मुखपृष्ठ पिछले अंक कुछ और पंक्तियां / प्रतिरोध की आवाज़ें
जनवरी 2016

कुछ और पंक्तियां / प्रतिरोध की आवाज़ें

संकलनकर्ता : शिवप्रसाद जोशी

पहल पोस्टर



हिन्दी कवि उदय प्रकाश
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''पिछले समय से हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और बौद्धिकों के प्रति जिस तरह का हिंसा, अपमानजनक अवमानना पूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है, जिसकी ताज़ा कड़ी प्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड साहित्यकार श्री कलबुर्गी की मतांध हिंदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या हैं, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है। अब यह चुप रहने का और मुंह सिल कर सुरक्षित कहीं छुप जाने का पल नहीं। वर्ना ये खतरे बढ़ते जाएंगे।''


अंग्रेज़ी लेखिका नयनतारा सहगल
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''मोदी के राज में हम पीछे की तरफ जा रहे हैं, हिंदुत्व के दायरे में सिमट रहे हैं... लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है और बहुत से भारतीय खौफ़ में जी रहे हैं। आज की सत्ताधारी विचारधारा एक फ़ासीवादी विचारधारा है और यही बात मुझे चिंतित कर रही है। अब तक हमारे यहाँ कोई फ़ासीवादी सरकार नहीं रही... मुझे जिस चीज़ पर विश्वास है, मैं वह कर रही हूं।''


हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''असहिष्णुता, सांप्रदायिकता और जातिवाद के ख़िलाफ़ मैं लिखता रहा हूं। इस देश में हर तरह के अल्पसंख्यक संदिग्ध हो गए हैं। चाहे वे धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक हों या विचार के नजरिए से। संविधान हमें जीवन की और अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। लेकिन मौजूदा माहौल में यह ख़तरे में दिखती है।''


हिन्दी कवि राजेश जोशी
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''देश में लेखकों पर हमले कर उनकी हत्याएं की गई और सरकार मौन है, एक तरफ़ देश में जहाँ असहिष्णुता बढ़ रही है, वहीं अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले किए जा रहे हैं। इसके अलावा दादरी की घटना के बाद केंद्र सरकार का जो रवैया है, वह बताता है कि यह देश फ़ासीवाद की ओर बढ़ रहा है।''

हिन्दी कवि मंगलेश डबराल
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''यह पुरस्कार वापसी इस बात का भी संकेत है कि देश के मौजूदा माहौल में लेखक और बुद्धिजीवी किस $कदर घुटन और विक्षोभ महसूस कर रहे हैं। वे पिछले $करीब एक साल से देश में तेज़ी से बढ़ रही उन ताकतों के कारण चिंतित हैं, जो हमारे लोकतंत्र के आधार-मूल्यों, सांप्रदायिक सद्भाव, बहुलतावादी जीवन पद्धतियों, धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं और संविधान द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कभी धमकी और बाहुबल और कभी हिंसा के बल पर कुचलने में लगी हैं।''

कश्मीरी कवि गुलाम नबी ख़्याल
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी देश में ऐसा खतरनाक सांप्रदायिक माहौल नहीं देखा, विभाजन कारी और साम्प्रदायिक ता$कतों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ खुला छोड़ दिया गया है। मैं इन सांप्रदायिक शक्तियों का शारीरिक तौर पर मु$काबला नहीं कर सकता हूँ इसलिए मैंने फ़ैसला किया है कि अवार्ड लौटाकर अपना ख़ामोश प्रतिरोध दर्ज करूँ।''

हिन्दी उपन्यासकार काशीनाथ सिंह
(साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''कुछ हत्याएं हुईं और उनके बाद दादरी कांड की घटना के बाद जिस तरह से केन्द्रीय मंत्री अपना बयान दे रहे हैं इस गैरजिम्मेदाराना बयान को देखते हुए जील्लत लगा यानि जिम्मेदारी के पद पर बैठे हुए ऐसे लोग अगर इस तरह का बयान दें तो पुरस्कार वापस करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता। मन तो कई बार  बना लेकिन हुआ क्या साहित्य अकादमी को प्रायश्चित करने का मौका दिया जाना चाहिए लेकिन इन बयानों ने दिल को चोट पहुंचाया जिससे यह निर्णय लिया।''

हिन्दी कवि मनमोहन
(हरियाणा साहित्य अकादमी से 2007-08 में मिला 'महाकवि सूर सम्मान' और उसके साथ मिली एक लाख रुपये की राशि अकादमी को लौटाई)
''हममें से अनेक हैं जिन्होंने 1975-76 का आपातकाल देखा और झेला है। 1984, 1989-1992 और 2002 के हत्याकांड, फ़ासीवादी पूर्वाभ्यास और नृशंसताएं हमारे सामने से गुजरी हैं। ये सरकार और वो सरकार, सब कुछ हमारे अनुभव में है। फिर भी लगता है कुछ नई चीज़ है जो घटित हो रही है। पहली बार शायद इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि जैसे राज्य, समाज और विचारधारा के समूचे तंत्र के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की किसी दूरगामी और विस्तृत परियोजना पर काम शुरू हुआ है। हम और करीब आएं, मौजूदा चुनौतियों को मिलकर समझें और ज्यादा सारभूत बड़े वैचारिक हस्तक्षेप की तैयारी करें। अगर हमने यह न किया तो इसकी भारी कीमत इस मुल्क को अदा करनी होगी।''

अंग्रेज़ी लेखिका अरुंधति रॉय
(सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए 1989 में मिला राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाते हुए)
''मैं इसे इसलिए नहीं लौटा रही हूं कि उस सबसे मैं 'हिल' गई हूं जिसे मौजूदा सरकार द्वारा फैलाई जा रही बढ़ती हुई असहिष्णुता कहा जा रहा है। अपने जैसे इंसानों को पीट-पीट कर मारने, गोली मारने, जलाने और सामूहिक कत्लेआम के लिए 'असहिष्णुता' एक गलत शब्द है। भारी बहुमत से डाले गए उत्साही वोटों के साथ सत्ता में भेजी गई इस सरकार के आने के बाद से जो कुछ हुआ है उससे मैं हिल जाने का दावा नहीं कर सकती... यह मुझे इस मुल्क के लेखकों, फिल्मकारों और अकादमिक दुनिया द्वारा शुरू की गई सियासी मुहिम का हिस्सा बनने की इज़ाज़त देता है जो एक तरह की विचारधारात्मक क्रूरता और सामूहिक समझदारी पर हमले के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए हैं। अगर हम अभी उठ खड़े नहीं हुए तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर देगा और बेहद गहराई में दफ़्न कर देगा। कलाकार और बुद्धिजीवी जो अभी कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ और उसकी तारीख में कोई मिसाल नहीं मिलती। यह भी सियासत का एक दूसरा तरीका है। इसका हिस्सा बनते हुए मुझे फख्र हो रहा है।''

रंगकर्मी माया कृष्ण राव
(संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार लौटाया)
''तर्कवादियों, रचनात्मक कलाकारों, चिंतकों, विरोधियों, कार्यकर्ताओं को धमकियों का सामना करना पड़ा है और यहां तक कि उनकी हत्या कर दी गई। दादरी में सुनियोजित और दुर्भावनापूर्ण अफवाह फैलाई गई। फिर एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। सरकार नागरिकों के अधिकारों के लिए बोलने में विफल रही है। प्रधानमंत्री ने सिर्फ राष्ट्रपति की ओर से दिए बयान पर सहमति जताई, जबकि उन्होंने उन घटनाओं के बारे में कुछ नहीं कहा जो देश में हो रही हैं।''


हिन्दी कवि प्रभात
(साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक 'अपनों में नहीं रह पाने का गीत' प्रकाशन पर रॉयल्टी नहीं लेने और 2010 में प्राप्त 'भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार लौटाने का निर्णय)
''मैं एक किसान परिवार से हूँ। मेरे बचपन में हमारे घर में चौबीस गायें आठ बैल और दो भैंसे हुआ करती थीं। और जितनी खेती हुआ करती थी, उससे परिवार को किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था। सरकारों की कापरपोरेट जगत को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों ने सब कुछ छीन लिया है। अब गांव में हमारा घर भुतहा हो गया है। वहाँ एक भी पशु नहीं है। गौ-पालकों को आत्महत्या के कगार पर पहुँचा दिया है और अब गाय के नाम पर राजनीति की जा रही है।''


हिन्दी कवि मृत्युंजय प्रभाकर
(नवोदय श्रृंखला के अंतर्गत छापी गई पहली कविता पुस्तक 'जो मेरे भीतर है' को साहित्य अकादेमी से वापल लेने की घोषणा)
''एक ऐसे वक्त में जब आधुनिक सभ्यता की नींव बनी तार्किकता और वैज्ञानिक सोच पर देश भर में संघ गिरोह और उसकी समर्थित सरकार के द्वारा जबरदस्त हमले हो रहे हों, ऐसे में जब लेखकों की सर्वोच्च संस्था लचर और लाचार नज़र आए, तो उस संस्था से किसी भी तरह का संबंध रखना कहीं से भी तर्कसम्मत नजर नहीं आता।''

पीएम भार्गव
(जाने माने वैज्ञानिक और हैदराबाद स्थित सेंटर फ़ार सेलुलर ऐंड मॉलिक्युलर बायोलाजी के संस्थापक)
(पद्मभूषण लौटाया)
''मौजूदा सरकार लोकतंत्र के रास्ते से अलग जा रही है। पाकिस्तान की तर्ज़ पर एक हिन्दु बहुल निरंकुश सत्ता स्थापित करने के रास्ते पर जा रही है। ये कतई स्वीकार्य नहीं है। देश में इस समय अत्यन्त भय का माहौल बन गया है। और ये तार्किकता, विचार और वैज्ञानिक मिज़ाज के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।''

फ़िल्मकार दिबांकर बैनर्जी
(राष्ट्रीय पुस्कार लौटाते हुए)
''मैं यहां गुस्से की या किसी नाराज़गी की वजह से नहीं हूं। ये भावनाएं बहुत पहले बिला चुकी हैं। मैं यहां ध्यान खींचने आया हूं। अपना पहला राष्ट्रीय अवार्ड लौटाना आसान नहीं है। अगर बहस के प्रति, सवालों के प्रति और छात्रों की एक संस्था और सद्भावना के प्रति असहिष्णुता बनी हुई है तो ये उदासीनता में ज़ाहिर होती है। तो यही वो चीज़ है जिसका हम विरोध कर रहे हैं। मैं नहीं समझता हूं कि किसी भी सरकार को हमें राष्ट्रविरोधी करार देने की फ़ैंटेसी सूझेगी।''

फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन
(राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाते हुए)
''आज धुर दक्षिणपंथी ताकतों को बढ़ावा मिल रहा है। मैंने एक साथ एक समय में इतनी सारी वारदातें होते हुए नहीं देखीं। ये इस बात का संकेत है कि क्या होने जा रहा है और मैं सोचता हूं कि यही कारण है कि देश में लोग अलग अलग ढंग से अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।''


फ़िल्मकार कुंदन शाह
(अपना राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाते हुए)
''जाने भी दो यारो जैसी फ़िल्म अब बनाना कठिन है। फ़िल्म बनाना तो छोडि़ए, अब तो सच कहने से भी डर लगने लगा है। ये महज़ असहिष्णुता नहीं है। ये उससे आगे की चीज़ है। ये बदतर हालात हैं। ये एक यातना है, टॉर्चर। बहुत तकलीफ़ है। मोदी पांच साल बाद चले जाएंगे लेकिन देश के हालात तो आने वाले कई वर्षों के लिए बिगड़ जाएंगे।''


फ़िल्मकार अमिताभ चक्रवर्ती
(राष्ट्रीय पुस्कार लौटाने की घोषणा)
''पिछली सरकार ने हमारा पैसा चुराया और ये सरकार हमारा संविधान चुरा लेगी। दोनों ने हमारे साथ घोटाला किया है। आइये हम सब लोग शांतिपूर्वक निर्वाचितों की निरंकुशता का प्रतिरोध करें।''

फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा
(राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाते हुए)
''मैंने पिछली सरकारों के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई हैं। लेकिन इस समय हालत बदतर हो चले हैं।''

कर्नाटक के शिमोगा में रहने वाली 17 साल की स्कूली छात्रा रिया विदाशा ने अपना बाल साहित्य पुरस्कार लौटा दिया क्योंकि वह कर्नाटक निवासी और जानेमाने लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या से दुखी है।
और आवाज़ें आती रहीं सामूहिकता बनती रही...

भारतीय मूल के मशहूर संगीतकार ज़ुबिन मेहता
''भारत के पंद्रह करोड़ मुसलमानों को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता। जब मस्जिद ढहाई जाती हैं और गिरजाघर जलाए जाते हैं तो सरकार को कड़े शब्दों में बात करनी चाहिए। हमारे लेखक, हमारे फ़िल्म कलाकार अपनी बात कहते हैं। हमें उनकी आवाज़ नहीं दबानी चाहिए। अन्यथा हम तानाशाह हो जाएंगे, सांस्कृतिक तानाशाह और यह अस्वीकार्य है।''

सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खां
''साहित्यकार और कलाकार पुरस्कार तो अभी लौटा रहे हैं। वे पागल लोग तो हैं नहीं। वे दुखी हैं और सम्मान लौटाकर अपना दुख प्रकट कर रहे हैं। सरकार को जांच करानी चाहिए कि किस वजह से ऐसा हो रहा है। मुझे लगता है कि वाकई कुछ गड़बड़ है। हमारी शांति और एकता बनी रहे, ये सुनिश्चित करना हर इंसान का फ़र्ज़ है। हर मज़हब में $गलत लोग होते हैं। हर मज़हब में आतंकवादी होते हैं, नकारात्मक सोच रखने वाले लोग होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों से सावधान रहना है। कोशिश होनी चाहिए कि देश की एकता और अखंडता मज़बूत रहे। गंगा-जमुनी तहज़ीब कायम रहे। मेरा सरोद बनाता कौन है.... हेमेन्द्र चंद्र सेन बनाते हैं। अगर वह अच्छा सरोद बनाकर नहीं दें तो मैं कैसे बजा सकूंगा।''

भारत की कला बिरादरी का साझा बयान
(केजी सुब्रहमण्यम, कृष्ण खन्ना, अंजलि इला मेनन, गुलमोहम्मद खेख, अनीश कपूर, विवान सुंदरम, जतिन दास, बालन नांबियार, गीता कपूर, नलिनी मालिनी, सुधीर पटवर्धन, सदानंद मेन, सुबोध गुप्ता, राम रहमान, रंजीत होस्कोटे, अतुल डोडिया, जहांगीर जानी, अनिता दुबे, राम रहमान, आर शिवकुमार आदि।
''...अरुण जेटली ने सम्मानित लेखकों की कार्रवाई को कागज़ी विद्रोह कह कर मज़ाक उड़ाया है। उन्होंने विरोध करने वालों की राजनैतिक और वैचारिक झुकावों की जांच करने की बात भी कहीं है। इस तरह के उकसाने वाले बयानों का एक सीधा जवाब ये रहा : विरोध करने वाले लेखकों और कलाकारों के वास्तविक झुकाव कई किस्म के और बहुत सारे हो सकते हैं। लेकिन उनकी निजी और सामूहिक आवाज़ें एक सतत विकसित होती सामथ्र्य है। एक ऐसी सरकार जो मतभेद, विभिन्नता को बर्दाश्त नहीं कर पाती है, जो अपने वंचित और हाशिए पर पड़े नागरिकों की ज़िंदगियों की हिफ़ाज़त नहीं कर पाती हैं, वो लोकतांत्रिक राजनीति में अपनी वैधता भी गंवा देती है। हम आज इस हालात का सामना कर रहे हैं।''

देश के शीर्ष वैज्ञानिकों का साझा बयान
(डॉ. अशोक सेन, डॉ. ए. गोपालकृष्णन, डॉ. चंद्रशेखर खरे, डॉ. डी बालसुब्रहमण्यम, डॉ. पी बालारा, डॉ पीएम भार्गव, डॉ. राम गोविंदराजन, डॉ. सत्यजीत मायेर, डॉ. श्रद्धा श्रीनिवासन, डॉ. श्रीराम रामस्वामी, डॉ. विनीता बल आदि)
''वैज्ञानिक समुदाय असहिष्णुता के माहौल के प्रति बहुत चिंतित है और इस बात पर भी उसे गहरी चिंता है कि किस तरह देश में विज्ञान और तर्क की भावना को मिटाया जा रहा है... लेखकों ने अपने प्रतिरोध के ज़रिए रास्ता दिखाया है। हम वैज्ञानिक उनकी आवाज़ों में अपनी आवाज़ शामिल करते हैं। और ये मज़बूत इरादा ज़ाहिर करते हैं कि भारत के लोग, तर्क और विवेक, विज्ञान और हमारी बहुलतावादी संस्कृति पर इस तरह के हमले बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम भारत के इस विनाशकारी संकीर्ण नज़रिए को ख़ारिज करते हैं जो हर बात पर नियंत्रण चाहता है कि लोग क्या पहने, क्या सोचें, क्या खाएं और किससे प्यार करें, हम समाज के अन्य हिस्सों से भी अपील करते हैं कि तर्क और वैज्ञानिक चेतना पर हमले के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करें।''


देश के नामचीन इतिहासकारों का साझा बयान
(रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, के एन पणिक्कर, डीएन झा, मृदुल मुखर्जी आदि)
''शारीरिक हिंसा का इस्तेमाल कर मतों की विभिन्नता को ठिकाने लगाया जा रहा है। बहस के समक्ष बहस नहीं है बल्कि गोली है। एक के बाद एक लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए लेकिन एक भी टिप्पणी उन हालात के बारे में नहीं आई जिनकी वजह से लेखकों का प्रतिरोध आया। इसके उलट एक मंत्री ने कहा कि ये कागज़ी विद्रोह है और लेखकों को अपना लेखन बंद कर देने की सलाह दी। इसका अर्थ यही हुआ कि अगर बुद्धिजीवी विरोध करेंगे तो उन्हें चुप करा दिया जाएगा।''

भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन
''मुल्क में सहनशीलता और आपसी सम्मान का बेहतर माहौल होना चाहिए। लोगों को सवाल उठाने और चुनौती देने का अधिकार हासिल होना चाहिए क्योंकि वो विकास के लिए ज़रूरी है। राजनीतिक रूप से सही होने की अत्याधिक कोशिशें तरक्की में रुकावट पैदा कर रही हैं। ऐसे किसी काम को किसी भी सूरत में नहीं होने देना चाहिए जो किसी को शारीरिक रूप से चोट पहुँचाए या किसी एक खास समूह के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी की जाए।''


इंफ़ोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति
''अल्पसंख्यकों में डर का माहौल है। इस भावना को ख़त्म करना आर्थिक प्रगति के लिए ज़रूरी है।''
लेखक और इतिहासवेत्ता राम पुनियानी
''आज हमारे देश में हालात ऐसे हो गए हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि मटन या कोई और मांस देखकर यह कह भर दे कि यह गौमांस है, तो हिंसा शुरू हो जाएगी। देश में ऐसा माहौल बन गया है कि अगर कोई गाय हमारे बगीचे में घुसकर पौधों को चरने भी लगे तो उसे भगाने में हमें डर लगेगा। हम सब जानते हैं कि एनडीए के शासन में आने के बाद से, ज़हर उगलने वाले अति-सक्रिय हो गए हैं। हर एक अकबरुद्दीन ओवैसी के पीछे दर्जनों साक्षी महाराज, साध्वियां और योगी हैं।''

हिन्दी कवि विमल कुमार
''मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ये पुरस्कार लौटाए। उनके प्रति मेरे मन में इज़्ज़त बढ़ गयी है यह जानते हुए कि उनमें से कई लेखक वामपंथी नहीं है और ये कलावादी या ढुलमुल स्टैंड लेते रहे हैं लेकिन वे सभी हमारी लड़ाई में साथी हैं। जिन लोगों ने पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें मैं किसी नैतिक कठघर में भी खड़ा नहीं करता हूँ। लेकिन जिन लोगों ने पुरस्कार लौटाने वालों का मज़ाक उड़ाया है उनकी मैं घोर निंदा करता हूँ। मुझे लगता है कि आने वाले दिन और अंधेरों से भरें होंगे और फ़ासीवादी ताकतें बढेंगी क्योंकि अब विपक्ष के नाम पर कोई तीसरी ताकत दिखाई नहीं देती। ऐसे में लेखकों को एकजुट होने की ज़रूरत है।''

हिन्दी कवि असद ज़ैदी
''उन लेखकों और बुद्धिजीवियों की, जिन्होंने जारी बर्बरता में सत्ताधारी दल की मिलीभगत या चुप्पी के विरोध में सरकारी संस्थाओं द्वारा दिये गये पुरस्कार लौटाने का साहस किया है, इस आधार पर आलोचना करना कि उन्होंने पहले इस या उस मौके पर ऐसा क्यों नहीं किया, मूल विषय से ध्यान हटाना है। इस तर्क के हिसाब से हमारे राष्ट्रीय जीवन में ख़तरनाक ढंग से फैलते फ़ासीवाद के विरोध का अधिकार सिर्फ फ़रिश्तों को ही है। कम साफ़ सुथरे लोग गोया इस ह$क से वंचित हैं। यह बात भी अपनी जगह है कि दौर कोई भी हो, पुरस्कार लौटाने वालों की पंक्ति पुरस्कार लेने वालों की पंक्ति से हमेशा छोटी ही रहेगी।''

हिन्दी कवि विष्णु नागर
''असहिष्णुता की विचारधारा को चुनौती देने का जो काम विपक्ष की राजनीतिक पार्टियाँ नहीं कर पायीं उसकी ज़िम्मेदारी, लेखकों, कलाकारों पर आ पड़ी है। लेकिन इस प्रतिरोध को जनांदोलन का रूप देने की ज़रूरत है।''
और ज़रूरत है निर्वाचितों की निरंकुशता के प्रतिरोध की... क्योंकि...
''लोकतंत्र का ये ख़ौफ़नाक क्षरण एक रपटीली ढलान है जो न सिर्फ अल्पसंख्यकों और ''बाहरियों'' का अंतत: निशाना बनाएगी बल्कि प्रतिरोध करने वाले 'अंदरूनी' लोगों को भी नहीं बख्शेगी। दिख ये रहा है कि भय की भावना भरी जा रही है जो एक्टिविस्टों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों को समान रूप से ख़ामोश करना चाहती है। हमने पहले ऐसा कभी नहीं होते देखा। तालिबान का हिंदू संस्करण काबिज़ हो गया है।''

भारतीय मूल के ब्रिटिश आर्टिस्ट और कला चिंतक अनीश कपूर
(मशहूर ब्रिटिश अखबार द गार्जियन में प्रकाशित बयान का अंश, प्रधानमंत्री मोदी की ब्रिटेन यात्रा के दौरान)
ये संकलन देश विदेश के अखबारों के वेब संस्करणों, वेबसाइटों, ब्लॉगों में सितम्बर, अक्टूबर, नवंबर 2015 में प्रकाशित टिप्पणियों, बयानों और अपीलों की मदद से तैयार किया गया है, हम इन माध्यमों और उपरोक्त महानुभावों के आभारी हैं। इस संकलन में बहुत से अन्य नाम और बयान और चिंताएं या उनके हिस्से छूट गए हो सकते हैं, उम्मीद है इसे अन्यथा नहीं लिया जाएगा और हमारी मंशा और सदाशयता भी प्रकट और प्रत्यक्ष देखी जाएगी। हिडन कार्रवाईयों का समय ये रहा नहीं। विचार की लड़ाइयों को गलियों में खदेडऩे की साज़िशें बंद हों- ये हमारा विवेक भी है और इरादा भी।


Login