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पहल ९१ पर कुल्लू से आई प्रतिक्रिया

दिनांक - 23-05-2013



9 मार्च 2 0 1 3

गणेश गनी

कुल्लू , 09736500069

 

आदरणीय ज्ञान रंजन जी ,

सादर चरण स्पर्श ,

पहल 91 पढ़ने के बाद तुरंत लिखना चाहता था । कुछ लिखा भी .... । परंतु बात नहीं बनी । कई विचार मन मे कौंध रहे थे । आज फिर लिखने बैठा हूँ यह ठान कर कि कल सुबह ज़रूर पोस्ट करना है । अरे ! कल तो  एतवार है  । कोई नहीं अब लिखने बैठा हूँ तो आज रात ही पूरा करूंगा । पहले तो सोचता रहा कि आप को क्या लिखूँ और कैसे आरंभ करूँ । कुछ रोज़ पहले एक पत्र लिखकर पहल 91 की 6 प्रतियाँ भेजने का आग्रह किया था । इसी बीच जब आप का फोन आया तो मैं बहुत खुश हुआ । आपने बेटा कह कर बात की तो आत्मीयता और गहरी हुई । खैर .... 27 फरवरी 2013 का दिन मैं हमेशा याद रखूँगा ।

आज मैं अपनी इकलौती डायरी को 2009 के बाद पहली बार खोल रहा हूँ । यह डायरी 1990 की है । मतलब 1990 से कुछ तुकबंदी शुरू की थी । डायरी के पन्ने पर 17 अप्रैल 1990 का लिखा एक नोट है .....मेरे ट्राइबल मित्र देवेन्द्र का । मेरी कविताओं को पढ़ कर उसने प्रशंसा के साथ और प्रयत्न करने का सुझाव भी दिया है ..... । हम दोनों पांगी घाटी के मूल निवासी हैं । अब वह एक्टिविस्ट है ।

1999 को पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में मेरी कविता "प्रयास " को विश्वविद्यालय की पत्रिका "केम्पस रिपोर्टर " में प्रथम स्थान से पुरस्कृत किया गया । शायद इसी ने मेरे अंदर दबी  चिंगारी को हवा दी । मैंने अगले ही वर्ष 2000 में अपना काव्य संग्रह " प्रयास  "  प्रकाशित करवाया जोकि एक ऐसा दुःसाहस था जो मेरे साहित्यक अध्ययन की अति कमी का ही परिणाम था । मुझे याद है, मैंने दुष्यंत कुमार की "साए में धूप " तथा साहिर लुध्यानवी की "मेरे गीत तुम्हारे हैं " के सिवा और कोई किताब नहीं पढ़ी थी । यह में दावे के साथ कह सकता हूँ । धीरे धीरे समय बीतता गया ।अब मैं यहाँ कुल्लू में ही रहता हूँ । पिछले लगभग 5 सालों से साहित्यिक गतिविधियों में भाग ले रहा हूँ । पिछले दो , तीन सालों से स्तरीय साहित्यक पत्रिकाओं को पढ़ना आरंभ किया है । वसुधा , बया , आकण्ठ , आदि मे मेरी कविताएं प्रकाशित होने से मेरा हौंसला बढ़ा है ।

वयोवृद्ध लेखक जय देव विद्रोही ने काव्य पाठ करने का मनोबल बढ़ाया । मित्रों में डॉ निरंजन देव तथा सुरेश सेन निशांत ने अध्ययन के लिए प्रेरित किया । इन लोगों के बीच बैठ कर पहल की बातें भी अक्सर सुनता था । एक बार शिमला में एक कार्यक्रम ... शिखर सम्मेलन ... मे लघु पत्रिकाओं पर देश भर से आए संपादकों ने प्रपत्र प्रस्तुत किए । एक संपादक ने अपने व्याख्यान के दौरान... पहल का अंत ... शब्दों का प्रयोग किया । जैसे ही उनका वक्तव्य समाप्त हुआ , सुरेस्श सेन निशांत ने अपना विरोध दर्ज करते हुए कहा कि पहल ने ही कइयों को मंच दे कर स्थापित किया ,वो खुद्ध भी पहल के कारण ही आज इस मुकाम पर हैं । अग्निशेखर ने कहा ...मैं ज्ञानरंजन के ही शब्दों में ही कहूँ तो पहल की  कई लोगों ने मिल कर हत्या कि है ... ।

उस दिन के बाद मेरी जिज्ञासा और बढ़ी।  मैंने अजेय से कहा कि क्या अग्निशेखर कुल्लू आ सकते हैं । उन्हों ने अग्निशेखर को राज़ी किया । हम रात को ही कुल्लू वापिस आए । रात भर के सफर में हम तीनों ने खूब सारी बातें कीं । मैं गाड़ी चलाता रहा और अग्नि भाई बार बार मुझे देखते हुए बात करते रहे ताकि कहीं मुझे झपकी न आ जाए । मैं भी रात भर नींद से युद्ध लड़ता रहा । सुबह कुल्लू मे निरंजन देव द्वारा आयोजित दयासागर स्मृति नवलेखन कार्यक्रम में भाग लिया । ज्ञान प्रकाश विवेक इस आयोजन के अध्यक्ष थे । रात भर कविताओं का दौर चला ।

आज मेरे पास पहल के केवल  दो अंक 86 और 91 हैं । पहल 91 जब बाज़ार में आया तो मन हर्ष से भर गया । पहल यहाँ कुल्लू मे नहीं मिलती इसलिए मैं , अजेय तथा निरंजन देव कुल्लू से 70 कि0 मी 0 दूर मंडी गए । वहाँ हमें सुरेश सेन निशांत से केवल दो ही प्रतियाँ मिलीं । हम निराश हुए । एक पर तो तुरंत मैंने कब्जा किया और दूसरी प्रति अजेय और निरंजन के हिस्से आई । एक अंक दीनू कश्यप ने उपलब्ध करवाने का वादा किया ।

पहल का अंत कैसे हो सकता था । इस के चाहने वालों कि एक बड़ी संख्या मौजूद है , यह दुआओं का भी असर है शायद । पहल केवल लंबे हइबर्नेशन मे थी । साहित्य जगत मे पहल का मुकाम इतना ऊंचा है कि वहाँ पहुंचाना बड़ा ही कठिन है । आपकी यात्रा कितनी कठिन रही होगी , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है । आप कि लेखनी व समपादकीय दृष्टि के हम सब कायल हैं ।आपकी यात्रा कहानी मैंने सेतु मे पढ़ी । एक उत्कृष्ट नमूना ... एक कालजयी कहानी ।

पहल मे पृष्ठ 6 पर " कुछ पंक्तियाँ " के अंतर्गत अंतिम पैरा दिल ओ दिमाग को झकझोरने वाला है । यह पंक्ति ... हम अपनी छापी गई रचनाओं का स्मर्थन करते हैं ... , शायद अब तक पहल के अलावा दुनिया मे किसी ने छापने का साहस व जोखिम उठाया हो । आपके इस जज़्बे को सलाम । इस के लिए नोबल भी छोटा पुरस्कार जान पड़ता है । संपादकों ने आज तक यह ज़िम्मेदारी नहीं निभाई । उन्हों ने तो हमेशा से ही यह कह कर अपना पल्ला झाड़ा है कि संपादकीय सहमति की  आवश्यकता नहीं है । अब मठों को टूटना ही होगा ।

 

 

गणेश गनी , एम सी भारद्वाज हाऊस , भुट्टी कॉलोनी , पो ओ शमशी , कुल्लू ,हि प्र ,175126  


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