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अप्रैल - 2016

समावेशी राष्ट्रीयता के पहले मुस्लिम पुरोधा: अल्लामा शिबली नुउमानी

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल

नवजागरण के सितारे


उन्नीसवीं सदी में हिन्दुस्तान के मुसलमानों के बीच नवजागरण में योगदान देने वाले सर सैय्यद, हाली और शिबली की त्रयी में शिबली सबसे छोटे थे। जहाँ पर सैय्यद और हाली का जीवन काल क्रमश: 81 और 77 वर्षों का था वहीं शिबली को नियति से जीवन के 57 वर्ष ढाई महीने मात्र मिले थे। पर अपने इन दोनों वरिष्ठ समकालीनों की तुलना में उनका लेखन अत्यंत विपुल और आश्चर्यजनक रूप से वैविध्यपूर्ण है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शिबली अरबी, फारसी, तुर्की, हिन्दी और उर्दू भाषाओं का गहरा ज्ञान रखते थे। कवि, अनुवादक, जीवनीकार, आलोचक शिबली के पास एक अत्यंत उदार धार्मिक समझ और अद्भुत व्यापक और समावेशी राष्ट्रीय दृष्टि थी।
अल्लामा शिबली नुअमानी के नाम से विख्यात उनका जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के जिला आज़मगढ़ के अंतर्गत स्थित एक गाँव बिंदवल में 1 जून सन् 1857 को हुआ था। उनके पिता का नाम शेख हबीबुल्लाह और माँ का नाम मौकीमा ख़ातून था। शिबली के पूर्वज हिन्दू राजपूत थे। शर्की शासकों के शासनकाल में उनके एक पूर्वज शिवराज सिंह नामक राजपूत ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। शिबली उन्हीं के वंशज थे। शेख हबीबुल्लाह शिक्षित और साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति थे। फारसी शायरी में उन्हें गहरी रुचि थी। जमींदारी और नील का व्यापार परिवार की आय का मुख्य साधन थे। परिवार में कुछ सदस्य वकालत के पेशे से भी जुड़े थे। परिवार समृद्ध था शिबली माँ-बाप की पहली संतान थे। उनके माता-पिता दोनों धार्मिक वृत्ति के थे।
शिबली का जन्म सन् 1857 के हिन्दुस्तान की पहली आज़ादी की लड़ाई के दौरान हुआ था। यह जानकारी दिलचस्प होगी कि जिस दिन उनका जन्म हुआ था उसी दिन स्वतंत्रता सेनानियों ने आजमगढ़ को अंग्रेजों के शासन से आज़ाद करा कर जेल के कैदियों को मुक्त कर दिया था। उन्होंने जिले के कोषागार (ट्रेजरी) पर कब्ज़ा कर वहाँ शासन अपने हाथ में ले लिया था। दरअसल यह उथल-पुथल भरे एक घटनाबहुल कर्ममय जीवन की लाक्षणिक शुरूआत थी। शिबली एक स्वतंत्रचेता निर्भीक विचारक थे। सांप्रदायिक संकीर्णता उन्हें छू तक नहीं गयी थी। पहले स्वतंत्रता संग्राम के उगते सूर्य का प्रथम प्रकाश उनके बाल-मुख पर पड़ा था। इसी ने उनके चिंतन की दिशा तय कर दी थी।
उनकी उर्दू, अरबी, फ़ारसी और कुरान शरीफ़ की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। कुछ वर्ष उन्होंने जौनपुर और गाज़ीपुर के मदरसों में भी पढ़ाई की। सन् 1873 में उनके माता-पिता ने अपने मित्रों के सहयोग से आजमगढ़ में एक मदरसे की स्थापना की। उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलाना फार्रुक चिरैया कोटी को उस मदरसे का प्रधान अध्यापक नियुक्त किया गया। शिबली ने आगे की अपनी शिक्षा मौलाना चिरैया कोटी के सान्निध्य में ही पूरी की। इस्लामी साहित्य ज्ञान के साथ ही मौलाना की अभिरुचि फारसी और उर्दू शायरी और शास्त्रीय संगीत में भी थी। वह स्वयं अच्छा गाते भी थे। उनके सम्पर्क के फलस्वरूप किशोर शिबली में भी शायरी और संगीत के सुरुचिपूर्ण संस्कार विकसित हुए। शिबली शुरू से ही अध्ययनशील प्रकृति के थे। अपना खाली समय वह अक्सर पड़ोस की क़िताबों की दूकान पर बिताते थे। विद्याव्यसनी और अपार जिज्ञासु तरुण शिबली के लिये धीरे-धीरे अब आज़मगढ़ के बौद्धिक संसाधन कम सिद्ध होने लगे थे। पिता चाहते थे कि वह उनकी तरह वकालत के पेशे से जुड़ें। इसमें उनकी रुचि बिल्कुल नहीं थी। जल्द ही कुछ समय उहापोह की स्थिति में गुजरने के बाद वह उस समय के प्रसिद्ध इस्लामी शास्त्री मौलाना इरशाद हुसेन का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए रामपुर पहुँचे। वहाँ साल भर उनसे (मौ. इरशाद हुसैन से) धार्मिक शिक्षा अर्जित करने के बाद आगे की शिक्षा के लिए वह लाहौर गये। वहाँ के ओरियन्टल कॉलेज के प्रसिद्ध प्रोफेसर मौलाना फ़ैजुल हसन सहारनपुरी की शिष्यता प्राप्त कर उनसे अध्ययन करना उनका विशेष उद्देश्य था।
मौलाना फ़ैजुल हसन उस समय हिन्दुस्तान के अरबी के शीर्षस्थ विद्वान माने जाते थे। मौलाना के पास शिबली को पढ़ा सकने का समय नहीं था। पर शिबली की उत्कट जिज्ञासा से प्रभावित मौलाना ने उन्हें अपने घर से कॉलेज की यात्रा के दौरान मिलने वाले समय में पढ़ाने की युक्ति निकाल ली। यह क्रम एक अरसे तक चलता रहा। गर्मी की छुट्टियों में शिबली मौलाना के साथ सहारनपुर आ गये। इस दौरान शिबली ने उनके सानिध्य का भरपूर लाभ उठाया।
सन् 1876 में जब शिबली आज़मगढ़ लौटे तो एक बार फिर उनके पिता को उनके जीवन यापन के साधन की चिंता हुई। उनके पिता को लगता था कि उनके बेटे की अब तक की अर्जित विद्या अर्थकारी नहीं थी। अत: पिता के कहने पर उन्होंने वकालत की परीक्षा पास की। पर पेशे के सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने तथा इसी तरह के दूसरे हथकंडों से उनका मन बहुत जल्द उचट गया। उसके बाद कुछ दिन उन्होंने नकल नवीस और कुर्क अमीन की नौकरी भी की। इस दौरान उन्होंने परिवार के नील के व्यवसाय में भी हाथ बंटाया। सन् 1876 से 1882 तक का उनका जो समय घर पर बीता वह यद्यपि किसी खास उपलब्धि के लिये उल्लेखनीय नहीं है पर इसका उपयोग उन्होंने लगातार अपनी बौद्धिक समृद्धि के लिये किया। उन्हें अपने ज्ञान और प्रतिभा पर अदम्य विश्वास था। जब कई बार छोटी-मोटी नौकरियों के लिए भी उन्हें चुना नहीं गया तो भी वह पस्त हिम्मत नहीं हुए।
सन् 1882 का अंत होते-होते उन्हें पता चला कि सर सैय्यद द्वारा स्थापित मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियन्टल कालेज अलीगढ़ में अरबी के एक असिस्टेंट प्रोफेसर का पद खाली है। उन्होंने इसके लिए एक आवेदन पत्र तैयार कर उस पर मौलाना फ़ैजुल हसन सहारनपुरी की संस्तुति कराई। मौलाना ने सर सैय्यद को भी पढ़ाया था। उस समय आजमगढ़ जिले के मोहम्मदाबाद गोहना कस्बे के निवासी खान बहादुर मोहम्मद करीम अलीगढ़ में डिप्टी कलेक्टर थे। वह शिबली के पिता के परिचित थे। वह कालेज की प्रबंध-समिति के भी सदस्य थे। शिबली अपने आवेदन के साथ उनके पास पहुँचे। मोहम्मद करीम साहब शिबली को लेकर कालेज के सेक्रेटरी मौलवी समीउल्लाह के पास गये। परिचय के दौरान समीउल्लाह साहब तरुण शिबली से गहरे प्रभावित हुए। वह उन्हें लेकर सर सैय्यद की सेवा में प्रस्तुत हुए। थोड़ी देर बात-चीत के बाद सर सैय्यद के निर्देश पर मौलवी समीउल्लाह ने शिबली के नाम नियुक्ति पत्र जारी कर दिया। यही शिबली की सृजनात्मक जीवनयात्रा का प्रस्थान बिंदु था।
शिबली का अलीगढ़ प्रवास लगभग सोलह वर्षों का था। इसका उपयोग उन्होंने अपने आपको बौद्धिक रूप से समृद्ध करने में किया। धर्म, संस्कृति, इतिहास और राजनीति के विविध पक्षों और उनकी बारीकियों को उन्होंने यहीं पर समझा। पाश्चात्य दर्शन और साहित्य का गहन अध्ययन उन्होंने यहीं पर किया। उनका सृजनात्मक लेखन यहीं परवान चढ़ा। अपने एक भाषण में उन्होंने मोहम्मडन ओरियंटल कालेज अलीगढ़ की अपनी उपलब्धियों के योगदान का उल्लेख करते हुए कहा था - ''...मैंने जो कुछ सीखा है और जो भी तरक्की की है वह इसी कालेज की बदौलत की है। ...मैं जिस तरह इस कालेज का एक प्रोफेसर हूँ उसी तरह इसका एक तालिब इल्म भी हूँ।''
दरअसल शिबली इस कालेज में ही शिबली बने। कालेज में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़े कई अंग्रेज विद्वान प्राध्यापक थे। इनमें थियोडोर बेक, हैराल्ड कॉक्स, वाल्टर रैले, थिओडोर मॉरिसन और टी.डब्ल्यू. आर्नाल्ड प्रमुख थे। शिबली ने टी.डब्ल्यू. आर्नाल्ड को अपनी प्रकृति के सर्वथा अनुसार पाया। शीघ्र ही दोनों में गहरे मैत्री सम्बंध विकसित हो गये। शिबली ने आर्नाल्ड के सम्पर्क से बहुत कुछ सीखा। उनके अध्ययन में गहराई और व्यापकता, आर्नाल्ड के साथ विचार-विमर्श के फलस्वरूप ही आयी। आधुनिक युग की समझ विकसित करने के लिए उन्होंने पश्चिम के लेखकों और विचारकों का विशद अनुशीलन किया। आर्नाल्ड के साथ सम्पर्क और पश्चिमी साहित्य के अध्ययन के कारण ही वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि - ''यह महज तलवार (या तोप) ही नहीं थी जिससे योरोप ने दुनिया पर विजय प्राप्त की थी।'' उनका तात्पर्य था योरोप के साहित्य में नये युग की चुनौतियों को स्वीकार करने की अपूर्व क्षमता थी जब कि दुनिया के अधिकांश देश मध्यकालीनता से जकड़े हुए थे।
शिबली ने आर्नाल्ड को ''योरोप के प्रशंसनीय चरित्र का एक जीता जागता उत्कृष्ट उदाहरण'' पाया था। अलीगढ़ में आर्नाल्ड ने ''प्रीचिंग्स ऑफ इस्लाम'' (इस्लाम के उपदेश) नाम से एक पुस्तक लिखी। सम्भवत: किसी पश्चिमी विद्वान द्वारा इस्लाम पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक थी। पुस्तक में आर्नाल्ड की स्थापना थी कि इस्लाम का प्रसार विश्व में मुख्यत: शांतिपूर्ण ढंग से ही हुआ। सन् 1855 में ऑर्नाल्ड अलीगढ़ से लाहौर आ गये थे। उन्नीस वर्षीय इक़बाल जब गर्वन्मेन्ट कॉलेज लाहौर में पढऩे आये तो वहाँ आर्नाल्ड पहले से ही मौजूद थे। अरबी, अंग्रेजी साहित्य तथा दर्शन शास्त्र की पढ़ाई युवक इक़बाल ने ऑर्नाल्ड के मार्गदर्शन में ही पूरी की थी। ऑर्नाल्ड की आत्मीयता और इस्लाम की उनकी गहरी समझ से इकबाल अभिभूत थे। आर्नाल्ड ने ही इकबाल को उच्च शिक्षा हेतु योरोप जाने की प्रेरणा दी थी। अंतत: सन् 1904 में जब ऑर्नाल्ड ने लंदन रवाना होने के लिए लाहौर छोड़ा तो इकबाल ने 'नालये फ़िराक' (वियोग का आर्तनाद) शीर्षक से उस अवसर पर एक बड़ी मार्मिक नज़्म लिखी। उसकी कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

''जा बसा मगरिब1 में आख़िर ऐ मकां तेरा मकीं2
आह, मश्रिक3 की पसंद आई न उसको सरज़मीं
आ गया आज इस सदाकत4 का मेरे दिल को यकीं
जुल्मते शब5 से ज़ियाए रोज़े फुर्कत6 कम नहीं।''

शिबली, इक़बाल और उनके जैसे अनेक शिष्यों तथा सहयोगियों की स्मृति में ऑर्नाल्ड एक लम्बे अरसे तक रचे-बसे रहे। जनवरी-फरवरी सन् 1982 में शिबली मलेरिया के आक्रमण से उबर रहे थे। स्वास्थ्य लाभ के लिए अप्रेल में उनकी योजना कश्मीर जाने की थी। इसी बीच उन्हें पता चला कि ऑर्नाल्ड अप्रेल में ही लंदन जा रहे थे। एक अर्से से शिबली की इच्छा रोम, सीरिया, मिस्र, िफलिस्तीन और तुर्की की यात्रा करने की थी। शिबली ने ऑर्नाल्ड से अपनी इस इच्छा का ज़िक्र कई बार किया था। अन्तत: प्रो. ऑर्नाल्ड के साथ वह 20 अप्रेल 1892 को अपनी सुनियोजित अभीष्ट यात्रा के लिए निकल पड़े। लगभग साढ़े छ: माह के अपने इस यात्रा-प्रवास के दौरान शिबली ने कुस्तुन्तुनिया, बेरूत, यरूशलम और काहिरा में विशेष समय बिताया। कुस्तुन्तुनिया, काहिरा और बेरूत के पुस्तकालयों में ज्ञान का अपूर्व समृद्ध भण्डार पाया। उनके दिमाग़ में एक अर्से से कई पुस्तकों की योजनाएं रुपाकार ग्रहण कर रही थीं। उनके लिए उन्होंने उक्त पुस्तकालयों से मूल्यवान सामग्री एकत्रित की। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई ग्रंथों की दुर्लभ पाण्डुलिपियों का अवलोकन भी किया। यात्रा के दौरान वह कई जानकार और सम्वेदनशील लोगों के सम्पर्क में आये। उन्होंने इस बीच जो कुछ देखा, सुना और पढ़ा उनके फलस्वरूप उनके मन में अंग्रेजों के प्रति वितृष्णा और नफरत का भाव जिस अनुपात में बढ़ा लगभग उसी अनुपात में तुर्की के प्रति उनके सम्मान-भाव में अभिवृद्धि भी हुई। सन् 1892 के नवम्बर के उत्तराद्र्ध में शिबली बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से भलीभाँति समृद्ध होकर हिन्दुस्तान लौटे। साथ ही वह अपनी कई विचाराधीन पुस्तकों के लिये सामग्री भी ले आये। अब शिबली को अनुभव होने लगा कि मुसलमान विद्यार्थियों के लिए एक ऐसा पाठ्यक्रम अपेक्षित है जिसमें नये  और पुराने दोनों का समन्वय हो।
सन् 1893 के उत्तरार्ध में कुछ उदार मुस्लिम धर्म-वेत्ताओं द्वारा कानपुर में नदवतुल उल्मा नामक एक संस्था की स्थापना की गयी। पुरानी इस्लामी शिक्षा व्यवस्था में सुधार और विभिन्न इस्लामी सम्प्रदायों के मतभेदों को सुलझा कर उनमें एकता की भावना पैदा करना इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य थे। शिबली को लगा कि नदवतुल उल्मा के और उनके उद्देश्य समान थे। उसके मंच का उपयोग कर अपने विचारों को अमली जामा पहनाने के लिये अब वे कृतसंकल्प थे। शिबली की विद्वता और लेखन की ख़्याति से हिन्दुस्तान का प्रबुद्ध मुस्लिम समाज इस समय तक भलीभांति परिचित हो चला था। जब उन्होंने इस नवगठित संस्था की सदस्यता की इच्छा व्यक्त की तो उसके संस्थापकों ने उनका उन्मुक्त भाव से स्वागत किया। संस्था की सदस्यता ग्रहण करने के बाद शिबली न केवल उसकी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे, बल्कि उससे जुड़ी जिम्मेदारियों का अधिक से अधिक निर्वाह भी करने लगे। नदवतुल उल्मा के कामों में जैसे-जैसे व्यस्त होते गये वैसे-वैसे सर सैय्यद और उनके अलीगढ़ आंदोलन से वह दूर होते गये।
नदवतुल उल्मा का एक वर्ग इस बीच यह मानने लगा था कि शिबली संस्था के हर छोटे-बड़े काम खुद ही करना चाहते थे और किसी दूसरे को उभरने का मौका नहीं देना चाहते थे। वह जानते थे कि इन आरोपों में कत्तई सच्चाई नहीं थी। अपने विरुद्ध बनते इस वातावरण से उद्विग्न सम्वेदनशील शिबली ने अपने विश्वस्त स्नेह भाजन मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को लिखा था - ''... मैं आजकल बड़ी परेशानी में हूँ। ... (मेरे खिलाफ) रिपोर्टें तैयार हो रही हैं। लेख लिखे जा रहे हैं। अपराध सूची तैयार हो गयी है।'' ...इन सब कामों के चीफ एडीटर शाह साहब हैं। उन्होंने यहाँ स्थायी डेरा डाला हुआ है। ये तमाम काग़जात सदस्यों के पास भेजे जायेंगे और मुझे विधिवत निकालने का आंदोलन छेड़ा जायेगा।''
पर शिबली और प्रतिभा, विद्वता और सौम्य-शालीन व्यक्तित्व के सामने नदबा के उनके विरोधी बौने साबित हुए। नदवतुल उलूम पर उनका वर्चस्व दृढ़तर होता गया। संस्था ने भी उनकी बौद्धिक क्षमता और रचनात्मक ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करने में अपना गौरव और सौभाग्य समझा। अब शिबली का मन अलीगढ़ से उचट चला था। उनकी इच्छा थी कि यदि हैदराबाद राज्य से उन्हें कोई वृत्ति मिल जाये तो वह अलीगढ़ की नौकरी छोड़ दें। इस उद्देश्य से वह अगस्त 1896 में हैदराबाद पहुँचे। वहाँ के प्रधानमंत्री और कुछ वरिष्ठ अधिकारी उनके काम और नाम से परिचित थे। उनके सौजन्य से शिबली को 100 रुपये प्रति मास की वृत्ति स्वीकृत हो गयी। उसके साथ शर्त थी कि उनकी भावी रचनायें हैदराबाद के संस्कृति विभाग की योजना ''सिलसिला-ये-आसिफया'' के अंतर्गत प्रकाशित होंगी। अब वह जीविका की चिंता से मुक्त थे। अंतत: सन् 1898 के आख़ीर में उन्होंने अलीगढ़ कॉलेज से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वह कई माह बीमार रहे। नवम्बर सन् 1900 में उनके पिता का देहान्त हो गया। इस कारण पारिवारिक जिम्मेदारियां काफी बढ़ गईं। उन्हें लगा कि सौ रुपये प्रतिमाह की वृत्ति में बढ़े हुए पारिवारिक दायित्व का निर्वाह कठिन था। अत: अब उन्हें नियमित नौकरी की ज़रूरत शिद्दत से अनुभव होने लगी। फलस्वरूप सन् 1901 के प्रारंभ में वह हैदराबाद पहुँचे। उस समय हैदराबाद में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी थी।  हैदराबाद के निज़ाम मीर महमूद अली खां और उनके प्रधानमंत्री (वज़ीरे आज़म) नवाब वक़ार उल उमरा के बीच गहरा मतभेद पैदा हो गया था। यह मतभेद अनबन और मनमुटाव की स्थिति तक पहुँच गया था। इसके फलस्वरूप जो वज़ीरे आलम के कृपापात्र थे वो निज़ाम के कोप शिकार हुए। नतीज़तन सामान्य स्थिति के लिए शिबली को कई माह प्रतीक्षा करनी पड़ी। अंतत: चार सौ रुपये प्रतिमाह पर 22 मई सन् 1901 को उनकी नियुक्ति रियासत के संस्कृति-विभाग के अंतर्गत साहित्य-कला निदेशक (निज़ामत सर रिश्ता-ये-उलूमो फ़नून) के पद पर हो गयी। इस पद  पर वह फरवरी सन् 1905 तक जुड़े रहे। हैदराबाद प्रवास के दौरान शिबली ने 'अलग़ज़ाली', 'इल्मेक़लाम', और 'मवाज़नाये अनीसोदबीर' जैसी अनेक कृतियों की रचना की।
मार्च 1905 में शिबली लखनऊ आ गये। यहाँ वह सन् 1913 के अंत तक दारूल उलूम नदवतुल उलमा के शिक्षा सचिव के पद पर रहे। संस्था की उन्नति और सुधार के लिये उन्होंने कई महत्वपूर्ण कदम उठाये। पुराने पाठ्यक्रम का आधुनिकीकरण किया। एच्छिक भाषा के रूप में हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा की व्यवस्था की। यह शिबली की दूरदृष्टि का ही परिणाम था कि पहली बार किसी इस्लामी शिक्षण-संस्था में हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा का प्रबंध किया गया। आधुनिक अरबी में लेखन और भाषण कौशल का अधिक से अधिक छात्रों को प्रशिक्षण देने की उन्होंने कारगर योजना तैयार की। शिबली शोध और संपादन का महत्व भली भाँति समझते थे। इस दृष्टि से जहाँ एक ओर उन्होंने नदवा के पुस्तकालय को नये-नये उच्चकोटि के ग्रंथों में समृद्ध किया वहीं दूसरी ओर प्रतिभावान छात्रों को शोध और संपादन के क्षेत्र में प्रशिक्षित कर उनका एक महत्वपूर्ण समर्पित वर्ग तैयार किया। यह वर्ग आगे चलकर संस्था के लिये अत्यंत मूल्यवान साबित हुआ। उन्होंने एक उच्च कोटि की शोध-पत्रिका 'अल-नदवा' का प्रकाशन भी प्रारंभ किया। उनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप सरकार ने संस्था के स्थायी भवन के लिये भारी राशि अनुदान स्वरूप स्वीकृत की। भवन निर्माण के लिये एक भव्य शिलान्यास समारोह आयोजित किया गया। जब तक शिबली संस्था के सचिव पद पर रहे उसकी चहुँमुखी प्रगति के लिये पूरे समर्पण भाव से कार्यरत रहे। पर उनके कामों और उनकी लोकप्रियता से संस्था का एक प्रभावशाली वर्ग उनसे ईष्र्या करने लगा था। उसने उनके विरुद्ध दुष्प्रचार शुरु कर दिया था। अब उनके लिये इन विपरीत परिस्थितियों में काम करना कठिन हो गया था। अंतत: उन्होंने सन् 1913 की जुलाई में संस्था के शिक्षा सचिव पद से इस्तीफा दे दिया।
मई 1907 में उनके साथ घटी एक अत्यंत दुखद घटना का उल्लेख आवश्यक है। वह आज़मगढ़ अपने घर रुककर अपनी विख्यात पुस्तक 'शेरुल अलम' लिख रहे थे। किसी काम से थोड़ी देर के लिये घर के अंदर गये। बहू अंदर बंदूक साफ़ कर रही थी। दुर्भाग्य से बंदूक चल गयी। गोली शिबली के पैर में लगी। फलस्वरूप एक पैर को पिंडली से काटना पड़ा। यह एक भीषण दुर्घटना थी। पर शिबली ने इसे अपने ऊपर विनोद का एक साधन बना लिया था। इसका एक उदाहरण ध्यान देने लायक है। अकबर इलाहाबादी ने उन्हें एक बार खाने पर नियंत्रित किया। इस पर मौलाना ने अपनी कृतज्ञता के साथ विवशता व्यक्त करते हुए लिखा -

''आज दावत में न आने का मुझे भी है मलाल,
लेकिन असबाब कुछ ऐसे हैं कि मजबूर हूँ मैं।
लेकिन अब वो नहीं कि पड़ा फिरता था,
अब तो अल्लाह के अफ़ज़ाल से तैमूर हूँ मैं।''

शिबली ने साहित्य की हर विधा को अपने अवदान से समृद्ध किया। इनमें हज़रत मुहम्मद साहब की जीवनी 'सीरतुन्नबी' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दुर्भाग्य से यह कृति वह पूरी नहीं कर पाये। 15 अगस्त सन्1914 को उनके छोटे भाई इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील मुहम्मद इसहाक का देहांत हो गया। यह शोक उनके लिये बहुत भारी साबित हुआ। 'सीरतुन्नबी' सहित अपनी अधूरी साहित्यिक योजनाओं को पूरा करने के उद्देश्य से अब वो लखनऊ से आज़मगढ़ आ गये। आजमगढ़ में 'दारुल मुसन्नफीन' नामक एक संस्था की स्थापना की योजना पर भी उन्होंने काम शुरु कर दिया था। पर उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। लगभग साढ़े सत्तावन साल की आयु में 18 नवंबर 1914 को उनके अद्भुत रचनाशील कर्ममय जीवन का अंत हो गया। उनके निधन पर मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने 'अल हिलाल' में लिखा - ''निहायत रंजो-अफ़सोस के साथ शम्सुल उल्मा मौलाना शिबली के निधन की खबर दर्ज़ की जाती है। इस शोक को व्यक्त करने के लिए सि$र्फ यह दुख की घड़ी काफी नहीं है, बल्कि 'अल हिलाल' का एक समूचा अंक भी इसके लिये काफ़ी नहीं होगा। इस वक़्त रोना यह है कि हम दिल खोकर इस महान शहीद का शोक भी नहीं मना सकते। इसलिए हम अपने भीतर उमड़ते हुए ज्वार को किसी दूसरे अवसर के लिये स्थगित करते हैं। दु:खी जनों के शोक के लिये कोई समय निश्चित नहीं होता।''
शिबली के देहान्त के बाद भी मौलाना आज़ाद की रुचि 'दारुल मुसन्नफ़ीन' में निरंतर बनी रही। उसे वह एक व्यापक उद्देश्य वाली संस्था बनाना चाहते थे जो कि दारुल उलूम नदवतुल उल्मा से भी बेहतर हो। शिबली के निधन के तीन दिन बाद 21 नवंबर 1914 को उनके प्रिय शिष्य मौलाना हमीदुद्दीन फर्राही और सैय्यद सुलेमान नदवी ने 'दारुल मुसन्नफीन' के अधूरे काम को पूरा करने का सफल प्रयास किया। नवनिर्मित इस संस्था के पहले अध्यक्ष के रूप में मौलवी हमीदुद्दीन फर्राही ही चुने गये। सचिव और प्रबंधक के रूप में मौलाना सुलेमान नदवी और मौलाना मसूद अली नदवी का चयन किया गया। इनके अथक परिश्रम के फलस्वरूप आज 'दारुल मुसन्नफीन' भारतीय महाद्वीप में इस्लामी शोध और अध्ययन की एक उत्कृष्ट संस्था के रूप में समादृत है।
शिबली का लेखन इतना विपुल और वैविध्यपूर्ण है कि उस पर एक विहंगम दृष्टि भी इस छोटे से आलेख में सम्भव नहीं है। दरअसल एक पुस्तक भी इसके लिये अपर्याप्त सिद्ध होगी। यहाँ यह अभीष्ट भी नहीं है। शिबली सर सैय्यद के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के दूसरे मुसलमान चिन्तक हैं जिन्होंने आधुनिकता की आहट को पहचानने में जरा भी देर नहीं की। समावेशी राष्ट्रीयता के विकास में उनके योगदान पर विचार अभी निश्चय ही होना बाकी है।
शिबली एक स्वतंत्र-चेता विचारक थे। जहाँ वह एक ओर सर सैय्यद के आधुनिक शिक्षा सम्बंधी विचारों से सहमत थे वहीं वह उनके राजनीतिक विचारों से पूरी तरह असहमत। उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित 'अल असर' (नया युग) नामक पत्रिका के सम्पादक शाकिर मेरठी को स्वयं अपने एक पत्र दिनांकित 23 सितंबर 1912 में लिखा था - ''मैं अपने विचारों में हमेशा स्वतंत्र रहा। मैंने सर सैय्यद के साथ 16 सालों तक काम किया। पर राजनीतिक मामलों में उनसे असहमत रहा और शुरू से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थक था। इस मसले पर मेरी बहस उनके साथ कई बार हुई।''
सर सैय्यद जहाँ धर्म और शिक्षा के क्षेत्र में उदार थे वहाँ राजनीति के क्षेत्र में रूढि़वादी। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही सर सैय्यद उनके उद्देश्यों से असहमत और उसके कटु आलोचक रहे। इसके बर अक्स शिबली यद्यपि कभी भी कांग्रेस के औपचारिक सदस्य नहीं बने, पर उसके अधिवेशनों और बैठकों में जो विचार-विमर्श चलते थे उस पर वह मनन-चिंतन करते रहते थे। उसके सदस्यों में समाज के लगभग सभी वर्गों और धार्मिक समुदायों के लोग थे। शिबली देख रहे थे उसके माध्यम से एक समावेशी भारतीय राष्ट्रीयता के उदय की संभावना आँखें मल रही थी। उन्होंने 'नेशनल' शब्द का प्रयोग दरअसल सन् 1885 में इन्डियन नेशनल कांग्रेस (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) की स्थापना के पूर्व ही शुरू कर दिया था। आज़मगढ़ में 20 जून सन् 1883 को स्थापित अपने स्कूल का नाम उन्होंने 'नेशनल स्कूल' रखा था। इसकी स्थापना मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रचार के उद्देश्य से की गयी थी। जिस तरह की उनकी सोच थी उसे व्यापक स्तर पर तत्कालीन भारतीय मुस्लिम समाज के सामने रखने के लिये एक मंच की ज़रूरत वह शिद्दत से अनुभव कर रहे थे। संयोग से उन्हें एक सहृदय और उदार सज्जन लखनऊ में मिल गये। उनका नाम था सैय्यद मीर जाना। शिबली की प्रेरणा से उन्होंने सन् 1912 में मौलवी वहीदुद्दीन सलीम (1867-1928) के सुयोग्य सम्पादन में 'मुस्लिम गज़ट' नाम से एक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसमें शिबली नियमित रूप से कभी अपने नाम से और कभी छद्म नाम से लिखने लगे। शीघ्र ही यह पत्र उनके विचारों का मुखपत्र बन गया।
समावेशी राष्ट्रीयता सम्बंधी उनके विचारों की दृष्टि से 'मुस्लिम गज़ट' के पहले अंक में, जो फरवरी 1912 में प्रकाशित हुआ था, छपा लेख - मुसलमानों की 'पोलिटिकल करवट' अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह लेख लगातार तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ। सैय्यद सुलेमान नदवी के अनुसार इस लेख ने मुस्लिम राजनीति का रुख शिमला से क़िबला की ओर मोड़ दिया। ज्ञातव्य है कि मुस्लिम लीग की स्थापना शिमला में एक मुस्लिम डेलीगेशन के वॉयसराय से मिलने के बाद 6 सितंबर 1906 को ढाका में हुई थी। सन् 1905 में ही बंगाल का दो हिस्सों में विभाजन हुआ था। यह भारत के आधुनिक इतिहास में दूरगामी महत्व की ऐतिहासिक घटना थी। देश व्यापी प्रबल विरोध के फलस्वरूप इस विभाजन को सन् 1911 में निरस्त कर दिया गया था। इसी के संदर्भ से लेख की शुरुआत होती है। इसके बाद शिबली अंग्रेजी दैनिक 'द पायोनियर' में प्रकाशित एक मुस्लिम स्तंभकार के एक लेख से निम्न पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं - ''चूंकि अब नज़र आता है कि तुर्की और ईरान के कमज़ोर होने की वजह से हमारा फ़ारेन रुतबा कायम नहीं रहेगा, इसलिए हमको हिन्दुओं से मिल जाना चाहिये।''
इस पर शिबली कहते हैं कि ''हिन्दुओं से मुसलमानों का मिलना अच्छी बात है, लेकिन यह हमेशा से अच्छी बात थी और हमेशा अच्छी रहेगी, लेकिन नामानिग़ार न जदीद ज़रूरत बयान की है, वह इस्लाम का नंग है। क्या हमको हमसाये के दामन में इसलिये पनाह लेनी चाहिये कि अब कोई सहारा नहीं रहा? क्या अगर तुर्की और ईरान पुरज़ोर होते तो हमारे हमसाया के मुकाबिले में हमारी मदद करते? क्या शिमला डेपुटेशन की इस फ़ख़्ख़ारी पर अंग्रेज़ों को यक़ीन आ गया था कि हमारा पोलिटकल वजन अपने हमसायों से ज़्यादा है?''
अलीगढ़ मुस्लिम गज़ट में छपे नवाब वक़ारुल मुल्क के लेख- 'हिन्दुस्तान के मुसलमानों की आइन्दाहालत' का विश्लेषण गहरी इतिहास दृष्टि से करते हुए वो लिखते हैं कि उसे वह एक दिलेर मुसलमान की अन्तरात्मा की आवाज़ मान लेते अगर उसमें यह न कहा गया होता कि ''हम नेशनल कांग्रेस में शामिल हो जायेंगे तो हमारी हस्ती इस तरह बरबाद हो जायेगी जिस तरह मामूली दरिया समुद्र में मिल जाते हैं।'' इस पर अल्लामा का जवाब था कि अगर पारसी समाज अपनी महज कुछ लाख जनसंख्या के साथ 19 करोड़ हिन्दुओं तथा 5 करोड़ मुसलमानों के बीच अपना स्वतंत्र अस्तित्व लगातार बनाये रख सकता है, तो 5 करोड़ मुसलमानों को अपनी हस्ती मिट जाने का अंदेशा नहीं करना चाहिए। उन्हीं ने इसके लिए दादाभाई नौरोजी (1815-1917) के ब्रिटिश संसद के पहले हिन्दुस्तानी सदस्य चुने जाने तथा गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915) द्वारा अकेले दम पर 'रिफार्म स्कीम की अज़ीमुश्शान तहरीक़ की बुनियाद डालने' का जिक्र किया है। उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में भारतीय मुस्लिम मानस पर सर सैय्यद का प्रभाव जग जाहिर है। उनके जीवनकाल में ही इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हो गयी थी। जिसके पीछे प्रेरणा और सहयोग अंग्रेजों के भी थे। स्थापना के कुछ वर्षों में ही उसके राजनीतिक तेवर बदलने लग गये थे। सर सैय्यद ने सन् 1857 की बग़ावत में मुसलमानों द्वारा बढ़-चढ़ कर ली गयी भागीदारी का दौर गहरी इतिहास दृष्टि से देखा था। फलस्वरूप उन्हें जिस भीषण दमन का शिकार बनना पड़ा था उसके भी वह प्रत्यक्षदर्शी थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अंग्रेजों के मन में हिन्दुस्तानी मुसलमानों के प्रति सद्भाव पैदा करने में सफलता पायी थी। कांग्रेस के बदलते तेवर से अंग्रेज हुक्मरान भी परिचित, चकित और चिंतित थे। सर सैय्यद यह कदापि नहीं चाहते थे कि भारतीय मुसलमान कांग्रेस से जुड़कर अंग्रेज़ों के कोपभाजन बनें। उन्होंने इसी कारण न तो उससे खुद कोई रिश्ता रखा और ना ही अपने समर्थकों को उससे जुडऩे की राय दी। उदार पश्चिमी शिक्षा का भारतीय मुसलमानों में प्रसार ही दरअसल उनके जीवन का उद्देश्य रहा। सियासत से मुसलमान जितने दूर रहें उतना ही उनके हित में होगा। यह बात उस समय के उत्तर भारत के मुसलमानों के दिलों में घर कर गयी थी। देश और समाज की समस्याओं के प्रति कांग्रेस की चिंता लोग भलीभाँति समझने लगे थे। इसके बर-अक्स सर सैय्यद की मुसलमानों को हिदायत थी कि वो इस नवोदित संगठन से परहेज करें।
सर सैय्यद की हिदायत के बावजूद एक अच्छी खासी संख्या में मुसलमान कांग्रेस से जुड़ रहे थे। उसके वार्षिक अधिवेशनों में न केवल दूसरी जगहों के बल्कि खुद अलीगढ़ तक के प्रबुद्ध और संवेदनशील मुसलमान खुलकर शामिल होने लगे थे। शिबली अपने इस आलेख में व्यंग्य के साथ कहते हैं कि जब कभी मुसलमानों में पोलिटिक्स का जिक्र आता है तो ये देखकर हैरत होती है कि अच्छों से अच्छा तालीमयाफ़्ता मुसलमान भी ग्रामोफोन की तरह इन लफ़्जों को दुहराता है: ''अभी बख़्त नहीं आया है।'' ''अभी हमको पोलिटिक्स के क़ाबिल बनना चाहिये।'' ''अभी सिर्फ तालीम की ज़रूरत है।'' ''हमारी तादाद कम है, इसलिये नया 'उसूले सल्तनत' हमारे मुवा$िफक नहीं है।'' शिबली ने अपने इस लम्बे लेख में 'सियासी' (राजनीतिक) की जगह अंग्रेजी का 'पोलिटिकल' शब्द ही प्रयोग किया है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में कांग्रेस की स्थापना के साथ देश का राजनीतिक माहौल गर्माने लगा था। राजनीति में हिस्सेदारी की बात छिड़ते ही मुसलमान तालीम का राग अलापने लगते हैं। वो बताते हैं कि ऐसा लगता है कि उनके कानों में ''कलीमतुल शहादा'' (इस्लाम में आस्था की घोषणा) की तरह राजनीति के विरुद्ध यह बात बुरी तरह भर दी गयी है कि उसमें मुसलमानों की भागीदारी का समय अभी नहीं आया है। इसकी वजह से मुसलमान इतिहास की मुख्यधारा से कट कर गहरी नींद सो गया है। उनका कहना था कि उनके जागने और राजनीतिक हिस्सेदारी का समय अब आ गया है।
शिबली देश के हिन्दुओं के जाग्रत विवेक और दूरदृष्टि के अनन्य प्रशंसक थे। वो मुसलमानों को हिन्दुओं से सीखने की सलाह देते हैं। वो हिन्दुओं के आत्मत्याग और आत्मबलिदान की विशेषताओं के सटीक उदाहरण देते हैं। इनके आधार पर भावुक शिबली समझाते हैं कि क़ौमो मिल्लत की खिदमत कैसे की जाये? वो बताते हैं कि किस तरह एक स्कूल में तीन सौ हिन्दू बच्चे बावजूद दौलतमंदी के कठोर जीवन का वरण कर तालीम पा रहे हैं। वो ज़मीन पर सोते हैं और साधारण कंबल ओढ़ते हैं। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी क़ौम के हाथों फरोख़्त कर दी है। पूना के 'सरवेन्ट ऑफ इंडिया' सोसाइटी में 29 हिन्दू नौजवान पोलिटिक्स की तालीम पा रहे हैं, जिसके पूरा होने पर वो ताज़िन्दगी 30 रुपये माहवार पर हिन्दुस्तान की ख़िदमत करेंगे। पूने के फर्गुसन कॉलेज के 19 हिन्दू प्रोफेसरों ने महज 75 रुपये प्रतिमाह लेने का आश्वासन दिया है। शहरों के आर्य कॉलेजों और हिन्दू कॉलेजों में कई हिन्दू प्रोफेसर हैं जो बिना किसी मुआवजे के काम करते हैं। ये इबरत अंगेज़ आवाजें, ये पुरजोश नमूने, ये हैरतअंग्रेज वाक़ियात हमारे दिलों में जरा भी जुम्बिश पैदा नहीं करते। इनके बरअक्स मुसलमान ग्रेजुएट कौम के काम में अपनी कीमत जरा भी कम नहीं कर सकते। हमारे आईडियल बी.ए. की डिग्री और उसके बाद सरकारी नौकरी में हैं। वह पूछते हैं कि यह आईडियल कोई भी बड़़ा वलवला दिल में पैदा कर सकता है? क्या इस नज़रिये से कौम में किसी किस्म के जज़्बात पैदा हो सकते हैं? क्या इस जौक़ में फ़र्शे ख़ाक फूलों की सेज बन सकती है?
लेख की दूसरी किस्त 'मुस्लिम गज़ट के 4 मार्च 1992 के अंक में प्रकाशित हुई।
1912 में मुस्लिम लीग की स्थापना का छठवां साल था। शिबली पिछले पाँच वर्षों से उसकी गतिविधियों से परिचित और चिन्तित थे। पूत के पाँव पालने में ही दिखायी पडऩे लगे थे। बंग-भंग को निरस्त किया जा चुका था। इस पृष्ठभूमि में लेख की यह दूसरी किस्त विचारणीय है। इसमें उन्होंने हिन्दुस्तान की भावी राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मुसलमानों की भागीदारी की दशा-दिशा पर निर्भीकता से तर्क संगत विचार किया है। शिब्ली हिन्दुस्तान के मुसलमानों की 'पस्तहौसलगी और बुज़दिली' की वजह उनकी पॉलिटिक्स और पब्लिक लाइफ़ से उदासीनता को मानते हैं। आगे वह बताते हैं कि किस तरह अंग्रेजों ने हमारी पॉलिटिकल लुग़त में ज़ायज आज़ादी का नाम बगावत रख दिया। इनका इशारा सर सैय्यद की ऐतिहासिक पुस्तक 'असबाबे बग़ावते हिन्द' की तरफ था। वह कर्मठ और विज्ञ पारसी-हिन्दू नेताओं और मुसलमान भद्रलोक के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि हिन्दू और पारसी जब कांग्रेस और कौंसिल में जाते हैं तो पूरी तैयारी से लैस होकर जाते हैं। वहां निडर होकर सरकार की नुक़्ताचीनी करते हैं, सवाल पूछते हैं और उसके कामों से असहमति ज़ाहिर करते हैं। इसके बावज़ूद वो कौन्सिल के मेम्बर बने रहते हैं। इसके बर अक्स मुसलमान मुस्लिम एजुकेशनल कान्फ्रेंस तक में जाने से घबराते हैं। कहते हैं कि सर सैय्यद से फ़तवा जारी करवा दीजिये। मुस्लिम लीग की मेम्बरी के लिये वह कलेक्टर साहब बहादुर की इज़ाजत की शर्त रखते हैं।
हम जब इस इख़ि्तलाफ़ हालत का सबब पूछते हैं तो हमारे लीडर यह नाजुक फरक हमको समझाते हैं कि हिन्दू मच्छर हैं, इसलिए गवर्नमेन्ट को उनकी परवाह नहीं है। लेकिन मुसलमान शेरे नयस्तां हैं। उनकी हमाहम से जंगल दहल जाता है। ख़ैर, यह फ़रेब कारी ख़त्म हो चली है। गफ़लत का दौर गुज़र चुका, कौम में एक नया एहसास पैदा हो चला है। अब सि$र्फ यह मुतमईन करना रह गया है कि हमारी नयी ज़िन्दगी का तरीकाये अमल क्या होगा?
शिबली ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग की नीयत और नीति पर इस लेख में बड़ी गहराई से विचार किया है। इसके लिये उन्होंने सन् 1883-1910 के बीच हुए कांग्रेस और लीग के अधिवेशनों में पारित प्रस्तावों का सूक्ष्म विश्लेषण और विवेचन किया है। फलस्वरूप मिले तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपनी दो टूक राय बनायी थी। उनका निष्कर्ष था कि अपने जन्मकाल से ही कांग्रेस ने हिन्दुस्तानियों के राजनीतिक अधिकारों और आन्तरिक स्वायत्तता के लिये अभियान शुरू कर दिया था। इसके बर अक्स लीग के उद्देश्य अत्यंत सीमित थे। शिबली ने 'लीग की पॉलिटिक्स' की मूल समझ को चुनौती दी। लीग उस समय मुट्ठी भर शिक्षित मुसलमानों और ज़मीन्दारों की पार्टी थी। मुस्लिम लीग के अनुसार पॉलिटिक्स में भाग लेने का मतलब था राजद्रोह, जिसका परिणाम मुसलमान भुगत चुके थे। शिबली इस लेख में शासन की पद्धतियों का विवेचन करते हुए  बताते हैं कि हुकूमत का सबसे कदीम तरीका रहा है राजतंत्र, जिसमें बादशाह का हुक्म ही कानून था। दूसरा है खानदान शाही, जो एक कुल के शासन में विश्वास करता है। तीसरा है प्रजातंत्र, जिसमें प्रजा खुद अपने द्वारा चुने गये नुमाइंदों के ज़रिये शासन करती है। इसमें प्रजा शासित और शासक दोनों खुद ही होती है। इसे वह सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानते थे। कांग्रेस और लीग का अंतर स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया था, लीग का उद्देश्य था उन अधिकारों में हिस्सेदारी का दावा पेश करना जो हिन्दुओं ने तीस साल के कठिन संघर्ष के बाद हासिल किये थे।
शिबली अंग्रेज गवर्नमेन्ट की शासन पद्धति पर भी विचार करते हैं। वह बताते हैं कि ब्रिटेन में पार्लियामेन्टरी डेमोक्रेसी (संसदीय प्रजातंत्र) है। उसमें रियाया को इन्तज़ामे हुकूमत में हर किसम का दख़ल है। इज़हारे राय और नुक़्ताचीनी का पूरा हक है। रियाया खुद कानून बनाती है और उस पर अमल करती है। वहाँ की अहम् सियासी पार्टियाँ - लिबरल और कन्जर्वेटिव दोनों इस कानून को मानती हैं। लेकिन ''हिन्दुस्तान आकर इस मसले का रुख बदल जाता है। यह वही नुक़्ता है जहाँ से हिन्दुस्तानियों की पॉलिटिक्स का रवत शुरू होता है। अब सवाल यह है कि क्या एक उम्दा वसूले हुकूमत, एक पुर फख्रे जम्हूरियत, एक बेनज़ीरे कानूने इंसाफ़ सिर्फ इस वजह से कालिब बदलकर अपनी तमाम खुसीसियतें खो देता है कि मुल्क और रंगत बदल गयी है। शासन और प्रशासन के इतिहास के दीप्त नामों का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि क्या इस मुल्क ने अक़बर महान, टोडरमल, अबुल फ़ज़ल, अदुल मुल्क अैर सालार जंग पैदा नहीं किये? समकालीन हिन्दुस्तान के कुछ महत्वपूर्ण नामों - सैयद महमूद बदरुद्दीन तैयब जी, मौलवी अमीर अली, दादा भाई नौरोजी और गोपाल कृष्ण गोखले का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, कि क्या इन लोगों ने अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह योग्यतापूर्वक नहीं किया?
शिबली के पास एक वृहत्तर समावेशी राष्ट्रीय दृष्टि थी। मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक और विभाजनकारी नीतियों के वह निर्भीक और कटु आलोचक थे। उन्होंने गद्य में ही नहीं कविता में भी अपने विचार रखे। उनके व्यंग्य बाण इतने पैने और चुटीले होते थे कि सुनने वाले तिलमिला उठते थे। मुस्लिम लीग के उत्तरप्रदेश के एक प्रमुख नेता होते थे, राजा सर मोहम्मद अली, मोहम्मद खान (1877-1931)। उन्होंने शिबली की मुस्लिम लीग की आलोचना से विचलित होकर कहा था कि वो उन्हें बरबाद कर देंगे। शिबली ने तुर्की-बतुर्की इस धमकाने का जवाब देते हुए कहा था कि वह एक विशाल वृक्ष नहीं थे जिसे तेज़ आंधी उखाड़कर धाराशायी कर देती है। बल्कि वह घास की तरह थे जिस पर से तेज से तेज आंधी बिना कोई हानि पहुँचाये गुज़र जाती है। मुस्लिम लीग की आलोचना में लिखी कविता की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

''हरचंद लीग का नफ़्से वापसी है अब,
इस हस्तिये दोरोजा पे जिसको ग़ुरूर था।
वह दिन गये कि बुतक़दे कहते थे हरम,
वह दिन गये कि ख़ाक दावाये नूर था।''

अल्लामा मुस्लिम लीग की भत्र्सना करते नहीं थकते। वह कहते हैं कि पहले तो मुसलमान पॉलिटिक्स के नाम से बिदकते हैं और कहते हैं कि हमें अभी तालीम की ज़रूरत है। पॉलिटिक्स बाद में। ज्यादा से ज्यादा वो मुस्लिम लीग का नाम आगे कर देते हैं। पर शिबली लीग की हक़ीकत को जानते थे। लीग अक्सर स्वशासी संस्थाओं में मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करती थी। वह उनसे पूछते हैं कि जहाँ उन्हें आरक्षण प्राप्त है वहाँ ही लीग ने कौन सा तीर मार लिया। केन्द्र और सूबों में वायसराय तथा गर्वनरों की काउन्सिलें बनी हुई हैं। उनमें मुसलमानों को पूरा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। उनके मुसलमान सदस्यों ने किस किस्म के सवालात किये? कौन सी इसलाही तज़वीजें पेश कीं? अगर बहस के दौरान कभी इन्होंने उसमें शिरकत भी की तो क्या वह बाज़ारी किस्म की थी या माहिरे फ़न की। इसके बर अक्स हिन्दू मेम्बर तमाम रिकार्डों का मुताअला करता है आदाद वहम बाहम कौंसिल की बैठकों में जाता है और नतीजा खेज सवाल करता है, जो आम आदमियों के दायरे में मालूमात से बालातर होता है। इसके मुकाबिले हमारा पॉलिटिकिल कायम मुकाम कौन्सिल में निहायत ज़ोर शोर से इल्ज़ाम देने के लहजे में सवाल करता है कि गर्वनमेन्ट को क्या मालूम कि फलां मुख्तार खाने में बुला के बैठने के लिए कुरसियों और मोढ़ों का इंतज़ाम है कि नहीं।
शिबली ने एकाधिक बार भावुकता भरे अंदाज़ में कहा है कि पॉलिटिक्स दुनिया का सबसे बड़ा जज़्बा है। वह मज़हब के बराबर ताक़त रखता है। वह इन्सान के तमाम जज़्बात को जिन्दा रखता है। इसमें तमाम कुव्वतें मुशतअल हो जाती थीं। यह  इन्सान के तमाम जज़्बात को जिन्दा रखता है। इसमें तमाम कुव्वतें मुशतअल हो जाती थीं। यह इन्सान में हर तरह के ईसार और ख़ुद फ़रामोशी पैदा करता है। क्या हमारी पॉलिटिक्स ने यह औसाफ एक शख़्स में भी पैदा किये हैं? क्या पॉलिटिक्स के दायरे में आने वाला एक ज़र्रा भी इस बात को महसूस करता है कि वह किस किस्म के नुकसान के लिये तैयार है? क्या हमारे पॉलिटिक्स के तमाशागरों में एक शख़्स भी तैयार हुआ जो सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसाइटी की तरह अपनी तमाम जिन्दगी बावजूद ग्रेजुएट होने के तीस रुपये माहवार पर नज़र कर दे? ''.... दरख़्त फल से जाना जाता है। अगर हमारी पॉलिटिक्स दरअसल (सही) पॉलिटिक्स होती तो जद्दोजेहद और ईसार व खुद फ़रामोशी के जज़्बात ख़ुद बख़ुद पैदा हो जाते।'' आगे इस आलेख में शिबली उदाहरण देकर बताते हैं कि ''इमताद और दराज़ी ज़माने का कोई दखल नहीं है। तरीकये अमल अगर ठीक हो तो पहले दिन से नतायज़ के आसार नज़र आने लगते हैं। तालीम में आज जहाँ हम हैं, साठ सत्तर बरस पहले हिन्दू भी वहीं थे। लेकिन हिन्दुओं ने उस ज़माने में राजा राममोहन राय और केशव चंद्र सेन पैदा कर दिये और आज हम सौ बरस बाद भी इस किस्म की मिसालों की तवक्कों नहीं कर सकते। बम्बई के मुसलमानों में कुछ खास तालीम नहीं, ताहम वहाँ बदरुद्दीन तैय्यब जी पैदा होता है जो कांग्रेस का प्रेसीडेंट हो सकता है।''
''मुसलमानों की अंग्रेज परस्ती और उनकी रईसी, दौलत और ख़िताब की बिना पर उनकी मुस्लिम लीग के सदर पद पर नियुक्ति बिना अन्य योग्यता के जैसे महत्वपूर्ण तथ्यों को रेखांकित करते हुए उन्होंने पूछा, क्या कांग्रेस के सदर के पद पर नियुक्ति के लिए ये मुमकिन है? मुस्लिम लीग के सदर के पद के लिये ऐसे नाम की तलाश की जाती है जिसने पॉलिटिक्स का नाम तक तमाम उम्र नहीं सुना हो। वह मुस्लिम लीग के ऐसे सदरों को जानते थे जिन्हें अंग्रेजी, फारसी, अरबी और उर्दू किसी भी ज़बान का ज्ञान नहीं था। और एन इज़लास के वक़्त जब कोई इनकी तरफ से लिखित प्रेसीडेंटल स्पीच पढ़ रहा होता तो वह बेचारा हैरान होता था कि वह कौन बोली बोल रहा था।
''मुस्लिम लीग की शाखाओं का भी वही हाल है। जब इलाकाई शाखें कायम की जाती हैं तो किसी दौलतमंद के सर पर ये पगड़ी रख दी जाती है। नतीज़ा यह होता है कि पॉलिटिक्स का एक निहायत बुरा नमूना बाजीच ये इत्फाल तैयार होता है।''
शिबली की सोच का दायरा बहुत व्यापक था। उसमें राजनीति के अलावा किसानों की समस्याओं के सरोकार भी शामिल थे। वह चाहते थे कि किसानों की समस्याओं को मुस्लिम लीग अपने उद्देश्यों में सम्मिलित करे। बंगाल की तरह उन्होंने खेती की ज़मीन के इस्तमरारी बन्दोबस्त की तज़वीज पेश की। उन्होंने हर तीस साल पर होने वाले बन्दोबस्त की खामियाँ गिनाई, जिससे किसान दहल जाता है। इस्तमरारी बन्दोबस्त को हिन्दुस्तान के किसानों के लिये रहमत करार देते हुए उन्होंने उसकी वकालत की। अगर ऐसा हो पाया तो यह लीग की मांग के अनुसार चंद मुसलमानों को मौज़ूदा तादाद से ज्यादा नौकरियाँ मिलने से कहीं बेहतर होगा। इन्तज़ामी कामों में गोखले की इस तजवीज़ का शिबली ने समर्थन किया कि जिले के कलेक्टर के मातहत एक छ: मेम्बरों की कौन्सिल क़ायम हो। इसके मशविरे से जिले का इन्तज़ाम अमल में लाया जाये। ज़ाहिर है अपनी तकलीफ का एहसास जितना हमें हो सकता है उतना दूसरों को नहीं हो सकता। बदकिस्मती से ये बिल पास नहीं हो सका। मुस्लिम लीग को इसे अपने कार्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिये। और माडरेट हिन्दुओं के साथ उसकी मंजूरी के लिये संघर्ष करना चाहिए। अल्लामा ने मौलवी अमीर अली की इस तजवीज़ का स्वागत किया कि हिन्दुओं-मुसलमानों के जो मुश्तरका मसले हैं उसके हल के लिए एक मुश्तरका स्टेज कायम हो। वॉयसराय के सामने समस्याओं के हल के लिये जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में हिन्दू और मुसलमान बराबर की तादाद में शामिल हों।
शिबली की यह चिंता अंत तक बनी रही कि मुस्लिम लीग को बड़े ज़मींदारों और इलाकेदारों के चंगुल से कैसे मुक्त कराया जाये, जिससे उसके सदाशय सदस्य आज़ादी और सच्चाई से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकें। इसके लिए उनका सुझाव था कि कुछ लोग ऐसे तैयार किये जायें जो मुसलमानों में पॉलिटिक्स की सही समझ पैदा कर सकें। इसके लिए आसान-जुबान में पैम्फलेट भी तैयार कर बांटे जायें। पर इसके बर अक्स उन्होंने इस पर अफसोस ज़ाहिर किया कि आज कौम का लीडर बनने का यह एक आसान नुस्ख़ा है कि फरीक़ाना जज़्बात को उत्तेजित कर दिया जाये।
हिन्दूओं की सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दुओं ने कभी किसी देश, धर्म और संस्कृति पर हमला नहीं किया। ज़ाहिर है कि हिन्दू कभी ईरान और अरब पर चढ़कर नहीं गये। इसके बजाय उनके मुल्क पर हमने हमला किया। हमने उनके क़ाबा की तरह माने गये सोमनाथ के भव्य मंदिर को बरबाद कर दिया।  हमने बनारस और मथुरा के शिवाले वीरान कर दिये। हिन्दुओं की खानदानी रिवायतें इन जख़्मों को हमेशा हरा रखती हैं। लेकिन जब अकबर ने एक दफा मुहब्बत की निगाह उठाकर इनकी ओर देख लिया तो जख़्म खुर्दा दिल मोहब्बत के चोर थे। बहादुर राजपूतों और मुजाहिरों ने न सिर्फ जान माल बल्कि अपने नंग व नामोस तक हवाला कर दिया यानी बेटियाँ तक दे दीं।
यह अकबर का जबर और राजपूतों का खुशामदाना काम न था। जबर और खुशामद दिल की रगों में घर कर सकते थे। जहांगीर का बेटा जब बाग़ी हुआ तो इसकी माँ ने, जो जयपुर की रानी थी, खुसरो को बहुत समझाया। लेकिन जब वह खलफ़ न माना, तो यह गैरतमंद राजपूतानी यह न देख सकी कि उसकी कोख उसके अपने ही लड़के की बगावत से दागदार हो। उसने अफ़ीम खा ली और मर गयी। जहांगीर पर इस वफादारी का जो असर हुआ खुद उसके अल्फ़ाज में सुनना चाहिये: ''इसके मरने से मुझ पर ऐसे दिन गुज़रे की ज़िन्दगी से मुझे कोई हज़ नहीं मिलता था। चार दिन रात जिसमें बत्तीस पहर होते हैं, खाने-पीने की कोई चीज़ मैं इस्तेमाल नहीं कर सका।''
ये सच्चे जज़्बात, ये हैरतअंग्रेज़ मुहब्बत, ये ज़िगर गुदाज़ असर, खुशामद से नहीं पैदा होते।
अकबर के दरबार के सुतूने आज़म बैरम खां, खाने आज़म कोकताश और बहादुर खां सूबेदार थे। इनमें किसी का दामन बग़ावत के दाग़ से पाक है? लेकिन ये बदनामी किसी हिन्दू राजा ने नहीं उठाई। मानसिंह को किब्ले आज़म यानी महाराणा उदयपुर के मुकाबिले पर भेजा था। महाराजा का प्रताप यह था कि जब तक वह अपने पाँव के अंगूठे से राजाओं की पेशानी पर तिलक नहीं लगाता था तब तक उन्हें राजा नहीं माना जाता था। अकबर के कहने पर मानसिंह उसके ख़िलाफ बेउज्र जंग में गया और महाराणा पर फतह हासिल की।
अकबर से लेकर आलमग़ीर तक किसी दरबारी हिन्दू ने अपने बादशाह के खिलाफ़ कभी बग़ावत नहीं की। हाँ, आलमगीर के खिलाफ़ हिन्दू बेशुबहा तलवार लेकर आगे बढ़े। पर इसलिये नहीं कि वह मुसलमान था, बल्कि इसलिये कि वह शाहजहाँ की मर्जी के खिलाफ़ दाराशिकोह का बाग़ी था। इस वक़्त आलमगीर और दारा शिकोह दोनों हरीफ़ मुक़ाबिल थे। हिन्दुओं ने आलमगीर के मुकाबिले दारा शिकोह का साथ दिया, क्योंकि वह शाहजहाँ का वली अहद था। ऐन मारिका आरा कार ज़ार में जब राजा रूप सिंह (महाराजा उदयपुर का नवासा) फौजियों को चीरता हुआ आलमगीर के करीब पहुँच गया तो ललकार कर बोला, ''अरे तू, दारा का मुक़ाबिला करने चला है?'' इस फिक़्रे का लहज़ा बताता है कि वह हिन्दूपन के जोश में नहीं बल्कि दारा की मुहब्बत से निकला था।
शाहजहाँ के बाद वाज़ एतराफ़ में हिन्दुओं ने बग़ावत की लेकिन यह एक ग़लतफ़हमी पर बनी थी और कोई राजा या महाराजा इसमें शरीक नहीं था और वह बहुत जल्द काफूर हो गयी। आलमगीर दक्कन चला गया था और पच्चीस बरस तक पाया-ए-तख़्त खाली रहा। इस से बढ़कर राजपूत राजाओं के लिये उम्दा मौक़ा न मिलता। वह दिल्ली पर हमलावर होकर कम से कम राजपूताना में अमले बग़ावत बुलन्द करते। लेकिन जयपुर और जोधपुर में जो राजपूतों की ताक़त के मरक़ज थे नक्सीर तक नहीं फूटी। शिवाजी ने अलबत्ता बग़ावत की। सिख भी बाग़ी हुए। लेकिन ये नौख़ेज मुल्की दावेदार थे। इसका बग़ावत से ताल्लुक नहीं था। बल्कि खुदसरी और नई सल्तनत के उभरने वाली कुव्वत थी। दुनिया के जिन लोगों ने अपने दस्तो-बाजू से सल्तनतें क़ायम की हैं, कौन इनको बाग़ी कह सकता है? वरना तैमूर और सिकन्दर से बढ़ कर बाग़ी कौन हो सकता है।
अल्लामा के पास एक गहरी समावेशी इतिहास दृष्टि थी, वह अनेक क्षेत्रों से ऐसे उदाहरण चुन-चुन कर लाकर रखते हैं जिनसे हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव शक्तिशाली बने। वह बताते हैं कि एक बार उन्हें पटियाला की ईदगाह में ईद की नमाज पढऩे का मौक़ा मिला। ईदगाह की इमारत के बहुत अच्छे रख-रखाव को देख कर उन्होंने पूछा कि क्या इसके लिये महाराजा से माकूल इमदाद मिलती थी। उन्हें बताया गया कि न सिर्फ ईदगाह के लिये बल्कि रियासत में बनने वाली हर नई मस्ज़िद की तामीर के वक़्त राज्य के ख़ज़ाने से कम से कम छ: सौ रुपये दिये जाते हैं। ध्यान देने लायक है महाराज सिख हैं जो मुसलमानों का सबसे हरीफ़ फिरका समझा जाता है।
उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में उर्दू के साथ हिन्दी को भी मान्यता देने की मांग शुरू हो गयी थी। इसके फलस्वरूप मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग यह कहने लगा था कि हिन्दू उनकी कौमी ज़ुबान मिटाने पर आमादा थे। अल्लामा भाषा को धर्म से जोडऩे के पक्षधर नहीं थे। वह जानते थे कि कोई भाषा किसी की बपौती नहीं होती। उर्दू जितनी मुसलमानों की है उतनी ही हिन्दुओं की भी। वह पूछते हैं कि आखिर हिन्दू उर्दू को क्यों कर मिटाना चाहेंगे? क्या हिन्दू उर्दू को उसमें उम्दा से उम्दातर मैगज़ीन और रिसाले, मसलन 'अदीब' और 'ज़माना' निकाल कर उसे मिटा रहे हैं? क्या उर्दू मुसन्नफीन की क़दर अफ़जाई करके बहुत से इंसा परवाज़ों में मुसलमान इंशा परवाज़ हिन्दुओं के दोश वदोश चल रहे हैं? 'ज़माना' के अवराक उलटते हुए बारहा मैंने हिन्दू मज़मून निगारों को रश्क की निगाहों से देखा है। क्या इस तरीके से कि पॉलिटिकल मालूमात के लिहाज से उर्दू का बेहतरीन पर्चा 'हिन्दुस्तानी' है जिसे एक हिन्दू एडिट करता है?
इसके मुक़ाबिले में मुसलमानों ने उर्दू परस्ती का क्या सबूत दिया है? मुमालिक मुत्तहदा में उनका कौन सा इल्मी परचा है? इनकी अंजुमने उर्दू किस मर्ज़ की दवा है? उर्दू मुसन्नफीन की किस तरह क़दरअफ़जाई की जा रही है?
(दरअसल) हिन्दुओं का सबसे बड़ा जुर्म नेशनल कांग्रेस कायम करना था, जिसमें दोनों गिराहों की हद फासिल कायम कर दी है। लेकिन सवाल यह है कि अगर मुसलमान अपाहिज बने बैठे रहे और अगर वह भी ख़ौफ खाते रहे, अगर इनकी वॉयसराय की काउन्सिल में बैठने की बजाय लौंडों के साथ मक़तब में बैठना ज़्यादा पसंद था, अगर इसमें किसी किस्म का अज़म, हौंसला, हुकूक तलबी न थी तो क्या हिन्दुओं का यह फ़रज़ था कि वो भी अपाहिज और बेदस्तोपा बन जाते। इन तमाम ख़्यालात से अगरचे फ़रजी रहबरों का गिरोह मुख़ालिफ़ है, लेकिन मुख़ालिफ़ का अब नफ़्से वापसी है। क़ौम तीस बरस तक अहमक बन चुकी है, अब इसके हाल पर रहम खाना चाहिये और क़ौम को समझने देना चाहिये कि यह पॉलिटिक्स का स्वांग दरअसल पॉलिटिक्स नहीं है।
लेख के पाँचवें भाग में अल्लामा ने अपने लेखों के मुसलमान बुद्धिजीवियों और मुस्लिम लीग के समर्थकों पर पड़े प्रभाव का जिक़्र किया है। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की है कि उनके विचारों से अक्सर बुजुर्गों ने सहमति प्रकट की है। क़ौम के बाज़ निहायत मुमताज़ लीडरों ने यकीन दिलाया है कि लीग के आने वाले सालाना इज़लास में उसका निज़ाम करीबन बदल दिया जायेगा और लीग इसी क़ालिब में जायेगी। अल्लामा ने जोड़ा कि अगर ये सही है तो हमको लीग की मुख़ालफ़त की कोई वजा नहीं होगी और हम रा ब रो पहले इसके आगे गर्दन झुका देंगे।
शिबली के मुताबिक यह बिल्कुल सच है कि उनके मज़मून बज़ाहिर मीज़ाने अदल एक पल्ला बिल्कुल झुका दिया है। हमने हिन्दुओं की वफ़ादारी और नेकनीयत की क़दर खानी की लेकिन पढऩे वालों पर साथ ही यह असर पड़ता है कि मुसलमान क़ाबिले इल्ज़ाम थे। मुसलमानों की बुतशिकनी का हमने ऐसे अल्फ़ाज़ों का ज़िक्र किया जिससे ज़ाहिर होता है कि हम मुसलमानों को मुज़रिम समझते हैं। मज़मून से मज़मुअी तौर पर यह असर पड़ता है कि हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ जो वफ़ादारी की यह इनका अहसान था, लेकिन मुसलमानों की फैयाज़ी की कीमत चुका कर। लेकिन वाक़िया ये है कि दोनों ख़याल हैं। इस ग़लती की असल वज़ह एक और ग़लती थी। यानी हमने यह फ़रज़ कर लिया कि 'मुस्लिम ग़ज़ट' के तमाम नाज़िरीन हमारे इन मज़ामीन को पढ़ चुके हैं जो आलमगीर और जहाँगीर और मुसलमानों की बेतअस्सुबी के मुतल्लिक शाया हो चुके हैं।
अल्लामा जोड़ते हैं कि मुसलमानों ने जिस क़दर बुतशिकनिया की वह मज़हबी तअरसुब से न थी, बल्कि इसकी वजह यह थी कि उस ज़माने में मज़हब और पॉलिटिक्स मख़लूत थे। यानी हरीफ़ की मुल्की ताकत का मिटाना बगैर इसके मुमकिन नहीं हो सकता था कि इसकी मज़हबी ताक़त को मग़लूब कर दिया जाये। आज ऐसे रोशन ज़माने में भी अंग्रेज वॉयसराय को महंदी सौदाना की क़ब्र को इसी गरज से उखाड़ कर बर्बाद कर देनी पड़ी। हिन्दुओं ने इसी ज़रूरत से अपने ज़माना-ए-अख़ि्तयार में सैकड़ों मस्ज़िदें बर्बाद कीं। इसी बिना पर मुसलमानों ने हमले के वक़्त बुतखाने गिराये। लेकिन अमनो अमान और तसल्लुत के बाद कोई बुतखाना नहीं गिराया गया। जो बुतख़ाने गिराये गये उनके पॉलिटिकल असबाब थे। शिबली ने अपने लेख की सीमा बताते हुए पाठकों को सुझाव दिया कि वह तफ़सील के लिये कम से कम मज़ामीन आलम गीर मतबूआ कानपुर को एक दफ़ा मुलाहिज़ा फ़रमा लें। हिन्दुओं ने जो कुछ मुसलमानों के साथ किया, वह उनका एहसान न था, बल्कि हमारे एहसानात और फ़ैयाजियों की कीमत थी। और यह कहना मुश्किल है यह कीमत असल माल के बराबर थी या नहीं?
अल्लामा आगे हिन्दुओं की वफ़ादारी का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए कहते हैं कि इसकी शुरुआत अकबर से होती है। इसलिये इसे तफ़्सील से सुनना चाहिये कि इस वाक़िये की शुरुआत क्यों कर हुई और किस तरह से इसने दुनिया में वुसअत हासिल की।
अल्लामा बताते हैं कि हुमायुँ के ज़माने में अम्बेर, जयपुर से चन्द मील पर वाक़े एक छोटी सी रियासत थी। यहाँ का राजा पृथ्वीराज कछवाहा था। हुमायुँ के मर जाने के बाद जा बजा जो बग़ावत बरपा हो गई इनमें हाजी चाँद खां ने जो शेर खाँ का गुलाम था नरनौल का मुहासरा किया। इस मुहासरे में पृथ्वीराज का बेटा भारमल शरीक था। नरनौल पर मजनूँ खाँ काबिज़ था जो हमायूँनी उमरा में एक था। राजा भारमल ने मजनूँ खाँ से दोस्ताना नामा और पैग़ाम करके नरनौल को ले लिया और मजनूँ खाँ को इज़्ज़त व आबरू के साथ रुख़सत कर दिया। जब अकबर ने कारोबार सम्भाला तो मजनूँ खाँ ने राजा भारमल के औसाफ़ अकबर से बयान किये। अकबर लियाकत और क़ाबिलियत का आम कद्रदां था। फौरन तलबी का फ़रमान गया और तख़्तनशीनी के पहले ही साल राजा मज़कूर ने मुलाज़िमत शाही हासिल कर ली। एक मौके पर जब अकबर मस्त हाथी पर सवार होकर निकला तो हाथी जिस ओर रुख करता था लोग हट जाते थे। इत्तफाक से हाथी राजा भारमल की तरफ झुका। राजा मय अपने राजपूतों के अपनी जगह जमा रहा। अकबर दिलेराना अदाओं का शैदा था। बे इख़ि्तयार राजा की तरफ देखकर बोला, ''तुझको निहाल कर दूँगा।''
सन् 1596 के एक जुलूस में... राजा के भतीजे राजा शूजा ने शिरक़त की थी, इसलिए अजमेर के सूबेदार ने इसको शिकस्त देकर चाहा कि अम्बेर पर कब्ज़ा कर ले। राजा भारमल ने पहाड़ों में जाकर पनाह ली। इसी साल अकबर अजमेर की ज़ियारत को गया और जब उसको यह हाल मालूम हुआ तो राजा भारमल को बुला भेजा। राजा ने सांगनेर में आकर बरयाबी हासिल की और पहले ही दरबार में अकबर ने उनको इनामात और क़द्रदानियों से इस कदर •ौरवार कर दिया कि राजा ने खुद कराबत की दरख़्वास्त की। अकबर ने मंजूर किया। सांभर में शादी की रस्में हुईं और राजा की लड़की हरमशाही में दाख़िल हुई। राजपूतों और तैमूर खून की अमीज़श का यह पहला दिन था। राजा भारमल के बाद उसका बेटा भगवन्त दास उसका जाँनशीन हुआ। अकबर ने इसकी बेटी से शाहज़ादा सलीम (जहाँगीर) का उक़द किया।
अकबर ने दुल्हिन की जो इज़्ज़त अफजाई की दुनिया की तवारीख़ इसकी कोई मिसाल पेश नहीं कर सकती। हम अपने नाज़रीन को इज़ाजत देते हैं कि वह अपनी निगाह को वुसअत दें और देखें कि तायर वहम भी इस हद तक पहुँच सकते हैं? क्या दुल्हन पर ज़र व जवाहर निसार किये गये? क्या तमाम रास्ते में मख़्मल के कम ख्बाम के पा अन्दाज़ डाले गये? क्या दो करोड़ का मेहर बंधा? हाँ ये सब हुआ, लेकिन यह कोई चीज़ न थी। अकबर उस समय दुनिया का सबसे बड़ा बादशाह था और शाहज़ादा जो आगे चलकर जहाँगीर हुआ, शाहज़दगी में भी वह शाहंशाहों के बराबर था। दोनों दुल्हन के महाफा को कहार बनकर अपने कंधे पर लाये। क्या हिन्दुओं में किसी राजा-महाराजा ने अपनी बहू को यह इज्जत दी है? क्या खुद अकबर ने शहज़ादियाने तैमूर के लिये यह नंग गवारा किया?
अकबर व जहाँगीर व शाहजहाँ वगैरह के एहसानात सिर्फ सोशल एहसानात न थे। पॉलिटिकल एहसानात इससे ज्यादा थे। सच तो यह है कि किसी क़ौम ने अपनी मफ़्तूह क़ौम में यह इज़्ज़त, यह हुकूक, यह दर्ज़ा कभी नहीं दिया। आज कलक्टरी और कमिश्नरी के ओहदे के लिये मुंतहाये खयाल है, लेकिन तैमूरियों ने  वज़ारते-ए-आजम और सिपहसालार तक के ओहदे हिन्दुओं को दिये।
ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक लेखन को पहली बार शिबली द्वारा ही पठनीय साहित्यिक भाषा मिली। उनके पहले इन विषयों पर जो थोड़ा बहुत लेखन था उसकी भाषा काफी हद तक नीरस, अपठनीय और उबाऊ होती थी। शिबली ने उर्दू में बौद्धिक विमर्श की भाषा की दशा और दिशा निर्धारित की। उनके द्वारा लीग की आलोचना का उसकी नीतियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। उनकी आलोचना के फलस्वरूप ही मुस्लिम लीग देश की राजनीतिक मुख्य धारा की ओर उन्मुख हुई। वह सर्वप्रथम मुस्लिम बुद्धिजीवी थे जिसने मुस्लिम लीग की प्रारंभिक अलगाववादी नीतियों का विरोध किया। वह आजीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता और पारस्परिक सद्भाव के प्रबल समर्थक बने रहे। वह एक ओर मुसलमानों में राजनीतिक चेतना जाग्रत करने में सफल रहे और दूसरी ओर उन्होंने मुसलमानों की बेहतर सेवा के लिये मुस्लिम लीग को प्रवृत्त किया।
शिबली का स्वभाव शुरू से ही साहसी, निडर, प्रजातांत्रिक और उपनिवेश विरोधी रहा। यही विचार और मूल्य उन्होंने अपने लेखन द्वारा मुसलमानों के मन में बैठाने की लगातार कोशिशें कीं। सामान्य मुस्लिम जनता के अलावा उनके लेखन ने अनेक मुसलमान बुद्धिजीवियों और विद्वानों को भी गहराई से प्रभावित किया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले मौलाना शौकत अली और मौलाना जफ़र खाँ को शिबली के लेखन और भाषण से गहरी प्रेरणा मिली। दरअसल अपनी राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिकता विरोधी सोच की मशाल उन्होंने अपने युवतर बौद्धिक उत्तराधिकारियों मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना शौक़त अली, मौलाना जफ़र अली ख़ाँ और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे तरुणों के सुयोग्य हाथों में पकड़ा दी, जिन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया।
शिबली का देहांत नवम्बर सन् 1914 में हो गया था। गांधी जी स्थायी रूप से भारत में रहने के लिये जनवरी सन् 1915 में आये थे। शिबली के लेखन में गोपाल कृष्ण गोखले का सम्मानपूर्ण ज़िक्र तो सर्वाधिक बार मिलता है पर उनके गांधी जी से परिचय के संकेत कहीं नहीं मिलते। पर शिबली जैसा प्रबुद्ध बुद्धिजीवी गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका के कारनामों से सर्वथा अपरिचित रहा हो यह सम्भव प्रतीत नहीं होता। यदि नियति ने शिबली को जीवन के कुछ और वर्ष दिये होते तो वह गांधी जी के विचारों और जीवन से अपने अधिक निकटतर किसी को भी न पाते। अपने आदर्शों और मूल्यों को गांधी के जीवन में चरितार्थ होते देख कर उन्हें परम संतोष होता।
शिबली पर इस आलेख के उपसंहार के लिये उनके सुयोग्य शिष्य मौलाना सैय्यद सुलेमान नदवी की उन पर लिखी फ़ारसी कविता के निम्नलिखित उद्धरण से अधिक समीचीन और कुछ प्रतीत नहीं होता -
''शिबली ज़िखी ले ज़मज़मा संजा हशम गिरफ़्त,
वा ई कि है च मो न जिखी लो हशम न दाश्त।''


(दुनिया के तमाशगाह में जौहर उन्होंने दिखाये, यक़ीन है कि दुनिया एक ज़माने तक उसकी मिसाल पेश नहीं कर सकेगी।)

1. पश्चिम, 2. निवासी, 3. पूरब, 4. सत्यता, 5. रात का अंधकार, 6. विरह के दिवस का प्रकाश


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