं सदी के साथ कोई इन्साफ नहीं कर सकूंगा और यह सदी मेरे लिए एक चैलेन्ज की हैसियत रखती है, यह एक ऐसा वक्त है जब मैं अपना काम मुकम्मल कर चुका हूँ।’’

जावेद अनीस


इंतिज़ार हुसैन

हिन्द और पाक के बीच एक अदबी पुल का टूट जाना
(7 दिसंबर 1923 - 2 फरवरी 2016)

डॉक्टर गोपीचंद नारंग ने एक बार कहा था कि, ‘हम उर्दू अदब में सिर्फ तीन हुसैन को मानते हैं, अब्दुल्ला हुसैन, इंतिज़ार हुसैन और मुस्तंसर हुसैन। अब्दुल्ला हुसैन तो पिछले साल रुखसत हो गये थे और इंतिज़ार हुसैन के जाने की खबर सुनकर मुस्तंसर हुसैन ने लिखा कि ‘‘वह गये तो मेरा ऐतबार भी गया’’। 2 फरवरी 2016 को 93 साल की उम्र में लाहौर के एक अस्पताल में उनका इन्तेकाल हो गया। वे मौजूदा तौर में पाकिस्तान ही नहीं बल्कि पूरे उर्दू फिक्शन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे और उन चंद खुशनसीब अदीबों में से थे जिन्हें अपने जीवनकाल में ही एक लीजेंड की हैसियत हासिल हो गयी थी। वे भारत-पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में मंटो, कृश्नचंदर और बेदी के बाद वाली पीढ़ी के प्रमुख कथाकारों में से एक थे। उनका जन्म 7 दिसंबर 1923 को अविभाजित हिन्दुस्तान में बुलंदशहर जिले के ‘‘डिवाई’’ में हुआ था। वे लिखते हैं ‘‘चार बेटियों के बाद किसी बेटे का इंतजार था लिहाजा मेरा नाम इंतिज़ार हुसैन यूँ रखा गया’’।
उनका बचपन हिन्दुस्तान में एक मिले-जुले माहौल में बीता, उनके घर की दीवारें हिन्दू पड़ोसियों के घरों से मिलती थीं जहाँ से मंदिर भी करीब था और मस्जिद भी, जहाँ से अजान की आवाज भी आती थी और घंटियों-भजनों की भी। बकौल उन्हीं के ‘‘मैं मंदिर और मस्जिद के बीच पैदा होने वाले नस्ल से ताल्लुक रखता हूँ’’। हापुड़ के जिस स्कूल में उनका दाखिला कराया गया वहां भी एक को छोड़ बाकी सभी टीचर हिन्दू थे। क्लास में भी उनको जोड़ कर कुल जमा दो बच्चे मुस्लिम थे। उन्होंने मेरठ कॉलेज से उर्दू में एम.ए. किया था। उनके एम.ए. पूरा करने के एक साल बाद पाकिस्तान बना। उनका खानदान हिन्दुस्तान में ही रहना चाहता था सिवाए इंतिज़ार हुसैन के जो बीस बरस की उम्र में लाहौर चले गये, उस समय उनके दिमाग में था कि भले ही बटवारा हो गया हो लेकिन दोनों मुल्कों की सीमायें इतनी बंद नहीं होगी की आना-जाना भी मुश्किल हो जाए। लडक़पन में पाकिस्तान जाने की एक और वजह वो यह बताते हैं कि ‘लाहौर जो उस समय कला और साहित्य का मरकज़ था वहां उन्हें बड़े साहित्यकारों से मुलाकात करने और तारीखी मुकामात देखने का मौका मिल सकेगा। मगर लाहौर जाकर मालूम हुआ कि वापसी मुश्किल है, फिर धीरे-धीरे उनके परिवार ने भी पाकिस्तान जाने का मन बना लिया और वे भी वहां शिफ्ट हो गये।
जब उन्हें एहसास हुआ कि पाकिस्तान जाना तो आसान है लेकिन दोबारा हिंदुस्तान वापस आना मुश्किल, तो उन्हें अपना पुराना वतन, जमीन और जड़ें शिद्दत से याद आने लगी और वे ‘नॉस्टालजिया’’ के शिकार हो गये। इसी रौ में उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू कर दीं, इंतिज़ार साहेब का कहना था कि ‘‘अगर मैं पाकिस्तान नहीं आता तो कहानियाँ लिखने के अलावा कुछ और कर रहा होता’’।
इंतिज़ार हुसैन ने 1944 से ही कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था लेकिन पाकिस्तान जाने के बाद उनका रचना संसार एकदम बदल गया आरै उनके यहां हिजरत और अपने जड़ों से कटने का दर्द उनकी रचनाओं के केंद्र में आ जाता है, इसी दौरान उनके हाथ कहीं से कदीम हिन्दुस्तानी कहानी ‘‘बेताल पच्चीसी’’ लग जाती हैं और वे प्राचीन भारतीय कहानियों के समंदर में डूब से जाते हैं। और इसके बाद तो उन्होंने कथा सागर, महात्मा बुद्ध की जातक कथायें, महाभारत कुछ भी नहीं छोड़ा। अरब के अलिफ लैला की भी सैर की, सूफी-संतों को पढ़ा। बकौल उन्हीं के ‘‘इन सबसे मुझे अवामुन्नास से बात करने की तकनीक हाथ लग गयी।’’
उनकी कहानियों का पहला संग्रह ‘गली कूचे’ 1953 में प्रकाशित हुआ। जब उन्होंने लिखना शुरू किया तो उनके सामने मंटो, बेदी, इस्मत, चेख़व, टालस्टाय जैसे वही मिसाल थे जो उस ज़माने में नए लिखने वालों के होते थे। लेकिन उन्होंने अपने पुरखों के दास्तानगोई को अपनाया, बाद के दौर वे एक अनूठे कहानीकार के रूप में सामने आते हैं, जहाँ वे अपनी कहानियाँ किस्सागोई और दास्तानगोई के अंदाज में कहते हैं और उनकी कहानियों-उपन्यासों में दो युग एक साथ चलते हुए नजर आते हैं। वे वर्तमान को अतीत से जोड़ कर एक बिल्कुल नया आयाम देते हैं। इसके लिए वे भारत और अरब की पुरानी दास्तानगोई शैली का सहारा लेते हैं। उन्हें पढ़ ऐसा लगता है कि मानो हम उन किरदारों में बदल गये हों जिन्हें वे लिख रहे थे, उनके साथ उनका पाठक भी एक सफर पर निकल पड़ता है। यह खासियत पाकिस्तान के किसी और आदीब के यहाँ देखने में नहीं मिलती है, यही बात उन्हें दोनों मुल्कों के लिए ख़ास बनाती है। उनकी कहानियों में रूपकों का भरपूर इस्तेमाल होता है और यहाँ प्रतीकों और संकेतों की भरमार होती है, जहाँ पशु-पक्षियों, पुरानी घटनाओं और मिथकों के साथ वर्तमान को जोड़ते हुए वे इस पर टिप्पणी करते हैं।
उनका मानना था कि आधुनिक उर्दू कहानी की तीन धारायें हैं, एक पुराने हिन्दुस्तानी कहानियों की धारा, दूसरी अरब व अजम की दास्तानगोई और तीसरी पश्चिम से आई आधुनिक धारा है। उन्होंने इन तीनों धाराओं को मिलाने की कोशिश की है, इसकी मिसाल उनकी ‘‘मोर नामा’’ और ‘‘बंदर की कहानी’’ जैसे अफसाने हैं। ‘‘बंदर की कहानी’’ बहुत दिलचस्प है जिसमें एक बंदर पहली बार किसी इन्सानी बस्ती में जाता है तो वहां तरस्की देख कर हैरान रह जाता है और अंत में इस नतीजे पर पहुँचता है कि इंसानों ने अपनी दुम काट ली है इस कारण से तरक्की किये हैं इसलिए बंदरों की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट उनकी दुम है और फिर बंदरों का पूरा झुंड अपनी दुम काटने का फैसला करता है। मगर तभी एक बूढ़ा बंदर कहता है कि ‘‘जिस उस्तरे से तुम अपनी दुम काटोगे उसी उस्तरे से एक दूसरे के गले भी।’’
उर्दू कहानियों में इंतिज़ार हुसैन का काम अपने समकालीनों से बिलकुल अलग है, उनके यहाँ इतिहास की परछाई, देवमालाई दास्तानों के किरदार, पलायन का दर्द, पुरानी यादें, वर्तमान में रौशन दिनों के ख्वाब एक साथ गुथ्थम-गुत्था मिलेंगे। उनके अफसानों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह बिलकुल सादा होते हैं लेकिन इस सादगी में भी परकारी होती है जो पाठकों को बांधे रखती हैं। कहानी बयान करने का उनका अंदाज भी बहुत सादा लेकिन दिलचस्प है।
वो किसी खास विचारधारा में बंधे हुए नजर नहीं आते हैं, ना तो उन्हें तरक्कीपसंद कहा जा सकता है और ना ही गैर-तरक्कीपसंद, और ना ही उन्हें लेफ्टिस्ट या रायटिस्ट कहा जा सकता हैं। खुद उन्होंने कहा था कि ‘‘मेरा इन दोनों ही नजरियात से कोई सम्बन्ध नहीं है।’’ उन्हें अजअत पसंद (प्रतिक्रियावादी) भी कहा गया। जो भी हो वे एक साफगो और साफ दिल इंसान थे, वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच एक पुल की तरह थे और दोनों मुल्कों के साहित्यकारों (विशेषकर उर्दू) के बीच एक अहम कड़ी बने हुए थे।
वो मानते थे कि एक अदीब को जितना हो सके अपने अदबी दायरे में ही रहना चाहिए और कहा करते थे कि ‘‘मैं उन ‘‘रजअत पसंदों’’ में से हूँ जो सियासी मसलों पर टिप्पणी करने के ज्यादा कायल नहीं हैं।’’ दरअसल वो जिस समाज में रहते थे उसको लेकर उन्हें कोई भ्रम नहीं था, अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि ‘‘हमारे पाकिस्तानी समाज में लोग अदीब से रहनुमाई के तालिब नहीं होते वह मौलवी से रहनुमा लेते हैं, फ्रांस जैसे मुल्क में तो आम आदमी भी यह जानता है कि यह ‘‘सार्त्र’’ है और उसका क्या काम है और यह जो राय दे रहा है उसकी क्या अहमियत है, लेकिन हमारे समाज में अदीब की वो हैसियत नहीं होती, चंद एक होते हैं जिन्हें यह मुकाम मिल जाता है जैसे कि अल्लामा इकबाल को मिला, तरक्कीपसंद तहरीक में से फैज़ अहमद फैज़ इस सतह तक पहुँचे जरूर लेकिन उनका मामला यह था कि अपनी शायरी से हटकर सियासी हालात व वाकियात पर उन्होंने बहुत कम तबसरा किया है।’’
उनके आठ कहानी संग्रह, चार उपन्यास हैं, एक लघु उपन्यास और आत्मकथा के दो भाग भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनका आखिरी उपन्यास ‘‘सिंहासन बत्तीसी’’ था जो 2014 में प्रकाशित हुआ। अन्य उपन्यासों में ‘‘चाँद गहन’’, ‘‘दिन और दास्तान’’, ‘‘बस्ती’’ और ‘‘आगे समंदर है’’ शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने कई अनुवाद किये हैं और यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं। उन्होंने उर्दू के अखबारों और पत्रिकारों में काम किया था। वे कालम भी लिखते थे और उनका कालम ‘‘लाहौर-नामा’’ काफी चर्चित था जो बाद में किताब की शक्ल में भी प्रकाशित हुए हैं। उनकी रचनाएं हिंदी समेत कई भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं। वो पहले पाकिस्तानी थे जो 2013 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर प्राइज के लिए शॉर्टलिस्ट हुए थे। पाकिस्तान में उन्हें ‘‘कमाल ए फन अवार्ड’’ और ‘‘प्राइड ऑफ परफॉरमेंस’’ से सम्मानित किया गया है।
अपना काम मुकम्मल करके भारतीय उपमहादीप का यह अनोखा दास्तानगो एक और हिजरत पर जा चुका है।


Login