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अक्टूबर 2015

मुस्लिम नवजागरण के बेचैन नायक:सैफुद्दीन किचलू

कर्मेन्दु शिशिर

सिरीज़/तीन/समापन





यह बात हमें चिंतित और थोड़ी परेशान करती है कि अभी तक भारतीय नवजागरण के मुस्लिम इलाके में जाने की जहमत हिन्दी में किसी ने क्यों नहीं उठाई? इतने लम्बे अर्से तक इसे अजाना छोड़कर हम हिन्दी नवजागरण पर लगातार बहस-विमर्श करते रहे, उठा-पटक करते रहे और अपने-अपने निष्कर्षों पर अड़े तीखे तर्क-वितर्क करते रहे। वह भी एक ऐसी भाषा में जिसके साहित्य में सांप्रदायिकता को कभी कोई जगह नहीं मिली। बेशक बिना उर्दू, अरबी और फारसी ज्ञान के हम मुस्लिम नवजागरण की उपलब्धियों को समग्रता और बारीकियों में नहीं उकेर सकते और न ही मुस्लिम नवजागरण के नायकों के अवदानों को पूरी तरह समझ सकते हैं। बावजूद इस अजाने इलाके में भटकना एक उत्तेजक अनुभव है तो इसलिए कि इसका ताप आपको एक नयी विचारोत्तेजक उष्मा से भर देता है। खासतौर से वैसे जननायक जिनके नाम अमूमन अपरिचित नहीं होते, क्योंकि स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में उनके संदर्भ, प्रसंग या कारनामे कम या ज्यादा दर्ज होते हैं, लेकिन उनका समग्र योगदान ओझल रहता है। जैसे-जैसे आप उनके जीवन के अंदरूनी इलाके में जाते हैं, हठात आपको लगने लगता है कि इतिहास में तर्ज प्रासंगिक चर्चाएं बिल्कुल ही नाकाफी हैं आप उनके जीवन के अंदरूनी इलाके में जाते हैं, हठात आपको लगने लगता है कि इतिहास में दर्ज प्रासंगिक चर्चाएं बिल्कुल ही नाकाफी हैं। आप सोचने को विवश हो जाते हैं कि कैसे कोई जीवन, विचार और संघर्ष से मिलकर अपने समय और समाज का शिल्पन करता है। वह जीवन तब अपने समय में ही नहीं आने वाले दिनों के लिए भी मूल्यवान बन जाता है। दरअसल वे हमारी राष्ट्रीय विरासत के ऐसे रोशन लोग होते हैं, जिनके सहारे हम चाहे तो आज भी अपनी अंधेरी गलियों से निकलने की राह आसान कर सकते हैं। असमंजस और अनिर्णय की उहापोह वाली स्थितियों में वे रोशन रास्ते की तलाश में बड़ी मदद करते हैं। उनका जीवन, उनके विचार और संघर्ष भले ही इतिहास के दर्ज हिस्से होते हैं, मगर अपनी समवेत चेतना में वे हमारे लिए हमेशा प्रेरक और प्रासंगिक बने रहते हैं।
मुस्लिम नवजागरण के ऐसे ही ओट में ओझल जननायक हैं-सैफुद्दीन किचलू। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं को पलटते हुए इस जननायक की चर्चा, प्रसंग, उनके बयान और वक्तव्य और उन पर लिखी टिप्पणियों को जहाँ-तहाँ पढ़ते हुए इतना तो अंदाज होता ही है कि अपने समय में, हिन्दी जगत् में वे अपरिचित और उपेक्षित नहीं थे। लेकिन आज उन पर सामग्री तलाश करते हुए हिन्दी में एक भी सामग्री नहीं मिली। असांप्रदायिक राष्ट्रभाषा की यह दशा खीज भी पैदा करती है, गहरी निराशा भी। इसे एक विडंबना ही कहें कि उनके कनिष्ठ पुत्र डॉ. तौफीक किचलू को अपने पिता पर काम करने की प्रेरणा वारसा विश्वविद्यालय पोलैंड की प्रो. जन्ना कार्मोनोवा ने दी। उन्होंने अंग्रेजी में उनकी एक शोधपरक जीवनी लिखी। आगे भी वे अपने पिता से संबंधित शोध में लगे रहे। एक सरकारी प्रकाशन से उन्हीं की लिखी जीवनी का हिन्दी अनुवाद मेरी जानकारी में एकलौती सामग्री है। मात्र एक सौ सोलह पृष्ठों की अपेक्षाकृत इस संक्षिप्त जीवनी के अलावे भी संभव है और सामग्री छपी हो, जिसकी मुझे जानकारी नहीं। बेशक इस जीवनी से उस दुर्लभ व्यक्तित्व की एक झलक तो दिख ही जाती है लेकिन उनके लिखे और दिए व्याख्यानों की संकलित-संपादित सामग्री की तलब अत्यन्त तीखे ढंग से बार-बार महसूस होती है। बिना उसके सैफुद्दीन किचलू का समग्रता में आकलन संभव नहीं।
सैफुद्दीन किचलू के जीवन में विचारों की दृढ़ता, संघर्ष का माद्दा और देशभक्ति का जैसा जज़्बा मिलता है, उसे देखकर रोमांच भरा विस्मय होता है। मेरा अनुमान है ऐसा दृढ़प्रतिज्ञ जुझारू और मौलिक व्यक्तित्व मुस्लिम नवजागरण में शायद ही ढूँढे मिले। हिन्दू-मुस्लिम एकता के आदर्श तो बहुतों ने प्रस्तुत किए, यह शख्स ऐसा था कि अकाली सिक्ख भी अपने लिए सलाह और नेतृत्व की उनसे चाह रखते थे। हिन्दू गुरु शंकराचार्य का ऐसा यकीन कि उनको अपना प्रतिनिधि बताते थे, तो जैन मुनि उनके घर अक्सर पहुंच जाते और तख्त पर बैठ उनसे लंबी बातें करते थे। तिलक के पूर्ण स्वराज्य के ऐसे कट्टर समर्थक कि जीवन भर इस माँग से टस से मस नहीं हुए। गांधी के उतने ही पक्के मुरीद, उनसे असहमतियाँ बार-बार हुई, मगर स्वप्न में भी उन पर आस्था बनी रही। तमाम वैचारिक भिन्नता के बावजूद जिन्ना के जिगरी दोस्त और पंडित नेहरू से अंतरंग और अभिन्न दोस्ती आजन्म कायम रही। इस आदमी के व्यक्तित्व में वाकई जादुई चमत्कार था। मुस्लिम लीग और कांग्रेस की दोहरी सदस्यता और दोनों से दूरी भी। क्या मजाल जो इन तमाम अंतर्विरोधी संतुलनों में कभी कोई समझौता किया हो। अपनी सोच में एकदम खरे। सहमति और असहमति में हमेशा चट्टानी दृढ़ता। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आग उगलती तहरीरों का ऐसा अटूट सिलसिला कि इतिहास ने उन्हें जालियाँवाला बाग का नायक बना दिया। समझौतावादियों, अवसरवादियों और छुपे अंग्रेज समर्थकों से सीधी मुठभेंड़। मुल्तान के दंगे में कट्टरवादियों ने सरिया से हाथ काट डाले। हिन्दू कट्टरपंथी भी बार-बार निशाने पर लिए। गंदी तोहमतें लगाईं। लानत-मलानत किए, षडय़ंत्र किए, चुनाव में सांप्रदायिक गोलबंदी पर पराजित किए, लेकिन डॉ. किचलू कभी प्रतिक्रिया में नहीं आये। कश्मीर मसले पर मध्यस्तता के दौरान पं. नेहरू से जा भिड़े। भिडऩे और अडऩे के ऐसे अनगिनत उदाहरणों में एक भी डिगने का सबूत कोई उनके पूरे जीवन में नहीं खोज पायेगा। प्रगतिशील विचारों, वामपंथी संगठनों और विश्वशांति के अभियानों से उन्हें अलग करने को आतुर कांग्रेसियों ने प्रलोभन दिये, तो आग बबूल हो गये। कांग्रेस के प्रांतीय चुनावों में विरोधी गुटों ने तिकड़म कर हराया, बार-बार ओट में धकेला लेकिन वे तो ऐसी धातु के बने थे कि न लचे, न टूटे। आजादी की लड़ाई में अकूत पैतृक संपत्ति लुटाकर फकीर बन गये। बावजूद आजादी के बाद न कोई पद लिया, न कोई सुविधा। अपनी सक्रियता का दायरा अंतरराष्ट्रीय कर लिया। वह भी ऐसा नेतृत्वकारी कि माओ त्से तुंग ने सार्वजनिक मंच पर जी खोलकर स्वागत किया। वे विश्व शांति परिषद् के सचिव बन गये थे। जॉसेफ स्टालिन ने उनसे मिलने की ख्वाहिश जाहिर की, आमंत्रित किया। डॉ. सैफुद्दीन किचलू को पहला स्टालिन विश्व शांति पुरस्कार मिला। जो बाद में लेनिन विश्व शांति पुरस्कार के नाम से दिया जाता रहा। सम्मान के साथ मिले सवा लाख रुपये उन्होंने विश्व शांति परिषद् को भेंट कर दिये। आजाद भारत में उनके जीवन का यह ऐसा वक्त था, जब उन्हें अपने मित्रों और शुभेच्छुओं की मदद पर निर्भर रहना पड़ रहा था। ऐसे विरल व्यक्तित्वों ने रची है वह साँझी विरासत, जिसे छाती फुला कर आज हम फख्र से बार-बार दुहराते रहते हैं।
इस विरल नायक का जन्म 15 फरवरी 1888 को अमृतसर के फरीदकोट में हुआ था। उसके पिता अजीजुद्दीन किचलू पशमीना और जाफरान के अमीर व्यापारी थे। उनके पूर्वज प्रकाशी राम किचलू एक कश्मीरी पंडित थे, जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था। डॉ. किचलू के पितामह अहमद किचलू 19 वीं शताब्दी के मध्य में ही कश्मीर से पंजाब में आकर बस गये थे। तीन भाई और एक बहन में सैफुद्दीन किचलू सबसे छोटे थे। प्रारंभिक धार्मिक शिक्षा घर पर ही परंपरागत तरीके से हुई। फिर उन्होंने इस्लामिया हाई स्कूल में दाखिला लिया। किसी कारण से एफ.ए. की परीक्षा अलीगढ़ कॉलेज से नहीं देकर आगरा से दी। फिर वे उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड चले गये। वहाँ कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी से आनर्स करके जर्मनी गये, जहाँ दर्शनशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त कर 1912 में स्वदेश लौटे।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि मुस्लिम हों या हिन्दू संपन्न परिवारों के जो लोग इंग्लैंड या यूरोप से डिग्री लेकर वापस लौटते थे, वे ही सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय होते, देश के अधिकांश बड़े नेता इन्हीं वर्गों से आये हुए थे। बेशक उनके सोचने-समझने और राजनीतिक सक्रियता के तरीके एक खास ढर्रे वाले और खास ढंग वाले थे। उसमें ज्यादातर ब्रिटिश कानूनों के ठीक-ठीक अनुपालन की लड़ाई लड़ते थे अथवा उसमें कुछ सुधारों की माँग उठाते थे। नौकरशाही की ज्यादतियों और जनता पर पड़ते प्रतिकूल प्रभावों अथवा विश्व राजनीति के आलोक में होते भारतीय शासन के परिवर्तनों की तार्किकता तक, बहुतों की राजनीति सिमटी हुई थी। औद्योगिक क्रांति के बाद की विकसित अंग्रेजी कौम की आधुनिकता की रोशनी में वे अपनी जड़ सामंती कौम में सुधारवादी कोशिशें जरूर कर रहे थे। ऐसे लोगों के नवजागरण आंदोलन और उनकी राजनीतिक सक्रियता यही तक महदूद थी। तिलक और फिर गाँधी के बाद राजनीतिक गतिविधियाँ जैसे-जैसे तेज होती गई, इन लोगों ने आसानी से उसमें अपनी प्रभावशाली हैसियत बना ली। लेकिन सैफुद्दीन किचलू इस लीक से अलग जननायकों में थे। उन्होंने शुरूआत ही जनता के बीच जाकर की और अपने बूते ही अंत तक राजनीतिक संघर्ष किया। बिना किसी विचलन के उनके जीवन में जानलेवा हमले के मौके तो आये लेकिन सुख और सुविधा के नहीं। ज्यादा सही यह कि आये भी तो उसे स्वीकार नहीं किया।
1912 में स्वदेश वापसी के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए वे बड़ी बहन के पास रावलपिंडी गये। वहाँ सफल वकालत की और सामाजिक गतिविधियों में शरीक हुए। अब्बा के बार-बार जोर देने पर 1915 में अमृतसर वापस लौटे। कहते हैं रावलपिंडी का डिप्टी कमिश्नर उनके जगह-जगह दिये आलोचनात्मक भाषणों से बहुत नाराज था। होमरुल आंदोलन का शुरुआती दौर था और तिलक तथा एनी बेसेंट उसके अगुआ थे- जिससे डॉ. किचलू बेहद प्रभावित थे, लेकिन डॉ. किचलू ने राजनीतिक शुरुआत एकदम नीचे से की। अमृतसर की नगरपालिका ब्रिटिश शासन की एक एजेंसी जैसी थी, जहाँ ब्रिटिश एजेंट के रूप में राजनीतिक कार्यकत्र्ता प्रशिक्षित होते थे। डॉ. किचलू ने वहाँ दो मोर्चों पर हल्लाबोल आक्रमण किया। एक ओर जनता के भीतर नवजागरण पैदा करने की कोशिश की। उनकी कोशिश थी जनता जगे और संगठित हो। वह शासन से अपने मौलिक अधिकारों की माँग करे। दूसरी ओर उन्होंने नौकरशाही के रवैये पर जोरदार चोट की। अमृतसर की जड़ और गतिहीन नगरपालिका में इस तूफान से राजनीतिक हलचल पैदा हो गई। उन्होंने अपनी मुस्लिम कौम पर विचार किया जो पूरी तरह रूढिग़्रस्त थी। वह अपनी धार्मिक संकीर्णता में इस तरह जकड़ी हुई थी कि उसमें विकास तो दूर मामूली सुगबुगाहट भी नहीं थी। उन्होंने एक जोरदार नवजागरण की जरूरत महसूस की और शिक्षा तथा व्यापार के लिये लोगों को लगातार प्रोत्साहित किया। लेकिन उन्होंने मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा का सवाल भी इतने जोरदार तरीके से उठाया कि उलेमाओं और मौलवियों की भौवें तन गईं। लेकिन वे इसकी बिना परवाह किये अंजुमन-ए-इस्लामिया के सुधार में लगे रहे। ऐसे लोगों को प्रभावहीन करने के लिए उन्होंने अपने दायरे का विस्तार किया और 1917 में स्थानीय स्तर पर मुस्लिम लीग और कांग्रेस कमेटी की गठन किया। उन्होंने कलकत्ता में आयोजित मुस्लिम लीग के अधिवेशन में जाकर अपने को राष्ट्रीय मसलों से जोड़ा। उनका उद्देश्य साफ था कि मुस्लिम समाज में नवजागरण आये और वे नई तालीम, व्यापार और वाणिज्य अपनाये, उसमें राजनीतिक जागरुकता पैदा हो। हिन्दू भाइयों से उसकी एकता कायम हो, जिससे ब्रिटिश हुकूमत से मिलकर लड़ा जा सके। पंजाब में सिक्ख कौम को भी साथ में जोडऩा जरूरी था, इसलिए इन तीनों कौमों को मिलाकर उन्होंने अक्टूबर 1918 में एक संस्था बनाई। इस मौके पर उन्होंने आह्वान किया कि हम लोग मिल कर एकजुट हो और काम में लग जाएं। उनका काम था जनता खासकर मुस्लिम जनता को शिक्षित करना, उसमें आर्थिक और सांस्कृतिक सुधार लाना, बिना ऐसा किये ब्रिटिश नौकरशाही के खिलाफ अभियान में मुस्लिम जनता की भागीदारी संभव नहीं थी। जबकि उनका असल काम ही यही था। वे इस बात को शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि जब तक संकीर्ण और बेहद पिछड़े धार्मिक नेताओं और खुशामदी ब्रिटिश एजेंटों का मुस्लिम कौम पर प्रभाव रहेगा, वे कुछ नहीं कर सकते। ऐसे लोगों की पीठ पर अंग्रेजों का हाथ था। इसलिए उन्होंने इन तत्वों के खिलाफ  अपना विरोध तेज कर दिया। वे इस बात को भी गहराई से समझ रहे थे कि ब्रिटिश विरोध हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ही निर्भर है इसलिए उन्होंने इसे अपने जीवन का मूल-मंत्र बना लिया, जिस पर वे हमेशा डटे रहे।
उन्होंने अगस्त 1918 में रौलेट एक्ट का विरोध किया और माइकेल ओडायर पर तीखा आक्रमण किया। यह दरअसल भारत में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रसार को रोकने के लिए लाया गया एक्ट था, जिसका कभी इस्तेमाल ही नहीं हुआ। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कांग्रेस अधिवेशन अमृतसर में ही हो और इस प्रस्ताव की उन्होंने स्वीकृति भी करा ली। उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध और तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण से भारतीय मुसलमान उबल रहे थे। अंग्रेज अपनी हरकतों से बाज नहीं आये और इंडियन न्यूज क्रॉनिकल में हजरत मोहम्मद पर एक विवादास्पद लेख छापा इस कारण जगह-जगह दंगे भड़क उठे। उसके प्रतिवाद में डॉ. किचलू ने भी लेख लिखा और इस पर तीखा प्रहार किया- ''यदि हम में अभी इस्लाम की भावना मरी नहीं है तो हमें अपने कारनामों से साबित करना होगा। जैसा कि अंग्रेज हमारे दुश्मन नम्बर एक हैं, लिहाजा हर एक कार्रवाई जो दुश्मन के खिलाफ की जाती है- वाला सिद्धान्त रखना होगा। अब एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि अंग्रेज मुहम्मद साहब की शान में कोई ऐसी गुस्ताखी करें।''1 इसी साल कलकत्ते में नाखुदा मस्जिद में उनका एक बेहद उत्तेजक भाषण हुआ। भाषण इतना तल्ख था कि नौकरशाही ने उत्तेजित होकर गोली चला दी। डॉ. किचलू जब घायलों को अस्पताल ले जाने लगे तो उनकी छाती पर ब्रिटिश सिपाहियों ने संगीन रख दी। यहाँ पर कमिश्नर माइकल ओडायर की ओर से वह चुनौती दी गई, जो आगे जालियावालाबाग कांड का सबब बनी। डॉ. किचलू पर इस चुनौती का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने 1918 के दिल्ली में आयोजित मुस्लिम लीग के जलसे में अंग्रेजों की करतूत से भड़के दंगों पर प्रस्ताव रखा कि किस तरह ब्रिटिश नौकरशाही निहत्थे मुसलमानों की हत्या कर रही है और उनको इलाज के लिए ले जाने भी नहीं देती। उन्होंने प्रेस-एक्ट की भी तीखी आलोचना की। डॉ. किचलू ने आत्मनिर्णय के प्राकृतिक नियमों पर एक शानदार भाषण दिया। उन्होंने कहा - ''हमारे पूर्वज यूरोप में जनतंत्र के सूर्योदय के पहले ही कभी के सभ्य हो चुके थे। उनके हम वंशज हैं और अपने ही देश में हमें आत्मनिर्णय का अधिकार पाने के लिए आज विवश होना पड़ रहा है।''2 जनता को आजादी के लिए उत्तेजित करने वाली यह बात लोगों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आग बो रही थी। उन्होंने पहले प्रांतीय स्तर पर और फिर राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण आजादी की माँग बड़े जोरदार तरीके से उठाई। अंग्रेज ऐसी ही कुछ उकसाने वाली हरकतें करते रहते थे। पं. नेहरू ने लिखा है कि ''ब्रिटिश सरकार ने लोकमत के घोर विरोधी होते हुए एक ऐसा कानून बनाया, जिसका उसने कुछ उपयोग भी नहीं किया और बदले में एक तूफान पैदा कर लिया। इससे बहुत-कुछ यह ख्याल किया जा सकता है कि इस कानून को बनाने का उद्देश्य सिर्फ खलबली मचाना था।''3
किचलू साहब अपने भाषणों में आत्मनिर्णय जैसे सवालों को लगातार उठाते रहे। वे कहते थे कि इसकी आवाज देश के कोने-कोने से उठनी चाहिए। वे प्रस्ताव पास करके नहीं, सीधी कार्रवाई और आंदोलन से इसे हासिल करने की बात करते थे। वे चाहते थे कि लोग उनकी तरह ही जी-जान से इसमें लग जाये। दिल्ली से लौटते ही उन्होंने पूरे पंजाब का जबर्दस्त दौरा किया। अमृतसर, लाहौर, गूजरांवाला, मुल्तान और जालंधर के तमाम इलाकों का उन्होंने सघन दौरा किया। उनके पास भाषण देने की ऐसी मोहक कला थी कि लोग सुनकर मुग्ध हो जाते। खासतौर से वे युवकों को सक्रिय करने की कोशिश करते। एक धर्मप्रचारक ही तरह वे लोगों को अपने भाषण से वशीभूत कर लेते थे। उन्होंने मुस्लिम कौम की तंद्रा तोड़ दी थी। उन्हें इंकलाबी आंदोलन के लिए तैयार कर लिया था। वे खिलाफत के सवाल को उठाते, रौलेट बिल और ब्रिटिश नौकरशाही पर तीखे हमले करते और आत्मनिर्णय के अधिकार पर बल देते थे। वे कहते कि होमरुल लागू करके भारतीय इन तमाम सवालों का हल निकाल सकते हैं। उन्होंने मुस्लिम समाज को इस्लाम के मूल सिद्धांतों की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि इस्लाम का तकाजा है कि हम दूसरी कौमों से मिलकर अपने मूल दुश्मन अंग्रेजों से लड़ें। मुस्लिम अपने इस्लाम का आजादी से पालन करें। उन्होंने नौकरशाही को चेतावनी दी कि वह इस मामले में हस्तक्षेप करने से बाज आये। उन्होंने राष्ट्रवादी विचारों की ताईद की। उन्होंने खुशामद का नहीं आत्माभिमान का रास्ता चुनना है। मुस्लिम यदि आगे बढऩा चाहते हैं, तो उन्हें अपने सीमित दायरे से बाहर निकलना होगा। उनको राष्ट्रीय एकता के सिद्धांतों पर चलकर अपनी मंजिल हासिल करनी होगी। वे हमेशा इस बात को याद रखें कि वे अकेले नहीं हैं, उनके हिन्दू भाई भी साथ हैं।
उनके भाषणों में विचार जजबाती तासीर के साथ निकलते थे, जिसका जनता पर सीधा असर पड़ता था। वे मुस्लिम समाज को आलोडि़त करने वाले सारे सवालों को उठाते। वे सर्व इस्लामी सिद्धांत की राष्ट्रीय व्याख्या करते। वे कहते कि इस्लाम की महानता 'इख्वात-ए-इस्लाम' में है। वे याद दिलाते कि उनका वतन एक है। वे बताते कि कस्तुंतुनिया का सवाल विश्व के तमाम मुसलमानों का सवाल है। वह हमारे इस्लाम की धुरी है। तुर्की की तबाही हम नहीं सह सकते। ऐसी बातों से जहाँ एक ओर वे उन्हें संकीर्ण उलेमाओं और मौलवियों से मुक्त करते, वहीं दूसरी ओर अपने प्रति एक विश्वास भी कायम कर लेते थे। इस्लाम में वतन की अहमियत है और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वतन की बेहतरी में ही अपना भला है और इसके लिए बुनियादी बात यह है कि तमाम कौमों से हमारी एकता बनी रहे। उन्होंने रौलेट बिल के खिलाफ तूफान खड़ा कर दिया और फरवरी 1919 में पूरे पंजाब में तीव्र प्रदर्शन होने लगे। वे लोगों से अपील करते कि वे इस बात पर सोचें कि अगर यह बिल पास हुआ तो आने वाली पीढिय़ाँ हमें क्या कहेगीं? उन पर क्या गुजरेगी? वे देश की दशा की तुलना आयरलैंड से करते और प्रतिवाद करने के लिए लगातार लोगों को जगाने में लगे रहे। वे लोगों को सावधान करते कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद देश की क्रांतिकारी ताकतों को लगातार कुचल रहा है, हमें इसका मिलकर प्रतिकार करना चाहिए। उन्होंने कहा- ''हमने स्वराज्य की कल्पना की थी और मिला हमें यह खूंखार एक्ट। हमें मालूम होना चाहिए कि अहिंसात्मक प्रतिरोध क्रांति से कहीं अधिक शक्तिशाली चीज है। हमारा एक ही लक्ष्य है- स्वराज''। वे लोगों को उत्साहित करते - ''अवसर मत चूको, इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ।'' उन्होंने नौकरशाही को भी चुनौती दी यही नौकरशाही जेल में ठूंसना चाहती है, तो उसे सारे देश को जेल में तब्दील करना होगा। उनके शब्द थे- ''हथकडिय़ाँ -बेडिय़ां बनाने वाले लुहार कम पड़ जाएंगे और हमारे यहां और विलायत में भी इतना लोहा नहीं बचेगा।''4 ऐसा था उनका जोश! ऐसा था उनका ज़ज़्बा।
यह बात सच है कि खिलाफत आंदोलन को गांधी जी द्वारा अपनाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का जैसा उत्कर्ष देखने को मिला, वैसी एकता पूरे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान फिर कभी न दिखी। धार्मिक उलेमाओं के असर से बंद मुस्लिम समाज में राजनीतिक सक्रियता सीमित थी, लेकिन इस घटना के बाद मुस्लिम जननायकों को भी अपनी कौम में राजनीतिक स्पेस मिला। सच यही था कि मुस्लिम समाज में जो तबका इंग्लैंड में पढ़कर भारत में राजनीति कर रहा था उसकी भी मुस्लिम समाज में कोई गहरी पैठ नहीं थी। गांधी जी द्वारा खिलाफत के स्वीकार को लेकर पक्ष-विपक्ष में चाहे जितनी बातें कही जाये, लेकिन मुस्लिम समाज में नवजागरण के लिहाज से यह सबसे अनुकूल समय था। मुस्लिम नायकों के लिए धार्मिक संकीर्णता और अंधविश्वासों से बाहर लाकर मुस्लिम कौम को आधुनिक और राजनीतिक मूल्यों की ओर प्रेरित करने का यह सुनहला मौका था। जिस तरह खिलाफत और असहयोग आंदोलन का समवेत विकास हुआ, अगर उसमें विचलन और भटकाव नहीं आये होते तो शायद भारतीय राजनीति का परिदृश्य ही दूसरा होता।
भले ही खिलाफत आंदोलन का कोई निर्णायक प्रभाव या कहे परिणाम सामने नहीं आया और मुस्लिम कौम में एक तरह की निराशा ही फैली। चौरी-चौरा कांड के बाद आंदोलन की वापसी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। पं. नेहरू तक ने लिखा - ''यह मुमकिन हो सकता है कि अगर सत्याग्रह बंद न किया गया होता और उसे सरकार ने ही कुचला होता तो उस हालात में कौमी जहर इतना न बढ़ता और बाद को जो सांप्रदायिक दंगे हुए उनके लिए बहुत ही कम ताकत बाकी रहती।''5 लेकिन आप तमाम तत्कालीन राष्ट्रवादी मुस्लिम जननायकों की भूमिकाओं पर गौर करें तो इस दौरान उनकी सक्रियता सबसे अधिक सार्थक और महत्वपूर्ण रही। हिन्दू-मुस्लिम के कट्टर धार्मिक नेता और जमींदार पूरी तरह अंग्रेजों के एजेंट की भूमिका में थे और कौंसिलों की राजनीति के मार्फत अंग्रेज लगातार दोनों कौमों में वैमनस्य बो रहे थे। इसीलिए डॉ. किचलू कौंसिल की राजनीति के सख्त विरोधी थे। वे असहयोग आंदोलन में कौंसिल का बायकाट चाहते थे। वे इसे छिटपुट झगड़े और व्यक्तिगत टंटे की वजह मानते थे। इससे सांप्रदायिक मतभेद भी बढ़ते हैं और नौकरशाही को दखल देने का मौका मिलता है। सी.आर.दास कौंसिल के प्रबल समर्थक और सदस्य थे, मगर वे डॉ. किचलू से इतने प्रभावित हुए कि उनको अपनी पार्टी में लाने के लिए सुभाषचन्द्र बोस को लगाया था। कौंसिलवादियों पर हिन्दी समाचारपत्र भी लगातार व्यंग्य कर रहे थे। प्रसिद्ध पत्र 'मतवाला' की यह दिलचस्प टिप्पणी है- ''जेल की यंत्रणा भोगने पर भी मौलाना मुहम्मद अली और डॉ. किचलू आदि कौंसिल के पक्षधारी नहीं बने। किसी ने ठीक ही कहा है, ''कोयला होय न ऊजरों नौ मन साबुन लाये।'' स्वराज दल वाले उन्हें एक बार और जेल भेजवाने की चेष्ठा क्यों न करें। शायद दुबारा तपाये जाने से वे 'खरे' निकलें।''6 (8.8.23) अगर आप उस दौर में सबसे मुखर आवाजों की पड़ताल करें तो उसमें नि:संदेह डॉ. किचलू की आवाज सबसे तेज सुनाई देगी।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ डॉ. किचलू की आवाज संभवत: सबसे तीखी थी। एक तो उसकी वक्तृत्व कला बेजोड़ थी और उनका चरित्र बिल्कुल खरा था। जो बात उन्हें नापसंद होती उसका वे तीव्र विरोध करते। वे कौंसिल के घोर विरोधी थे। यह बात उन्होंने कभी नहीं छुपायी। उन्नत समझ, समर्पण और ईमानदारी के साथ-साथ वे निर्भीकता से अपनी बात रखते। 7 से 9 सितंबर 1920 के कलकत्ता में हुए कांग्रेस में उनकी तकरीर थी- ''आज आपको फैसला करना है कि आप अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं, जैसा कि बहादुरों की शान है या गुलामी की ज़िन्दगी ही पसंद करते हैं। अंग्रेज हमारे मनमुटावों का फायदा उठाकर हमें लड़ाकर पिछले 150 साल से हम पर राज कर रहे हैं। खुदा का शुक्र है कि गुलाम जिन्दगी के बारे में हममें एक नई चेतना जागी है और अब भी अगर हम इस फूट-फुटकल के शिकार हुए तो यह गुलामी सदियों तक कायम रहेगी। 'मजलिस-ए-उलेमा' ने भी असहयोग को मंजूर करने की लीग की नीति पर मुहर लगा दी है और जब कोई भी यह कहता है कि मुस्लिम असहयोग आंदोलन में शिरकत नहीं करेंगे तो वह लीग की, खिलाफत की, कांग्रेस की, अंजुमन-ए-उलेमा और पूरी कौम की बेइज्जती करता है।''7
आप उनकी भाषा के पीछे की मानसिकता और जज्बे का अंदाज करें। उन दिनों उनकी पूरी सक्रियता पर गौर करें। वे तरह-तरह से अनेक मोर्चों पर सक्रिय थे। वे ब्रिटिश शासकों को चेतावनी भी देते कि अगर भारतीयों की आवाज न सुनी जायेगी तो रूसी साम्यवादी क्रांति के विचारों को आने से रोका नहीं जा सकता। साम्यवाद अंग्रेजों और कई कांग्रेसी नेताओं के लिए भी तब एक हौवा था। दूसरी ओर वे मुस्लिम कौम को उलेमाओं के असर से आजाद कर 'तंजीम' संगठन के मार्फत आधुनिक ढाँचे में पुनर्गठित करना चाहते थे। उनकी कोशिश थी विभिन्न तरह के तकनीकी संस्थान और आधुनिक शिक्षा केन्द्र स्थापित कर मुस्लिम समुदाय का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक सुधार किया जाये। ऐसा करके ही हम स्वराज्य प्राप्ति के मार्ग पर उन्हें सक्रिय कर सकते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता हो या सिक्ख-हिन्दू एकता डॉ. किचलू ने इस मोर्चे पर पंजाब में जो कार्य किया था उसकी मिसाल पूरे देश में नहीं थी। पंजाब के मुसलमान रामनवमी में खुलकर भाग लेते थे। उनकी सक्रियता ब्रिटिश हुकूमत को लगातार खटक रही थी। अंतत: 10 अप्रैल 1919 को वे डॉ. सत्यपाल के साथ गिरफ्तार कर लिये गये। 13 अप्रैल को जब उनकी तस्वीर के साथ बीस हजार लोगों ने जालियावालाबाग में सभा की तो जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के निर्दोष और निहत्थों पर गोलियाँ चलवायी और उतना बड़ा ऐतिहासिक हत्याकांड घटित हुआ। डायर मारे गए लोगों को गदर आंदोलन का उत्तराधिकारी बता रहा था। इस हत्याकांड के बाद डॉ. किचलू देश के क्रांतिकारी नायक बन गये थे।
इस हत्याकांड ने पूरे देश को बुरी तरह झकझोर दिया। निर्दोष पंजाबियों की शहादत से भारतीय जनता गुस्से और जोश में थी। विश्व में और खुद इंग्लैंड में ब्रिटिश शासकों की फजीहत हो रही थी। डॉ. किचलू आग बबूला थे और उनका विद्रोही मन गांधीजी की अहिंसा से डगमगा उठा था। लिखा है- ''मैं इंकलाबी हूं और साथ ही उग्र सहयोगी भी रहूंगा मगर मैं देखूँगा कि अहिंसा से बात बन नहीं रही है।''8 ब्रिटिश हुकूमत अपनी मनमानी पर उतर आयी थी और नानकाना साहब में निर्दोष अकालियों की हत्या की गई थी। 3 मार्च 1921 को गांधी जी, शौकत अली और डॉ. किचलू के साथ वहाँ पहुंचे। साथ में कई सिक्ख नेता भी थे। उस कांड में कांग्रेस की जो कमेटी बनी थी उसमें सिक्खों ने अपना प्रतिनिधि डॉ. किचलू को चुना। यह सामान्य बात न थी। गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी ने शारदा पीठ के शंकराचार्य को आमंत्रित किया, तो वे भी डॉ. किचलू को लेकर रावलपिंडी की सभा में गये और वहां उनको अपना सचिव घोषित किया। उन्हें 'धरीन्द्र' और 'भारत भगति-भूषण' सम्मान से नवाजा। जैन मुनि पैदल उनके घर जाते और घंटों तख्त पर बैठकर बातें करते। डॉ. किचलू कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं थे, मगर उनका ऐसा चमत्कारिक व्यक्तित्व था कि सभी उन पर भरोसा करते। उस दौर में ऐसा कोई दूसरा चरित्र देखने को नहीं मिलता। शिमला में उनकी गिरफ्तारी हुई तो उनके दिये संदेश पर गौर कीजिए- ''भारतमाता की माँग है कि हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और पारसी-सभी को अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम खून की आखिरी बूँद तक भारत माता की शान और मान को कायम रखने की कोशिश करते रहेंगे।'' यही ज़ज़्बा, यही देशभक्ति उनको असाधारण और अद्वितीय बनाती है। वतन उनका मजहब बन चुका था, उसे लेकर वे आखिरी दम तक ज़ज्बाती बने रहे।
असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद नमक सत्याग्रह तक 20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक तक की पूरी राजनीति बहुत ही घटनाबहुल और परिवर्तनकारी थी। उलेमा, मौलवी, हिन्दूवादी नेता और जमींदार फिर से प्रभावशाली बन गये थे। सांप्रदायिक दंगे, तनाव, शुद्धि आंदोलन और अंग्रेजों की कूटनीति-सबका घात-प्रतिघात चरम पर था। हिंदू महासभा के अलावे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी गठित हो चुका था। अंदर ही अंदर हालात काफी बिगड़ चुके थे। डॉ. किचलू अपने विचारों के कारण मौलवियों के निशाने पर थे। इस पर 'मतवाला' ने अपने अंदाज में टिप्पणी की थी ''लाहौर के कुछ मुल्लाओं ने फतवा देकर डॉ. किचलू को काफिर बताया है। औरंगजेब के दोस्तों की जय हो।''9 (6.10.23)स्वराज का सवाल पिछड़ रहा था। इस दौर में भी आप डॉ. किचलू के ज़ज्बे को सलाम करना चाहेंगे। 30 अगस्त 1927 को मुस्लिम लीग के कांफ्रेंस में उनका प्रस्ताव था कि हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और सिक्ख राष्ट्र वाले कांग्रेस में विलय कर दें। यही स्वर उनका अप्रतिहत बना रहा। आगे 1 जनवरी 1929 के कलकत्ता में हुए कांग्रेस सत्र में उनकी तकरीर पर गौर कीजिए। उन्होंने जोरदार तरीके से अपनी बात रखी कि भारत की समस्या अल्पसंख्यकों की समस्या नहीं है बल्कि स्वाधीनता की समस्या है। यह उनका कत्र्तव्य है कि वे दो समुदायों की संयुक्त कार्रवाई के अवसर को अपने ही हमवतनों पर गहन अविश्वास के चलते गवाँ न दे। उन्होंने अपने हिन्दू भाइयों से अपील की कि वे इस बात की अनेदखी न करें और कहीं ऐसा न हो कि न्याय केवल एक सूक्ति बनकर रह जाये, जरूरी होगा कि लोग कहें कि वास्तव में उनके साथ न्याय किया गया है।
डॉ. किचलू की मार्मिक तड़प असाधारण थी। लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन संगठन, विचार और नेतृत्व की बेचारगी यह थी कि वह गोकुशी, मस्जिद के सामने बाजा बजाने आरै निर्वाचन मंडल में उचित भागीदारी के मामूली सवालों का हल ढूँढ़ पाने में नाकाम रही। सारे महान् नेताओं की महानता धरी की धरी रह गई और ब्रिटिश कूटनीति सफल हो गई। देश बँट गया। सारा नेतृत्व यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी तरह-तरह के स्वार्थों से घिरे और चालाक नेताओं को जोड़-तोड़ और मान-मनौव्वल में उलझे रहे। वे डॉ. किचलू जैसे लोगों के साथ सीधे जनता में उतरकर इन विवादों को नहीं ले गये। डॉ. किचलू के साहस और धीरज की दाद देनी होगी। तब भी हिन्दू राज और मुस्लिम राज पर चोट करते रहे। उन्होंने मौलानाओं पर तीखा हमला किया था कि वे मुस्लिमों से कांग्रेस के बॉयकाट की अपील करके, सत्याग्रह का विरोध करके, इस्लाम की तौहीन कर रहे हैं। उन्होंने चुनौती दी कि वे कुरान में एक भी आयत ऐसी दिखाएँ जिसमें वतन के दुश्मनों के साथ और आजादी के लिए लड़ रहे देशभक्तों के खिलाफ खड़े होने के लिए कहा गया हो।10 उन्होंने  देश के युवकों से अपील की- वे धार्मिक पूर्वाग्रहों से आजाद हों। वे सिर्फ भारतीय हैं। यह आखिरी संग्राम है और उसकी यही माँग है। डॉ. तौफीक किचलू ने उनके अमृतसर में दिये भाषण (ट्रिब्यून 20 मार्च 1921) का एक अंश उद्धृत किया है- ''भारत पर भारतीयों की हुकूमत होनी चाहिए न कि हिन्दुओं, सिक्खों या मुसलमानों की।'' यही वजह है कि उन्होंने देश के संविधान में किसी भी सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार नहीं किया। खुलेआम घोषणा कि- ''विदेशी राज की तुलना में बेशक हिन्दूराज ही पसंद करेंगे।''
साइमन कमीशन को लेकर भारी उथल-पुथल थी। उधर मुस्लिम लीग में जमींदार वर्ग और सांप्रदायिक ताकतों का नेतृत्व सर मुहम्मद शफी के हाथों में था। यह ग्रुप लीग पर राष्ट्रवादियों के प्रभाव को खत्म कर अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता था। इस ग्रुप का अंदरूनी संबंध अंग्रेजों से था और उसे अपनी सुरक्षा सरकार के हाथ रहने में लग रही थी, इसलिए वह साइमन कमीशन का समर्थन कर रहा था। उसने डॉ. किचलू को सचिव पद से हटने पर मजबूर कर दिया। डॉ. किचलू ने नवंबर 1927 में साइमन कमीशन बनने के साथ ही प्रतिक्रिया दी थी कि - कोई भी विदेशी हुकूमत स्वेच्छा से 'प्रजा' को स्वराज का अधिकार नहीं सौंपती। उन्होंने सारे समुदायों को साथ लेकर अपना जेहाद जारी रखा। जगह-जगह सभाएँ की और हड़ताल भी रखी। साइमन कमीशन जब भारत आया तो जनता ने जबर्दस्त विरोध किया। इसी विरोध में लाठी खाकर लाला लाजपत राय की मौत हुई। कांग्रेसी जनता के भीतर क्रांतिकारी उभार से डर गई और अपनी ढुलमुल प्रवृत्ति के अनुरूप समझौते की गुंजाइश बनाने में लग गई। डोमीनियन स्टेट के पक्ष में नेहरू-रिपोर्ट इसी का फल था। इसमें सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में वामपंथ भी सक्रिय था। डॉ. किचलू लगातार पूर्ण स्वाधीनता पर जोर दे रहे थे। अंतत: 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस घोषित कर पूर्ण स्वाधीनता की शपथ ली गई। उधर क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया था।
नमक सत्याग्रह के साथ जब आंदोलन तेज हुआ तो फिर गांधी जी को रिहाकर गांधी-इर्विन समझौता किया गया था। मगर गांधी इर्विन समझौते में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की रिहाई की शर्त नहीं जोड़ी गई थी। इस समझौते से एक बार फिर कांग्रेस का अवसरवादी चरित्र सामने आया। डॉ. किचलू शहीदेआजम भगतसिंह के भी प्रेरणा-स्त्रोत रहे थे। इस कार्रवाई से पूरे पंजाब में कांग्रेस के प्रति तीखी नफरत पैदा हुई। डॉ. किचलू ने इन क्रांतिकारियों का खुला समर्थन किया। मुकदमे के लिए अपनी सेवाएँ पेश की और धन संग्रह भी किया। फांसी पर लटकाये जाने के बाद सरदार पटेल ने डॉ. किचलू से लंबी बातचीत की और पंजाब के युवकों को शांत करने में मदद की गुहार की। डॉ. किचलू कांग्रेस की लुंज-पुंज नीतियों, ढुलमुल रवैये और सांप्रदायिक तत्व के प्रति कमजोरी के कारण बहुत क्षुब्ध रहते थे और उनका झुकाव तेजी से कांग्रेस की वामपंथी धारा की ओर होने लगा था। उनकी घनिष्ठता सुभाषचंद्र बोस वाली कांग्रेस की वामपंथी धारा से ज्यादा थी। वे उसी के साथ थे। 1931 में कराची कांग्रेस में भले इस समझौते को स्वीकार किया गया मगर सुभाषचंद्र बोस और डॉ. किचलू ने इसके खिलाफ अपना विद्रोह दर्ज कराया। वे अलग-अलग निर्वाचन मंडल के भी विरोधी थे और बार-बार इस बात पर जोर दे रहे थे कि धार्मिक आधार पर निर्वाचन, राजनीति और दल का निर्माण बहुत घातक है और ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से यही हुआ। वे तो सीटों के सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण के भी घोर विरोधी थे।
दो वर्षों की गिरफ्तारी के बाद 17 मार्च 1934 को रिहा होने पर डॉ. किचलू ने साम्राज्यवाद की मूल व्यवस्था पर करारी चोट की। उन्होंने औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था पर प्रहार किया और भारत के नौजवानों की बेरोजगारी के लिए भारतीय उद्योगों के विनाश को मुख्य कारण बताया। भारत सिर्फ कच्चे माल का सप्लायर बनकर रह गया है। सारे उद्योग या तो ब्रिटिश पूंजीपतियों अथवा दलाल भारतीय पूंजीपतियों के हाथों में है। उन्होंने मजदूरों के सवाल को उठाना शुरू किया तो कांग्रेसियों के भी कान खड़े हुए। जमींदारों के विरूद्ध किसानों के सवाल ने उनको कांग्रेस में खलनायक बना दिया। गांधी जी इस मामले में बिल्कुल नरम थे। नेहरू जी जमींदारों को अंग्रेजों का एजेंट तक कहते थे, मगर कांग्रेस में उनकी उपस्थिति को लेकर उन्हें कोई गुरेज नहीं था। जब-जब स्वराज का आंदोलन तेज होता और निर्णायक मोड़ की ओर बढ़ता था, गांधी जी सुधारवादी कार्यों को अहमियत देने लगते थे, जो डॉ. किचलू को पसंद नहीं था। अंतत: मतभेद बढ़ते गये।
1935 में ब्रिटिश सरकार ने एक विस्तृत अधिनियम प्रस्तुत किया, जिसमें 14 खंड और 10 अनुसूचियाँ थी। इसमें कुल 451 धाराएँ थी। इसमें प्रांतीय स्वायत्ता का प्रावधान था, जिसका मुस्लिम लीग ने स्वागत किया। इसमें बर्मा को अलग कर शेष ब्रिटिश भारत को 11 प्रांतों में बांट दिया गया था। लेकिन इसमें ऐसे कई प्रावधान थे जिससे कांग्रेस और मुस्लिम लीग सहमत नहीं थे। लेकिन वह चुनाव में शामिल होने को राजी थी। उस समय डॉ. किचलू ने अमृतसर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और भारी मतों से विजयी हुए। लेकिन यह वह दौर था जब हिन्दू-मुस्लिम भेद काफी बढ़ चुका था और दोनों समुदायों की सांप्रदायिक ताकतें अपना-अपना प्रभाव कायम कर चुकी थी। कोई सांप्रदायिक सद्भाव की बात सुनने को तैयार नहीं था। मुस्लिम लीग ने डॉ. किचलू के खिलाफ याचिका दायर की और उनका चुनाव रद्द करा दिया। दूसरी बार चुनाव खुलकर सांप्रदायिक आधार पर हुए और कांग्रेस समर्थित डॉ. किचलू पराजित हुए और मुस्लिम लीग समर्थित मुहम्मद सादिक चुनाव जीत गये। कांग्रेस के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं का अपने समुदाय पर अब कोई असर नहीं था। यह आने वाले समय का साफ-साफ संकेत था।
डॉ. किचलू के विचारों और राजनीतिक सक्रियता में परिवत्र्तन हो रहा था और वे मजदूरों और किसानों के आंदोलन को स्वराज से जोड़ रहे थे। वे खुलकर समाजवाद की बात करने लगे थे इस कारण कांग्रेस के वामपंथी धड़े से उनकी निकटता सघन होने लगी थी। गांधी जी से भी उनकी दूरी बढऩे लगी थी, जो 1938-39 में पट्टाभि सीतारामय्या के पराजय और सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पर जीतने से और गहरी हो गई। गांधी जी अपनी तमाम महानता के बावजूद इस लोकतांत्रिक पराजय को स्वीकार नहीं कर सके। डॉ. किचलू सुभाषचंद्र बोस के खुले समर्थक थे, बल्कि वे उनके समानान्तर सरकार कायम करने के भी पक्षधर थे। लेकिन जब सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अलग फारवर्ड ब्लाक बना लिया और कांग्रेस का विरोध करने लगे तो डॉ. किचलू ने उनका साथ छोड़ दिया। डॉ किचलू स्वराज के लिए कांग्रेस विरोध को घातक मानते थे। वे उन तमाम दलों और संगठनों का खुलकर विरोध करते जो कांग्रेस के विरोध में थे। खासतौर से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की वे तीखी आलेचना करते और उनका दृढ़ विश्वास था कि कांग्रेस ही सारे समुदायों को साथ रख राष्ट्रीय एकता कायम रख सकती है। वे सांप्रदायिक संगठनों को विघटनकारी तत्त्व मानते थे, जो अपने स्वार्थ के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथों में खेल रहे हैं।
डॉ. किचलू का वामपंथी रूझान द्वितीय विश्वयुद्ध के समय फासीवाद के खिलाफ उभर कर सामने आया। वे उदार और प्रगतिशील ताकतों की व्यापक एकता कायम कर फासीवाद को परास्त करना चाहते थे। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के स्वराज आंदोलन के साथ मजदूरों और किसानों के आंदोलनों को भी जोडऩा चाहते थे। लेकिन कांग्रेस द्वितीय विश्वयुद्ध को लेकर अपनी नीति और रणनीति स्पष्ट नहीं कर रही थी। कांग्रेस उनके वामपंथी रूझान से चिंतित थे। उनकी एक मुश्किल यह भी थी कि पंजाब में उनका कोई विकल्प नहीं था। इसलिए न चाहते हुए भी 1946 में उन्हें पंजाब का प्रांतीय अध्यक्ष बनाना पड़ा। डॉ. किचलू हर मामलों को राष्ट्रीय हितों के नजरिये से सोचते और जो बातें उनको सही लगती उसे साहस के साथ कहते थे। हालात चाहे कितने प्रतिकूल हों उन्हें दो राष्ट्रों का सिद्धान्त  गलत लगा तो इसका खुलकर विरोध किया। वे कभी हिन्दू-मुसलमान को दो भिन्न संस्कृतियों वाला अलग राष्ट्र मानने को तैयार नहीं हुए। वे मुस्लिम लीग के इस सोच का भी जमकर विरोध करते रहे कि कांग्रेस एक हिन्दू संगठन है। वे अपने भाषणों में हिन्दू-मुस्लिम नेताओं की उस परंपरा को रेखांकित करते जो बिना भेदभाव के स्वाधीनता की लड़ाई लड़ती रही। वे ऐसा देश चाहते थे, जो संकीर्ण मतभेदों से दूर धार्मिक एकता और सद्भाव वाला हो। तभी वह स्थिर और मजबूत देश होगा। वे गरीबी और अशिक्षा के विरुद्ध साझी लड़ाई का आह्वान करते। लेकिन उनकी यह तड़प यथार्थ को तब्दील न कर सकी। 1946-1947 के हालात इतने बदतर थे कि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं पर इस्लाम से गद्दारी के आरोप लगाये जाते थे। विभाजन का मसला इतना विषाक्त हो चुका था कि अपनी जिन्दगी को होम कर देने वाले नेताओं पर उनकी ही कौम के लोग हमले कर रहे थे। डॉ. किचलू अमृतसर से लाहौर जाते हुए ऐसे ही हमले में किसी तरह बचे थे। एक बार तो मुल्तान में उन्मादी भीड़ ने उन पर सरिया से वार किया। हाथ पर रोका तो हाथ कट गया। भीड़ उनको पकड़कर गरदन दबा रही थी कि वे कांग्रेस का विरोध कर मुस्लिम लीग के पक्ष में बयान दें और पाकिस्तान का समर्थन करें। उन्होंने दृढ़ता से प्रतिकार किया। इस तरह जबरन विचारऔर दृष्टिकोण में बदलाव कैसे संभव है? भीड़ का एक हिस्सा हत्या करने पर उतारू था तो एक हिस्सा मारपीट कर छोड़ देना चाहता था। जैसे-तैसे घायल हालात में फौजी शिविर तक पहुँचे जहाँ उनका एक भतीजा अधिकारी था। बमुश्किल जान बची, बल्कि उन्हें नयी जिन्दगी मिली।
डॉ. किचलू ने जिस संगठित भारत का सपना देखा था और जिसके लिए उन्होंने जान की बाजी लगा दी थी- वह सब बिखर चुका था। जिस सम्प्रदायवाद, कट्टरता और अवसरवाद से वह आजीवन लड़ते रहे, उसकी जीत हो चुकी थी, उसका देश बँट चुका था- छाती दो फाड़ हो चुकी थी। यह देश की आकांक्षाओं, स्वप्नों और संघर्षों से विश्वासघात था। कांग्रेस के साथ राष्ट्रवादी और महान् मुस्लिम नेताओं की शानदार कतार थी, बावजूद वह मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत पायी। डॉ. तौफीक किचलू ने लिखा है- ''अलग पाकिस्तान की कल्पना से रोमांचित अनेक मुसलमानों ने कांग्रेस छोड़ दिया। इस खानगी की वजह कांग्रेस के अपने ऐतिहासिक अंतर्विरोधों में आसानी से देखी जा सकती है। अर्थात् एक क्रांतिकारी और प्रगतिशील नीति का निर्माण करने की जगह कांग्रेसी नेताओं ने एक रूढि़वादी शांतिवाद का रास्ता अपनाया। यही वजह थी कि कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों में विक्षोभ पैदा हो गया।''11
बहुत सारी प्रतिकूल वजहों में शायद एक सच यह भी हो। पूरी कांग्रेस विभिन्न स्वार्थों वाले समुदायों का ऐसा ढीला-ढाला संगठन था- जिसमें तमाम किस्म के अंतर्विरोधों की भरमार थी। डॉ. किचलू इस कसक को कभी भूला नहीं पाये। उन्होंने आजादी को 'सांप्रदायिकता की बेदी पर राष्ट्रवाद का बलिदान' कहा। अपनी बेटी को एक खत में लिखा - ''इस विभाजन ने कोई मूलभूत समस्या हल नहीं की। हमने राजनीतिक आजादी तो प्राप्त कर ली है लेकिन आर्थिक आजादी के बिना इसका मूल्य ही क्या है? आजादी है मनुष्य की मनुष्य के शोषण से मुक्ति। अभावों, भूख, गरीब, अज्ञान और अंधविश्वासों से मुक्ति। हमें अभी इन बेडिय़ों को तोडऩा है जो कि किन्हीं मायनों में विदेशी हुकूमत से भी ज्यादा मजबूत है।''12
जाहिर था, वे उन नेताओं में नहीं थे जो दोनों देशों में सत्ताभोग रहे थे। दोनों देशों में बड़ा पद, ढेरों सुविधाएँ, ऐशोआराम के आमंत्रण थे मगर पसमीना और जाफरान के अमीर व्यवसायी का यह बागी बेटा आजादी के बाद फकीर बन चुका था। संपत्ति आजादी की भेंट चढ़ चुकी थी। वह तो हिन्दू-मुस्लिम परिवारों के अनेक आत्मीय रिश्ते थे, जिन्होंने दिल्ली में कभी पनाह ढूँढऩे की नौबत न आने दी। लेकिन पं. नेहरू की मित्रता अपनी जगह, उन्होंने सरकार से अपने लिए रहने की एक जगह तक नहीं ली। कश्मीर मसले पर नेहरू से लड़े और कबालियों के आक्रमण में भारत को हस्तक्षेप के लिए विवश किया। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी, रिहाई और पं. नेहरू के साथ उनकी बातचीत में डॉ. किचलू की केन्द्रीय भूमिका रही। शेख अब्दुल्ला, बख्शी गुलाम मुहम्मद या अफजल बेग हों अथवा पं. नेहरू, पटेल या मौलान आजाद सभी डॉ. किचलू के खरेपन और ईमानदारी पर आँख मूँदकर भरोसा करते थे। 1959 में नेहरू-अब्दुल्ला समझौता के नियामक डॉ. किचलू ही थे। कश्मीर मसले में उन्होंने निर्णायक भूमिका निभायी थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया साफ-साफ दो हिस्सों में बँट गई थी। अब विश्व साम्राज्यवाद का नेतृत्व अमेरिका के हाथों में था। द्वितीय विश्वयुद्ध में बिना किसी बड़े नुकसान के सबसे ज्यादा लाभ में वही था। तमाम पश्चिमी देश उसके साथ थे और वे अपने पूंजीवादी हितों का विस्तार चाहते थे। शीतयुद्ध में उन्होंने आर्थिक शोषण के नये तंत्र विकसित कर लिये थे और वे युद्ध से भी परहेज करने में हिचकने वाले नहीं थे। उन्हें विश्व की जनतांत्रिक ताकतों की कोई चिन्ता नहीं थी। जाहिर था विश्व मानवता पर नया संकट मंडराने लगा था और दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका में जीने को विवश थी। सोवियत रुस को द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था जबकि हिटलर को पराजित करने में उसी की भूमिका निर्णायक थी। अब वह और युद्ध को झेलने की स्थिति में नहीं था और न ही साम्राज्यवादी प्रसार विश्व मानवता के हक में था। ऐसे में युद्ध के विरुद्ध विश्वशांति के लिए जनमत तैयार करना बहुत ही कारगर कदम था। इसलिए अगस्त 1948 में वारसा में स्टॉलिन ने विश्वशांति का प्रस्ताव रखा। भारत की आजादी पूरी दूनिया के लिए एक मिसाल थी और बहुत सारे एशियाई, अफ्रीकी देश आजाद हो रहे थे अथवा आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। नि:संदेह इसमें भारत की भूमिका अहम् हो सकती थी। विश्व जनमत के लिए एक ऐसे समर्पित नेता की जरूरत थी, जो शांति के लिए प्रतिबद्ध हो। वह विश्व के विभिन्न समुदायों को इसके लिए प्रेरित  कर सके। डॉ. किचलू गांधीवादी और वामपंथी दोनों विश्वासों को साध चुके थे और उनका जीवन साम्राज्यवाद के प्रबल विरोध में भी गुजरा था। लेकिन दिक्कत कांग्रेस की नेहरू-पटेल सरकार को थी- जिसमें वामपंथ के घोर विरोधी भरे हुए थे। वे अपनी सुपरिचित ढुलमुल नीति के कारण दोनों खेमों को साधे रखना चाहते थे। पटेल ने मौलाना आजाद के मार्फत डॉ. किचलू को राज्यसभा अथवा अन्य पद देने की पेशकश करायी। शर्त यह कि वे विश्वशांति अभियान छोड़ दें। इस अवसरवादी लोभ की पेशकश के लिए डॉ. किचलू ने मौलाना को बरी तरह लताड़ लगायी। वे तो अलग धातु के ही बने थे, जो कभी लच नहीं सकते थे। वे अपने अभियान में प्राणप्रण से लगे रहे।
डॉ. किचलू ने 28-29 अक्टूबर 1950 को बंबई में अखिल भारतीय शांति सम्मेलन के लिए तैयारी समिति गठित की। इसमें प्रगतिशील लेखक संघ के कृश्नचंदर, मुल्कराज आनंद, आर.के. करंजिया, के एम.जोगलेकर, रोमेश थापर जैसे नामी-गिरामी लोग शामिल हुए। 6 लाख 71 हजार से अधिक लोगों के हस्ताक्षर स्टॉकहोम भेजे गए। विश्वशांति समिति के सदस्य महान कवि पाब्लो नेरुदा भारत दौरे पर आये। जब डॉ. किचलू ने गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी से विश्वशांति सम्मेलन के लिए मदद माँगी तो उन्होंने उसे तुरंत ठुकरा दिया। मगर डॉ. किचलू सम्मेलन करते रहे, राज्यों में इसकी शाखाएँ भी खोली और अखिल भारतीय शांति परिषद् नाम से संस्था बना 22-23 फरवरी 1953 को नई दिल्ली में शानदार आयोजन किया। आगे इस अभियान से बंगाल के कई लेखक, फिल्मकार जुड़े। पृथ्वीराज कपूर भी इस आंदोलन के साथ आये। डॉ. किचलू अपने आप में एक अभियान थे।
डॉ. किचलू ने अखिल भारतीय शांति परिषद का तीसरा अधिवेशन 19 सितंबर 1952 को जालंधर में आयोजित किया। इसमें बड़े पैमाने पर जनता ने भाग लिया। उसी साल पीकिंग में 2 से 12 अक्टूबर तक जो शांति सम्मेलन हुआ उसमें तीन सौ अस्सी देशों ने भाग लिया। इसमें भारत से डॉ. किचलू के नेतृत्व में सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल शामिल हुआ। जिसमें 39 प्रतिनिधि और 12 पर्ववेक्षक थे। इसमें विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, पेशों और राजनीतिक विचारों वाले लोग थे। डॉ. किचलू ने इसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सांस्कृतिक विनियम का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उन्होंने चीन की जनता को संबोधित करते हुए कहा कि ''भारतीय जनता चीन की प्रगति में गहरी रूचि रखती है और हमारे देश के लोगों में चीन से मित्रता करने की तीव्र भावना है। हमारा विश्वास है कि इस कांफ्रेंस से भारत की चीन और दूसरे एशियाई तथा प्रशांत क्षेत्र के देशों से एकता मजबूत होगी।''13 इस कांफ्रेंस की एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि भारत और पाकिस्तान के शिष्टमंडलों ने यह घोषणा की कि वे अपने अनसुलझे मामले आपसी बातचीत से तय करेंगे। दोनों देश विश्व में शांति के लिए मिलकर काम करेंगे। 19 अक्टूबर को भारतीय प्रतिनिधि मंडल का स्वागत खुद चेयरमैन माओ त्से तुंग ने किया। बाद में माओ त्से तुंग से उनकी मुलाकात भी हुई, जिसमें उन्होंने डॉ. किचलू के कार्यों की सराहना की।
वियना शांति सम्मेलन के बाद उनको 5 जनवरी 1953 को मास्को में अंतर्राष्ट्रीय स्टॉलिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह किसी भारतीय बल्कि एशियाई नागरिक के लिए बहुत बड़ी बात थी। उन्होंने अपने भाषण में विनम्रता से आभार व्यक्त किया और खुद को इसके लिए योग्य नहीं मानते हुए निर्णायक के प्रति आदर प्रकट किया। उन्होंने कहा कि यह सम्मान भारतीय शांति आंदोलन को दिया गया है जिसका अध्यक्ष होने पर उन्हें फख्र है। उन्होंने इस अवसर पर एक प्रभावशाली व्याख्यान दिया। ''हमारी धरती का एक इंच भी, हवाई अड्डे का कोई हिस्सा, रेल लाइन का कोई टुकड़ा और हमारे खून का एक कतरा भी साम्राज्यवादी युद्ध के लिये नहीं है।'' उन्होंने पुरस्कार राशि जो एक लाख पच्चीस हजार रुपये थी भारतीय शांति परिषद को दान दे दी। डॉ. किचलू के कार्यों की जोसेफ स्टॉलिन ने खुलकर प्रशंसा की। स्टॉलिन से उनकी निजी मुलाकात लगभग एक घंटे चली थी। जब दोनों हाथ मिलाकर विदा होने लगे तो दरवाजे पर डॉ. किचलू रुक गये। उनको लगा शायद हम दोबारा न मिल सके, सो उन्होंने मुड़कर स्टॉलिन की ओर देखा। वे मुस्कुराते हुए डॉ. किचलू को प्रशंसा भरी नज़रों से दिख रहे थे।
भारत वापसी पर डॉ. किचलू का शानदार स्वागत हुआ। वे सोवियत रूस से भारत की मैत्री का नया पैगाम लेकर आये थे। वामपंथी नेताओं ने उनका जबर्दस्त स्वागत किया। उसके बाद उन्होंने बंबई, अहमदाबाद, बिहार, केरल सहित पूरे देश में घूम-घूम कर भाषण दिया। हर जगह वामपंथी नेताओं और संगठनों ने उनका स्वागत किया। लेकिन राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष की शुभकामनाओं के साथ सरकार उनके वामपंथी राजनीतिक रुख से घबड़ा गई थी। डॉ. किचलू ने विश्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलनों का समर्थन कर तमाम जनतांत्रिक ताकतों की एकजुटता पर बल दिया। उन्होंने अमृतसर और पंजाब में अमेरिका और पाकिस्तान के सैनिक गठजोड़ की निंदा की। उन्होंने दुनिया को चेताया कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो यह दुनिया नष्ट हो जायेगी। उन्होंने 30 दिसम्बर 1954 को मद्रास में 'शांति और एशियाई भाईचारा' सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए बड़ा ही प्रभावशाली व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा -''एक ऐसा आंदोलन छेडऩा है जिसमें पार्टियों की रोक और मतभेद बह जाए, एक ऐसा आंदोलन जिसमें हमारे महान् राष्ट्रीय आंदोलन की भावना हो, जो हमारे पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता हो, जो एशिया और विश्व में शांति स्थापित करना चाहता हो।''14 अगला भारतीय शांति सम्मेलन 15 नवंबर 1956 को कलकत्ता में हुआ। उसके अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि यह नाजुक समय है। दुनिया युद्ध के कगार पर है। एशिया और अफ्रीका के लिए ही नहीं पूरी मानवता के लिए यह समय एक चुनौती है। उस समय फ्रांस मिस्र में अनाधिकार हस्तक्षेप कर रहा था।
जब 1957 में केरल में नंबूदरीपाद के नेतृत्व में पहली साम्यवादी सरकार बनी तो दिल्ली में आयोजित विजय समारोह में डॉ. किचलू को आदर सहित आमंत्रित किया गया। उन्होंने प्रगतिशील शक्तियों के विजय का स्वागत किया था और अपनी शुभकामनाएँ दी थी। फिर वे कोलंबों में आयोजित विश्व शांति सम्मेलन में उपाध्यक्ष चुने गये। 1958 में स्टॉकहोम में हुए विश्व निशस्त्रीकरण सम्मेलन में भी वे अध्यक्ष मंडल के सदस्य थे। उन्होंने आखिरी दम तक साम्राज्यवाद विरोध और विश्व शांति के लिये कार्य किया। मृत्यु के पहले महात्मा गांधी का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका था। उस समय डॉ. किचलू से अंतिम मुलाकात के वक्त उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त की थी। यदि हमारे पास कांग्रेस में डॉ. किचलू की तरह कुछ और बलिदानी आत्माएं होती तो गाड़ी पटरी पर आ सकती थी। यह सुनकर डॉ. किचलू की आँखें आँसुओं से तर हो गई थीं। मुस्लिम लीग और कांग्रेस, तिलक और गांधी, स्वराज और साम्राज्यवाद विरोध, सुभाषचंद्र बोस और वामपंथ से विश्व शांति आंदोलन तक के प्रचलित रास्तों के बीच डॉ. किचलू ने अपने लिए एक सर्वथा मौलिक डगर तलाश की थी। यही मौलिकता ही उन्हें भारतीय जननायकों में अप्रतिम बनाती है। 9 अक्टूबर 1963 को इस महान योद्धा का इंतकाल हुआ और स्वाधीनता आंदोलन की एक बेचैन आत्मा हमेशा के लिए शांत हो गयी।
संदर्भ
1.     सैफुद्दीन किचलू- ले. तौफीक किचलू - पृ. 13
2.     वही - पृ. 14
3.     मेरी रामकहानी - पं. नेहरू - पृ. 70
4.     सैफुद्दीन किचलू - पृ. 19
5.     मेरी रामकहानी - पृ. 130
6.    नवजागरणकालीन पत्रकारिता और मतवाला (2) कर्मेन्दु शिशिर - पृ. 22
7.     सैफुद्दीन किचलू - पृ.  31
8.     वही - पृ. 28
9.     नवजागरणकालीन पत्रकारिता और मतवाला (2) - पृ. 145
10.     सैफुद्दीन किचलू - पृ. 63
11.     वही - पृ. 73
12.     वही - पृ. 77
13.     वही - पृ. 88
14.     वही - पृ. 96


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