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जनवरी 2016

चांद की धरती से अपनी दुनिया पर एक नजऱ....

जितेन्द्र भाटिया

इक्कीसवीं सदी की लड़ाईयां/पच्चीसवीं समापन किश्त


दुनिया के एक अत्यंत विकसित देश की हाल की यात्रा ने मुझे प्रेरित किया कि मैं वहां की परिपक्व संस्कृति के मुकाबिल अपने खुद के समाज पर एक पर्यावेक्षी पलट नज़र डालूं, कुछ उसी अंदाज़ में, जैसे बहुतों के मन में कौतूहल होता होगा कि चांद की धरती से हमारी अपनी पृथ्वी कैसी दिखाई देती है। सो इस बार लड़ाइयों से ज़्यादा एक सफरनामा--एक ऐसी धरती का, जहां बहुत सी चीज़ें हमारे लिए  सपने जैसी असंभव और अप्राप्य दिखाई दे सकती हैं। इस्राइली लेखक एमोस ओज़ कहते हैं-
देखा जाए तो दुनिया में न कोई नुस्खे हैं और न ही कोई मंत्र। खुशियों की ओर ले जाने वाली किसी स्वर्णमंडित सड़क का नक्शा भी हमारे पास नहीं है। अगर कुछ है तो सिर्फ  चंद विचार कि हम एक दूसरे से और अपनी खुद की जिंदगियों से आंशिक रूप से सामंजस्य कैसे कर सकते हैं। आग के प्रति अपनी ललक को कायम रखते हुए भी हम राख के डर के प्रति सजग कैसे हो सकते हैं। कैसे अपने दोनों पैरों को ज़मीन पर टिकाए हुए भी हम उडऩे का उपक्रम कर सकते हैं। मेरे लिए कलात्मक सामंजस्य या फिर दूसरे के प्रति एक लिहाज या समझौतापरस्ती ही जीवन का अंतिम सत्य है। अपने सपनों को जीते हुए भी हम यह जानते हैं कि आकाश के तारों को निहारते हुए चमत्कृत तो हुआ जा सकता है, लेकिन उन तारों को छू सकना हमारे वश में नहीं है। इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि अगर हम तारों को छू नहीं सकते तो हमें उनकी ओर निहारना तक नहीं चाहिए?
 बहुत से लोग ऐसे होंगे जो कहेंगे, 'ठीक है, अगर मैं तारों को छू नहीं सकता तो मुझे उनसे कोई लेना-देना नहीं है!' लेकिन मैं कहता हूं कि जी भरकर तारों की ओर देखो! तुम उन तक शायद कभी पहुंच न पाओ, लेकिन फिर भी उन्हें कभी अपनी आंखों से ओझल मत होने दो....
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स्वीडन की खुशहाल धरती पर कदम रखते हुए दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क से ज़्यादा साहिर का वो पुराना गीत याद आता है--

इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूमके नाचेगा जब धरती नग्मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी....

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मरकर जीते हैं
जिस सुबह की अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फरमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी....

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों में धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी....
वो सुबह कभी तो आएगी....

दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और दादरी के हत्यारों वाले देश में यह गीत शायद अब उम्मीद की अपेक्षा एक अनकही खामोशी को जन्म देता लगेगा। लेकिन स्कैंडिनेविया की धरती पर पता नहीं क्यों, इस असंभव सपने में एक बार फिर भरोसा रखने को जी चाहता है। हालांकि सपने का सच हो जाना एक तरह से उसके सम्मोहन का टूट जाना भी है। यह खूबसूरत सपना किन्हीं उम्मीदों के साथ-साथ सभ्यता की अनेकानेक विचलित कर देने वाली तस्वीरें भी दिखाता है, जिन्हें देखते हुए सवाल करने को मन होता है कि अगर यही हमारी सभ्यता का निष्कर्ष है तो फिर किसी गुमगश्ता जन्नत की तलाश के लिए यह सारा तामझाम किस लिए? स्वीडन आज पराकाष्ठा की ऐसी ही सुबह के मोड़ पर खड़ा है, जहां फ़ैज़ के शब्दों में कहें तो-

गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोखा है
यां कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं
जिसके पर्दे में मेरा माह-ए-रवां डूब सके
तमसे चलती रहे ये राह यूं ही अच्छा है
तुमने मुड़कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

मानवीय स्तर पर इंसान और इंसान के बीच बराबरी का दावा दुनिया के बहुत सारे देश और प्रदेश करते रहे हैं। अमरीका ने हालांकि नुमाइश के तौर पर एक अश्वेत को राष्ट्रपति चुना है और इंग्लैंड में कालों और भूरों ने वहां की अर्थव्यवस्था को अपने कंधों पर उठा रखा है, लेकिन श्वेतों और अश्वेतों के बीच का महीन फर्क आपको वहां कदम कदम पर दिखाई दे जाएगा। काले वे हैं जो रात के समय अंधेरी गलियों में लोगों को चाकू दिखाकर उनका बटुआ छीन लेते हैं। वे टैक्सियां चलाते और मज़दूरी करते हैं। उनकी बस्तियां और उनके घेट्टो मुकर्रर हैं। दफ्तर के बाद या शाम के समय गोरे उनसे मिलना पसंद नहीं करते। हमारे अपने देश में तो गोरों के प्रति एक वैमनस्य का भाव और कालों या 'हब्शियों' के प्रति रंगभेद की भावना और भी अधिक है। गोमांस रखने के बेबुनियाद शक पर दादरी में पागल भीड़ ने बेकुसूर मोहम्मद अखलाक को पीट-पीटकर मार डाला। दिल्ली में पिछले दिनों अफ्रीकों की एक बस्ती में वहां की औरतों पर वेश्यावृत्ति का आरोप लगाकर उन्हें वहां से खदेडऩे की कोशिश की गयी थी। यानी समानता के तमाम लिखित-अलिखित संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद हमारे यहां रंग, जाति और धर्म के आधार पर इंसान और इंसान के बीच भारी फर्क बरता जाता है।
हमारे लिए यह जानना सुखद था कि दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क के मुकाबिल स्कैंडिनेविया/स्वीडन में चमड़ी के रंग और उससे जुड़ा भेदभाव नहीं के बराबर है। यह वह प्रदेश है जहां समाज ने सारी समृद्धता के बावजूद अपना आपा नहीं खोया है। इसमें हर नागरिक और बाहर से आने वाला हर मेहमान सहज ही एक खुलेपन के साथ अपना समय गुज़ार सकता है। यहां सड़कों पर आधुनिक मोटरगाडिय़ों के साथ-साथ पैदल चलने वालों और साइकिल चालकों के लिए एक मुकम्मल जगह है। उत्तरी ध्रुव से नज़दीक होने के कारण यहां गर्मियों में सिर्फ  कुछ घंटों के लिए रात होती है और सर्दियों में दिन बेहद छोटे और अंधकारमय होते हैं। लेकिन दिन में धूप निकलते ही यहां गली-चौराहों पर उत्सव का सा माहौल उतर आता है, गोया कि लोगों में धूप को अपने जिस्म में जज़्ब करने की कोई होड़ सी चल रही हो। बूढ़े और बच्चों को यहां एक जैसी वरीयता प्राप्त है। यहां की अनगिनत झीलों में निर्मल ठंडा जल है, जिसे दूषित करने वाला कोई नहीं है। घने जंगलों में यहां हर साल बेहिसाब लकड़ी काटी जाती है, लेकिन उससे भी तेज़ रफ्तार से यहां नए जंगल उगा लिए जाते हैं। यहां धरती अपने सर्द मौसम के बावजूद जितना देती है, उससे कहीं अधिक यहां के लोग उसे लगातार लौटाते चलते हैं। यहां हर चीज़ में आधुनिकता के साथ एक सहजता भी लगातार बरकरार है। यहां के पहनावे में व्यावहारिकता और भोजन में पूरी दुनिया से आयी विविधता है। पीने के बोतलबंद पानी को यहां हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है। छोटे से छोटे होटल के कमरों में भी यहां आपको संदेश लिखा मिल जाएगा-

हमें अपने पानी पर गर्व है। आप पूरी सुरक्षा के साथ हमारे नल का पानी बेरोकटोक पी सकते हैं।

उम्मीद की जा रही है कि आने वाले दिनों में स्वीडन सही अर्थों में एक वैश्विक समाज में तब्दील हो जाएगा। इसकी डेढ़ करोड़ की वर्तमान जनसंख्या में बड़ा हिस्सा दूसरे देशों से आकर स्वीडन में बसने वाले नागरिकों का है और इन्हीं के ज़रिए आप इस इस देश के बहुसांस्कृतिक विश्वधर्मी चरित्र का अंदाज़ा लगा सकते हैं। इस वर्ष जनवरी और अगस्त के बीच में लगभग साढ़े तीन लाख शरणार्थी अपनी जान की बाज़ी लगा कर जशरण के लिए योरोप के विभिन्न देशों तक पहुंचे हैं। दृष्टव्य है कि पिछले पूरे वर्ष में कुल ढाई लाख शरणार्थी योराप आए थे। इस बड़ी संख्या का अधिकांश हिस्सा सीरिया, अफगानिस्तान और इरीट्रिया के असुरक्षित हालात से भागकर आने वाले मुस्लिम शरणार्थियों का है। दूसरे योरोपियन देशों से आगे निकलकर स्वीडन ने इस साल एक लाख या इससे भी अधिक विस्थापितों को अपने देश में लेना स्वीकार किया है। लेकिन इस कदम को सिर्फ  मानवधर्म का ही उदाहरण न समझा जाए। इसके पीछे स्वीडन के निहित स्वार्थ भी हैं। स्वीडन में नागरिकों की औसत आयु 42 वर्ष है, जब कि भारत जैसे देश में यह औसत आयु 30 से भी कम है। इस लिहाज से स्वीडन आज बूढ़ों का देश है। यहां देश के विभिन्न महकमों में काम करने के लिए नौकरीपेशा नौजवानों की ज़रूरत है। आने वाले दिनों में शरणार्थी निस्संदेह इस कमी को पूरा करेंगे। हमें स्वीडन के बड़े शहरों में जगह जगह शरणार्थियों की शिनाख्त कर उनका रजिस्ट्रेशन करने वाले पुलिस शिविर मिले। लेकिन यह स्वीडन में ही संभव हो सकता था कि जिस जगह सीरिया से आने वाले विस्थापितों को ठहराया गया था, उसके ठीक सामने एक पुरानी सेमेट्री/ईसाई कब्रिस्तान था। अधिकारियों ने शरणार्थियों की भावनाओं का सम्मान करने और उन्हें सुरक्षित महसूस करवाने के लिए वहां से सारे क्रॉस हटा दिए। सोचिए, किसी हिंदू प्रदेश में यदि क्रॉस की जगह त्रिशूल होते और उन्हें हटाने की बात उठती तो वहां क्या हश्र हुआ होता? लेकिन पेरिस में हाल ही में हुए आतंकी हमलों का कितना असर स्वीडन की इन नीतियों पर पड़ेगा, यह तय कर पाना ज़रा मुश्किल है।

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स्वीडन के हवाई अड्डों में लंदन हीथ्रो, फ्रैंकफर्ट या पेरिस ओर्ली जैसी गहमागहमी या उड़ान भरने के लिए इंतज़ार में खड़े हवाई जहाज़ों की लंबी कतारें नहीं दिखेंगी। न ही यहां के टर्मिनल में प्रस्थान द्वारों की बहुतायत और एक टर्मिनल से दूसरे टर्मिनल जाने वाली बिना चालक की रेलगाड़ी या लंबी दूरी तय करने वाली स्वचालित पट्टियां ही दिखाई देंगी। लेकिन गोथेनबर्ग में उतरते ही वहां के वैश्विक जाति विहीन समाज की एक बानगी मिलनी शुरू हो जाती है। इमिग्रेशन के काउंटर पर सभी देशों के नागरिक एक ही कतार में बिना किसी लैंडिंग फॉर्म भरे जल्दी से गुज़र जाते हैं। शायद यह दुनिया के चंद हवाई अड्डों में से होगा जहां आने वाले पर्यटकों/यात्रियों को नागरिकता और योरोपियन यूनियन की सदस्यता के आधार पर अलग अलग कतारों में नहीं बांटा जाता।
पूरे स्वीडन की डेढ़ करोड़ जनसंख्या बिहार से कुल चौथाई होगी। दरअसल स्वीडन की खुशहाली में वहां की कम जनसंख्या का बहुत बड़ा हाथ है। इसी के चलते यहां अधिकांश मानव श्रम मशीनों और कम्प्यूटरों के जिम्मे है, क्योंकि इनके स्थान पर लोगों को काम पर लगाना कहीं अधिक महंगा और अव्यावहारिक है। इन मशीनों ने क्लर्कों का अधिकांश काम सीख लिया है। भारत जैसे मानव-श्रम पर अश्रित देश से आने वालों को यहां की मशीनी संस्कृति का अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लग सकता है। लेकिन यहां एक अच्छी बात यह है कि स्वीडिश की प्राथमिकता के बावजूद यहां के अधिकांश नागरिक अंग्रेज़ी बोलते और समझते हैं।
 गोथिया नदी के मुहाने पर बसा शहर गोथेनबर्ग शहर प्राचीनकाल से ही समुद्री व्यवसाय का केंद्र रहा है। आज यह स्वीडन का दूसरे नंबर का शहर ही नहीं, वॉल्वो कार, एस के एफ बीयरिंग्स और एरिक्सन जैसी बड़ी वैश्विक कंपनियों का जन्मस्थल भी है। यहीं विश्व विख्यात चाल्मर्स टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय भी स्थित है। लेकिन उद्योग की तमाम व्यावसायिकता के बावजूद गोथेनबर्ग में एक छोटे शहर की आत्मीयता  है। यह शहर स्वीडन के औद्योगिक इतिहास के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए भी जाना जाता है।
गोथेनबर्ग के बंदरगाह पर बने ऑपेरा गृह के बाहर हमें स्वीडन के सबसे बड़े संगीतकार, गीतकार और गायक एवे टॉबे की प्रतिमा देश की जीवंतमय वैश्विक, फासीवाद विरोधी ओर मुक्त परम्परा का प्रतिनिधित्व करती मिली।  
टॉबे ने पिछली शताब्दी में फासीवाद के विरुद्ध सबसे सशक्त गीत लिखे और गाए थे। उन्हीं के बूते पर दक्षिणी अमरीका के लोकसंगीत ने स्वीडन में लोकप्रियता हासिल की थी। टॉबे एक जन्मजात घुमक्कड़ थे। उन्होंने कई वर्षों की मेहनत से दुनिया भर से नाविकों के गीतों और उनके संगीत का एक वृहद् संकलन बनाया था। उनका बहुत सारा समय श्रीलंका और अर्जेन्टीना में गुज़रा। टॉबे आज स्वीडन में एक अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं और 1976 में उनकी मृत्यु के बाद उनका कद कुछ और बढ़ गया है। स्वीडन के हर शहर में सार्वजनिक स्थलों पर उनकी जीवंत प्रतिमाएं दिखाई दे जाएंगी। उनके गीत आज बच्चे बच्चे की ज़बान पर हैं। अभी हाल ही में स्वीडन ने अपने 50 क्रोनर के नोट पर पुराने बादशाह गुस्टॉफ  की जगह टॉबे के चित्र को स्थान देना तय किया है। हमारे देश में, जहां असहिष्णुता के विरुद्ध बुद्धिजीवियों की सामूहिक आवाज़ तक को किसी षडय़ंत्र की दृष्टि से देखा जाता हो, क्या किसी संगीतकार का इतना सम्मान संभव है? 
    तीन ओर से स्वीडन को घेरे फैला समुद्र अपेक्षाकृत शांत और उथला है। इसमें कई छोटे-बड़े द्वीप फैले हैं, जहां की यात्रा यहां छुट्टियों का एक अनिवार्य शगल है। इनमें से अधिकांश के बीच नौकाएं चलती हैं, जो गोथेनबर्ग के सार्वजनिक यातायात का ही एक विस्तार हैं। दिन भर या महीने के पास बसों और ट्रामों के अलावा इन नौकाओं पर भी चलते हैं। कुछ द्वीपों पर कार ले जाना वर्जित है तो कुछ पर साइकिल के रास्तों के अलावा बड़ी सड़कें भी हैं। अधिकांश द्वीप अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाने जाते हैं और गर्मियों में तो इनमें से कुछ पर अच्छी खासी भीड़ हो जाती है।


कुछ द्वीपों पर आपको कई शताब्दियों पुरानी बस्तियां भी मिल जाएंगी, जिन्हें विशेष योजना के अंतर्गत फिर से रहने के योग्य बनाया गया है। मास्ट्रैंड जैसे कुछ द्वीपों पर स्वीडन का पुराना इतिहास आज भी ज़िंदा है। यहां कार्लस्टेन का पुराना किला है, जो किसी समय योरोप का एक कुख्यात बंदीगृह था जिसे ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा गया है। सामंती काल में तमाम दूसरे देशों की तरह स्वीडन का इतिहास भी युद्धों और रक्तगाथाओं से भरा हुआ है। महत्वपूर्ण यह है कि इतिहास को सुरक्षित रहते हुए भी यहां जीवन के सर्वथा अलग सिद्धांतों पर खड़ा है। लेकिन ये सिद्धांत क्या सुख और संतोष का पर्याय हैं? इस सवाल का उत्तर देना उस समय और भी मुश्किल हो जाता है जब हम गौर करते हैं कि विवाहितों के बीच स्वीडन में तलाक की दर दुनिया में सबसे अधिक हैं। यहां लगभग हर दूसरा विवाहित व्यक्ति किसी न किसी समय तलाक या संबंध-विच्छेद की प्रक्रिया से गुज़र चुका है। हम हिंदुस्तानी इस पर आंख-भौंह सिकोड़ सकते हैं, लेकिन वहां कई लोग इसे स्वतंत्रता और मुक्ति का ही एक विस्तार मानते हैं। उनके अनुसार तलाक के बाद यहां अधिकांश लोग दुबारा शादी नहीं करते, क्योंकि उनके पास अकेला रहने के पर्याप्त साधन और कारण होते हैं। वे कहते हैं कि विवाह की संस्था यूं भी पुरानी पड़ चुकी है और आने वाले दिनों में इसके किसी पुरानी रीत में बदल जाने की पूरी संभावना है। जो भी हो, 42 वर्ष की अधेड़ औसत उम्र वाले इस देश में बुज़ुर्गों का विशेष ध्यान रखा जाता है और उन्हें अकेले या अपने साथी के साथ शेष जीवन गुज़ारने में कोई परेशानी नहीं होती। तलाक का पक्ष लेने वाले यह भी कहते हैं कि इसके तथाकथित नैतिक पक्ष को तूल देना एक दकियानूसी ख्याल है। देखा जाए तो स्वीडन में आत्महत्याओं की लगभग शून्य वारदातें संकेत देती हैं कि यहां के जीवन में तनाव नहीं है, और देखा जाए तो यही जीवन में सुख की अधिक प्रामाणिक कसौटी है।

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गोथेनबर्ग के भीतर सड़कों पर बिजली से चलने वाली ट्रामों का जाल फैला है। इनमें कोलकाता की ट्रामों की तरह दो और कभी-कभी तीन डिब्बे होते हैं। लेकिन कोलकाता के मुकाबिल ये ट्रामें कहीं अधिक आधुनिक और आरामदेह हैं। इनमें आपको सामान रखने और शिशुओं की गाड़ी रखने की जगह भी मिल जाएगी। और स्वीडन की परंपरा के अनुरूप यहां आपको कोलकाता के वर्ग-विभाजन करने वाले भेदभाव की तरह आगे का पहला दर्ज़ा और पीछे का दूसरा दर्ज़ा नहीं मिलेगा।
 
ट्राम के टर्मिनस पर बनी दुकान से हमने चौबीस घंटों तक चलने वाला पास खरीदा, जिससे इस अवधि में किसी भी ट्राम, बस या नौका का सफर किया जा सकता था। छुट्टे दुकानदारों द्वारा स्वीकृत किए जाने वाले खुदरा पैसों या नोटों के अलावा स्वीडन आज लगभग एक कागज़ या नोट रहित समाज है। तीन डिब्बे की ट्रामों सहित सारे सार्वजनिक वाहन यहां इकलौते ड्राइवर की बदौलत चलते हैं। कंडक्टर नाम की चिडिय़ा का कोई अस्तित्व नहीं है। वाहन के इकलौते ड्राइवर के पास टिकट के पैसे लेने या देने का कोई प्रावधान भी नहीं है। ट्राम के दरवाज़े पर लगे छोटे से कम्प्यूटर को अपना पास दिखाकर आप भीतर बैठ सकते हैं। आप ऐसा न भी करें तो भी आपको कोई रोकेगा नहीं। लेकिन सामाजिक जवाबदेही के तहत कोई भी बिना वैध पास लिए बगैर वाहनों में बैठता नहीं। जानकार बताते हैं कि महीने-दो महीने में यात्रियों की जनगणना और कम्प्यूटरों की जांच के लिए इंस्पेक्टर आते हैं और ऐसे में यदि आप बिना टिकट लिए पकड़े गए तो कड़ा जुर्माना आपकी सारी अगली-पिछली कसर पूरी कर देगा।
कागज़रहित समाज का एकमात्र अपवाद हमें स्टॉकहोम के स्टेशन पर उस समय मिला जब हम पेशाबघर की तलाश में यहां से वहां भटक रहे थे। पेशाबघर का दरवाज़ा टिकट के बारकोड के बगैर खुलता नहीं था और टिकट हमारे पास था नहीं। तब किसी ने हमें एस्कलेटर द्वारा सबसे निचली मंज़िल पर जाने की सलाह दी। यहां पेशाबघर के बाहर एक सरकारी मुलाज़िम भीतर घुसने के लिए बीस क्रोनर (लगभग एक सौ पचास रूपए) की टिकट वसूलने के लिए बैठा था। सहूलियत थी तो सिर्फ इतनी कि इस महंगे मूत्र-विसर्जन के खर्च की अदायगी आप क्रेडिट कार्ड द्वारा भी कर सकते थे और हमने देखा कि कुछ जापानी पर्यटक ऐसा कर भी रहे थे। उपभोक्ता समाज में भारतीय रूपए का जिस तेज़ी से अवमूल्यन हुआ है, उसके चलते स्वीडन में हिंदुस्तानियों को हर चीज़ बेतरह महंगी नज़र आएगी। लेकिन उनकी अपनी अर्थव्यवस्था में बीस क्रोनर के नोट की खरीददारी क्षमता हमारे दस रूपयों से अधिक नहीं होगी और यही उसका व्यावहारिक मूल्य भी है। स्वीडन में पहुंचने के कुछ ही घंटों में हमें क्रोनर को रूपयों में बदलने की हिंदुस्तानी-सुलभ कवायत को छोड़कर क्रोनर में सोचने की महंगी आदत डालनी पड़ी, वर्ना वहां जीना ही मुहाल हो जाता।   
स्वीडन में चूंकि हमें कई शहरों का सफर करना था, इसलिए एक बार हमने किसी कार कंपनी से खुद ड्राइव करने वाली कार किराए पर लेने की सोची थी। लेकिन सड़क के दाहिने हाथ पर गाड़ी चलाने की पद्धति एक मुश्किल थी। इससे भी ज़्यादा, जानकारों ने बताया कि यहां शहरों में  एकतरफा ट्रैफिक के पेचीदा नियम हैं और पार्किंग की किल्लत अलग से है। हम तो खैर किसी खेत की मूली न थे, लेकिन 'शोफर ड्रिवन' कार चलाना यहां अच्छे-अच्छों के आर्थिक सामथ्र्य से बाहर की चीज़ है। इन सारी सीमाओं के चलते शहरी इलाकों में काम करने वाला अधिकांश कामकाजी वर्ग अनिवार्य रूप से कार की अपेक्षा सार्वजनिक साधनों का उपयोग करता है। इसी का प्रभाव है कि शहरों में यहां आपको भी निजी वाहनों की संख्या कम दिखेगी और 'ट्रैफिक जैम' तो यहां शायद ही कभी देखने को मिले। अधिकांश बड़े कारखाने शहरों से बाहर हैं और यहां के कार्मिक/मैनेजर ज़रूर निजी वाहनों का प्रयोग करते हैं। इन कारखानों में गाडिय़ां खड़ी करने के निजी पार्किंग लॉट हैं। लेकिन हमारे लिए यह जानना आश्चर्यजनक था कि सुबह सबसे पहले काम पर आने वाले चालक अपनी कारें सबसे दूर के स्थान पर खड़ी करते हैं, ताकि देर से आने वालों को नज़दीक की पार्किंग का लाभ मिल सके।
लेकिन वॉल्वो कारों की जन्मस्थली स्वीडन का सबसे लोकप्रिय वाहन कार नहीं बल्कि साइकिल है। सात या इससे भी अधिक गियरों वाली ये आधुनिक साइकिलें आपको यहां हर जगह दिख जाएंगी। कंपनियों के नज़दीक रहने वाले सभी लोग साइकिलों से काम पर आते हैं और दूर रहने वाले कई साइकिल प्रेमी तो  साइकिलें कार में डाल उसे किसी सुविधाजनक स्थल पर पार्क कर शेष सफर साइकिल पर तय करते हैं। हमारे देश की तरह साइकिल वहां साधनहीनता का पर्याय नहीं, बल्कि आधुनिकता की निशानी है। स्वीडन की हर सड़क पर आपको पैदल चलने के रास्ते के साथ-साथ साइकिल का अलग रास्ता भी अनिवार्यत: मिल जाएगा। इन रास्तों पर शॉट्र्स में, हेलमेट लगाए, तेज़ी से ज़न्नाते सवारों  को आप देखते रह जाएंगे। हमें पता चला कि सिर्फ  माल्मो शहर में इन साइकिल रास्तों की लम्बाई साढ़े तीन सौ किलोमीटर से अधिक है। कारों की तरह यहां साइकिलें किराए पर देने वाली बड़ी कम्पनियां हैं, जहां से साइकिल लेकर आप इसे गंतव्य स्थान पर कारों की तरह छोड़ सकते  हैं। बाकी चीज़ों के अलावा यह एक वजह है कि सड़कों पर प्रदूषण का कहीं नामोनिशान तक नहीं मिलेगा।

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स्वीडन के भोजन के बारे में हम कई तरह की नकारात्मक बातें सुन चुके थे कि यहां के लोग कच्चा भोजन और मांस अधिक खाते हैं और मछली में भी यहां जापान की 'सूशी' पद्धति वाली कच्ची अनपकी मछली ही अधिक लोकप्रिय है। लेकिन हमें स्वीडन के कई शहरों में भोजन खाते हुए यह सुखद अहसास हुआ कि वैश्विक संस्कृति के समानांतर यहां के भोजन में भी कई पद्धतियों का इस कदर समन्वय है कि इसमें स्वीडिश और बाहर के खाने को अलग अलग खानों में बांटना असंभव होगा। स्वीडिश भोजन के अतिरिक्त यहां थाई, अरबी और भारतीय भोजन अत्यंत लोकप्रिय है। गोथेनबर्ग के एक स्वीडिश रेस्त्रां 'भोगा' (कदाचित हिंदी 'भोग' का अंग्रेज़ी उच्चारण) में हमें बेहतरीन शाकाहारी भोजन मिला, जिसमें स्वाद जितना ही महत्व भोजन को प्लेट में सजाकर परोसने पर था। मेरे पिता अक्सर मदनमोहन मालवीय की एक उक्ति याद किया करते थे कि भोजन मुसलमान का, रसोई हिंदू की और दस्तरखान अंग्रेज़ों का!' निस्संदेह स्वीडन में भोजन की उत्कृष्टता जातियों और प्रदेशों के विभिन्न भोजन पदार्थों के इसी समन्वय से उपजी है। गोथेनबर्ग के ही पैलेस होटल के बुफे में हमें भारतीय भोजन का सा मिला-जुला स्वाद मिला। पड़ताल करने पर पता चला कि वहां का रसोइया दक्षिण भारतीय दोराइस्वामी है, जो कई वर्ष सिंगापुर के होटलों में काम करने के बाद अब गोथेनबर्ग में बस गया है।
पेरिस की तरह ही स्वीडन में भी खुले बारामदों और फुटपाथों पर फैले रेस्त्राओं का रिवाज है और शाम के समय यहां खासी रौनक हो जाती है। सर्दी से बचने के लिए यहां खुले में गर्मी फैलाने वाले गैस के हंडे लगा लिए जाते हैं।


माल्मो में हमने सेब से बनने वाली शराब साइडर का भरपूर आनंद लिया, जो स्कैंडिनेविया में बेहद लोकप्रिय है और जो ड्राफ्ट बीयर की तरह सीधे नल से गिलास में भरी जाती है। माल्मो अन्य चीज़ों के अलावा अपने रोटी पर परोसे गए सलाद और दाल के पकौड़ों (अरबी डिश 'फलाफल') के लिए भी विख्यात है। शहर में सबसे अच्छा 'फलाफल' कहां मिलता है, यह अरबी भोजन बेचने वाले सौ से अधिक स्टॉलों के बीच चर्चा और स्पर्धा का विषय है।

माल्मो स्वीडन का तीसरे नंबर का शहर है और डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगेन यहां से कुछ ही किलोमीटर पर खाड़ी के दूसरे छोर पर स्थित है, सिंगापुर और मलेशिया के शहर जोहोर बाहरू की तरह। माल्मो में पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक मिलेगी। यंू भी यह स्वीडन का सबसे कॉस्मोपॉलिटन शहर है और यहां के एक तिहाई से अधिक नागरिक बाहर से यहां आए हैं। माल्मो में एक और विशेषता यह है  कि यहां शताब्दियों पुरानी आलीशान इमारतों के साथ साथ बिल्कुल आधुनिक स्काईस्क्रपर एक साथ दिखाई दे जाएंगे। इनमें स्कैंडनेविया की सबसे ऊंची इमारत 'टर्निंग टॉरसो' भी शामिल है, जिसे दुनिया की सबसे अद्भूत इमारतों में शुमार किया जाता है। आप लगभग 4000 रूपयों का महंगा टिकट खरीदकर इसकी सबसे ऊंची मंज़िल तक भी जा सकते हैं।
किसी ज़माने के हांगकांग, सिंगापुर और कुछ हद तक पेरिस की तरह माल्मो में भी एक बहुराष्ट्रीय संस्कृति हर जगह दिखाई देती है। बसों के ड्राइवरों, फ्रंट ऑफिसों में काम करने वाले क्लर्कों और रिसेप्शनिस्टों, दुकानों के मैनेजरों और रेस्त्रां में सर्विस देने वालों तक लगभग सारे बाशिंदे स्वीडन मूल के नहीं हैं। इन सारे लोगों ने कई वर्ष पहले यहां आकर इस शांतिप्रिय सरज़मीं को अपना लिया था और अब यही उनका घर है। संभवत: यही कारण है कि आपको इनमें राष्ट्रवाद तो मिलेगा, लेकिन कट्टरता नहीं। संभवत: यही इनकी गर्मजोशी और आत्मीयता का भी मूल कारण है। फलाफल के स्टॉल लगाने वाले तुर्की और अरबी मूल के बाशिंदों से बात करते हुए हमें अहसास हुआ कि यह शहर एक ऐसी वैश्विक पहचान की ओर बढ़ रहा है जहां राष्ट्रीयता के रहे-सहे संकुचित आयाम भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगे।
माल्मो शहर की बुनावट में सबसे खूबसूरत बात यह है कि बाज़ार और रेस्त्राओं के बीच से चलते हुए आप अचानक अपने आपको प्रकृति के करीब, किसी बहुत बड़े पार्क के बीचोंबीच पाएंगे। पतझड़ वह समय है, जब सर्दियों के पक्षी दक्षिण के गर्म प्रदेशों की ओर अपनी सालाना उड़ान भरना शुरू करते हैं। इस मौसम में उत्तरी ध्रुव ओर अंटार्कटिका के बहुत से पक्षी दक्षिणी स्वीडन और योरोप में देखे जा सकते हैं। माल्मो से 30 किलोमीटर दूर स्वीडन का सबसे दक्षिणी बिंदु है, जहां फालस्टरबे में हज़ारों पक्षी अपनी लंबी उड़ान के लिए यहां से गुज़रते हैं और यह नज़ारा देखने के लिए सैंकड़ों पक्षी प्रेमी हर साल यहां इकट्ठे होते हैं।
      
स्कैंडिनेविया में मूर्तिकला अपने चरम विकास पर है। घोड़ों पर सवार शहंशाहों की मूर्तियां तो खैर हर शहर में होती हैं और स्वीडन भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन शासकों की प्रतिमाओं से कहीं अधिक आकर्षक हैं वहां के पार्कों में लगी जनजीवन से जुड़ी अनेकानेक मूर्तियां जो अपनी उत्कृष्ट कला के अलावा वहां के सांस्कृतिक सरोकारों को भी छूती चलती हैं।
गोथेनबार्ग के मछली बाज़ार के बाहर मछली बेचने वालों का एक जीवंत दृश्य मिलेगा। माल्मो के एक पार्क में बत्तखों वाले लड़के की एक प्रसिद्ध कृति है।
इन पार्कों में आपको बहुत सारी न्यूड मूर्तियां भी दिख जाएंगी जिनमें मानव देह का अभिवादन किसी उल्लासमय उत्सव की तरह छलकता दिखाई देता है। आप देर तक इनकी अंदरूनी सुंदरता को निहारते रह जाएंगे। ये सारी मूर्तियां सार्वजनिक स्थलों की ऊब को तोड़ आपको चेतना के किसी अन्य ही धरातल पर ले चलती हैं। ये कहीं से लेशमात्र भी अश्लील नहीं हैं। माल्मो में स्नानागार के बाहर फव्वारे में नहाते बच्चों का एक अद्वितीय दृश्य है। यहां फव्वारा वास्तविक है, जिसके चलते बच्चों के चेहरे पर पानी में नहाने का सुख सहज ही आप तक पहुंचता है।
                 
यहीं से कुछ दूर पर पेशाबघर के बाहर सागर कन्या को शंख से रिझाते पुरुष की प्रतिमा है।
लेकिन इस सबसे आगे आप उस समय ठिठक जाते हैं तब स्टॉकहोल्म में संसद भवन के पास फुटपाथ पर चलते-चलते नज़र अचानक फुटपाथ पर डेरा जमाए किसी शरणार्थी पर ठहर जाती है। उसकी संवेदनशील आंखों में ध्यान से झांकने पर आपको पता चलता है कि वह कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक सजीव मूर्ति है-एक लावारिस लोमड़ी की, जो अपनी सार दुनियावी सम्पत्ति के साथ एक फटे कंबल पर दुबकी बैठी है!
इस अनोखी जीवंत मूर्ति को लॉरा फोर्ड ने बनाया था और इसके बनने के बाद स्टॉकहोल्म कोंस्ट संस्था ने इसे खरीद लिया था। पर सवाल था कि इस अनोखी आकृति को शहर में किस जगह स्थापित किया जाए। आम लोगों की राय जानने के लिए एक समाचार पत्र ने जनमत का आयोजन किया, जिसके परिणामस्वरूप यह लावारिस लोमड़ी आज आपको प्रधानमंत्री के निवासगृह और संसद के बीच के संभ्रांत फुटपाथ पर निरीह भाव से आपकी ओर देखती मिल जाएगी, लोगों को यह स्मरण दिलाते हुए कि हम सब बेहद खुशकिस्मत सही, लेकिन दुनिया में आज भी लाखों लोग ऐेसे हैं जिनके सिर पर न कोई छत है न रहने के लिए घर। किसी अनोखे चमत्कार की तरह यह लावारिस लोमड़ी सहृदयता और मानवता के उस जज़्बे की प्रतीक है जो आज स्वीडन में लगभग हर नागरिक के दिल में किसी मशाल की तरह रौशन दिखाई देता है। बकौल साहिर-
    चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा
    रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा
निस्संदेह आतंकी हमलों ने चाहे पेरिस में कहर ढा दिया हो और शरणार्थियों के लिए खुले कई दरवाज़े अब घबराकर बंद किए जा रहे हों, लेकिन स्वीडन में इंसानियत का वह जज़्बा अब भी ज़िंदा है...
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माल्मो शहर से स्टॉकहोल्म की साढ़े पांच घंटों की रेल यात्रा स्वीडन को किसी त्रिकोण की कर्ण भुजा की तरह काटती है और हम जंगलों, झीलों और घास के मैदानों से ढंके इस देश को किसी तिलिस्म की तरह रेल की खिड़की के बाहर खुलता देखते हैं। स्वीडन की लंबी देहाती सड़कों पर आपको दूर दूर तक कोई बन्दा या वाहन दिखाई नहीं देगा। लेकिन निर्जन स्थलों पर भी बने शौचालयों में आपको फ्लश में पानी और टॉयलेट पेपर सुरक्षित मिल जाएगा। यह भी अपने आप में एक अजूबा है कि इतने विस्तृत देश को इतने कम लोग कैसे सुचारू ढंग से चलाते हैं।
मुंबई की मरीन ड्राइव जैसी ही एक गोलाकार खाड़ी पर बसा स्टॉकहोल्म दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में गिना जाता है। दो ओर समुद्र से घिरे स्टॉकहोल्म के इर्दगिर्द भी गोथेनबर्ग की तरह द्वीपों के समूह हैं और मुंबई की ही तरह स्टॉकहोल्म के कई हिस्से पहले अलग-अलग द्वीप थे। दूसरी राजधानियों की तरह स्टॉकहोल्म में भी सरकारी इमारतों की बहुतायत है और पर्यटकों के लिए यहां कई तयशुदा ठिकाने हैं। शहर के बीचोंबीच बहुत बड़े बाज़ार का इलाका ड्रोटटनिंगगार्टन है, जहां सभी तरह के वाहनों के प्रवेश की मनाही है। यहां बड़े-बड़े स्टोर, थियेटरगृह और रेस्त्रां हैं, जिनके नीचे एस्कलेटरों द्वारा आप शहर के मेट्रो स्टेशनों तक पहुंच सकते हैं। बाज़ार में चलने वाले चेहरों से आप बहुत आसानी से इस शहर और देश की बहुराष्ट्रीय पहचान को महसूस कर सकते हैं। आप किसी से रास्ता पूछें तो वह तफ्सील के साथ आपको समझाएगा और अगर उसे वह जगह मालूम नहीं होगी तो वह आपको किसी जानकार के पास ले चलेगा। माल्मो में हमें वेंडर मशीन से मेट्रो का टिकट खरीदने में परेशानी हुई तो सामने 'मैकडॉनल्ड' के काउंटर पर खड़ी लड़की अपना काम छोड़कर हमारे साथ आयी और टिकट हमारे हाथ में थमाने के बाद भी देर तक हमें अपने गंतव्य स्थल जाने का रास्ता समझाती रही। जब हमने उसका धन्यवाद किया तो वह सहज भाव से हमें बताती रही कि वह दो महीने पहले ऑस्ट्रिया से वहां आयी है और उसे अच्छी तरह मालूम है कि नयी जगह से सामंजस्य मिला पाना कितना मुश्किल होता है।
किताबों की दुकान पर सबसे लोकप्रिय दस पुस्तकों की सूची में चौथे नंबर पर काफ्का की 'नोटबुक' का दिखना एक सुखद आश्चर्य था। हमने समझा कि यह काफ्का की डायरीज़ का कोई अप्रकाशित या नया अंश है। लेकिन खोलकर देखने पर पता चला कि किताब की शक्ल में वह सचमुच खाली पन्नों वाली एक
                  
नोटबुक ही थी! वहां काफ्का का चित्र और उनका हस्ताक्षर महज़ बौद्धिकता के ब्रांड के रूप में वहां उपस्थित था, चे ग्वारा के कल्ट चित्र की तरह । उसी श्रृंखला में कई और लेखकों के चित्रों वाली नोटबुकें भी वहां बिक रही थी।
स्टॉकहोल्म की गलियों को काटती नहरों पर बने छोटे-छोटे पुलों से आप शहर की ठहरी हुई गति का आनंद ले सकते हैं। इन नहरों में आपको बत्तखें, अबाबील और हंस भी उसी फुर्सत से तैरते दिखाई दे जाएंगे। दरअसल एक बड़े शहर का व्यक्तित्व क्या नहीं होना चाहिए, उसका एक आभास स्टॉकहोल्म अपने बाशिंदों को हर जगह देता है। सारी गतिविधियों के बावजूद आपको यहां महानगर की गहमागहमी कहीं दिखाई नहीं देगी। शाम के समय अंडरग्राउंड मेट्रो में भी आपको एस्कलेटर पर भागते हुजूम और डिब्बों में लदी भीड़ दिखाई नहीं देगी। दफ्तर के समय के समानांतर उतरती शाम में बूढ़ों का गिरोह आराम से अपनी बियर को जुगालता किसी ध्यान की सी मुद्रा में कुछ सोचता, गहराता दिखाई देगा।

स्टॉकहोल्म को कुछ लोग संग्रहालयों का शहर भी कहते हैं। शहर में 80 से भी अधिक विशिष्ट संग्रहालय हैं जिनमें से हरएक में एक-एक सप्ताह गुज़ारना भी नाकाफ़ी होगा। दुर्भाग्यवश हमारे पास समय, दिनों में भी नहीं सिर्फ  घंटों में था और इतना कम समय इस शहर की विस्तृत संस्कृति को खंगालने के लिए बेहद कम था। हमने अपनी रिहाइश का इंतज़ाम बंदरगाह पर लगे एक छोटे से जहाज में किया था, जो गर्मियों में बाकायदा क्रूज़ पर निकलता था और बाकी समय महज़ एक होटल बन जाता था। उसके डेक पर हर शाम जमकर संगीत गूंजता था। यहां के पाकिस्तानी मैनेजर ने हमज़बानी का ह$क जताते हुए हमें नाश्ते के कुछ कूपन बतौर भेंट दे डाले। वक्त आने पर उसने वहीं ठहरे हुए एक निहायत चिपकू किस्म के कैथोलिक पादरी और उसके सर्वशक्तिमान जीज़स क्राइस्ट से हमारी रक्षा भी की। जब हमने वतन में दोनों मुल्कों के बीच चल रही 'कोल्ड वार' का ज़िक्र किया तो वह हँसकर बोला कि लडऩे वालों को ठंडे परदेस में पहुंचने के बाद ही अपनी सांझी विरासत की गर्माहट महसूस होती है।
हमारे जहाज से कुछ ही आगे मोड़ पर फोटोग्राफी का प्रसिद्ध संग्रहालय 'फोटोग्राफिका' था जहां उस समय 'युद्ध और नींद में सोए हुए बच्चे' शीर्षक रोंगटे खड़े करने वाली प्रदर्शनी चल रही थी। शहर में एक बड़ा संग्रहालय स्कैंडिनेविया की संस्कृति को समर्पित है। एक अन्य म्यूज़ियम नोबेल और नोबेल पुरस्कार के इतिहास पर आधारित है। लेकिन हमें इन सारे संग्रहालयों से कहीं अधिक विशिष्ट लगा अनोखा 'वासा म्यूज़ियम', जिसका अपना अजीबोगरीब इतिहास है।
सत्रहवीं शताब्दी में स्वीडन के शहंशाह गुस्टावुस अदुलफुस ने लुथियानिया से अपने संभावित युद्ध की तैयारी में दुनिया के सबसे शक्तिशाली युद्धपोत बनाने का फैसला किया था  और इस तरह तीन वर्षों के लंबे निर्माण के बाद 1628 में यह पोत 'वासा' तैयार हुआ था। इस पर कांसे की 64 तोपें लगी थीं और शहंशाह की इच्छा के अनुसार इस पर बारूद के सामान के साथ-साथ बहुमूल्य धातुओं से प्रतीक चिन्ह भी बनाए गए थे। इसमें कुल 300 सिपाही और 145 नाविक सफर कर सकते थे। एक शानदार समारोह के साथ 'वासा' को स्टॉकहोल्म के बंदरगाह में उतारा गया था। हज़ारों आंखें गर्व से इस भव्य दृश्य को देख रही थी। लेकिन जहाज़ के वज़न और इसके डिज़ाइन में शायद कोई चूक रह गयी थी। बमुश्किल एक किलोमीटर चलने के बाद ही 'वासा' अपने हज़ारों नागरिकों और शहंशाह को शर्मसार बनाता समूचा पानी में समा गया था और कोई कुछ नहीं कर पाया था
इस ऐतिहासिक घटना के सवा तीन सौ से अधिक सालों के बाद 1961 में स्वीडन के एक दक्ष इंजीनियर दस्ते ने इस पूरे जहाज़ को लगभग ज्यों का त्यों समुद्र से बाहर निकालने में सफलता पायी थी। तब सरकार ने इस जहाज़ के इर्दगिर्द एक म्यूज़ियम बनाने का फैसला लिया था और इस योजना को अंजाम देने के लिए उसने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसमें दुनिया के 384 जाने-माने आर्किटेक्टों ने हिस्सा लिया।
अंतत: मारियान दाहलबैक और गोरान मैसोन ने इस प्रतियोगिता के विजेता बनकर म्यूज़ियम बनाने का काम शुरू किया और आखिरकार 1990 में यह काम पूरा हुआ। इस म्यूज़ियम में न सिर्फ  समूचे 'वासा' जहाज़ बल्कि उसमें से मिलने वाले सारे सामान को भी सुरक्षित रखा गया है। आज यह म्यूज़ियम पिछली सदियों की जहाजरानी पद्धतियों का सबसे मुकम्मल और विस्तृत म्यूज़ियम है। स्कैंडिनेविया के इस सबसे लोकप्रिय संग्रहालय को अब तक तीन करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं।
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अगली ही दोपहर हम स्वीडन से विदा लेने के लिए स्टॉकहोल्म के पुराने हवाई अड्डे आर्लान्डा में थे। इस प्रदेश में गुज़रे दस बारह दिनों को लेकर यूं तो कई सवाल हमारे मन में थे, लेकिन सबसे बड़ी दुरभिसंधि यहां के क्रमश: परिष्कृत होते समाज को लेकर थी। हाल ही में फ्रांस में हुए आतंकी हमलों ने इन सवालों को कुछ और गंभीर बना दिया है। एक ओर जहां पूंजीवादी सत्ता विश्व की समूची अर्थव्यवस्था पर अपना शिकंजा कसती जा रही है, वहीं दूसरी ओर जिस तेज़ी से हमारा समाज रंग, धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकृत किया जा रहा है, उसमें स्वीडन जैसी विकसित और उदार संस्कृति क्या हमारे लिए कोई सबक या संदेश लाती है? बढ़ती असहिष्णुता के विरुद्ध बुद्धिजीवियों और सोचने समझने वाले लोगों की बुलंद होती आवाज़ एक शुभ संकेत है। बिहार के चुनावों ने इस सोच को कुछ और मज़बूत किया है। स्वीडन में दूसरों के प्रति 'स्पेस' बनाने का यह दायित्व भरा अहसास अपने चरम पर है।
मुझे लगता है कि यदि तात्कालिक घटनाओं और वारदातों से ऊपर उठकर देखा जाए, तब भी हमें स्वीकार करना होगा कि अपने जनतांत्रिक ढांचे के बावजूद हम एक अत्यंत 'असामाजिक' समय में जी रहे हैं।  जब अपने भारतीय परिवेश में एक ओर हम अपने पारिवारिक रिश्तों, भाई-बहन, अपने माता-पिता और अपनी संतानों के प्रति अत्यंत जिम्मेदाराना, सहानुभूतिपूर्ण और सहिष्णुपूर्ण रवैया अपनाते हैं, तब वहीं दूसरी ओर समाज तक आते आते हम इस कदर गैरजिम्मेदार, असहिष्णु और बर्बर क्यों हो जाते हैं? क्यों खिड़की के बाहर बीच सड़क पर अपना व्यक्तिगत कचरा फेंकने से लेकर गोमांस रखने के झूठे शक पर किसी निर्दोष की जान लेने तक किसी भी कदम पर हमारी अंतरात्मा हमें नहीं कचोटती? क्यों अपनी इस असामाजिकता पर सवाल उठाने का मौलिक अधिकार भी आज हमें जोखिम से भरा दिखाई देने लगा है?
देखा जाए तो स्वीडन जैसी संस्कृति में इस सोच का ठीक उलट सच है। वहां निजी पारिवारिक रिश्ते अपनी आखिरी सीमा तक अवैयक्तिक और असम्पृक्त बन चुके हैं, लेकिन इसी के समानांतर समाज धीरे धीरे पहले से कहीं अधिक जिम्मेदार, सहानुभूतिपूर्ण और उदार एवं सहिष्णु बनता चला जा रहा है।
मैं सोचता हूं कि दुनिया में क्या कोई सुबह ऐसी भी आ सकती हैै जब परिवार और समाज, दोनों ही में हमें एक जैसी परिपूर्णता, एक सी उदारता और एक ही जैसी सहिष्णुता दिखाई देने लगे?
ज़रा सोचकर तो देखिए। साहिर का वह पुरअसरार गीत- जिससे हमने बात की शुरूआत की थी-- शायद ऐसी ही किसी अप्राप्य जन्नत या 'यूटोपिया' से ताल्लुक रखता है....

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