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अक्टूबर 2015

सम्पादकीय

ज्ञानरंजन

वीरेन डंगवाल को समर्पित

कुछ पंक्तियां

कुछ पंक्तियों में हमेशा ही कुछ पंक्तियां बकाया रह जाती हैं। पहल की यात्रा के अनेक आयाम हैं। वैसे भी हमारी यह मान्यता रही है कि बेहतर संपादन-संचालन एक गहरी सामूहिकता के साथ ही हो सकता है। कम से कम हमारा शिल्प तो यही है, इसलिये सभी को याद करना जरूरी है पर स्मृति के सहारे यह काफी कठिन भी है। कुछ लोग कुछ और भी जानना चाहते हैं, कुछ लोग सारा कुछ जानना चाहते हैं, कुछ लोग पर्याप्त जानते हैं और कुछ अनजान रहना चाहते हैं, उन्हें प्रक्रियाओं और घटनाओं से लेना-देना नहीं। इस प्रकार यह बहुतेरी विभिन्नताओं का समाज है। इनमें जिज्ञासु हैं, अंधेरों में फंसे लोग हैं, अंधभक्त हैं, ईष्र्यालु हैं। अब कुछ पंक्तियां क्या क्या बतायेंगी। जबकि सोशल मीडिया के त्वरित, बेचैन, अबोध शत्रु, मित्र, विरोधी टिप्पणीकार भी हैं। कुछ पत्रों से व्यक्त करते हैं, कुछ टेलीफोन से, कुछ मेल से। सो सब कुछ बेहद पारदर्शी नहीं है। इसमें से निकालना पड़ता है, पर इसमें अब अच्छा लग रहा है। बहुत सी तुनुक मिजाजियों के पीछे वैचारिकी के द्वंद्व की भी वजहें हैं। चौरस्ते हैं, पंगडंडियां हैं। चालीस साल में हमने शक्ति हासिल की है, यह भी जाना है कि कृतज्ञताओं का रहस्य बहुत नहीं खोल देना है और उपद्रवों के बीच शालीनता का निर्वाह भी करना है। महाप्रस्थान पथ पर बहुतेरे आये बहुतेरे गये। कुछ सुखद विदाईयां हैं, कुछ झंझटों भरी। कुछ चुपचाप खो गये, कुछ डटे रहे, कुछ टिके रहे, कुछ मृतात्माएं हैं, इसी तरह चल रहा है। भाषा का एक नया तात्कालिक समाज अब बन गया है, अपने में आत्म-विभोर जो रोज मरता है रोज जीता है। इसलिए 'पहल' तपाक से खुश हो जाने और तपाक से नाराज हो जाने वालों पर क्या प्रतिक्रिया करे। तो हम पिछले अंक से बची हुई पंक्तियों के आगे बढ़ते हैं। त्वरित, संक्षिप्त यह स्मरण और धन्यवाद है।
1973 का उत्तरार्द्ध। पहल-1 प्रकाशनाधीन था। मैं सतना एक व्याख्यान देने गया था। एक प्रगतिशील युवक समूह वहां था। व्याख्यान में स्पेनिश अमेरिका में उन दिनों तीव्र वामपंथी सक्रियताओं के उत्तेजक हवाले थे। उसके बाद एक रात वहां रहा। मेरी मुलाकात स्व. कमला प्रसाद से हुई जो शासकीय महाविद्यालय में अध्यापक थे, उन्होंने पहल से जुडऩे की इच्छा बताई, यह सुखद था क्योंकि हम लोगों को ढूंढ़ रहे थे। जोड़ रहे थे। इस मार्ग पर आज भी थके नहीं हैं। हम आवेगपूर्ण और निहत्थे थे। यह 45 साल लगभग पुरानी बात है। स्व. कमला जी तब एक स्थानीय पत्रिका 'पगध्वनि' निकालते थे, उससे उनका मुक्त होना जरूरी था, उनका 'पहल' से जुडऩे के लिये, और वे हुए, जुड़े। यहां से हमारी नई कहानी शुरु होती है। हमारा साथ गहरी सहमतियों और असहमतियों के साथ रहा। 'पहल' में उनका खून पसीना लगा पर कमला जी लगातार आगे बढऩे वाले, छा जाने वाले शंख फूंखते महापुरुष थे। मैं धीमा, इलाहाबादी, जन्मजात कामरेड था सो रुकता था फिर चलता, मचलता था। कमला जी बाद में कमांडर हुए प्रलेस के और बड़े-बड़े पदों पर गये, वसुधा के संपादक बने। जैसे प्रेमचंद के 'हंस' के राजेन्द्र यादव उस तरह परसाई की वसुधा के कमला जी। पहल को उन्होंने संवारा और फिर वसुधा के नये निर्माता बने।
दूसरा नाम मैं अपने मित्र श्याम कश्यप का लूंगा। जिन्होंने न केवल पहल के फासिस्ट विरोधी अंक का संपादन किया बल्कि आपात काल में 'पहल' पर होने वाले आक्रमणों का जनयुग दैनिक में जबरदस्त जवाब दिया। उस समय यह एक लड़ाकू, साहसिक काम था। श्याम कश्यप जबलपुर में काफी रहे, मुझे अपना गुरु माना और अपने लेखन और प्रतिबद्धताओं में बहुत आगे गये। इस दौर में हमें अपने साथी महान कथाकार भीष्म साहनी का सहयोग मिला, जिन्होंने 'पहल' का चुनाव एफ्रो-एशियन लेखक संगठन की तरफ से पाकिस्तान के साहित्य और फिलिस्तीनी कविताओं का प्रकाशन करने के लिये किया। 'पाकिस्तान में उर्दू कलम' पहल के विशेष अंक के लिये लखनऊ के मशहूर शकील सिद्दीकी का संपादन सहयोग भी हम याद कर रहे हैं। कश्मीर के साहित्य पर केन्द्रित पहल के अंक को सुप्रसिद्ध कवि अग्निशेखर ने संपादित किया जो बाद में हमारे पारिवारिक भी हुए। उनसे हमारी कश्मीर और दिल्ली, जबलपुर में गहरी मुलाकातें हुई और पत्र-संवाद भी हुआ। अब अमिताभ चक्रवर्ती नहीं हैं, वे धनबाद में थे और कम उम्र में दिवंगत हुए पर उन्होंने बांग्लादेश के साहित्य पर एक अनूठे अंक का संपादन किया। 'पहल' के सुप्रसिद्ध पहले कविता अंक (13) के संपादन में सर्वश्री नीलाभ, मंगलेश और वीरेन डंगवाल का सम्मिलित सहयोग है। हम लोग उपेन्द्रनाथ अश्क और कौशल्या जी के घर, 5 खुशबाग रोड पर, नित्य बैठकी करते हुए इस यादगार अंक का संपादन कर सके जो बाद में 'इस नवान्न में' के नाम से भी प्रकाश में आया। पहली बार हिन्दी की साहित्यिक-पत्रिकारिता में पंजाबी, मराठी, बांग्ला और उर्दू की युवा कविता को बड़ी जगह मिली। हमारे वरिष्ठ साथी कर्मेन्दु शिशिर खामोशी के साथ 'पहल' का वह काम करते रहे जो कठिन, श्रमसाध्य ही नहीं अनूठा था और जिसके फलस्वरूप 'पहल' की पहुँच सम्मानजनक रुप से विश्व-भाषाओं के प्रकोष्ठों में हुई। अब उनकी वजह से  पहल की अनुक्रमणिका उपलब्ध है। पहल के हिन्दी की अद्वितीय और आदरणीय प्रतिभाओं का सुनहरा साथ मिला। बड़े मार्क्सवादी आलोचक प्रदीप सक्सेना ने सांस्कृतिक संकट पर दो अनमोल पुस्तिकाएं तैयार कीं और 'पहल' के इतिहास तथा आलोचना अंकों की सालों साल तैयारी करते हुए उन्हें समग्र रूप दिया है। एक बड़े कम्युनिस्ट कार्यकर्ता 'सव्यसाची' पर अनोखी पुस्तिका भी पहल के लिए प्रदीप जी ने तैयार की है। 'पहल' का एक नया संसार रचाने-बसाने में आलोचक और कवि विजय कुमार की बड़ी भूमिका रही है। वाल्टर बेंजामिन पर उनका संपादित अंक आज भी मांगा जाता है और दुर्लभ है। अद्वितीय शायर अफजाल अहमद पर भी पहल ने एक विशेष अंक (45) प्रकाशित किया जिसे विजय कुमार ने शमीम हनफ़ी के सहयोग से तैयार किया था। काफी समय तक पहल के संपादन मंडल में सर्वश्री विनोद श्रीवास्तव, जितेन्द्र भाटिया और परितोष चक्रवर्ती का योगदान बना रहा। जिन दिनों कवि और संपादक (सदानीरा) आग्नेय दिल्ली में रहते थे, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में, वे 'पहल' के संपादक मंडल में शामिल हुए। उन्होंने दिल्ली में 'पहल' की सभी जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित किया। बाद में आग्नेय 'साक्षात्कार' कं संपादक बने। ये लोग अतिथि की तरह नहीं थे। ये मिल जुल कर पहल का वृक्ष बनाने वाले सदाशयी थे। इसका एक मुकम्मल वंश वृक्ष जैसा नक्शा है। इस पूरे उल्लेख की उन्हें जरूरत नहीं है जिनका उल्लेख यहां किया गया है। इसकी जरूरत हमें है, अपने स्वयं के मार्गदर्शन के लिये। पहल का रसायन इसी प्रकार का है, इसी प्रकार का रहेगा। हमारी सोद्देश्य बेचैनियों में जो भी शामिल होगा, होना चाहेगा हम उसका स्वागत करेंगे। पहल आधुनिक साहित्यिक पत्रकारिता में एक लकीर खींचना चाहती है, यह कठिन काम है पर करना यही है।
हमें संतोष है कि 'पहल' का एक विश्वसनीय प्रसार मराठी, पंजाबी और मलयाली इलाके में हो रहा है। पहल हिन्दी रचनाशीलता का एक बड़ा देश बना सके यह संपादकों के ज़ेहन में है। हम केवल समकालीन नहीं हैं जिसकी चाशनी बहुत गाढ़ी है, हमने पिछले अंक में मुंशी नवल किशोर पर प्रमाणिक सामग्री दी थी, इस बार रतनलाल सरशार पर जा रही है, क्रम बना रहे इसकी गंभीर कोशिश है।
हिन्दी आलोचना पर काफी नकारात्मक टिप्पणी होती है, काफी हताशा और हाय हाय है, बहुत निराशाजनक हालत है इसीलिये हम अभी तक पुस्तक समीक्षा का कॉलम शुरू नहीं कर पाये। फिर भी नयी पारी में हमने सर्वश्री वैभव सिंह, प्रियम अंकित, राहुल सिंह, शिरीष मौर्य, पंकज चतुर्वेदी, गजेन्द्र पाठक, अमिताभ राय, प्रणय कृष्ण, अच्युतानंद मिश्र से सहायता ली है, और अब इस अंक से पहली बार अविनाश मिश्र को एक जिम्मेदारी दे रहे हैं।

अंत में
वीरेन डंगवाल 'पहल' के निर्माताओं में प्रमुख थे। बहुतेरा और सर्वोत्तम उन्होंने 'पहल' को दिया था। हमें वीरेन के निधन को झेलना कठिन है। महाकवि रिल्के की कुछ पंक्तियां शायद आंशिक कृतज्ञता व्यक्त कर सकें -

लो निकाल मेरी आँखें, पर मैं तुम्हें देख सकूंगा
मूंद दो कान मेरे, फिर भी मैं तुम्हें सुनूंगा
बिना पैरों तक भी तुम तक पहुँचूंगा
और बिना मुंह के तुम्हारा नाम गुनूँगा।

तोड़ दो भुज मेरे, गहे तुम्हें रहूँगा फिर भी
अपने हृदय में, मानो कड़ी मुट्ठी में

रोक दो हृदयगति, धड़कन मस्तिष्क में बहेगी
और मस्तिष्क को फूंक दोगे यदि भट्टी में
स्पंदन तुम्हारा मेरी रक्तधार धारे रहेगी।

बाकी फिर....
ज्ञानरंजन


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