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जून-जुलाई 2015

उम्मीद हाशिए के शब्द की

गोपाल नायडू

स्मृति/बदलती हुई लड़ाईयां




दुनिया को सिखाने का सवाल तो बाद में पैदा होता है पहले उस काम में लगे लोगों को स्वयं सीखना होगा
- ब्रेख्त

हम लोग अक्सर राजनीति और सामाजिक कर्म के सिलसिले में इधर-उधर जाते रहे हैं। उस समय संवाद के अवसर की जगह थी।  लेकिन आज हम विवादों के दौर से गुजर रहे हैं जहाँ संवाद की स्थिति कम होती जा रही है। लगता है कि भागम-भाग के इस दौर में आदमी केंद्र में बने रहने के लिए विवादों का ही सहारा ले रहा है। विवाद ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हो गया है। विवाद से उपजे शब्दों के अर्थों को तलाशना मुश्किल होता जा रहा है। और इन अर्थों की पहचान करना और भी दूभर कार्य है। हम रोज़मर्रा की जिंदगी में सब कुछ देख रहे हैं। नजर तो आ रहा है लेकिन पहचानने की कोशिश या जरूरत महसूस नहीं कर रहे हैं। इन विवादों के जाल में हम लोग उलझकर खुद ही एक प्रश्न बनकर रह गए हैं।  और विवादों की जगह उस ओर है कि जिस तरह मीडिया है। उपभोक्तावादियों का जाल है। पागल हाथी जैसा बाज़ार है। इन सब पर राजनीतिक व्यवस्थाओं का खूंटा गड़ा हुआ है। इस खूँटे से जो शब्द निकलते हैं, बस सुनते रहिए, मगन रहिए - यही सच है। प्रश्न उठता है, क्या इस आक्रामकता और उत्तेजनात्मकता के जरिये विचार और संवेदनात्मकता को हाशिये पर डालने की साज़िश तो नहीं रची जा रही है।
बहरहाल राजनीतिक कर्म के साथ कला-पक्ष से जुड़े होने की वजह से ऐसी हालातों का भाव-पक्ष भी चिंता में शामिल होने लगा था। सिर्फ आंदोलनात्मक गतिविधियों में ही नहीं, दृश्य और शब्द के रूप में भी। इन सभी मुद्दों पर मार्क्सवाद सही विश्लेषण करने में सहायक है। लेकिन विविध व्याख्याओं में मार्क्सवाद को अभिव्यक्त किया गया है। यह स्थिति दुविधा में डालती है। खैर जो भी हो इस मसलें से निपटने में भी यही धारा सहायक है। पहले-पहल मार्क्सवाद का जो बिम्ब बना, वह विज्ञान के रूप में दिल और दिमाग में बना। विज्ञान का मूल्य असंतोष है। इसी असंतोष की वजह से आंदोलन की गतिविधियों के बीच सृजनात्मक धरातल को समझने-बूझने का अवसर भी मिलता रहा है। वहीं एक बात मन में जरूर काम करती रही है कि विशिष्टवादी अपने नजरिए से कई ऐसी कलात्मक फिल्म, कलाकृति, साहित्य का निर्माण करते और देखते हैं चाहे फिर ये किसी को समझ में आ रही हों या नहीं, उसे इससे कुछ लेना-देना नहीं। वहीं दूसरा ठीक इसके विपरीत कार्य करता है। मसलन न समझने वालों के साथ जुट कर उन्हें विकसित करता है। वह इस कार्य को सृजन कार्य की तरह ही समझता है। यह सीख आंदोलन और सृजन के धरातल के द्वंद की वजह से उभरी है।
इसी अनुभव के आधार पर घटना-परिघटना के कुछ अंश दर्ज कर रहा हूँ जो न इतिहास है और न ही दस्तावेज़ है। न ही संस्कृति  की व्याख्या की कोशिश है। इस अनुभव से गुजरे एक अर्सा हो गया है।

मसला विदर्भ के सिरोंचा का है। सिरोंचा जाते समय हम लोग अक्सर राते पर एक मात्र चाय की टपरी थी। वहाँ हम लोग रुकते थे। उस चाय वाले का नाम बाबूलाल करिए था। वह चाय के साथ-साथ पंक्चर आरै साइकिल का छोटा-मोटा काम भी किया करता। समय के साथ हमारे रिश्तों में एक अजीब से अपनेपन का बोध होने लगा। कई बार हम रात उसके साथ गुजार देते। यहाँ प्रश्न उस चाय वाले के टपरी की चिकित्सा या मीमांसा का नहीं है। सिर्फ और सिर्फ उसके मानवीय पक्ष का है। कोई सोच सकता है कि विभक्त समाज में मानवीयता कैसे स्थिर बनी रह सकती है। मानवीयता भी विभाजित होगी। जायज है इस प्रश्न का उभरना। इस नाकामयाबी के दौर में ऐसा शख्स जो दूर जंगलों के करीब एक कच्चे रास्ते पर जरूरतमन्द को चाय और साइकिल के दुरुस्ती का काम कर गुजारा कर रहा था। और उस परिसर के तमाम लोग जीवन जगने के लिए मेहनत ही करते हैं। इसीलिए वहाँ के लोग मानवीयता, संस्कृति, सभ्य, असभ्य, आदि जैसे शब्दों के व्यवहारिक-सामाजिक रूप से कोसों दूर थे। उसके पास सहज ही जो भी गया, वह व्यक्ति उसके लिए सम्मान और प्रेम का प्रतीक बन जाता है। जरूरी नहीं है की वह चाय पीये। वहाँ यही रूप आसपास में साझा होता रहा।
अलावा इसके, इस चाय वाले का एक रूप और भी है। जिसके बारे में उसी के जुबान से सुनिए, 'मैं यहाँ 1960 से रह रहा हूँ और चाय बेचने का ही काम करता हूँ। मेरी उम्र उस समय तीस साल की थी। इस दौरान कुछ लोग मेरी दुकान पर रुके और चाय पी। इसमें एक सावंला सा ऊँचा-पूरा जवान लड़का था। 25-30 वर्ष का होगा। इसके बाद वह लड़का हमेशा आता-जाता रहा। मेरे टपरी पर चाय पीता और देश दुनिया की अच्छी-अच्छी बातें बताता था। काफी दिन तक वह लड़का नहीं आया। एक रात वह फिर आया। कुटिया में घुसते ही उसे लाल झण्डा दीवार पर नजर आया। ज़ोर से चिल्लाते हुए उसने मुझे अपने बाहों में ले लिया। उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। बहुत समय तक हम दोनों निशब्द थे। भीतर से एक गहरी शांति का अहसास हो रहा था। हमारे बीच विचारों ने अपना एक घर बना लिया था। एक लंबा समय गुजर जाने के बाद मुझे मालूम हुआ कि वह शख्स कोई और नहीं, कामरेड बर्धन थे।'
उस दिन से करिए की कुटिया में लाल झण्डा हमेशा फहराता रहता। अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों से उसका संबंध बनता गया। इन सब के बावजूद उसकी जुबान पर शहरी कामरेड की शहरी भाषा जगह नहीं बना पाई। प्राकृतिक परिवेश को सुरम्य बनाने वाले तरह-तरह के पक्षियों की ध्वनि ही उसकी प्रेरणा स्त्रोत रही। लेकिन समय के साथ पक्षियों की मधुर ध्वनि की जगह एस.आर.पी. और सी.आर.पी. के बंदूक की आवाज और गाडिय़ों के सायरन में तब्दील होने लगी। करिए कल तक जिस परिस्थिति में जी रहा था, वह बदल गया। उसके लिये यह कल्पना से परे था। उसके पास कल के अनुभव थे। उस समय के अनुभव का ज्ञान था। यह ज्ञान जीवंत अनुभव पर आधारित था। इसीलिए बदलते हालत को समझने-बूझने में उसे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई। ज्ञान और विश्लेषण करने की उसकी क्षमता देखते ही बनती थी। वह दृश्य हम लोगों के आँखों के सामने चर्चा-विमर्श के समय उभर कर आ जाता है। उस इलाके में एक बड़ी सभा चल रही थी। उस इलाके में शहर से आ कर बस गए साथी सभा को अपने-अपने अंदाज में संबोधित कर रहे थे। उनकी भाषा के पुट में शहरी अंदाज था। लेकिन करिए ने भी अपनी बात रखी। इतने सालों बाद भी उसका अंदाज पहले जैसे ही था। कहने लगा 'आंदोलन भी ठीक गेहूँ के आटे जैसा ही है। रोटी बनाने के लिए आटे को सानते है। अगर आटे में पानी ज्यादा डाल दें तो आटा लस-लस हो जाएगा और रोटी बनाने में दिक्कत होगी और सानते समय पानी कम डाले तो रोटी टूटने लगेगी। इसीलिए आटे में पानी का संतुलन ठीक होना चाहिए।' बड़ी ही सहजता से उसने वहाँ मौजूद शहरी साथियों के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिये। आम जन को समझ में आ जाए ऐसी भाषा ही आंदोलन को चलाने के लिए कारगर है। निश्चित ही राजनीतिक भाषा के पूर्वाग्रह को तोड़ती है और भाषा के नए आयामों की दुनिया में ले जाती है, जहाँ वांछित और संभावित भाषा के झरने हैं। इस संदर्भ में मार्क्स के ये वाक्य याद हो जाए, 'मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निश्चित नहीं करती - उल्टे उसका अस्तित्व उसकी चेतना को निश्चित करता है।' यह इस बात का प्रमाण है कि आंदोलन में भाषा और व्यवहार का महत्व है।
और तब से करिए की कुटिया बड़ी और महत्वपूर्ण कलाकृति जैसी लगने लगी। वहाँ से जब भी गुजरो तो यह आभास दिलाती है, चल-चल आ मेरी कुटिया में, यह किसी ताजमहल से कम नहीं, यह घाँस-फूंस की एक आधुनिक कला है। और किसी कलाकृति के गोल्डन पॉइंट की तरह उसकी कुटिया में लह-लहराता लाल झण्डा, भूदृश्य का एक महत्वपूर्ण और न भुलाये जाने वाला हिस्सा बन गया है।
अब गाडिय़ों के सायरन और बंदूक की आवाज़ उस परिसर का एक अभिन्न अंग बन गया है। उस पर आरोप था की वह माओवादियों की मदद करता है। एस.आर.पी. के जवानों ने किसी एक दिन उसकी कुटिया को घेर लिया था। अब खोजने पर भी गोल्डन पॉइंट और भूदृश्य पर लह-लहराता वह लाल झण्डा और करिए की कुदरती भाषा घने जंगल और पहाडिय़ों में मचे कोहराम के बीच लुप्त हो गए पक्षियों की तरह है। ये पंक्षी लौटेंगे एक नई रूप-रेखा के साथ किसी न किसी जगह से फिर अहमद फराज़ की इन पंक्तियों के साथ - 'ख़्वाब मरते नहीं/ख़्वाब दिल हैं न आँखें न सांसें कि/जो रेज़ा-रेज़ा हुये तो बिखर जाएंगे/जिस्म की मौत से ये भी मर जाएंगे/ख़्वाब मरते नहीं।'
बाबूलाल करिए गड़चिरोली जंगल के दक्षिणी इलाके का था। अब हम इस इलाके के पूर्वी भाग में थे। राज्य द्वारा प्रायोजित आतंक की उपस्थिति यहाँ भी नजर आ जाती है। इस आतंक का रुपक यहाँ एक सामान्य सी घटना है। और अब तो वहाँ के रहवासी इस आतंक के साए में जीने के अभ्यस्त हो गए हैं। ऐसे माहौल में ही यहाँ के लोगों को आतंक से लडऩे की ताकत मिलती रहती है। इधर हम भी रोचक अनुभव से गुजरे। जंगल के भीतर जाने के रास्ते पर एक आदिवासी गाँव है। इस इलाके के लोग इसे पहला पड़ाव कहते हैं। वहाँ एक झोपड़ी में बूढी अम्मा रहती है।  उसे जब भी कोई बूढ़ी अम्मा कहता है तो तपाक से वह कहती है, 'मैं अम्मा नहीं जंगल की बेटी हूँ।' उसकी बात में दम है। वह किसी काल्पनिक दुनिया के आधार पर यह बात नहीं कह रह रही है। यह अनुभव प्रकृति के साथ गुजारे पाँच हजार साल के ठोस अनुभव, शब्दों, मुहावरों, किवदंतियाँ, मिथक और उन लोगों के सृष्टि के निर्मति में लोक-कथाओं लोक-कलाओं के संचित ज्ञान का है।
आजकल ये आदिवासी आतंक के साए में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। क्या कभी किसी ने सोचा है कि जिनकी आज़ादी की संकल्पना में प्राकृतिक न्याय कूट-कूटकर भरा हुआ है उनकी जीवन शैली में हिंसा का कैसे स्थान हो सकता है। लाजिमी है यह प्रश्न उठता कि हिंसा की करतूत कौन कर रहा है। हिंसा केवल मार-धाड़ तक सीमित नहीं है। वहीं वैचारिक आतंक के जरिए किसी भी कीमत पर उन लोगों के दिल-दिमाग पर कब्जा करना भी हिंसा है। यह सिलसिला तो सदियों से चला आ रहा है। पहले मिशनरियों ने अपने स्वार्थ के लिए उनके हाथो में कलम और कागज थमाए। लेकिन वहीं हिंदुत्ववादियों ने मनुस्मृति, रामायण आदि उनके हाथों में थमाया और अंध-विश्वास फैलाया। इस तरह उनके बीच जात-पाँत के बीच बोये। और यही सनातनी ताक़तें ख़्वाब देख रही कि आने वाले समय में हिन्दू धर्म दुनिया की अगुवाई करेगा। इस बात को कल तक आर.एस.एस. दबी जुबान में कहता था। लेकिन आज खुलकर कह रहा है कि दुनिया ने सभी धर्मों को देख लिया और विकल्प की उम्मीद केवल हिन्दू धर्म में ही है। हिन्दू धर्म के दिये तले अंधेरे की जानकारी होने पर भी जगतगुरु होने के दावे को नए सिरे से उठा रही है।
आज़ाद भारत में इन जंगलों की छाती में दबे खनिज की लूट के लिए हिंसा का सहारा भारत की पुलिसिया सरकार ले रही है। वह भी चंद कॉर्पोरेट घरानों के लिए इन आदिवासियों का शोषण तो मिशनरियों ने भी किया। लेकिन हाथ में कलम कागज़ भी थमाया जिसकी बदौलत ये लोग पढ़-लिख सके। शिक्षा की बदौलत इन लोगों की चेतना विकसित हुई और इन लोगों के कदम उठे हक हो हासिल करने की ओर। नक्सलबाड़ी उभार की वजह से देश के विभिन्न इलाकों में आंदोलनात्मक उभार आया। पारंपारिक लोक कला-साहित्य के अंतर्वस्तु और रूप-विधान में नई चुनौतियाँ उठ खड़ी हुई। ढेरों प्रयोग हुए। नए रचनाकार उभरे, सरोकार बदले, चर्चा-विमर्श में नए पैमाने देखने को मिले। इस उपलब्धि से मुँह मोडऩा याने वैज्ञानिक सरोकार को झुठलाने जैसा है।
हमने वहाँ एक बूढ़ी अम्मा को पर्चों का एक बंडल दिया क्योंकि आगे के गाँव के रहवासी यही से आया-जाया करते हैं। हमने बूढ़ी अम्मा से ये पर्चे उन्हें देने के लिए कहा। बूढ़ी अम्मा ने पढ़ा और करीब ही बैठे पोते से कहा पढऩे को। वह उस कागज़ से गेंद बनाकर खेलने लगा। तभी बूढ़ी अम्मा ने कहा, 'पर्चे को ठीक करो और पढ़ो, अरे, पढऩे से तू भी एक दिन 'बाबा साहेब' (डॉ. अंबेडकर) जैसा बड़ा आदमी बनेगा। उसके इस वाक्य से हम हतप्रभ थे। पूछने पर मालूम पड़ा कि अम्मा ने बाबा साहेब को कभी नहीं देखा। केवल उनका नाम और दलित-दमितों के मुक्ति के लिए किए गए संघर्ष के बारे में सुना है। यही वह सृजन की आस्था है जो हमें एक नागरिक के रूप में विवेक, प्रेम, ममता और सहानुभूति और सक्रिय रहने की प्रेरणा देती है।'
हमारे बीच इस बात पर चर्चा होने लगी कि आदिवासियों के बीच डॉ. अंबेडकर को कौन और क्यों ले गया। यह ठीक नहीं है। उनके अपने मिथक है। और इसी अनुरूप उनका विस्तार होना चाहिए। उनके मिथक और वर्ण-व्यवस्था के बीच मौजूद अंतर को समझना होगा। लग रहा था कि सभी एक-एककर अलमारी से किताब निकालकर अपने-अपने अनुकूल दलील विकसित करने के लिए उतावले थे। बहस का सिलसिला लंबा था। कहा जा सकता है कि आदिवासियों की आज़ादी और स्वायत्तता पर नियंत्रण का यह भी एक पुलिसिया तौर-तरीका है।
बूढ़ी अम्मा कैसे मूक बनी रहती। कहने लगी, 'देखो, आपकी बातों से असमंजस की स्थिति पैदा होती है। मैं तो बाबा साहेब और मार्क्स को जानी ही हूँ आंदोलन की वजह से। और शायद आप भी। हो सकता है, आपको दो-चार किताबें ज्यादा पढऩे को मिल गई होगी। लेकिन हमारे पास अनुभव है यहाँ के जीवन का, जीवटपन का, जीवनशैली का, मुक्ति का, जहाँ गूँजती है आवाज़ सामूहिक फैसले, समानता, भाईचारा और आज़ादी की। प्रश्न करना ही था तो यह करते कि आदिवासियों की कोई जात नहीं होती। फिर किसने और क्यों संविधान में जन-जाति का उल्लेख किया?'
अम्मा की बात सुनकर मराठी के सुप्रसिद्ध कवि नामदेव ढसाल की 'चिंदी की देवी' कविता के आशय का चित्र उभरने लगा - 'रंग-बिरंगे चिन्दियों से छोटी-छोटी गुडिय़ा बनाकर बच्चों को देती। ये चिन्दियों से बनी देवी है। इस गुडिय़ा के रंग-बिरंगे कपड़े हवा में चारों दिशाओं में उड़ रहे हैं। और दस दिशाओं में यह हाजिर रहती है। यह जो देवी है। कैसी है? यह ही हमारी आई (माँ) है जो हमारी उँगलियों को पकड़कर दुनिया में चल रहे प्रपंचों के बीच ले जाती है।'
संभवत: अम्मा हमारे शब्द और अर्थ की क्षमता, कथनी और व्यवहार की दूरियों पर प्रश्न खड़े कर रही है। इशारा भी है भाषा के स्तर और उसकी दिशा को लेकर। सच तो है कम्युनिस्ट पार्टियों का कोई भी पर्चा या दस्तावेज़ पहले अँग्रेज़ी में लिखा जाता है और फिर अन्य भारतीय भाषाओं में। इसमें दो मत नहीं की पचासों कम्युनिस्ट पार्टियों ने बहुत ही ईमानदारी से कार्य किया। इनकी नेकी पर शक नहीं किया जा सकता। मुनासिब होता की सोचा जाय कि इतने लंबे दौर तक प्रतिभा की अनुपलब्धता की वजह क्या है, वह भी भारत जैसे बहुलवादी संस्कृति और अनेक धर्म, भाषा, जाति के बावजूद। यह बोध सालता है हमने जो रास्ता अपनाया क्या वह विकल्पहीन था। आज जब सभी महसूस कर रहे हैं कि कहीं कुछ गलत हो गया है। यह बोध और तकलीफदेह है।
इसी दौरान बूढ़ी अम्मा ने एक गीत गाया जो आंदोलन की देन है -
'मुंबई भी ढूँढ़ी/भोपाल भी ढूँढी/दिल्ली भी ढूँढी/हमारी सरकार कहाँ है/पता मिले तो बता दो बहिना/हमारे गाँव की नाली में कीड़े बहत है/कीड़े के जैसा बहा देंगे/मुंबई भी ढूँढी/भोपाल भी ढूँढी/दिल्ली भी ढूँढी/हमारी सरकार कहाँ है/हमारे गाँव में पतंग उड़त है/पतंग जैसा उड़ा देंगे।'
इन लोगों की अलिखित अभि व्यक्तियां अनगिनत है। इस विश्व को एक नई दृष्टि से देखना होगा वरना शहरी साहित्य और बिम्ब शहरी होता है। इसका इतिहास और इसकी संस्कृति का केंद्र नगरी ज़िंदगी तक ही रखना पड़ेगा। लेकिन इन आदिवासी लोक-गीत-कला को हिन्दी और भारतीय भाषाओं में ले गए तो सहजता से एक लंबी विरासत इन भाषाओं का अभिन्न अंग बन जाएगी।
सलाम अम्मा कहकर हम आगे की ओर कूच करने लगे, तभी किसी ने कहा, अम्मा नहीं, जंगल की बेटी को सलाम... और एक स्वर, आंदोलन की नायिकाम्मा को लाल सलाम।

नायिका शब्द सुनकर एक और नायक की तस्वीर उभरने लगी। नायिका की सीख ने उत्साह का वातावरण बना दिया।
2004 में नेपाल में चल रहे माओवादी आंदोलन के समय इस नायक को देखने का मौका हासिल हुआ। अगर मुलाक़ात हो पाती तो संभवत: संवाद की गुंजाइश बन जाती। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। यह वह समय था जब नेपाल में शाम पाँच बजे से कर्फ्यू लग जाता। चारों ओर सन्नाटा अपने पैर पसार लेता था। केवल मिलिटरी और पुलिस की गाडिय़ों के सायरन की चीख से शहर गूँजता रहता। मुझे रात किसी एक साथी के साथ गुजारनी थी। बगैर उसकी इजाजत से कहीं भी बाहर जाया नहीं जा सकता था। बड़ी मिन्नतों के बाद वह मेरे साथ करीब के घर से सिगरेट खरीदने के लिए राजी हो गया।
सिगरेट लेकर जैसे ही मुड़े तो वह दृश्य आँखों के सामने घूम गया - ठीक सामने वाली राजमहल की सड़क पर एक नौजवान लड़का इमारत की दीवार पर माओवादी पार्टी के पोस्टर चिपका रहा था। उस युवक पर गाड़ी की रोशनी पड़ी और बंदूक की कारतूस की आवाज़ से पूरा परिसर गूंज उठा। वह युवा वहीं पर ढेर हो गया। साथी ज़ोर से मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुए घर की ओर ले गया। बस, इतना ही कहा कि 'कुछ गलत हो जाता तो मैं क्या जवाब देता।' कमरे में दाखिल होते ही लाईट बंद कर दी।
रात भर हम सो नहीं पाए। इसी घटना के बारे में सोच, सोचकर परेशान थे कि एक पोस्टर चिपकाने की कीमत ज़िंदगी गवाना है। ज़िंदगी को जोखिम में डालने वाले उस दौर के बारे में समझा जा सकता है। उस नौजवान के हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी और राजतंत्र पर आंदोलन की दहशत की भी कल्पना की जा सकती है। हम दोनों उस नौजवान की शहादत के बारे में बात करते रहे। और जागते हुए शहादत के रूप, शक्ल तथा इसकी अभिव्यक्ति के क्या-क्या माध्यम हो सकते हैं, के संदर्भ में सोचते रहें।

कल रात हमने उस युवक को कारतूस की मार से जमीन पर गिरते देखा तो सोवियत नायक कामरेड स्टालिन के पुतले को जमीदोज़ करने वाले दृश्य रह-रहकर आँखों के सामने आते रहे। कितनी अजीब बात है कि कामरेड स्टालिन के हाथ में जब रूस की बागडोर आई थी, तब रूस वासियों ने जार के पुतलों और गिरजा घरों को तोडऩा चाहा तो ये स्टालिन थे जो इसके खिलाफ आगे आए और कहा, 'पुतले तोड़ रहे हो तो रेलगाड़ी क्यों नहीं। जिस तरह रेल उपयोगी और महत्वपूर्ण है वैसे ही ये पुतले। ये संग्रहालय में रखे जाएंगे ताकि आने वाली पीढ़ी इतिहास से अवगत हो सके। रही बात चर्च की, इसका उपयोग अच्छे काम के लिये किया जाएगा।' ऐसी सही समझ रखने वाले स्टालिन का क्या हश्र हुआ, इसकी कल्पना की जा सकती है। और यह इतिहास का अजीब दौर था जब हर शहर के फुटपाथों पर मार्क्स, लेनिन तथा स्टालिन की संकलित रचनाएँ नजर आ जाती। इन संकलनों को खरीदने वाले चेहरे दूर-दूर तक नदारत थे।
रात इसी तरह कट गई। जब हम सुबह कमरे से बाहर ओ तो हजारों शक्ल सामने नजर आ रहीं थीं। हर शक्ल में उस नौजवान कामरेड का चेहरा दिखाई दे रहा था। पोस्टर वाली जगह का जो रूप खड़ा हो गया था वह दिल को स्पर्श कर देने वाला था। जबर्दस्त उत्साह और विश्वास के साथ विरोध जताया जा रहा था।
और सुबह जब एक साथ इतने सारे लोगों को, एक ही समय, एक ही जगह, इसी एक सवाल पर इकट्ठा होते देखा तो अहसास हुआ कि मनुष्य जीवित है। उसकी चेतना में यह बात काम करती है कि क्रांति के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है। वे लोग क्रांति के इतिहास से परिचित है। इन लोगों का विश्वास क्रांति की पुनरावृत्ति में नहीं है। एक नए स्वरूप की तलाश में हैं।


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