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जनवरी 2016

नये युद्धों के साए में वे मुलाकातें

अरुंधति रॉय / प्रस्तुत-शिवप्रसाद जोशी

आरंभ/एक



चर्चित लेखिका अरुंधति रॉय ने अपनी सुपरिचित सक्रिय रचनाधर्मिता की अपनी एक ताज़ा मुहिम में पिछले दिनों मॉस्को और लंदन का दौरा किया। लंदन में इक्वाडोर दूतावास में पनाह लेकर लगभग कैद की हालत में रह रहे जुलियन असांज और मॉस्को के एक होटल में शरणार्थी जीवन बिता रहे एडवर्ड स्नोडेन से मुलाकातों के लिए ये दौरे किए गए थे। मशहूर अमेरिकी अभिनेता, संस्कृतिकर्मी और सत्ता प्रतिष्ठान की कारगुजारियों के तीखे आलोचक जॉन कुसाक ने अरुंधति के साथ इन मुलाकातों का विचार बनाया। वो सूत्रधार बने और जब दुनिया में सीरियाई संकट का धुंधलका था, शरणार्थियों की पुकारें उन तक वापस लौट-लौट आ रही थीं और अमेरिका से लेकर फ्रांस तक विश्व सूरमाओं के नजारे चमक रहे थे, और दुनिया एक ख़ामोश और अलग ही किस्म के हथियारों से लैस कॉरपोरेटी बिसात वाले महायुद्ध की ओर, तेज़ी से लुढ़कती जा रही थी, तब एक मौलिक और नैतिक संतुलन का साहस जुटाते हुए अरुंधति रॉय अपने मित्रों के साथ स्नोडेन और असांज से मिल रही थीं और ''महायुद्ध'' के शिकारियों और शिकारों, उसके स्वरूप और विश्वव्यापी सर्विलांस पर अपनी चिंता साझा कर रही थीं। स्नोडेन और असांज इस दुनिया में प्रतिरोध की दो बड़ी जीवित मिसालें बन गए हैं, लेकिन वे दो ऐसे सबसे बड़े शिकार की मिसालें भी हैं, जिन पर बिग बॉस और उसकी मंडली की नज़रें टेढ़ी हैं। गाज कब गिर जाए कोई नहीं जानता। ब्रिटेन के द गार्जियन अख़बार में अरुंधति का पिछले दिनों इन मुलाकातों का एक ब्यौरा आया था। उन दो कमरों में अपने आंतरिक प्रकाश में तल्लीन उन दो लोगों के दुस्साहस का ही नहीं, वर्तमान और आगामी विश्व की सामरिक खुराफ़ातों का भी, उन्होंने अपने ढंग से वर्णन किया है। ये एक अलग तरह की दास्तान है। एक लेखक के संघर्ष को साथ ही नहीं, सलाम भी है। अरुंधति के लेख का द गार्जियन अख़बार से ये साभार रूपांतर किया जा रहा है।

मॉस्को का अ-सम्मेलन कोई औपचारिक इंटरव्यू नहीं था। ये कोई भूमिगत, खुफ़िया मक़सदों वाली भेंट भी नहीं थी। ख़ास बात ये थी कि जॉन कुसाक, डैनियल एल्सबर्ग (वियतनाम युद्ध के दौरान पेंटागन के काग़ज़ात लीक करने वाला शख़्स) और मुझे सावधान, कूटनीतिक, नियम क़ायदों वाला एडवर्ड स्नोडन नहीं मिला था। बुरी बात ये है कि कमरा नंबर 1001 में जो मज़ाक, मस्ती, चुटकुले और मसखरापन चला उसे फिर से नहीं पैदा किया जा सकता है। इस 'अन-सम्मिट' के बारे में विस्तार से नहीं लिखा जा सकता जो इसके लिए अपेक्षित होता। फिर भी ये तो तय है कि इसे न लिखे जा सकने के दायरे में भी नहीं डाला जा सकता है। क्योंकि ये सब वाकई घटित हुआ था। और क्योंकि दुनिया लाखों पैर वाले एक कीड़े की तरह है जो लाखों वास्तविक संवादों पर इंच दर इंच आगे बढ़ती है। निश्चित रूप से ये एक वास्तविक संवाद था। 
जो कहा गया उससे कहीं ज़्यादा शायद, जिस चीज़ की अहमियत थी वो थी उस कमरे में भरी हुई भावना। वहां एडवर्ड स्नोडेन था, जो 9/11 के बाद, खुद अपने शब्दों में, सीधे तौर पर बुश का प्रशस्ति गीत गा रहा था और इराक़ युद्ध के पक्ष में हस्ताक्षर कर रहा था। और हम लोग भी थे जो 9/11 के बाद सीधे खड़े थे बिल्कुल स्नोडेन से उलट करते हुए। बेशक, इस बातचीत में देर हुई है। इराक़ बरबाद किया जा चुका है। और जिसे अब नक्शे में पूरी तसल्ली के साथ मध्यपूर्व कहा जाता है उसका नक्शा फिर से बर्बरतापूर्वक खींच दिया गया है (और एक बार)। लेकिन फिर भी हम लोग थे, बात करते हुए। रूस के एक विचित्र से होटल में, वाकई विचित्र ही था वो।
मॉस्को रिट्ज-कार्ल्टन की दमकती हुई लॉबी, नई पूंजी से लबालब शराबी लखपतियों से भरी हुई थी। आनंद और वैभव की अबाध हिलोरें लेतीं हसीनाएं, आधा किसान, आधा सुपरमॉडल, थुलथुले आदमियों की बांहों में लिपटी हुईं आ रही थीं- प्रसिद्धि और सौभाग्य के रास्ते पर जाती हुई हिरनियां थीं वे। उन लंपट ऐय्याशों को अपना बकाया देती हुई जो उन्हें वहां लाते थे। हम उन गलियारों से होते हुए निकले जहां मुट्ठियां ताने लड़ाइयां छिड़ी थीं, शोर भरे गाने बज रहे थे और वर्दीधारी वेटर ख़ामोशी से चांदी के बर्तनों और खाने से ठसाठस भरी ट्रॉलियों को कमरों से अंदर और बाहर खिसकाते ला रहे थे। कमरा नंबर 1001 में पहुंचकर हम सहसा क्रेमलिन के इतना नज़दीक आ गए थे कि अगर खिड़की से हाथ बाहर निकालते तो उसे क़रीब-क़रीब छू सकते थे। बाहर बर्फ गिर रही थी। हम लोग रूस की बेतहाशा सर्दी में गहरे धंसे हुए थे- वो सर्दी जिसे दूसरे विश्व युद्ध में भूमिका निभाने के लिए कभी पर्याप्त श्रेय नहीं दिया जाता है। मैंने जो सोचा था, एडवर्ड स्नोडेन क़द में उससे भी छोटा था। नन्हा सा, नर्म, फ़ुर्तीला, साफ़ किसी पालतू बिल्ली की तरह। वो एकदम लिपटकर डैन से मिला और हमसे गर्मजोशी से। ''मैं जानता हूं तुम यहां क्यों आई हो,'' उसने मुझसे मुस्कराते हुए कहा। ''क्यों?'' मुझे रेडिक्लाइज़ करने के लिए। मैं हंस पड़ी।
हम लोग कमरे के विभिन्न किनारों, स्टूलों, कुर्सियों और बिस्तर पर बैठ गए।  डैन एड एक दूसरे से मिलकर इतने ख़ुश थे और उनके पास एक दूसरे को बताने के लिए इतना कुछ था कि उनके बीच दख़ल देना हल्की सी अभद्रता लग रही थी। बीच-बीच में वे किसी रहस्यमय कूट भाषा में बात करने लगते: ''मैं किसी के ऊपर से कूदकर सीधे सड़क पर पहुंचा, और फिर सीधे टीएसएससीआई को।'' ''नहीं क्योंकि एक बार फिर इसमें डीएम का कोई लेनादेना नहीं है, ये एनएसए का काम है। सीआईए में इसे कोमो, सीओएमओ कहा जाता है।'' ''ये एक जैसा रोल ही है, लेकिन क्या उसे सपोर्ट हासिल है?'' ''प्रीसेक-पीआरआईएसईसी या प्राइवेक?'' ''उन्होंने टैलेंट की-होल से शुरुआत की। तब हरेक को टीएस, एसआई, टीके और गामा जी क्लियरन्स के बारे में पढऩे को मिला... कोई नहीं जानता कि ये क्या है...''
कुछ समय बाद मुझे लगा अब उन्हें बीच में टोक सकती हूं। अमेरिकी झंडे को लपेटकर फ़ोटो खिंचवाने के सवाल पर आंखे गोल करते हुए स्नोडेन ने एक निहत्था जवाब दिया: ''ओह क्या बताऊं, मैं नहीं जानता हूं। किसी ने मुझे झंडा पकड़ा दिया और मेरी फ़ोटो खींच ली गई।'' और जब मैंने पूछा कि उसने इराक़ युद्ध के समर्थन में दस्तख़त क्यों किए थे, जबकि दुनिया भर में लाखों करोड़ों लोग युद्ध के िखलाफ़ मार्च निकाल रहे थे, तो इसका जवाब भी उसने पहले जैसी शांति के साथ दिया: ''मैं प्रचार के झांसे में आ गया था।''
डैन ने इस बारे में थोड़ा विस्तार से बताया कि पेंटागन और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी में काम करने वाले अमेरिकी नागरिकों के लिए अमेरिकी अपवादों और युद्ध के उसके इतिहास के बारे में ज़्यादा साहित्य पढ़ सकना एक असामान्य बात हो सकती है। (और एक बार वे इन संस्थाओं में आ जाते हैं तो ये विषय उनकी पसंद के हों, ऐसा होना मुश्किल है।) वास्तविक समय में वो और एड इसे अपने सामने सजीव होता हुआ देख चुके थे। अपनी ज़िंदगियों को और अपनी आज़ादी को दांव पर लगाकर वे बहुत ख़ौफज़दा हो चुके थे। और वही वक़्त था जब उन्होंने व्हिसल्ब्लोअर बनने की ठानी। इन दोनों में एक बात समान थी। दोनों नैतिक सच्चाई और पवित्रता के मज़बूत और लगभग भौतिक बोध से जुड़े थे कि क्या सही है और क्या ग़लत।
नैतिक पवित्रता की ये भावना उस समय ज़ाहिर तौर पर तो थी ही, जब उन्होंने उन चीज़ों पर समाज को जगाने का निश्चय किया था, जो उनकी नज़र में नैतिक तौर पर अस्वीकार्य थीं, बल्कि ये भावना उस समय भी काम कर रही थी जब उन दोनों ने अपनी अपनी नौकरियां पकड़ी थीं। डैन की भावना थी अपने देश को साम्यवाद से बचाना। और एड की भावना थी अपने देश की इस्लामी आतंकवाद से हिफ़ाज़त करना। इस सबसे मोहभंग हो जाने के बाद उन्होंने जो किया वो इतना रोमांचक और इतना नाटकीय था कि वे नैतिक साहस की उस अकेली कार्रवाई के दम पर ही पहचाने जाने लगे।
मैंने एड स्नोडेन से पूछा कि वो देशों को बर्बाद कर देने की अमेरिका की क्षमता और युद्ध जीत पाने की उसकी अक्षमता (मास सर्विलांस के बावजूद) के बारे में क्या सोचता है। मेरे ख़्याल से मेरा सवाल कुछ रुखा ही था- कुछ इस तरह, ''आिखरी बार अमेरिका ने भला कौन सा युद्ध जीता था?'' हम लोगों की इस बारे में भी बात हुई कि इराक़ पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध और उसके बाद उस पर चढ़ाई को ठीक-ठीक क्या जनसंहार कहा जा सकता है। हमारी बात इस बारे में भी हुई कि सीआईए को ये कैसे पता चला- वो इस तथ्य के लिए तैयार भी थी- कि दुनिया न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय युद्ध की एक जगह के रूप में उभर रही है, बल्कि अंतर्देशीय युद्ध की ओर भी बढ़ रही है जिसमें आबादियों पर नियंत्रण के लिए मास सर्विलांस ज़रूरी होगा।
हमारी बात इस पर भी हुई कि सेनाएं किस तरह पुलिस बलों में बदल दी गई हैं और वे उन देशों का प्रशासन संभाल रही हैं जिन पर हमला और क़ब्ज़ा किया गया है। और पुलिस को आंतरिक विद्रोह को कुचलने के लिए सेना की तरह प्रशिक्षित किया जा रहा है- फिर वो चाहे भारत में हो या पाकिस्तान में या अमेरिका के मिसोरी प्रांत के फ़ग्र्यूसन में।
एडवर्ड ने सर्विलांस यानी निगरानी के बारे में भी कुछ चीज़ें बताईं। और यहां मैं उसे कोट करती हूं, क्योंकि ये बात वो पहले भी अक़्सर कह चुका है: ''अगर हम कुछ नहीं करते है, तो हम एक संपूर्ण निगरानी राज्य के भीतर नींद में चलने जैसा व्यवहार कर रहे होते हैं। हमारा एक सुपर स्टेट होता है जिसके पास दो तरह की असीमित क्षमताएं होती हैं- ताक़त को आज़माने की और सब कुछ (लक्षित लोगों के बारे में) जानने की- और ये एक बहुत ख़तरनाक काम्बनेशन है। ये एक अंधकार से भरा भविष्य है। वे हम सब के बारे में सब कुछ जानते हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते हैं- क्योंकि वे खुफ़िया हैं, राजनैतिक वर्ग हैं, संसाधनयुक्त वर्ग हैं- हम नहीं जानते कि वे कहां रहते हैं, हम नहीं जानते हैं कि वे क्या करते हैं, हम नहीं जानते हैं कि उनके दोस्त कौन हैं। उनके पास हमारे बारे में ये सब चीज़ें जानने की क्षमता है। भविष्य इसी तरफ़ बढ़ रहा है, लेकिन मैं समझता हूं कि इसमें बदलाव की संभावनाएं भी निहित हैं।''
मैंने एड से पूछा कि क्या एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी) उसके उद्घाटनों पर महज़ अपनी खीझ उतार रही है या वो अंदर ही अंदर इस बात से ख़ुश भी है कि वो सब देखने वाली, सब जानने वाली एजेंसी के रूप में भी देखी और समझी जा रही है- क्योंकि इससे लोग डरे रहेंगें, उनका संतुलन गड़बड़ाया रहेगा, वे हमेशा चौकन्ने और भयभीत से रहेंगे और आसानी से वश में किए जा सकेंगे। डैन ने बताया कि अमेरिका में भी एक पुलिस स्टेट का ख़तरा सन्निकट है, सि$र्फ एक और 9/11 दूर: ''हम लोग अभी पुलिस स्टेट में नहीं है, अभी तो नहीं। मैं इस बारे में बात कर रहा हूं कि आगे क्या हो सकता है। मैं महसूस करता हूं कि मुझे इसे इस तरह नहीं बताना चाहिए... गोरे, मध्यवर्गीय, मेरे जैसे शिक्षित लोग पुलिस स्टेट में नहीं रहते हैं... काले, ग़रीब लोग एक पुलिस स्टेट में रह रहे हैं। दमन शुरू होता है अर्धश्वेतों के साथ, मध्यपूर्वी लोगों के साथ जिनमें वे भी शामिल हैं जो उनका साथ देते हैं और वहां से मामला आगे बढ़ता है... एक और नौ बटा ग्यारह होता है तो फिर मैं मानता हूं कि हमारे यहां सैकड़ों हज़ारों नज़रबंदियां होंगी। मध्यपूर्वियों और मुस्लिमों को डिटेन्शन कैंपों में रखा जाएगा या निर्वासित कर दिया जाएगा। नौ बटा ग्यारह के बाद बिना आरोपों के हज़ारों लोग गिरफ़्तार कर लिए गए थे... लेकिन मैं बात कर रहा हूं भविष्य के बारे में। मैं बात कर रहा हूं दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों के स्तर की... मैं बात कर रहा हूं शिविरों की या निकाल बाहर कर दिए गए सैकड़ों हज़ारों लोगों की। मैं सोचता हूं कि सर्विलांस इस मामले में बहुत प्रासंगिक है। उन्हें पता रहेगा कि किन-किन लोगों को किनारे करना है- डैटा पहले ही इकट्ठा कर दिया गया है। ''(जब वो ये बता रहा था, मैं सोचने लगी, हालांकि मैंने पूछा नहीं- अगर स्नोडेन गोरा न होता तो क्या इससे कोई फ़र्क पड़ता?)    
हमने युद्ध और लालच के बारे में, आतंकवाद के बारे में, और इसकी एक सटीक परिभाषा क्या हो सकती है, इस बारे में भी बात की। हमने देशों के बारे में, झंडों और देशभक्ति के अर्थ को लेकर बात की। हमने जनमत के बारे में बात की, और सार्वजनिक नैतिकता और ये कितनी कमज़ोर हो सकती है और कितनी आसानी से इसे तोड़ा मरोड़ा मनिप्यलेट किया जा सकता है, इस बारे में भी बात की। ये सवाल जवाब िकस्म की बातचीत नहीं थी। हमारी एक असंगत और बेमेल महफ़िल थी। स्वीडन में राइटलाईवलीहुड फ़ाउंडेशन के  ओले फ़ॉन उकेस्क्युल, मैं खुद और वे तीन दुखदायी अमेरिकी (कुसाक, स्नोडेन और एल्सबर्ग।) इस कष्टकारी दुसाध्य काम की पहल करने वाले और इसे आयोजित करने वाले जॉन कुसाक भी एक शानदार परंपरा से आते हैं- संगीतज्ञों, लेखकों, अभिनेताओं, एथलीटों की परंपरा जिन्होंने किसी भी तरह की मूर्खता और कपट को कभी स्वीकार नहीं किया भले ही वो कितने आकर्षक तरीके से पैक की हुई हो।
एडवर्ड स्नोडेन का क्या होगा? क्या वो कभी अमेरिका लौट पाएगा? उसके पास इसके अवसर तो फीके ही हैं। अमेरिकी सरकार- वो चालाक और रहस्यमय राज्य, और दोनों प्रमुख राजनैतिक दल उसे उस भीषण नुकसान की सज़ा देना चाहते हैं जो उसने उनके मुताबिक सुरक्षा प्रतिष्ठान पर बरपा किया है। (चेल्सी मैनिंग और दूसरे व्हिसलब्लोअर्स को तो उस जगह पहुंचा ही दिया गया है जहां वे उन्हें देखना चाहते थे।) अगर राज्य स्नोडेन को मार नहीं पाया या जेल में नहीं डाल पाया तो वो ये ज़रूर चाहेगा कि उस नुक़सान को कमतर किया जाए जो स्नोडेन ने किया है और ऐसा करना जारी रखे। इसका एक तरीक़ा है व्हिसलब्लोइंग के आसपास की बहस को क़ाबू में कर उसे अपने हिसाब में ढालना और उस दिशा में ले जाना जो उसे सूट करे। कुछ हद तक उसने ये किया भी है।
सार्वजनिक सुरक्षा बनाम मास सर्विलांस की बहस, जो सत्तारूढ़ पश्चिमी मीडिया में चल रही है, उसमें प्यार की विषयवस्तु अमेरिका ही है। अमेरिका और उसकी कार्रवाईयां। क्या वे नैतिक हैं या अनैतिक? क्या वे सही हैं या ग़लत? क्या व्हिसलब्लोअर्स अमेरिकी देशभक्त हैं या अमरेकी देशद्रोही? नैतिकता के इस संकीर्ण सांचे में दूसरे देश, दूसरी संस्कृतियां, दूसरे संवाद- भले ही वे अमेरिकी युद्धों के पीडि़त हों- वे आमतौर पर प्रमुख मुक़दमों में गवाहों की तरह ही पेश होते हैं। वे या तो अभियोजन पक्ष के आक्रोश के लिए सहारे की तरह काम करते हैं या बचाव पक्ष के क्षोभ के लिए।
जब इन शर्तों के साथ मुक़दमा थोपा जाता है, तो ये विचार भी वो लादता है कि एक नरम, नैतिक सुपरपावर हो सकती है। क्या हम इसे कार्य करता हुआ नहीं देख रहे हैं? उसके दिल का दर्द है? उसका अफ़सोस? आत्मसुधार की उसकी तरतीबें? उसका वॉचडॉग मीडिया? उन साधारण(बेगुनाह) अमेरिकी नागरिकों को, जिनकी जासूसी उनकी अपनी ही सरकार करा रही है, उनके लिए खड़ा न हो सकने वाले इसके एक्टिविस्टों को देखिए। भयानक और समझदारी भरी दिखने वाली इन तमाम बहसों में जनता और सुरक्षा और आतंकवाद जैसे शब्द इर्दगिर्द फेंके जाते हैं, लेकिन वे हमेशा की तरह चलताऊ ढंग से परिभाषित होते रहे हैं और उनका इस्तेमाल ज़्यादातर उस तरीक़े से नहीं होता है जैसा इस्तेमाल अमेरिकी राज्य उनका करना चाहेगा।
ये स्तब्ध करने वाली बात है कि बराक ओबामा ने 20 नामों वाली एक ''किल लिस्ट'' को मंज़ूरी दी है। या क्या ये स्तब्ध करने वाली बात है? वो लिस्ट कौन सी है जिसमें लाखों वे लोग दर्ज होंगे जो तमाम अमेरिकी युद्धों में मारे गए, क्या वो किल लिस्ट नहीं होगी? इस पूरे मामले में, निर्वासन में रहते स्नोडेन को रणनीतिक और युक्तिपूर्ण होना पड़ रहा है। वो एक असंभव स्थिति में है जहां उसे अपने मानवाधिकार या मुक़दमे की शर्तों पर अमेरिका में उन्हीं संस्थानों से बात करनी है जो उससे धोखा खाया हुआ महसूस करते हैं. और महान मानवाधिकारी ब्लादीमिर पूतिन से उसे रूस में अपने निवास की शर्तों पर भी बात करनी है। इस तरह महाशक्तियों के पास सच कहने वाला बंदा है जो ऐसी स्थिति में है कि उसे इन बातों पर अत्यधिक सावधान रहना है कि वो अपनी अर्जित की हुई लोकप्रियता का, रोशनी के इस दायरे का कैसा इस्तेमाल करेगा और सार्वजनिक रूप से क्या बोलेगा।
जो कहा नहीं जा सकता उसे किनारे रख दें, तब भी व्हिसलब्लोइंग के इर्दगिर्द होने वाला संवाद थरथराने वाला है- ये एक रियलपॉलीटिक है- व्यस्त, महत्वपूर्ण और क़ानूनी दांवपेंचो की भाषा से भरी हुई। इसमें जासूस हैं और जासूसों के शिकारी भी। हथकंडे हैं, गुप्त सूचनाएं हैं और उन्हें लीक करने वाले भी हैं। ये अपनी तरह का एक बहुत वयस्क और अवशोषक ब्रह्मांड है. फिर भी जैसा कि ये कभीकभार धमकाता है कि ये अधिक विस्तृत, अधिक रेडिकल सोच का विकल्प हो सकता है, तब ऐसी स्थिति में वो बात थोड़ा असुविधाजनक हो जाती है जो यहूदी पादरी, कवि और युद्ध प्रतिरोधी (डैनियल एल्सबर्ग के समकालीन) डैनियल बेरिगान ने कही थी कि, ''प्रत्येक राष्ट्र-राज्य साम्राज्य की ओर झुक जाता है- मुद्दा यही है।''
मैं ये देखकर ख़ुश थी कि स्नोडेन ने ट्विटर पर अपना खाता खोलते हुए (और आधा सेकंड में ही उसके पांच लाख फ़ॉलोवर हो गए) कहा था, ''मैं सरकार के लिए काम करता था। अब मैं जनता के लिए काम करता हूं।'' इस वाक्य में ये विश्वास निहित है कि सरकार जनता के लिए काम नहीं करती है। ये एक क्रांतिकारी और असुविधाजनक संवाद की शुरुआत है। सरकार से उसका आशय जाहिर है, अमेरिकी सरकार से है। जो उसकी पूर्व नियोक्ता है। लेकिन जनता वो किसे संबोधित करता है? कौन है जनता? क्या अमेरिकी जनता? अमेरिकी जनता का कौनसा हिस्सा? ये उसे आगे चलकर तय करना होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, निर्वाचित सरकार और ''जनता'' के बीच की रेखा कभी भी उतनी स्पष्ट नहीं रही है। इलीट तबका आमतौर पर सरकार में बिना किसी सीवन के पूरा का पूरा समा जाता है। अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से देखें, अगर वास्तव में ''अमेरिकी जनता'' जैसी कोई चीज़ है, तो निश्चित रूप से ये एक बहुत प्रिवलिज्ड जनता है। एक ''जनता'' जिसे मैं जानती हूं वो पागल कर देने वाली एक पेचीदा भूलभुलैया है।
अटपटी बात है कि जब मैं मॉस्को रिट्ज - कार्लटन की बैठक के बारे में पीछे मुड़कर सोचती हूं, तो जो स्मृति मेरे ज़ेहन में सबसे पहले कौंधती है वो डैनियल एल्सबर्ग की छवि से जुड़ी है। डैन बातचीत की उस लंबी अवधि के बाद, बिस्तर पर लेट गया था। ईसा की तरह, उसके हाथ फैले हुए थे, और वो रो रहा था कि अमेरिका क्या से क्या हो गया है- उसका वो देश जिसके सबसे अच्छे लोग या तो जेल जाएंगें या निर्वासन में। मैं उसके आंसुओं से भावुक हो गई थी लेकिन परेशान भी हुई क्योंकि वे आंसू एक ऐसे शख़्स के थे जिसने मशीन को बिल्कुल अपने पास भुगता था। ऐसा आदमी जो उस मशीन को नियंत्रित करने वाले लोगों के साथ बहुत क़रीब से जुड़ा था जो ठंडे ढंग से पृथ्वी पर जीवन को ख़त्म कर देने की संभावना पर विचार कर रहे थे। ऐसा आदमी जिसने हर िकस्म का जोखिम उठाकर उनके $िखलाफ़ सीटी बजा दी थी। डैन को सारी बहसों और तर्कों का पता है। पक्ष में भी और विपक्ष में भी। अमेरिकी इतिहास और विदेश नीति का ज़िक्र करने के लिए वो अक़्सर 'साम्राज्यवादी' शब्द का इस्तेमाल करता है। पेंटागन के काग़ज़ातों को सार्वजनिक करने के 40 साल बाद, वो अब जानता है कि भले ही वे ख़ास लोग चले गए हों, लेकिन मशीन चालू है।
डैनियल एल्सबर्ग के आंसुओं ने मुझे प्रेम के बारे में, नुकसान के बारे में, सपनों के बारे में सोचने पर विवश किया-और सबसे ज़्यादा मैंने, विफलता के बारे में सोचा। ये प्यार किस तरह का प्यार है जो हममें अपने देशों के लिए उमड़ता है? कैसा होगा वो देश जो हमारे सपनों पर कभी खरा उतर पाएगा? वे कौन से सपने थे जो तोड़ दिए गए हैं? क्या महान राष्ट्रों की महानता उनके बर्बर और संहारक होने की योग्यता के समानुपात में नहीं होती है? क्या देश की ''सफलता'' की ऊंचाई उसकी नैतिक विफलता की गहराई की मापक भी होती है? और हमारी विफलता का क्या? लेखकों, कलाकारों, उग्रपंथियों, राष्ट्रविरोधियों, आवारा लोगों, असंतुष्टों, बा$िगयों की... हमारी कल्पनाशीलताओं की नाकामी का क्या? झंडों और देशों के विचार को हम प्रेम जैसी कम विनाशकारी चीज़ में बदल पाने में नाकाम रहे, हमारी उस नाकामी का क्या? मनुष्य बिना युद्ध के रहने में असमर्थ नज़र आते हैं, लेकिन वे बिना प्रेम के रह पाने में भी असमर्थ हैं। तो सवाल ये है कि हम किसे प्रेम करें, किस चीज़ को प्यार करें?
मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) में दशकों पुरानी अमेरिकी और यूरोपीय विदेश नीति के नतीज़तन जब शरणार्थी बड़े पैमाने पर यूरोप में चले आ रहे हैं, ऐसे वक़्त में ये सब लिखते हुए- मुझे ये बात हैरान करती है कि आिखर शरणार्थी कौन है? क्या एडवर्ड स्नोडेन शरणार्थी है? बिल्कुल, वो तो है। जो उसने किया है उसके चलते वो उस जगह तो नहीं लौट पाएगा जिसकी कल्पना वो अपने देश के रूप में करता है। (हालांकि वो वहां रहना जारी रख सकता है, जहां वो सबसे ज़्यादा सुविधापूर्ण ढंग से रह पाएगा- इंटरनेट के भीतर।) अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और सीरिया के युद्धों से भाग कर यूरोप जा रहे शरणार्थी, जीवनशैली में तब्दीली लाने वाले यानी लाइफ़स्टाइल युद्धों के शरणार्थी हैं। लेकिन भारत जैसे देशों के वे हज़ारों लोग शरणार्थी नहीं कहलाए जाते हैं जिन्हें जेल में डाला जा रहा है या उन्हीं लाइफ़स्टाइल लड़ाइयों में मारा जा रहा है, उन लाखों लोगों को शरणार्थी नहीं कहते हैं, जिन्हें अपनी जमीनों और खेतों से खदेड़ा जा रहा है, जो कुछ भी वे जानते हैं, उस सबसे उन्हें बेदख़ल और निर्वासित किया जा रहा है- अपनी भाषा, अपना इतिहास, वो लैंडस्केप जिसने उनकी रचना की है। जब तक उनकी दुर्दशा उनके ''अपने'' देश की मनमाने तरीक़े से खींची गई सीमाओं के दायरे में घिरी है, उन्हें शरणार्थी नहीं माना जा सकता है। लेकिन वे शरणार्थी हैं। और निश्चित रूप से, संख्या के लिहाज़ से भी देखें तो दुनिया में आज ऐसे लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है। बद$िकस्मती से, उन कल्पनाशीलताओं में उनकी कोई जगह नहीं है जो देशों और सीमाओं के खांचे में तालाबंद हैं, उन दिमागों में भी उनकी जगह नहीं है जो झंडों की तहों की तरह उनमें लिपटे हुए हैं।
शायद लाइफ़स्टाइल युद्धों का सर्वाधिक ज्ञात शरणार्थी जुलियन असांज है, विकीलीक्स का संस्थापक और संपादक,  जो इस समय लंदन स्थित इक्वाडोर के दूतावास में बतौर भगोड़ा-मेहमान अपना चौथा साल काट रहा है। हाल तक सामने के दरवाजे के ठीक बाहर बनी छोटी लॉबी तक पुलिस तैनात थी। छतों पर स्नाइपर मुस्तैद थे, जिनके पास उसे उस स्थिति मे फ़ौरन पकड़ लेने का, शूट कर देने का, बाहर खींच ले आने का आदेश था, अगर जो दरवाजे से वो अपने पांव का अंगूठा भी बाहर रख दे। ये तमाम क़ानूनी मक़सदों से एक अंतरराष्ट्रीय सीमा है। इक्वाडोर का दूतावास दुनिया के सबसे प्रसिद्ध डिपार्टमेंट स्टोर हैरॉड्स जाने वाली सड़क के सामने स्थित है। 
जिस दिन हम जुलियन से मिले, हैरॉड्स, क्रिसमस के हाहाकारी ख़रीदारों को अपने भीतर सोखता जाता था और बाहर फेंकता जाता था। वे सैकड़ों या शायद हज़ारों की संख्या में होंगे। उस टोनी लंदन हाई स्ट्रीट के बीचोंबीच, समृद्धि और अत्यधिकता की गंध, क़ैद के हालात और मुक्त दुनिया में मुक्त अभिव्यक्ति के भय की गंध से मिली। (उन दोनों ने हाथ मिलाएं और कभी भी दोस्त न बनने पर अपनी सहमति जताई)। उस दिन (वास्तव में रात को) हम लोग जुलियन से मिले थे। हमें अपने साथ फ़ोन, कैमरा या कोई रिकॉर्डिंग यंत्र कमरे में ले जाने की इजाज़त नहीं थी। लिहाज़ा वो बातचीत भी ऑफ़ द रिकॉर्ड ही रह गई है।
अपने संस्थापक-संपादक के िखलाफ़ लाद दी गई मुश्किलों के बावजूद, विकीलीक्स ने अपना काम जारी रखा है, हमेशा की तरह शांत और चिंतामुक्त ढंग से। एकदम हाल में उसने एक लाख डॉलर के एक ईनाम का ऐलान किया है जो उस व्यक्ति को दिया जाएगा जो पराअटलांटिक व्यापार और निवेश साझेदारी (ट्रांसअटलाटिंक ट्रेड ऐंड इनवेस्टमेंट पार्टनरशिप- टीटीआईपी) से जुड़े  ''स्मोकिंगगन'' दस्तावेज विकीलीक्स को लाकर देगा। यूरोप और अमेरिका के बीच ये एक ऐसा मुक्त व्यापार समझौता है जिसका लक्ष्य बहुराष्ट्रीय निगमों को उन संप्रभु सरकारों पर मुक़दमा ठोक सकने की ताक़त से लैस करना है, जो उनके कॉरपोरेट मुनाफ़ों पर ग़लत असर डालेंगी। सरकारें अगर कामगारों के न्यूनतम भत्तों को बढ़ाती हैं, ''दहशतगर्द'' गांववालों पर कार्रवाई नहीं करती है, खनन कंपनियों के काम में रुकावट डालती है या कह लीजिए कि कॉरपोरेटी पेटेंट वाले जीन संवर्धित बीजों की मौनसान्टो (एक मल्टीनेशनल) की पेशकश को ठुकरा देने की गुस्ताख़ी कर देती है, तो ये सब सरकारों के आपराधिक कृत्य के दायरे में आ जाएंगे। टीटीआईपी, घुसपैठी सर्विलांस या संवर्धित यूरेनियम जैसा ही एक और हथियार है जो लाइफ़स्टाइल युद्धों में इस्तेमाल किया जाएगा।
मेरे सामने मेज के पार जुलियन असांज बैठा था। उसके चेहरा पीला पड़ा हुआ था और वो चूर दिखता था। 900 दिन हो गए हैं, उसके शरीर को पांच मिनट की धूप भी नहीं मिली है। फिर भी वो अदृश्य हो जाने या सरेंडर कर देने से इंकार कर रहा है जैसा कि उसके दुश्मन चाहते हैं। मैं इस बात पर मुस्कराई कि कोई भी उसे ऑस्ट्रेलियाई नायक या ऑस्ट्रेलियाई गद्दार की तरह नही देखता है। अपने दुश्मनों के मामले में असांज ने एक देश से ज़्यादा का धोखा दिया है। उसने सत्ताधारी ताकतों की विचारधारा के साथ धोखा किया है। इसके लिए वे उससे नफ़रत करते हैं, एडवर्ड स्नोडेन से भी ज़्यादा उससे नफ़रत करते हैं। और ये कहना बहुत कहना है।
हमें अक़सर ये बताया जाता है कि एक प्रजाति के रूप में हम लोग एक अनंत गड्ढे के किनारे पर हैं। ये संभव है कि हमारी फूली हुई, गर्वीली समझदारी ने हमारे अस्तित्व बोध को निकाल फेंका हो और ये भी संभव है कि हिफ़ाज़त की ओर जाने वाला हमारा रास्ता पहले ही बह गया हो। अगर ऐसा हो तो इस मामले में ज़्यादा कुछ किया नहीं जा सकता है। अगर कुछ किया जा सकता है तो एक चीज़ बिल्कुल पक्की है: जिन लोगों ने समस्या पैदा की है वे तो इसका निदान लाने से रहे। अपने ईमेल्स को हम इन्क्रिप्ट कर दें तो इससे मदद मिल सकती है। लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं। प्यार के क्या मायने होते हैं, ख़ुशी के क्या मायने होते हैं और हां, देशों के क्या मायने होते हैं- इन बातों की अपनी समझ हमें फिर से बनानी और बदलनी होगी तब हम अपनी मदद कर पाएंगे। अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने और उन्हें बदलने से हम अपनी मदद कर पाएंगे।
किसी देश की अपेक्षा एक पुराना जंगल, एक पर्वत श्रृंखला या एक नदी घाटी ज़्यादा महत्वपूर्ण और निश्चित रूप से ज़्यादा प्रिय रहती आई है। मैं एक नदी घाटी के लिए रो सकती हूं और मैं रोई हूं। लेकिन देश के लिए? ओह, क्या बताऊं। मैं नहीं जानती हूं...


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