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फरवरी 2014

जंगल जहां खत्म होता है...

वीनेश अंताणी/अनुवाद : नरेन्द्र जैन

कहानी/गुजराती

 

 

वह लड़की हमेशा शाम होने के बाद उतर आये अंधकार में ही यहाँ आती थी। पुरूष का घर इस छोटे शहर से दूर लगभग निर्जन विस्तार में था। दूसरे शहरों की तरह यह शहर भी दूर दूर तक फैलता जा रहा था। लोग बाग शहर से बाहर मकान तामीर कर रहे थे। लेकिन पुराने शहर का मोह वे छोड़ नहीं पाते थे। इसलिए ज़्यादा लोग इतनी दूर रहने नहीं आये थे। पुरूष को यह घर मध्यम वर्ग के सरकारी अधिकारी के किराये के मुताबिक मिल गया था। इसी कारण दूर होने पर भी वह यहां रहने आ गया था।
लड़की सायकिल से आती थी। आज भी वह सायकिल से आई थी। बीच में कच्चे मकानों और भैंसों के तबेले जैसे ग्रामीण विस्तार में होकर आना होता था। फिर एक खुला मैदान आता। पुरूष के घर तक पक्की सड़क नहीं थी। स्टेडियम के पास से होकर लंबे रास्ते में आना होता तो वह रास्ता अच्छा था। लड़की छोटे रास्ते से, मैदान पर बनी पगडंडी से आती। मैदान में दोनों तरफ झाडिय़ां थीं। संकरी पगडंडी आते ही अंधेरे के कारण लड़की सायकिल से उतर जाती। सायकिल हाथ में पकड़कर चलने लगती। उसे ज़रा डर भी लगा करता। उसे हमेशा लगता की झाड़ी में कोई छिपा बैठा है और किसी भी पल उसे पुरूष के घर में जाते हुए पकड़ लेगा। वह बीच-बीच में सायकिल की घंटी बजाती चलती थी।
आज भी वह अंधेरे में ही आयी थी। पुरूष के घर के आसपास अभी कोई रहने नहीं आया था। पुरूष भी अभी तक नहीं लौटा था। उसे बाज़ार जाना था लेकिन उसे इतना विलंब होगा इसकी कल्पना लड़की को नहीं थी। लड़की घर के सामने खड़ी रही। आसपास अंधकार था और पीछे आकाश के हल्के-से उजास में घर जैसे घर की छाया  ही लग रहा था।
बरामदे का फाटक खोलकर लड़की ने सायकिल अंदर एक कोने में टिका दी। चार पांच सीढ़ी चढ़ वह घर के दरवाज़े के सामने आई। पर्स में रही चाबी ढूंढने लगी। पुरूष ने घर की एक चाबी उसे दे रखी थी। लड़की ने ताला खोला। दरवाज़ा ठेला। भीतर दाखिल होते ही छोटा बरामदा आता था। बांयी ओर रसोई घर था। सामने बड़ा हाल। दरवाज़ा बंद करके लड़की रसोई में गई। फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकालकर उसने पानी पिया।
लड़की ने बत्ती नहीं जलायी। वह पुरूष के घर से परिचित थी। अंधेरे में भी वह आसानी से हॉल में आ गई। अब वह शहर के अंधकार में नहीं लेकिन $खाली $खाली घर के अंधकार में खड़ी थी। पुरूष ने सुबह कुछ खाने के लिये बनाया होगा उसकी गंध दिन भर से बंद घर में भर गई थी। लड़की गहरी-गहरी सांसें लेकर पुरूष के घर की गंध अपनी छाती में भरने लगी।
वह हाल के बीच में खड़ी थी। बाहर शाम होने के बाद बचा हुआ उजाला खिड़कियों के काँच से भीतर आ रहा था। वहां पड़े सोफा, डायनिंग टेबल, तिपाई, पोर्टेबल टी.वी. और रस्सी पर सूख रहे पुरूष के कपड़े, सभी कुछ धुंधले, धुंधले दिखलायी दे रहे थे। निर्जन विस्तार में बने अकेले घर में खड़ी लड़की की छाती धीरे-धीरे धड़क रही थी। डर के कारण नहीं बल्कि कुछ साहसपूर्ण काम के पूरे हो जाने के कारण। आज भी उसे यहां आते हुए किसी ने नहीं देखा था। अब वह सुरक्षित थी। आज की रात भर तो थी ही।
लड़की सांस रोककर खड़ी रही। पूरे घर में सन्नाटा था। पीछे कुछ दूर कच्ची सड़क पर एकाध वाहन गुज़रता तब उसकी रोशनी बेडरूम की खिड़की के कांच से होती हुई पूरे घर में कौंध जाती थी। बाथरूम में टपकते नल की आवाज़ सन्नाटे में सुनाई दे रही थी। एक बूंद और दूसरी बूंद के बीच लंबा खाली अंतराल गुज़र जाता। लड़की मन में गिनती बोलती हुई उस खाली समय को भरने का उपक्रम करने लगी।
पुरूष आये तब तक यूं ही खड़ी रहे या फिर बत्ती जलाकर उसकी प्रतीक्षा करे, इस बारे में लड़की कुछ तय नहीं कर पाई। वह रस्सी पर सूखते वस्त्रों के पास गई। पुरूष की कमीज़ की लटकती बाहें उसने अपनी गर्दन के आसपास लिपटाईं, फिर पुरूष के तौलिये में अपना मुंह दबा लिया।
लड़की रस्सी पर लटके कपड़े उतारने लगी। घर में दो बेडरुम थे। एक बेडरुम पुरूष अपने उपयोग में लाता था और दूसरा लगभग खाली रहता। लड़की कपड़ों की ढेरी अपनी बाहों में भरकर बेडरूम में गई। वहां खिड़की के परदे खिंचे हुये थे। इसलिये कुछ दिखलायी नहीं देता था। वह दीवार पर हाथ फेरकर स्विच ढूंढने लगी। एक स्विच दबाते ही ट्यूबलाईट जल गई। एकाएक उजाला होने से लड़की चौंक गई। उसने जल्दी से स्विच बंद कर दिया। दूसरा स्विच दबाते ही नाईट लैम्प जल उठा। बेडरुम में एकदम मद्धिम आसमानी उजाला पसर गया।
इस उजाले को लड़की पहचानती थी। वहां पड़े हुए डबलबेड, गद्दे, तकिये, टेबल और टेबल लैम्प को भी लड़की बराबर पहचानती थी। लड़की को हमेशा यह लगा करता कि ये सारी चीज़ें उसकी गवाह हैं इन चीज़ों ने सब कुछ देखा है लेकिन कभी भी उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला है।
पलंग पर चादर अस्त व्यस्त पड़ी थी। पुरूष ने अपनी लुंगी भी पलंग पर फेंक दी थी। तकिये उल्टे सीधे पड़े थे। सुबह का अखबार खुला पड़ा था। लड़की लुंगी और चादर तह करने लगी। अखबार के पन्ने उसने सहेज दिये। कुर्सी पर रखे पुरूष के कपड़ों को तह किया, फिर प्रसन्न हो रही हो ऐसे वह गुनगुनाने लगी।
तभी बाहर खडख़ड़ाहट हुई। लड़की दौड़ी। पुरूष फाटक के भीतर आता दिखलायी दिया। उसे छोडऩे आया दफ्तर का ड्रायवर जीप को लौटा रहा था। लड़की ने दरवाज़े की सिटकनी खोली और दीवार से सटकर खड़ी हो गई। उसकी सायकिल देख पुरूष ने समझ लिया होगा कि लड़की आ गई है। जीप के दूर जाने की आवाज़ सुनाई दी। कुछ देर दरवाज़े पर हल्की थाप हुई फिर दरवाज़ा धीरे धीरे खुलने लगा। पुरुष अंधकार में भीतर आया। लड़की को लगा जैसे पुरूष नहीं उसकी छाया भीतर प्रविष्ट हुई हो। लड़की पुरूष की छाया से लिपट गई।
पुरूष के हाथ में सब्ज़ी और रसोई की चीज़ों से भरी थैलियां थीं। लड़की ने थैलियां ले ली। वह उन्हें रसोई में रखने गई। वापस लौटते हुए वह पुरूष के लिये पानी लेकर आई। पुरुष डायनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठकर जूते उतार रहा था। लड़की उसके सामने खड़ी रही। उसके हाथ झूल रहे थे।
''कब आयी?'' पुरूष ने पूछा। ''थोड़ी देर हुई, आपको आने में देर लगी।'' हूं... पुरूष ने दोनों पांव और हाथ फैलाये। ''बाज़ार में देर हो गई। बहुत सी चीज़ें खरीदनी थीं।'' खरीदने के लिए मुझे कहा होता तो?
लड़की ने कहा। 'क्या' पुरूष प्रश्न भरी नज़रों से लड़की को देखने लगा।
ये सारे सामान की खरीद... लड़की बोलते - बोलते चुप हो गई। शायह वह पुरूष की नज़रों से उभर आये प्रश्न को समझ नहीं सकी। उसने कोई नई बात नहीं की थी। वह कई बार पुरूष द्वारा मंगवाई गई चीज़ों को खरीद लाती थी।
''मुझे ऐसा लगा कि आज तू नहीं आयेगी।''
''क्यों?''
''हमारे बीच तय नहीं हुआ था न''... फिर फौरन ही बात बदलते हुए कहा ''वैसे भी आज बहुत सी चीज़ें खरीदनी थीं, इसलिये जीप लेकर बाज़ार गया था।'' पुरूष अपने जूते उठाकर खाली पड़े बेडरूम में रखने गया। बाजू के बेडरूम में नाईटलैम्प जल रहा था। यह देखकर पुरूष ने पूछा, ''अंदर क्या कर रही थी?''
''पलंग ठीक ठाक कर रही थी।''
पुरूष लड़की को देखता ही रहा। लड़की जैसे किसी उम्मीद के साथ खड़ी थी। वह क्या था उसका आभास क्या पुरुष को नहीं था? लड़की उसके करीब गई। पुरुष के शरीर के साथ सट गई। उसके शरीर से बीते हुए दिन और बाज़ार की गंध आ रही थी। लड़की पुरूष की टाई खोलने लगी। वह गर्दन ऊंची करके खड़ा था। लड़की टाई अलमारी में रखकर लौटी।
''नहाना है?'' लड़की ने पूछा।
''हां.... कुछ देर बाद...''
लड़की पुरूष के गाल पर हाथ फेरने लगी। सुबह बनायी गयी दाढ़ी अब सख्त हो चली थी। वह पुरूष की नाक के पास की शिकन को छूने लगी। पुरूष ने उसका हाथ पकड़ लिया।
''क्यों?'' लड़की ने पूछा
''कुछ नहीं, मैं थका हुआ हूं।''
''आज दफ्तर में बहुत काम था, नहीं?''
''हाँ, छुट्टी लेनी पड़ेगी इसलिये कुछ काम पहले ही निपटाना था।''
''छुट्टी...'', लड़की को लगा कि वह जिस बात को दूर रखना चाहती थी वह बात अचानक पास आ गई है। वहां से जैसे छूटना चाह रही हो ऐसे उसने पूछा, ''खाने के लिये क्या बनाऊं?''
''तू यहां रुकने वाली है?''
''रुक जाऊं? आज की रात?'', लड़की के स्वर में जैसे अनिच्छा का भाव उभर आया। प्रश्न पूछने के बाद जवाब के लिये कोई उत्सुकता नहीं रही थी। लेकिन जवाब मिल गया हो ऐसा विषाद उसके पुरूष की आवाज़ स्थिर और सपाट थी।
''दूसरी रातों की बात और ही हैं।''
''आज की रात क्या अलग है?''
''आपको शायद जल्दी, सोना पड़े सुबह शायद जल्दी उठ जाना हो।''
कल सुबह पुरूष की पत्नी और दो बच्चे यहां आ रहे हैं। उन्हें लेने पुरूष को कल सुबह स्टेशन जाना है। तीन वर्ष पहले उसके तबादले पर यहां आने के बाद वे लोग पहली बार यहां आयेंगे। ज़्यादातर पुरूष ही छुट्टी लेकर उनसे मिल आता था।
''हां सुबह जल्दी तो उठना ही है। शायद हम दोनों सोयें ही नहीं।'' हल्के स्वरों में पुरूष ने कहा लेकिन कहते हुए चेहरे की त्वचा जैसे खिंच आई थी।
''नहीं... कल....'' कहते कहते लड़की ठिठक गई। पीठ फेरकर वह रसोई में चली गयी। पुरूष उसके पीछे आया। लड़की के कंधे पर उसने हाथ रखा। लड़की आँखें बंद किये स्थिर खड़ी रही।
''तुझे कुछ हुआ है?'' पुरूष ने पूछा। ''मुझे, नहीं... मुझे तो कुछ नहीं हुआ है,'' लड़की का वाक्य जैसे हवा में अधर झूल रहा था। वह थैली में से चीज़ें निकालने लगी। यहां आने के बाद पुरूष ने इतनी ज़्यादा चीज़ें कभी खरीदी नहीं थी।
''तू रहने दे,'' पुरूष ने उसे काम करते हुए रोक दिया।
''क्यों?''
''कल वह आयेगी, फिर खुद ही सब देख लेगी।''
लड़की रसोई में रखी सारी चीज़ों को देखती रही। शायद पुरूष की बात सही थी। सामने पड़ी चीज़ों के साथ लड़की का कोई भी संबंध नहीं था। उसे मालूम था कि ये सब चीज़ें उसके वास्ते नहीं लाई गई है।
पुरूष बाथरुम में चला गया। उसके नहाने की आवाज़ लड़की ने सुनी। वह रसोई में ही खड़ी थी। वहां अटारी और आले में सारी चीज़ें लड़की ने करीने में रख दी थीं। पिछले सप्ताह ही उसने आले में भिचाया गया पुराना कागज़ बदल दिया था। रसोई व्यवस्थित नज़र आ रही थी। किसी स्त्री के हाथों यह सब हुआ है यह छाप साफ दिखलायी दे रही थी। थोड़ा बहुत अस्त व्यस्त कर दिया जाना चाहिये। लड़की को ख्याल आया।
''तौलिया?'' बाथरूम से पुरुष की हाँक सुनायी दी। यह उसकी पुरानी आदत थी। बाथरूम जाते वक्त तौलिया ले जाना वह भूल जाया करता। लड़की ने कई बार इस विषय में उसे टोका भी था लेकिन पुरूष हंसी में बात उड़ा देता। ''क्या करूं, पुरानी आदत है।'' वह उसके साथ भी ऐसा ही करता होगा, लड़की को यह ख्याल आया। पुरूष ने दूसरी बार आवाज़ लगायी। लड़की दौड़ती हुई गई। कुछ देर पहले तय किया हुआ तौलिया लेकर वह भागी। दरवाज़ा खुला हुआ था। लड़की ने तौलिया देने के लिये हाथ बढ़ाया। पुरूष ने तौलिया खींच लिया। लड़की जैसे किसी बात की प्रतीक्षा कर रही हो, ऐसे कुछ देर वहां खड़ी रही फिर जाने क्यों उसे लगा कि वह गलत जगह पर खड़ी है। वह वहां से हट गई और हॉल की खिड़की के पास चली आई।
वह कांच में से बाहर देखने लगी। बाहर झींगुर बोल रहे थे और जुगनू उड़ रहे थे। समूचा वातावरण वीरानी में डूबा हुआ था। चारों तरफ निर्जन वीरानी थी। वह कई बार यहां रात को ठहरी थी। तब पास ही सियारों को रोते हुए उसने सुना था। उस व$क्त वह पुरूष के और करीब चली जाया करती। कान के ऊपर चादर दबा लेती। पुरूष उसकी पीठ सहलाता रहता।
''डर लग रहा है?'' वह पूछता। लड़की पुरुष के शरीर से चिपटे सिर को हिलाती और पुरुष की छाती को सुनायी दे इस तरह बोलती।
''डर अब नहीं लग रहा है।''
खिड़की के काँच के संग नाक सटाये खड़ी लड़की को लगा वे सब छोटे-छोटे-बहाने और छोटे-छोटे नकली आश्वासन थे। वह खड़ी थी वहां उसके पीछे पुरुष के घर के कमरे थे। सभी कमरों में अंधकार था। एक बेडरूम भर से उजाला बाहर झांक रहा था। रसोई के पास वाले बरामदे में उजाले की एक पट्टी दिख रही थी। खिड़की के कांच से बाहर का बरामदा, अंधकार में छिपी झांडिय़ां, बंद फाटक और सायकिल दिखलायी दे रही थी। वह बाहर की दुनिया थी और लड़की उसी दुनिया में रहती थी।
बाहर की दुनिया में इसी शहर में उसका एक कमरे का घर था। इस शहर में थोड़ी दूर गांव में उसके बूढ़े माँ बाप और शादीशुदा भाई रहा करते थे। लड़की साल भर में उनसे मिलने नहीं गई थी। पिछली बार के झगड़े के बाद वह गांव नहीं गई। बाहर की दुनिया का एक टुकड़ा उसने काट दिया था और पुरूष के घर का एक छोटा सा टुकड़ा पैबन्द की तरह अपने से जोड़ रखा था।
खिड़की के काँच पर लड़की को अपने शरीर का प्रतिबिंब दिखलायी दिया। एक अंधकार भरा शरीर। लड़की को लगा कि वह यहाँ है कि फिर भी कहीं नहीं है। वह बेहद बेचैन हो उठी। उसने कांपते ओठों को दबाने की कोशिश की। पीछे से पुरूष ने उसे छुआ।
''क्या सोच रही है?''
लड़की ने जवाब नहीं दिया वह सिर हिलाती रही और उससे कोई अर्थ नहीं निकल रहा था।
''तू आज यहाँ आई ये बहुत अच्छा हुआ। मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा था।'' पुरूष की बात लड़की के गले नहीं उतर सकी। उसे लगा, शायह वह झूठ बोल रहा हो। आज उसे अकेलापन महसूस हो ऐसी कोई संभावना नज़र नहीं आती। आने वाले कल के ख्याल में उसकी यह रात गुज़र जायेगी।
''वे लोग अब तक ट्रेन में बैठ चुके होंगे, नहीं?'' लड़की ने एकाएक पूछा।
पुरूष लड़की से नज़रें बचाकर खिड़की के शीशे के बाहर देखने लगा। वह भी शायद बाहर की दुनिया देखने की कोशिश कर रहा था। वहां कहीं उसका अपना घर था और...
लड़की को लगा पुरूष शायद आने वाले कल की राह देख रहा है और लड़की वहीं है इसलिए वह इस बारे में कुछ खास तौर से अनुभव नहीं कर पा रहा है।
कुछ दिनों पहले पुरूष ने लड़की से कहा था इस बार छुट्टियों में वे लोग यहां आयेंगे। ''कौन?'' लड़की तब समझ नहीं पाई थी।
''मोंटू की दसवीं की और सोनाली की बारहवीं की परीक्षाएं हो गई है। इस वक्त ज़रा बेफिक्री है, इसलिये वे लोग यहां आयेंगे, आसपास सैर को भी जाना है।''
उस वक्त लड़की के ज़ेहन में कोई मोह नहीं था। सब कुछ स्वाभाविक लग रहा था। फिर उन लोगों के आने के दिन करीब आते गये वैसे ही वह उनके विषय में चौकन्नी होती गई। अब सिर्फ एक रात बाकी है। कल इस समय वे लोग इस घर में होंगे और घर के हर कमरे में रोशनी होगी, एक दूसरी औरत रसोई में होगी।
पुरूष ने खिड़की के पास से मुड़कर लड़की को बाहों में लेने की कोशिश की। लड़की दूर हट गई। पुरूष का हाथ हवा में लटक गया।
''खाना तैयार कर लें?''
''मुझे ज़्यादा भूख नहीं है। तूने दोपहर को क्या खाया था।''
''कुछ नहीं... पराठा और सब्ज़ी''
''तुझे तो भूख लग रही होगी।''
''नहीं मुझे भी भूख नहीं है।''
ऐसी बातें इससे पहले कभी नहीं होती थी। लड़की आती और दूसरा दिन छुट्टी का होता तो रात को रूक जाया करती। वह पुरूष से कुछ भी नहीं पूछती। जो उसका मन करता वह खाने के लिये पकाती, जैसी इच्छा हो वैसे घर को सहेजती। इच्छा होती तब पुरुष के संग हो जाती।
''आमलेट बना लें?'' लड़की हटने लगी।
'कुछ देर बाद', पुरुष ने कहा। लड़की समझ गई। पुरुष ने व्हिस्की की बोतल निकाली और उसे ऊंची उठाकर देखने लगा। 'ज़्यादा नहीं है तीनेक पैग होंगे', वह हंसने लगा। ''आज ही इसे खाली करना पड़ेगा। फिर इसे और रसोई में पड़ी दूसरी खाली बोतलों को बाहर फेंकना होगा। कोई सबूत बाकी नहीं रहना चाहिये।''
लड़की हंस नहीं पायी। पुरुष ने कहा 'दो गिलास और फ्रिज में से बर्फ निकाल ला।' लड़की ने बेडरूम की अलमारी खोली। उसके बहुत से कपड़े वहां रखे हुए थे। उसने उनमें से अपना गाऊन निकाला। फिर सारे कपड़े उठाकर मेज़ पर रख दिये। ''ये सब आज यहां से ले जाना पड़ेगा।'' उसने सोचा पुरुष ने क्या कहा था? ''कोई सबूत बाकी नहीं रहना चाहिये।''
पुरुष पलंग पर बैठा उसे देख रहा था। दो पैग के बाद उसके चेहरे की त्वचा ढीली होने लगी। लड़की का आधा भरा हुआ दिलास टेबल पर रखा था। वह गाऊन लेकर बाथरुम में जाने लगी और कुछ याद करते हुए पुरुष को देखने लगी।
''क्या देख रही है?''
''कुछ नहीं''
''तू कुछ छिपा रही है आज, आई है उसी वक्त से...''
उसे क्या कुछ भी खबर नहीं होती होगी लड़की को ख्याल आया।
''बता न क्या देख रही थी? क्या मुझे पहली बार देख रही थी?''
उसने उसे पहली बार इतने नज़दीक से कब देखा था? शायद डेढ़ेक साल पहले। उस वक्त लड़की के घर में झगड़े शुरू हो गये थे। वे लोग उसके ब्याह को लेकर उठापटक कर रहे थे। और बार अच्छे लड़के लिये दहेज़ कम पड़ जाता था। वे जिसे पसंद करते,उसे लड़की पसंद नहीं करती थी। और उम्र बढ़ती जा रही थी। पुरुष को उसके बारे में पता चला था। उसने एक बार दफ्तर में कहा था? ''तेरी समस्या के बारे में हम इत्मीनान से बात करेंगे।'' उसके बाद एक शाम वह पहली बार यहां आयी थी। लड़की रो दी थी और पुरुष उसकी पीठ सहला रहा था। बातों में वक्त बीत गया था फिर रात को यहीं रुकना पड़ा। उसी रात पहली बार...
उस रात का ख्याल आया और लड़की बाथरूम में नहीं गई। पुरुष के सामने ही खड़ी रही और कपड़े बदलने लगी। पुरुष ने उसका गिलास खाली किया। लड़की ने उसके हाथ से गिलास ले लिया।
''आपको बोतल खाली करनी थी न वह तो हो गई है।'' लड़की ने हंसने का प्रयत्न किया। पुरुष पलंग पर लेट गया। लड़की ने टेबल लैम्प जलाया और उसे झुका दिया। रोशनी का छोटा सा व्यास उभर आया। उसमें से थोड़ा सा उजाला टेबल के आसपास फैल गया। वह हमेशा टेबल लैम्प को नीचे झुका दिया करती। जैसे उजाला उसकी शर्म हो और वह उससे पीछा छुड़ाना चाह रही हो।
टेबल पर रखा अपना गिलास उठाकर लड़की व्हिस्की को बेसिन में डालने के लिये बाहर आई। बेसिन पर लगे आईने में अपना मुंह देखा। उसके बाल बिखरे हुए थे। आँखों के नीचे काले धब्बे उभर आये थे। सत्ताईस साल में ऐसे धब्बे? वह देखती रही। हाथ से बिखरे बाल ठीक किये फिर बेसिन में डालने के बजाय गिलास में भरी व्हिस्की उसने तेज़ी से पी ली। छाती जलने लगी। उसने गिलास धोया और रसोई में रख दिया। बेडरूम में वह आयी तब पुरुष पैर मोड़कर चित्त लेटा हुआ था। उसका एक हाथ माथे पर था। लड़की पुरुष के बगल में लेट गई। पुरुष वैसे ही लेटा रहा। लड़की ने उसकी छाती पर हाथ रखा। पुरुष लड़की की तरफ पलटा। उसके ओंठ थोड़े खुले हुए थे। लड़की ने उन पर हल्का सा चुंबन लिया और मुस्करायी। वह पुरुष के बालों में हाथ फेरने लगी। लड़की को लगा कि इस पल पुरुष वाकई अकेला है। अकेला या उससे अलग थलग पड़ गया?
''सुन...'' पुरुष धीमी आवाज से बोला, उसे जब कभी कोई जरूरी बात करनी होती तो इसी तरह शुरुआत करता था।
''तू कुछ दिनों की छुट्टी ले ले।''
''क्यों?''
''कितने ही दिनों से तू अपने गांव नहीं गई? वहां हो आ, यह अब कब तक चलेगा?''
''वहां जायेगी तो कोई रास्ता निकलेगा।''
''रास्ता? किस बात का रास्ता?''
पुरुष लड़की के चेहरे पर झुका।
''तूने जवाब नहीं दिया?''
''छुट्टी लेकर क्या करुंगी? मुझे वहां भी अच्छा नहीं लगेगा?''
''लेकिन इन दिनों वे लोग यहां होंगे।''
''मुझे पता है।''
पुरुष ने तकिये पर सिर डाल दिया।
''नहीं तुझे कुछ पता नहीं है।''
इन तमाम बातों को कोई अर्थ नहीं था। पुरुष जान रहा था कि लड़की जान रही है। सभी कुछ जानती है। एक ट्रेन इस शहर के करीब आ रही है और बीच में एक रात बाकी है। सवाल महज़ आने वाले कुछेक दिनों का ही नहीं था। पुरुष को यहां आये तीन बरस हो चुके थे और वह तबादले के लिये कोशिश कर रहा था। इस विषय में किया जा रहा पत्र व्यवहार लड़की ही टाईप किया करती थी।
पुरुष का हाथ लड़की के शरीर पर फिसल रहा था। गोया वह लड़की के शरीर में कुछ खोज रहा हो। इन दिनों का अर्थ और आने वाले दिनों का सच। उसके हाथ के स्पर्श से लड़की की व्याकुलता और व्यग्रता सी महसूस हुई।
लड़की ने पुरुष का हाथ पकड़ लिया।
''आज नहीं...'' लड़की ने कहा
''क्यों?''
''नहीं कल ही वे लोग यहां आ रहे है''
''तो?''
''मैं तो आज सिर्फ आपके पास रहना चाहती थी।''
लेकिन...
एकाध रात ऐसी भी आती है जब लेकिन के बाद कुछ भी नहीं हुआ करता। लड़की को ख्याल आया, वह लेटी हुई है, इसी जगह पर कल पुरुष की बीवी लेटी होगी। बेडरूम में रखी सारी चीज़ों को वह देख रही होगी। उस वक्त भी पुरुष का हाथ कुछ खोज रहा होगा। शायद वह भी सच की खोज होगी। लड़की को छाती में कुछ चुभता हुआ महसूस हुआ। बेडरूम के निर्जन अंधकार में एक चुभन तैर रही थी। लड़की उठ बैठी। रात के इस प्रहर में वह अपने घर जाने की स्थिति में नहीं थी। पुरुष भी उठ बैठा। लड़की उसकी तरफ देखना चाहती थी लेकिन उसे साहस नहीं हुआ। वह उसे देखे और कभी सिर्फ वही न दिखलायी दे और अगर उसके आसपास दूसरी छायाएं दिखलायी दे तो?
''मेरी बात सुन'', पुरुष की आवाज आयी।
''उससे मिलेगी?''
''किससे?''
'उससे', उसने फिर कहा, मोन्टु और सोनाली से।
लड़की ने जवाब नहीं दिया। पुरुष ने भी जवाब सुनने के लिये यह प्रश्न नहीं पूछा था। वह कुछ बोलना चाहता था और अपने आप से जैसे मुक्त होना चाह रहा था। शायद वह आने वाले कल की तैयारी कर रहा था। लड़की को पुरुष के प्रति दया आयी लेकिन वह कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं थी।
वह खड़ी हो गई। बाजू के खाली बेडरूम में गई। फिर रसोई में गई। अब वह हॉल में आकर खड़ी रही। खिड़की के बाहर अब जुगनू नहीं उड़ रहे थे। पुराने शहर के आकाश में धुंधला चांद ऊपर आ गया था। पुरुष का घर आधी रात के प्रहर में अपनी सांस रोककर खड़ा था। बाथरूम में अब भी नल टपक रहा था। और दो बू्दों के टपकने के बीच वही खाली अंतराल बना हुआ था।


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