मुखपृष्ठ पिछले अंक साम्प्रदायिकता की चुनौती
अक्टूबर 2015

साम्प्रदायिकता की चुनौती

सुभाष गाताड़े

मसविदा
हिन्दुत्व की 'दूसरी वापसी' के बहाने चन्द बातें


बिलासपुर में धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की चुनौतियों पर आयोजित कार्यशाला में प्रस्तुत मसविदा आलेख, 13-14 जून 2015


''हमारे देश में धर्म के नाम पर कुछ इने गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए करोड़ों आदमियों की शक्ति का दुरूपयोग करते हैं। बुद्धि पर परदा डाल कर पहले ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना, और फिर धर्म, ईमान और आत्मा के नाम पर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना भिड़ाना। मूर्ख बेचारे धर्म की दुहाइयां देते और दीनदीन चिल्लाते हैं, अपने प्राणों की बाजियां खेलते हैं और थोड़े से अनियंत्रित और धूर्त आदमियों का आसन उंचा करते हैं तथा उन का बल बढ़ाते हैं। धर्म और ईमान के नाम पर किए जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिये साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिये।''
- गणेशशंकर विद्यार्थी, शहादत 25 मार्च 1931


                                                              भाग 1
1. हिन्दू पाकिस्तान की ओर ?
कुछ सवाल शायद ऐसे होते हैं जिनकी तरफ हमें बार बार लौटना पड़ता है। साम्प्रदायिकता की चुनौती और धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष का सवाल एक ऐसा ही सवाल है। इसे उठाने का फौरी अर्थात तात्कालिक संदर्भ हमारे सामने स्पष्ट है। प्रचारक मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर एक साल पूरा किए हैं। हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों की अगुआई में दक्षिणपंथी ताकतों को मिली इस बढ़त ने निश्चित ही धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है और यह सम्भावना बनी है कि भारत किसी अलसुबह 'हिन्दू पाकिस्तान /जिस खतरे की तरफ भारत के प्रथम प्रधानमंत्री इशारा करते थे / में रूपांतरित हो जाएगा। मालूम हो कि वह नेहरू ही थे जिन्होंने इस बात की भविष्यवाणी की थी कि एक बहुधर्मीय मुल्क में बहुमत की साम्प्रदायिकता अपने आप को राष्ट्रवाद के लबादे में पेश करती है और कभी राज्य पर कब्जा जमा सकती है।
आज हमारे सामने एक ऐसा भारत है /बकौल अचिन वनायक/ 'जिसका केन्द्र तीन अहम दायरों में - अर्थव्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र - दक्षिणपंथ की ओर निर्णायक रूप में मुड़े हैं।' दरअसल वह 1991 का ही साल था जब राव-मनमोहन सरकार ने आर्थिक नीति में 'दक्षिण की राह' पकड़ी थी। हम उन ऐतिहासिक बदलावों के 25 वें साल में प्रवेश कर रहे हैं। और क्या यह कहना उचित होगा कि आर्थिक नीतियों में ऐसे गहरे दक्षिणपंथी बदलाव ने ही शायद सत्ताधारी जमातों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में दक्षिणपंथी विचलन का रास्ता सुगम किया ताकि भारतीय राजनीति की पारम्पारिक लोकरंजकता से वह मुक्त हो सके।
निश्चित ही यह वक्त की मांग है कि हम सियासी स्थितियों में बदलावों को मद्देनज़र रखें, धर्मनिरपेक्ष एवं वाम खेमे के हाशिये पर जाने पर गौर करें और आगे के रास्ते पर गंभीर विचार विमर्श करें ताकि इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढा जा सके।
2. दक्षिण एशिया के आईने में मोदी आगमन
हालांकि भारतीयों के लिए केन्द्र में हिन्दुत्व दक्षिणपंथ का अपने बलबूते आगमन आज़ादी के बाद चली लोकतंत्र की यात्रा में अपवाद है, मगर हम अगर दक्षिण एशिया के इस हिस्से पर निगाह डालें तो कह सकते हैं कि 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में इस समूचे इलाके में जो पैटर्न उभर रहा है, भारत में सामने आए सियासी बदलाव उसी के अनुरूप ही हैं।
यह एक किस्म का विचित्र संयोग कहा जा सकता है कि जहां हम भारत की सरजमीं पर साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़त के बारे में लोकतंत्र के बहुसंख्यकवाद में रूपांतरण पर गौर कर रहे हैं, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियां कमोबेश एक जैसी दिखती हैं जब बहुसंख्यकवादी ताकतें - जो किसी खास धर्म या नस्ल से जुड़ी हुई हैं - उभार पर दिखती हैं। मायमार/बर्मा, बांगलादेश, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, आप किसी मुल्क का नाम लें और देखें कि किस तरह जनतांत्रिक ताकतें धीरे धीरे हाशिये पर की जा रही हैं और बहुसंख्यकवाद की आवाज़ सर उठा कर बोल रही है।
बहुत कम लोगों ने कभी इस बात की कल्पना की होगी कि अपने आप को बौद्ध - जिसे अहिंसा का पुजारी समझा जाता है - का अनुयायी बताने वाले लोग किसी अलसुबह अपने मुल्क में अल्पसंख्यकों की तबाही एवम उनके कत्लेआम को अंजाम देने में मुब्तिला मिलेंगे। मायमार की ताज़ी घटनाएं इसी कड़वी हकीकत की ताईद करती हैं, जिसे हम रोहिंग्या मुसलमानों की त्रासदी के रूप में भी देख रहे हैं, जिन्हें अपने मुल्क मायमार से खदेड़ा गया है और जो जहाजों पर सवार होकर समुद्र में ही किसी ठौर के इन्तज़ार के लिए अभिशप्त हैं। बमुश्किल से डेढ साल पहले ब्रिटेन के अग्रणी अख़बार 'गार्डियन' ने मायमार के विवादास्पद बौद्ध भिक्खु विराथु पर स्टोरी की थी, जिसे 'बर्मा का बिन लादेन' कहा जाता है। गार्डियन के बाद न्यूयॉर्क टाईम्स ने भी उस पर एक लम्बा आलेख उसी विराथु पर प्रकाशित किया था जिसे 'फेस आफ बुद्धिस्ट टेरर' अर्थात 'बौद्ध आतंक का चेहरा' घोषित किया था। विराथु - जिस मठ के मुखिया हैं - उसमें उसके 2,500 अनुयायी हैं, और वह इस वक्त समूचे मुल्क में आतंक का पर्याय बन चुका है, जिसके अन्तर्गत बौद्ध अतिवादी मुसलमानों पर हमले करते देखे जा सकते हैं। मायमार में सत्ता की बागडोर थामे सेना का ऐसी कार्रवाइयों के प्रति मौन समर्थन है। विडम्बना यही है कि सुश्री आंग सान सू ने भी ऐसी हिंसा के खिलाफ खुल कर पक्ष नहीं लिया है।
या आप श्रीलंका देख सकते हैं जहां पिछले ही साल 'बोण्डु बाला सेना' - जिसे बौद्ध भिक्खुओं ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजपक्षे के अप्रत्यक्ष समर्थन से शुरू किया, सूर्खियों में थी, जब उसने मुसलमानों पर संगठित हमलों को अंजाम दिया और सरकार मूकदर्शक बनी रही। दरअसल तमिल उग्रवाद के दमन के बाद सिंहली अतिवादी ताकतों ने - जिसमें बौद्ध भिक्खुओं की अच्छी खासी तादाद है - राजपक्षे सरकार के मूक समर्थन से ताकत पाते हुए 'नए दुश्मनों' को ढूंढने का सिलसिला भी तेज किया था। अगर वहां मुसलमान सिंहली उग्रवादियों के निशाने में सबसे उपर थे तो ईसाई और हिन्दू कोई खास पीछे नहीं थे। दो साल पहले डम्बुल्ला नामक स्थान पर बौद्ध भिक्खुओं की अगुआई में सिंहली उग्रवादियों ने इलाके में स्थित मस्जिदों, मंदिरों और चर्च पर यह कहते हुए हमला किया कि यह बौद्धों के लिए 'पवित्र स्थान' है और 'अन्य' लोगों को यहां पर प्रार्थना करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। और यह सब इसके बावजूद किया गया कि यह सभी प्रार्थनास्थल कई दशक पुराने थे और सरकार से विधिवत अनुमति लेकर बनाए गए थे। जैसा कि उम्मीद की जा सकती थी, पुलिस और सुरक्षा बल इस दौरान मूकदर्शक बने रहे।
या आप बांगलादेश को देखें या पड़ोसी पाकिस्तान को देखें जहां आप पाते हैं कि किस तरह इस्लामिस्ट ताकतें 'अन्य' लोगों की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। यह सही है कि सेक्युलर आन्दोलन की लम्बी परम्परा के चलते बांगलादेश में औपचारिक तौर पर स्थितियां काबू में दिखती हैं, मगर वहां जिस तरह तर्कशीलता के प्रचार में मुब्तिला ब्लॉगर्स को एक के बाद एक कट्टरपंथी इस्लामिस्टों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है, वह खतरे की घंटी बजाता प्रतीत होता है। अब पाकिस्तान तो इस मामले में चरम सीमा पर पहुंचा दिखता है जहां विभिन्न अतिवादी समूहों द्वारा 'अन्य' के खिलाफ - फिर चाहे शिया हों,अहमदिया हों, हजारा हों या हिन्दू हों - अंजाम दी जा रही हिंसक कार्रवाइयों ने उसे अन्त:स्फोट की कगार पर ला खड़ा किया है।
इस पूरे परिदृश्य में रेखांकित करनेवाली बात यह है कि
- उत्पीड़क समुदाय का स्वरूप बदलता है ज्यों ही हम मुल्क की सीमाओं को लांघते हैं। दरअसल, हम भूमिकाओं की अदलाबदली देखते हैं। सरहद के इस पार उत्पीड़क दिखनेवाला धार्मिक, नस्लीय समुदाय सरहद के उस पार पीडि़त समुदाय में रूपांतरित होता दिखता है।
- एक किस्म का अतिवाद दूसरे को मजबूती प्रदान करता है और यह भी देखने में आ रहा है कि उनके बीच भी तरह तरह के गठजोड़ बन रहे हैं।
किस तरह इन अतिवादियों में एक दूसरे के करीब आने तथा तीसरे को निशाना बनाने की कोशिशें चल रही हैं, इसे जानना हो तो पहले संघ के वरिष्ठ नेता / जो इन दिनों भाजपा में 'भेजे गए हैं' / राम माधव के उदगारों को देख सकते हैं जो उन्होंने विवादास्पद समझी जानेवाली 'बोण्डु बाला सेना' की तारीफ में अपने फेसबुक पेज पर लिखे थे। (https://facebook.com/RSSRamMadhav/Posts//143374722500049)
बोण्डु बाला सेना - श्रीलंका का नया बौद्ध आन्दोलन
बोण्डु बाला सेना /बीबीएस - एक बौद्ध संगठन जिसे कुछ लोग दक्षिणपंथी और अति दक्षिणपंथी के तौर पर सम्बोधित कर सकते हैं - वह आज श्रीलंका में नयी परिघटना है। हम उन्हें जैसा चाहें ब्राण्ड कर सकते हैं, मगर हकीकत यही है कि यह नया संगठन प्रभाव और लोकप्रिय समर्थन के मामले में देश के बौद्ध प्रभुत्ववाले इलाकों में तेजी से बढ़ रहा है। ..
अब तक इस संगठन ने जो मुददे उठाए हैं उन पर सक्रियता से और सहानुभूति से सोचने की जरूरत है।
दक्षिण एशिया के इस हिस्से में इस्लाम नामक 'साझा दुश्मन' के खिलाफ गतिविधियों को समन्वित करने की कोशिशों को तब जोर मिला था जब बर्मा के कुख्यात विराथू ने पिछले साल श्रीलंका को भेंट दी थी। बोण्डु बाला सेना के सम्मेलन को सम्बोधित करने के लिए वह पहुंचा था। विराथू को वीसा न देने की ईसाई, मुस्लिम तथा अन्य जनतांत्रिक संगठनों की मांग की राजपक्षे सरकार ने खुल्लमखुल्ला अनदेखी की थी। विराथू और बोण्डु बाला सेना की बैठक के बाद इलाके को 'शान्ति का इलाका' बनाने के लिए संघ को साथ आने की अपील इन दोनों संगठनों ने की थी। 'न्यूयॉर्क टाईम्स' ने 'मुसलमानों के खिलाफ आकार ले रहे इस खतरनाक गठजोड़' पर टिप्पणी करते हुए लिखा था: (http://www.nytimes.com/2014/10/16/opinion/deadly-alliances-against-muslims.htm)
'' '.. अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साथ आने का वक़्त आ गया है' यह कहना था श्रीलंका के रैडिकल बौद्ध संगठन 'बोण्डु बाला सेना' के नेता गालागोदाथ थे गनानासारा का, जिसका ऐलान उन्होंने पिछले माह कोलम्बो में आयोजित कन्वेन्शन में किया। इस कन्वेन्शन में मुख्य अतिथि थे अशिन विराथू, बौद्ध अतिवादी जिसके चित्र को 'टाईम' पत्रिका ने अपने 1 जुलाई के अंक में कवर पर यूं दिया था ''बौद्ध आतंक का चेहरा''।...... पिछले सप्ताह श्री गनानासारा ने दावा किया कि वह ''उच्च स्तर'' पर दक्षिणपंथी हिन्दू संगठन राष्टीय स्वयंसेवक संघ के साथ वार्ता कर रहे हैं ताकि दक्षिण एशिया में ''हिन्दू बौद्ध शान्ति क्षेत्र'' बनाया जा सके। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता राम माधव ने हालांकि तत्काल इस बात से इन्कार किया, मगर श्री माधव, जो अब भारत की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के महासचिव हैं, उन्होंने बोण्डु बाला सेना और जनाब विराथू के समूह 969 पर अपने फेसबुक तथा ट्विटर पर सहानुभूतिपूर्ण प्रतिक्रिया दी है।
एक क्षेपक के तौर पर हम दक्षिण एशिया के इन विभिन्न शासकों के आर्थिक एजेण्डा को भी जांच सकते हैं, जहां सत्ता के गलियारों में या समाज में बहुसंख्यकवादी विचार हावी होते दिख रहे हैं और आप देखेंगे कि वह सारत: नवउदारवादी है।
3. ..चूंकि साम्प्रदायिकता के खिलाफ भारत की सरजमीं पर संघर्ष का महज राष्ट्रीय नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के स्तर पर महत्व है
दरअसल यहां इस तथ्य पर जोर देना महत्वपूर्ण है कि किस तरह यहां का घटनाक्रम पड़ोसी मुल्कों के घटनाक्रम को प्रभावित करता है या इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि एक देश की घटनाएं दूसरे देश पर प्रभाव डालती रहती हैं। हम याद कर सकते हैं कि किस तरह जब पहली दफा यहां भाजपा की अगुआई में राजग की सरकार बनी थी और हिन्दुत्व वर्चस्वशाली ताकतें सत्ता के गलियारों में पहुंची थीं तब यही वह कालखण्ड था जब पड़ोसी पाकिस्तान में इस्लामिस्ट ताकतें, जो वहां सामाजिक जीवन में हमेशा हावी रहती आयी हैं, उन्होंने पहली दफा पाकिस्तान के दो सूबों में सत्ता हासिल की थी।
या हम देख सकते हैं कि किस तरह बांगलादेश या पाकिस्तान में इस्लाम के वहाबीकरण ने - जिसे उसका 'सौदीकरण' भी कहा जाता है - उसने यहां के मुसलमानों के सामाजिक/राजनीतिक जीवन को प्रभावित किया है।
यहां इस बात को रेखांकित करना मौजूं होगा कि अगर यहां साम्प्रदायिक शक्तियों को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को नयी बढ़त दिलाने में या नवउदारवादी एजेण्डा पर ब्रेक लगाने में हमें कामयाबी मिलती है तो उसका न केवल दक्षिण एशिया के पड़ोसी मुल्कों पर बल्कि मध्यपूर्व के मुस्लिमबहुल मुल्कों पर बेहद सकारात्मक असर पड़ेगा। इसकी वजह यही है कि जहां तक मुसलमानों की आबादी का सवाल है तो भारत विश्व में दूसरे या तीसरे नम्बर पर स्थित है, और यहां धर्मनिरपेक्ष सरकारों का जो भी प्रयोग चलता रहा है - जिसकी तमाम कमजोरियां रही हैं और अब वहां बहुसंख्यकवाद हावी होने को हैं - उसने फिर भी अल्पसंख्यकों के बीच बड़े पैमाने पर अतिवादी तत्वों को , जो चाहे इस्लामिक स्टेट से जुड़ जाएं या अल कायदा जैसी किसी मुहिम से जुड़ जाएं, जनम देने से रोका है।
4. एक स्पष्टीकरण
यह सही है कि हम अपनी बातचीत को महज साम्प्रदायिकता तक सीमित नहीं रख सकते हैं - जैसा कि मौजूदा दौर को भी साम्प्रदायिक फासीवाद या कार्पोरेट फासीवाद के तौर पर सम्बोधित किया जाता रहा है - क्योंकि यह एक तरह से दो पैरों पर चलने का उपक्रम है। एक पैर हिन्दुत्ववादी कदमों का तो दूसरा पैर नवउदारवादी कदमों का। अगर हम मोदी हुकूमत के बीते साल को परिभाषित करना चाहें तो हम यूं कह सकते हैं कि उसमें 'विकास' के विमर्श में नवउदारवादी कदमों की बढ़त नज़र आती है तथा उसका साथ/जहां और जैसी जरूरत पड़े/ साम्प्रदायिक तनावों का दिखता है, ताकि मेहनतकश अवाम के बीच दरारों को बढ़ावा दिया जा सके ताकि वंचना एवं दरिद्रीकरण के व्यापक सवाल कहीं उठ न सकें।
यहां मै एक स्पष्टीकरण देना चाहूंगा कि बात की समग्रता के लिए आवश्यक है कि हम दोनों पहलुओं पर बात करें , मगर फिलव$क्त मेरा जोर 'साम्प्रदायिकता' पर रहेगा, धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष की रूपरेखा पर रहेगा, न कि अर्थव्यवस्था में साथ साथ आ रहे नवउदारवादी बदलावों पर। दरअसल ऐसा करना मेरी अपनी क्षमता के बाहर की बात है और दूसरे, मुझे यह भी लगता है कि अपने सामने खड़ी इस विकराल समस्या के रेशे रेशे को समझने के लिए उस पर फोकस जरूरी है।
एक दूसरा स्पष्टीकरण भी जरूरी प्रतीत हो रहा है ।
आनेवाले पन्नों पर हम बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता पर अपने आप को फोकस करेंगे, इसका अर्थ यह कतई न निकाला जाए कि हम अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के प्रति कोई नरम रुख अख्तियार करने के हिमायती हैं। हमें धर्मनिरपेक्षता - जिसका अर्थ राज्य एवं समाज के संचालन से धर्म का अलगाव - एवं जनतंत्र के बुनियादी सिद्धान्तों के आधार पर ही इसकी विवेचना करनी होगी। लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि एक बहुधर्मीय समाज में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता अक्सर राष्ट्रवाद के नारे के अन्दर अपने आप को प्रस्तुत करती है और अपने साथ होते अन्याय या बढ़ते हाशियाकरण के प्रति अल्पसंख्यक समुदाय के असहमति के हर स्वर को 'राष्ट्रद्रोह' करार देने में आमादा रहती है।
परिभाषा के सन्दर्भ में अहम बात हिन्दु धर्म और हिन्दुत्व को लेकर है। यहां हमारे लिए हिन्दुत्व का अर्थ हिन्दु धर्म से नहीं है, पोलिटिकल हिन्दुइज़्म अर्थात हिन्दु धर्म के नाम से संचालित राजनीतिक परियोजना से है। सावरकर अपनी चर्चित किताब 'हिन्दुत्व' में खुद इस बात को रेखांकित करते हैं कि उनके लिए हिन्दुत्व के क्या मायने हैं।
Hinduism is only a derivative, a fraction, a part of Hindutva...Here it is enough to point out that Hindutva is not identical with what is vaguely indicated by the term Hinduism.
(V D Savarkar, Hindutva, Deli, Bharti Sahitya Sadan, Sixth edition, 1989, pp 3f)
जिस तरह इस्लाम और राजनीतिक इस्लाम को समकक्ष नहीं रखा जा सकता उसी तर्ज पर हम हिन्दु धर्म और हिन्दुत्व - जिसकी बात हिन्दुत्ववादी संगठन करते हैं - एक नहीं कहा जा सकता।
* *
अब इस लम्बी प्रस्तावना के बाद मैं इस विषय पर अपनी गुफ्तगू शुरू करना चाहता हूं, अपना संवाद शुरू करना चाहता हूं और बातचीत की सुविधा के लिए मैने साम्प्रदायिक राजनीति की प्रस्तावित चर्चा को तीन हिस्सों में बांटा है-
- मिथकों का ध्वंस,
- नये प्रश्नों से रूबरू होने की कवायद
- साम्प्रदायिकता विरोधी व्यवहार की पड़ताल
बातचीत का मकसद यही है कि हम महज बड़ी बड़ी बातचीत तक, समस्या की गहन पड़ताल तक अपने आप को सीमित न रखें जो तत्काल हमें कहीं आगे ले जाती न दिखे बल्कि हस्तक्षेप के लिए कुछ सुझावों को पेश किया जा सके।
प्रस्तुति के अन्त में 'नयी जमीन तोडऩे की बात' करते हुए कुछ बातें दर्ज हैं और साम्प्रदायिकता से लडऩे और धर्मनिरपेक्षता को मजबूती दिलाने के लिए कुछ फौरी/तात्कालिक, कुछ मध्यकालीन और कुछ दूरगामी कार्यक्रम पेश किए गए हैं।

                                                              भाग 2

1. मिथकों का ध्वंस

आग मुसलसल जेहन में लगी होगी
यूं ही कोई आग में जला नहीं होगा
                                  - अनाम शायर
हममें से हर किसी ने मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान हुए सामूहिक बलात्कारों के प्रसंग पढ़े होंगे या उनकी रिपोर्टों के बारे में सुना होगा। अधिकतर पीडि़ताओं के मुंह से यही बात निकली होगी कि 'अन्य' समुदाय के लोग - जिन्हें वह 'भैया' या 'चाचा' कहती थीं, जो उनके अपने गांव के या आसपड़ोस के रहने वाले थे, वही उन पर वहशियाना तरीके से टूट पड़े।
आप चाहे मुजफ्फरनगर दंगों को देखें या गुजरात जनसंहार को देखें या बम्बई या बरेली के दंगों को देखें - हर दंगे में ऐसी ही कहानियां सुनाई पड़ती हैं। सोचने का मसला यह है कि किस तरह हमारे अपने पड़ोसी - किसी अलसुबह अत्याचारी/खूनी या मकान जलानेवालों में रूपांतरित हो पाते हैं - जब तक कि उनके अन्दर 'अन्य' को लेकर जबरदस्त हिंसा पहले से भरी न हो।
विडम्बना यही कही जा सकती है कि साम्प्रदायिकता के बने रहने, उसका हमारी दैनंदिन जिन्दगी का हिस्सा बन जाने, हमारे समाज एवं राजनीति में उसके अधिक गहरे होते जाने जैसी कड़वी हक़ीकत के बावजूद अभी भी कई मिथक हमारे बीच गहरी जड़ें जमाए हैं। उदाहरण के तौर पर
- एक आम समझ व्याप्त है कि लोग आम तौर पर अच्छे होते हैं, मगर उन्हें दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतें बहका देती हैं
इस समझदारी का प्रतिबिम्बन हम आम तौर पर उन 'सदभावना' रैलियों में देखते हैं, जो अक्सर दंगों के बाद आयोजित होती हैं, जिसमें हम एक दूसरे को यही समझाते रहते हैं कि जो कुछ हुआ, वह चन्द ख़राब तत्वों के चलते हुआ, वरना हम सभी लोग सदभाव के माहौल में रहते चले आए हैं। निश्चित तौर पर सामाजिक दरारों के चौड़ा होते जाने के दौर में ऐसी बैठकों, रैलियों का अपना महत्व होता है, जो फौरी तौर पर कुछ मलहम का भी काम करती हैं, मगर हमें चन्द गलतफहमियों से बचना चाहिए।
दरअसल आज़ादी के साठ साल बाद अब यही देखने को आ रहा है कि दंगों का हमारे यहां एक पैटर्न बन रहा है। संगठित हिंसाचार के नग्न नाच और आम कहे जाने वाले लोगों की उसमें 'जोशीली सहभागिता' के दौर के बाद चुप्पी का षडय़ंत्र दिखाई देता है जब कोई सच्चाई बयां करने को तैयार नहीं होता है। आप दंगों की रिपोर्टों को पलटें, 'गांवों के खाली किए जाने' या 'आगजनी' के विवरण को देखें, आप पाएंगे कि गांव में बचे लोग जांचकर्ताओं को यही कह रहे हैं कि 'बाहरी' लोगों ने आकर हिंसाचार किया।
बिहार का भागलपुर जहां 1989 में भारी दंगा हुआ, जहां आधिकारिक तौर पर एक हजार से अधिक लोग मारे गए, जिनका बहुलांश अल्पसंख्यक मुसलमानों का था, जो आज भी एक खास घटना के लिए याद किया जाता है। इस संगठित हिंसाचार में चंदेरी नामक गांव में 116 मुसलमानों को मार दिया गया था, उन्हें एक खेत में गाड़ दिया गया था और उस पर गोभी उगायी गयी थी। पिछले दिनों उपरोक्त गांव का दौरा किए एक सामाजिक कार्यकर्ता ने यह भी बताया कि गांव के ही लोगों द्वारा अंजाम दिए इस भीषण कत्लेआम की यादों को पूरी तरह मिटा देने के लिए खेत पर कुछ मंदिरों का निर्माण किया गया है।

- अपने सहिष्णु होने का मिथक
...[p]lant life is plural, it is not thereby tolerant. Tolerance in its positive sense means much more than co-existence.
- Sudipto Kaviraj
आम तौर पर बातचीत में लोग अपने सहिष्णु होने का ढिंढोरा पीटते हैं, इतिहास में यहां शरण पाने के लिए आते रहे समुदायों, नस्लों का उल्लेख करते हुए यही कहा जाता है कि देखिए, हम कितने सहिष्णु रहे हैं। निश्चित ही इसमें एक चुनिन्दा स्मृतिलोप अर्थात सिलेक्टिव एमनेशिया की स्थिति दिखती है। कहने का तात्पर्य, ऐसे तथ्यों का चयन जो हमारे सूत्रीकरण के लिए मुफीद जान पड़ें। अपने सहिष्णुता के दंभ से गौरवान्वित होते प्रबुद्ध जन यह नहीं सोचते कि यह वही मुल्क है जहां बौद्ध धर्म का कभी बोलबाला रहा और कुछ सदी बाद यहां उसका नामलेवा तक नहीं बचा, वह दुनिया के अन्य भागों में फैला। क्या उसके वर्चस्वशाली स्थिति से उसके हाशिये पर जाने को महज धर्मशास्त्राीय बहसों तक सीमित किया जा सकता है, निश्चित ही नहीं। इस बात के विवरण मौजूद हैं कि किस तरह बौद्धों का संहार हुआ, किस तरह बौद्ध विहारों को नष्ट किया गया या उन्हें हिन्दू मंदिरों में तब्दील किया गया, किस तरह नालंदा के ऐतिहासिक विश्वविद्यालय को तबाही झेलनी पड़ी। हम मध्ययुग के कई ऐसे उदाहरणों को देख सकते हैं, जो एक वैकल्पिक आख्यान प्रस्तुत करते हों।
बुनियादी तौर पर यह समझने की जरूरत है कि एक ऐसा मुल्क जो अहिंसा के पुजारी के देश के तौर पर चर्चित रहता है, वहां एक किस्म की हिंसा को न केवल 'वैध' समझा जाता है बल्कि उसे धर्म की स्वीकार्यता भी मिली रहती है। दलितों, स्त्रियों और समाज के अन्य उत्पीडि़त तबकों के खिलाफ हिंसा को सनातन काल से दैवी स्वीकार्यता और सामाजिक वैधता हासिल है और यह बात भी सही है कि आधुनिकता के आगमन ने इस व्यापक चित्र में कोई गुणात्मक तब्दीली नहीं की है। भारत शायद दुनिया का एकमात्र मुल्क कहा जाएगा जहां विधवा को अपने मरे हुए पति की चिता पर जिन्दा जलाया जाता रहा है। अगर पहले नवजात बेटी को अधिक बर्बर ढंग से खतम किया जाता था, अब आज के विज्ञान टेक्नोलोजी के वक़्त में माता पिता  यौनकेन्द्रित गर्भपात को अंजाम देते हैं। यह अकारण नहीं कि भारत में 33 मिलियन स्त्रियां 'गायब' हैं।
ध्यान रहे कि ऐसी तमाम प्रथाओं एवं सोपानक्रमों - जिनकी जड़ें हिन्दू धर्म के आचरण में ढूंढी जा सकती हैं - की छाप इस क्षेत्र में अन्य धर्मों पर भी मिलती दिखती हैं। इस्लाम, ईसाइयत या बौद्ध धर्म में व्याप्त जातिभेद, जिसकी इस क्षेत्र के बाहर कल्पना नहीं की जा सकती वह भी इन धर्मों के माननेवालों की जिन्दगी में नज़र आता है।
अपने एक आलेख 'मिथ आफ टालरेन्स' में अशोक रुद्र बहुत सटीक बात कहते हैं-'हिन्दू धर्म ऐसी जीवनप्रणालियों और विचारों एवं मूल्यव्यवस्थाओं को लेकर सहिष्णु दिखता है जिन्होंने बुनियादी तौर पर अपने हिन्दुकरण के प्रति सहमति दी।'
- भारत की साझी विरासत
भारत के धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन ने भारत की उस छवि पर हमेशा अधिक जोर दिया है जो 'उसके लम्बे इतिहास के दौरान, विविधतापूर्ण, बहुवचनी और सहिष्णु सभ्यता की रही है' जिसे बुद्ध, कबीर, नानक की भूमि के तौर पर, सम्राट अशोक, अकबर और गांधी की धरती के तौर पर हमेशा प्रोजेक्ट किया है। इसके पीछे उनका मकसद रहा है 'हिन्दुत्व दक्षिणपंथ द्वारा भारतीय संस्कृति की जो संकीर्ण, असहिष्णु, असमावेशी, एकाश्म छवि पेश की जाती है - जिसे प्रोफेसर रोमिला थापर 'हिन्दु धर्म का समीकरण कहती हैं' - उसका प्रतिवाद किया जाए। इसी बुनियाद पर उसने अस्तित्वमान संस्कृति का जश्न मनाया है, जिसने उसके हिसाब से हर प्रमुख आस्था को यहां फलने फूलने दिया, जहां 'दमित आस्थाओं को ठौर मिला' और जहां 'आध्यात्मिक और रहस्यवादी परम्पराओं के साथ बहुवचनी और सन्देह प्रगट करने वाली परम्पराएं फलती फूलती रहीं।' इसी समझदारी के आधार पर उसने हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों को प्रश्नांकित करने, उन पर सवाल उठाने और उन्हें चुनौती देने की कोशिश की है, भक्ति एवं सूफी परम्पराओं की दुहाई देना इसी का एक प्रतिबिम्बन कहा जा सकता है।
मगर जैसा कि कोई भी देख सकता है इसमें दो स्तरों पर दिक्कत दिखती है।
एक यह सही है कि यहां पर साझी परम्पराएं विकसित हुईं, मज़ारों पर मन्नत मांगने के लिए जानेवाले हिन्दू परिवारों को या अजमेर शरीफ के दरगाह पर पहुंचने वाले हिन्दू परिवारों को आज भी देखा जा सकता है, आंध्र प्रदेश/तेलंगाना के गांवों में आप ऐसे मुस्लिम परिवारों से भी मिल सकते हैं जो अपनी सन्तान के नामकरण के लिए गांव के पंडित से मशविरा करते हैं। लोकसंस्कृति में ऐसे तत्वों को आज भी अवश्य ढूंढ़ा जा सकता है। मगर अब यह समझना होगा कि आज स्थितियां बिल्कुल बदल गयी हैं।
आप इसे सामन्ती ठहराव के टूटने का नतीजा कहें, पूंजीवाद के विकास का परिणाम कहें, लोकतंत्र के विस्तार का असर कहें, मगर यही देखने में आ रहा है कि ऐसी साझी परम्पराएं अब ढलान पर हैं।
लोग आज अपनी अपनी धार्मिक पहचानों के साथ अधिक दिखते हैं, जिन्हें मौजूदा राजनीति ने कहीं कहीं आक्रामकता भी प्रदान की है। ऐसे समय में साझी परम्परा की बात करते रहना, एक तरह से उस बीते दौर की याद ताज़ा करने जैसा कदम हो सकता है, जो लौटनेवाला नहीं है। साझी परम्परा पर अत्यधिक जोर इस बात की भी अनदेखी करता है कि चाहे इस्लामिस्ट संगठनों या हिन्दुत्ववादी संगठनों की तरफ से इन्हीं साझी विरासत पर अलग अलग तरीके से आक्रमण होता दिखता है। पाकिस्तान में इस्लामिस्ट अतिवादियों द्वारा सूफी मजारों पर किए जानेवाले बम विस्फोट, जनता को 'असली इस्लाम' की याद दिलाने के लिए होते हैं तो भारत की सरजमीं पर किसी बाबा बुढनगिरी दरगाह को दत्त मंदिर में रूपांतरित करने या साईंबाबा जैसे सूफी सन्त को हिन्दू देवताओं में रूपांतरण करने को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
इस समझदारी की एक दूसरी सीमा भी है, साझी विरासत का बयान उस समाज की वास्तविक सच्चाई का आंशिक विवरण ही है जो जाति की कड़वी हक़ीकत पर टिका है। एक अलग किस्म के सोपानक्रम पर टिका समाज का यह विभाजन, जो शुद्धता एवं प्रदूषण की सदियों पुरानी विचारधारा पर टिका है और जिसे सामाजिक वैधता एवं धार्मिक स्वीकार्यता मिली है, एक तरह से 'हम' और 'वे' राजनीति की बुनियाद है, जिसने समाज के धर्मनिरपेक्षताकरण/सेक्युलरायजेशन के कार्यभार में बाधाएं खड़ी की हैं।
2. नये प्रश्नों से रूबरू
मुझे अक्सर लगता है कि जहां एक तरफ साम्प्रदायिकता का खतरा बढ़ता दिख रहा है, मगर उसको लेकर जारी विमर्श में वहीं कदमताल हो रहा है, कुछ नया सुनने- कुछ नया गुनने की कोशिश नहीं हो पा रही है। हमारा जुटना महज एक दूसरे को दिलासा देने वाला न बने, इसीलिए बेहद जरूरी है कि हम सभी बहुत बेबाकी के साथ एक दूसरे से बात करें, अपनी सीमायें, अपनी खामियों को खुल कर समझें और क्या रास्ता निकल सकता है, इसके बारे में सोचें। इसे मुमकिन बनाने के लिए मैंने आज तय किया है कि मैं चन्द ऐसे सवालों को आप के बीच साझा करने के प्रयास करूंगा जिनके बारे में आम तौर पर बात नहीं हो पाती है, या यह कहना बेहतर होगा कि यह ऐसे सवाल हैं जो कहीं बहस में भी उठते नहीं दिखते। घिसे पीटे सवालों से हटने का एक फायदा यह भी होगा कि बहस की एकरसता टूटेगी और सम्भव है कि कुछ नया रास्ता खुलता दिखे।
हिन्दुत्व वर्चस्ववादी परियोजना में महाराष्ट्र की केन्द्रीयता का मसला: माज़रा क्या है ?
अपनी चर्चित किताब 'खाकी शार्टस, सेफ्रन फ्लैग्ज्स' में सुमित तथा तनिका सरकार, प्रदीप दत्ता आदि बीसवीं सदी की तीसरी दहाई में हिन्दुत्व  की विचारधारा एवं संगठन निर्माण में महाराष्ट्र की केन्द्रीयता के बारे में कहते हैं /देखें, पेज 10, ओरिएन्ट लौंगमैन/ ''यह स्थिति थोड़ा आश्चर्यजनक लग सकती है क्योंकि यहां मुसलमान एक छोटे अल्पमत में रहे हैं और कभी भी खतरा नहीं रहे हैं और यहां बीती सदी की तीसरी दहाई के पूर्वाद्र्ध में कोई बड़े दंगे भी नहीं हुए हैं। मगर महाराष्ट्र में 1870 के बाद सशक्त गैरब्राहमण आन्दोलन का बोलबाला रहा है जब ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। 1920 के दशक में तो दलितों ने भी डा. अम्बेडकर की अगुआई में अपने आप को संगठित करना शुरू किया है। 1925 के दिनों की तरह 1990-91 में हिन्दुत्व एक तरह से अपने फिसलते वर्चस्व को बहाल करने की ऊंची जाति की कोशिश रही है।''
अगर आप बारीकी से देखें तो आप को भी यह मसला काबिलेगौर लग सकता है कि आखिर ऐसा इलाका - जो फुले, अम्बेडकर, शाहू महाराज, सावित्रीबाई फुले आदि सामाजिक इन्क़लाबियों की महान विरासत का साक्षी रहा है, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी कभी दस फीसदी से आगे नहीं बढ़ी और जहां वह कभी राजनीतिक तौर पर ताकतवर नहीं है, वह किस तरह एक ऐसे इलाके में रूपांतरित हो सका जिसने न केवल तमाम हिन्दुत्व विचारकों - सावरकर, हेडगेवार और गोलवलकर आदि - और उनके संगठनों को ही नहीं बल्कि इन विचारों की लोकप्रिय वैधता को जन्म दिया। एक क्षेपक के तौर पर यह भी बता दें कि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती भी आज के गुजरात में - जो उन दिनों बम्बई प्रांत का हिस्सा था - पैदा हुए थे और अपने आर्य समाज की नींव उन्होंने बम्बई में ही डाली थी।
आखिर किस वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन को यहां इतनी वैधता हासिल हुई है?
और यह प्रश्न हमें हिन्दुत्व की सियासत को जिस तरह देखा जाता रहा है, उसके विपरीत लगेगा।
हिन्दुत्व के विचार और सियासत को आम तौर पर धार्मिक कल्पितों (religious imaginaries)के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, समझा जाता है। (एक छोटा स्पष्टीकरण यहां हिन्दुत्व शब्द को लेकर आवश्यक है। यहां हमारे लिए हिन्दुत्व का अर्थ हिन्दु धर्म से नहीं है, पोलिटिकल हिन्दुइज्म अर्थात हिन्दु धर्म के नाम से संचालित राजनीतिक परियोजना से है। सावरकर अपनी चर्चित किताब 'हिन्दुत्व' में खुद इस बात को रेखांकित करते हैं कि उनके लिए हिन्दुत्व के क्या मायने हैं।)
उसके हिमायतियों के लिए वह 'हिन्दू राष्ट्र' - जो उनके मुताबिक बेहद पहले से अस्तित्व में है - के खिलाफ विभिन्न छटाओं के 'आक्रमणकर्ताओं' द्वारा अंजाम दी गयी 'ऐतिहासिक गलतियों' को ठीक करने का एकमात्र रास्ता है। यह बताना जरूरी नहीं कि किस तरह मिथक एवं इतिहास का यह विचित्र घोल जिसे भोले-भाले अनुयायियों के सामने परोसा जाता है, हमारे सामने बेहद खतरनाक प्रभावों के साथ उद्घाटित होता है।
इस असमावेशी विचार का प्रतिकारक, उसकी कार्रवाइयों को औचित्य प्रदान करते 'हम' और 'वे' के तर्क को खारिज करता है, धर्म के आधार पर लोगों के बीच लगातार विवाद से इन्कार करता है, साझी विरासत के उभार एवं कई मिलीजुली परम्पराओं के फलने फूलने की बात करता है। इसमें कोई अचरज नहीं जान पड़ता कि धार्मिक कल्पितों के रूप में प्रस्तुत इस विचार के अन्तर्गत साम्प्रदायिक विवादों का विस्फोटक प्रगटीकरण यहां समुदाय के 'चन्द बुरे लोगों' की हरकतों के नतीजे के तौर पर पेश होता है, जिन्हें हटा देना है या जिनके प्रभाव को न्यूनतम करना है। इस समझदारी की तार्किक परिणति यही है कि धर्मनिरपेक्षता को यहां जिस तरह राज्य के कामकाज में आचरण में लाया जाता है, वह सर्वधर्म समभाव के इर्दगिर्द घूमती दिखती है। राज्य और समाज के संचालन से धर्म के अलगाव के तौर पर इसे देखा ही नहीं जाता।
इस समझदारी के विपरीत क्या यह कहना मुनासिब होगा कि हिन्दुत्व का अर्थ है भारतीय समाज में वर्चस्व कायम करती और उसका समरूपीकरण करती ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार, जिसे एक तरह से शूद्रों और अतिशूद्रों में उठे आलोडऩों के खिलाफ ब्राह्मणवादी/मनुवादी प्रतिक्रान्ति भी कहा जा सकता है। याद रहे औपनिवेशिक शासन द्वारा अपने शासन की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए जिस किस्म की नीतियां अपनायी गयी थीं - उदाहरण के लिए शिक्षा के दरवाजे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए खोल देना या कानून के सामने सभी को समान दर्जा आदि - के चलते तथा तमाम सामाजिक क्रान्तिकारियों ने जिन आन्दोलनों की अगुआई की थी, उनके चलते सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों में ढील पडऩे की सम्भावना बनी थी।
आखिर ब्रिटिशों की जीत ने अछूतों का क्या भला किया है ? शिक्षा में कुछ भी नहीं; नौकरियों में कुछ भी नहीं; सामाजिक ओहदे में, कुछ भी नहीं । एक ही चीज़ है जिसमें उन्होंने कुछ हासिल किया है और वह है कानून के सामने समानता का अधिकार। ..कानून के सामने समानता का सिद्धान्त अछूतों के लिए विशेष लाभ का रहा है वह महज इसी वजह से कि ब्रिटिशों के आगमन के पहले उनके पास ऐसा अधिकार नहीं था। मनु के कानून समानता का सिद्धान्त स्वीकारते नहीं हैं। मनु के कानूनों की आत्मा है असमानता। वह जीवन के सभी क्षेत्रों में, सभी सामाजिक रिश्तों में और राज्य के सभी इदारों में व्याप्त थी। उसने हवा को प्रदूषित किया था और अछूतों का बस दमन होता था। कानून के सामने समानता के सिद्धान्त ने एक दोषनाशक का काम किया है। उसने हवा को साफ किया है और अछूत के लिये यह मुमकिन हुआ है कि वह आज़ादी की सांस ले सके। यह अछूतों के लिए वास्तविक लाभ है और प्राचीन अतीत को मद्देनज़र रखते हुए कोई छोटा फायदा नहीं है।
('द अनटचेबल्स एण्ड द पॅक्स ब्रिटानिका' में - डाक्टर भीमराव अम्बेडकर)
आखिर हम हिन्दुत्व के विश्वदृष्टिकोण उभार को मनुवाद के खिलाफ सावित्रीबाई एवं जोतिबा फुले तथा इस आन्दोलन के अन्य महारथियों - सत्यशोधक समाज से लगायत सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेण्ट या इंडिपेण्डेंट लेबर पार्टी तथा रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया, या जयोति थास, अछूतानन्द, मंगू राम, अम्बेडकर जैसे सामाजिक विद्रोहियों की कोशिशों के साथ किस तरह जोड़ सकते हैं ?
इस प्रश्न का सन्तोषजनक जवाब तभी मिल सकता है जब हम हिन्दुत्व के उभार को लेकर प्रचलित तमाम धारणाओं पर नए सिरे से निगाह डालें और उन पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हों। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें (बकौल दिलीप मेनन) 'जाति, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के बीच के अन्तरंग सम्बन्धों की पड़ताल करने के प्रति जो आम अनिच्छा दिखती है' (पेज 2, द ब्लाइंडनेस आफ साइट, नवयान 2006) उसे सम्बोधित करना होगा। वे लिखते हैं:
हिन्दुधर्म की आन्तरिक हिंसा काफी हद तक मुसलमानों के खिलाफ निर्देशित बाहरी हिंसा को स्पष्ट करती है जब हम मानते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर वह पहले घटित हुई है। सवाल यह उठना चाहिए: आन्तरिक अन्य अर्थात दलित के खिलाफ केन्द्रित हिंसा किस तरह (जो अन्तर्निहित असमानता के सन्दर्भ में ही मूलत: परिभाषित होती है) कुछ विशिष्ट मु$कामों पर बाहरी अन्य अर्थात मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण (जो अन्तर्निहित भिन्नता के तौर पर परिभाषित होती है) में रूपान्तरित होती है ? क्या साम्प्रदायिकता भारतीय समाज में व्याप्त हिंसा और असमानता के केन्द्रीय मुद्दे का विस्थापन/विचलन (डिफ्लेक्शन) है ? (वही) 
आज़ादी के आन्दोलन को लेकर चन्द असहज करने वाले प्रश्न
मेरा दूसरा सवाल आज़ादी के आन्दोलन को लेकर है जिसकी विरासत की आए दिन हम दुहाई देते रहते हैं, इतना ही नहीं आज भी आज़ादी बनाम गुलामी का विमर्श प्रगतिशील खेमे में भी आए दिन सुनने को मिलता है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ तहे दिल से प्रतिबद्ध कई विद्धतजन या कार्यकर्ता यह कहते हुए भी मिलते हैं कि उस विचार का मुकाबला हम राष्ट्रवाद से कर सकते हैं। साम्प्रदायिकता के उभार एवं राष्ट्रवादी आन्दोलन को एक दूसरे को प्रतिलोम माननेवाले इस चिन्तन में इस तथ्य की गहरी अनदेखी होती है कि दोनों एक ही काल की पैदाइश हैं। औपनिवेशिक कालखण्ड में यहां राष्ट्रवाद के विचार ने आकार ग्रहण किया और यही वह दौर था जब, जिसे हम साम्प्रदायिक राजनीति कहते हैं, उसके बीज पड़े।
मुझे लगता है कि आखिर हम कब इस बात के लिए तैयार होंगे कि हम विरासत की हिफाजत भी करें मगर उसकी आलोचनात्मक समीक्षा करने के लिए, उसके साथ critically engage करने के लिए भी तैयार हों। जैसे दो बातें स्थूल रूप में दिखती हैं वह यह कि भले ही इस विराट संघर्ष को समूचे राष्ट्र के नाम पर लड़ा गया, मगर हर कदम पर औपनिवेशिक मुल्क में पहले से मौजूद उत्पीडि़तों की आवाज़ को, उनकी हर स्वायत्त अभिव्यक्ति को कुचलने या कुन्द करने की केाशिश चली। और जब जब हम आंख मूंद कर इसकी विरासत का गुणगान करते हैं तो कहे अनकहे इसे लेकर व्याप्त वर्चस्वशाली विमर्श को मजबूती देते हैं।
देखा जा सकता है कि ब्रिटिशों के आगमन के बाद हुई तब्दीलियों को आम तौर पर लिखित इतिहास(सों) की ऐसी दो धाराओं में समेटा गया है जो एक-दूसरे को बाहर रख कर या बहिष्कृत करके (mutually eclusive) चलती हैं। राजनीतिक और आर्थिक इतिहासों में कृषि जगत में हुए परिवर्तनों, बाज़ार अर्थव्यवस्था के आगमन का प्रभाव, और सम्पत्ति की निजी मिल्कियत खासकर जमीन के सन्दर्भ में तथा वर्चस्वशाली समूहों की स्थितियों में आते परिवर्तनों आदि को जहां चिन्हित किया जाता रहा है, वहीं सामाजिक इतिहासों के अन्तर्गत समाज सुधार आन्दोलनों, स्त्रियों, शूद्रों-अतिशूद्रों की स्थितियों को प्रभावित करती कोशिशों को चिन्हित किया जाता रहा है।
इतिहास लेखन के इस किस्म के विभाजन के चलते हम इस विचित्र परिदृश्य से रूबरू होते हैं जहां जो राजनीतिक तौर पर अत्यधिक रैडिकल मालूम पड़ता है वह सामाजिक तौर पर उतना ही सनातनी या पुरातनपंथी नज़र आता है या जो राजनीतिक तौर पर सौम्य या माडरेट नज़र आता है, वह सामाजिक तौर पर उतना ही प्रगतिशील या रैडिकल मालूम पड़ता है। राजनीतिक तौर पर रैडिकल अपने पक्ष को मजबूती दिलाने के लिए फिर पुनरूत्थानवाद का भी सहारा लेता दिखता है, आजादी के दीर्घकालीन संघर्ष में जो निम्नवर्गियों की आवाज़ उठ रही थी उसे भी पुराने फ्रेमवर्क में ढालने की कोशिश करता दिखता है तो सामाजिक तौर पर रैडिकल अक्सर उन धर्मशास्त्रों को भी चुनौती देता दिखता है जिनसे वैधता हासिल करने का काम राजनीति की रैडिकल धारा करती है।
उदाहरण के तौर पर, लोकमान्य तिलक, जिन्हें  'भारतीय असन्तोष का जनक' कहा जाता है और जो 'कांग्रेस के रैडिकल हिस्से की नुमाइन्दगी करते हैं' हमारे समक्ष ऐसा क्लासिक उदाहरण पेश करते हैं जो राजनीतिक आजादी के लिए संघर्षरत लोगों में सामाजिक सुधारों को लेकर व्याप्त गहरी चिन्ताओं को दर्शाता है। शादी के लिए 'सहमति की उम्र का बिल' (जिसके अन्तर्गत बारह साल से कम उम्र की लड़की से शादी को गैरकानूनी घोषित करने की कोशिश की गयी थी) के प्रति उनके जबरदस्त विरोध को बहुत लोग जानते हैं, मगर यह बात कम चर्चित है कि 1895 में कांग्रेस पार्टी के सम्मेलन के वक्त नेशनल सोशल कान्फेरेन्स का आयोजन करने की रानडे की योजना - जैसी कि तब तक परिपाटी चली आ रही थी - का उन्होंने विरोध किया और यह धमकी भी दी थी कि अगर सोशल कान्फेरेन्स हुआ तो पण्डाल को 'आग भी लग सकती है।'
अपने लम्बे निबंध 'एजुकेट वूमेन एण्ड लूज नेशनेलिटी' (परिमल वी राव, क्रिटिकल क्वेस्ट, 2010) में लेखिका महाराष्ट्र में चार दशकों के राष्ट्रवादी विमर्श पर निगाह डालती हैं जिसमें यह कहा जा रहा था कि -
''..महिलाओं और गैरब्राह्मणों को शिक्षित करने से राष्ट्रीयता को हानि पहुंच सकती है। बाल गंगाधर तिलक की अगुआई में राष्ट्रवादियों ने 1881-1920 के दरमियान लड़कियों के लिए अलग स्कूलों की स्थापना, गैरब्राह्मणों को शिक्षा प्रदान करना और अनिवार्य शिक्षा जैसे कदमों का विरोध किया। अनिवार्य शिक्षा को लागू करने के प्रस्ताव को ग्यारह में से नौ नगर पालिकाओं में शिकस्त देने में वह कामयाब हुए। 'राष्ट्रीय शिक्षा' की राष्ट्रवादियों की मांग जिसके जरिए उन्होंने सुधारकों द्वारा हिमायत की जा रही अनिवार्य शिक्षा के अर्थ और दायरे को एक अलग ढंग से ढालने की कोशिश की थी, उसके अन्तर्गत राष्ट्रीय शिक्षा में धर्मशास्त्रों की शिक्षा और कुछ तकनीकी कुशलताएं शामिल थीं।''
सनातनियों, रूढि़वादियों की चिन्ताएं महज शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित नहीं थीं। वे इस चुनौती से भी रूबरू थे कि दलित और बहुजन समाज के अन्य सदस्य धीरे धीरे 'साझी विरासत' के उत्सवों के- खासकर भारत के उस भाग में मुहर्रम के जुलूसों में - प्रभाव में आते दिख रहे थे। यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी नहीं कि जाति आधारित हिन्दु धर्म, जो शुद्धता और प्रदूषण के तर्क पर टिका है, उसने कभी भी ऐसे उत्सवों के सार्वजनिक प्रदर्शन को प्रोत्साहित नहीं किया था।
इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए, तिलक ने गणेश पूजा को गणेश चतुर्थी पूजा में रूपान्तरित करने (1894) का फैसला लिया। एक तरफ वह मुहर्रम के उत्सव का प्रतिस्थापन था और दूसरी तरफ, लोगों को (हिन्दुओं) एकत्रित करने की रणनीति का भी हिस्सा था। यह कहा जाता है कि गणेश चतुर्थी की शुरूआत के बाद,  हिन्दुओं ने मुहर्रम के जुलूसों में शामिल होना छोड़ दिया और 1894 और 1895 में पुणे और धुले से दंगों के समाचार मिले जब गणेश उत्सव की झांकियां गाना गाते मस्जिदों के सामने से निकलीं।
उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में शामिल उंची जाति के अभिजातों की हरकतों के साम्प्रदायिक रूझानों को यहां आसानी से देखा जा सकता है। यहां फिर एक बार दिलीप मेनन को उद्धृत करना समीचीन होगा (वही, पेज 8):
'अगर मैं अपनी बात को आगे बढ़ा दूं तो हम देखते हैं कि 1850 और 1947 के दरमियान, साम्प्रदायिक हिंसा का सिलसिला अक्सर दलितों और अन्य अधीन जातियों की गतिशीलता और दावेदारी के बाद सामने आया है। जैसे जैसे अधीनीकरण की संरचनाओं को गांवों में चुनौती मिलने लगी, अधीनीकृत जातियों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देने में दिक्कतें सामने आने लगीं जिसका परिणाम हिन्दु धर्म के अन्दर - एकता के प्रतीकों जैसे 19 वीं सदी में गाय के इस्तेमाल और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को विस्थापन के जरिए- एकता लाने की कोशिशों के रूप में सामने आया। 90 के दशक की शुरूआत में मंडल (आरक्षण विरोधी दंगे) और मस्जिद (मुस्लिम विरोधी दंगे) का सिलसिला इसी लम्बे, ऐतिहासिक पैटर्न का हिस्सा था।'
3. अपने व्यवहार की पड़ताल
साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष का मसला या धर्मनिरपेक्षता को नयी उंचाइयों तक ले जाने का मसला अगर चन्द मिथकों के ध्वंस तक सीमित रहेगा या कुछ प्रश्नों को उछाल कर स्थगित हो, यह प्रस्तुत वक्तव्य का मंतव्य कत्तई नहीं है। हम इसकी रौशनी में अब तक चले आ रहे साम्प्रदायिकता विरोधी व्यवहार - इसे व्यापक सन्दर्भों में देखने की जरूरत है, व्यक्तिगत प्रयासों से लेकर सामूहिक प्रयासों तक, सांगठनिक गतिविधियों से लेकर अलग अलग पार्टियों के क्रियाकलापों तक - की पड़ताल करना चाहते हैं, ताकि भविष्य के लिए कुछ नतीजे निकाले जा सकें।
साम्प्रदायिक तनावों के मद्देनज़र हमारा हस्तक्षेप: न्याय का सवाल और दोषियों को दंडित करना
आज़ादी के बाद के दौर में हजारों दंगे हुए हैं और जैसा कि हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं प्रोफेसर पाल आर ब्रास का अध्ययन यही बताता है कि हमारे देश में 'संस्थागत दंगा प्रणालियां' विकसित हुई हैं जो कभी भी दंगे कराने में 'सक्षम' हैं। आम तौर पर यही देखने में आता है कि 'दैनंदिन आधार पर नज़र आ रही इन जनहत्याओं' के बावजूद अभी भी दंगों के असली मास्टरमाइंड/योजना बनानेवाले शायद ही पकड़े गए हैं और विभिन्न न्याय आयोगों की रिपोर्टों के बावजूद अपने पद पर रह कर लापरवाही करने वाले पुलिस या प्रशासकीय अधिकारियों पर किसी भी किस्म की कार्रवाई शायद ही हुई है। अब स्थिति यहाँ तक आ पहुंची है कि 'न्याय के सवाल को अमन के' सवाल के या 'मुआवजे' के सवाल के साथ प्रतिस्थापित किया गया है।
गुजरात 2002 का संगठित हिंसाचार - जब हिन्दुत्ववादी संगठनों ने राज्य सरकार की अक्षमता या संलिप्तता के चलते अल्पसंख्यकों पर कहर बरपा किया था - इस मायने में अपवाद दिखता है, जब हम पाते हैं कि आज़ाद भारत में पहली दफा हिन्दुत्व वर्चस्ववादी संगठनों के वरिष्ठ नेताओं को, जिन्होंने सक्रिय रूप से दंगे में भाग लिया, तथा तमाम कार्यकर्ताओं को सज़ा मिली; यहां तक कि राज्य के सर्वोच्च कर्णधार की 'संलिप्तता' का मसला हिंसाचार के बारह बरस बीत जाने के बाद भी जिन्दा रखा गया। जहां माया कोडनानी जैसी मोदी मंत्रिमंडल की वरिष्ठ सदस्य को जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा, वहीं देश के इतिहास में पहली दफा राज्य के मुख्यमंत्री को स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के सामने पेशी के लिए जाना पड़ा।
निश्चित ही ऐसी स्थितियां सम्भव नहीं होती अगर तमाम संगठनों, व्यक्तियों ने इस मसले पर लगातार सक्रियता बनाये नहीं रखी होती। कुछ ऐसी शख्सियतें हैं जिनका नामोल्लेख भी आवश्यक है एडवोकेट मुकुल सिन्हा - जिनका पिछले साल देहान्त हुआ - और तीस्ता सितलवाड जैसे लोगों ने इन्साफ की मशाल को प्रचण्ड साहस के साथ जलाते रखा।
क्या यह अनुभव सेक्युलर-जनतांत्रिक या वामपंथी संगठनों या व्यक्तियों के सामने कोई नज़ीर पेश करता है ताकि वह आगे आकर ऐसी प्रणालियां कायम करें जिससे चाहे राहत दिलाने का काम हो या न्याय दिलाने का काम हो अधिक संगठित रूप में चल सके। अगर व्यक्तिगत प्रयास कुछ फ़र्क़ डाल सकते हैं तो संगठित प्रयास - फिर चाहे वह वाम ताकतों की तरफ से हों या अन्य सेक्युलर संगठनों से हों - अधिक प्रभाव डाल सकते हैं।
वर्ष 2002 के दंगों के बाद हम धीरे धीरे इस हक़ीकत के बारे में अवगत हो रहे हैं कि किस तरह राज्य दंगाप्रभावित लोगों और साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार पीडि़तों के राहत एवं पुनर्वास के काम से अपने आप को अलग कर रहा है और इस शून्य को भरने का काम विभिन्न सामुदायिक संगठन अपने हाथ में ले रहे हैं। और इस स्थिति को हम लोगों ने सिर्फ गुजरात में ही नहीं देखा बल्कि असम में भी देखा - जहां विगत तीन बार से कांग्रेस पार्टी शासन कर रही है - जब बोडो इलाकों में अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ हिंसक घटनाएं हुईं। एक पत्रकार के मुताबिक आन्तरिक तौर पर विस्थापित लोगों के लिए वहां बने तमाम राहत शिविर या तो जमाते इस्लामी या जमियत उलेमा ए हिंद या ऐसे ही संगठनों द्वारा संचालित किए जा रहे थे। यू पी में समाजवादी पार्टी की सरकार में मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद भी राहत शिविरों को लेकर राज्य सरकार का रूख कत्तई सहयोगकारी नहीं था।
जनसंहार कन्वेन्शन को लागू करने के लिए संघर्ष
इसी से सम्बधित एक मसला है 'जनसंहार कन्वेन्शन' का। इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा पारित उपरोक्त कन्वेन्शन पर भारत सरकार ने 1959 में ही अपने दस्तखत किए हैं, मगर उसके आलोक में यहां की संसद ने कोई समरूप कानून नहीं बनाया ताकि जनसंहार को रोका जा सके या 'जनता के खिलाफ अपराध करनेवाले' लोगों पर मुकदमा कायम किया जा सके या ऐसे लोग जिनके खिलाफ दंगों के आरोप हैं उन पर मुकदमा चलाने के लिए ट्रिब्युनल बनाया जा सके। इससे यह विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है कि जन अपराधों के मामलों में न्याय करने में भारतीय अपराध न्याय व्यवस्था की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है।
गौरतलब है कि जनसंहार के अपराध को रोकने एवं उसे दंडित करने के लिए बने कन्वेन्शन के तहत जनसंहार को निम्नलिखित तरीके से परिभाषित किया गया है:
.. ऐसी कोई भी कार्रवाई जो समग्रता में या आंशिक तौर पर किसी राष्ट्रीय, नस्लीय, एथनिक या धार्मिक समूह की तबाही के मकसद से की गयी हो, जैसे
1. समूह के सदस्यों की हत्या करना
2. समूह के सदस्यों को गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाना
3. सचेतन तौर पर ऐसी स्थितियां उपरोक्त समूह पर लादना ताकि उसकी भौतिक तबाही हो
4. ऐसे कदमों को लागू करना ताकि समूह के अन्दर नए जन्मों को रोका जा सके
हम देख सकते हैं कि वास्तविक जनतंत्र पसंद लोग इस मामले में सत्ताधारी जमातों पर हावी हो पाते हैं, तब जनअपराधों का साफसुथरीकरण करने या ऐसे जनसंहारों को अंजाम देनेवालों के सम्मानित राजनेताओं में रूपांतरण होने से हम बच सकते हैं।
सच्चर आयोग की पड़ताल
इसमें कोई दो राय नहीं कि सच्चर आयोग के निष्कर्षों के चलते यह बात आधिकारिक तौर पर सामने आ सकी कि अल्पसंख्यक समुदाय का विशाल हिस्सा गरीबीकरण, वंचना का शिकार है - जो विकास के सामाजिक आर्थिक मॉडल के साथ साथ राज्य एवं सिविल सोसायटी के इदारों में उनके खिलाफ विभिन्न स्तरों पर मौजूदा पूर्वाग्रहों से अधिक बढ़ जाती है।
इसने अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर फैलाये गए उन मिथकों को भी ध्वस्त किया जिसके तहत 'मुसलमानों के तुष्टीकरण; की, उनकी बहुसंख्या के 'शिक्षा के लिए मदरसों' का सहारा लेने की बात की जाती थी। हम यह भी जानते हैं कि सच्चर कमीशन के बाद सरकारी स्तर पर उठाए गए कदमों की समीक्षा करने के लिए बनायी गयी कुंडू कमेटी का कहना था कि  'समुदाय के विकास में पीछे रह जाने की स्थिति को सम्बोधित करने के लिए शुरूआत हुई है, मगर हाशिये पर पड़ी विशाल आबादी को देखते हुए सरकारी हस्तक्षेप बहुत नाकाफी दिखते हैं।'
मगर सच्चर आयोग ने एक अहम तथ्य की तरफ भी इशारा किया जिसके तहत उसने तीन दशक से अधिक समय से पश्चिम बंगाल में कायम रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन में सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों पर मुसलमानों की दारूण अवस्था को रेखांकित किया। यह सही था कि सीपीएम की हुकूमत में वहां दंगे नहीं हुए थे, मगर जहां तक भौतिक जिन्दगी का सवाल था मुसलमानों की स्थिति लगभग अपरिवर्तित थी। सरकारी सेवाओं में उनकी न्यूनतम सहभागिता नजऱ आयी थी।
इसने अल्पसंख्यकों के प्रति वाम की पहुंच/एप्रोच की सीमाओं को रेखांकित किया: क्या वह उन्हें महज 'पीडि़त समुदाय' समझती है जिसकी सुरक्षा की जानी है या वह 'उन्हें गणतंत्र के समान नागरिक के तौर पर' देखती है, जिन्हें जिन्दगी के तमाम क्षेत्रों में समान अवसरों को उपलब्ध किए जाने की जरूरत है, यह प्रश्न उपस्थित हुआ।
अल्पसंख्यक समुदाय के अन्दर दरारों का प्रश्न
एक अतिरिक्त जटिलता इस वजह से भी पैदा हो जाती है क्योंकि देखने में यही आता है कि अल्पसंख्यक समुदाय के अन्दर जो विभिन्न दरारें - फिर चाहे अगड़े-पिछड़े रूप में, वर्गीय भेदभाव के रूप में, जेण्डर के रूप में - मौजूद रही हैं, उसकी एक तरह से वाम की तरफ से अनदेखी होती रही है। विडम्बना यही है कि अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति हिन्दुत्ववादी संगठनों का जो रवैया है, जिसमें वह उसे एकाश्म/मोनोलिथ समझता है, उससे गुणात्मक तौर पर यह अवस्थिति/पोजिशन भिन्न नहीं है।
हम उसे विगत डेढ़ दो दशकों से उत्तर भारत के अल्पसंख्यकों में आकार लिए पसमान्दा/पिछड़े मुसलमानों के आन्दोलन पर गौर करके देख सकते हैं। अन्य सेक्युलर पार्टियां - उदाहरण के तौर पर जद/यू/ - इसकी अहमियत को स्वीकार कर राजनीतिक कार्रवाई में मुब्तिला दिखती हैं, मगर वाम की पार्टियां अभी इस मसले पर मौन ही हैं।
अल्पसंख्यक समुदाय का नेतृत्व और प्रगतिशील ताकतें
आखिर अल्पसंख्यक समुदाय के नेतृत्व के बारे में - वहां की वर्चस्वशाली राजनीति के बारे में - उसके बारे में हम क्या सोचते हैं।
वैसे समुदाय विशेष को निशाने पर रखने के मामले में बाहर आवाज़ बुलन्द करने के अलावा समुदाय का नेतृत्व और अधिक कुछ करता नहीं दिखता, ताकि अशिक्षा, अंधश्रद्धा में डूबी उसकी विशाल आबादी आज़ाद भारत में एक नयी इबारत लिख सके।
दरअसल उनकी राजनीति की सीमाएं स्पष्ट हैं। वहां वर्चस्वशाली राजनीति बुनियादी तौर पर गैरजनतांत्रिक है। इसमें कई उदाहरणों को पेश किया जा सकता है जिसमें हम पाते हैं कि जहां समुदाय के हितों के नाम पर वह हमेशा तत्पर दिखते हैं, वहीं आन्तरिक दरारों के सवालों को उठाने को वह बिल्कुल तैयार नहीं दिखते, न उसे मुस्लिम महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति की चिन्ता है, न ही वह समुदाय के अन्दर जाति के आधार पर बने विभाजनों - जिसने वहां पसमान्दा मुसलमानों के आन्दोलन को भी जन्म दिया है - के बारे में ठोस पोजिशन लेने के लिए तैयार है। उल्टे हम उसे कई समस्याग्रस्त मसलों की खुल्लमखुल्ला हिमायत करते देखते हैं या उस पर मौन बरतते देखते हैं। उदाहरण के लिए, अहमदिया समुदाय को लें, जिसे पाकिस्तानी हुकूमत ने कट्टरपंथी तत्वों के दबाव में गैरइस्लामिक घोषित कर दिया है, ऐसा करने वाला वह दुनिया का एकमात्र मुल्क है। हम यहां पर देखते हैं कि यहां पर भी मुस्लिम समुदाय के अन्दर ऐसी आवाज लगातार मुखर हो रही है कि उन्हें 'गैरइस्लामिक' घोषित कर दिया जाए।
इस्लामिक समूहों/संगठनों द्वारा देश के बाहर लिए जाने वाले मानवद्रोही रुख को लेकर भी वह अक्सर चुप ही रहता है। चाहे बोको हराम का मसला लें या पड़ोसी मुल्क बांगलादेश के स्वाधीनता संग्राम में जमाते इस्लामी द्वारा पाकिस्तानी सरकार के साथ मिल कर किए गए युद्ध अपराधों का मसला लें, यहां का मुस्लिम नेतृत्व या तो खामोश रहा है या उसने ऐसे कदमों का समर्थन किया है। दो साल पहले जब बांगलादेश में युद्ध अपराधियों को दंडित करने की मांग को लेकर शाहबाग आन्दोलन खड़ा हुआ तब यहां के तमाम संगठनों ने जमाते इस्लामी की ही हिमायत की। 
इस पूरी स्थिति को लेकर वाम/सेक्युलर ताकतें हमेशा अपने आप को दुविधा में पाती हैं। उन्हें लगता है कि समुदाय के नेतृत्व की आलोचना करने का मतलब हम समुदाय विशेष की वंचना को लेकर भी संवेदनशील नहीं दिखेंगे।
अब दरअसल व$क्त आ गया है कि हम 'संवेदनशील' कहलाने वाले ऐसे मसलों को लेकर अपनी दुविधा दूर करें। मुस्लिम अवाम की वंचना के खिलाफ निस्सन्देह हमें अपनी आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए मगर हमें उसके नेतृत्व की मनमानी की, गैरजनतांत्रिक रवैये की मुखालिफत करनी चाहिए। मुसलमानों को खासकर मुस्लिम युवाओं को निशाना बनाने की बहुसंख्यकवादी ताकतों की कारगुजारियों के खिलाफ हमारे संघर्ष का मतलब यह नहीं कि हम उस वक्त भी मौन रहें जब किसी इस्लामिस्ट फ्रंट के कार्यकर्ता मुस्लिम महिलाओं के लिए दिशा निर्देश देने लगें कि उन्हें कैसे रहना चाहिए या किसी प्रोफेसर पर वह जानलेवा हमला इस बात के लिए करें कि उनके वक्तव्य से उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं।
अल्पसंख्यक समुदायों के अन्दर उठ रही नयी राजनीतिक प्रवृत्तियों की तरफ भी हमारी निगाह रहनी चाहिए। इस सन्दर्भ में हम हाल में राष्ट्रीय राजनीति में सुर्खियों में आए 'एमआईएम' अर्थात मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन जैसे संगठन को देख सकते हैं, जिसने भले अपनी शुरूआत हैद्राबाद से की, मगर महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में उसे मिली 'कामयाबी' के बाद उस पर कइयों का ध्यान गया है। इस संगठन का आधार भले ही मुख्यत: मुस्लिम समुदाय में हो, मगर उसने दलितों एवं अन्य पिछड़ी जातियों के साथ गठजोड़ बनाने की बात की है, इतना ही नहीं वह 'पहचान' के सवालों के बजाय 'अधिकारों' की बात करता है, उसके मुताबिक अल्पसंख्यकों को हज सबसिडी नहीं चाहिए बल्कि उन्हें विकास में समान भागीदारी चाहिए।
अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का सवाल
भले ही धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन से जुड़े लोग, संगठन कहते हैं कि वह हर किस्म की साम्प्रदायिकता के खिलाफ है, मगर ह$कीकत यही देखने में आती है कि हमारा पूरा जोर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता पर रहता है, जिसके चलते कई बार हम अपने आप को उस विडम्बनापूर्ण स्थिति में पाते हैं कि हम समुदाय के उन नेताओं के साथ खड़े हैं, जो खुद अपने समुदाय के अन्दर उत्पीडि़त/हाशिये पर पड़े लोगों को अधिकार देने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे रुख का परिणाम यही होता है कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की वाहक शक्तियां एक ऐसे ढुलमुल हिस्से को अपने तरफ करने में इस आधार पर कामयाब होती हैं, क्योंकि वह बताती हैं कि 'अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता' के बारे में हम 'मौन' रहते हैं।
9/11 के आतंकी हमलों के बाद अमेरिका की अगुआई में 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के नाम पर इस्लाम को निशाना बनाया गया और एक किस्म का इस्लामोफोबिया का माहौल बनाया गया, यह बात साफ हैै। हम और वे की इस राजनीति ने कितने निरपराध मुसलमानों पर कहर बरपा किया गया, कितने मुस्लिम बहुल मुल्कों को निशाना बनाया गया, इसके बारे में तमाम तथ्य मौजूद हैं। यह भी जाहिर है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ इसके चलते जो माहौल बना उसमें मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से ने जोरदार भाग लिया, जिसमें विभिन्न छटाओं के लोग देखे जा सकते थे।
इसने भी प्रगतिशील ताकतों के सामने एक मुश्किल पैदा की है क्योंकि उसके अन्दर भी इस्लाम या मुस्लिम बहुल मुल्कों के हर मसले को इसी नज़रिये से देखने की प्रवृत्ति विकसित होती दिखती है, जिसका परिणाम हम बांगलादेश के शाहबाग आन्दोलन जैसे ऐतिहासिक आन्दोलन के प्रति उसके द्वारा अपनाए गए संदिग्ध रुख से देख सकते हैं या ब्रिटेन में 'स्टॉप वॉर कोएलिशन' के नाम पर हुई विशाल लामबन्दी में इस्लामिस्टों द्वारा 'अपनी महिलाओं' को अनुशासित करने के प्रयास के प्रति उनके मौन में प्रतिबिम्बित होता देख सकते हैं।
दक्षिणपंथी हिन्दुत्व या इस्लामिस्टों के विकास के बारे में हमारी अनभिज्ञता
गौरतलब है कि जहां प्रगतिशील ताकतों ने सुसंगत तरीके से हिन्दुत्व दक्षिणपंथ की मानवविरोधी राजनीति की मुखालिफत की है, हमारे बीच अभी भी इस बात का पूरा ज्ञान नहीं है कि किन किन उतारों-चढ़ावों से होती हुई यह ताकतें भारत के राजनीति के हाशिये से केन्द्र में पहुंचीं। न हम इस हक़ीकत के प्रति जानकारी रखते हैं कि अपने बुनियादी सरोकारों को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए किस तरह दक्षिणपंथ ने अपनी रणनीति एवं रणकौशल में तमाम बदलाव किए हैं।
उदाहरण के तौर पर संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर को देखें ।
हमें यह अच्छा लगे या न लगे, मगर इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में खड़े होकर अगर हम सिंहावलोकन करें तो कह सकते हैं यह वह शख्सियत हैं जिन्होंने आज़ाद भारत के इतिहास को - दक्षिणपंथी खेमे की तरफ से - अपने बलबूते प्रभावित किया, मगर इनके बारे में भी हम अधिक नहीं जानते हैं। उन्होंने किस तरह संगठन का विस्तार किया, किस तरह समाज के अलग अलग तबकों एवं इलाकों में उसे फैलाया, यहां तक कि देश के बाहर भी उसका विस्तार किया, इसके बारे में विधिवत जानकारी हमारे पास नहीं है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी के आन्दोलन से दूरी बनाए रखने के कारण तथा गांधी हत्या में हिन्दुत्ववादी ताकतों की संलिप्तता के चलते चालीस के दशक के उत्तराद्र्ध या पचास के दशक के पूर्वाद्र्ध में वह राजनीतिक तौर पर हाशिये पर था, और गोलवलकर की कोशिशों ने हाशिये से केन्द्र की तरफ उसकी यात्रा में संगठन निर्माण की दिशा में 'नयी जमीन तोड़ी।'
नि:स्सन्देह उनका विश्व नज़रिया प्रतिक्रियावादी था, उन्होंने विश्व मानवता के लिए खतरा बने नात्सीवाद का समर्थन किया, उसके द्वारा यहूदियों के नस्लीय सफाये की तारीफ की, ताउम्र उन्होंने मनुस्मृति की हिमायत की, यहां तक जब स्वाधीन भारत का संविधान बनाया जा रहा था, तब सावरकर की तरह उन्होंने भी मांग की कि एक नया संविधान बनाने की आवश्यकता नहीं है, मनुस्मृति को ही अपनाया जाए, कानूनमंत्री डा. अम्बेडकर की अगुआई में जब हिन्दू कोड बिल के जरिए हिन्दू महिलाओं को पहली दफा सीमित अधिकार देने की बात चली तो उन्होंने उसका पुरजोर विरोध किया था, मगर क्या इस बात से इन्कार सम्भव है कि अपने मानवद्रोही नज़रिये के बावजूद उन्होंने हिन्दुत्व परियोजना के लिए एक ऐसा विचारधारात्मक आधार और सांगठनिक बुनियाद प्रदान की कि वह आवाज़ उनके गुजर जाने की आधी सदी के बाद केन्द्र की बागडोर सम्भाले है।
साम्प्रदायिकता की चुनौती खासकर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के जिस खतरे से हम रूबरू हैं उसकी कल्पना उनके 'योगदानों' पर बात किए बिना नहीं की जा सकती। यह सही है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी आन्दोलन के 'पायोनियर' अर्थात 'निर्माता' नहीं हैं। उनके पूर्ववर्ती कई रथी-महारथी थे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, हेडगेवार, सावरकर, जिन्हें किसी न किसी रूप में पायोनियर कहा जा सकता है, मगर आप हिन्दुत्व कर्णधारों की इस सूची से गोलवलकर के नाम को हटा दीजिए तो पाएंगे कि हिन्दुत्व के विचार का प्रभाव बहुत स्थानीय रह जाएगा। अपने तूफानी आगमन के बावजूद, आर्य समाज एक ऐसा आन्दोलन बना जिसका प्रभाव मुख्यत: उत्तर के कुछ राज्यों तक सीमित रहा; हिन्दुत्व नामक किताब के जरिए हिन्दु एकता की वैचारिकी पेश करने वाले सावरकर के संगठन हिन्दु महासभा की अब प्रतीकात्मक उपस्थिति देश में दिखती है।
अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो आज प्रगतिशील/सेक्युलर ताकतों की जो स्थिति भारतीय राजनीति में दिखती है, उससे भी अधिक दुर्गत की स्थिति में राजनीतिक पटल पर हिन्दुत्व की ताकतें थीं। अगर आज 'सेक्युलरि•म' की संकल्पना के इर्दगिर्द ही सन्देह के बादल खड़े किए जा रहे हैं और वास्तविक सेक्युलर लोग अपने आप को राज्य एवं समाज में हाशिये पर पाते हैं, तो एक समय में हिन्दुत्व के हिमायती भी उसी स्थिति में थे।
जैसा कि हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि स्वाधीनता आन्दोलन से संघ की दूरी एवं गांधीहत्या में हिन्दुत्ववादी संगठनों की भूमिका आदि के चलते संगठन को काफी झटके लगे और कहा जा सकता है कि पचास का दशक संगठन के अन्दर बिखराव का दौर था। 1952 के चुनावों में कम्युनिस्टों के प्रमुख विपक्षी दल बनने, जिन्होंने 1957 तक आते आते केरल में सरकार बना कर एक नया कीर्तिमान बनाया, वह स्थिति तथा 'नेहरूवादी समाजवाद' के अन्तर्गत नीतियों के स्तर पर कुछ वामपक्षी कदमों ने दक्षिणपंथी ताकतों को और हाशिये पर डाल दिया। यह देखना दिलचस्प है कि ऐसे समय में गोलवलकर ने संगठन की अगुआई कैसे की:
अपने नेतृत्व के गुणों को गोलवलकर ने दो प्रमुख पहलों के जरिए प्रगट किया - विचारधारात्मक और सांगठनिक । पचास के दशक के पूर्वाद्र्ध में व्याप्त 'लगभग संकट की स्थिति' में उन्होंने तथा उनके सहयोगियों ने यह कदम उठाए। मार्च 1954 में उन्होंने संघ के विचारधारात्मक शस्त्रागार को जिला संगठनकर्ताओं के सम्मेलन में दिए अपने लम्बे वक्तव्य के जरिए समृद्ध किया। संघ के हिसाब से 'इस भाषण ने समकालीन परिस्थितियों में हिन्दुत्व को दार्शनिक बुनियाद प्रदान की'..
लेकिन अधिक महत्वपूर्ण रही आनुषंगिक या 'पारिवारिक' संगठन बनाने की सांगठनिक पहल ...संघ के आनुषंगिक संगठनों के निर्माण के साथ, हिन्दुत्व एक नए तथा अधिक गतिशील दौर में पहुंचा, जिसकी परिणति संघ-विहिप-भाजपा की वर्तमान ताकत में हुई। पेज 34, Khaki Shorts and Saffron Flags/
दरअसल आनुषंगिक संगठन बनाने का विचार पहले से ही अमल में आ रहा था। 40 के दशक के उत्तराद्र्ध में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद तथा भारतीय जनसंघ के नाम से उसके राजनीतिक मंच का निर्माण हो चुका था। 1951 वह वर्ष था जब संघ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक स्कूल की नींव डाली। यह देखना भी दिलचस्प है कि अन्य प्रमुख मोर्चों का निर्माण कब हुआ, विश्व हिन्दू परिषद - 1964, भारतीय मजदूर संघ कब बना या, वनवासी कल्याण आश्रम की नींव कब डाली गयी?
संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता सदानन्द सप्रे ने एक किताब लिखी है 'परम वैभव के पथ पर' /सुरुचि प्रकाशन, 1997/ जिसमें संघ द्वारा अलग अलग कार्यभारों के लिए बनाए गए चालीस से अधिक संगठनों का उल्लेख किया गया है। इस किताब की प्रस्तावना में ही लिखा गया है कि संघ के कामों का परिचय अधूरा रह सकता है जब तक आप उसके स्वयंसेवकों द्वारा हाथ में ली गयी गतिविधियों के बारे में न जानें। किताब में 1996 तक बने संगठनों का जिक्र किया गया है। इसमें संघ द्वारा हाथ में लिए गए 'अभिनव' किस्म के कामों का भी उल्लेख है: उदाहरणार्थ, सिखों एवं हिन्दुओं के बीच दरार पाटने के लिए राष्ट्रीय सिख संगत, दलितों एवं अन्य हिन्दुओं के बीच की खाई पाटने के लिए 'सामाजिक समरसता मंच' या पश्चिम के वित्तीय हमले से संघर्ष के लिए स्वदेशी जागरण मंच।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संघ के 'विकास' में गोलवलकर की बड़ी भूमिका है, मगर क्या इसका मतलब उनके बाद सुप्रीमो बने देवरस पर हम बात ही न करें जिन्होंने संघ को एक जनस्वरूप देने में अहम रोल अदा किया। गोलवलकर ने जहां हिन्दु एकता का - जिसे हम 'असमावेशी' मॉडल कह सकते हैं - प्रस्तुत किया, जिसमें दलितों के लिए वही स्थान तय था, जहां पर वह पहले से स्थित थे; इसके बरअक्स देवरस ने हिन्दु एकता का जो 'समावेशी मॉडल' प्रस्तुत किया, उस फर्क को बारीकी से नोट नहीं किया जाता। अपनी मौत के कुछ साल पहले मनुस्मृति की तारीफ कर विवादों के घेरे में आए गोलवलकर की बात तो हम जानते हैं, मगर सुप्रीमो बनने के तत्काल बाद नागपुर की दीक्षाभूमि पर जाकर अपनी बदली प्राथमिकताओं का संकेत देनेवाले देवरस पर बात नहीं होती। इस रुख का परिणाम यही होता है कि हिन्दुत्व दक्षिणपंथ की हमारी आलोचना, मुख्यत: राजनीतिक समझ पर केन्द्रित रहती है, और उसके पहले के संस्करण पर केन्द्रित रह जाती है।
जिस तरह हिन्दुत्व की विकासयात्रा के बारे में हम अनभिज्ञ हैं, वहीं हाल महाराष्ट्र में जन्मे मौलाना मौदुदी द्वारा बनायी गयी जमाते इस्लामी जैसे संगठन को लेकर भी है, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ही नहीं बल्कि मध्यपूर्व के मुस्लिम बहुल देशों में आज भी अपना प्रभाव रखनेवाले जमाते इस्लामी के संस्थापक एवं उनके द्वारा बनाए संगठन की हमें बहुत कम जानकारी है।
साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष के प्रतीकों से एक नयी मुलाक़ात
भक्ति आन्दोलन के कबीर जैसे सन्त हों या आज़ादी के आन्दोलन के भगत सिंह, अशफाकउल्ला और बिस्मिल जैसे प्रतीक हों, साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन में वह लोकप्रिय प्रतीक के तौर पर पहले से विद्यमान रहे हैं। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद के दौर में या खासकर गुजरात 2002 के संगठित हिंसाचार के बाद प्रगतिशील ताकतों में एक प्रतीक के तौर पर गांधी की भी चर्चा होने लगी है।
इस पूरी प्रक्रिया में कुछ मौनों को देखा जा सकता है:
इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दु मुस्लिम एकता के प्रश्न पर, धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण के सवाल पर गांधी जी ने समझौताविहीन संघर्ष किया, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के दमन के खिलाफ, बहुसंख्यक मानसिकता के खिलाफ आज़ादी के बाद उनका संघर्ष भी एक मील का पत्थर था। मगर एक बात नज़र आती है कि हमारे बीच गांधी जी को लेकर कोई आलोचनात्मक समझदारी मौजूद नहीं है, अगर बारीकी से देखें तो उनके कुछ विचार या प्रतीक हिन्दुत्व के ताकतों के राजनीतिक दोहन का जरिया बनते हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू - जिन्होंने आज़ादी के पहले या बाद भी इन ताकतों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द की, कांग्रेस के अन्दर की हिन्दूवादी धारा के खिलाफ वह लगातार सचेत रहे और उससे टकराते रहे, इतना ही नहीं उन्होंने इस बात की बखूबी भविष्यवाणी की कि किस तरह बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद का चोगा पहन कर हावी हो सकती है, उनके बारे में कोई बात नहीं करता।
तीसरी बात, साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष के प्रतीक के तौर पर अम्बेडकर लगभग नदारद दिखते हैं।
दरअसल, आज आलम यह है कि उनकी छवि में जबरदस्त न्यूनीकरण अर्थात रिडक्शन नज़र आता है। आप इसे सत्ताधारी वर्गों की चाल कह सकते हैं और दलित बुद्धिजीवियों के गाफिल रहने का परिणाम कह सकते हैं कि देश के शोषितों एवं उत्पीडि़तों की मुक्ति के लिए उनके प्रचण्ड योगदानों के बावजूद उन्हें दलित मसीहा तक सीमित कर दिया गया है।
दरअसल, उन्हें प्रोजेक्ट करना महज इस वजह से जरूरी नहीं है कि -
- दलित अवाम का विशाल हिस्सा उन्हें अपने मुक्तिदाता के तौर पर देखता है।
- समाज के तमाम तबकों में उनके नाम की स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है।
- हिन्दुत्व ब्रिगेड की ताकतें अपने विघटनकारी एजेण्डे में उनको भी समाहित करने पर आमादा हैं।
बल्कि ऐसा करना इस वजह से महत्वपूर्ण है क्योंकि-
- ब्राहमणवाद/मनुवाद/ जाति उन्मूलन और जेण्डर समानता के लिए संघर्ष की अगुआई करके
- हिन्दु धर्म की तीखी आलोचना को अन्दर से तेज करके
- जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों की बुनियाद पर संविधान की नींव रख कर वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष के लिए हमें एक वैकल्पिक रास्ता प्रस्तावित करते हैं।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के तमाम महान नेताओं को देखें - उनमें से वह उन गिनीचुनी शख्सियतों में हैं - जिन्हें भारत की गौरवशाली परम्परा के प्रति कोई सम्मोहन नहीं है और जो अपने अनुयायियों को हिन्दु राज बनने के खतरे के प्रति आगाह करते रहते हैं।
- साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में सेक्युलर हस्तक्षेप को लेकर हमारी समझदारी क्या है?
आज जब हम सिंहावलोकन करते हैं तो एक बात स्पष्ट होती है कि यहां धर्मनिरपेक्षता का सामाजिक आधार बेहद कमजोर साबित हुआ है। प्रश्न उठता है कि साठ साल से अधिक वक़्त पहले जब हमने धर्मनिरपेक्षता के रास्ते को स्वीकार किया था, इसके बावजूद यह इतना कमजोर क्यों रहा ?
यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि व्यापक सेक्युलर आन्दोलन में आज भी धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को लेकर काफी संभ्रम दिखता है - क्या उसे सर्व धर्म समभाव के तौर पर देखा जाना चाहिए जैसा कि गांधीजी ने कहा और हम लोगों ने अपनाया या उसे 'धर्म और राजनीति के स्पष्ट अलगाव' के तौर पर परिभाषित करते हुए उसके अमेरिकी संस्करण या फ्रांसिसी संस्करण को अपनाया जाए, यह बात अभी भी जेरेबहस दिखती है।
इतना ही नहीं, चाहे आमूलचूल बदलाव में यकीन रखनेवाली ताकतें हो या अन्य सेक्युलर पार्टियां हो, उनके एजेण्डा पर राज्य की धर्मनिरपेक्षता बनाए रखने का सवाल तो अहम था, मगर समाज के धर्मनिरपेक्षताकरण का महत्वपूर्ण पहलू उनके एजेण्डा में या तो विस्मृत होता दिखा या उसकी उन्होंने उपेक्षा की। शायद इसका सम्बन्ध इस समझदारी से भी था कि भारत जैसे पिछड़े समाज में राजनीतिक-आर्थिक मोर्चों पर बदलाव सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे को भी अपने हिसाब से बदल देगा। शायद हममें से अधिकतर उन दिनों प्रचलित ऐसी समझदारी के कायल थे- जिसे पीटर बर्गर (The Sacred Canopy, 1967) जैसे विद्धानों ने लोकप्रिय बनाया, जिसके तहत कहा जाता था कि आधुनिक औद्योगिकीकृत समाजों में धर्म का सिमटते जाना अवश्यम्भावी है। हम जानते हैं कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षताकरण की इसी क्लासिकीय नज़रिये पर टिका है। मीरा नन्दा जैसी विदुषी-कार्यकर्ता अपनी किताब 'द गॉड मार्केट' में लिखती हैं-
''यह प्रबोधन की परियोजना का ही नतीजा था जिसके अन्तर्गत इस बात पर यकीन था कि जैसे जैसे लोग बिना ईश्वर को शामिल किए प्रकृति की अन्तर्निहित व्यवस्था को समझने लगेंगे, वह ईश्वर पर भरोसा करने से आगे बढ़ जाएंगे। (Page 178, The God Market)
इसके बरअक्स हम यह पाते हैं कि यथास्थितिवादी या प्रतिक्रियावादी शक्तियां - चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जमाते इस्लामी हों या अन्य  धर्म/परम्परा आधारित संगठन हों, वह 'धर्मनिरपेक्षता की मुखालिफत के अपने एजेण्डे को लेकर पूरी तरह सचेत थीं और उन्होंने संस्कृति के दायरे में रणनीतिक हस्तक्षेप के जरिए इस काम को आगे बढ़ाया। अपने 'धार्मिक दृष्टिकोण' को मजबूत बनाने के काम को अंजाम देने के लिए उन्होंने तमाम आनुषंगिक संगठनों का सहारा लेकर उसे संस्थाबद्ध करने की कोशिश की। फिर चाहे स्कूलों, अस्पतालों की स्थापना हो या बाल मानस को प्रभावित करने के लिए हमखयाल लोगों के माध्यम से 'अमर चित्र कथा' जैसे कॉमिक्स का प्रकाशन हो या समाज के विभिन्न तबकों को बांधे रखने के लिए अलग अलग किस्म के समूहों/संगठनों का निर्माण हो, समाज को उन्होंने अपने रंग में ढालने की कोशिश निरन्तर जारी रखी। यह अकारण नहीं कि संघ अपने आप को 'समाज में संगठन' नहीं बल्कि 'समाज का संगठन' कहता है। संघ की इस कार्यप्रणाली में शिक्षा संस्थानों के योगदान की चर्चा करते हुए प्रोफेसर के एन पणिक्कर लिखते हैं कि संघ का शिक्षा सम्बन्धी काम 40 के दशक में ही शुरू हुआ और आज वह सत्तर हजार से अधिक स्कूलों का - एकल विद्यालयों से लेकर सरस्वती शिशु मंदिरों तक - जो देश के तमाम भागों में पसरे हैं, का संचालन करता है। इन गतिविधियों के जरिए वह 'जनता की सांस्कृतिक चेतना को सेक्युलर से धार्मिक बनाने में' सफल हुए हैं ('हिस्ट्री एज ए साइट आफ स्ट्रगल, थ्री एस्सेज कलेक्टिव, पेज 169) उनके मुताबिक:-
'यह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के प्रयासों से गुणात्मक तौर पर भिन्न हैं जो मुख्यत: सांस्कृतिक हस्तक्षेप पर जोर देते हैं, जिसका प्रभाव सीमित एवं संक्रमणशील रहता है। सांस्कृतिक हस्तक्षेप और संस्कृति में हस्तक्षेप का फर्क सेक्युलर और साम्प्रदायिक ताकतों की सांस्कृतिक अन्तर्कि्रया को भिन्न बनाता है और उनकी सापेक्ष सफलता को प्रतिबिम्बित करता है। (वही)
एक दूसरी सीमा यह भी दिखती है कि धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष के विस्तार के तौर पर देखा गया जिसने तमाम ऐसे संघर्षों को उसके दायरे के बाहर रखा, जो इसमें मददगार हो सकते थे। जैसे धर्मनिरपेक्षता को हम स्थूल रूप में /बकौल चार्ल्स टेलर/ 'स्वायत्त सामाजिक दायरों से धर्म के निष्कासन' के तौर पर देखें तो ऐसे आन्दोलन जिनका प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रभाव उसी दिशा में होता है, उन्हें इस आन्दोलन का आवश्यक भाग नहीं समझा गया। मिसाल के तौर पर, जातिविरोधी संघर्ष को देखें या दलित आन्दोलन पर निगाह डालें, पितृसत्ता और जेण्डर आधारित उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष को देखें, या लोक विज्ञान आन्दोलन हों, तर्कशील आन्दोलन हों या सम्मान एवं अधिकार के लिए शोषितों और उत्पीडि़तों के आन्दोलन हों, हम देख सकते हैं कि ऐसे आन्दोलनों में यह सम्भावना निहित होती है कि वह राज्य और समाज में धर्म की भूमिका को सीमित कर दें, मगर न ऐसी कोशिश चली कि धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन के दायरे को हम व्यापक करें या उन्हें एक व्यापक ढांचे में समाहित करें।
दूसरे लफ्जों में कहें तो धर्मनिरपेक्षता विरोधी/साम्प्रदायिक राजनीति के उभार को हम शोषितों-उत्पीडि़तों के संघर्ष में एक नए उतार के तौर पर भी परिभाषित कर सकते हैं। इसलिए लाजिम है कि वर्ग, जाति, जेण्डर, धर्म आधारित उत्पीडऩ, आदि को समाप्त करने के लिए जारी संघर्षों को तेज करना और ऐसे तमाम संघर्षों के बीच समान सूत्र तलाशना वक़्त की मांग है।


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