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जनवरी 2016

कुछ पंक्तियां

राजकुमार केसवानी

यह अंक रवीन्द्र कालिया और पंकज सिंह की स्मृति में



आखिर वही हुआ जो होना था। राज सत्ता के शक्ति बल से पोषित हो रही समाज की विघटनकारी ताकतों ने अपने प्रभुत्व की स्थापना के लिए नृशंसता का नंगा नाच किया। समाज में भय और आतंक का वातावरण निर्मित करने के लिए इंसानियत की सारी सीमाओं का उल्लंघन किया। यह सब अपेक्षित भी था। साम्प्रदायिकता के ज़हर से उपजी हुई विचारधारा वाले किसी गिरोह से किसी और चीज़ की आशा करना, खुद अपने आप को छलावे में डालना है।
इस सारे विचलित करने वाले घटनाक्रम के साथ ही, ठीक उसके बरक्स रूह को सुकून देने वाला एक घटनाक्रम भी हुआ। देश के लेखक समाज, बुद्धिजीवी वर्ग ने सांप्रदायिकता के इस विषधारी नाग के फ़न पर एक ऐसा प्रहार कर दिखाया, जिसने इन ताकतों को पूरी तरह सकते में डाल दिया और उसी व$क्त पूरे समाज को आश्चर्यजनक प्रसन्नता और भविष्य के लिए एक सुखद आश्वासन भी दे दिया।
लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी को पुरस्कार लौटाना, मात्र एक प्रतीकात्मक विरोध नहीं बल्कि एक सामाजिक एलान है कि हमारा कवि, हमारा लेखक, हमारा बुद्धिजीवी इधर-उधर भले ही चूक जाता हो लेकिन ऐन मुश्किल वक्त में अपने समूचे साहस और समूची शक्ति के साथ समाज के लिए उठ खड़ा होना अब भी नहीं भूला है। इस उठ खड़े होने के साथ ही असुरक्षा के भय से आक्रांत वर्ग को न सिर्फ सुरक्षा बोध बल्कि शेष समाज में भी यक-ब-यक अपने कत्र्तव्य का बोध जागृत हो जाता है। इस सत्य की पुष्टि हाल के घटनाक्रम से हो जाती है।
मुझे इस वक्त 2 नवंबर 1948 को अहमदाबाद में प्रगतिशील लेखकों को दिए गए एक संबोधन की याद आती है। आज के दौर में इन बातों को याद करना और अतीत की घटनाओं से सबक लेना बेहद ज़रूरी हो गया है। उसकी वजह यह सचाई है कि कलबुर्गी की हत्या या फ़िर दादरी का नृशंस हत्याकांड महज़ एक या दो घटनाएं नहीं हैं बल्कि आगे आने वाली बड़ी चुनौती के संकेत भर हैं।
कृष्ण चंदर ने कहा था:
''तरक्की पसंद अदीब ने हर मंज़िल पर इंसान की ज़िदगी का साथ दिया है। उसने सुकरात बन कर ज़हर का प्याला पिया है। बायरन बन कर देश से जिला वतनी कुबुल की है। वह रैल्फ फ़ाक्स और लोर्का बन गांव गांव घूमा है। अरागान और पेब्लो नेरूदा बनकर अवाम के गोरिल्ला दस्तों में काम करता रहा है। और आज भी हर जगह जहां-जहां जनता अपनी नई रूहानियत, नए इखलाक के लिए लड़ रही है, वह लहू की रोशनाई से अदब की लाफ़ानी किताब लिख रहा है।
और जब भी आप देखें कि सरदार जाफ़री और साहिर लुधियानवी और कैफ़ी आज़मी की नज़्मों को जेल की सला$खों के अंदर बंद कर दिया गया है, जब आप ये सुनें की राजेन्द्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई के अफ़सानों पर पाबंदी लगा दी गई है, जब आपको मालूम हो कि सागर निज़ामी और नियाज़ हैदर के गीतों के गले में फांसी की रस्सी लटका दी गई है, तो समझ लीजिए कि तरक्की पसंद अदीब अपने फ़र्ज़ को पूरा कर रहा है और हम आप से इकरार करते हैं, और हम कसम लेते हैं कि हम अपने फ़र्ज को ज़रूर पूरा करेंगे।''
आज हमारे लिए बड़े सुकून की बात है कि उदयप्रकाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, काशीनाथ सिंह जैसे हिंदी लेखकों ने कृष्ण चंदर की उस कसम का निबाह किया है। दीगर भाषाओं के अनेक लेखकों ने भी इसी साहस का परिचय दिया है, लेकिन प्रतिरोधी ताकतों के लिए संतोष की बात यह भी है कि इस युद्ध का नाद घोष एक हिंदी लेखक उदयप्रकाश ने किया।
पुरस्कार वापसी का आरम्भ भले ही एक कृत्य के विरोध के लिए हुआ हो लेकिन इस एक प्रक्रिया से एक साथ कई सवाल और कई सारे ढके पड़े सवाल भी उजागर हो गए हैं। इनमें से पहला सवाल है - हमारी स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता का क्षरण। सी.बी.आई. जैसे स्वायत्त संस्था के राजनैतिक दुरुपयोग ने उसे पिंजरे के पंछी का तमगा दिला दिया है, तो इस बार हमारी साहित्य अकादमी के कर्ता-धर्ता अपने आचरण से अपने लिए भी इसी तरह का कोई तम$गा मांगते दिखाई दे गए। अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के पुरस्कार वापसी पर दिए गए शर्मनाक वक्तव्य इस बात के ज़िंदा सुबूत हैं कि आज हमारी तथाकथित स्वायत्त संस्थाएं और उसके ओहदेदार किस तरह अपने गले में सरकारी पट्टे पहनकर $खुद को महफ़ूज करने में जुटे हैं।
यह दुर्भाग्य और शर्म की बात है कि आज अकादमी के अध्यक्ष पद पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी टाईप के लोग आसीन हैं जहां कभी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू आसीन होते थे।
इस जगह नेहरू जी के उस साहसिक कारनामे को याद करना ज़रूरी हो जाता है जिसने सारी दुनिया में हिंदुस्तान की साख बढ़ा दी थी। 1958 में रूसी लेखक बोरिस पारस्तरनाक पर रूसी सरकार ने जिस तरह तमाम पाबंदियां लगाकर उन्हें अवार्ड लेने से रोकने की कोशिश की तब नेहरू, जो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी थे, ने रूस जैसे मित्र देश के विरुद्ध खुलकर स्टैंड लिया। देश के लेखकों के स्वर में स्वर मिलाकर उन्होंने रूस को न सि$र्फ बाज़ आने को मजबूर किया बल्कि लेखकों की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का खुलकर समर्थन भी किया।
आज इस पद पर आसीन व्यक्ति लेखक के साथ खड़े होने में खुद को लाचार बताता है। इतना ही नहीं अपने पट्टे पर इतराते हुए लज्जाजनक रूप से प्रतिष्ठित लेखकों से किसी सूदखोर साहूकार की तरह ब्याज भी मांगता है।
देश भर में व्यापक रूप से बढ़ती असहिष्णुता के अनगिनत पहलू हैं - आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, धार्मिक पर जब राज सत्ता की इसमें गोपनीय साझेदारी दिखने लगे तब बेचैनी बढऩा स्वाभाविक है। हिंसा के नए-नए रूप बढ़ते दिख रहे हैं। यह असहिष्णुता का ही विस्फोट है। सर्वाधिक चिंता हमारी संस्थाओं की स्वायत्तता का विनाश है और इसी विनाश का लाभ वर्तमान साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष उठा रहे हैं।
एक तरह से इस तरह की घटनाएं और उनका जवाबी प्रतिरोध हमें भविष्य के लिए आश्वस्त भी करता है। लेकिन सबसे अहम् बात यह है कि इस प्रतिरोध से डरकर नरम पड़ी सत्ता की क्षणिक चुप्पी के पीछे पलते ज़हरीले तूफ़ान पर एक लगातार तीक्ष्ण दृष्टि बनाए रखने के साथ उसके आगे के हमले के जवाब की तैयारी रखना भी ज़रूरी है।
भविष्य में हम इस महत्वपूर्ण बहस पर कुछ प्रकाशित करते रहेंगे क्योंकि वर्तमान में इस ज़रूरी बहस को मीडिया के उद्धृत और अधकचरे एंकर्स तथा प्रवक्ताओं ने लगभग मटियामेट कर दिया है।


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