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जनवरी 2016

''फ़ासिज़्म की मार ही हिन्दी कविता और इसके गद्य को बचायेगी''

असद ज़ैदी से रुबीना सैफ़ी की बातचीत

साक्षात्कार


सवाल: आपका पहला काव्यसंग्रह 'बहनें और अन्य कविताएँ' 1980 में प्रकाशित हुआ। आपने उसकी भूमिका में कहा भी है कि वे कविताएँ भारतीय समाज और राजनीति के साए में लिखी कविताएं हैं लेकिन बहुत से हादसे तब तक नहीं हुए थे। इन दोनों वक्त की कविताओं यानी 1980 से पहले लिखी जा रही कविताओं और बाद की कविताओं में आप क्या फ़र्क देखते हैं? क्या ऐसे कुछ तत्व और दृष्टि है, जो 1980 के पहले और बाद की कविताओं को परस्पर अलग करती हो? अगर हाँ, तो वे क्या हैं?
जवाब: हादसों की फेहरिस्त बनाई जाये तो तवील होगी: इमरजेंसी के बाद का दक्षिण पंथी उभार, भोपाल गैस कांड, ऑपरेशन ब्लूस्टार, दिल्ली, असम और भागलपुर के साम्प्रदायिक जनसंहार, 1989 से समाजवादी राजनीतिक-आर्थिक विश्व का बिखरना, हिन्दुत्ववादी गठजोड़ द्वारा बाबरी मस्जिद का विध्वंस, मुंबई और सूरत के जनसंहार, बहुजन समाजवादी और मंडलवादी आंदोलनों का उभार, नव-उदारवादी अर्थतंत्र का विधिवत उदय और वर्चस्व, वाम राजनीति का सोशल डेमोक्रेसी द्वारा टेकओवर, तथा कथित राष्ट्रीय सुरक्षातंत्र द्वारा राष्ट्रीय जीवन का टेकओवर, गुजरात 2002 का राज्य समर्थित जनसंहार, कॉरपोरेट फ़ासीवाद की वह शक्ल जो अब हम सबके सामने है।
संयोग ही कहिए कि मेरे तीन संग्रह मेरे अपने काव्य-जीवन की तीन मंज़िलों की नुमाइन्दगी करते हैं। 'बहनें और अन्य कविताएँ' की दुनिया मोटे तौर पर इन हादसात से पहले की दुनिया है। उसकी आफ़तें पुरानी आफ़तें हैं, भले ही वे जारी आफ़तें भी हों। उसकी कविताएँ हमारे कौमी जीवन में शैतान के अपने असली रूप में प्रकट होने के पहले की कविताएँ हैं। आने वाले दिनों के अंदेशे हैं, पर एक स्थापित यथार्थ की तरह, इससे पैदा हुए कॉमन सेंस की तरह नहीं। कविता में, साहित्य में, सभी मानवीय रचनात्मक और चिंतनपरक उपक्रमों में आने वाले समय का आभास, उम्मीदें और अंदेशे शामिल होते हैं। उस समय के अधिकांश साहित्य में, मेरे समकालीनों के लेखन में ये आहटें हैं भी। मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय ने समकालीन हिन्दी कवियों को यही तो पहचानना सिखाया था।
दरअस्ल 1975-1977 के इमरजेंसी काल ने बहुत से मिथक पैदा किये। पहला मिथक तो यही कि आज़ाद भारत के इतिहास की यह ऐसी अनहोनी घटना है जिसने लोगों की आँखें खोल दीं। इसी से जुड़ा मिथक यह कि इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई अधिनायकवाद के विरुद्ध लोकतंत्र की जीत की प्रतीक है। यह दरअसल दक्षिणपंथी ताक़तों के फैलाए मिथक हैं, इनको 'अनपैक'  करना ज़रूरी है।
इमरजेंसी का लागू किया जाना और इसका हटाया जाना ये दोनों दक्षिणपंथी राजनीति के भीतर लिये गए फ़ैसले थे और इनसे सभी राजनीतिक दलों के भीतर का दक्षिणपंथ ही मज़बूत हुआ। उदार और वामशक्तियों में भी दक्षिणपंथी मोड़ तभी का आया हुआ है। अब तो मुझे लगता है इमरजेंसी को सभी राजनीतिक दलों के अवचेतन की स्वीकृति, बल्कि सर्वानुमति हासिल थी। यह एक अंतरिम कार्रवाई थी जिसके माध्यम से आधुनिक भारत युद्धोत्तर पूँजीवादी विश्व से अपने दूरगामी रिश्तों की बुनियाद डाल रहा था। संजय गाँधी नाम का शख्स हमारे राष्ट्रीय अवचेतन का मूर्तिमान रूप था।
बहरहाल, बात तब और तब के बाद की कविता के फ़र्क  की है। फ़र्क यही है कि 1988 में प्रकाशित मेरे दूसरे कविता संकलन 'कविता का जीवन' में अक्सर अपने ऊपर, अपने समय के सांस्कृतिक माहौल पर और संस्कृति के कारोबार पर—संस्कृति और राजनीति के संबंध पर—नज़र डाली गई है। ज़बान के  ऐतबार से अपने आपसे और अपने मुखालिफ़ से सामना करने के लिए ज़रूरी सख्ती पैदा करने की कोशिश है। एक हृदयहीन महानगर में अपने अंत:करण को समझने और बचाने की जद्दो-जहद है। इस जद्दो-जहद की शर्तों और मतलब को ठीक से बयान कर सकें ऐसा मुहावरा पाने की कोशिश भी है—ऐसा मुहावरा जो झूठा, लिजलिजा और आडंबरमय न हो। इस संग्रह की कविताओं में पहले जैसी भावमयता और उदासी न देखकर, विषय वस्तु बदली पाकर, कुछ  मित्र नाखुश हुए। यह भी कहा कि यह कवि तो 'खतम' है। सच तो यह है कि मेरा ही नहीं एक पूरे युग का खात्मा हो रहा था। जिन लोगों को 1989 का पता नहीं चला, समाजवादी चुनौती के नष्ट होने से जिनका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, जिनकी कविता में कोई संकट ही पैदा न हुआ, उनकी कविता अनवरत सेलेब्रेशन की, उत्सवधर्मी बेहयाई की कविता रही। जो बेशर्मी से पूर्ववत ऐसे ही लिखते रहे कि मनुष्य रहेगा, दुनिया रहेगी, हरियाली रहेगी, बच्चे, फूल, चिडिय़ा और सारस रहेंगे, मैं रहूँगा और मेरी भोग्या पृथ्वी रहेगी! उनकी कविता हर संकट से परे है; वे हर हाल में कविताई कर लेंगे और सबका मन हर लेंगे। मुझे ऐसी पेशेवरी आपराधिक लगती रही, मैं खुद भी इस परिस्थिति से हताश रहा।
मेरा तीसरा कविता संकलन 'सामान की तलाश' 2008 में, पिछले संकलन के बीस साल बाद आया। 1988 के बाद की बीस साल की खामोशी इसमें दर्ज है। एकध्रुवीय विश्व में, हिन्दूवादी दबाव से मरते एक लोकतंत्र में, नव उदारतावादी अर्थनीति की क्रूरताओं के बीच रास रचाते नवधनिक को देखते हुए, और नए लालचों से मदहोश मध्यवर्ग के बीच रहते हुए, उसकी 'अगर-मगर' सुनते हुए ये बीस साल भारी गुज़रे। लिहाज़ा इस किताब में एक नैतिक शिनाख्त की, दबी तकलीफ़ों की, पिछले ज़लज़लों की, गड़े मुर्दों की जुस्तजू ही है। मुर्दों की नज़र से जीवितों का हाल जानने की कोशिश है। मृत से ही जीवित का पता लगता है। मुझे इस खामोशी का बयान करने में इतना सारा वक्त लगा— पता नहीं कितनी वह बयान हो पाई है। 1988 से 2008 के बीच का यह वह समय है जब इस मुल्क पर, इसके अवाम पर, यहाँ की अब तक चली आती रीत पर, यहाँ की ज़मीन से पैदा होने वाली हर चीज़ पर क्या क्या न बीता होगा! दुनिया के पैमाने पर भी क्या कुछ न हुआ! बहरहाल इन कविताओं को लिखकर एक जगह इकट्ठा कर के लगा कि मैं वह कहने में किसी कद्र कामयाब हो सका हूँ जिसे कहने में इतना वक्त लगा; जिसके कहने के रास्ते में बड़ी बाधाएँ थीं—अपनी खड़ी की, दूसरों की बनाई हुई।
'सामान की तलाश' की कविताओं पर जो बहस रही उससे एक नतीजा यह निकला कि मुझे 'हिन्दी के वाम' में रचे बसे दक्षिण की गहराई और व्याप्ति का तो अच्छी तरह अन्दाज़ा हो ही गया, उस बौद्धिक स्तर की गिरावट का भी पता चला जो साम्प्रदायिक विमर्श को ही उच्च आलोचनात्मक विमर्श समझती है। उनकी साम्प्रदायिकता के नीचे उनकी प्रगतिशीलता दब चुकी है। यह जानकर कौन निढाल न होगा! लेकिन इसी अवसर पर बहुत से लोगों ने खुले दिल समर्थन किया और हौसला बढ़ाया जिसकी कि मुझे ज़रूरत थी। यह देख कर खुशी भी हुई कि बड़ी तादाद में स्वतंत्र-मस्तिष्क—लिखने पढऩे वाले—लोगों पर हिन्दी के अकादमिक प्रतिष्ठान और मास्टरों का आतंक समाप्त हो चुका है और बिलाखौ्रफ़ अपनी बात कहने का हौसला रखते हैं। रामचन्द्र शुक्ल रेखा का उल्लंघन करना अब संभव है।
सवाल:  समकालीन कवि और कविता किसे माना जाना चाहिए? क्या सिर्फ एक ऐसे दौर में कविता लिखना काफी है, जिसे समकालीन कविता का दौर माना जा रहा हो, या फिर इसकी अपनी कुछ शर्तें हैं?
जवाब: कविता की समकालीनता रचनाकाल से नहीं, उसकी होशमन्दी से तय होती है। यह भी हो सकता है कि जिसे हम समकालीन समझते हों वह मात्र समकालीन बेहोशी का या पलायन का दस्तावेज़ हो। उसमें साहस और उल्लंघन हो ही नहीं! बस चोर गलियाँ हों! मुझे यह कहने की इच्छा होती रहती है कि आज लिखी जा रही कविता का बड़ा हिस्सा बमुश्किल समकालीन है—वह चोर गलियों से निकलता पाया जाता है। उसमें संघर्ष, आत्म संघर्ष की कमी है, चेम्बर पोएट्स का, बुटीक पोएट्री का, नपी-तुली चतुर अभिव्यक्ति का बोलबाला है। वह सरापा कन्फ़र्मिज़्म में लिप्त है। इमरजेन्सी के बाद के सांस्कृतिक हालात का जायज़ा लें तो देखेंगे कि सांस्थानिक विकास के नाम पर दक्षिणपंथ ने पीठें, कलाकेन्द्र, विभाग, भवन, विश्वविद्यालय स्थापित किए हैं। वे ऐसी ही कला, कला-व्यापार और कला-ज्ञान को प्रश्रय देते हैं। यही उनका उद्देश्य है। वहाँ नौकरियाँ हैं, पैसा है और द्वितीय श्रेणी की कुछ ताक़त है। इनके पास प्रगतिशीलों को लुभाने और अनुकूलित करने की व्यवस्था भी है। कुछ तेज़ तर्रार प्रतिभाएँ कुछ देर के लिए चमकती हैं, कुछ चुनौती, जिरह का माहौल पैदा करती हैं, कुछ ही अरसे में सौदेबाज़ी और मीडियॉक्रिटी के दलदल में प्रसन्न, कुलबुलाती नज़र आती हैं। बाद को ठंडी सलाम दुआ बाक़ी रह जाती है। ऐसी है हमारी समकालीन, मुक्तिबोध-द्रोही हिन्दी-नियति।
सवाल: आपने  'बहनें और अन्य कविताएँ' के नए संस्करण की भूमिका में कहा है कि 'हिंदी आलोचना की मुख्यधारा न सिर्फ जीवन से बल्कि मरण से भी परे है।' इससे आपका क्या आशय है? हिंदी आलोचना क्या हमेशा ऐसी ही रही या कभी वैकल्पिक राह भी दिखाई दी है?
जवाब:  हिन्दी आलोचना की जिस मुख्यधारा की मैंने बात की है वह मूलत: एक नेटिविस्ट, प्रतिक्रियावादी और सामन्ती विचारधारा की निर्मिति है। यह मूलत: सांस्कृतिक अस्मितावाद, संकीर्ण जातीयता और एक खास तरह के रोज़गार पर आधिपत्य और उसके आधार पर एक गरीब देश के बड़े से खित्ते में सामाजिक सत्ता पा लेने और इस समीकरण को बनाये रखने के प्रोजेक्ट में फँसी हुई है। इसके हाथ में सवर्ण सत्ता की तलवार रहती है और आत्मा में एक विराट नैतिक शून्य। इसका समकालीन साहित्य या अन्य कलाओं से कोई रिश्ता है ही नहीं। उसे मजबूरन, पेशे की ज़रूरत की वजह से, कुछ साहित्य से उलझना पड़ता है, बल्कि कहिए कि साहित्य की सवारी करना पड़ती है, पर इसकी बुनियादी वफ़ादारी और जवाबदेही उसी संकीर्ण जातीय परियोजना के प्रति है।  एक ज़माने में प्रेमचंद ने और बाद को मुक्तिबोध ने इसके भीतर एक प्रगतिशील मानस को बनाने, अंत:करण को जगाने की भरसक कोशिश की थी—और वही काम आज भी रौशनी देता है—वही एक गैर सत्ताकामी, वैकल्पिक परम्परा है जिससे आज का रचनाकार कुछ सार्थक रिश्ता बना सकता है। जितना भी साहसिक काम आलोचना में हुआ वह मूलत: गैर-प्राध्यापकीय धारा में ही हुआ। गंभीर और सृजनात्मक चिंतन के नाम पर हिन्दी के पास दिखाने के लिए खास आदमी मुक्तिबोध ही हैं। मोटे तौर पर मैंने पाया है कि कवियों और कथाकारों का लिखा आलोचनात्मक या वैचारिक गद्य ज़्यादा पढऩे लायक और सुचिंतित होता है।
सवाल:  आपने लिखा है कि 80 के दशक में रचनाकार तमाम विषमता और सामाजिक कटुता, जीविकोपार्जन और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच डोलते हुए भी समाज को लेकर चिंतित और सक्रिय रहते थे। क्या आप मानते हैं कि 90 के दशक में या उसके बाद यह कम हुआ या नहीं रहा?
जवाब: बेशक, एक गिरावट है और गिरना जारी है। लेकिन दोष नयों का ही नहीं — नये ही नहीं,  पुराने भी गिर रहे हैं। नयों में से कुछ को पता ही नहीं कि यह गिरना है, या कि वे गिर रहे हैं, और गिर रहे हैं तो कैसे और कहाँ! 
अब आज ऐसे लेखकों की हिन्दी में भरमार है जो एक स्वर से 'बाज़ार', 'उपभोक्तावादी मानसिकता' के विरोध में है, कहते हैं  'मनुष्य बाज़ार का दास' होता जा रहा है, समझते हैं कि वे राजनीतिक रूप से और नैतिक रूप से सही बात कह रहे हैं। लेकिन ऐसी अमूर्त, खोखली बातें तो हर भाजपाई भी करता है। अगर आप पूँजी, उपभोग, उत्पादन या श्रम के शोषण के तंत्र की सीधी, मूलगामी आलोचना से कतराते हैं तो आप 'बाज़ार-निन्दा' करके कुछ भी नहीं कह रहे। अनेक लेखकों की एक आँख पद, पुरस्कार, सरकारी और प्राइवेट न्योते जेनरेट करने वाले तंत्र और उसके संचालकों पर लगी रहती है, दूसरी अपने प्रचार प्रसार और प्रलोभन-आश्रित नेटवर्क को चलाए रखने पर। वे खुद को वाम-पक्ष में भी गिनते हैं और दक्षिण के कारकुन भी बने रहते हैं। हिन्दी शिक्षण और साहित्यालोचना का कारोबार भी सामंती ढाँचे के भीतर ही सम्पन्न होता रहा है। कुछ पुराने प्रगतिशील महन्त अब वाम विकल्प को समाप्त मान चुके हैं और फ़ासिस्टों के सलाहकार हैं।
कुछ नई परिस्थितियाँ बनी हैं। बहुत से बदलाव आ रहे हैं और आने वाले हैं। पुराने 'इलाके' की शक्ल बदल रही है। हिन्दी में साहित्यिक संस्थाओं, पुरस्कारों, पत्रिकाओं, कार्यक्रमों-उत्सवों, वज़ीफ़ों, देश-विदेश यात्राओं, सम्मान और पहचान-फ़रोशी का एक अतिशय क्षेत्र और एक पोलिटिकल इकॉनोमी वुजूद में आ चुके हैं। सरकारी क्षेत्र से बाहर भी एक छोटा मोटा बाज़ार बन गया है जो फैलना चाहता है। नई तर्ज़ के संगठनकर्ता, प्रायोजक, मध्यस्थ और दलाल िकस्म के लोग नज़र आने लगे हैं। यह महज़ सांस्कृतिक नहीं, एक राजनीतिक-आर्थिक परिघटना है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने एक  नया इलाका, नई ज़मीन भी खोली है, जिसके असर को अभी ठीक से देखा जाना बाकी है। यह चीज़ विस्तार से चर्चा माँगती है। इसे — यानी ब्लॉग, फ़ेसबुक, ट्विटर जैसे मंचों पर फैली रचना या अभिव्यक्ति को — 'असीम संभावना' या फिर 'आत्मश्लाघा' की कोटियों से निर्मित क्रिटीक से बाहर निकलकर समझना पड़ेगा। ये साधारण नागरिक गतिविधि का निस्बतन नया इलाका है। जिन्हें यहाँ के साधन और मंच उपलब्ध हैं उन्हें इनके इस्तेमाल से गुरेज़ नहीं करना चाहिए।
सवाल:  'सामान की तलाश' कविता संग्रह में कुछ कविताएं गद्यात्मक हैं। बल्कि गद्य ही हैं। आप उन्हें कविता संग्रह में शामिल करते हैं तो इसके पीछे क्या वजहें हैं? आप कविता और गद्य में कैसे फर्क करते हैं?
जवाब: जब भी कोई यह पूछता है तो मेरा मनोबल टूटने लगता है। बक़ौल मिर्ज़ा— 'लो वह भी कहते हैं कि यह बे-नंग-ओ-नाम है / यह जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं!'
दरअसल गद्य से मुक्ति की कामना मैंने कभी न की। कविता की जान ही उसके गद्य में होती है। उसका विवेक भी उसके गद्य ही में समाया होता है। बाक़ी चीज़ें तो उपकरण और आराइश का दर्जा रखती हैं। मैं हमेशा वाक्य को— न कि शब्द या फ्रेज़ को—प्राथमिक इकाई मानकर चलता हूँ। मेरे लिए यह अक़ीदा शुरू ही से आधुनिक होने की शर्त की तरह रहा, और, जैसा कि आपने देखा, वक़्त के साथ गहरा ही होता गया। यह वाक्य पदीयता सौंदर्यशास्त्रीय चयन ही नहीं, नैतिक चयन भी है। मैं पद्य और गद्य में सचमुच भेद नहीं करता— कोई भेदभाव नहीं रखता। मैंने यह भी पाया है कि कुछ कथाकार ज़बान और बयान के मसाइल पर कविता और कवि जन से ईष्र्या सी रखते हैं, जो बेजा है, और शायद इसलिए है कि वे लिखना नहीं सीख सके हैं और अराजनीतिक हैं। वे ख़राब, अशिक्षित गद्य लिखते हैं और इस बात को जानते हैं।
सवाल:  भाषा का दर्द आप की कविताओं में कई जगह दिखाई देता है। जैसे 'मालूम नहीं है इन चीजों का क्या हश्र होगा/और उस ज़बान का भी जिसे मैं समझता हूं/अपनी मातृभाषा'। यह कैसा दर्द है और किस डर से पैदा हुआ है?
जवाब: दो बातें कही जा सकती हैं। पहली यह कि हिन्दी एक बनती हुई भाषा है; दुर्भाग्य से जितना यह बनती जाती है उतना ही बिगड़ती जाती है। यह इसका ऐतिहासिक दुर्भाग्य है। यह अपने आरंभिक पाप-चक्र से, अपनी संकीर्ण साम्प्रदायिक अस्मिता से, बाहर नहीं निकल पा रही है। भाषाएँ बहुमतवाद और बाहुबल से नहीं बना करतीं, बल्कि इन्सानी बोलचाल, मेलजोल और सदियों की हुनरमंदी से बना करती हैं। हिन्दी वालों को, यानी हिन्दी उद्योग के वेतन भोगी परोपजीवियों को, यह समझने में पता नहीं और कितना समय लगेगा! वे औद्योगिक $िकस्म की मैनुफ़ैरक्चरिंग से, सांस्थानिक संसाधनों पर अपने वर्चस्व से और धींगा मुश्ती से बात बना लेना चाहते हैं। हिन्दी आज भी एक असुरक्षित भाषा है—अत्यंत आक्रामक, अस्थिर और छुआछूत को मानने वाली। उर्दू से अदावत का नुक़सान इसे बहुत हुआ है, पर इसी को फ़ायदा कहा जाता है! एक वाक्य में इसकी दुर्दशा का बयान करना हो तो कहा जा सकता है कि हिन्दी कुल मिलाकर 'हिन्दुस्तान' और 'हिन्दुस्थान' के बीच फँसी हुई भाषा है।
हिन्दी का प्रगतिशील बुद्धिजीवी समुदाय भी इस प्रवृति से मुक्त नहीं। अक्सर लोग अपनी जहालत और उजड्डपन को ही जनवादी या लोकवादी मुद्रा की तरह पेश करने लगते हैं। फिर यही चीज़ प्रगतिशीलता का पर्याय भी बन जाती है। हिन्दी में यह अदा मेरे खय़ाल से समाजवादियों की देन है, पर अब तो सर्वव्यापी सी हो गई है। जिस ज़बान की लीडरशिप आज भी अपनी ज़बान के उत्थान, उसकी बहबूदी की परवाह करने के बजाय लगातार उर्दू और उत्तर भारत की दूसरी ज़बानों को खदेडऩे, उसका योजनाबद्ध तरीक़े से नाश करने पर ही अपनी सियासत की बुनियाद रखती है, उसकी प्रगतिशीलता के बारे में क्या कहा जाए!
तो किसी भी समकालीन हिंदी लेखक को इस माहौल में साँस लेना पड़ता है और इसी माहौल से लडऩा पड़ता है। यह सेकुलर होने की लड़ाई भी है। बिना सेकुलर बने हिन्दी का कोई भविष्य नहीं। यह सच्ची सांस्कृतिक धरोहर की रिकवरी ही की नहीं, वाम की रिकवरी की अनिवार्य शर्त है। सच यह है कि हिन्दी लेखक और विमर्शकारों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियाँ कुछ ज़्यादा हैं।
सवाल:  1980 में जब आपका काव्य संग्रह आया तब उसका शीर्षक ही बहनें और अन्य कविताएं था। सिर्फ शीर्षक ही नहीं, उसमें स्त्री संवेदना को व्याख्यायित करती कई कविताएं भी शामिल हैं, जबकि स्त्री विमर्श की शुरुआत बाद की परिघटना है। अपनी किताब और विमर्श के बीच के इस रिश्ते को आप कैसे देखते हैं?
जवाब:  आप ऐसा कहती हैं इसके लिए शुक्रिया। पर मुझे बाद की स्त्री अभिव्यक्ति के आलोक में वे कविताएँ कभी कभी पिछड़ी लगा करती हैं। असल में मेरे सामने कोई नमूना न था, रघुवीर सहाय के काव्य संसार क ो भी मैं संज्ञान में न ले सका था, बस कवि के रूप में अपनी ही मन: स्थिति और भावनाओं का आवेग था। इन कविताओं में निम्न मध्यवर्गीय, नेक मगर परेशान हाल कुनबों की बेचैनियाँ हैं, स्त्रियों के दुख और पुरुषों के अधूरेपन की पीड़ा है। स्त्री-पुरुष (भाई-बहन, पति-पत्नी, माँ-बाप और औलाद) कोई स्वतंत्र नहीं है, वे एक ऑर्गेनिक रिश्ते में बँधे हैं, पर इसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत औरत ही चुकाती है—पीछे रहकर पिसती हुई। ऐसी सूरते-हाल में पुरुष होना भी एक शाप है। कुछ इस तरह की तस्वीर मेरे संग्रह की अनेक कविताओं से बनती है। कविताओं में स्त्री-मुक्ति की कार्य सूची भले न दिखाई दे, पर ये कविताएँ आज ऐसी कार्यसूची की सहज स्वीकृति के पक्ष में मानी जा सकती हैं। मेरी किताब ('बहनें और अन्य कविताएँ') में किसी विमर्श का प्रस्ताव तो नहीं, आमूल-चूल बदलाव की कामना दबी है। जहाँ तक 'स्त्रीविमर्श' का सवाल है यह शब्द अब प्राध्यापकों के हाथ में जा चुका है और मुझे विश्वविद्यालयों के अधीनस्थ विभागों की याद दिलाता है, स्त्री के संघर्ष की नहीं।
सवाल:  विमर्शों का दौर और नवउदारवाद की परिघटना करीब करीब एक ही साथ शुरू हुई। क्या आप इन के बीच क ोई रिश्ता देखते हैं? विमर्शों ने संबद्ध समूहों या पहचानों के बुनियादी सवालों और जवाबों को कहां तक पहुंचाया और क्या प्रगति मुमकिन हो सकी है?
जवाब:  विमर्श नवउदारवादी दौर में नौकरी दिला देते हैं। जबकि जिरह, बहस, प्रतिरोध बेरोज़गारी पैदा करते हैं। विमर्श एक पेशेवराना शब्द है। विमर्श से कैरियर बन सकता है, परिवर्तन नहीं आ सकता, ऐसा मेरा मानना है। आज का विमर्शकार हमारे समय के बुनियादी सरोकारों का व्यवसायीकरण कर चुका है। यह विचार कि विमर्श भाँत-भाँत के हो सकते हैं और सारे विमर्श अपने अपने चौखटों में बराबर से वैध हैं, कोई सही या ग़लत नहीं, एक जहालत भरा विचार है और उत्तर-आधुनिकों का फैलाया हुआ है। दुर्भाग्य से समाज विज्ञान और मानविकी में आज के अकादमिक पेशेवरों के बड़े हिस्से के बीच पिछले ढाई दशकों से बुनियादी अक़ीदा रहा है।
सवाल:  यह सही है कि शुरुआत से ही हिंदी लेखन में सांप्रदायिकता को कभी स्वीकार नहीं किया गया और सांप्रदायिक स्वर हिंदी साहित्य का मुख्य स्वर नहीं बन पाया है। लेकिन पूरे परिदृश्य में मुसलमानों की स्थिति को लेकर, अल्पसंख्यकों के रूप में उनके निरंतर हाशिए पर धकेले जाने और उनके भयावह उत्पीडऩ और शोषण को लेकर हिंदी साहित्य कितना सजग रहा है? क्या यह संतोषजनक है? विमर्शों के शोर में भी मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसा क्यों हुआ है?
जवाब:  आपकी पहली बात में अतिशयोक्ति दोष है, इसलिये बाद की ऑब्ज़र्वेशन में विरोधाभास लगता है। हिन्दी आन्दोलन का इतिहास अस्मितावाद और सांस्कृतिक अलगाववाद से बरी नहीं है। इसमें शुरू से ही सामासिक संस्कृति की काट दिखाई देती है। आरंभिक काल तो इस दृष्टि से ख़ासा भयानक है। 1920 और 30 के दशकों की क्रांतिकारी और प्रगतिशील धाराओं के ज़ेरे असर सेकुलर और धर्मनिरपेक्ष विचारों का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर पडऩा शुरू हुआ और क़रीब पच्चीस तीस साल का अरसा ऐसा था जिसे प्रगतिशील विचारों के वर्चस्व का दौर कह सकते हैं। पर नेहरू युग के मध्य में, यानी 1950 के दशक के मध्य से हिन्दी के प्रगतिशील ख़ेमे के भीतर दक्षिणपंथी मोड़ आता है और ऐसे सांस्कृतिक पेच पैदा किए जाते हैं जो आज तक सीधे नहीं हो सके हैं। उसी दौर से उन विमर्शों का फलना फूलना जारी होता है जो विधिवत तरीक़े से वर्ग-संघर्ष और पूँजीवाद-विरोध की आड़ में सांप्रदायिकता, भाषाई वर्चस्व, बहुमतवाद, जाति-उत्पीडऩ और सामंतवाद के लिए रक्षा कवच तैयार करते हैं। इसी दौर में पिछले दौर की प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों पर 'प्रगतिशील रंग' चढ़ाया जाता है, पुनरुत्थानवादी धाराओं को 'नवजागरण' की छतरी के नीचे स्थापित कर दिया जाता है। कुल मिलाकर हिन्दी के प्रगतिशील आचार्य वर्ग की कार्य सूची का बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी ख़ेमे की कार्यसूची की नक़ल बन जाता है। इनके बीच मुख्य मुद्दों पर तालमेल और गौण चीज़ों में रस्मी से मतभेद दिखाई देते हैं। इस कार्यसूची में दलित, मुसलमान, शूद्र, आदिवासी, उर्दू, छोटी राष्ट्रीयताओं आदि का बाइपास किया जाना लाज़िमी है। असल में लम्बे अरसे से हिन्दी साहित्य विमर्श में मुसलमान की जगह 'अन्य' के रूप में है। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता रात-दिन प्रकारान्तर से उसके 'अन्यीकरण' में लगी रहती है। इसी कार्यसूची के ख़िलाफ़ खड़े होना, इसे उलटना आज हिन्दी में सच्ची प्रगतिशीलता की पहली शर्त है। हिन्दी में वही प्रगतिशील बच पाता है जो इस बात को जानता है।
सवाल:  इसी से जुड़ा एक और सवाल है। प्रगतिशील लेखक संघ के दौर से, प्रगतिशील आंदोलन में मुसलमान लेखकों की एक अहम जगह हुआ करती थी। वे नेतृत्वकारी भूमिका में भी थे। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। साहित्य, समाज, राजनीति और साहित्यिक राजनीति के हवाले से इसकी वजहें क्या हो सकती हैं?
जवाब:  मुस्लिम-विरोध और इस्लामद्वेष के इस दौर में तो यह अपेक्षित ही है;  पर हिन्दी में इससे िकब्ल भी, बक़ौल मिर्ज़ा, 'किस रोज़ तुहमतें न तराशा किये अदू / किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये?' वैसे आपके सवाल का कुछ जवाब पहले की बातचीत में आ चुका है।
दरअस्ल न सिर्फ प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन बल्कि भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की स्थापना में मुस्लिम समुदाय से आये लोगों की बुनियादी और अग्रणी भूमिका है, यह बात हिन्दुत्ववादियों को न सुहाए, पर हिन्दी की ज़्यादातर विभूतियों को और अनेक प्रगतिशीलों को भी पता नहीं क्यों नहीं सुहाती! वह इस इतिहास पर पर्दा डालने, इसके महत्व को कम करने, येनकेन प्रकारेण उसे कलुषित करने ही में लगे रहते हैं। दूसरी तरफ़ वे संदिग्ध िकस्म के हिन्दी-हिन्दू वीरों को वामचेतना के उन्नायक और सूत्रधार बनाने की कोशिश में रहते हैं, जबकि हिन्दी में प्रगतिशीलता का अपना अच्छा सा इतिहास है। इस तरह के झूठे और अक्सर जातिवादी चरित्रों को खड़ा करना ज़रूरी नहीं है। उनकी यह इच्छा रहती है कि किसी तरह हिन्दी की प्रगतिशील/क्रांतिकारी सांस्कृतिक परंपरा का ऐसा इतिहास गढ़ लिया जाए जो मिली-जुली संस्कृति, उर्दू, मुसलमान, इत्यादि के दख़ल से मुक्त हो। यह बिरहमनी अलगाववाद ही है जिसका झंडा स्कूली पाठ्यक्रम से लेकर शिक्षा के उच्चतम संस्थानों और पीठों पर फरफराता रहता है। मुसलमान की बात तो छोड़ भी दें और देखें कम से कम डेढ़ सौ साल से — यानी जब से उत्तर भारत की सामाजिक मुख्यधारा में अवामी राजनीति और अवामी शऊर का उदय होने लगा — तमाम बग़ावतों और संघर्षों की ज़बान हिन्दुस्तानी या फिर उर्दू रही। आज भी हमारे वतन के लोग 'इन्क़लाब, ज़िन्दाबाद' ही कहते हैं। मैंने पाया है कि हिन्दी प्रतिष्ठानों पर क़ाबिज़ तबक़ा मुसलमान ग्रंथि से कम, उर्दू ग्रंथि से ज़्यादा पीडि़त है। वह हमेशा 'अच्छे मुसलमान' की खोज में तो रहता है, लेकिन अपने सेकुलर, मुश्तरका इतिहास को कोई जगह नहीं देना चाहता, न वर्तमान में उसके लिए लडऩा चाहता है। हिन्दी के कई अग्रणी प्रगतिशील सिद्धांतकारों और आचार्यों के लेखन और कर्म में इस तरह का द्वेष, दुराग्रह और कट्टरता कभी दुबके तो कभी मुखर रूप में मौजूद है। वे अपने ही पक्ष के इतिहास को मिटाने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं।
कुल मिलाकर इन हालात के पीछे  वामशक्तियों की  कमज़ोरी और  सार्वजनिक जीवन में वाम के असर का क्षय ही है। मुझे सत्तर का दशक याद है जब वाम को गाँधी और नेहरू की ओट में दुबकने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, जब संकीर्ण संस्कृतिवादी समझ के दुराग्रही लोग अपने दुराग्रहों को कहीं जाकर छिपा आते थे। वाम बँटा हुआ भले ही हो पर जीवंत था। अस्सी के पूर्वार्ध तक इसका असर रहा। इसके बाद का समय पूंजीवादी तत्वों की रिकवरी — ताक़तवर वापसी — और राजनीतिक नेतृत्व पर एकाधिकार करने का समय है, वही समय अवामी ताक़तों के बिखराव का समय भी है। अगर इस मुल्क में नवोदय होना है तो अवामी ताक़तों के ज़ेरे असर ही होगा। अवामी ताक़तें ही इस सांस्कृतिक अलगाववाद और अस्मितावाद से समाज और संस्कृति की रक्षा कर सकेंगी।
सवाल : सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवाल को जिस तरह उठाया जाता रहा है, क्या उसमें किसी तरह के बदलाव की जरूरत महसूस करते हैं? मिसाल के लिए, अब तक एक घिसा-पिटा स्टैंड रहा है सांप्रदायिकता की आलोचना करने का कि यह 'मंदिर-मस्जिद के मतवालों' का पागलपन है। जबकि पहले भी यह सच नहीं था और वर्तमान दौर में तो यह साफ साफ दिखा है, जब मुसलमानों पर हमलों का एक लंबा और डरावना सिलसिला शुरू हुआ है। ये दंगे नहीं हैं, और न ही इनमें कोई मंदिर या मस्जिद का मुद्दा है। धर्मनिरपेक्ष बौद्धिक जगत फिर इनको कैसे देख रहा है? क्या इनके लिए भी 'दोनों पक्षों के दीवानों' को जवाबदेह बनाते हुए एक समान दूरी अपनाया जाना वाजिब और वस्तुगत हालात के अनुकूल है? इस हालात का सामना किस तरह किया जाना चाहिए? व्यावहारिक और राजनीतिक रूप से किन तबकों और वर्गों के बीच एकजुटता की जरूरत देखते हैं?
जवाब:  हिन्दी का बुद्धिजीवी समझता है कि सेकुलरिज़्म का मतलब है मुसलमानों की हिमायत! मैं मित्रों के  दरम्यान कुछ  अरसे से— कई बरसों से— अपील करता रहा हूँ कि आज़ाद भारत में हिन्दू साम्प्रदायिकता को स्वभावत: प्रतिक्रियात्मक और रक्षात्मक मानना या तू-तू मैं-मैं वाली लड़ाई की तरह पेश करना सच्चाई से आँखें चुराना और वास्तविक विश्लेषण से भागना है। यह कोई मतवालापन या पागलपन नहीं है। हिन्दू फ़ासीवाद अब सामूहिक हिंसा और राजकीय आतंकवाद दोनों को संचालित करता है। मुस्लिम प्रतिरोध या आक्रमकता या हिंसा इसके पासंग में भी नहीं बैठती। बराबरी या सीधी टक्कर का सवाल ही नहीं उठता। उदारवादी हिन्दू मन को यह सोचकर तसल्ली मिलती होगी कि 'दोनों तरफ़ है आग बराबर लगी हुई'। कुछ अपराध बोध कम होता होगा। लेकिन सेकुलरिज़्म की लड़ाई सभी के लिए जीवन-मरण की लड़ाई है। सेकुलर हुए बिना फ़ासीवाद से कैसे लड़ा जा सकता है!  आज जैसा समय है, यह बात अब तो समझ में आ जानी चाहिए। जो हक़ीक़त है  वह है —वह किसी के संतोष के लिए खड़ा किया धोखा नहीं है।
मुझे लगता है कि दलित-मुस्लिम-आदिवासी और अत्यंत वंचित लोगों की एकता और दबी हुई राष्ट्रीयताओं की ऐतिहासिक एकता ही फ़ासीवाद को पराजित कर सकती है। इस एकता का आधार सेकुलर और वामपक्षीय होना अनिवार्य है, वरना किस बात की एकता? और कोई रास्ता है नहीं। लेकिन ये एकता हो कैसे, यही मुख्य सवाल है। दुर्भाग्य कि इसी दौर में वर्तमान वाम और लिबरल दल अपनी आवाज़ खोते जा रहे हैं क्योंकि उन्होंने भद्रलोक का समर्थन पाने के चक्कर में समाज के सबसे उत्पीडि़त और बहुसंख्यक जनों की तरफ़ पीठ मोड़ ली है। राष्ट्र की उनकी परिभाषा राष्ट्र की बूर्जुवा धारणा से अलग नहीं रह गई है। सत्ताधारी वर्गों द्वारा 'राष्ट्रीय सुरक्षा' की जो परिभाषा गढ़ी गई है वह उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं और जन-हितों के दमन में उसके अँधाधुंध इस्तेमाल पर चुप रहते हैं। वह मुसलमान जन के लोकतांत्रिक अधिकारों के व्यापक हनन पर बोलने से डरते हैं और 'जिहाद', 'आतंकवाद' जैसे शब्दों के मुस्लिम द्वेषी ध्वन्यार्थों को नहीं देखते। उनके मन में हिन्दुत्व का ख़ौफ़ बैठ गया लगता है। सेकुलरिज़्म की रक्षा का काम चंद मानवाधिकार संगठनों या एक्टिविस्टों का काम है, वे उसे कर लेंगे, और इतना ही काफ़ी है!
सवाल:  भारत में सांप्रदायिकता का क्या कोई जाति-गत पहलू भी आप देखते हैं? मौजूदा दौर में यह बहुत साफ दिख रहा है कि एक ही साथ, अलग अलग घटनाओं में, मुसलमानों और दलितों पर लगातार हमले हो रहे हैं। अगर ऐसा है तो क्या सांप्रदायिकता को देखने और इस चुनौती से निबटने के लिए क्या जाति-विरोधी, यानी ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन के नजरिए से भी कोई रणनीति बनाई जा सकती है?
जवाब: अपने मुल्क में सभी समस्याओं में जाति-गत पहलू मौजूद होता है। भारतीय लोकतंत्र जाति की काट  करने के बजाय जाति के ज़रिए ही परवान चढ़ा है। जाति ने लोकतंत्र पर सवारी करना आज़ादी से बहुत पहले ही सीख लिया था। जाति की इस शक्ति को सि$र्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं, हम सब अच्छी तरह जानते हैं। सांप्रदायिकता की राजनीति सीधे इसी की उपज है। बिना सांप्रदायिकता फैलाए, बिना मुस्लिम द्वेषी और ईसाई द्वेषी भावनाओं का निर्माण किए, वर्चस्वशाली उच्च जातियाँ — जो कि अल्पमत में हैं — बीच क ी और निचली जातियों को 'हिन्दू बहुमत' में आकर लामबन्द होने के लिए कैसे बाध्य कर सकती हैं! एक ओर मुसलमान और दूसरी तरफ़ दलित और ओबीसी समूहों के दरम्यान स्थायी शत्रुता के बीज बोना सवर्ण हिन्दू सांप्रदायिकों की ख़ास और पुरानी रणनीति रही है। पीडि़त लोगों के बीच आपसी रंजिश और हिंसा का ऐसा इतिहास और वातावरण बन गया है कि उसके दोहराए जाने की संभावना और उसकी पीड़ादायक स्मृति उनके साथ आने में, साथ होकर लडऩे में बाधा पैदा करती है। सांप्रदायिक तत्व इस बाधा को बनाए रखेंगे। इसी बाधा को पार करना मज़लूम समुदायों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है। ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन और दलित आंदोलनों का एक इतिहास रहा है। अपने देश में जगह जगह इन्होंने अतीत में बहुत सफलता भी पाई है। पर दलित आंदोलन या ग़ैर-ब्राह्मणवादी आंदोलन में सेकुलर रुझान रहना ज़रूरी है, तभी मुसलमान जन अपने प्रतिक्रियावादी नेताओं को छोड़कर उनके साथ आने का हौसला कर पाएंगे। बल्कि मुझे तो लगता है दलित ही उन्हें आगे बढ़कर अपनी तरफ़ लाकर एक पुख़्ता एका बनाएँ तो बनाएँ, नहीं तो मुसलमानों द्वारा अपने बल पर जाति-विरोध या ब्राह्मणवाद-विरोध अकल्पनीय होगा। उत्तर भारत में चुनावी समर्थन देने के अलावा ऐसा होना अभी मुश्किल दिखता है। पर इस उम्मीद पर क़ायम ज़रूर रहना चाहिए।
सवाल:  हिंदी कविता आमतौर पर राजनीतिक उथल-पुथल के बीच शक्ल अख्तियार करती आई  है। आज, वह किन प्रक्रियाओं से प्रभावित हो रही है, और कौन सी राजनीतिक-सामाजिक सरगर्मियां हैं, जो हिंदी कविता को शक्ल देने क ी क्षमता रखती हैं?
जवाब: जहाँ तक बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उदय का सवाल है, हिन्दी में काफ़ी अरसे से दक्षिण का हाल बड़ा चौपट है। उनके पास एक भी अच्छा बल्कि औसत प्रतिभा का भी कवि नहीं है। मैं एक दो ऐसे कवियों को जानता हूँ जो बज़ाते ख़ुद कुछ लोहियावादी कुछ मध्यमार्गी उदारवादी मदरसे से ताल्लुक़ रखते हैं, पर चूँकि स्वभावत: कविता में वाम के प्रभाव से त्रस्त रहते हैं लिहाज़ा दक्षिण और अति-दक्षिण रुझान वाली प्रतिभाओं को ढूढ़ते रहते हैं। उनके पास संसाधन और नेतृत्व क्षमता भी है, पर अभी तक अपने इस आजीवन अभियान में सफल नहीं हो पाए हैं। क़ायदे से हिन्दी कविता  में अब तक कुछ अच्छे ग़ैर-वाम या दक्षिणपंथी रुझान वाले कवि-लेखकों को उभर आना चाहिए था। यह वाम की विजय बिल्कुल नहीं है, बल्कि दक्षिण के अपने संकट की निशान देही है। यह संकट क्या है, इस पर गंभीर विचार होना चाहिए। दक्षिण के इस संकट को पोलेमिकल औज़ारों से नहीं समझा जा सकता; इसके लिए मुक्तिबोध जैसी गंभीरता और दृष्टि की ज़रूरत है।
किसी हद तक इसी परिस्थिति के कारण, बाइ डिफ़ॉल्ट, हिन्दी कविता एक सिरे से वामपक्षीय निर्मिति लगने लगी है। बेशक, रघुवीर सहाय और मुक्तिबोध, शमशेर, मनमोहन, वीरेन, मंगलेश, नागार्जुन, धूमिल, शुभा, आलोक, ऋतुराज, विनोद शुक्ल, ज्ञानेन्द्र, विष्णु खरे, नरेन्द्र जैन, अम्बुज और देवी जैसी शख़ि्सयतें हिन्दी कविता का वाम ही हैं, और ज़रूरी नहीं कि इनमें से सभी वाम राजनीतिक अस्मिता को हरदम ज़ाहिर करते रहें। लेकिन वामपक्ष के नाम पर बहुत सी नेटिविस्ट, 'लोक' तत्व से प्रेरित सामंती नरमाईवाली, 'मध्यमार्गी' और कई बार अकादमिक रचना भी ख़ासा इलाक़ा घेरे रहती है — वह अपने चुनाव से वाम पक्ष पर है, वह दक्षिण के ख़ेमे में भी हो सकती है, और दरअसल इस तरह की 'आवाजाही' में लिप्त भी रहती है। वह वामपक्ष को दिग्भ्रमित करने में सफल भी हो जाती है, और व्यवस्था में यही उसकी उपयोगिता भी है। आज की कविता में जो शक्ल दिखाई देती है, वह उन राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रियाओं का ही दर्पण है जिनका आपने ज़िक्र किया। यह भी सही है कि इधर कविता लिखने का साहस कम हुआ है। कवियों के मन में बेआसरा हो जाने, बेरोज़गार, वंचित और अलक्षित रह जाने का डर समाया रहता है। जबकि सच यह है कि हर ज़माने में अच्छी कविता लालच, योजना और महत्वाकांक्षा से नहीं, सब कुछ दाँव पर लगाने से, आत्मसंघर्ष से, बग़ावतों से पैदा हुई है। उसी में काव्यभाषा के लिए संघर्ष भी है। कभी कभी मुझे लगता है कि हिन्दी लेखन में ग़रीब गुरबा का दख़ल पहले के मुक़ाबले कम हुआ है। बहुत से नए लेखक जौहरियों के बेटे-बेटी जैसे लगते हैं।
सवाल:  क्या आपको लगता है कि कविता का स्वर कमजोर हुआ है। एक समय में वह जितनी ताक़तवर लगती थी, उसका अब वैसा स्वरूप नहीं रह गया है। एक विधा के रूप में उसकी ज़रूरत कम हुई है? क्या यह गद्य के जरिए साफ़-साफ़ बहसों का दौर है? आपकी नज़र में हिंदी क विता के आगे क्या क्या चुनौतियाँ हैं?
जवाब:  बेशक, स्वर कमज़ोर हुआ है। इसके ऐतिहासिक कारण हैं जिनमें मुख्य यह है कि 1977 के बाद से ही — हिन्दी में देखें तो 'कविता की वापसी' वाली धारा के साथ ही — कविता में नव-उदारवाद को नियति मानकर उससे एक शरीफ़ाना, विनम्र असहमति (पोलाइट डिसेग्रीमेंट) दर्ज करने को प्रतिरोध का वैध और वांछनीय रूप मान लिया गया। इसे ही कविता के वामपक्ष की तरह देखा जाने लगा जबकि यह  'वफ़ादार प्रतिपक्ष' (लॉयल अपोज़ीशन) से ज़्यादा कुछ न था। इस परियोजना में नव-उदारवादी बर्बरता के आमूलचूल विध्वंस की कामना, बल्कि कल्पना भी, मौजूद नहीं है। न अभिव्यक्ति के लिए वैसा कोई संघर्ष है जिससे कविता की समकालीनता तय होती है। समकालीन कविता का एक हिस्सा इसी तरह के नैतिक खोखलेपन और पलायनवादी शोर ग़ुल या निरे बातूनीपन में फँसा हुआ है।
इस गतिरोध का टूटना लाज़िमी है, क्योंकि फ़ासिज़्म जो कि पूँजीवाद का रैडिकल रूप ही है, अब फ़ौज-फाटे के साथ सर पे है। वही गतिरोध को तोडऩे पर आमादा है! फ़ासिज़्म की मार ही हिन्दी कविता और इसके गद्य को बचाएगी। जो कविता टूटकर उसके चरणों में नहीं गिरेगी, उसे अपना रास्ता खोजना होगा। बीच का रास्ता फ़ासिज़्म देता नहीं है। गद्य भी मेरे ख़्याल से कमज़ोर हुआ है, कविता से भी ज़्यादा कमज़ोर। मैं आपकी इस बात से असहमत हूँ कि 'यह गद्य के जरिए साफ़-साफ़ बहसों का दौर है'। वे साफ़-साफ़ बहसें और वह गद्य कहीं दिखाई दे तो जान में जान आए। बल्कि जिसे आप गद्य कह रही हैं उसमें गंदलापन, ऑब्फ़स्केशन, बढ़ा है। कविता में फिर भी कुछ चुनौती की पहचान, कुछ अपने ज़मीर की तलाश रही।
सवाल: आज की दुनिया में हम वास्तविक और आभासी दोनों तरह के दृश्यों से घिरे हुए हैं। क्या समकालीन कविता की भाषा और बिंब पर इसका कोई असर पड़ा है? 
जवाब: मेरी नज़र से तो सारे दृश्य वास्तविक ही हैं, आभासी कुछ नहीं। और कविता का संघर्ष वही का वही है— प्राचीनकाल से। कविता प्राचीन विधा है और नये माहौल में सबसे पहले अपने होशो- हवास को संभाल लेती है। इंटरनेट के युग में इसकी सहजता और चपलता देखते ही बनती है। वहाँ पर तत्काल प्रकाशन और पठन की सुविधा है जो कि पत्र पत्रिकाओं में नहीं है। नेट भी जल्द ही एक आम चीज़ होता जा रहा है, हम सब इसके आदी हो रहे हैं। वह वही भाषा बोलेगा जो मानव समुदाय बोलते हैं, और उन्हीं के पैदा किए बिंबों से पट जाएगा। सामाजिक शक्ति का वही असंतुलन यहाँ भी प्रकट है, और लड़ाई भी वही है। नेट कुल मिलाकर एक बिचौलिया ही तो है।


असद ज़ैदी - असद ज़ैदी के तीन कविता संग्रह-'बहनें और अन्य कविताएं', 'सामान की तलाश' क्रमश: 1980 और 2008 में प्रकाशित हुए हैं। इसके बाद समग्र कविताएं एक जिल्द में 'सरेशाम' शीर्षक से 2014 में आईं। आधार प्रकाशन, पंचकूला ने प्रकाशित कीं।
रुबीना सैफ़ी - रुबीना सैफ़ी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कॉलर हैं। नाटकों में रुचि है। अंक 101 में ही उनकी कविता प्रकाशित हुई।


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