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अप्रैल - 2016

कविता का शहर

राजेश जोशी

आलेख






                     स्वाधीन भारत का नगर-बोध: नई नागरिकता और शहर बनाम गाँव

स्वाधीनता के बाद की हिन्दी कविता का नगर-बोध उसे अनायास प्राप्त नहीं हो गया। उसके पीछे भारत में नगरीकरण का पाँच हजार वर्ष का प्रदीर्घ इतिहास और पौराणिक और क्लासिक कविता में नगर-छवियों की स्मृतियों की भूमिका भी है। एक हद तक उस लोक साहित्य की भी, जिसमें औपनिवेशिक काल में बसाये गये औद्योगिक नगरों में रोज़गार के लिये गांवों से होने वाले विस्थापन की विचलित करने वाली यादें मौजूद हैं। यहां तक कि गिरमिटिया बना कर ले जो गये मजदूरों की स्मृतियाँ तो सौ दो सौ साल बाद आज भी पीछा कर रही हैं। लेकिन यह उस कविता के नगर-बोध का ही फैलाव या प्रसार है, ऐसा मानना गलत होगा। अपने अतीत की सारी अनुगूंजों के बावजूद स्वाधीनता के बाद की कविता ने अपने नगर-बोध को कठिन और सचेत प्रक्रियाओं से गुजरते हुए अर्जित किया है। भू-दृश्य, जीवन में अस्तित्व के संघर्ष और अधिक से अधिक नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के दुर्घर्षों के साथ ही राष्ट्र-राज्य की बदलती हुई संरचनाओं ने भी उसे निर्धारित किया है। इस तरह नगर-बोध और उसकी ज्ञानात्मक संवेदना की बनावट में फर्क भी आया है और उसका विस्तार भी हुआ है।
गणसंघ प्रणाली के बारे में जैसा कि रोमिला थापर का मत है कि अभिजात होना और वंशानुगत भू-संपत्ति नागरिकता के लिए आवश्यक शर्त थी किंतु धीरे धीरे इसके मानदंड बदल गये और राज्य जब पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गया तो नगर के सभी निवासी नागरिक हो गए। (वंश से राज्य तक : रोमिला थापर) नई नागरता का विस्तार इस तरह राज्य के उदय और विकसित होने से सम्बद्ध रहा है। इसलिए कहीं न कहीं यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि 1947 में स्वराज की स्थापना के बाद भारतीय मनुष्य के नगर-बोध में भी कुछ बुनियादी और गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं। भारतीय मन में हुए इस परिवर्तन को कुछ हद तक समझने का एक सबसे विश्वसनीय साक्ष्य शायद कविता भी हो सकती है। नगर-बोध एक स्थिर मनोदशा नहीं है। वह नगरों के बनने, बिगडऩे, उजडऩे और पुन: बनने की प्रक्रियाओं के बीच बनती, बिगड़ती और बदलती रही है।
स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता के नगर-बोध और उसकी मनोरचना की जटिलताओं को समझने के लिए भारतीय संस्कृति के समावेशीपन को समझना भी ज़रूरी है। हमारे नगरों की जड़ें कहीं न कहीं अपने देहाती आधार में भी धंसी रही हैं। औपनिवेशिक समय में अपने नगरों के बड़े औद्योगिक केन्द्र बनने और स्वाधीनता के बाद अनेक छोटे बड़े औद्योगिक नगरों के निर्माण के बाद भी, आज भी बड़ी संख्या उन नगरों की है जो मैन्यूफेक्चरिंग गतिविधियों के केन्द्र नहीं हैं। राजधानी नगर हैं या धार्मिक और प्रशासनिक गतिविधियों के केन्द्र हैं। कई नगरों का आधार आज भी कारीगरी उत्पादन तक ही सीमित है या अधिक से अधिक वे व्यापारिक केन्द्र हैं।
मुझे लगता है कि भारतीय नगर की सामुहिक चेतना (कलेक्टिव कान्शसनेस) की निर्मिति में हमारे उत्सवों, त्यौहारों और विदग्ध गोष्ठियों की महत्वपूर्ण भूमिका पहले भी रही है। (मृच्छकटिकम् का स्मरण किया जा सकता है, जिसमें मदनोत्सव के बीच ही विद्रोह की शुरुआत होती है।) स्वाधीनता संग्राम, लोकतन्त्र और औद्योगिकीकरण और प्रतिरोध के आंदोलनों की हमारी सामुहिक चेतना और नये-नगर-बोध के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है। भूमण्डलीकरण से पहले तक लेकिन हमारे मझौले शहरों में जीवन की रफ्तार थोड़ी धीमी रही है। फुरसत के क्षण उसमें ज्यादा थे। ऐसे शहरों में अकसर ही ऐसे अनेक ठिकाने या कहना चाहिए कि अड्ड्े रहे हैं जहां अड्डेबाजी करना, गप्प गोष्ठियां करना, नगर का सामान्य चरित्र रहा है। इनसे बनने वाली सामुहिक चेतना एक स्तर पर सांस्कृतिक चेतना भी है। गप्प गोष्ठियों के सृजनात्मक अवकाश (क्रिएटिव स्पेस) में हर दिन बनते, बदलते किस्सों और मौखिक इतिहास ने जिस नगर-बोध को रचा है वह नगर केन्द्रित कविता या नागर कविता और आख्यान की ज़रूरी अंतर्वस्तु है।
                                                                        (दो)
इससे पहले कि हम स्वाधीनता के बाद बन रहे नगर-बोध और कविता के रिश्ते की पड़ताल करें, हमें नगर-बोध की निरन्तरता में आयी उस क्रमभंगता पर भी विचार करना चाहिये जो गाँधी के अफ्रीका से लौटने के बाद शुरू हुए विमर्श से पैदा हुआ। वस्तुत: यह विमर्श पूरी तरह नया नहीं था। ब्रिटिश शासन और उसके प्रशासक भी मानते थे कि भारत एक ग्रामीण गणतन्त्र है। प्राथमिक रूप से एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था है। सुरिन्दर एस. जोढका ने एकनामिकल एण्ड पोलेटिकल वीकली में अपने लेख नेशन एण्ड विलेज, इमेज ऑफ रूरल इण्डिया इन गाँधी, नेहरू एण्ड अम्बेडकर (अगस्त 10, 2002) में लिखा है कि आधुनिक भारतीय कल्पना में गांव भारतीय समाज की एक मेथेडोलाजिक वेल्यू के अलावा विचारधारात्मक प्रवर्ग भी है। गाँधी मानते थे कि गाँव राष्ट्रीय संस्कृति का ज्यादा शुद्ध रूप है। औपनिवेशिक प्रशासकों के बरक्स राष्ट्रीय नेतृत्व गांव को भारतीय सभ्यता की मूल इकाई नहीं मानता था। ज़्यादातर के लिये गाँव वास्तविक भारत का प्रतिनिधि था, जिसे देश को पुन: प्राप्त करना था, मुक्त करना था और परिवर्तित किया जाना था। यहाँ तक कि संविधान निर्माण करने वाली संसद, जिसे स्वतन्त्र भारत का संविधान बनाना था भी गाँव और व्यक्ति को भारतीय राजतन्त्र की प्राथमिक इकाई के रूप में विचार करने के बारे में पूरी गंभीरता के साथ विचार कर रही थी।
गाँधी जिन्हें गाँव का प्रवक्ता माना जाता है, का गाँव से कोई वास्तविक संबंध नहीं था। उनका कोई पैतृक गाँव भी नहीं था। गाँव के बारे में उनका विचार वस्तुत: राजनीति भी है। उन्होंने भारतीय सभ्यता को पश्चिम के बराबर दिखाने का आव्हान किया। वह गाँव को शहर का प्रतिपक्ष बनाना चाहते थे और ग्राम जीवन को आधुनिक पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता के विकल्प और उसके क्रिटीक के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। वह गाँव को एक वैकल्पिक जीवन शैली के रूप में देखते थे। उन्होंने संभवत: 1894 में पहली बार भारतीय गाँव को एक राजनीतिक विचार के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इस गाँव को ब्रिटिश इण्डिया में बनाए गए आधुनिक नगर के बरक्स प्रतिपक्ष में खड़ा किया। उनका मत था कि भारत में आधुनिक नगरों का विकास, पश्चिमी प्रभाव और औपनिवेशिक शासन का प्रतीक है। इस सारे विमर्श में एक प्रश्न कभी कभी परेशान करता है कि आखिर गांधी ने पूर्व औपनिवेशिक भारतीय नगर और नगरीकरण की प्रदीर्घ परंपरा को कभी प्रतीक क्यों नहीं बनाया? गाँधी ने लिखा कि मेरे लिए कलकत्ता और बंबई जैसे नगरों का उदय बधाई के बजाये दुख का विषय है। यह सही था कि औद्योगिक नगरों से पैदा हो रही विस्थापन और दीगर मानवीय समस्याओं के बारे में गाँधी के विचार महत्वपूर्ण थे लेकिन उसका मूल कारण नगर नहीं थे। उन्होंने कहा कि गाँव साल में छह से आठ माह के लिए सुनसान हो जाते हैं। ग्रामीण बाम्बे चेल जाते हैं, अस्वस्थ्य और अनैतिक स्थितियों में काम करते हैं। फिर बारिश के दिनों में लौट आते हैं। और अपने साथ भ्रष्टाचार, मद्यपान की आदत और बीमारियों को साथ ले आते हैं।
गाँधी के शामिल होने से पहले राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन मुख्य रूप से शहरी प्रक्रिया था या कहें कि शहर केन्द्रित था। उनका मत था कि भारत का हृदय देखना है तो बड़े शहरों को नज़रअंदाज करें। गाँधी का मत था कि औपनिवेशिक सत्ता से स्वतन्त्रता अर्थवान हो सकती है यदि वह गाँव को उसकी स्वायत्तता लौटा सके। (संदर्भ: नेशन एण्ड विलेज : इमेजेज़ ऑफ रूरल इण्डिया इन गाँधी नेहरू एण्ड अम्बेडकर : सुरिन्दर एस जोढका, ई पी डब्लयू) गाँधी के इस विमर्श का गहरा असर हिन्दी कविता पर हुआ। हालांकि मुझे लगता है कि एक स्तर पर एक अजीब सा विरोधाभास भी उस कविता में दिखाई देता है कि वह अपने भाषिक व्यवहार में, अपने शिल्प में यहां तक कि अपने देखने के ढंग में नागर कविता है पर वह गांव के पक्ष में बयान दे रही होती है। हिन्दी में खासतौर से प्रेमचन्द की कहानी और उपन्यास में जिस तरह गाँव के अन्तर्विरोध और पीड़ा का बखान हुआ, गाँधी के विचारों से प्रेरित कविता में ऐसा नहीं हुआ या लगभग नहीं हुआ। कविता गाँव का शुक्ल पक्ष ही सामने रखती रही, उसके कृष्ण पक्ष पर उसकी निगाह नहीं थी। गाँधी के लिए औपनिवेशिक काल में बसाये गये नगर भारत की वास्तविक विपत्ति के दाग थे।
नेहरू के विचार गाँधी से भिन्न थे। वह लगातार गाँधी के साथ पत्राचार में इसे व्यक्त भी कर रहे थे। नेहरू ने कभी अपने को भारतीय गाँव के साथ आइडेन्टीफाई नहीं किया। नेहरू को ग्रामीण समाज की स्वायत्तता, जाति प्रथा और संयुक्त परिवार की जीवन शैली में कुछ भी विशिष्ट नहीं लगता। उनके विचार से मध्यकाल में ये विशेषताएं सभी देशों के ग्रामीण समाज में पायी जाती हैं। और इसमें व्यक्ति की स्थिति दूसरे दर्जे की हो जाती है। वह गाँधी की तरह ग्रामीण गणतन्त्र को कभी स्वीकार नहीं कर पाये और ना ही वह इसके प्रशन्सक हो सके। वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ग्रामीण स्वराज व्यवस्था का बहुत पहले ही पतन हो चुका है और उसमें कई बीमारियों ने घर कर लिया है। नेहरू समकालीन ग्रामीण स्थितियों पर बहस करते हैं। नेहरू को गाँव की पारंपरिक सामाजिक संरचना के पुनर्जीवन में किसी तरह की नैतिकता दिखाई नहीं देती। उन्होंने भारत की खोज में गांव के बारे में आलोचना करते हुए माना कि गाँव की संरचना मनुष्य की स्थिति को अवमूल्यित करती है और अपनी वर्तमान परिस्थितियों से बाहर आने के अवसरों से वंचित करती है। आज के समाज के संदर्भ में जातिप्रथा, अयोग्य, प्रतिक्रियावादी, नियामक और प्रगति में बाधक है। वर्तमान फ्रेमवर्क में, इसमें स्थिति और अवसर की कोई समानता नहीं, ना ही इसमें किसी का राजनीतिक जनतन्त्र है और आर्थिक जनतन्त्र भी बहुत कम है। नेहरू के विचार ग्राम की वर्गीय संरचना के बारे में आधुनिक सोच को प्रतिबिम्बित करते हैं। उदाहरण के लिए भूमिपतियों (सामंतों) के बारे में उनका मानना है कि वह भौतिक और बौद्धिक रूप से विकृत वर्ग है। पतित है। जो अपना जीवन जी चुका है। उनका विचार है कि सामंतशादी मूलत: ब्रिटिश राज से आर्गेनिक रूप से जुड़ी है और भारत में पहली बार ब्रिटिश हुकूमत ने ही इसे बहुत विध्वंसक रूप से लागू किया। यहाँ डा. रामविलास शर्मा की भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद का भी स्मरण किया जा सकता है, रामविलास शर्मा भी मानते हैं कि अंग्रेजों ने भूमि पर इज़ारा कायम करके सामंतवाद का विस्तार किया।
भारतीय कृषि समाज में वर्ग और वर्गीय संरचना को लेकर नेहरू का दृष्टिकोण वैज्ञानिक है जबकि गाँधी हमेशा ही लोकलुभावन भाषा में बोलते रहे। गाँधी भारतीय गाँव की मूल आत्मा को पुनर्जीवित करने की वकालत करते हैं जबकि नेहरू गाँव की सामाजिक, आर्थिक संरचना को परिवर्तित करके, उसे आधुनिक प्रौद्योगिकी से जोड़कर कृषि सम्बंधों को परिवर्तित करने पर ज़ोर देते हैं। उनके विचार में स्वतंत्र भारत में भूमिपतियों और सामंतवाद के लिए कोई जगह नहीं है। नेहरू औद्योगिकीकरण को अपरिहार्य मानते थे और गाँधी आधुनिक शहरीकरण को औपनिवेशिक आधिपत्य की निशानी मानते थे। नेहरू का मत था कि औद्योगिक विकास और शहरीकरण ज़मीन पर आश्रित रहने के भार को कम करेगा और गाँव में रहने वालों के लिये भी मददगार होगा। एसोसिएट चेम्बर ऑफ कामर्स में 1947 में बोलते हुए उनका मत था कि हम किसानों और खेती का काम करने वालों की मदद करना चाहते हैं। इण्डस्ट्री भारत में प्रभावी महत्व रखती है। कृषि समृद्धि को पैदा करती है लेकिन वह और अधिक सम्पन्नता का उत्पादन कर सकती है यदि अधिक लोगों को कृषि से निकाल कर इण्डस्ट्री में लाया जाए। वास्तव में कृषि को विकसित करने के लिये हमें इण्डस्ट्री को विससित करना होगा, ये दोनों आपस में जुड़े हैं। आधुनिक प्रौद्योगिकी के बारे में नेहरू के विचार गांधी से एकदम विपरीत छोर पर खड़े नज़र आते हैं। कृषि में तारीखबदर प्रविधियों के इस्तेमाल की नेहरू आलोचना करते हैं। उनका मानना था कि इस तरह की प्रौद्योगिकी के उपयोग के कारण किसान उससे बहुत कम पैदा कर पा रहे हैं, जितना वे पैदा कर सकते हैं। इसलिए नई प्रौद्योगिकी और नई प्रविधियों को सीखने पर उनका ज़ोर था। (नेशन एण्ड विलेज : सुरिन्दर एस जोढका के लेख में व्यक्त विचारों के आधार पर)
अम्बेडकर गाँधी और नेहरू दोनों से भिन्न विचार रखते थे और गाँव की वर्तमान संरचना को लेकर तीखी आलोचना करते हैं। उनके मत में गाँव एक इकाई नहीं है, यह दो भागों में बँटी है। जनसंख्या की दो श्रेणियों में - अछूत और सवर्ण। सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय है और अछूत एक अल्पसंख्यक समुदाय। सवर्ण गाँव के अंदर रहता है और अछूत गाँव से बाहर, पृथक घरों में। ये ग्राम स्वराज भारत को नष्ट कर रहा है। ये गाँव- स्थानीयता के नाबदान, अज्ञानता की मांद, दिमागी संकीर्णता और साम्प्रदायिकता के सिवा क्या है। जिस ग्राम स्वराज पर हिन्दू गर्व करते हैं, उसमें अछूतों की स्थिति क्या है? इस गणराज्य में जनतन्त्र के लिए कोई जगह नहीं। इसमें समानता के लिए कोई जगह नहीं। इसमें स्वतन्त्रता के लिए कोई जगह नहीं। भारतीय गाँव गणराज्य का निषेध है। ये गणराज्य अछूतों पर हिन्दुओं का साम्राज्य है। ये हिन्दुओं का औपनिवेश है जिसे अछूतों का शोषण करने के लिए रचा गया है। (वही)
इस विमर्श में तीनों ही प्रमुख चिन्तकों के अलावा भी कई अन्य विचारकों, चिन्तकों की अपनी दृष्टियाँ रही हैं और उनके अलग-अलग तथा मिले जुले प्रभाव भी हिन्दी कविता और गद्य पर परिलक्षित होते रहे हैं। यही नहीं उपरोक्त तीनों चिन्तकों की दृष्टि में भी समय समय पर कई परिवर्तन होते रहे हैं। स्वयं गाँधी की दृष्टि में गाँव को लेकर परिवर्तन हुए थे। विजयदेव नारायण साही ने लिखा था कि गाँधी जी का मनुष्य इतिहास के भीतर भी है, इतिहास के बाहर भी। कालबद्ध भी है, कालातीत भी। (क्या इसी कारण गाँधीवाद का सबसे सीधा और सबसे सशक्त प्रतिफलन उपन्यासों और कहानियों में ही हुआ है। काव्य और नाटक पर रवीन्द्रनाथ कुछ ज़्यादा छाये हुए हैं?) (छटवां दशक : विजयदेव नारायण साही) हालांकि इस विचार से पूरी तरह सहमत होना थोड़ा मुश्किल है। यह बात कुछ हद तक छायावाद की कविता पर अगर लागू भी हो पर द्विवेदी युग और बाद की कविता पर इसे ठीक ठीक लागू करना संभव नहीं है। मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त आदि पर गाँधीवाद के प्रभाव लक्ष्य किये जा सकते हैं और छायावाद में भी पंत पर इसे लक्ष्य किया जा सकता है। यहाँ तक कि प्रगतिवाद पर भी इसकी छाया देखी जा सकती है। प्रगतिवाद और बाद की कविता पर इसी तरह नेहरू के विचारों के और वर्तमान में दलित कविता पर अम्बेडकर के विचारों की छायाएं देखी जा सकती हैं।
                                                                    (तीन)
हिन्दी कविता के नगर-बोध में उपरोक्त विमर्श के बाद आयी क्रमभंगता के कारण कभी कभी लगता है कि हिन्दी कविता में अपने को नागर कविता मानने के प्रति एक गहरी हिचक और संकोच काम करता रहा है। (कभी कभी एक अपराध बोध-सा भी!) हिन्दी आलोचना में कविता के नगर-बोध को लेकर कोई उल्लेखनीय काम का साक्ष्य नहीं मिलता। हो सकता है कि यह मेरी अल्पज्ञता के कारण भी हो। इसके बरक्स लेकिन उर्दू कविता और अंग्रेजी की भारतीय कविता पर नगर और कविता के सम्बन्धों पर अनेक लेख और किताबें दिखाई देती हैं। यह भी दिलचस्प है कि उर्दू कविता में गांव बरक्स शहर को लेकर कोई बहस दिखाई नहीं देती। 19वीं सदी की कविता में भी नगरों की अनेक छवियां मौजूद रही हैं। गालिब में तो औपनिवेशिक काल में बसाये गये नये औद्योगिक नगरों की भी अनेक छवियां मौजूद हैं। हिन्दी कविता में भी औद्योगिक नगरों की कुछ छवियां खोजी जा सकती हैं लेकिन तस्वीर बहुत स्पष्ट नहीं है। स्वाधीनता के बाद की कविता जो अपनी भाषा, शिल्प और काव्य व्यवहार के स्तर पर पूरी तरह नागर कविता है, में अपने को नागर कविता मानने का साहस कम ही रहा है। शहर के प्रति वह आलोचनात्मक है और शहर के प्रति उसका वैचारिक आग्रह नकारात्मक बल्कि निषेधात्मक भी है। अज्ञेय की बहुचर्चित कविता है :
सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूं - (उत्तर दोगे)
तब कैसे सीखा डसना - विष कहां पाया?
(सदानीरा : कविता समग्र : अज्ञेय)
इस कविता के कई पाठ हो सकते हैं। एक स्तर पर यह शहर के प्रति नकारात्मक कविता भी है। यह भी संभव है कि यह नये शहर के प्रति तीखी आलोचना से उपजी कविता हो। लेकिन इसमें कहीं न कहीं जो पूर्ण निषेध का स्वर है वह शहर का अस्वीकार अधिक है। इसी तरह पश्चिम से तीन कविताएं की दूसरी कविता महानगर : रात (नयी कविता : संपादक : डा. जगदीश गुप्त, विजय देव नारायण साही, अंक तीन 1956) में भी अज्ञेय इस सभ्यता पर प्रश्न खड़े करते हैं। लेकिन कहीं न कहीं इन प्रश्नों के बीच नगर के कुछ काले चेहरे को देखने और उसकी छवियों को दर्ज़ करने की कोशिश भी इस कविता में नज़र आती है। यह सही है कि कवि शहर की कुरूपता को अनदेखा नहीं कर सकता, लेकिन वह उसके उज्जवल पक्ष को भी अनदेखा नहीं कर सकता। अज्ञेय की कविता नगर के प्रति नकारात्मक ही अधिक है हालांकि उनकी कविता की जड़ें गांव या लोक में धंसी हों ऐसा भी नहीं है। सिटी स्केप इन इण्डियन इंगलिश पोएट्री में के.एन. पाण्डेय ने लिखा है कि यह विडम्बना ही है कि यह (नगर) एक ऐसी जगह है जो हर तरह की अमानवीय गतिविधियों का भी स्रोत है। शहर की वास्तविक अवधारणा और वास्तविक नगर में एक चौड़ी खाई है। (इंडियन राइटिंग इन इंगलिश : क्रीटिकल एक्सप्लोरेशन : संपादक : अमरनाथ प्रसाद में के.एन. पाण्डेय का लेख) स्वाधीनता के बाद की कविता के नगर में निजि और सार्वजनिक स्पेस के बीच एक धुंधलापन भी है और शायद इसमें नगर को लेकर जो नकारात्मकता है वह इसीलिए अपरिहार्य भी है। अज्ञेय की कविता इस अमानवीयता को रेखांकित करते हुए सभ्यता के प्रश्न उठाती है :
धीरे-धीरे-धीरे चली जाएँगी
सभी मोटरें, बुझ जावेंगी
सभी बत्तियाँ, छा जावेगा
एक तनाव भरा सन्नाटा
जो उस को अपने भारी बूटों से रौंद रौंद चलने वाले
वर्दीधारी का
प्यारा नहीं, किन्तु वान्छित है।
तब जो
पत्थर-पिटी पटरियों पर इन
अपने पैर पटकता और घिसटता
टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्,
नामहीन आयेगा,
तब जो
ओट-खड़ी खम्भे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाये
थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती
लट की मैली झालर, के पीछे से
बोलेगी :
दया कीजिए, जेंटिलमैन....
और लगेगा झूठा जिस के स्वर का दर्द
क्योंकि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,
इसी कविता में आगे का और अन्तिम अंश है:
होगा?
क्या? ये खेल - तमाशे, ये सिनेमाघर और थियेटर?
रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किये प्रचारित
द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?
यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,
के कचरा पेटियाँ सुघड़, रंगीन (आह,
कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)?
असन्दिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं
और सभ्यता
बहुत बड़ी सुविधा है
सभ्य, तुम्हारे लिए।

किन्तु क्या जाने
ठोकर खा कर कहीं रूके वह
आंख उठा कर ताके
और अचानक तुम को ले पहचान:
अचानक पूछे
धीरे धीरे धीरे:
हां, पर मानव,
तुम हो किस के लिए?
नई कविता आंदोलन और तारसप्तक के ही दूसरे कवि हैं मुक्तिबोध। मुक्तिबोध का नगर-बोध अज्ञेय से एकदम भिन्न है। विजय कुमार मानते हैं कि तार सप्तक के कई कवियों में नगर-बोध पहली बार बड़े स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। तारसप्तक के अपने वक्तव्य में मुक्तिबोध ने कलाकार की स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति (माइग्रेशन इंस्टिक्ट) पर बहुत ज़ोर दिया है। मैं समझता हूँ कलाकार के विस्थापित होने का यह मुद्दा पहली बार मुक्तिबोध उठाते हैं। मुक्तिबोध प्रान्त-परिवर्तन की एक बड़ी महत्वपूर्ण बात भी अपने वक्तव्य में करते हैं। कलाकार का यह माइग्रेशन, यह विस्थापन, यह अपनी जड़ों से उन्मूलन क्या हिंदी के अन्य किसी कवि में आया था? मुक्तिबोध इस मुद्दे को भारतीय संदर्भ में एक फिनोमिना की तरह देखते हैं। मुक्तिबोध के यहाँ यह विस्थापन मानसिक तो था ही, विशुद्ध भौतिक अर्थों में अपनी जड़ और ज़मीन और सांस्कृतिक परंपरा से उखड़ जाने की सच्चाई से भी जुड़ा हुआ है। वे नागरिक बोध के संकट को व्याख्यायित करने वाले हमारे पहले कवि हैं। (महानगरीय संवेदना और हिंदी कविता : कवि विजय कुमार से अनूप सेठी की बातचीत, वसुधा 65, अप्रेल-जून 2005) वाल्टर बेन्जामिन कविता में शहर की दौड़ती भागती वास्तविकताओं को एक फ्लीटिंग रियलिटीज़ की तरह देखते हैं।
विजय कुमार मानते हैं कि इस तरह बाह्य और आंतरिक की परंपरागत छवियाँ और उसके अंतराल हमारे नये अनुभवों में गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। और पूरा दृश्य विधान सिनेमेटोग्राफिक लगता है। मुक्तिबोध अंधेरे में कविता में इन सिनेमेटोग्राफिक प्रविधियों का बहुत बेहतर ढंग से इस्तेमाल करते हैं। विजय कुमार का मत है कि ऐसी कविताओं में मनोभावों के आकस्मिक-कटस् मिलेंगे। आधुनिक कविता में शिल्प के कोलाज की शैली मानसिक क्रमभंगताओं (रपचर) से जन्मीं है। चाँद का मुँह टेढ़ा है कविता के कुछ अंश मुक्तिबोध की कविता में नगर की छवियों को देखने के उनके ढंग को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। मुक्तिबोध अपनी कविता में आकस्मिक कट्स और क्रमभंगता तथा सिनेमेटोग्राफिक प्रविधियों का उपयोग करते हुए नगर के बहुसंस्तरीय यथार्थ को उजागर करते हैं।
नगर के बीचों-बीच/आधी रात-अँधेरे की काली-स्याह/शिलाओं से बनी हुई/
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए/ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर/
चादनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कार$खाना- अहाते के उस पार/धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे/
उद्गार- चिन्हाकार-मीनार/मीनार के बीचो-बीच
चाँद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन् तिरपन का चाँद वह!!
गगन में कर्फ्यू
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छि: थू: है!!
इस कविता में सन् 1953 के नगर का दृश्य है, याने हिन्दुस्तान के गणराज्य बनने के तत्काल बाद के नगर का। नेहरू युग का। लेकिन मुक्तिबोध नगर के सिर्फ अंधेरे-उजाले कोनों कुचालों को ही दर्ज़ नहीं करते, वह उस नागर-चेतना को भी अपनी कविता का हिस्सा बनाते हैं जो प्रतिरोध की चेतना है। नागर-कविता में अक्सर इन छवियों को कम ही दर्ज़ किया जाता रहा है। इसी कविता का एक और अंश है:
चिपकाता कौन है/मकानों की पीठ पर/अहातों की भीत पर/
बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर/अँधेरे के कन्धों पर/
चिपकाता कौन है?
चिपकाता कौन है/हड़ताली पोस्टर
बड़े-बड़े अक्षर/बाँके-तिरछे वर्ण और/लम्बे-चौड़े घनघोर/
लाल-नीले भयंकर/हड़ताली पोस्टर!

टेढ़े-मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी भी खूब है
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली
के झरोखों को पार कर
लिपे हुए कमरे में
जेल के कपड़े सी फैली है चाँदनी,
दूर-दूर काली-काली
धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे
कपड़े सी फैली है
लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई
जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी!!
(चाँद का मुँह टेढ़ा है : कविता संग्रह : गजानन माधव मुक्तिबोध)

प्रतिरोध और शासन द्वारा चलाये जा रहे दमन की छायाएँ यहाँ फैली हुई हैं।
बीसवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण लम्बी कविता अँधेरे में के बारे में चाँद का मुँह टेढ़ा है कि भूमिका में शमेशर बहादुर सिंह ने लिखा था कि नागपुर की एंप्रेस मिल के मजदूरों पर जब गोली चली थी, तो रिपोर्टर की हैसियत से मुक्तिबोध घटना स्थल पर मौजूद थे। उन्होंने सिरों का फूटना और खून का बहना अपनी आँखों से देखा था। लक्षित मुक्तिबोध में अनिल कुमार का मत है कि अँधेरे में कविता की पृष्ठभूमि एंप्रेस मिल गोलीकांड से सम्बन्धित है। अँधेरे में कविता लगभग नेहरू युग के समाप्ति के समय याने लगभग 1963 के आसपास पूरी की गयी कविता है। शायद इसीलिए नेहरू के प्रति एक मोह के बावजूद यह नेहरू युग का पहला महत्वपूर्ण क्रिटीक भी है। नया खून 18 सितम्बर 1953 में लिखे अपने कॉलम में मुक्तिबोध ने तत्कालीन नागपुर शहर की कई छवियों को दर्ज़ किया है। उन्होंने लिखा कि किसी ज़माने में मैंने एडिनबरा (स्कॉटलैण्ड, ब्रिटेन) के बारे में किसी प्रसिद्ध इंगलिश निबन्धकार का एक लेख पढ़ा था। अपने नगर के विकास के सम्बन्ध में लिखते हुए उसने यह कहा कि शहर का जो हिस्सा पुराना पड़ जाता है (एक ज़माने में वह नया था और उसमें बड़े बड़े सरदार और धनी लोग रहते थे), उसमें अब गरीब लोग रहते हैं, और धनियों ने अपने मुहल्ले अलग बसा लिये हैं। जो मोहल्ला बहुत पुराना पड़ जाता है, गरीबों के पल्ले पड़ता है और नया धनियों के ज़िम्मे आता है। यह प्रक्रिया स्पष्ट होती है ठीक पचास सालों के दरमियान, लेकिन वह चलती रहती है सदा-सर्वदा।
कहने का सारांश यह कि आजकल शहरों में नयी बस्ती, पुरानी बस्ती, नया इलाहाबाद, पुराना इलाहाबाद, नयी देहली, पुरानी देहली वाला सत्य सब जगह लागू है। नये पुराने का भेद असल में गरीब और अमीर का भेद है। एक ही शहर की दो संस्कृतियाँ हैं - एक गरीब संस्कृति और दूसरी अमीर संस्कृति।
अनेक दृश्यों के विवरण के साथ उन्होंने लिखा कि इन अँधेरी गलियों में ज़िन्दगी के कितने विद्रूप चित्र हैं। (मुक्तिबोध रचनावली: खण्ड 6 : संपादक : नेमिचन्द्र जैन)
अंधेरे में कविता का एक अंश है :
हाय, हाय! मैं ने उन्हें गुहा-वास दे दिया/लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित/
जनोपयोग से वर्जित किया और/निषिद्ध कर दिया/खोह में डाल दिया!!
वे खतरनाक थे,
(बच्चे भीख मांगते) खैर...
यह न समय है,/जूझना ही तै है।/सीन बदलता है,/
सुनसान चौराहा साँवला फैला/बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर/
ऊपर कत्थई बुजुर्ग गुम्बद,/साँवली हवाओं में काल टहलता है।/
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,/मिनिट के कांटों की चार अगल गतियां,/
चार अलग कोण,/कि चार अलग संकेत
(मनस् में गतिमान् चार अलग गतियां)
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,/शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास/
बेचैन खयालों के पंखों के कीड़े/उड़ते हैं गोल-गोल/मचल-मचल कर।
घण्टाघर तले ही पंखों के टुकड़े बीट व तिनके।
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े/असम्भव पक्षी/बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,/
मानो कि इरादे/भयानक चमकते।/सुनसान चौराहा,/
बिचारी है गतियां, बिखरी है रफ्तार,/गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।/
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में/अंधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक/
तांबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष, विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि जो कविता के नायक के अपने थे उन सबको वह लोक-हित के क्षेत्र से वंचित कर चुका है। ऐसा अगर वह नहीं करता तो उसे डर है कि उसके बच्चों को भीख मांगने की नौबत आ जाती। लेकिन इस सब के बावजूद जूझना ही तै है। सीन बदलता है। यह पंक्ति कविता में आकस्मिक कट्स पैदा करती है। चौराहे पर घण्टाघर की घड़ी में मिनिट के कांटों की चार अलग गतियां हैं। चार कोण हैं। यह ऐसे समय का दृश्य है जब सारी गतियां बिखर गयी हैं। मुक्तिबोध वस्तुत: एक शहर के लोकेल में पूरे देश और समय  को समेट लेते हैं। इस दृश्य में ही बार बार कुछ पंक्तियों की पुनरावृत्ति होती है भागता मैं दम छोड़ / घूम गया कई मोड़। कहीं आग लग गयी/कहीं गोली चल गयी।

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भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में वर्ष 2014 में एक वर्ष के लिये राष्ट्रीय अध्येता के रूप में हिन्दी कविता और नगर के सम्बन्धों पर कविता का शहर शीर्षक से लिखे गये मोनोग्राफ का एक अंश
(संपर्क मो. 08988051304)


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