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जनवरी 2016

शब्दों की हिफ़ाज़त में

अनुवाद- अनिल मिश्र

आरंभ/तीन/पुस्तक अंश/डेज़ एण्ड नाइट्स ऑफ लव एण्ड वॉर
गैलियानो का वक्तव्य



ब्यूनस आयर्स छोड़ते हुए, जून 1976

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किसी को कुछ संप्रेषित करने के लिए, 'अन्य' या दूसरों से संचार के लिए लिखने की ज़रूरत होती है; जो तकलीफ़ देता है उससे निजात पाने के लिए और खुशियों को साझा करने के लिए, अपनी तन्हाई के ख़िलाफ़ और 'अन्य' की तन्हाइयों को दूर करने के लिए कोई लिखता है। ये माना जाता है कि, जो इसे पढ़ते हैं उनमें साहित्य ज्ञान का प्रसार करता है और व्यवहार और भाषा को प्रभावित करता  है, अत: ये हमें खुद को बेहतर तौर पर जानने में मदद करता है और हमारे अपनेपन को सामूहिक तौर पर बचाता है। लेकिन, ये ''अन्य'' बड़ा अस्पष्ट है; और मुसीबत के वक्त, परिभाषा के वक्त, अस्पष्टता, धुंधलापन काफ़ी हद तक झूठ जैसा ही होता है। कोई, वास्तव में, उन लोगों के लिए लिखता है जो अपने किस्मत या बदनसीबी को भूख, अनिद्रा, विद्रोह, और इस धरती के दुखियारों से पहचानते हैं - इनमें से अधिकतर निरक्षर होते हैं। शिक्षित अल्पसंख्यकों में, कितने लोग किताबें ख़रीदना वहन कर सकते हैं? इस अंतर्विरोध को क्या इस दावे से सुलझाया जा सकता है कि कोई उस सहज ख़याल के लिए लिखता है जिसे ''जनता'' के नाम से जाना जाता है?

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हम चाँद पर पैदा नहीं हुए हैं, हम सातवें स्वर्ग में नहीं रहते हैं। हमारा सौभाग्य दुनिया के एक संतप्त क्षेत्र, लेटिन अमेरिका से संबंधित है और हम एक ऐसे ऐतिहासिक दौर में जी रहे हैं जो अंतहीन तौर पर दमनकारी है। वर्गीय समाज का अंतर्विरोध यहाँ धनी देशों के मुकाबले ज़्यादा तीखा है। ग़रीब देश भारी विपत्ति की कीमत चुकाते हैं ताकि विश्व की छ: प्रतिशत आबादी समूची दुनिया द्वारा पैदा किए गए धन के आधे हिस्से का अपवित्रता के साथ उपभोग कर सके। ये खाई, चंद लोगों के सुख और दूसरों की दरिद्रता के बीच का अंतर, लैटिन अमेरिका में बहुत बड़ा है; और जो तरीके इस फ़र्क को कायम रखने के लिए अनिवार्य होते हैं वे भयानक और क्रूरतम हैं।
प्रतिबंधात्मक और पराधीन उद्योग के विकास, जिसका पुरानी कृषक और ख़नन संरचनाओं पर आवश्यक काट-छांट के बिना ही, ऊपर से, बीजारोपण कर दिया गया, ये सामाजिक अंतर्विरोधों को ख़त्म करने के बजाय उन्हें तीव्र किया है। पंरपरागत राजनीतिज्ञों के हुनर- जो प्रलोभन और झांसा देने में विशेषज्ञ हैं- आज अपर्याप्त, अप्रचलित और अनुपयोगी हैं। लोक-लुभावन खेल- ये धूर्तता से काम निकालने में बेहतर होते हैं- जो रियायतें देते हैं वे अब कुछ मामलों में संभव नहीं हैं, और कुछ मामलों में ये ख़तरनाक दुधारी तलवार साबित होते हैं। अत: वर्चस्वशाली वर्ग और देश अपनी दमनकारी संरचना और उपकरणों का आसरा लेते हैं। वह सामाजिक व्यवस्था जो यातना शिविर के ज़्यादा से ज़्यादा समान होती है वह और कैसे बची-खुची रह सकती है? कैसे, कंटीले बाड़ों के बिना, अभिशप्तों की बढ़ती अक्षौहिणी को सीमा के भीतर रखा जा सकता है? इस हद तक कि जब व्यवस्था को बेरोज़गारी, ग़रीब़ी और इसके नतीजतन सामाजिक और राजनीतिक तनाव की अनंत वृद्धि से कोई ख़तरा मिले तो यह ढोंग और अच्छे स्वभाव का चोला उतार फेंके: दुनिया के उपांत में व्यवस्था का सच्चा चेहरा उजागर होता है।
तानाशाही में क्यूं न कुछ अच्छाईयों को चीन्हा जाए जो आज हमारे देश की बहुसंख्या को शोषित बनाए हुए  हैं। उद्यमों की आज़ादी का अर्थ, संकट के समय, लोगों को आज़ादी से वंचित करना है। लैटिन अमेरिकी वैज्ञानिक दूसरे मुल्क चले जाते हैं, प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों के लिए धनराशि नहीं है, औद्योगिक ''ज्ञान'' हमेशा विदेशी और बहुत ज़्यादा मंहगा है; लेकिन क्यूं नहीं आतंक की तकनीक के विकास में कुछ रचनात्मकता की पहचान की जाए? लैटिन अमेरिका उत्पीडऩ के तौर-तरीकों, लोगों और विचारों की हत्या करने की तकनीक, चुप्पी अख़ि्तयार करा देने, लाचारी के विस्तार, और भय की प्रदर्शनी के विकास में प्रेरणायुक्त वैश्विक योगदान कर रहा है।
हम जो लोग एक ऐसे साहित्य के लिए, जो बेआवाज़ लोगों के स्वर को सुनाए जाने का, काम करना चाहते हैं वे इस यथार्थ के संदर्भ में कैसे कार्य करें? क्या हम एक बहरी-चुप्पी संस्कृति के बीच में अपने आप को सुने जाने लायक बना सकते हैं? लेखकों को दी गई मामूली आज़ादी, इस वक़्त में क्या हमारी असफलता का सबूत नहीं है। हम कितनी दूर जा सकते हैं? हम किन लोगों तक पहुँच सकते हैं?
एक पवित्र उद्देश्य, कि न्याय और स्वतंत्र दुनिया के आगमन का संदेश देना; एक पवित्र कार्य, कि भूख और ग़ुलामी की व्यवस्था- दृश्य और अदृश्य- को ख़ारिज करना। लेकिन सरहद के कितने क़दम दूर? वे जो सत्ता में बैठे हैं हमें कब तक अपनी अनुमति देना जारी रखेंगे?

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विभिन्न सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाओं द्वारा प्रतिबंध लगाने-सेंशरशिप-के प्रत्यक्ष रूपों, जो किताबें उन्हें शर्मशार और ख़तरनाक लगती है उनपर प्रतिबंध लगाने, लेखकों और पत्रकारों के निर्वासन, कारावास या उनकी हत्या के बारे में काफ़ी चर्चाएं हुई हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष प्रतिबंध ज़्यादा सूक्ष्म रूप से कार्य करते हैं; यह कम दिखने के कारण ही कम वास्तविक ही नहीं हो जाती। इसके बारे में कम ही कहा जाता है, फिर भी ये लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों में प्रचलित व्यवस्था के सर्वाधिक शोषक और अपवर्जित प्रकृति को सबसे प्रमुखता से उभारता है। इस सेंशरशिप, जो अपनी घोषणा नहीं करती, की क्या प्रकृति होती है? यह इस तथ्य पर टिकी होती है कि नावें इसलिए नहीं चल रही हैं, क्यूंकि सागर में पानी हैं है; अगर लैटिन अमेरिका की सिर्फ पाँच प्रतिशत आबादी ही फ़्रीज़ ख़रीदने में सक्षम है, तो किताबें कितने प्रतिशत लोग ख़रीद सकते हैं? और कितने प्रतिशत लोग उन्हें पढ़ते हैं, अपनी ज़रूरत मानते हैं इसे, उनके प्रभावों को आत्मसात करते हैं?
लैटिन अमेरिकी लेखक, एक ऐसी संस्कृति उद्योग के श्रमिक जो एक प्रबुद्ध अभिजात्य की ज़रूरतों के उपभोग का ख़याल रखता है, अल्पसंख्यक तबक़े से आते हैं और उनके लिए ही लिखते हैं। यह वस्तुगत परिस्थिति दोनों तरह के लेखकों की है जो सामाजिक ग़ैरबराबरी और वर्चस्वशाली विचारधारा का पोषण करते हैं और वे जो इसे तोडऩे के लिए प्रयासरत हैं। हम, काफ़ी हद तक, उस यथार्थ के खेल-नियमों से अवरुद्ध होते हैं, जिसमें हम कार्य कर रहे होते हैं।
अस्तित्वमान सामाजिक व्यवस्था बहुसंख्यक लोगों की रचनात्मक क्षमता को विनष्ट करती है या इसे विकृत बनाती है और रचना की संभावना-मानवीय ग़ुस्से और मृत्यु की निश्चितता की युगों पुरानी प्रतिक्रिया- को चंद विशेषज्ञों द्वारा महज एक पेशेवर क्रियाकलाप के बतौर सीमित कर देती है। लैटिन अमेरिका में हम कितने ''विशेषज्ञ'' है? हम किसके लिए लिखते हैं, हम कहाँ तक पहुँचते हैं? हमारी असली जनता कहाँ हैं? (चलिए, तालियों पर भरोसा नहीं करते हैं। एक वक़्त में हमें वे लोग बधाईयां देते हैं जो हमें अहानिकर मानते हैं।)

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कोई इसलिए लिखता है ताकि मृत्यु को विस्मृत कर दिया जाए और उन भूतों को भगाया जा सके जो हमें सताते हैं; लेकिन किसी का लेखन ऐतिहासिक तौर पर उपयोगी सिर्फ तभी होगा जब इसका सामूहिकता की ज़रूरत के साथ इसकी पहचान करने के साथ इसका किसी न किसी तरह से तालमेल होता है। मेरा ख़याल है, यही एक चीज़ होती है जिसकी हम आकांक्षा करते हैं। यह कहने में: अपने आप को प्रकट करते हुए कि ''यह मैं हूँ'', लेखक अन्य लोगों की मदद कर सकता है कि वे कौन हैं। सामूहिक पहचान को अभिव्यक्त करने के साधन के बतौर, कला को एक प्राथमिक ज़रूरत की तरह, विलासिता की तरह नहीं, माना जाना चाहिए। लेकिन, लैटिन अमेरिका में कला और संस्कृति के जो उत्पाद मिलते हैं वे अपरिमित बहुसंख्या के लिए निषिद्ध हैं।
उस जनता के लिए, जिसकी पहचान कालांतर की विजय-संस्कृति के कारण टुकड़े-टुकड़े हो गई है, और जिनका निर्दय शोषण उन्हें दुनिया के पूँजीवाद की मशीनरी में खपने में योगदान करता है, व्यवस्था एक ''जन-संस्कृति'' (मास कल्चर) पैदा करती है। मास मीडिया की पतित कला के लिए जनसाधारण की संस्कृति ज़्यादा सटीक शब्द है, जो चेतना का दोहन करती है, यथार्थ को गुमराह करती है, और रचनात्मक कल्पनाशीलता का गला घोंटती है। स्वाभाविक तौर पर यह पहचान को व्यक्त करने के लिए लोगों को प्रेरित नहीं करती, बल्कि इसे मिटाने या विकृत करने का एक माध्यम होती है ताकि मास मीडिया के ज़रिए व्यापक तौर पर प्रसारित उपभोग की पद्धति और जीवन जीने के तौर-तरीकों को थोप सके। वर्चस्वशाली वर्ग की संस्कृति को ''राष्ट्रीय संस्कृति'' कहा जाता है; यह एक आयातित जीवन होता है और अपने आप को नक़ल करने, मूर्खताओं और अश्लीलता तक सीमित रखता है। यह असल में दुनिया के किसी वर्चस्वशाली देश की संस्कृति होती है जिसे कई लोग इसे तथाकथित ''वैश्विक संस्कृति'' के साथ घालमेल कर देते हैं। हमारे समय, बहु-बाज़ार और बहुराष्ट्रीय निगमों के युग में अर्थशास्त्र और संस्कृति दोनों ही सांस्थानिक हैं, इसका श्रेय गतिमान विकास मास मीडिया को है। सत्ता के केंद्र न सिर्फ हमें मशीनों और पैटेंट का, बल्कि विचारधारा का भी निर्यात करते हैं। लैटिन अमेरिका में अगर दुनियावी वस्तुओं से मिलने वाली ख़ुशी चंद लोगों तक सीमित है, तो ये बहुसंख्यक आबादी के लिए सुनिश्चित करती है कि वो इसकी फंतासी के उपभोग तक अपने आप को सीमित करते हुए इसका पीछा करें। ग़रीबों को अमीरी का भ्रम बेचा जाता है, दमितों को आज़ादी का भ्रम, पराजितों को विजय और मज़लूमों को शक्ति का स्वप्न बेचा जाता है। संसार के ग़ैरबराबर ढाँचे को उचित ठहराने की कोशिशों के लिए टीवी, रेडियो और िफल्मों द्वारा निमंत्रित प्रतीकों के उपयोग के लिए किसी को साक्षर होने की ज़रूरत नहीं होती है।
इस धरती पर, जहाँ भूख और बीमारी से हर मिनट एक बच्चे की मौत होती है, यथास्थिति को क़ायम रखने के क्रम में हमें अपने आप को उन लोगों की नज़र से देखना चाहिए जो हमें कुचलते हैं। लोग इस व्यवस्था को प्राकृतिक मान कर स्वीकार करने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, अत: इसे सनातन माना जाता है; और व्यवस्था को पितृभूमि के बतौर पहचाना जाता है, अत: किसी सत्ता का शत्रु विस्तारित होकर स्वत: ही देशद्रोही या विदेशी एजेंट हो जाता है। जंगल के क़ानून, जो कि व्यवस्था का भी होता है, का पवित्रीकरण किया जाता है, अत: पराजित लोग अपनी परिस्थितियों को अपना भाग्य समझ के स्वीकार कर लें; अतीत को झुठलाने से, लैटिन अमेरिका की ऐतिहासिक असफलताओं का असल उद्देश्य ख़त्म हो जाता है। लैटिन अमेरिका, जिसकी ग़रीबी हमेशा विदेशी अमीरों का पेट भरती आई है। कूड़ा प्रदर्शनवादिता, और अनैतिकता, घृणा नहीं, प्रशंसा पैदा करते हैं; आत्मा समेत सारी चीज़ें ख़रीदी, बेची, किराये पर उठाई और उपभोग की जा सकती हैं। सिगरेट, कार, व्हिस्की की बोतल या हाथ की घड़ी में एक जादुई विशेषता होती है; वे हमें एक व्यक्तित्व दे सकती हैं, वे हमें सफलता और ख़ुशियों की तरफ़ ले जाती हैं। विदेशी नायकों और रोल मॉडल्स का प्रसरण, ब्रांड और धनी देशों के फैशन के प्रति जड़ाशक्ति को बढ़ाता है। स्थानीय फोटोनॉवेला1 और सोप ऑपेरा, प्रत्येक देश की असल सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को सतही ढंग से छूते हुए, आडंबर के नृत्य होते हैं; और आयातित टीवी धारावाहिक पश्चिमी, ईसाई लोकतंत्र को हिंसा और टमाटर सॉस के साथ बेचते हैं।
1. फ़ोटोनॉवेला कहानी की एक ऐसी विधा होती है जो कॉमिक्स की किताबों जैसी होती है, लेकिन इसमें कार्टून की जगह तस्वीरें होती है।


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नौजवान लोगों की इस धरती पर - नौजवान जिनकी तादाद बढ़ती है और जिन्हें कोई रोजगार नहीं मिलता - टाइम बम की टिक-टिक उन्हें उपकृत करती है जो एक आँख खोल कर सोते हैं। सांस्कृतिक विलगाव के विभिन्न तरीकों-नशा देने और बधिया बनाने की व्यवस्था- का महत्व बढ़ता जा रहा है। चेतना के बधियाकरण के सूत्र प्रजनन-नियंत्रण से ज़्यादा भारी सफलता के साथ अभ्यास में लाए जा रहे हैं।
चेतना के औपनिवेशीकरण का सबसे अच्छा तरीका है कि इसे कुचला जाए। इस लिहाज़ से, एक झूठी प्रतिसंस्कृति के आयातीकरण-चाहे वह सुनियोजित हो या नहीं- की एक बड़ी भूमिका है। कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में नई पीढ़ी के बीच इसकी गूँज बढ़ रही है, जो देश राजनीतिक भागीदारी का कोई विकल्प नहीं देते हैं- संरचना की रूढि़वादिता के कारण या फिर दमन की अपनी दमघोंटू प्रणाली के कारण- वे तथाकथित प्रतिरोध की संस्कृति के प्रसरण के लिए सर्वाधिक उर्वरक ज़मीन मुहैया कराते हैं, जो अक्सर देश के बाहर स्थित होते हैं। यह आरामतलबी और कूड़ा करकट का एक उप-उत्पाद होता है जो सभी सामाजिक वर्गों के बीच फैला होता है और परजीवी वर्ग के बनावटी परंपरावाद विरोध से पैदा होता है।
साठ के दशक में, संयुक्त राज्य और यूरोप में विद्रोही युवाओं द्वारा उपभोग के एकरुपता के ख़िलाफ़ पैदा की गई परंपराओं और प्रतीकों का लैटिन अमेरिका में भरपूर उत्पादन हो रहा है। मनोविकृतिकारी आकृतियों वाले कपड़े बेचे जा रहे हैं, ''अपने आप को मुक्त करो'' की छीनाझपटी समेत; संगीत, पोस्टर्स, बाल काटने की शैली, और ऐसे कपड़े जो ड्रग्स के नशे में उन्मत्त होने वाले सौंदर्यशास्त्रीय नमूनों का उत्पादन करते हैं, इनसे तीसरी दुनिया के देशों के बाजार पटे पड़े हैं। प्रतीकों, विभिन्न रंगों वाले और आकर्षक, नृत्य के टिकट नौजवान लोगों को पेश किए जाते हैं, जो नरक से भागने की कोशिश कर रहे होते हैं। नई पीढ़ी को इतिहास के परित्याग का आमंत्रण दिया जाता है जो कि निर्वाण की यात्रा के लिए काफ़ी दुखदाई होती है। इस ''ड्रग संस्कृति'' में शामिल होकर कुछ नौजवान लैटिन अमेरिकी यह भ्रम पाल लेते हैं कि उन्होंने महानगरीय लोगों की जीवनशैली हासिल कर ली है।
उद्योग धंधों पर आधारित समाज, जो कि व्यक्ति को अलग-थलक बनाता है, में हाशिये के समूहों के बीच सहमति की कमी के कारण पैदा झूठी प्रति-संस्कृति का हमारी पहचान और तकदीर की असल ज़रूरतों से कोई लेना-देना नहीं है; यह गतिहीन और जड़ बनाने के लोभ, अहंवाद, संचारहीनता का प्रबंधन करती है; यह यथार्थ को जस का तस बने रहने देती है लेकिन इसकी छवियाँ बदल देती है; यह पीड़ाहीन प्रेम और युद्धविहीन शांति का वादा करती है। इससे भी अधिक, सनसनी को एक उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करके, इसका मास मीडिया के ज़रिए प्रसारित ''सुपरबाजार विचारधारा'' के साथ अच्छे से परस्पर गठबंधन कराती है। आक्रोश को चुप कराने और चिंताओं को शांत करने के लिए अगर कार, और फ्रीज़ में जड़ासक्ति पर्याप्त नहीं है, तो यह भूमिगत सुपरबाज़ार से शांति, गहनता और ख़ुशियों को खरीदना तो कम से कम संभव बनाती ही है।

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चेतना जागृत करने के लिए, यथार्थ को उजागर करने के लिए-हमारे इस समय और हमारी इस धरती पर साहित्य क्या एक बेहतर कार्य का दावा कर सकता है? व्यवस्था की संस्कृति, यथार्थ की संस्कृति- स्थानापन्न, यथार्थ का मुखौटा लगती है और चेतना का बेहोशीकरण करती है। लेकिन, झूठ और आपसी सहमति के विचारधारात्मक प्रणाली के ख़िलाफ एक लेखक/लेखिका क्या कर सकता/सकती है- चाहे कितनी ही तकलीफें उसे क्यों न उठानी पड़ें?
अगर समाज अपने आप को इस तरह से संगठति करता है कि इंसानों के बीच संपर्क रुक जाएँ, और मनुष्य संबंध प्रतिभागिता और उपभोग-इस्तेमाल और गाली गलौज के ज़रिए व्यक्तियों को अलग थलग करने-के एक सनकी खेल तक सिमट जाएँ, तो भाईचारेपूर्ण मेलजोल और सामूहिक एकता में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है। हम एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गए हैं जहां चीज़ों को नाम देना उनकी भत्र्सना करना है; लेकिन, किसके लिए, किसके द्वारा?

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लैटिन अमेरिकी लेखक के बतौर हमारी किस्मत ज़बर्दस्त सामाजिक बदलावों की ज़रूरत से जुड़ी हुई हैं। वर्णन करना, बताना किसी को कुछ प्रदान करना होता है: यह प्रकट ही है कि साहित्य, पूरी तरह से संप्रेषित करने के प्रयास के बतौर, को शुरुआती तौर से ही रोकने की कोशिश की जाएगी, जब तक कि दुख-विपत्ति और निरक्षरता बनी रहती है, जब तक कि सत्ता के स्वामी मास मीडिया के उपकरणों के ज़रिए अपनी गंदी हरकतों से सामूहिक जड़बुद्धि बनाने की अपनी नीतियों को जारी रखेंगे। मैं इन लोगों के रवैये से कोई इत्तफ़ाक नहीं रखता जो लेखकों के लिए, अन्य कामगारों की आज़ादी से स्वायत्त, किन्हीं विशेष स्वतंत्रता की मांग करते हैं। अगर हम लेखकों को अभिजात्य वर्ग के गढ़ और मठ से आगे चलना है, अगर हमें दृश्य और अदृश्य प्रतिबंधों से मुक्त होकर अपने आप को अभिव्यक्त करना है तो हमारे अपने देश के लिए बड़े परिवर्तन, गहरे संरचनात्मक बदलाव अनिवार्य हैं। एक घुटनभरे समाज में, मुक्त साहित्य भत्र्सना और ख़ाली उम्मीद के बतौर ही अस्तित्वमान रह सकता है।
इसी के साथ, मैं ये भी सोचता हूँ कि यह कल्पना करना कि जनता की रचनात्मक क्षमताओं को सिर्फ सांस्कृतिक माध्यमों से ही विकसित किया जा सकता है, तपती गर्मियों की रातों का एक ख़याली पुलाव ही होगा- जनता, जिसे जीवन की अनिवार्यताओं और अस्तित्व की कठोर शर्तों द्वारा बहुत पहले नींद के सन्नाटे में धकेल दिया गया है। लैटिन अमेरिका में ऐसी कितनी प्रतिभाएँ हैं जिन्हें ख़ुद को अभिव्यक्त करने के पहले ही बुझा दिया गया है? कितने लेखक और कलाकार ऐसे हैं जिन्हें ख़ुद को अपनी तरह से पहचानने का कभी अवसर ही नहीं मिला?

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इसके सिवाय, क्या एक ऐसे देश में राष्ट्रीय संस्कृति पूरी तरह से स्वाधीन हो सकती है जहाँ सत्ता के भौतिक आधार देशज नहीं, बल्कि विदेशी महानगरों पर टिके हुए हैं?
ये मामले लेखकों के लिए क्या मायने रखते हैं? संस्कृति का कोई ''ज़ीरो डिग्री'' नहीं होता। हम अगर सामाजिक विकास की किसी प्रक्रिया में आधिपत्य  की अवस्था और मुक्ति की अवस्था के बीच एक अपरिहार्य निरंतरता को जानते-पहचानते हैं, तो साहित्य की महत्ता और अन्वेषण, अभिव्यक्ति और हमारी वास्तविक तथा सामथ्र्यशील अस्मिता में इसकी संभावित क्रांतिकारी भूमिका का नकार क्यूँ करें? शोषक ऐसा कोई आईना नहीं चाहते जो शोषितों का प्रतिबिंब, इसकी चमकती सतह, दिखाए। बदलाव की कौन सी प्रक्रिया लोगों को सक्रिय कर सकती है, जो नहीं जानते कि वे कौन हैं, कि कहाँ से ताल्लुक रखते हैं? अगर वे ये नहीं जानते कि वे कौन है, तो वे ये कैसे जानेंगे कि वे क्या लाने के अधिकारी हैं? साहित्य क्या, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, इस उद्घाटन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं कर सकता?
मुझे लगता है कि योगदान की संभावना काफ़ी हद तक अपनी जनता-उनकी जड़ों, उनके उतार-चढ़ावों, उनकी तक़दीर और दिल की धड़कनों को महसूस करने की क्षमता, प्रगति कर रही प्रति-संस्कृति के सुर और ताल के प्रति लेखकों के उत्साह, उत्तरदायित्व की गहनता के स्तर पर निर्भर करती है। जिसे अक्सर ''असांस्कृतिक'' माना जाता है उसमें अन्य संस्कृति, जो कि वर्चस्व का सामना करती है और इसके मूल्यों या वाक्चातुर्य को नहीं मानती, के फल या बीज निहित होते हैं। इसे अक्सर और ख़ामख़याली में अभिजात्य के ''सांस्कृतिक उत्पाद'' की घटिया नक़ल या व्यवस्था द्वारा एक सिरे से फेंक दिए गए सांस्कृतिक मॉडल कह कर ख़ारिज़ किया जाता है। लेकिन एक लोकप्रिय आख्यान कई बार किसी ''पेशेवर'' उपन्यास से ज़्यादा उद्घाटित करने वाला और अर्थपूर्ण होता है, और किन्हीं दीक्षित सूत्रों में लिखी गई भागों की कविता के बरक्स किसी बेनामी लोकगीत में ज़िंदगी की धड़कन ज़्यादा मज़बूती से व्यक्त कर दी जाती है। लोग हज़ारों तरीक़ों से अपनी दारुण व्यथाओं और अपनी उम्मीदों को अभिव्यक्त करने के जो साक्ष्य देते हैं, वे ''जनता के नाम लिखी गई किताब'' से ज़्यादा भावपूर्ण और सुंदर होते हैं।
हमारी सच्ची सामूहिक पहचान अतीत से पैदा होती है और इसके द्वारा ही फूलती-फलती है- दूसरों के पैरों से हमारे पैर कुचले गए थे; जो क़दम हमने उठाए वे आदिरूप थे- लेकिन ये पहचान अतीत की ललक के रुप में जमी नहीं हैं। हम, यक़ीनन, रीति-रिवाजों, पहनावे, और विचित्रता, जिसे पर्यटक पराधीन लोगों में देखते हैं, को कृत्रिम तौर पर जारी रखने से अपने गोपनीय हाव-भावों को नहीं तलाश सकते हैं। हम जो करते हैं, वही हैं, ख़ासतौर से हम बदलाव के लिए जो कुछ करते हैं, हम वो होते हैं; हमारी पहचान एक्शन और संघर्ष में निहित होती है। अत: ये इलहाम कि 'हम क्या हैं' उन लोगों के लिए एक भत्र्सना है जो हमें 'हम जो हो सकते हैं' से रोकते हैं। कठिनाईयों के ख़िलाफ़ संघर्ष और चुनौती ख़ुद को परिभाषित करने का प्रस्ताव बिंदु होते हैं। संकट और बदलाव की प्रक्रिया में जन्मा, और अपने समय की घटनाओं और जोखिमों से गहरे तौर से संबद्ध, साहित्य नए यथार्थ के प्रतीक निर्मित करने में यक़ीनन मदद कर सकता है, और शायद- अगर प्रतिभा और साहस की कमी नहीं है- सड़क किनारे के संकेतों पर रोशनी डाल सकता है। अमेरिका में पैदा होने की सुंदरता और दर्द को गाना बेकार नहीं है।

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प्रेस में तो छपता ही नहीं है और बिक्री के आंकड़ें ज़रुरी नहीं कि एक किताब के प्रभाव को सही सही मापते हैं। एक समय में लिखित कार्य जितना स्पष्ट होते हैं उससे कहीं ज़्यादा रोशनी करते हैं; समय समय में- कई साल पूर्व ही- ये सामूहिकता की ज़रूरतों और सवालों के जवाब दे देते हैं, अगर लेखक जानता है कि उनकी, आंतरिक संदेहों और वेदनाओं के ज़रिए, अनुभूति कैसे ही जाए। लेखन किसी लेखक/लेखिका की घायल चेतना से प्रस्फुटित होता है और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है; रचना का कार्य एकता का एक कार्य होता है जो अपने रचनाकार के जीवन में अपनी तकदीर को हमेशा पूर्ण रूपेण प्राप्त नहीं कर पाता है।

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मैं उन लेखकों के रवैये से इत्तेफ़ाक नहीं रखता जो अपने लिए ऐसे दैवीय विशेषाधिकारों का दावा करते हैं जो साधारण मनुष्यों को नहीं मिलते, उनके रवैये से भी नहीं जो सार्वजनिक माफ़ी के लिए अपनी छाती पीटते और कपड़े फाड़ते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी अनुपयोगी छुट्टियाँ बिताने में समर्पित कर दी। न ही इतना ईश्वरीय और न ही इतना मुआ$िफक। हमारी सीमाओं के प्रति जागरुकता का मतलब दुर्बलता नहीं होती: साहित्य को, एक एक्शन के रूप में, कोई पराप्राकृतिक शक्तियाँ हासिल नहीं होती हैं, लेकिन लेखक/लेखिका कुछ कुछ एक जादूगर की तरह हो सकता/सकती है, अगर वह अपने साहित्यिक काम के ज़रिए, अहम अनुभवों और व्यक्तियों के जीवन-संघर्ष की अनुभूति हासिल कर, अभिव्यक्त कर सकता/सकती है।
लिखे हुए को अगर गंभीरता से पढ़ा जाता है और वह पाठक की चेतना को एक हद तक बदलता या परिमार्जित करता है, तो लेखक/लेखिका बदलाव की प्रक्रिया में अपनी भूमिका को उचित साबित कर सकता है; न तो अहंकार और न ही झूठी दीन-हीनता के साथ, बल्कि इस मान्यता के साथ कि वह किसी विशाल का एक मामूली हिस्सा है।
यह मुझे वाजिब लगता है कि जो लोग शब्द को खारिज़ करते हैं वे ऐसे होते हैं जो अपनी परछाई और अपनी अंतहीन भूल-भुलैया के साथ एकालाप करते/करती हैं; लेकिन शब्द हममें से उन लोगों के लिए मायने रखते हैं जो इस यक़ीन का उत्सव मनाना और उसे साझा करना चाहता हैं कि मानव परिस्थितियाँ एक हौदा नहीं होती हैं। हमें संभाषी चाहिए, प्रशंसक नहीं; हम वार्तालाप पेश करते हैं, तमाशा नहीं। हमारा लेखन संपर्क बनाने की इच्छा से भरा होता है, ताकि पाठक उन शब्दों में शामिल हो सकें जो उनके जरिए हमारे पास आते हैं, और उम्मीद और आगम के बतौर उनके पास वापस हो जाते हैं।

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यह दावा कि साहित्य अपने आप से यथार्थ को बदल सकता है एक पागलपंथी या अहंकार की करतूत होगी। इससे इंकार कि यह इस बदलाव को निर्मित करने में अपना योगदान कर सकता, मुझे कम मूर्खतापूर्ण नज़र नहीं आता। अपनी सीमाओं के प्रति हमारी जागरुकता निस्संदेह हमारे अपने यथार्थ के प्रति जागरुकता है। दु:साहस और संदेह के कोहरे के बीच, इसका सामना करना और इससे भिडऩा संभव है- हमारी अपनी सीमाओं के साथ, लेकिन इसी वक्त उनके विपक्ष में होकर।
इस मायने में, जो पहले ही बूझते-समझते हैं उनके लिए ''क्रांतिकारी'' साहित्य का लेखन उतना ही परित्यक्त है जितना कि इस रुढि़वादी साहित्य जो अपनी ठुढ्डी के नीचे उल्लासपूर्ण चिंतन में डूबा रहता है। ऐसे भी कई हैं जो अंतर्भासी स्वर का एक ''अतिरेकी'' साहित्य पैदा करते हैं, जो सीमित लोगों को संबोधित होता है, और जो यह प्रस्तावित और संप्रेषित करता है उसे वे पहले से ही जानते-समझते हैं। ऐसे लेखक जोखिम कैसे ले सकते हैं, चाहे वह कितना भी क्रांतिकारी होने का दावा क्यूं न करें, जो कि ऐसी अल्पसंख्या के लिए लिखते हैं, जो उन्हीं की तरह सोचती और महसूस करती है, और अगर वे अल्पसंख्या को कुछ देते हैं तो उससे अपेक्षा क्या करते हैं? ऐसे मामलों में असफलता की संभावना नहीं रहती; न ही सफलता की संभावना होती है। लेखन का इस्तेमाल क्या है, अगर यह असहमति के संदेशों पर व्यवस्था द्वारा थोपी गई पाबंदियों को चुनौती नहीं देता है?
हमारा प्रभावी होना हमारे हौसले और बुद्धिमानी, स्पष्टता और अपील करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है। मुझे उम्मीद है कि हम परंपरागत लेखकों द्वारा धुंधलेपन का अभिवादन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा से ज़्यादा निर्भीक और सुंदर भाषा का निर्माण कर सकेंगे।

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लेकिन यह महज भाषा की समस्या नहीं है; यह मीडिया/जनमाध्यमों की भी है। प्रतिरोध की संस्कृति सभी उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करती है, और यह अपने आप को कोई ऐसी विलासिता प्रदान नहीं करती जिससे अभिव्यक्ति का कोई अवसर या तरीका बर्बाद हो। समय कम है, चुनौतियां ज्वलंत हैं और कार्यभार बहुत हैं; लैटिन अमेरिकी लेखक के लिए, जो सामाजिक बदलाव के उद्देश्य से परिचित है, किताबों का उत्पादन कई तरह के प्रयासों का मात्र एक क्षेत्र हैं। हम बुर्जुवाजी संस्कृति  के एक जम गए संस्थान के बतौर साहित्य के पवित्रीकरण के पक्षधर नहीं हैं। मास-मार्केट (मास-बाज़ार) के आख्यान और रिपोर्ताज, टीवी, फिल्म और रेडियो की पटकथा, लोकप्रिय गीत हमेशा ही तुच्छ चरित्रों की बौनी ''शैलियाँ'' नहीं होते, जैसा कि विशिष्ट साहित्यिक विमर्श के कुछ मसीहाओं द्वारा दावा किया जाता है, जो उन्हें कमतर मानते हैं। लैटिन अमेरिका की विद्रोही पत्रकारिता द्वारा मास मीडिया के पृथक उपकरणों में सूराख खोलना सतत समर्पित और रचनात्मक कार्य का परिणाम है, जिसे अपने सौंदर्यशास्त्रीय स्तर या अच्छे उपन्यासों या कहानियों से जब उनकी तुलना की जाएगी तो किसी तरह के क्षमायाचना की ज़रूरत नहीं होगी।

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मैं अपने पेशे में यक़ीन रखता हूँ; मैं अपने उपकरणों में यक़ीन रखता हूँ। मैं नहीं समझ पाता कि ऐसे लेखक लिखते ही क्यूं हैं जो हवाई घोषणा करते हैं कि एक ऐसे संसार में जहां लोग भूख से मर रहे हैं लिखने का कोई मतलब नहीं है। न ही मैं उन लोगों को समझ पाता जो लोग शब्दों को अपने गुस्से के लक्ष्य और जड़ासक्ति में तब्दील कर देते हैं। शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।
मैं सोचता हूं कि आज लैटिन अमेरिकी साहित्य का आरंभिक कार्य शब्दों का बचाव करना है, अक्सर ही जिनका संचार को उलझाने और धोखा देने के उद्देश्य से गंदगी के साथ प्रयोग और दुरुपयोग किया जाता है।
राजनीतिक कैदियों के लिए मेरे देश का नाम ''आज़ादी'' है, और ''लोकतंत्र'' आतंक के विभिन्न शासनों के शीर्षक का हिस्सा है; ''प्रेम'' शब्द एक आदमी का उसकी गाड़ी के साथ रिश्ते की व्याख्या करता है, और ''क्रांति'' यह बताने में समझी जाती है कि आपकी रसोई में एक नया डिटर्जेंट क्या कर सकता है; ''गौरव'' वो होता है जोकि कोई खास साबुन अपने उपभोक्ताओं में पैदा करता है, और ''ख़ुशहाली'' एक ऐसा सनसनीख़ेज जोश होता है जिसे गरम कुत्ते का भोजन करते हुए अनुभव किया जाता है। ''एक शांतिपूर्ण देश'' का अर्थ, लैटिन अमेरिका के कई देशों में, ''एक भलीभांति सुरक्षित कब्रिस्तान'' होता है और कई बार ''स्वस्थ आदमी'' को एक ''लाचार आदमी'' पढ़ा जाना चाहिए।
लेखन से, उत्पीडऩ और पाबंदियों के बावजूद, हमें अपने समय और अपने लोगों का साक्ष्य प्रस्तुत करना संभव है- वर्तमान और हमेशा के लिए। अगर किसी को ये कहना है तो उसे लिखना चाहिए: ''हम यहाँ हैं, हम यहाँ थे; लिहाज़ा हम हैं, लिहाज़ा हम थे।'' लैटिन अमेरिका में एक साहित्य आकार ले रहा है और मजबूती हासिल कर रहा है, एक ऐसा साहित्य जो अपने पाठकों को नींद में नहीं सुलाता, बल्कि उन्हें जगाता है; जो हमें अपने मृतकों को दफ़नाने का प्रस्ताव नहीं देता, बल्कि उन्हें अमर बनाने को कहता है; जो राख को उड़ाने से इंकार करता है और आग जलाने की कोशिश करता है। यह साहित्य प्रतिरोधी शब्दों की शक्तिशाली परंपरा को चिरस्थायी और समृद्ध करता है। अगर, जैसा कि हम मानते हैं, पुरानी यादों पर उम्मीद को तरज़ीह देते हैं, तो शायद शैशवावस्था का यह साहित्य सामाजिक शक्तियों की सुंदरता का पात्र है जो, अभी या कभी बाद में, सीधे या टेढ़े तरीक़ों से, हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम को क्रांतिकारी तौर पर बदल देगा। और शायद यह आने वाली पीढिय़ों- कवि के शब्दों में, ''सारी चीज़ों के सच्चे नाम''- के लिए सुरक्षित रखने में मदद करेगा।
(मूल स्पेनिश से बॉबी एस ऑर्तिज़ के अंग्रेज़ी अनुवाद से अनुदित : अनिल, संशोधन-रेनू)




अनुवाद डॉ. अनिल- जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हैं। आपको मीडिया, साहित्य, संस्कृति, मानवाधिकार के गंभीर मुद्दों पर गहरी रुचि है और 'पहल' के लिए कुछ विशेष करने की ख्वाहिश है। इन दिनों डॉ. अनिल एडुआर्डो गैलियानो की सुप्रसिद्ध क़िताब 'डेज़ एण्ड नाइट्स ऑफ लव एण्ड वार' का अनुवाद कर रहे हैं। प्रकाशित अंश 'शब्दों की हिफज़त' एडुआर्डो का वक्तव्य है और क़िताब का हिस्सा। मो.- 09579938779, 09166799700


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