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जुलाई 2016

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन


पाठकों, पहल की लंबी और कठिन यात्रा के दौरान भाषाओं के रचनाकारों ने समय समय पर होने वाले पत्राचार के माध्यम से हमें सुलझाने, प्रोत्साहित करने और मार्गदर्शन देने वाली चिट्ठियां लिखीं हैं। हमारे पास अंडबंड तरीके से असंख्य पत्र रखे हुए हैं। इनमें रामविलास शर्मा से लेकर मंगलेश, वीरेन, आलोक धन्वा, विजय कुमार और कर्मेन्दु शिशिर के पत्र हैं। छोटे कस्बों के सुजान लेखकों, पाठकों के पत्र हैं, व्यापक समुदाय के होनहारों के ख़त हैं और विवादों के बीच कम्पित मन:स्थितियों से पहल को उबारने वाले, सम्बल देने वाले अनगिनत पत्र हैं। कुछ पंक्तियों के शीर्षक से हर बार दो तीन पत्र राम शलाका पद्धति से निकाल कर पाठकों के सुपुर्द कर रहे हैं। कोशिश है कि संपादकों की तारीफ वाले पत्र न छप सकें। फिर भी विपत्तियों के बीच जो पत्र हौसला देते हैं उन्हें हम छापेंगे। इससे पहल की टेढ़ी मेढ़ी डगर और जनतांत्रिक आग्रहों का पता लगेगा।
इस बार भोपाल के मशहूर कथाकार और जानेमन स्व. सत्येन कुमार (जिनकी ‘जहाज’ एक अविस्मरणीय कहानी है), बड़े कवि स्व. रघुवीर सहाय और चिकित्सक-कवि संजय चतुर्वेदी के पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। पाठकों की राय हमें किसी सूरत चाहिये। संजय चतुर्वेदी की कविता का मूल्यांकन भी पाठक इसी अंक में पढ़ सकते हैं।


रघुवीर सहाय

प्रिय ज्ञानरंजन जी,
आप को वसंतागम के समय शुभकामनाएं। श्री आलोक धन्वा को भी यह संदेश पहुंचा दीजिए। यह जान कर प्रसन्नता हुई कि वह आप के पास हैं। भोपाल से लौट कर मैंने उन्हें खोजा था पर वह दिल्ली में नहीं थे। एर्नेस्तो कार्दिनाल और फेरेक्त युहाश ये मेरे दोनों प्रिय कवि समर्थ हिंदी कवियों से मिलना चाह रहे थे। यहां जो उपलब्ध थे उनमें - मंगलेश, अरुण, विष्णु नागर, इब्बरार रब्बी आदि से भेंट हो सकी। आलोक जी को मेरा सस्नेह स्मरण कहें। आशा है वह शरीर से स्वस्थ होंगे और अपनी लंबी कविता पूरी कर रहे होंगे।
मैं आपके लिए कविता अवश्य भेजूंगा। अभी स्थिति यह है कि कितने ही अधूरे काम पड़े हुए हैं जिनको कहाँ से शुरू करूँ यह निर्णय कठिन होता जा रहा है। कुछ नितांत सामाजिक हैं, कुछ नितांत साहित्यिक। इन दोनों से अलग कोटि का काम है कविता पूरी करना। अधूरी तो वह हर समय कुछ मन में कुछ कागज पर रहती हैं पर ऐसे तो वह आपको नहीं भेजी जा सकती हैं।
आप सहृदय हैं, समझ सकेंगे। जैसे ही कुछ अपने से बाहर देने लायक होगा आपको भेजूंगा। यही कह सकता हूं कि शायद इस मास के अंत तक किसी समय।

सस्नेह
(रघुवीर सहाय)

 



सत्येन कुमार

प्रिय ज्ञान,
तुमारा 1 अप्रेल का ख़त और 4 अप्रेल के ख़त के साथ ‘पहल’ का अंक और चैक - सब यथासमय मिल गये। धन्यवाद। ‘कहानियां’ का विज्ञापन तुमने इतनी prominence के साथ छापा है कि मैं कुछ embarassed हूं। आभारी तो हूं ही। तुम मानते नहीं लेकिन तुम्हारे व्यक्तित्व में कुछ चीज़ें बहुत सामन्ती हैं!!
*
तुम्हारे 1 अप्रेल के ख़त में सभी बातें ऐसी हैं जिनसे कोई भी असहमत नहीं हो सकता। तुम्हारा यह कहना भी बिल्कुल ठीक है कि ‘सारा दोष’ प्रगतिशीलों पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। मैंने वह किया भी नहीं है। अलबत्ता जिस अनुपात में और जिस मैग्नीट्यूड में प्रगतिशील आंदोलन देश में सक्रिय है उसी अनुपात में बहुत सी undoings के लिए अपनी जिम्मेदारी भी लोगों को माननी होगी। दरअसल मेरी सारी चिन्ता और झुंझलाहट (गुस्सा नहीं) सिर्फ इस बात को लेकर हैं कि जिस आंदोलन की भूमिका और उसके महत्त्व को लेकर किसी भी प्रकार का संशय नहीं हो सकता, केवल कार्यप्रणाली के स्तर पर वह आन्दोलन एक अजीब सी लापरवाही के कारण कमज़ोर होता जा रहा है। हम चाहे पहला हमला (ज़ाहिर है कि किसी बड़ी शक्ति-इकाई पर ही वह होगा) करें या 10,000 वां किसी का कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे यदि अपने तईं हम वस्तुपरक ढंग से, सही रूप में organized नहीं है और संगठन/आंदोलन के कार्यकत्र्ता आदि अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठकर व्यापक सामाजिक न्याय की माँग नहीं करते। मुझे लगता है कि इस सम्बन्ध में पहले हमें अन्दर ही एक ‘सफाई आन्दोलन’ करना पड़ेगा।
रहा सवाल साहित्य और लोकप्रिय लेखन आदि बातों का तुम्हारी बातों से किसे इत्तफाक नहीं होगा। लेकिन क्या इस area में भी दुर्भाग्य यह नहीं रहा कि बड़ी से बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं ने केवल ‘साफ सुथरे, पठनीय लेखन’ को हेय समझ कर अपनी ‘पण्डा वृत्ति’ के कारण दूर रक्खा। ऐसे में यदि शैल चतुर्वेदी और गुलशन नन्दा की पूरी पीढ़ी गाजर घास की तरह हर तरफ फैल गई तो जिम्मेदार कौन है। दरअसल यह वैसी ही बात है जैसे कि technical institution में Post graduate education के स्तर पर research का बड़ा हल्ला हो जाता है। चाहे कि विद्यार्थी का aptitude हो या न हो research उससे ज़रूर करवाई जायेगी। उसी तरह जैसे साहित्य में चाहे कि नये लेखक को नाड़ा बांधना भी न आता हो लेकिन प्रतिबद्धता का अंगोछा गले में डाले वह हर मंडली के साथ हो जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसे लोग सारा purpose defeat कर देते हैं।
यह अजीब बात है कि हमारी पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण लेखक के नाते तुमसे व्यक्तिगत स्तर पर और तुम्हारे लेखन से मुझ जैसा ‘लौंडा’ इतना प्रभावित हुआ और होता है लेकिन दुर्भाग्य से यह भी सच है कि ‘पहल’ और ‘प्रगतिशील संगठन’ को लेकर बहुत सी स्थितियां ऐसी हैं कि मैं ही नहीं बल्कि मेरी पीढ़ी के कई बहुत अच्छे लेखक अपने आप को एक counter point की स्थिति में पाते हैं। और जब इस तरह की बहुत सी छोटी-छोटी Fragments को जोडक़र हम पूरे साहित्यिक परिदृश्य का perspective देखते हैं तो पाते हैं कि सिर्फ अवसरवादी लोग ही चीज़ों का फायदा उठा रहे हैं गंभीर, प्रतिभाशाली और महत्वपूर्ण रचनाकार (वे संगठन के अन्दर हों या बाहर) घोर उपेक्षा और बदसलूकी का शिकार हैं।
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‘कहानियाँ’ के किसी अगले अंक में मैं भारत भवन की नौटंकी के बारे में लिखूंगा ज़रूर। अभी तक इसलिए भी नहीं लिखा है कि मैं react करके नहीं बल्कि objective ढंग से सारी बात कहना चाहता हूँ - हालाँकि उससे भी कुछ होगा नहीं। लेकिन तुम जानते हो कि अशोक को अपने विरोध में कही गईं बहुत सी बातों से ताकत ही मिलती है क्योंकि वे किंचित् personal reaction के तहत कही जाती है।
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‘कहानियाँ’ के अप्रैल अंक में धनंजय के एक शरारत तुम्हारा नाम लेकर की है। उसकी सजा के बतौर तुम मेरे कान ऐंठ देना - जब भी भोपाल आओ।
मैं इधर कुछ भाग-दौड़ में हूं। कुछ व्यक्तिगत उलझनें भी हैं। इसलिए अच्छे वक्तों का इंतज़ार कर रहा हूं। ऐसा एक वक्त वह भी होता है जब तुम भोपाल आते हो।
सादर

तुम्हारा
(सत्येन)
सिमसिम, 40 पी.एन.बी. कॉलोनी,
ईदगाह हिल, भोपाल

 



संजय चतुर्वेदी
सी-64, नीतिबाग, नई दिल्ली - 110049

आदरणीय ज्ञानरंजन जी,
‘‘संयुक्त राज्य का जनवादी इतिहास’’ पुस्तक के प्रथम अध्याय ‘‘कोलम्बस अमरीकी इंडियन व मानव प्रगति’’ का हिन्दी अनुवाद पढ़ा।
हावर्ड ज़िन और लाल्टू को बहुत बहुत साधुवाद। पहल परिवार ने बहुत अच्छी पुस्तक का चयन किया है और इसलिए पाठक पहल के आभारी रहेंगे। मैं तो पॉपुलर हिंदी प्रेस के लोगों से मिलने की कोशिश करूंगा और कहूंगा कि वे भी इसे धारावाहिक छापें। पहले भी मैंने कहीं लैटिन अमेरिका के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में रबर की खेती करने वाले गुलामों के शोषण का इतिहास पढ़ा था। लेकिन हावर्ड ज़िन ने तो कहीं अधिक वैज्ञानिक और तथ्यात्मक आधार पर शैतान की मूर्तियों को तोड़ा है।
व्यक्तिगत तौर पर मैं बचपन से ही कोलम्बस का ज़बरदस्त मुरीद और एक हद तक उससे आक्रांत रहा हूं। उसमें एक ख़ास तरह की बात थी। एक ख़ास तरह की प्रतिभा थी और बड़ी अदम्य और प्रचण्ड थी। मेरे लिए कोलम्बस एक व्यक्ति का नाम नहीं एक प्रवृत्ति का और कई ऊंचाईयों पर एक Vision का नाम रहा। उसे मैं डार्विन (चार्ल्स डार्विन) के समकक्ष रखता रहा। (मैं आज भी उन लोगों को कमनज़र मानता हूं जो ‘‘नील आर्मस्ट्रांग’’ को कोलम्बस के साथ रख कर देखते हैं)। मेरे बुतख़ाने में विंची (Leonard da Vinci) भी एक विभूति की तरह रहते हैं। जब उनके बारे में तमाम अप्रिय बातें पढ़ीं तो एक नई रोशनी में Vinci को देखने की समझ पैदा हुई, हालांकि Vinci फिर भी बुतख़ाने में ही रहे, कुछ दर्ज़ा नीचे। लेकिन हावर्ड ज़िन के इस काम ने तो वैचारिक आधार पर कोलम्बस का Vision ही तोड़ दिया।
ऐसा नहीं है कि कोलम्बस के मामले में Dark side of the Moon का मुझे आभास नहीं था लेकिन ज़िन को ऋषियों, मुनियों जैसी जो एक समृद्ध विचार-खोज और लेखन परंपरा मिली इससे मेरा आपका सामना ठीक तरह से नहीं हुआ था। अब पढ़ा तो जाना कि ज़िन बहुत सभ्य और बुतकिशन हैं और उनका अभियान व्यापक जनकल्याण के लिए जो सोच पहले से मौजूद है उसको एक नई रोशनी देता है।
क्रमश:

संजय चतुर्वेदी
नई दिल्ली

पुनश्च
चीन में जो हुआ/जारी है उस पर और खुमैनी की मृत्यु पर मेरे मन में जो पहली प्रतिक्रिया हुई उस पर लिखी दो कविताएं भेज रहा हूं। देखिएगा और आलोचना करिएगा।
- संजय

अगली बार सर्वश्री भगवान सिंह, सुभाष पंत और विनोद शाही के पत्र


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