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अक्टूबर 2015

धरती के ईश्वर की कहानियां

जितेन्द्र भाटिया

इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां

     
क्या आप ईश्वर में यकीन रखते हैं? हां!...नहीं!!...शायद!!!....पता नहीं!!!!....इस श्रृंखला के मिजाज़ को देखते हुए मेरा सवाल आपको बेहद अप्रत्याशित या चौंका देने वाला लग सकता है। चलिए इस प्रश्न की पुनर्संरचना करते हुए पहला सवाल यदि यह रखा जाए कि क्या इस धरती पर जीवन या जीवन-शक्ति का वास है, तो आप सब एक स्वर में कहेंगे कि यह भी भला पूछने की बात है; अपने भीतर, अपनी हर सांस में और बाहर जहां तक नज़र जाती है, हर ओर हम इस सर्वव्यापी जीवन-शक्ति और इसकी आपाधापी को महसूस करते हैं। यही तो हमारे समूचे निजी और सामाजिक जीवन का सार-तत्व है। इस संसार की हर जीवित वस्तु में, चाहे वह वनस्पति हो या पशु-जानवर अथवा कोई छोटे-से-छोटा महीन कीड़ा--इन सबमें तीन गुण सार्वजनिक रूप से, बिना किसी अपवाद के, पाये जाते हैं। और वे गुण हैं
एक-जन्म से मृत्यु तक फैला इनका सीमित जीवनकाल,  दो-प्रजनन द्वारा इनकी नए जीवन को जन्म देकर  अपनी निरंतरता बनाए रखने की अद्भुत क्षमता और तीन-अपने जीवनकाल के दौरान जल, वायु अथवा धरती के तत्वों-यौगिकों, विशेष रूप से ऑक्सीजन, कार्बन और जल से अपना पोषण करना।
जीवन के इन सार्वजनिक गुणों को समझ चुकने के बाद हमारा अगला सवाल यह होगा कि इस धरती का सारा जीवन क्या किसी केंद्रीय जीवन-शक्ति का करोड़ों हिस्सों में बंटा हुआ स्वरूप है, या कि एक जीवन का अस्तित्व दूसरे जीवन से पूरी तरह स्वतंत्र है? इस सवाल के उत्तर में भी मतभेद की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि जवाब की तलाश में आप चाहे आध्यात्म या धर्म की ओर मुड़ें या फिर विज्ञान का रुख लें, सबका उत्तर कमोबेश यही होगा कि जीवन के ये लाखों स्वरूप किसी केंद्रीय बीज-पूर्वज से लाखों वर्षों के विकास के बाद अस्तित्व में आए हैं। वैचारिक अभिमत, विज्ञान, धार्मिक अवधारणाएं और डारविन का सिद्धांत, सबके अनुसार पृथ्वी पर जीवन का उद्भव कई करोड़ साल पहले किसी केंद्रीय शक्ति और उसके इर्दगिर्द कुछ सकारात्मक स्थितियों के सामंजस्य से हुआ। धर्मिक विश्वास कहता है कि यह कार्रवाई ईश्वर ने की। ग्रीक मिथक के अनुसार इरेबस ने सबसे पहले इस प्रकाशवान शक्ति को जन्म दिया। बाइबल और कुरान के अनुसार ईश्वर ने इसे छह दिन में बनाया। लेकिन यहां भी ध्यान योग्य यह है कि कुरान में ईश्वर का एक दिन या 'यौउम' पचास हज़ार वर्षों के बराबर माना गया है। कुरान में यह भी कहा गया है कि ईश्वर की रचना का यह कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है, बल्कि हर नए शिशु के जन्म (या यह समझें कि हर जीवन के सूत्रपात) को ईश्वर के इस निरंतर रचनाकार्य का ही एक हिस्सा मान सकते हैं। बाइबिल की धारणा भी इससे मिलती जुलती है, जिसमें ईश्वर ने समूची सृष्टि बना चुकने के बाद अंतत: मनुष्य में अपनी स्वयं की छवि आंकने की कोशिश की। और हिंदू आध्यात्म तो 'अहम् ब्रह्मास्मि' मूलमंत्र के अनुसार हर जीव की आत्मा को ईश्वर का ही एक हिस्सा मानता है। चार्ल्स डारविन ने डेढ़ सौ वर्ष पहले अपने 'वैश्विक बीज-पूर्वज' सिद्धांत को प्रतिपादित किया था--जिसके अनुसार यह बीज-पूर्वज ही पृथ्वी के समूचे जीवन का सृजक कहा जा सकता है। वैज्ञानिकों ने अब इस सिद्धांत की पुष्टि करते हुए कहा है कि दुनिया में जीवन की उत्पत्ति एक इकलौती कोशिका से हुई, जिसने आगे चलकर बहुकोशिकाओं वाले जीवों और वनस्पतियों को जन्म दिया। तो आप देखेंगे कि संसार में जीवन की उत्पत्ति को लेकर आध्यात्म और विज्ञान के बीच सिर्फ कुछ शब्दों, परिभाषाओं और मान्यताओं का फर्क है- लेकिन उन सबका मूल अभिप्राय और निचोड़ लगभग एक जैसा है।  जीवन के जिस सर्वव्यापी रूप को हम इस पृथ्वी पर हर ओर देखते हैं, हम स्वयं भी उसी का एक हिस्सा हैं। और लाखों वर्षों से चले आ रहे इस खेल की शुरुआत  को हम किसी विलक्षण संयोग की वैज्ञानिक संज्ञा दें या कि इसे ईश्वर का कारनामा या उसका प्रकट रूप मानें, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। जीवन का यह जीता-जागता और मूर्त स्वरूप हमारे भीतर भी है और बाहर भी। 'प्रकृति' की जिस संज्ञा में हम सारे जीवन के साथ-साथ इसे पोषण करने वाली धरती, जल और आकाश को समेटते हैं, वही एक तरह से हमारी सृष्टा, हमारी जननी, हमारे समूचे अस्तित्व का उद्गम बिंदु है। यदि हम ईश्वर या किसी केंद्रीय शक्ति/जीवनदायिनी ऊर्जा के अस्तित्व में यकीन करते हैं तो यह प्रकृति ही उसका सबसे प्रत्यक्ष, मूर्त प्रमाण और उसका सबसे ग्राह्य और आसानी से समझ में आ सकने वाला पर्याय भी है। उसी पर हमारा जीवन, हमारा समूचा वजूद टिका है, उसके बगैर हमारा एक सांस ले पाना भी असंभव है। लेकिन वादों, धर्मों, देवताओं, मूर्तियों, जाति संस्कारों और प्रतीक चिन्हों के अमूर्त संसार में हम अपने इस सबसे सहज, सबसे अविवादित और हर जगह दिखाई देने वाले सर्वव्यापी ईश्वर और इसके संविधान को कितना स्थान देते हैं ? यह भी एक विचित्र दुरभिसंधि है कि जो हमारे बिल्कुल सामने है, वही हमें सबसे मुश्किल से दिखाई देता है। सुदर्शन फ़ाकिर का एक मारक शेर  है -
                      सामने है जो उसे लोग बुरा कहते  हैं
                      जिसको देखा भी नहीं, उसको खुदा कहते हैं
वृक्ष की जिस डाल पर हम बैठे हैं, उसी को काटने की दुर्बुद्धि हमारी स्वार्थपरक सभ्यता लगातार हमें देती रही है। मानव जाति का इतिहास जहां एक ओर प्रकृति के निर्जीव तत्वों--पानी, पहाड़, आकाश, ज़मीन और इनके मिले-जुले प्रभाव से आने वाली विपदाओं पर मनुष्य की विजय का इतिहास है, वहीं दूसरी ओर यह पराक्रम-गाथा प्राकृतिक तत्वों तथा इन तत्वों पर निर्भर वनस्पतियों और जीवों के दमन और कई अर्थों में उनके सर्वनाश की दर्दनाक यात्रा भी है। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में कई विकासशील देशों में तकनीकी विकास के इस रास्ते को लेकर कई प्रश्नचिन्ह उठाए गए हैं। भविष्यवादियों का कहना है कि पर्यावरण और इसके संतुलन की परवाह किए, किया गया विकास कालांतर में इस ग्रह के समूचे अस्तित्व को ही संकट में डाल सकता है। बहुत सारे लोग विकास के इस बदहवास रास्ते में स्थिरता की ज़रूरत पर ज़ोर देने लगे हैं। जिस गति से हम अपने जंगलों को काट रहे हैं, जिस तादाद में आधुनिक स्वचालित मशीनों  द्वारा समुद्र से मछलियां उठाकर समुद्रों को खाली किया जा रहा हैं, आधुनिक रसायनों और जले हुए ईंधनों का धुंआ जिस तेज़ी से हमारे वातावरण और उसके चारों तरफ  फैले 'स्ट्रैटोस्फीयर' को प्रदूषित कर रहा है, जिस बदहवासी में अपनी खतरनाक टेक्नॉलॉजी द्वारा प्रदेशों की जलवायु और वहां के तापमान में अपरिवर्तनीय बदलाव ला रहे हैं और जिस भयावह ढंग से दुनिया में स्वच्छ जल और पीने के पानी की कमी हो रही है, उसे देखते हुए भविष्य में ईश्वर द्वारा बनायी गई इस दुनिया की कोई आशाजनक तस्वीर हमारे सामने नहीं उभरती। विकास की इस अंधी दौड़ में हम प्रकृति या कि इस प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले ईश्वर की जो घोर अवहेलना कर रहे हैं, उसके दुष्परिणाम एक दिन हमें ही नहीं हमारी आने वाली संतानों को भी भुगतने होंगे।
पर्यावरण की इस गंभीर जवाबदेही पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। आज पूरे विश्व में इन सवालों को बेहद गंभीरता से उठाया जा रहा हैै। योरोप के अधिकांश देशों में जल, हवा  और भूमि के प्रदूषण को लेकर सख्त नियम बनाए जा चुके हैं, जिनका उल्लंघन  घनघोर रूप से दंडनीय है। यही स्थिति सिंगापुर, अमरीका और बहुत से अन्य देशों की है। वे अपने जंगलों और वहां रहने वाले जानवरों और पक्षियों के बारे में भी हमसे कहीं अधिक सजग और जवाबदेह हैं। सीमित जनसंख्या के चलते वहां पर्यावरण के प्रयासों को कार्यान्वित करना अपेक्षाकृत आसान भी है। हमारे देश में स्थितियां इसके बिल्कुल उलट हैं। भारी जनसंख्या और गरीबी के चलते किसी भी नियम को सख्ती से लागू करने में यहां अड़चनें आती हैं। यूं भी आज की राजनीतिक सत्ता में अधिकांश नियम शहरी और आभिजात्य वर्गों की ज़रूरतों को सुरक्षित रखने के लिए बनाए जाते हैं, उससे बाहर एक बड़े अनुपस्थित वर्ग को 'प्रॉक्सी' के तौर पर इन नियमों का  समूचा बोझ उठाना होता है। धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक ढांचे के भीतर भी संकुचित धर्म-विशेष मान्यताओं को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
गोमांस पर प्रतिबंध जारी करना, सृजनात्मकता को प्रोत्साहन देने की जगह असुविधाजनक प्रगतिशील विचारों पर प्रतिबंध लगाना, अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक ताकतों के आगे घुटने टेक देना और धर्म के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करना - ये सब जब किसी भी धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक सरकार की पहली प्राथमिकताएं बनती हैं, तो चिंता होना स्वाभाविक है। लेकिन इससे आगे दीर्घकालीन समय में हमारी गहरी चिंताएं इस बात को लेकर भी है कि हमारे शहरों की हवा धुंआ फेंकते वाहनों और प्रदूषण फैलाते कारखानों से बेतरह प्रदूषित होती जा रही है, देश का एक बड़ा हिस्सा वर्षा के अभाव में दुर्भिक्ष या इससे भी बदतर हालात देख रहा है, औद्योगिक योजनाओं या खदानों के लिए बदहवासी में जंगलों का सफाया किया जा रहा है, जीवन दायिनी नदियों के पानी को 'विकास' के नाम पर खींचा या मोड़ा जा रहा है और सदियों से हमें दो जून की रोटी खिलाने वाला किसान अपने अन्न-स्रोत खेत को छोड़कर शहर में मजदूरी करने या फिर ज़हर खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त करने पर विवश हो रहा है। अपने आर्थिक धर्मगुरुओं या किसी अमूर्त, धर्म सापेक्ष ईश्वर और इसके ठेकेदारों द्वारा आश्वासित किसी लुभावने शाब्दिक स्वर्ग या गुमगश्ता जन्नत की तलाश में हम प्रकृति के जिस सर्वव्यापी दुनियावी ईश्वर और उसके शाश्वत संविधान से विमुख हो रहे हैं वह आज हमारी चिंता का बड़ा और अत्यंत गंभीर कारण है।
यदि धार्मिक शब्दावली में बात की जाए तो हमारे इस पार्थिव ईश्वर का मंदिर वहां तक फैला है, जहां  हमारी नज़र जाती है और इससे आगे वहां तक भी जहां हमारी नज़र नहीं जाती। इस ईश्वर के दो जड़ और दो जीवित वाहन हैं, जिनके बगैर न यह ईश्वर रह सकता है और न हम। और ये चार वाहन - वायु, जल, जंगल और कृषि उत्पाद। ईश्वर के होने या न होने को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन धरती में प्राण फूंकने वाले इन संवाहकों  को नकारना मुश्किल होगा। हमारी इस बार की कड़ी प्रकृति के इन्ही अलौकिक संवाहकों के कुछ बेतरतीब लेकिन अनिवार्य समसामयिक सवालों को समर्पित है।


हमारे अधिकांश शहरों की हवा दुनिया के सबसे विषाक्त मानदंडों से भी बदतर है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के सबसे विषाक्त 20 शहरों में से 13 हमारे देश में हैं। दिल्ली के सिर पर तो इस देश का ही नहीं, पूरी दुनिया में धुएं, फेफड़ों में जमा होने वाले कार्बन कणों और विषाक्त कार्बन मोनोऑक्साइड की राजधानी का भी खिताब है। देश भर में हर साल 43 लाख व्यक्ति वायु प्रदूषण से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यू एच ओ की 2014 मई में जारी की गयी रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारे देश के अधिकांश शहरों की प्रदूषित हवा सांस लेने योग्य नहीं है। इसके अनुसार सर्दियों में दिल्ली की विषाक्त हवा में पूरे दिन सांस लेना 20 सिगरेटें फूंककर पीने जितना ही हानिकारक है। ''देवियो और सज्जनों, क्या आप कृपया कुछ  देर के लिए सांस लेना मुल्तवी कर सकते हैं?'' शहरों के साधन सम्पन्न नागरिक, जिनकी गाडिय़ों का 'एग्ज़ॉस्ट पाइप' ही इस प्रदूषण के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं, अब शहरों में सुरक्षित हवा के चेम्बर तैयार करने में जुट गए हैं और इसी के चलते बाज़ारों में महंगे दामों पर 'एयर प्योरिफायर' बिकने लगे हैं, जिनसे घरों के कमरों की हवा शुद्ध की जा सकती है। शहर की हवा की, शहर चलाने वाले जानें!  लेकिन दिल्ली के अपोलो अस्पताल में श्वांस उपचार विशेषज्ञ अवधेश बंसल कहते हैं कि एयर प्योरिफायर उपकरण से उन्होंने आज तक किसी भी स्वस्थ व्यक्ति लाभ पाते नहीं देखा है। इनका सीमित प्रयोग सिर्फ  उन लोगों के लिए उपयोगी है जिन्हें दमे या श्वांस की शिकायत है। फिर भी देश में दमे और एलर्जी के शिकार हज़ारों मरीज़ों के साथ-साथ कई दूसरे स्वस्थ लोग भी आजकल बंद कमरों में नकली, साफ हवा तैयार करने वाले इन उपकरणों की ओर खिंचे चले आ रहे हैं। गोकि इन उपकरणों के निर्माताओं और उनके उपभोक्ताओं की शहर की खुली हवा का स्तर सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं होगी। बल्कि ये सारी कंपनियां (फिलिप्स, शार्प, केंट, यूरेका फोर्ब्स आदि) तो अलिखित रूप से यही चाहेंगी कि शहर में वायु प्रदूषण बढ़े, ताकि इन उपकरणों की बिक्री उन्हें अधिकाधिक मुनाफा दे सके; कुछ उसी अंदाज़ में जिसमें हम एक कोल्ड ड्रिंक कम्पनी के विज्ञापन की सुर्खियों का स्मरण कर चुके हैं कि  -- जी चाहता है प्यास लगे!

दुखद यह है कि शहरों पर चलने वाले हज़ारों वाहन बिना किसी रोक-टोक के गंदे डीज़ल और कभी-कभी डीज़ल-केरोसीन के मिश्रण का ज़हरीला काला धुआं आम नागरिक के फेफड़ों में धकेल रही हैं और इन्हें रोकने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। चीन और योरोप के अधिकांश शहरों की सड़कों पर साइकिल सवारों के लिए अलग सुरक्षित गलियां या पट्टियां बनी हुई मिलेंगी। हमारे यहां अव्वल तो फुटपाथ होगा ही नहीं और यदि होगा भी तो वह सदियों पहले दुकानों , रेहड़ी वालों और अतिक्रमणवादियों की नज़र चढ़ चुका होगा। सड़कों पर पैदल चलना अब खतरे से खाली नहीं रहा और साइकिलों अथवा साइकिल-रिक्शाओं जैसे प्रदूषण रहित वाहनों को हम बहुत पहले ही तिलांजलि दे चुके हैं। बल्कि 2013 में तो कोलकाता पुलिस ने तृणमूल सरकार के कहने पर सभी मुख्य सड़कों पर हाथ-ठेलों के साथ-साथ साइकिलों की सवारी पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में केंद्रीय सरकार के विरोध के बाद इसे हटाया गया।
  2013 में सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल 'डाउन टु अर्थ' की संपादिका सुनीता नारायण दिल्ली की सड़क पर साइकिल चलाने की अपनी आपबीती का बयान यूं करती हैं-
यह संपादकीय मैं अस्पताल के बिस्तर से लिख रही हूं। मैं सड़क पर साइकिल चला रही थी, जब तेज़ी से आती कार ने मुझे टक्कर मारी और मेरी हड्डियां तोड़ डाली। कार से टक्कर मारने वाला मुझे सड़क पर लहूलुहान छोड़कर भाग निकला। हमारे देश के किसी भी शहर में हर बार यही होता है, जब हम पैदल और साइकिल सवारों की सुरक्षा का ख्याल किए बगैर गाड़ी चलाते हैं। ये सब अदृश्य राहगीर हैं, जो  बिना कुछ भी किए या अक्सर सड़क पार करने जैसी सामान्य प्रक्रिया के दौरान मार गिराए जाते हैं। मैं इनसे कहीं खुशकिस्मत थी। दो कारें रुकीं, अजनबियों ने मेरी मदद की और मुझे अस्पताल पहुंचाया। मुझे तुरंत उपचार मिला और बेशक कुछ समय बाद ही मैं बिल्कुल ठीक हो जाऊंगी। निस्संदेह में उन सारे अजनबियों और ऐम्स 'ट्रॉमा सेंटर' के उन तमाम कुशल डॉक्टरों की शुक्रगुज़ार हूं, जिन्होंने मुझे ज़िंदगी बख्शी। 
लेकिन यह हम सब की सामूहिक लड़ाई है। हमारी पैदल चलने और साइकिल चलाने की जगह को छीना नहीं जा सकता। मेरी दुर्घटना के बाद मेरे सारे रिश्तेदारों और मित्रों ने मुझे दिल्ली की सड़क पर साइकिल चलाने की नादानी के लिए कोसा। वे ठीक कहते हैं। शहर की इन सड़कों को हमने कारों के लिए बनाया है। सड़कों पर उन्हीं का राज है। यहां साइकिलों और पैदल चलने वालों के लिए अलग रास्ते नहीं हैं और जहां हैं भी, वहां या तो बेहद गंदे हैं या फिर वहां लोगों ने गाडिय़ां पार्क कर रखी हैं। सड़कें कारों के लिए हैं। बाकी किसी का यहां कोई वजूद ही नहीं है।
लेकिन सड़क पर पैदल या साइकिल से चलने की कठिनाई सिर्फ  खराब व्यवस्था की वजह से नहीं है। वह इस मानसिक सोच का भी परिणाम है कि कार वाले रुतबेदार हैं और सड़क उनके बाप की है।  इसके मुकाबिल पैदल या साइकिल पर सवार व्यक्ति गरीब, अभागा, उपेक्षा का पात्र और वहां से हटा दिए जाने योग्य है।
इस सोच को बदलना होगा। जैसा कि मैं बार-बार कह चुकी हूं, भविष्य में हमारे पास यातायात के साधनों का पुनर्अविष्कार करने के सिवाए कोई चारा नहीं है। इस हफ्ते दिल्ली का प्रदूषित कोहरा अपने चरम पर पहुंच गया है। पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि हवा के प्रदूषित तत्वों से कैंसर फैलता है। हमें मानना होगा कि यह प्रदूषण किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह हमें खत्म कर रहा है। लेकिन यदि हम वायु प्रदूषण रोकने के बारे में सचमुच चिंतित हैं तो हमें कारों की संख्या पर रोक लगाने के बारे में सोचना होगा। हमें समझना होगा कि हमें कारों को नहीं, जीते-जीवित स्वस्थ लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना है। 


पानी को लेकर एक लंबी बातचीत हम पहले कर चुके हैं। लेकिन फिर भी इसमें बहुत कुछ कहना बाकी है।
विश्वस्त आंकड़ों के अनुसार 1911 और 2014 के लगभग सौ वर्षों के फासले में हम देश की 50 प्रतिशत झीलों और पानी के सरोवरों को समाप्त कर चुके हैं और यह सिलसिला आज भी 2 से 3 प्रतिशत सालाना क्षति के साथ जारी है। विज्ञान बताता है कि प्रकृति के खिलाफ  छेड़ी गयी यह लड़ाई न सिर्फ अकाल उपजाती है, बल्कि रह-रहकर शहरी इलाकों में आने वाली बाढ़ का मूल कारण भी यही है। बरसात में  अतिवृष्टि से आयी बाढ़ का असली कारण भी नदियों के पानी का अवरुद्ध किया जाना और जलाशयों का नष्ट किया जाना है। अभी हाल ही के समय में हम  मुम्बई, उत्तराखंड और श्रीनगर में आई बाढ़ों से हुए विनाश का नज़ारा देख चुके है।
एक ज़माना था जब हमारे अधिकांश शहरों में छोटी-छोटी नदियां थी, जिनसे यहां जल की आपूर्ति होती थी। शहरी विकास और जनसंख्या के विस्फोट ने इन नदियों को गटर या गंदे नालों में तब्दील कर दिया है। कई तो पूरी तरह अवरुद्ध हो चुकी हैं। जम्मू में बहलोल नाला एक समय तवी नदी की ही एक शाखा थी और इससे पुराने जम्मू शहर को पीने का जल मिलता था। म्यूनिसिपल और औद्योगिक कचरा फेंके जाने के बाद से यह अब गंदा नाला भर रह गया है। दिल्ली का नजफगढ़ नाला किसी समय नजफगढ़ झील से जुड़ा था और इसे साहिबी नदी कहा जाता था। आज गुडग़ांव के सारे गटर इस नाले में खुलते हैं। जयपुर में आमेर की पहाडिय़ों से निकलने वाली द्रव्यवति नदी  का पानी पहले सिंचाई के काम आता था। 1980 के बाद से बिल्डरों ने इसकी ज़मीन हड़पकर कॉलोनी और उद्योग बैठा लिए हैं। अब इस अमनी शाका नाले से इन अनधिकृत लोगों को हटाने की लड़ाई हाईकोर्ट में चल रही है। कोलकाता का टॉली नाला हुगली नदी से निकलकर बंगाल की खाड़ी तक जाता था और इसे आदि गंगा नदी नाम से जाना जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़माने में यहां आवागमन के लिए नौकाएं चलती थी। आज यह एक बदबूदार नाला भर रह गया है जहां पूरे शहर का कचरा फेंका जाता है। इसकी लंबाई आधी रह गयी है और अब रही सही कसर मेट्रो रेल ने इसमें अपने स्तंभ गाढ़कर पूरी कर दी है। मुम्बई की मीठी नदी के पूरी तरह अवरुद्ध होने और इसके कारण कुछ वर्ष पहले आयी भयानक बाढ़ का किस्सा सभी को मालूम है। गंगा की शाखाओं वरुणा और असी से ही वाराणसी को अपना नाम मिला था। आज ये दोनों गंदे नाले पूरे शहर का कचरा ढोते हैं और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तक ने इन्हे स्थानीय नालों की संज्ञा दे दी है।  
 नदी-नालों से आगे चलें तो हमारी नदियों के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं। नदियों के नाम पर होने वाली राजनीतिक जुमलेबाज़ी को यदि दर-किनार कर दें तो हमें मानना होगा कि अधिकांश नदियां आज स्वच्छ पानी का वितरण करने की जगह कचरे और मल के प्रवाह का साधन बन चुकी हैं। बहुत कम लोगों को याद होगा कि राजीव गांधी ने 1986 में गंगा एक्शन प्लान का उद्घाटन करते हुए कहा था कि हम गंगा के पानी को फिर से पवित्र बनाने का संकल्प करते हैं। इसके 32 वर्ष के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी ने गंगा को स्वच्छ बनाने का वही थोथा वादा फिर से दोहराया है, लेकिन गंगा और उसकी गंदगी जहां की तहां है। पत्रिका 'डाउन टु अर्थ' के शब्दों में हिमालय से बहने वाली पवित्र गंगा को बंगाल की खाड़ी तक आते-आते हम उसे एक बार नहीं, कई-कई बार मार चुके होते हैं! यह वही गंगा है जो शिवजी की जटाओं से निकली मानी जाती है और जिसकी कसम राजनीतिज्ञों से लेकर फिल्म वाले बहुत सुविधा के साथ समय-समय पर खाते हैं। बहुत पहले एक फिल्म भी बनी थी, जिसका शीर्षक था 'गंगा तेरा पानी अमृत'(!!)। राजनीतिज्ञों को कम-से-कम गंगा का स्मरण तो आता है। देश की दूसरी नदियों के हालात तो इससे भी बदतर हैं और कुछ को तो उद्योगों अथवा बांधों ने पूरी तरह हड़प कर खत्म ही कर दिया है। हिमालय में  'हाइड्रोपॉवर' या जल से विद्युत बनाने वाली परियोजनाओं सेे गंगा और उसकी उपनदियों का 80 प्रतिशत जल रोक लिया जाएगा। कचरे को बहाने के लिए नदियों में जल का रहना बेहद ज़रूरी है। दिल्ली शहर यमुना का अधिकांश जल खींचकर सिर्फ  गटर का पानी उसमें वापस छोड़ा जाता है। यही हाल पूर्व और दक्षिण में स्थित दूसरी नदियों का है।
नदी के इर्दगिर्द बसे उद्योग आज जल प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत बन चुके हैं। हमारे देश के उद्योगों का 70 प्रतिशत कचरा देर सबेर इन्हीं नदियों और जलाशयों में उतार दिया जाता है। जल का यह प्रदूषण हमारे देश की जल आपूर्ति पर सबसे बड़ा बोझ है। जैसा कि हम इस श्रृंखली की एक पिछली कड़ी में कह चुके हैं, अगले दस वर्षों में देश की तेज़ गति से बढ़ती जनसंख्या के लिए जल का गंभीर संकट उत्पन्न होने वाला है। इसके लिए आज, समय रहते जल स्रोतों का रखरखाव बेहद ज़रूरी हो जाता है। जलाशयों और नदियों के अलावा हमारी भूमस्थ जल की स्थिति भी बेहद संगीन है। हमारे देश में ज़मीन के भीतर का जल कुल 433 अरब क्यूबिक मीटर आंका गया है। हमारा देश दुनिया भर में सबसे अधिक जल ज़मीन से खींचता है और 2009 के आंकड़ों के अनुसार हम हर वर्ष कुल जल का 60 प्रतिशत या इससे भी अधिक अपने ट्यूबवेलों के द्वारा खींच लेते हैं। इतने अधिक जल की आपूर्ति न होने से ट्यूबवेल सूखने लगते हैं और खींचा गया पानी पीने योग्य भी नहीं रहता।
पिछली सरकार के विभिन्न स्वच्छता अभियानों की तर्ज़ पर मोदी सरकार ने इधर 'स्वच्छ भारत' का आकर्षक नारा दिया है। इसी के समानांतर हर स्कूल और पाठशाला में शौचालय बनाने का निर्णय भी लिया गया है। दोनों ही प्रयास अभिनंदनीय हैं, बशर्ते कि इनकी वास्तविक स्थिति सफाई करने वालों के साथ अखबार में फोटो खिंचवाने तक ही सीमित न रह जाए। यदि पिछली पंद्रह अगस्त के प्रधानमंत्री के भाषण पर यकीन करें तो पूरे देश में यह काम पूरा भी हो चुका है। लेकिन एक पत्रिका सवाल करती है कि बारह महीनों में हर महीने बनाए गए एक लाख शौचालयों में से कितने सचमुच काम कर रहे हैं और क्या वहां पानी और शौच की सुविधा है? रेडियो पर शौचालयों को प्रमोट करती विद्या बालन के विज्ञापन की पिछले कई वर्षों से चली आ रही हास्यास्पद बाई लाइन है-- 'जहां सोच वहां शौचालय!' समझे सोचे बगैर  'सोच' की तुक 'शौच' से जोडऩे वाली इस सरकारी बुद्धि की बलिहारी है! बहरहाल यदि चुनावी वादों पर यकीन करें तो मोदी सरकार ने 2019 तक सभी के लिए शौचालय की व्यवस्था की बात कही थी। इसके अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में प्रति दिन 179 शौचालय बनवाने थे। इनके बनाए जाने की वर्तमान रफ्तार 8 शौचालय प्रति दिन है। यानी उम्मीद रखी जानी चाहिए कि वर्ष 2085 तक यह काम अवश्य पूरा हो जाएगा!   


कहा जाता है कि जब कुछ नहीं था तब जंगल थे। हमारा समूचा जीवन इन्हीं सांस लेते, धड़कते जंगलों के अस्तित्व पर टिका है।
पिछली सदी के सातवें दशक में हमारे देश में बाकी चीज़ों के अलावा पर्यावरण से जुड़े दो अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलनों की शुरूआत हुई। एक के पहले बीज सुदूर स्विटज़रलैंड की विदेशी धरती पर फूटे थे, तो दूसरे का जन्म हिमालय के एक छोटे से गांव में हुआ था। लेकिन दोनों ही ने आने वाले दशकों में हमारी सोच को बेतरह प्रभावित और आंदोलित किया। पहला आंदोलन था प्रोजेक्ट टाइगर जिसने भारत के बाघों को बचाने का बीड़ा अपने सिर पर लिया। इसके लगभग समानांतर एक अन्य आंदोलन चुपचाप हिमालय की सुदूर पहाडिय़ों में जन्म ले रहा था। मार्च 1973 में इलाहाबाद की एक स्पोर्ट फैक्टरी के कुछ प्रतिनिधि गढ़वाल के गोपेश्वर गांव में पहुंचे, जहां उन्हें वन विभाग द्वारा सुपुर्द किए गए दस पेड़ों को काटने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। लेकिन जब वे अपने आरों के साथ आगे बढ़े तो गांव वालों ने न सिर्फ  उनका विरोध किया, बल्कि वे पेड़ों के गिर्द बांहें कसकर खड़े हो गए, ताकि ठेकेदार के आदमी उन्हें काट न सकें। ठेकेदार के मजदूरों को आखिरकार लौटना पड़ा। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद उसी ठेकेदार के आदमी गोपेश्वर से 80 किलोमीटर दूर रामपुर फाटा में अनुमति के कागज़ातों से लैस होकर पहुंचे तो गांव वाले फिर इकट्ठे हो गए और उन्होंने ढोल बजाते हुए उन लकड़हारों को वहां से खदेड़ दिया। तब तक इन घटनाओं की खबर सभी निकटवर्ती गांवों में भी फैल चुकी थी। इसकी परिणति 1974 की अप्रैल में हुई जब ठेकेदारों के लकड़हारे एक अन्य सुदूर गांव रेनी में पहुंचे। तब गांव के सारे पुरुष किसी निकटवर्ती गांव में एक अन्य धरने में व्यस्त थे। ठेकेदारों को लगा कि यही मौका है जब वे जल्दी से पेड़ काटकर भाग सकते हैं। लेकिन उन्हें गांव की स्त्रियों की शक्ति का अंदाज़ा नहीं था। पचास वर्ष की गौरा देवी ने गांव की सभी औरतों को इकठ्ठा किया और वे सभी एक-एक पेड़ से चिपककर खड़ी हो गयी, उन लकड़हारों को ललकारते हुए कि हिम्मत है तो हमारे शरीरों को लांघकर इन पेड़ों को काट लो! इस 'चिपको' आंदोलन की खबर दूर-दूर तक फैली। आईआईटी के मेरे सहपाठी और बाद में सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरमेंट के संस्थापक अनिल अग्रवाल तब हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार थे, जिन्होंने इन घटनाओं को मुखपृष्ठ पर स्थान दिया और इस तरह पूरे विश्व ने जाना कि पर्यावरण सिर्फ  आभिजात्य के चंद सोचने-समझने वाले बुद्धिजीवियों की बपौती नहीं, बल्कि इससे आगे वह गांव में रहने वाले गरीब तबके के लिए जीने-मरने की लड़ाई है। ये दो अलग-अलग किस्म के आंदोलन थे। एक में दुनिया का साधन संपन्न तबका अपने शौक के लिए जंगल के पार्कों में जानवरों को सुरक्षित देखना चाह रहा था, तो दूसरे में समाज का सबसे गरीब तबका अपने परिवेश और अपनी जीविका को बचाने के लिए जंगल नष्ट करने वालों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था।
प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा एक अलग तरह की प्रतिबद्धता और दूरदर्शिता की मांग करती है। यह एक तरह से पुश्तैनी धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे पास पहुंची है। इसमें तात्कालिक नफे और नुक्सान के लिए कोई जगह नहीं है। बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि हमें क्या मिला था और हम उसमें कितना इजाफा कर अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं।
1980 में हमारे देश में जंगल संरक्षण अधिनियम पारित हुआ। इसके अंतर्गत किसी भी जंगल को किसी भी गैर-जंगल उपयोग में परिवर्तित करने के लिए केंद्रीय सरकार की अनुमति आवश्यक समझी गयी। लेकिन इससे लालफीतेशाही और बढ़ गयी। आज किसी भी बांध, बिजलीघर या उद्योग शुरू करने के लिए जंगल, पर्यावरण, तटीय एवं वन प्राणी विभागों की अनुमति आवश्यक है। चिपको आंदोलन के नेता चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं कि जहां बड़े-बड़े बांध बिना स्थानीय लोगों की स्वीकृति जाने बगैर पास कर दिए जाते हैं, वहीं स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं पर आधारित मामूली  योजनाएं अक्सर बिना वजह रोक दी जाती हैं। ''सरकार को समझना होगा स्थानीय लोग अपने इलाके के पर्यावरण को दिल्ली में बैठे किसी आईएएस अफसर से कहीं बेहतर समझते हैं। हमारा जीवन ही इस पर निर्भर है और अक्सर जंगल की आग को रोकने के लिए हम अपनी जान की भी बाज़ी लगाते हुए नहीं हिचकते।''
एक अपवाद के रूप में पिछली एक कड़ी में हमने जनवरी 2014 में ओडि़सा के नियमगिरी प्रदेश में वेदांता द्वारा बॉक्साइट खदान बिठाए जाने के स्थानीय आदिवासियों द्वारा विरोध की कथा लिखी थी, जिसमें इन आदिवासियों के जनमत के आधार पर बॉक्साइट खदानें बिठाने का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया था। इस प्रोजेक्ट में राज्य सरकार की भी दिलचस्पी थी। नियमगिरी से ताज़ा खबर यह है कि वेदांता, जो इस खदान का बनाया जाना सुनिश्चित मानकर स्थानीय तौर पर एल्युमीनियम का स्मेल्टर कारखाना भी बिठा चुकी है, अब फिर से नियमगिरी या किसी अन्य उपयुक्त स्थल पर फिर से खदानें बिठाने की फिराक में है। कंपनी की विशाल धन-शक्ति और सरकार के अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रवैये के चलते आने वाले समय में ऐसा होना संभव भी है। 
अनुमान है कि पिछले 15 वर्षों में हमारे देश में 94 लाख हेक्टेयर जंगल साफ कर दिए गए हैं, जो अपने आप में एक अत्यंत भयावह स्थिति है। जंगल साफ  करने की अधिकांश योजनाओं में परोक्ष रूप से सरकार की सहमति रही है। इतिहास बताता है कि विकास के लाभ का फायदा जब तक स्थानीय सामान्य निवासियों तक नहीं पहुंचता, तब तक विकास का कोई मॉडल सफल नहीं हो सकता। सच यह है कि  जंगल के इर्दगिर्द और सदियों से रहने और उस पर निर्भर रहने वाले आदिवासी ही उसके सच्चे संरक्षक हो सकते हैं और उनकी साझेदारी के बगैर दिल्ली में स्थापित किसी भ्रष्ट रिमोट स्विच से जंगलों की सुरक्षा नहीं की जा सकती।
इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण मेक्सिको है, जहां के 70 प्रतिशत से भी अधिक के साढ़े छह करोड हेक्टेयर में फैले जंगल वहां की पैंतीस हज़ार स्थानीय और अंचलों में रहने वाली जातियों की देखरेख में फल-फूल रहे हैं। इनमें 500 से अधिक जातियां अपने लघु उद्योग चलाती हैं, लकड़ी का सामान और वन उत्पाद बेचती हैं। मेक्सिको में कुल लकड़ी की  80 प्रतिशत से अधिक खपत इन्हीं स्थानीय निवासियों द्वारा नियोजित जंगलों से आती है। इन सारी गतिविधियों में सरकार महज़ एक मध्यस्थ सहायक की भूमिका निभाती है।  
हमारे देश में इसका ठीक उलट है। उत्तर पूर्वी राज्यों के घने जंगल पारंपरिक रूप से स्थानीय निवासियों द्वारा संभाले जाते रहे हैं। अब नए कार्यक्रमों के तहत इन जंगलों का अधिकार स्थानीय सरकारों के हाथ में आ जाएगा, क्योंकि सरकार का मानना है कि स्थानीय निवासी इन जंगलों को संभालने में असमर्थ हैं। ऐसे में जंगल की संपदा और वन-जीवों की हत्या और चोरी अप्रत्याशित रूप से बढऩे लगी है और भारत इन जीवों के अंगों/खालों के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार का स्रोत केंद्र बनता जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश में, जहां लगभग चौबीस हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल नष्ट हो चुके हैं, वहां अब राज्य सरकार किसी भी जंगल को अपने अधिकार में ले सकती है और वन उपज पर भी स्थानीय निवासियों की जगह राज्य का नियंत्रण होगा। नागालैंड में संभावित तेल वाले पहाड़ी क्षेत्रों में ज़मीन के स्वामित्व संबंधी नियमों में परिवर्तन लाया जा रहा है, जिससे बाहर के निवेशकों के लिए वहां ज़मीन खरीदना संभव हो जाएगा। मणिपुर में प्रस्तावित 2014 नई भूमि उपयोग नीति एन एल यू पी के तहत प्रदेश का 78 प्रतिशत जंगली इलाका सरकार और संयुक्त वन प्रबंधन के नियंत्रण में आ जाएगा। मिज़ोरम और मेघालय में इससे मिलते जुलते नियम पहले ही लाए जा चुके हैं।
एनडीए और बीजेपी के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर के कंधों पर इस देश में प्रकृति-देवता का ईश्वर-तुल्य साम्राज्य स्थापित करने की जिम्मेदारी है। उन्होंने गद्दी संभालते ही कहा था कि वे 'अनुमतियों के मामले में अधिक पारदर्शिता और कार्यकुशलता लाना चाहते हैं, जिससे प्रोजेक्ट्स को 'फास्ट ट्रैक' पर रज़ामंदी दी जा सके और पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक प्रगति का काम भी तेज़ी से आगे बढ़े।' पर्यावरण मंत्री होने के नाते उनका पर्यावरण का नाम लेना लाजिमी था। लेकिन यह पूरी तरह साफ  था कि असली मुद्दा इन योजनाओं के लिए जंगलों की ज़मीन मुहैया करवाने का था। इसी वर्ष मुम्बई और देहरादून में हज़ारों लोगों ने एनडीए सरकार के स्थानीय निवासियों द्वारा अपने जंगलों को संभालने के अधिकारों को समाप्त करने के प्रस्ताव के विरोध में प्रदर्शन किए। सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरमेंट के अनुसार नई एनडीए सरकार ने 2014 के छह महीनों में ही लगभग 12000 हेक्टेयर जंगलों को अंतिम और अंतरिम योजनाओं के तहत स्थानांतरित करने की अनुमति दे दी है। इनके अलावा छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में 2000 हेक्टेयर बहुमूल्य वनप्रदेश को काटकर अडानी समूह द्वारा प्रस्तावित कोल माइनिंग प्रोजेक्ट और सारदाना झारखंड में 85000 हेक्टेयर में फैले शाल वनों को काटकर लोहे और मैंगनीज़ की खदाने पहले ही सिद्धांत रूप से अनुमति पा चुकी हैं। 
माक्र्सवादी नेता नीलोत्पल बसु के शब्दों में- ''चूंकि यह सरकार कॉरपोरेट जगत द्वारा प्रायोजित है, इसलिए अब यह बदले में उन्हें सस्ते मजदूर, सस्ती ज़मीन और सस्ते प्राकृतिक संसाधन दिला रही है!''
 डर यह है कि जंगलों की समाधियों पर उगते कांक्रीट के ये शहर भविष्य में कहीं जीत-जागते इंसानों को भी समाधि में न तब्दील कर दें। अब तो किसी नई गौरा देवी या किसी नए चंडी प्रसाद भट्ट का कोई व्यापक जन आंदोलन ही हमारे जंगलों को इन कांक्रीट के सौदागरों से बचा सकता है। 


देश का एक बड़ा हिस्सा इन दिनों सूखे और अकाल से जूझ रहा है और महाराष्ट्र/कर्नाटक के कई सक्षेत्रों में तो यह अकाल का लगातार तीसरा साल है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों से आत्महत्याओं की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं आ रही हैं और विकास का शहरी मॉडल हर कदम पर हमारा मखौल उड़ा रहा है। हमें समझना होगा कि यह दुर्दशा महज़ मॉनसून के रूठ जाने का परिणाम नहीं है, बल्कि इसके लिए हमारी दशकों की कुव्यवस्था और प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबंधन  का लंबा सिलसिला जिम्मेदार है।  
इस वर्ष के आरंभ में असमय ओलों की बरसात और उसके बाद मानसून की असफलता से हमारे कृषक समाज पर सूखे और फसल की की बरबादी की दोहरी मार पड़ी है। महाराष्ट्र के बहुत से कपास उगाने वाले क्षेत्र पिछले कई वर्षों की तरह इस बार भी भयंकर अकाल की चपेट में हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कपास के मूल्य घट जाने से और कर्ज न चुका सकने की स्थिति में कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। कर्नाटक में गन्ने और चीनी के क्षेत्र में छायी अप्रत्याशित मंदी हज़ारों किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रही है, मानो सारी मिठास में किसी ने ज़हर घोल दिया हो। आलू की लागत से भी कम बाज़ार मूल्य से घबराकर पश्चिम बंगाल में भी कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हमारे कृषिप्रधान देश में कृषि के अलाभकारी और अनिश्चितता में घिरे होने की स्थिति हज़ारों की संख्या में किसानों को ज़मीन का मोह छोड़कर शहरों का रास्ता दिखा रही है। और भूमिहीन छुट्टे किसान तो इससे बहुत पहले ही या तो परिवार सहित शहर की गंदी बस्तियों का रुख कर चुके हैं, या फिर आत्महत्या पर परिवार को मिलने वाले एक लाख के मुआवज़े के लिए छत से लटककर या कीटनाशक की बोतल से अपनी जान गंवा चुके हैं। पत्रिका 'फ्रंटलाइन' ने कर्नाटक कृषि विभाग के हवाले से सूचना दी है कि कर्नाटक में पहली अप्रैल से 10 अगस्त के बीच 284 किसान हताशा में आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश किसान स्थानीय साहूकारों के कर्ज़दार थे। महाराष्ट्र का राजस्व विभाग बताता है कि महाराष्ट्र में पिछले छह महीनों में 1300 किसानों ने स्वयं अपनी जान ले ली। इनमें से अधिकांश भूमिहीन छोटे किसान थे जिनका परिवार शायद किसी मुआवज़े का भी हकदार नहीं होगा। उधर तेलांगना, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से भी लगातार किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं।
हम पहले भी मानसून पर कृषि की निर्भरता को कम करने के लिए जल संयोजन के महत्व पर बात कर चुके हैं। गरीब किसान की साल भर की फसल और उससे अर्जित जीविका का अधिकांश दारोमदार मानसून के दौरान कुल 100 घंटों की वर्षा पर टिका होता है। कारगर सिंचाई परियोजनाओं के अभाव में यह संकट भयावह रूप ले चुका है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र में इस साल 90 लाख व्यक्ति अकाल से प्रभावित हैं। चूंकि यहां अधिकांश फसल बरसात पर निर्भर है, इसलिए किसान यहां पारंपरिक रूप से  ज्वार, चना और मूंग उगाते हैं, जिनके लिए पानी की आवश्यकता सबसे कम होती है। इसके अलावा यहां कपास की खेती भी होती है। बाज़ार में कपास के दाम गिरने और फसल के बरबाद होने से बहुत से किसान, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन किसान हैं, आत्महत्या जैसा संगीन कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं। 2014 में भी बरसात की कमी रही, लेकिन इस साल ओलों से रबी की आधी से अधिक फसल नष्ट हो गयी और उसके बाद अब सूखे ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। मराठवाड़ा में पैठन के नज़दीक जयकवाडी बांध से एक नहर बनाने की योजना बनायी गई थी, लेकिन खुदाई का काम बीच में ही रोक दिया गया और अब उस परियोजना का सिर्फ एक बदसूरत खंडहर ही बाकी है। जालना के नज़दीक एक छोटे चेक-बांध के नज़दीक कई बोरवेल खोदे गए हैं, लेकिन इनका लाभ कृषि की जगह जालना में बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियों को मिला।  मराठवाड़ा में बोरवेल के लिए 150 फीट तक खोदने की अनुमति है, लेकिन यहां पानी की हताश तलाश में लोग 700 फीट तक पहुंच गए हैं, जिससे पूरे भूमिगत जल स्रोत के सदा के लिए नष्ट हो जाने का खतरा है। ये सब भयावह स्थितियां हैं।
मराठवाड़ा क्षेत्र में जिन खेतों के पास पानी की सुविधा है, वे कम पानी मांगने वाले ज्वार या चने की अपेक्षा गन्ना उगाना पसंद करते हैं, क्योंकि इसमें कहीं अधिक पैसा मिलता है। गन्ने की खेती बहुत सारे पानी की मांग करती है। मराठवाड़ा में दो लाख तीस हज़ार हेक्टेयर ज़मीन पर गन्ने की खेती होती है और यहां 61 चीनी कारखाने हैं, जिनके मालिकों की पहुंच ऊपर तक है और उनमें से कई तो स्वयं राजनीतिज्ञ भी हैं। लेकिन इस बार महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ना उगाने वाले छोटे किसानों के लिए पासा उलटा पड़ गया है। एक तरफ  पानी की कमी से फसल को नुकसान हुआ है तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चीनी के दाम गिर गए हैं और कारखानों के मालिक किसानों से गन्ना लेने के बाद उसका भुगतान करने में विलंब कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि किसानों को दबाना बहुत आसान है। सरकारें भी कारखाने के मालिकों के साथ हैं, क्योंकि उनमें से कई के साथ उनके राजनीतिक संबंध हैं। ऐसे में कई कर्ज़ में डूबे कई किसान के पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है। 
दृष्टव्य यह भी है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक के अंचलों में सैंकड़ों छोटे किसान अपनी जान ले रहे थे, तब  देश के प्रवासी प्रधानमंत्री के पदचिन्हों पर चलने वाले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फडऩवीस जापान की यात्रा पर थे और कर्नाटक के सिद्दरामैय्या श्रीलंका में। 'फ्रंटलाइन' में वी श्रीधर कर्नाटक की आत्महत्याओं के संदर्भ में लिखते हैं-- ''सबसे ध्यान खींचने वाली बात यह है कि कर्नाटक सरकार ही नहीं, प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी भी इन आत्महत्याओं की त्रासदी का कोई कारण ढूंढने के लिए तैयार नहीं हैं। संभवत: इसका सीधा संबंध इस बात से है कि सिद्दरामैया के मंत्रिमंडल के कई सदस्य और बीजेपी के कई भूतपूर्व मंत्री/विधायक उन चीनी कंपनियों के मालिक भी हैं, जिन्होंने इस साल पेराई के मौसम में ढीठता दिखाते हुए गन्ने के दाम देने में जानबूझकर देर की और जो आज भी किसानों के कई हज़ार करोड़ बकाया रुपए दबाए बैठे हैं हैं!''
दिल्ली में 'आप आदमी' की एक रैली के दौरान  किसान गजेंद्र सिंह ने पेड़ से लटककर अपनी जान दी थी। इस पर हरियाणा के कृषि मंत्री ओ पी धनकर की प्रतिक्रिया थी, ''आत्महत्या करने वाले किसान बुज़दिल और अपराधी होते हैं। हमें उनसे कोई सहानुभूति नहीं है!' ''
किसानों की आत्महत्याओं से जुड़े ये संदर्भ सीधे-सीधे आज के सत्ताधारी वर्ग को कठघरे में ला खड़ा करते हैं। कृषि की ये घोर अनिश्चितताएं आज हर प्रदेश में किसानों का मनोबल तोड़ रही हैं। किसी भी कृषि प्रधान देश में, जहां 80 प्रतिशत से अधिक छोटे किसान बसते हों, इससे बड़ी विकराल समस्या और क्या हो सकती हैै? लेकिन हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है यहां राजनीतिज्ञों की कोई जवाबदेही नहीं होती। वे सामूहिक हत्याओं से लेकर जालसाज़ियों, घोटालों से लेकर आर्थिक स्कैंडलों और सांप्रदायिक उन्मादों से लेकर भयानक दंगों तक हर जाल से किसी स्पाइडरमैन की तरह साफ-बेदाग छूट जाते हैं।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्द रमैय्या ने प्रदेश में आत्महत्याओं की जानकारी मिलने के बाद गंभीरता से कहा है कि वे इस साल अपना जन्मदिवस बेहद सादगी से मनाएंगे और इस साल दशहरे पर भी धूमधाम कुछ कम कर दी जाएगी। आखिरी समाचार मिलने तक मृत किसानों के बदहाल परिवार वाले इन सहानुभूतिपूर्ण उद्गारों से अपना पेट भरने की भरसक कोशिश कर रहे हैं।

   और अंत में
    वो बात उनको बहुत नागवार गुजऱी है....
   पुनर्पुनश्च

श्रृंखला की पिछली कड़ी में वर्णित नरेन्द्र दाभोलकर और कॉमरेड पानसरे की दिनदहाड़े हत्याओं का रक्त अभी सूखा भी नहीं था कि खबर मिली- रूढि़वादी अंधविश्वासों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले कर्नाटक के वयोवृद्ध विद्वान एम एम कलबुर्गी को उनकी स्वयं की दहलीज पर 'अज्ञात' हत्यारों ने फिर उसी अंदाज़ में सिर में गोली मारकर हत्या कर दी। ये कायर हत्यारे अब इतने अज्ञात भी नहीं रहे कि हम उनके चेहरों को पहचान भी न सकें। लेकिन फिर भी हमारी बहादुर पुलिस ने खोजबीन से पहले ही हत्यारों का कोई भी सुराग न मिलने की स्थिति ज़ाहिर कर दी है।  इस बात के भी पूरे आसार हैं कि हत्या पर सीबीआई भी अपनी पड़ताल की खानापूरी संपन्न करेगी और उसके बाद दाभोलकर और पानसरे की तरह कलबुर्गी की हत्या को भी इतिहास के पन्नों के सुपुर्द कर दिया जाएगा, पूरे राजकीय सम्मान के साथ! पिछले वर्ष कलबुर्गी ने जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अनंतमूर्ति को उद्धृत करते हुए मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त किए थे तो कई हिंदूवादी संस्थाओं ने उनका विरोध किया था और उनके विरुद्ध कई मुकदमे अदालतों में दर्ज़ किए गए थे। बजरंग दल के नेता भुवित शेट्टी ने कलबुर्गी की हत्या पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि 'कलबुर्गी तो गए, अब अगला नंबर के एस भगवान (कर्नाटक के एक अन्य विद्वान) का है!' लेकिन इतने आपत्तिजनक वक्तव्य के बावजूद पुलिस ने शेट्टी को हिरासत में लेने के बाद तुरंत रिहा कर दिया। एक अन्य बीजेपी नेता ने हत्या की निंदा तो की, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि प्रमाण मिले बगैर अति-हिंदूवादी तत्वों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा! उधर इंद्राणी मुखर्जी द्वारा अपनी बेटी की सनसनीखेज़ हत्या की 'कवरेज' में आकंठ डूबे टीवी चैनेलों के पास कलबुर्गी की हत्या से उठने वाले भयावह सवालों को छूने या इन पर चर्चा करने का भी समय नहीं था।
आज जिस असहिष्णु और धुवीकृत समाज में हम जी रहे हैं, उसमें दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के हत्यारों को पकड़ पाना अमिताभ बच्चन के 'डॉन' की तरह- मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है! लेकिन सिनेमा की उस काल्पनिक दुनिया में भी कम से कम डॉन को पकड़ पाने की एक ईमानदार कोशिश  दिखाई देती थी। यहां तो उस मनोबल को ढूंढना भी मुश्किल होगा। अंग्रेज़ी पत्र 'इकॉनॉमिक टाइम्स' अपने संपादकीय में लिखता है-- ''सवाल उठता है कि यदि यथेष्ट प्रमाण मिल भी जाएं कि इस कायराना हत्या में किसी हिंदूवादी शक्ति का हाथ था, तब भी क्या इसकी सही ढंग से खोजबीन कर मुजरिमों को सज़ा दी जा सकेगी?... यह संदेह इसलिए उठता है क्योंकि पिछले कुछ समय में हिंदूवादी आतंकी हमलों के हत्यारों में से शायद ही किसी अभियुक्त को सज़ा मिली होगी। 2006 और 2008 के मालेगांव विस्फोटों से लेकर समझौता एक्सप्रेस की बमबारी और उसी वर्ष हैदराबाद में मस्जिदों के विस्फोटों तक हर वारदात में मुकदमे सुस्त चाल और अनमने ढंग से घसीटे जा रहे हैं। इसी साल मालेगांव विस्फोटों में सरकारी वकील रोहिणी सालियान ने यह चिंताजनक तथ्य उजागर किया कि सरकारी खुफिया एजेंसी ने स्वयं उन्हें इस मामले में अभियुक्त के प्रति नर्म रवैया अपनाने का आदेश दिया था। ऐसे में यह सरकार क्या सचमुच इस नियम का पालन करने का माद्दा रखती है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता?''
हमें कलबुर्गी की हत्या के बाद बीजेपी नेताओं के चिंता से भरे रक्षात्मक बयानों को पढ़ते हुए शायर मंसूर उस्मानी का एक शेर याद आता है--

                            बारूद के इक ढेर पे बैठी हुई  दुनिया
                            शोलों से हिफ़ाज़त का हुनर पूछ रही है!


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