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जून-जुलाई 2015

लेखक परिचय

सम्पादक




गजेन्द्र पाठक
अपने बिलकुल शुरुआती लेखन के दिनों में गजेन्द्र पाठक ने 'पहल' में लिखा तब वे बिहार के आरा में सुप्रसिद्ध महाराज कॉलेज में अध्यापक थे। अपने गृह नगर में थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई करके लौटे थे। वे हिन्दी के एक दूसरे होनहार आलोचक पकंज चतुर्वेदी के सहपाठी रहे है। इन दिनों गजेन्द्र हैदराबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर है। उन्होंने निबंध और आलोचना की एक सुंदर शैली अपने लेखन में विकसित की है। आपकी दो कृतियां, 'हिन्दी नवजागरण' और 'शमशेर की आलोचना दृष्टि' प्रकाशित हुई है। (मो. 08374701410)

देवी प्रसाद मिश्र
देवी प्रसाद मिश्र इलाहाबाद से निकले हैं। दिल्ली, मुम्बई में मीडिया की खासी नौकरियाँ कीं पर रास नहीं आईं। सब कुछ छोड़कर दिल्ली में रहते हैं। बस लेखन करते हैं, अनुवाद और फिल्म निर्माण भी करते हैं। देवी को अपनी कठोर ज़िदों के सहारे रहते हुए लम्बे समय से देखा जा सकता है। देवी की प्रतिष्ठा बहुत सीमित है क्योंकि फेंस पर रहने वाला बहुसंख्यक हिंदी संसार उनसे किंचित चिढ़ता या उदासीन भी रहता है। 'पहल' को देवी की बहुतेरी कविताएं और कहानियां छापने का अवसर मिला।
देवी प्रसाद मिश्र का नाम कविता के संदर्भ में इसलिए महत्तवपूर्ण है कि उन्होंने हमारे सामाजिक परिवर्तन को न केवल विचार के स्तर पर बल्कि संरचना के स्तर पर भी अपनी कविता में विन्यस्त किया है। सिनेमा और उसके निर्माण में देवी की गहरी रुचि है। महादेवी पर 'पंथ होने दो अपरिचित' और नज़ीर अक़बरवादी पर 'आदमी नामा' शीर्षक से फिल्में बनाई हैं। देवी निर्मित 'फीमेल न्यूड' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और 'सतत' कान्स फिल्म महोत्सव के शार्ट फिल्म कार्नर में 2015 में शामिल। एक अप्रकाशित उपन्यास है- ''शोषण तंत्र में एक निर्वासित की दंत कथा।'' (मो. 09250791030)

सुभाष पंत
पाठकों के दिमाग में सुभाष पंत की कहानी 'सिंगिंग बेल' की गूंज अभी थमी नहीं है कि उनकी एक ताज़ा लम्बी कहानी पहल के सेंचुरी अंक में शामिल हो गई है। सुभाष पंत अंक के सबसे वरिष्ठ कथाकार हैं। 'गाय का दूध' उनकी पहली कहानी 1972 में सारिका में छपी। 14 फरवरी 1939 को जन्मे सुभाष पंत उस समय 33 वर्ष के थे और उनकी लड़कपन की उम्र बीत गई थी। देहरादून में उस समय साहित्य के मामूली अड्डे थे। आज़ादी के बाद ही हमारी पीढ़ी के नागरिकों की तरह सुभाष पंत भी विसंगतियों और अभावों के बीच पढ़ाई लिखाई करते रहे। काफी समय वे तपेदिक की गंभीर बीमारी से भी जूझे और उनका पहला संग्रह 'तपती हुई ज़मीन' उस समय आया जब हिन्दी में समांतर आंदोलन का हल्ला था और कमलेश्वर हिन्दी कहानी के बड़े नेता थे। एक दिलचस्प बात यह है कि जिस समय आपात काल आया और सत्ता राजनैतिक लेखन के खिलाफ थी उसके तत्काल बाद सुभाष पंत की खुफिया जांच शुरू हुई। इसकी वजह पता नहीं जबकि सुभाष पंत का जीवन उत्कृष्ट और पारदर्शी था।
देहरादून में जो पहला आधुनिक नाटक खेला गया वह सुभाष पंत की कहानी 'चिडिय़ा की आंख' पर आधारित था। उनके प्रमुख कहानी संग्रहों में, ''मुन्नी बाई की...'', ''जिन्न और अन्य कहानियाँ'' और ''छोटा होता हुआ आदमी'' हैं। एक उपन्यास 'पहाड़ चोर' भी है।
सुभाष पंत की कहानियां भाषायी अंदाज का बेजोड़ नमूना है। उसकी कहानी ''अन्ना भाई का सलाम'' के ये वाक्य पाठक देखें  ''ऐसे निरीह किस्म के आदमी के लिये कोई भी अपनी बंदूक की गोली खराब नहीं करना चाहेगा। चाकू का फलक भी, जिसका लोहा खून बहाने के बाद कुछ अलग ढंग का दिखाई देने लगता है।'' (मो. 09897254818)


एस.आर. हरनोट
एस.आर. हरनोट की 'आभी' और 'बिल्लियां बतियाती हैं' जैसी कहानियों को 'पहल' के पाठक अभी भूले नहीं हैं। हरनोट शिमला की वादियों में, हिमांचल के बीहड़ कोने अंतरों में जीवन की मार्मिक घटनाओं में, पहाड़ के हाड़ के साथ जुड़े एक अनूठे कथाकार हैं। 'पहल' के साथ साथ बड़े हुए और सौवें अंक में एक प्रभावी कहानी 'भागा देवी का चाय घर' लेकर उपस्थित हैं। वे हिमांचल के और हिन्दी के सर्वोत्तम कथाकारों की सूची में हैं। पहाड़ों में ग्लेमर की स्थूल चादर को उन्होंने फाड़ा है। एक नैसर्गिंक और मनोरम पहाड़-संस्कृति में कारपोरेट संस्कृति की अश्लीलता किस तरह पतन और विकृति पैदा करने लगी है, इसके संकेत हरनोट प्राय: देते रहते हैं, इस कहानी में वह प्रमुखता से हैं। 'अच्छे दिन' एक सबसे नया और घातक जुमला है जो अपने सर्वग्रासी पहुँच से चाय को मदिरा में और मदिरा को बलात्कार की हविश में बदल देना चाहता है। इस कारपोरेट प्रजाति की तुलना में वनैले पशुओं के बच्चे अधिक अहिंसक, जीवनदायी और विश्वसनीय मित्र हैं।
हरनोट हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं और वे सदैव की तरह कलम पर पहाड़ उतार रहे हैं। कई चर्चित संग्रहों के अलावा उन्होंने हिमांचल के दुर्लभ देव स्थानों, उनकी यात्राओं पर भी एक पुस्तक लिखी है। वह अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। (मो. 09816566611)

अशोक कुमार पाण्डे
अशोक कुमार पाण्डे चालीस वर्ष के हैं और उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के मधुबन कस्बे में पैदाइश है। छात्र जीवन से ही रेडिकल वाम से जुड़े। 'दखल' विचार मंच के संस्थापक जो दिल्ली में सक्रिय है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ''अन्डरस्टैंडिंग मार्क्स फॉर बेटर फ्यूचर'' के नाम से मासिक अभ्ययन चक्र का संचालन करते हैं और अदम गोंडवी पर एक बहुमूल्य संपादन 'कल के लिये' के लिये किया। दो अनुवाद प्रकाशित। एक 'हम और हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता' (शमशुल रहमान) और दूसरा ''आज़ादी की लड़ाई में भारतीय मुसलमान'' (शांतिमय दे)। 2010 में 'लगभग अनामंत्रित' और 2014 में 'प्रलय में लय जितना' कविता संग्रह प्रकाशित। 'पहल' में पहली बार। (मो. 08375072473)

ध्रुव हजारिका
'कुक्कुटज्वर' (Chicken Fever) ध्रुव हज़ारिका के अंग्रेज़ी कहानी संग्रह (Luck Penguin Book India 2009) में संकलित है। इस संग्रह की कहानियों को रास्किन बांड ने Abdorbing, spare and often deeply moving कहा है। अब तक उनकी तीन कृतियाँ आ चुकी हैं, जिनमें दो उपन्यास A Bowstring winter (2006) और Son of Brahma (2014), मेघालय के खासी आदिवासियों और कार्बी आदिवासियों और संत्रासवादियों पर हैं।
1956 में जन्मे ध्रुव हज़ारिका अपनी प्रशासकीय ज़िम्मेदारियों के बावजूद अपने लेखन कार्य को दीवानगी की सीमा तक प्यार करते हैं। उनका लेखन वैष्णवी करुणा से ओतप्रोत है और शिलांग में लालन-पालन, शिक्षा एवं अंग्रेज़ी लेखन के बावजूद न तो उनकी कृतियों में और न ही जीवन में किसी तरह की अहंमन्यता या बनावटी तत्व हैं।
'कुक्कुटज्वर' असमिया एवं असम की अन्य भाषाओं- बांग्ला, हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य ट्रायबल भाषाओं में लिखी अन्य कहानियों से इसलिए अलग और बेहतर है कि यह कहानी निर्वैयिक्तक हैं। विदेशी वितरण एवं पूर्वोत्तर भारत में विदेशी नागरिकों की उपस्थिति पर गल्प, कविता एवं एकांकी नाटक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं किन्तु उनके रचनाकार अपने पात्रों पर हावी रहते हैं और अधिकांश लेखक स्थानीय नागरिकों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संकट को प्रकाश में लाते हैं। ध्रुव हज़ारिका ने बहुत ईमानदारी के साथ विदेशी मेहनतकशों के संघर्ष और बेचारगी पर फोकस डाला है। लेखक की अब तक प्रकाशित तीन कृतियों ए बोस्ट्रिंग विंटर, लक तथा संस आव ब्रह्मा में उसका वैष्णवी व्यक्तित्व एवं मानवीय करुणा स्थायी भाव के रूप में खुलकर आए हैं : कहानी का स्थायी भाव यह करुणा ही है और मुर्गी एवं उसके चूज़े तो केवल Objective Correlative के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। ध्रुव की कहानियों में वन्य-जन्तुओं की ज़ोरदार उपस्थिति है किंतु किपलिंग की जंगल कहानियों से एकदम अलग हैं। एक नौकरशाह होने के बावजूद उनकी कहानियाँ सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध करती हैं।
हजारिका अर्थशास्त्र के विद्यार्थी हैं और वे अंग्रेज़ी को मातृभाषा की तरह लिखते हैं किन्तु उनका अलंकरण और अभिव्यक्ति अत्यंत देशी है। वे अपने टटके चित्रकल्पों और शालीन उत्प्रेक्षाओं के लिये विख्यात हैं।
इस कहानी में जड़ाऊ, रईसाना भाषा और सामान्य जन की भाषा का आनुपातिक प्रयोग क़िस्सागोई को अतिरिक्त गरिमा प्रदान करता है। पूर्वांचल के प्रशासक शक्तिशाली होने के बावजूद मानवीय संवेदनशीलता से ओतप्रोत होते हैं और मुख्यपात्र इसी मानवीय गरिमा का प्रतीक है, किन्तु कहीं से भी यह पात्र आदर्श-प्रस्तुत नहीं दिखता अन्यथा वह किसी बंबईया फिल्म के नायक जैसी सर्वगुण सम्पन्न दिखाता। और यह एक ऐसा पक्ष है जो ध्रुव हजारिका को जार्ज आर्वेल के समकक्ष क़िस्सागो बनाता है। यह कहानी एलिस मुनरो की अंग्रेज़ी कहानियों की तरह औसत हिन्दी या असमिया कहानियों से ज़्यादा बड़ी है लेकिन इसमें इतना कसाव है कि यह पाठकों को बाँधकर रखती है।

दिनकर कुमार
सौवें अंक के नायाब संकलनों में असमिया के बीस कवियों की बीस कविताएं विशेष रूप से प्रस्तुत हैं। युवा शब्द को हम रेखांकित कर रहे हैं क्योंकि ये वास्तविक युवा खोज हैं। ये युवा कवि 1983, 84, 85, 87, 88 यहां तक कि 1992 में जन्मे हैं। इनकी उम्र औसत रूप से 35 वर्ष के क़रीब है। पूर्वोत्तर के इस उथल पुथल भरे प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में एक ही समय में लिखते हुए कवि हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। इनकी कविता का जुमला अनोखा है, काव्यार्थ अग्रगामी है और वे भारतीय कविता का एक बेहतर मुखौटा बनाते हैं। अगर यह कविता जीवित और समृद्ध हो सकी तो इसमें भारतीय और विश्व कविता का अंश है।
इस कठिन काम को हमारे पुराने साथी दिनकर कुमार ने साल भर की कड़ी मेहनत के बाद पहल के लिये प्रस्तावित किया। दिनकर कुमार दरभंगा के एक गांव में 1967 में पैदा हुए और अपने जीवन के बड़े हिस्से को असम की संस्कृति में लय कर दिया। वे दैनिक सेंटिनल के संपादक हैं। (09435103755)

तुषार धवल
काफी हद तक ये निजी कविताएं हैं और निजता के दायरे को तोड़ कर बढ़ भी जाती हैं। तुषार धवल पहल के पाठकों के लिए कई तरह से परिचित हैं। उनके जीवन में एक लंबा दुखद इंतजार था लेकिन निराशा का यह अध्याय बंद हुआ जब उन्होंने ये कविताएं लिखीं। ये कोख से निकली और नवजात से संवाद की कविताओं की एक श्रृंखला हैं। ये कविताएं जीवन के मूल में उतरने का प्रयास करती हैं और जीवन, स्वत्व और उसके प्रति राग का सार्वभौम खोल रही हैं। श्रृंखला की दस कविताओं मे हम पाँच ही छाप सके हैं।
पाठकों आपको स्मरण होगा कि तुषार ने पहल के लिए दिलीप चित्रे के अनुवाद भी किये और अब शीघ्र उनके अनुवादों का एक वृहत् खण्ड आने वाला है। मुम्बई में रहते हैं, पेंटिंग करते हैं और उसमें एक दुर्लभ शैली विकसित की है। पहल का एक मुखपृष्ठ भी उन्होंने बनाया है। (मो. 09769321331)


सत्यनारायण पटेल
पिछले वर्षों में सत्यनारायण पटेल ने नये कथाकारों में आकर्षक स्तर बनाया। उनकी ज़मीन मालवा अंचल है। मालवी बोली का उत्कृष्ट उपयोग करते हुए कहानी की भाषा को समृद्ध करने वाले सत्यनारायण पुलिस की एक छोटी नौकरी करते हैं। 'बिजूका' नाम से एक जागरूक संस्था बनाकर मालवा की पट्टी में नाटक, फिल्म, चित्रकला, के माध्यम से एक जाग्रत चौपाल चलाते हैं। दो कहानी संग्रह चर्चित हुए, एक उपन्यास। एक उपन्यास प्रकाशनाधीन है। सत्यनारायण इंदौर में कभी प्रलेस के नव निर्माताओं में थे पर उनका उभार स्वीकृत नहीं हुआ, उनको कई तरह के सांस्कृतिक दंड झेलने पड़े पर अपने लेखन और सामाजिक दायित्व की चुनौतियों से कभी गाफ़िल नहीं हुए। (मो. 09826091605)

अनिल यादव
पहल ने अपनी दूसरी पारी में अनिल यादव का यह उपन्यास अंश गीत चतुर्वेदी के उपन्यास अंश के बाद छापा है। दोनों नये लेखक हैं। अनिल स्वभाव से आवारा हैं। घूमन्तू और निर्बाध। हिन्दी अंग्रेजी के अच्छे अखबारों में नौकरी की और छोड़ी। हिन्दी में उन्हें पूर्वोत्तर के अपने छोटे सफरनामे से अनोखी ख्याति मिली। इस समय हिन्दी कहानी में जब एक खलबली और बेचैनी है, और नये कथाकार रचनात्मक संघर्ष कर रहे हैं उस समय अनिल अपनी कहानियों से एक नई संरचना बना रहे हैं। 'नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं' उनका संग्रह है। एक नये उपन्यास में कड़ी मेहनत कर रहे हैं, पहल में उसका अंश पहली बार। इन दिनों हिन्दी बी बी सी के लिये फुटकर काम करते हुए बार बार अपना स्थायी पता बदल रहे हैं। (मो. 09452040099)

निशांत
यह सही है कि निशांत अपनी कविताओं में प्राय: कुछ जरूरत से ज्यादा लिखते हैं। उन्हें बड़ी कविता की तरफ पैर बढ़ाना है और यह संभव है। अंचल को उन्होंने भरपूर पी लिया है। उन्हें अब डटकर अपनी कविताओं पर मशक्कत करनी होगी अथवा उन्हें छोड़ देना होगा। निशांत पिछले दस वर्षों में हिन्दी पत्रिकाओं में पर्याप्त लोकप्रिय हुए हैं, वे हिमांचल की गोद से आते हैं। पहल में कई बार छपे। उन्हें काफी वक़्त हो गया, अब उन्हें अपनी संवेदना के वृत्त को तोड़ कर आगे बढऩा होगा। उनकी नज़र उनका अनुभव उनका स्वप्न कच्चा नहीं है। निशांत की कविताओं में 'स्वप्न' शब्द बार बार आता है।


रवि बुले
रवि बुले को प्रारंभिक संस्कार जबलपुर में मिले जब वे कविता, कहानी का अक्षर ज्ञान कर रहे थे आरै साथ में अपनी पढ़ाई। नई दुनिया, अमर उजाला, जागरण जैसे दैनिकों में जगह जगह नौकरियाँ करते करते मुम्बई पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपने दो कहानी संग्रह तैयार किये और एक उपन्यास 'दलाल की बीवी' लिखा जो मधुर भंडारकर और तिग्मांशु धूलिया जैसे फिल्म निर्देशकों को रास आया। किस्सागोई रवि बुले की ताकत है। उनका कहानी संग्रह 'यूं न होता तो क्या होता' लम्बी कहानियों का संग्रह है जिसे हार्पर कालिंस ने छापा है। रवि बुले उत्तर आधुनिक कहानी नहीं बल्कि कहानी की वास्तविक होड़ में हैं। (मो. 09926865558)

अभय कुमार दुबे
अभय कुमार दुबे स्व. रजनी कोठारी द्वारा स्थापित सी एस डी एस नई दिल्ली में भारतीय भाषा परिषद कार्यक्रम के निदेशक हैं। यह ताज़ा, विशेष व्याख्यान उन्होंने पिछली 26 जनवरी 2015 को, राष्ट्र सेवा दल पुणे के आयोजन में नाथ पै सभागार में दिया था। व्याख्यान की मूल थीम 'भारत देश की नई चुनोतियां' है इसमें जनगण आंदोलनों का समावेश भी है। हमारे आग्रह पर श्री दुबे ने यह व्याख्यान कुछ और समृद्ध करके हमें प्रकाशन के लिये उपलब्ध कराया है। (मो. 09810013213)

इंदिरा दांगी
मुरैना में जन्मी इंदिरा दांगी कुल 34 साल की हैं। एक डॉक्टर की पत्नी हैं, दो शिशु संतानें हैं, मुरैना मध्यप्रदेश से आती हैं। बुंदेलखण्ड में पली बढ़ी हैं। कभी इसी क्षेत्र से बड़ी कथाकार मैत्रेयी पुष्पा उभरी थीं आज बड़ी कथाकार हैं।
कहानी की ताज़ा और आधुनिक मुठभेड़ में कम समय और कम उम्र में अपनी जगह बनाने वाली इंदिरा दांगी का ट्रैक बहुत ही सधा हुआ है। दो कहानी संग्रह चर्चित हुए और 'पहल' में प्रकाशित कहानी 'शुक्रिया इमरान साहब' को रमाकांत कहानी पुरस्कार भी 2014 में मिला। (मो. 08109352499)

श्याम मनोहर
मराठी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं, अब तक उनके दो कहानी संग्रह, 6 नाटक और 7 उपन्यास प्रकाशित हैं।
मराठी साहित्य की मध्यवर्ती धारा से हटकर अपने स्वाधीन चिंतन से और अनुभव से लिखने वाले लेखक हैं। साहित्य कृति की अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति की भाषा और रूप को लेकर उन्होंने मौलिक विचार किया है और उसी के अनुरूप अपनी कृति तैयार की हैं। वे एकमात्र मराठी रचनाकार हैं जिन्होंने फिक्शन को लेकर अपना दर्शन लगातार अपनी रचनाओं के माध्यम से विकसित किया है। उनकी कहानी 'नागरिक' पहल के 1988 के एक अंक में प्रकाशित भी हुई है। और उनके साथ उनकी कहानियों की समीक्षा करने वाला एक आलेख भी था। उनके नाटक दर्शन का अनुवाद हिन्दी में राजेन्द्र धोड़पकर ने किया है जिनके कार्टून लगातार पहल के पाठक देख रहे हैं। उनके एक उपन्यास 'बहुत लोग हैं' का अनुवाद निशिकांत ठकार ने किया जो 2012 में छपा। साहित्य अकादमी से वे सम्मानित हैं।

गौरी नाथ
गौरीनाथ मूलत: कथाकार और पत्रकार हैं। प्रारंभ में हंस में सहयोगी रहे फिर स्वतंत्र प्रकाशन शुरू किया। मैथिली में 'अंतिका' नाम से और हिन्दी में 'बया' नाम से पत्रिकाएं संपादित करते हैं। 'नाच के बाहर' कहानी संग्रह को पर्याप्त मान लिया। तीव्र कठिनाईयों के बीच सांस्कृतिक रूप से सक्रिय हैं। हिन्दी के आंचलिक कोनों के नए रचनाकारों को सुरुचिपूर्ण प्रकाशन देकर 'अंतिका प्रकाशन' ने अपनी जगह बनाई है। हाल ही में स्मृतिशेष, दलित साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि के ऊपर एक महत्वपूर्ण कृति संपादित की है।
(मो. 09871856053)

जयश्री राय
जयश्री राय बिहार की हैं और गोवा में पठन-पाठन के बाद वहीं बस गई हैं। जयश्री राय से हमने काफी दिन परहेज किया। उनकी इमेज एक बोल्ड कथा लेखिका की बन गई थी। वे बहती हुई बहार में पहचानी गई पर हमने उनकी प्रतिभा की प्रतीक्षा की। हिन्दी के संपादक जो न करें। यह कहानी 'पहल' के सेंचुरी अंक में जयश्री राय की वास्तविक प्रतिभा, सही दिशा और उनके जीवन प्रेम की कहानी है। अब भावी राह उन्हें तय करनी होगी। (मो. 09822581137)

नरेश सक्सेना
उनकी यह बहुप्रतीक्षित लम्बी कविता, लगभग दो साल से हमारी और कवि की घोषणा के बाद आ सकी है। हमने 'पहल' के शुरुआती अंकों में इसके प्रकाशन का आश्वासन दिया था। कवि ने हर जगह यह बताया कि कविता 'पहल' को ही दी जायेगी। इसके अनेक अंश अनेक मंचों पर पढ़े गये। यह मुकम्मल है, अभी यह आश्वस्त नहीं कर सकते। यह गुम हुई, पुन: लिखी गयी। यह पूरी है या इसके बकाया अंश बाद में आयेंगे हम नहीं जानते। पर नरेश सक्सेना की इस महत्वाकांक्षी कविता का हल्ला हर जगह है। पोयट्री प्रोमोशन का यह जबरदस्त कार्यक्रम है। यह हिन्दी का नया युग है जिसे एक वरिष्ठ और सम्मानित कवि ने शुरु किया। इस तरह के तत्व कुछ कुछ आलोक धन्वा में भी थे पर नरेश जी ने इस कविता को जादुई पाठ में तब्दील कर दिया।
कविता जहां समाप्त की गई है, वह उसके बाद भी जारी रहती है। शेष हिस्से एक कहानी कहते हैं। अप्रकाशित हिस्से बेहद मार्मिक हैं और उसकी जनसुनवाई आज के वक़्त में भी पाठ और श्रवण का एक अनुभव हो सकती है। (मो. 09450390241)

जितेन्द्र भाटिया
आई.आई.टी. मुम्बई से निकलकर एक अच्छे केरियर की शुरूआत के बावजूद जितेन्द्र भाटिया ने अपने सामने के समय को बहुत बेचैनी से देखा है। उन्होंने कारपोरेट की लूट और पूंजीवाद और विकृतियों के खिलाफ लगातार लिखा। इक्कीसवीं सदी की लड़ाईयों को उन्होंने पढ़े लिखे हिन्दी समाज तक पहुँचाने का काम किया है। जितेन्द्र भाटिया का लेखन छद्म विकास, सार्वकालिक झूठों का डटकर मुकाबला करता है। पहल के सबसे लोकप्रिय स्तंभकार इन दिनों जयपुर में रहते हैं और स्वतंत्र काम करते हैं। (मो. 09840991304)

पंकज चतुर्वेदी
आलोचना में विवेकपूर्ण साहस और आक्रमण में पंकज चतुर्वेदी अगुआ हैं। वे तत्परता से प्रहार करते हैं और नीति एवं मूल्य की रक्षा करते हैं। पहल में लम्बी सिरीज़ मूल्यांकन की वे कर चुके हैं। वाचिक की भी तर्कपूर्ण और आक्रामक अवाक करने वाली शैली उनके पास है। छात्रों के प्रिय अध्यापक हैं और गोष्ठियों में अपने मौलिक विचारों के कारण केन्द्र में आ जाते हैं।
पंकज चतुर्वेदी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सर्वोत्तम वर्षों के छात्र रहे हैं। कविता के लिये उन्हें भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार आरै आलोचना के लिये देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिल चुके हैं।
साहित्य अकादमी के लिये साहित्य के निर्माता सिरीज़ में रघुवीर सहाय पर एक मोनोग्राफ तैयार किया और दूसरा बहुमूल्य मूल्यांकन उन्होंने कुंवर नारायण का किया है, (जीने का उदात्त आशय), जिसका प्रकाशन राजकमल ने हाल ही में किया है। पंकज का कविता कोना भी मजबूत है। 2015 में उनका कविता संग्रह ''रक्तचाप और अन्य कविताएं'' वाणी ने प्रकाशित किया, जिस पर मंगलेश डबराल और प्रणय कृष्ण की पठनीय टिप्पणियां हैं। हिन्दी समाज में आत्मकथा सम्बंधी बहस शुरू करने वाली क़िताब 'आत्मकथा की संस्कृति' है। (मो. 09425614005)

मंगलेश डबराल
मंगलेश डबराल हिन्दी की आधुनिक कविता के अत्यंत सम्मानीय और शीर्ष रचनाकारों में हैं। आपने हिन्दी कविता को नये अनुभवों से सम्पन्न किया है। 'पहाड़ पर लालटेन' उनका पहला संग्रह था जो 1981 में आया और 'नये युग में शत्रु' सबसे नया संग्रह है जो 2013 में प्रकाशित हुआ। मंगलेश का सुंदर, सोद्देश्य गद्य उनकी यात्रा डायरी 'एक बार आयोवा' और 'लेखक की रोटी' में देखा जा सकता है। मंगलेश अपने समय के सिनेमा, सांस्कृतिक सवालों और संचार माध्यमों के अलावा विश्व की संवेदनशील घटनाओं पर टिप्पणी करते रहे हैं। विश्व कविता के उन्होंने कुछ सुनहरे अनुवाद किये हैं और नई साहित्यिक पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले मंगलेश इन दिनों 'शुक्रवार' के सलाहकार संपादक हैं। साहित्य अकादमी सम्मान और कई उल्लेखनीय पुरस्कारों के अलावा मंगलेश को 'पहल सम्मान' 1996 में दिया गया। (मो. 09910402459)

राजेश जोशी
राजेश जोशी का भोपाल का होना एक गहरा मतलब रखता है। राजेश जोशी की जड़ें भोपाल में हैं और यह शहर भी अनोखा। उन्हें अन्यत्र कहीं भी अच्छा नहीं लगता। इसलिए राजेश एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता नरेश सक्सेना के शब्दों में, समय, स्थान और गतियों के अछूते संदर्भों से भरी हैं। राजेश से पहल सहकार पुराना है। पहल सिरीज़ में एक लम्बी कविता 'समरगाथा' से उनकी शुरुआत हुई जो पुरस्कृत भी हुई। राजेश जोशी का गद्य उनकी कविता के नीचे दबा हुआ नहीं है। राजेश का नाटक 'जादू जंगल' लोकप्रिय हुआ और उनकी नोटबुक शानदार है। उनके कविता संग्रह में 'एक दिन बोलेंगे पेड़', 'मिट्टी का चेहरा', 'नेपथ्य में हँसी' और 'दो पंक्तियों के बीच' काफी पढ़े जाने वाले संग्रह हैं। 'पहल' की यात्रा में राजेश की जरूरी भूमिका है, उन्हें 1998 में 'पहल सम्मान' से विभूषित किया गया। और साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय सम्मान तो उन्हें मिला ही है। (मो. 08988051304)

अच्युतानंद मिश्रा
नौजवान सांस्कृतिक अन्वेषक और आलोचक अच्युतानंद मिश्रा के लेख पहल के पाठक पढ़ते रहे हैं। अभी पिछले अंकों में उन्होंने 'फूको' को लेकर एक पाठ हिन्दी समाज के लिये प्रस्तुत किया था। उसी कड़ी में हेबरमास की आधुनिकता संबंधी परिकल्पनाओं पर यह संक्षिप्त लेख जा रहा है। आधुनिकता को लेकर पश्चिम में काफी गंभीर बहसें हुई हैं और हेबरगाम में उसका एक श्रेष्ठ अंश है। आज से करीब तीन चार दशक पूर्व अंग्रेजी कवि स्टीफेन स्पेंडर ने भी (जो कुछ समय 'इनकाउंटर' के संपादक थे) एक क़िताब लिखी थी, ''मार्डन मूवमेंट इज़ फेल्ड'' जिसकी काफी चर्चा हुई और उसने बहस को एक हद तक पहुँचाया। इस छोटे लेख के मार्फत हम चाहते हैं कि कुछ सुगबुगाहट हो, कुछ इच्छुक विचारक नौजवान सामने आयें तो हमें खुशी होगी। हमारे भारतीय समाज में आधुनिकता पर किंचित जरूरी दिलचस्पी वामपंथियों ने जरूर दिखाई पर वह अपर्याप्त सी है। (मो. 09213166256)

गोपाल नायडू
हिटलर के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेता और महान जर्मन कवि, नाटककार बर्तोल्त ब्रेष्ट की एक उक्ति से गोपाल नायडू ने अपनी शुरूआत की है। वे निरंतर सीखते हुए एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं और महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्र और नेपाल के कठिन इलाकों में घूमते हुए अपने लेख, संस्मरण, कहानियाँ और विचार दर्ज करते रहे हैं। गोपाल नायडू पहल की दूसरी पारी में प्रकाशित भी हुए हैं, अपनी ड्राइंग के साथ। वे मूलत: शिल्पी हैं और मिट्टी का उपयोग शिल्पों के लिये करते हैं। देवीलाल पाटीदार की तरह उन्होंने कला साधना के लिये सबसे सस्ती और सुलभ सामग्री को कला का आधार बनाया है। सेवा निवृत्ति के काफी पहले एक खासी नौकरी छोड़कर सैलानियों और कार्यकर्ताओं की राह पर चल पड़े हैं। कभी कभी नागपुर में रहते हैं। यहाँ उन्होंने अपनी स्मृति से एक सच्ची प्रस्तुति दी है। (मो. 09422762421)

कुमार अंबुज
मूलत: मध्यप्रदेश में गुना के निवासी कुमार अंबुज कवि, कथाकार और सांगठनिक कार्यकर्ता हैं। प्रगतिशील लेखक संघ में उनकी वैचारिक और सक्रिय भूमिका बनी हुई है। स्टेट बैंक ऑफ इंदौर से स्वैच्छिक सेना निवृत्ति लेने के बाद वे पूरा वक्ती लेखक हैं, भोपाल में रहते हैं। अंबुज का पहला कविता संग्रह किवाड़ 1992 में आया और पिछला संग्रह 'अमीरी रेखा' 2011 में प्रकाशित हुआ। इस बीच अंनतिम (1998) और 'क्रूरता' 1996 में आये। एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित। भारत भूषण अग्रवाल, श्रीकांत वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, गिरिजा कुमार माथुर, केदारनाथ अग्रवाल हिन्दी के इन सभी बड़े कवियों के नाम पर स्थापित पुरस्कार और सम्मान कुमार अंबुज को उनकी कविता पर मिलते रहे हैं। (मो. 09424474678)

रणेन्द्र
धीरे धीरे 'विकास' एक खतरनाक और डरावना शब्द बनता जा रहा है। रणेन्द्र एक कथाकार और विचारक हैं। उन्होंने समय समय पर देश के अनेक प्रगतिशील समूहों से गंभीर चर्चाएं की हैं। हाल ही में उन्होंने आईआईटी कानपुर के छात्रों से भी संवाद किया है। वे मानते है कि यह तेज़ सक्रियता और प्रतिरोध किये जाने वाला समय है। रणेन्द्र 'पहल' के पाठकों के लिए भविष्य में भी जरूरी लेखन करते रहेंगे। रणेन्द्र को सर्वाधिक ख्याति उनके दो उपन्यासों, 'ग्लोबल गांव का देवता' और 'गायब होता देश' से मिली है। ये उपन्यास आगामी गंभीर और संगीन लड़ाई की तरफ संकेत करते हैं। नये आलोचक प्रणय कृष्ण ने 'पहल' के पिछले अंक में रणेन्द्र पर एक टिप्पणी की है। (मो. 09431114935)

शैलेन्द्र शैल
भारतीय वायुसेना की सेवा में नामी अधिकारी रहे। शुरु से उनका सम्पर्क मोहन राकेश, इन्द्रनाथ मदान, रवीन्द्र कालिया, कुमार विकल और निरुपमा दत्त से रहा है। लगभग 31 साल पहले शैल 'पहल' में प्रकाशित हुये थे और भारत में आने के काफी पहले उन्होंने 'पहल' के लिये निकोनार पारा की कविताओं का अनुवाद किया था। 'पहल' से उनका सम्पर्क एक बार फिर कुछ कविताओं के साथ। दिल्ली में रहते हैं। (मो. 09811078880)

मंगेश नारायण राव काले
'पहल' के सौंवें अंक में प्रकाशित भीतरी कला-चित्रों के रचयिता श्री मंगेश नारायण राव काले पूरा वक़्ती लेखक और चित्रकार है। 2015 के प्रारंभ में उनकी एक कला प्रदर्शनी जहांगीर आर्ट, मुम्बई में हुई। वे व्यवसायिक चित्रकार के रूप में दो दशक से देश के प्रमुख चित्रकारों में जाने जाते हैं। लोक वाङ्मय गृह ने उनके दो कविता संग्रह छापे हैं। मराठी साहित्य में उच्चतर योगदान के लिये उन्हें कई श्रेष्ठ पुरस्कार मिले हैं। पिछले दस वर्षों से श्री काले मराठी की एक ऐसी बहुचर्चित पत्रिका 'खेल' का संपादन कर रहे हैं जो अलक्षित लेखकों के अवदान पर काम कर रही है। मंगेश नारायण राव काले मानते है कि 'खेल' पत्रिका के प्रकाशन के पीछे 'पहल' की सर्वोत्तम प्रेरणा उन्हें रही है। आपको वरिष्ठ फेलोशिप (भारत सरकार सांस्कृतिक मंत्रालय),  'कविता और चित्रकला में बदलते हुए शिल्प' विषय पर काम करने के लिये मिली है। पुणे में रहते हैं। स्टूडियो-ए-2 तलमाला, मेलके पार्कनगर यशवंत राव चव्हाण नाट्य गृह, कोथरुड़, पुणे-411029, (मो. 09766594154)

निष्काम
निष्काम मनमौजी हैं इसलिए काफी कुछ अज्ञात हैं। पुरानी ठोस चीजें न केवल उनकी स्मृति में हैं, पाठ में भी है। अच्छी पढ़ाई, ऊँची संगत, बुनियादी दर्शन। विरासत में भी मिला और अर्जित भी किया। हाईकोर्ट की नौकरी की पर एक जीवन दुर्घटना में कारावास में रहे, नौकरी भी गवाई। बरी भी हुए पर अपने बौद्धिक दम खम, नायाब दोस्तियों और जीवंत संवाद के कारण जबलपुर में काफी प्रिय है। इंडियन लॉ रिपोर्टर का संपादन भी किया। निष्काम के पास खजाना है। उनके कुछ और अनुवाद प्रतीक्षित है। (मो. 09425386582)

राजकुमार केसवानी
आस्वाद के धनी, बहुआयामी राजकुमार केसवानी 'पहल' के संपादन में सहभागी तो है ही प्रमुख रूप से स्तंभकार, पत्रकार, लेखक, कवि और फोटोग्राफर हैं। उनके पास सिनेमा और संगीत का एक दुर्लभ संग्रहालय है। उनका मन एक जगह से उचटता है तो दूसरी जगह स्थापित हो जाता है। राजकुमार ने निरंतर बड़े काम किये हैं। संसार की बड़ी औद्योगिक और पर्यावरण त्रासदियों और विपदाओं में से एक भोपाल गैस त्रासदी के समूचे पहलुओं को लगातार उजागर करने, समझाने वाले वे एक ऐसे अध्येता और सम्मानीय लेखक हैं जिन्हें श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिये भारत का सर्वोच्च बी.डी. गोयनका आवार्ड मिला था। बिना विशेषणों के राजकुमार के बारे में कोई बात नहीं हो सकती। उनका अंग्रेजी-हिन्दी-उर्दू ज्ञान समान है। लंबे समय तक एनडीटीवी के ब्यूरो प्रमुख रहने के बाद अपनी रचनात्मक बेचैनियों की वजह से उससे निवृत्त हो गये। अब पूरी तरह से पूरा वक़्ती, स्वतंत्र लेखक हैं। चार दशकों के लम्बे सफर में, राजकुमार ने संडे आब्जर्वर, इंडिया टुडे, आउटलुक, इंडियन एक्सप्रेस, न्यूयार्क टाइम्स, एशियन एज जैसे प्रतिष्ठित पत्रों में अपनी सेवायें दी हैं। आपको 2010 में पर्यावरण के मुद्दों पर रिपोर्टिंग हेतु प्रेम भाटिया अवार्ड मिला।
मौलाना जलालुद्दीन रूमी की फारसी गज़लों का हिन्दुस्तानी में अनुवाद 'जहान ए रूमी', 2008 में और संगीत सिनेमा पर 'बाम्बे टाकी' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित। एक बहुप्रतीक्षित उपन्यास 'बाजे वाली गली' शीघ्र प्रकाश्य।
मुंशी नवल किशोर पर प्रकाशित रचना गहरे डूब और खोजकर तैयार की गई है। (मो. 09827055559)

योगेन्द्र आहूजा
'अंधेरे में हंसी' और 'पांच मिनिट और अन्य कहानियां' ये दो कहानी संग्रह योगेन्द्र आहूजा के खाते में हैं। 'पहल' के अंकों में उनकी कहानियां छपती रही हैं। 'अविस्मरणीय लंबी कहानियों' के लेखक योगेन्द्र का ताना बाना इतना मजबूत और कौशलपूर्ण है कि वे भविष्य में कोई बड़ा उपन्यास दे सकेंगे, ऐसी उम्मीद है। विचार को कथा के साथ बुनने का एक असाधारण धीरज और महारत इस कथाकार के पास है। योगेन्द्र की कहानियां सभ्यता के संगीन दुखों और वैचारिकी से भरी हुई हैं। हिन्दी के भीष्म कथाकारों के बाद इस आधुनिक समय में उन्होंने एक अनोखी जगह बनाई है। ऐसा पका और मेहनती लक्ष्यधर कथाकार नयों में कोई दूसरा नहीं है। 'पहल' योगेन्द्र आहूजा को शुरु से रेखांकित करती रही है।  (मो. 07838632712)

शिव जोशी
शिव जोशी 'पहल' के लगभग नियमित लेखक हैं। टिहरी-गढञवाल के मूल निवासी, देहरादून में शिक्षित और अब वहीं बस गये हैं। पत्रकारिता करते बीस वर्ष हुए। जनसत्ता, नवभारत टाइम्स से शुरुआत की थी। तीन साल जर्मन रेडियो में भी रहे, अब वेब मीडिया में। बॉन प्रवास पर एक डायरी और अन्तर्राष्ट्रीय संचार पर दो कृतियां शीघ्र ही आधार प्रकाशन से आयेंगी। अर्जेंटीनी कवि गेलमान पर उनके अनुवादों का 'तनाव' का अंक तैयार है। (मो. 09756121961)


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