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फरवरी 2014

सभ्यता संकट, साहित्य और साहित्यिक सिद्धांत

जीतेन्द्र गुप्ता

बरस्ते-क्षुद्रताओं का समाजशास्त्र


यह कहने में कतई कोई संकोच नहीं, न ही हो सकता है कि सांस्कृतिक विविधता के न•ारिए से भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया में सबसे विशिष्ट हैसियत रखता है। सुदूर अतीत तो नहीं, लेकिन ज्ञात इतिहास इस बात को बखूबी प्रमाणित करता है कि इतिहास की गतिकी और इस गतिकी के जो भी कार्य- कारण संबंध या कारक रहे हों, उससे इतर (अप्रभावित नहीं) संस्कृति की एक समानांतर धारा अपना विकास-सवंद्र्धन करते हुए यहां निरंतर अग्रगामी रही है। भारतीय संस्कृति (यहां मैं 'संस्कृति' शब्द रेमेंड विलियम्स की पारिभाषिकी के अनुरूप इस्तेमाल कर रहा हूं) की सबसे बड़ी विशेषता (कम से कम) यह रही कि उपनिवेशपूर्ण सत्ता पक्ष इस प्रक्रिया में कोई 'कृत्रिम' हस्तक्षेप नहीं कर पाया। और दूसरी विशेषता यह रही कि यहां धर्म ने संस्कृति को नहीं परिभाषित किया, बल्कि संस्कृति ने धर्म को परिभाषित किया, और इस स्थिति ने औपनिवेशिक शासन के स्थापित होने के पूर्व तक अपनी निरंतरता बनाए रखी। इस तथ्य के सबूत के रूप में ढेरों सकारात्मक-नकारात्मक तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन इस मामले में दो उदाहरण बहुत सटीक हैं; पहली अकबर की 'सुलह-कुल' नीति और दूसरा उदाहरण भक्ति आंदोलन है।
इस सामान्य बोध से जो पहला नतीजा निकलता है वह यह कि सामंती युग की समस्त सीमाओं के बावजूद वंचित वर्ग की ओर से आर्थिक व सामाजिक स्तर पर जो भी दावे किए गए, वह लौकिक होने के साथ जन-सामान्य के पीड़ा-बोध को स्वयं में समाहित किए थे, और दूसरी ओर इससे भी बड़ी बात कि सामाजिक स्तर पर ऐसा कोई विभाजन नहीं देखने में आता, जिसे 'कत्रिम' रूप से सत्ता द्वारा आरोपित किया गया हो और सत्ता इसका लाभ उठा पाए। हॉलाकि इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यहां किसी तरह के सामाजिक विभाजन की अनुपस्थिति का दावा किया जा रहा है, या धर्म की भूमिका को सिरे से नकारा जा रहा है।
लेकिन यहां, भारत में अंग्रेजी उपनिवेश के कायम हो जाने के बाद और बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस स्थिति में सैद्धांतिक स्तर पर एक भीषण परिवर्तन सामने आया। और यह परिवर्तन यह था कि सत्ता पक्ष अपने हित अनुकूल समाज का विभाजन कर पाने में सक्षम हो पाया। विभिन्न किस्म की सामाजिक यांत्रिकी, जो कई बार 'समाज कल्याण' के नाम से भी अंजाम दी गई, को प्रयोग में लाने की यह स्थिति समस्त ज्ञात भारतीय इतिहास में बिल्कुल अनोखी है, और यह इतनी नवीन है कि मात्र 300 या 350 सालों से ज्यादा का इसका इतिहास भी नहीं है। लेकिन इस स्थिति में भी नवीन किस्म का बदलाव पिछली सदी में 90 के दशक में सामने आया है, जिसे संदर्भ के तौर पर सोवियत विघटन की घटना से जोड़ कर देखने और समझने की सहूलिहयत अब हमें आसानी से मिल पाई  है। लेकिन इसके साथ हमें यह लगातार याद रखने की ज़रूरत भी है कि यह कोई स्थानीय नहीं, बल्कि वैश्विक परिघटना व परिप्रेक्ष्य के सापेक्ष है। इस परिघटना ने जाति, धर्म, समुदाय आदि सभी सामाजिक संरचनाओं को बेहतर प्रभावित किया है।
सोवियत विघटन ने पूरी दुनिया पर इतना गंभीर और व्यापक प्रसार का प्रभाव डाला है कि कई बार यह घटना युग विभाजक रेखा के तौर पर प्रतीत होने लगती है। इस विघटन का एक प्रभाव इस रूप में भी सामने आया  है कि जहां विघटन के पूर्व संयुक्त राज्य अमरीका की नीतियों के लिए 'बुरे साम्राज्य' की उपस्थिति का तर्क था, यह विघटन के बाद खत्म हो गया। और इस तरह संयुक्त राज्य अमरीका की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी नीतियों के लिए विचारधारा-मुखौटों के नए लिबासों की ज़रूरत पड़ी। इसमें कोई संशय नहीं कि अमरीकी विदेश मंत्रालय द्वारा तथाकथित रूप से जो नए मुहावरे (बहाने) गढ़े गए, वह शीत युद्ध की निरंतरता में ही हैं।
आज के वक्त में यह मुहावरा और कुछ नहीं, बल्कि 'सभ्यताओं के संघर्ष' के रूप में है। इस आधारभूत बदलाव को स्वयं इस मुहावरे का इस्तेमाल करने वाले सैमुअल हंटिगटन ने भी स्वीकार किया है। ''विचारधारा का लौह आवरण' शीत युद्ध के बाद 'संस्कृति के मखमली आवरण' में बदल गया है (बदल दिया गया है)। इस बदलाव की वैधता 'पश्चिम' के सामने उत्पन्न चुनौतियों के आधार पर की जाती है, जहां सबसे बड़ी चुनौती 'आतंकवाद' के रूप में दर्ज की जाती है। और 'आतंकवाद' और 'धर्म' को पर्यायवाची के तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। महमूद ममदानी की शानदार किताब गुड मुस्लिम बैड मुस्लिम में इस स्थिति के व्यवहारिक पक्ष की ओर सटीक इशारा किया गया है, 'यह सैमुअल हटिंगटन नहीं, बल्कि बर्नाड लेविस हैं, जिन्होंने 'अच्छे' मुसलमान और 'बुरे' मुसलमान के बीच विपरीतता की धारणा को बौद्धिक समर्थन दिया। यह विचार अब अमरीकी विदेश नीति की संचालक शक्ति हो गया है'। (पृष्ठ-23)
आज के वक्त में 'पश्चिमी' पूंजीवादी देशों को अपने समक्ष उत्पन्न चुनौतियों के लिए शायद इसी तरह के किसी 'हल' की ज़रूरत थी। तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर यहां की श्रम शक्ति के आबाध-अनियंत्रित इस्तेमाल से लेकर उनके अपने बाज़ार के विस्तार के लिए यह बहुत ज़रूरी था। लेकिन इसके विरूद्ध प्रतिरोध का उन आधारों पर दमन नहीं किया जा सकता था, जिन्हें वियतनाम के युद्ध से लेकर चिली के अलेंदे के तख्तापलट तक के लिए प्रयुक्त किया गया था, क्योंकि अब 'शैतानी साम्राज्य' के रूप में मौजूद रहा 'शाश्वत शत्रु' ही नहीं उपस्थित था।
इस तरह के विचार-विमर्श ने भारत जैसे देशों पर भी गंभीर प्रभाव डाला है, क्योंकि इस स्थिति ने परिभाषित मूल्यों और अवधारणाओं को संदिग्ध कर दिया है। हालांकि एडवर्ड सईद ने इस अमरीकी प्रोपेगैण्डा तंत्र की कड़ी मु$खालिफत की है और निसंकोच उनका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि 'हंटिगटन जिसे 'सभ्यतागत पहचान' कहते हैं, वह एक स्थिर और बिल्कुल शांत चीज़ है, जैसे यह आपके पिछवाड़े का कोई कमरा हो, जहां फर्नीचर भरा हो।' (रिफ्लेक्सन ऑव एक्साइल एण्ड अदर ऐसेस, पृ. 581) जाहिर तौर पर सईद यहां पर सभ्यता और संस्कृति के मूल अवयव के तौर पर गतिकता, बदलाव को रेखांकित कर रहे हैं। इसके मायने यह हैं कि सभ्यता और संस्कृति धर्म का हिस्सा नहीं, बल्कि धर्म इसका हिस्सा है। मायने यह कि सच्चा सवाल यह है, जो 1966 में राही मासूम रज़ा ने अपने एक पात्र के माध्यम से पूछा था, 'नाना मियां भी त मुजाहिद रहे कि ना? खाली इस्लामे से काम ना चलत... दुनिया कौनो चीज़ है कि ना?' (आधा गांव, पृ. 117)
इस संक्षिप्त भूमिका के बाद यहां यह स्पष्ट कर देना बहुत ज़रूरी है कि मैं यहां प्रभुत्वशाली समकालीन वैचारिक चिंतन के मुख्य तर्क को सामने रखकर उसके सापेक्ष साहित्य और खास तौर से हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि के आधार पर उन तर्को-वितर्कों की एक पूरी श्रृंखला के आधारभूत वैचारिक आग्रहों को स्पष्ट करके समकालीन चिंतन की तथाकथित 'नवीनता' को समझने का प्रयास कर रहा हूं, और इसी क्रम में अपने अतीत से मिले उन कुछ सवालों-सरोकारों को सामने लाना चाहता हूं जो न केवल हमारे अतीत के संघर्ष की मूल्यवत्ता उजागर करते हैं, बल्कि कई बार वर्तमान के लिए मौजूद कुछ चीज़ों की ओर नज़रेसानी के लिए प्रेरित करते हैं। यह कार्यवाही साहित्य, राजनीति और दर्शन के अनुशासनों का संस्पर्श तो करती है, लेकिन मैं यह कार्य किसी दायरे में बंध कर नहीं करना चाहता हूं।

2

वर्तमान में वैश्विक स्तर पर मुस्लिम धर्म जिस तरह की आलोचना व आक्षेपों का सामना कर रहा है और इन्हीं आलोचनाओं व आक्षेपों का बहुत बड़ा हिस्सा विकसित पूंजीवादी देशों की विदेश नीति को निर्धारित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है। लेकिन यह मात्र संयोग नहीं है कि उन आक्षेपों और आलोचनाओं का इतिहास भारत के लिए कोई पुराना नहीं है। उपनिवेश काल में इस स्थिति की गंभीरता का अहसास इस बात से किया जा सकता है कि भारत के समग्र इतिहास को इन्हीं कारणों से दुनिया की एक बहुत बड़ी हिज़रत (1947) का सामना करना पड़ा था। वैचारिक स्तर पर भारतीय विद्वानों ने इस विरूपित, साम्राज्यवादी तर्कों का जिस वैचारिकता व रचनात्मक स्तर पर मुकाबला किया, वैसी इबारत शायद ही दुनिया के इतिहास में कोई दूसरी मौजूद होगी। साहित्यिक स्तर पर इस मामले में सबसे पहला नाम यदि किसी का आता है, तो यह केवल राही मासूम रज़ा का है। साहित्य के गंभीर अध्येता बखूबी जानते हैं कि अच्छा साहित्य देश, काल, समय के सापेक्ष ही होता है, और यदि कोई साहित्य इससे परे हैं, तो निश्चितरूप से उसके घटिया होने के लिए भी यही सबसे मज़बूत तर्क है। रज़ा साहब के साहित्य की भी सबसे बड़ी सीमा यही उपनिवेशवाद है, लेकिन यही उनकी महानता का सबसे सशक्त तर्क भी है। समय, समाज व इतिहास की द्वंदात्मकता का उनके लेखन में इतना गंभीर हस्तक्षेप है कि वह सारी गैर वरीयताओं के बावजूद भारतीय इतिहासबोध के इस अंश को व्यक्त कर पाते हैं। वह शायद हिन्दी साहित्य के नए युग का आरंभ करने वालों में थे, क्योंकि उनके समय तक कोई यह दावा नहीं कर पाया था कि 'यह कहानी न धार्मिक है, न राजनीतिक। क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक.. यह कहानी ही है समय की'। (आधा गांव, पृ. 11) इसी लेखक ने महाभारत जैसे महाकाव्य की आत्मा को भी 'मैं समय हूं' कह कर तब्दील करने, उसे लौकिकता में तब्दील करने की ताकत को भी व्यक्त किया था।
''हइ ला, भैया! अरे, का हम बुर्बक हई? इमाम साहब के मुसलमान न कहे के चाही। नहीं त हमनी के भागे चढ़ावै देतां मियां लोग और इमाम साहब ओके स्वीकार करतां''। (वही, पृ. 181)
लेकिन आज दुनिया के हर एक सत्तापोषी व्यक्ति के लिए ये पंक्तियां चुनौती की ही तरह है।
वैश्विक स्तर पर प्रभुत्वशाली समकालीन बौद्धिक विमर्श से जुड़ी इसी पूरी बहस का सबसे गंभीर रिश्ता भारत के साथ है, क्योंकि जिन तर्कों के साथ अमरीकी विदेश मंत्रालय और उसके पक्षधर बौद्धिक इस बहस को अंजाम दे रहे हैं, वह कम से कम यहां के लिए नई नहीं है। भारत विभाजन के आधार पर सतही तौर पर ज़रूर कहा जा सकता  है कि इन तर्कों ने वरीयता पाई, लेकिन पाकिस्तान विभाजन (1971) और भारत की समिश्रित आबादी का आंकड़ा गहरे रूप में इन तर्कों को खारिज कर देता है।
'द्वि-राष्ट्र' के साम्राज्यवादी प्रोपेगैण्डा का बौद्धिक स्तर पर यहां जो भी विरोध हुआ, वह भारतीय बौद्धिक इतिहास का एक शानदार अंग है। लेकिन इससे इतर साहित्यिक स्तर पर इसका जो प्रतिरोध है, वह विश्व साहित्य की शानदार धरोहर के रूप में है। यही कारण है कि आधा गांव को उपन्यास के बजाए 'आधुनिक महाकाव्य' की संज्ञा देने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। इसका एक अन्य कारण यह है कि यह कृति समय की सीमा का अतिक्रमण करती है। इस कृति का जो अर्थ 70 के दशक में था, उससे भी बढ़कर आज इक्कीसवीं शताब्दी में है।
प्रेमचंद के गोदान ने हिन्दी साहित्य को जो नया आधार प्रदान किया, राही मासूम रज़ा ने उस आधार पर आधा गांव के रूप में शानदार इमारत तामीर की है। आधा गांव इन मायनों में वैश्विक साहित्य की धरोहर है कि पहली बार 'मुस्लिम' धर्म को 'वैश्विकता' के आधार पर नहीं, बल्कि स्थानीयता के आधार पर परिभाषित किया गया है। हालांकि इसी तरह की आंशिक प्रवृत्ति भक्ति साहित्य की परंपरा में भी मौजूद है, लेकिन वह 'आधुनिकता' और आधुनिक युग के समाज को परिभाषित करने में कोई बहुत मदद नहीं कर पाती है। आधा गांव भारतीय सामाजिक संरचना को रचनात्मक स्तर पर समझने का सबसे ओजस्वी प्रयास है। मनुष्य समाज के निर्धारक तत्वों को सतही लोकाचारों के प्रभाव में रज़ा साहब कभी नज़रअंदाज नहीं करते हैं। यही कारण है कि राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान स्थापित हो जाने के बाद भी लेखक का दावा है कि 'इसीलिए तो पाकिस्तान बन जाने के बाद भी पाकिस्तान की हकीकत मेरी समझ में नहीं आती है'। (आधा गांव, पृ. 12) यहां तक कि पाकिस्तान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना के पास भी इस मामले में कोई सार्थक तर्क नहीं है।
यह समझना बड़ा मुश्किल है कि हमारे हिंदू दोस्त इस्लाम और हिंदू धर्म की वास्तविक प्रकृति को समझ पाने में कैसे असफल रह जाते हैं। ये शब्द के सही अर्थ में धर्म है ही नहीं, वरन् विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाएं हैं और यह सोचना महज सपना है कि वे कभी भी सम्मिलित राष्ट्र के रूप में विकसित हो सकेंगे... हिंदुओं और मुसलमानों के अलग-अलग धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथाएं और साहित्य है। वे न तो आपस में शादी-ब्याह करते हैं, न ही एक साथ खान-पान, वस्तुत: वे दो भिन्न समस्याओं के लोग हैं जो विरोधी विचारों और धारणाओं पर आधारित हैं। (प्रेसिडेंसियल एड्रेसेस,पृ. 49)
जिन्ना का तर्क सार्थक तर्क इस कारण नहीं है क्योंकि वह गतिकता को नहीं स्वीकार करता है। सैद्धांतिक स्तर पर यह वही है जिसे बर्नाड लेविस ने 90 के दशक के उत्तराद्र्ध में प्रस्तावित किया है। जैसा पहले कहा गया कि गतिकता को मनुष्य जीवन और सामाजिक जीवन के निर्धारक तत्वों की द्वंदात्मकता से ही पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि आधा गांव कोई सर्व धर्म सद्भाव स्थापित करने वाली उपदेशक पुस्तक नहीं है, जिसमें सद्इच्छा के आधार पर हिंदुओं और मुसलमानों की एकता प्रस्तावित की गई हो। बल्कि यह भारतीय चिंतन की द्वंदात्मक परंपरा के शानदार अनुकरण में है। इसी परंपरा के एक उदाहरण रवींद्रनाथ टैगोर हैं। दार्शनिक-चिंतक-लेखक-कवि के अलावा टैगोर एक ज़मींदार भी थे। ज़मींदारी के हितों के विपरीत उन्होंने अपने समाज की यथार्थ स्थिति का आकलन किया था। उनके आत्मकथात्मक विवरणों में 'शेखों को शाहों से बचाए' का जिक्र मिलता है। अमिताव चौधरी ने बहुत स्पष्टता से व्याख्यायित किया है कि ''शेख'' और ''शाह'' के रूप में टैगोर ने किसी खास जाति या नस्ल के समुदाय को संदर्भित नहीं किया था। सच्चाई यह है कि उनकी ज़मींदारी में अधिकतर दौलतमंद और शक्तिशाली सूदखोर मध्यस्तरीय हिंदु जाति के शाह लोग थे और अधिकतर गरीब किसान मुसलमान थे। यह बंगाल के दूसरे समाजशास्त्रीय अध्ययनों से भी स्पष्ट होता है कि उत्तर भारत के विपरीत बंगाल में ज़मींदारों की बहुसंख्या हिंदू थी और बहुसंख्यक बंगाल की आबादी मुस्लिम थी (तत्कालीन पूर्वी बंगाल)। हालांकि टैगोर ने कभी भी आर्थिक कारणों को मनुष्य को परिभाषित करने में प्रमुख नहीं माना था, परन्तु यह स्थिति इतनी अधिक स्पष्ट थी कि घरे बाइरे (1916) में उन्होंने हिंदू और मुस्लिम अंतर्विरोध के मूल कारक के रूप में आर्थिक कारकों को चिंह्नित किया था।
आधा गांव में लेखक ने इस तरह के हर एक अंतर्विरोध को पूरी शिद्धत के साथ चित्रित किया है, आर्थिक पक्ष से लेकर जातिगत संरचना तक सभी। लेकिन यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, क्योंकि फकीर मोहन सेनापति से लेकर गोदान से पूर्व तक के बहुत सारे उपन्यासकारों ने पूर्वोक्त अंतर्विरोधों को अपनी रचना का आधार बनाया है। गोदान और बाद में आधा गांव इन मायनों में महत्वपूर्ण है कि ये पूर्वोक्त अंतर्विरोधों के साथ उन उदयीमान सामाजिक शक्तियों की भी पहचान करती हैं, जो समाज में संचालक स्थिति में आने वाली हैं। गोदान में निम्न जातियों का विद्रोह प्रारंभिक अवस्था में हैं, 'चमारों ने मातादीन का जनेऊ तोड़ डाला, मुंह में बड़ी सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया...' (गोदान, पृ. 224) वहीं आधा गांव इस विद्रोह की नई अवस्था को परसराम के रूप में प्रकट करता है।
तात्पर्य यह कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों को उस सपाटता से नहीं समझा जा सकता है, जिस रूप में 40 व 50 के दशक में जिन्ना प्रस्तावित कर रहे थे। पूर्वोक्त उद्धरण में उनके तर्कों के जवाब के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कुछ अधिक नहीं, बल्कि मलिक मोहम्मद जायसी और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना का नाम लेना पर्याप्त है।
वास्तविकता यह है कि जिन्ना से लेकर हंटिगटन तक द्वारा 'मुस्लिम' समाज के बारे में जो राय रखी जाती है, यह विस्मयजनक रूप से पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और हर एक धर्म के फासीवादी कट्टरपंथियों के लिए भी अनुकूल और सुविधाजनक है। पूंजीवाद के लिए हमेशा ज़रूरी होता है कि वह समाज की वास्तविक संरचना को कृत्रिम रूपों में ढकने का प्रयास करे, उस अंतर्विरोध को सतह पर आने से रोके, जो उसके आर्थिक हितों के प्रतिकूल है। ऊपर हम देख ही आए हैं कि 20 वीं शताब्दी के आरंभ में जाति या धर्म के बजाए यह अंतर्विरोध आर्थिक ही है। साम्राज्यवादी और फासीवादी प्रवृत्तियां इन आर्थिक अंतर्विरोधों से पूंजीवाद के पक्ष में लाभ उठाने के लिए विभिन्न जातीय समूहों को राष्ट्रीयता या धर्म की पहचानों की ओर धकेलती हैं, जिसके लिए कोई ठोस आधार नहीं होता है।
विशुद्ध भारतीय संदर्भ में देखें, तो कट्टरपंथी समूहों की ओर से सभ्यता, धर्म और संस्कृति तीनों ही अंतर्निर्भर ईकाईयों को एक बंद बक्से के तौर पर ही परिभाषित किया जाता है, जिसकी एडवर्ड सईद ने आलोचना की थी। वैचारिक रूप से इसी स्थिति को स्वीकारने का परिणाम होता है कि समाज और मनुष्य जैसी सृजनात्मक ईकाईयों पर भी 'अच्छे' और 'बुरे' का निर्धारण वह नहीं करते हैं, जिनके लिए 'अच्छे' या 'बुरा' कहा जा रहा है, बल्कि वह निर्धारित करते हैं जिनके हितों की देखी-अनदेखी ये 'अच्छे' या 'बुरे' करते हैं। यह वही स्थिति है कि दुनिया के जो  देश (राष्ट्रीय ईकाईयां) अमरीकी हितों के विरोध में हैं (जैसे ईरान), वह 'रफ स्टेट' के रूप में परिभाषित हैं।
यहां यह दोहराना बहुत ज़रूरी है कि यह वही विचारधारा है, जिसे उपनिवेशवादियों ने अपनाया था। मूसा, डब्ल्यू दुबे ने उन विचारों का बहुत उचित रूप से इस तरह से समाकलन किया है, 'आधुनिक उपनिवेशवादी (वे अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, जर्मन या डच कोई भी हों) अपने धर्म, नस्ल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति की सर्वोच्यता पर सर्वाधिक यकीन करते थे। यही सर्वोच्यता का विचार उपनिवेशवादियों को निजता (अस्तित्व) के अनुकूल दुनियां को बदलने और क्रमानुक्रम निर्धारित करने के लिए प्रेरित करता था। इस तरह की विचारधारा आधुनिकता, ईसाईयत और औद्योगिक उन्नति के विचार में केंद्रित थी। वहीं दूसरी ओर उपनिवेशों (विदेशी साम्राज्यवाद के अंतर्गत राष्ट्र, नस्ल और देश) को अतिरंजित रूप से विश्वास दिलाया गया था कि उनके अपने धर्म, नस्ल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पिछड़ी हुई'। (पोस्ट कोलोनियालिटी, फेमिनिस्ट स्पेसेज़ एंड रिलीजन, पृ. 101) मोटे तौर पर यह विभाजन 'सभ्य और बर्बर' के रूप में किया गया और आज भी किया जा रहा है। उपनिवेशकाल में साम्राज्यवादियों के हितों के प्रतिकूल उपनिवेशितों के लिए 'बर्बर' शब्द का प्रयोग किया गया था, आज आदिवासियों को प्रगति-विरोधी कह कर संबोधित किया जा रहा है या वैश्विक स्तर पर मुस्लिम धर्म को 'बुरे' के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। इस पूरे वैचारिक ताने-बाने के पीछे विद्यमान मूल विचार मनुष्य को अपनी हर एक पहचान, अपने हितों के त्याग के लिए कहता है और केवल एक इकहरी पहचान को प्रस्तावित करता है।

3.

हिन्दी साहित्य की विडंबना यह रही कि मुस्लिम समाज केबारे में उस द्वंदात्मकता का यहां लोप हो गया, जिसे रज़ा साहब ने शिखरों तक पहुंचाया था। इस मामले में 1947 और बाद में 1971 ऐसे पड़ाव रहे, जिसके बाद भारतीय व बंगाली (पूर्वी बंगाल) मुस्लिम समुदाय को स्थिर या गतिहीन मान लिया गया। संभव है कि विभाजन ने इस तरह की मानसिकता को और अधिक बढ़ावा दिया हो। लेकिन इस स्थिति का व्यवहारिक परिणाम यह हुआ कि इस समुदाय से संबंध रखने वालों ने 1947 व 1971 को तो गतिकता के स्तर पर ग्रहण किया, लेकिन इसके बाद उन्होंने संदर्भित समुदाय को स्थिर मान लिया। इस स्थिति का सबसे बढिय़ा उदाहरण काला जल शीर्षक उपन्यास है। हालांकि यह उपन्यास स्वतंत्रता आंदोलन की कुछ हलचलों को तो दर्ज करता है, लेकिन इसके बाद तो केवल सर्वोच्च नियति (मृत्यु) के इंतजार में बैठे समुदाय या समाज का ही चित्रण करता है।
लेकिन इस स्थिति में सबसे अधिक गंभीर वैचारिक, साहित्यिक सौंदर्यदृष्टि के साथ सूखा बरगद, बशारत मंज़िल और मदरसा ने हस्तक्षेप किया है। साहित्यिक परंपरा के अर्थों में रज़ा साहब के बाद अगले पड़ाव के तौर पर इन उपन्यासों के लेखक मंज़ूर एहतेशाम को मान सकते हैं। राही साहब ने अपने लिए एक वास्तविक 'पहचान' को चुना था, 'मेरे दादा आजमगढ़ के थे, लेकिन मैं गाज़ीपुर का हूं। मैं गंगौली का हूं। गंगौली मेरे अब्बा की ननिहाल है। मुमकिन है कि अब्बा की वफादारी बिजौली और गंगौली के बीच त$कसीम हो, लेकिन मेरी वफादारी तकसीम नहीं है। मैं केवल गाज़ीपुर का हूं।' (आधा गांव, पृ. 290) इस पहचान को स्वीकारने के बाद का ही पड़ाव है कि किसी लेखक पर 'आम आदमी, आम आदमी की समस्या, समाज, बहुसंख्यिकी अल्पसंख्यिकी मसले - मसाइल, दूसरी स्वतंत्रता, गरीबी-बेरोजगारी-यह सारे के सारे आपके लेखन के विषय हैं' (बशारत मंज़िल,पृ. 12,) का आरोपण हो।
असल में यहां पहचान की निश्चितता उस वजह से आती है, जो इतिहासबोध पर निर्भर है। मैं एक बार पुन: राही साहब के इतिहासबोध की ओर ले जाना चाहूंगा, 'हम औरंगजेब के ना जानी ला! छिकुरिया ने हा, बाकी हम •ाहीर मियां औरी कबीर मियां औरी फुस्सू मियां औरी अनवारूल हसनराकी के जानी ला। हम न मानब आपकी बात। और जेकर आप नाम लेत बाड़ी, ऊ साल होइ कौनों बदमास। ज़मीदार के जुलुम के हम ना कहत बाड़ी'। (आधा गांव, पृ. 173) लेकिन इसी 'पहचान' को व्यक्तिवादी स्तर पर खोजने का प्रयास किया जाए तो उसके बिल्कुल उलट नतीज़े मिलते हैं, 'यह कि अपनी सारी बातें बेवकूफियों से भरी लगती हैं। कैसी-कैसी उठापटक नहीं मचाई, क्या-क्या बचपना नहीं किया? आज सोचने पर हंसी आती है... हुंह देश का उद्धार करने चले थे...'। (काला जल, पृ. 309) इस बोध के बाद विकल्प भी वैसा ही है जो वर्तमान समस्या से घबराकर काल्पनिक दुनिया को पाने के लिए होता है, यानि 'पाकिस्तान'। लेकिन आज यही काल्पनिक दुनिया दुनिया के सबसे संकटग्रस्त समाज के रूप में मौजूद है। 'हमारे लोग पूरी तरह अपने आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन का सर्वोत्तम विकास कर सकें और उनका जीवन जिसे हम सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और जो हमारे आदर्शों और जन जीवन की प्रतिभा के समरूप है,उसके अनुरूप हो'। (जिन्ना, वही) लेकिन इस वायदे की परिणति इस रूप में है,जहां के नागरिकों को अपने राष्ट्र-राज्य के साथ वैश्विक स्तर पर स्वयं को 'अच्छे' और 'बुरे' के रूप में प्रमाणित करना पड़ रहा है, अंतर-धार्मिक संघर्षों से पूरा देश परेशान है, आधा दिन सैन्य तानाशाही है, तो आधा दिन कठपुतली शासक! ये स्थितियां और कुछ नहीं बल्कि विभाजन की अतार्किकता दिखलाती हैं। हालांकि इन संदर्भों में भारत की स्थिति बहुत वरीय नहीं कही जा सकती है, लेकिन यहां द्वि-राष्ट्रवादी कट्टर पहचानों के खिलाफ एक मज़बूत सांस्कृतिक परंपरा है। यहां मैं उस परंपरा का जिक्र कर रहा हूं, जिसे कट्टरपंथी चाहकर भी नहीं तोड़ पाए हैं!
बशारत मंज़िल (2004) सही मायनों में उन ऐतिहासिक आधारों की खोज है, जिस पर हमारे वर्तमान की सभी नहीं, तो बहुत सारी प्रत्यक्ष समस्याओं की नींव रखी हुई हैं। इसके अलावा इतिहास के 'प्रमाणित' किए जा चुके स्याह-सफेद पात्रों, घटनाओं का आकलन है, जो अपनी द्वंदात्मक स्थिति में मौजूद थे। बशारत मंजिल 1857 के गदर के बाद के उस राजनीतिक आंदोलन से उन तीन या चार पीढिय़ों के वैचारिक आरोह-अवरोह की पहचान करता है, जो अंत में एक-दूसरे के पूरक साबित होते हैं। हालांकि ममदानी ने ऐतिहासिक स्तर पर इसके कारणों को जांचने की कोशिश की है।
भारतीय अनुभव इस तथ्य को सामने लाता है कि जिन्होंने राष्ट्रवादी राजनीति की वकालत की वे हमेशा प्रगतिशील भूमिका में नहीं थे, वहीं जिन्होंने धार्मिक-राजनीतिक राष्ट्रवाद की वकालत की, वे भी पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी नहीं थे। इन दोनों के बीच लोकतंत्र और सर्वसत्तावादी (धार्मिक व राजनीतिक) की विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। मुस्लिमों के राजनीतिक अधिकार के पक्षधर शायर मोहम्मद इकबाल और राजनीतिज्ञ मोहम्मद अली जिन्ना अपने संपूर्ण बोध में गैर-सांप्रदायिक (सेकुलर के लिए धर्म-निरपेक्ष शब्द पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है -लेखक) थे। ये दोनों ही उन कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों में से थे, जिन्होंने तुर्की में आटोमन खिलाफत के उन्मूलन से प्रेरणा पाई थी, जहां राज्य और धर्म के बीच संबंध समाप्त कर दिया गया था। उन्होंने आधुनिकीकरण और लोकतांत्रिकरण के लिए इत्तेहाद (विधिक व्याख्या) की संस्था की मांग की थी: उनका तर्क था कि कानून की व्याख्या मुस्लिम समुदाय की चुनी हुई ईकाई उम्मा द्वारा की जानी चाहिए न कि उलेमाओं द्वारा। पाकिस्तान का एक गैर सांप्रदायिक संविधान होना चाहिए और राज्य और धर्म के बीच विभाजन के साथ अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। (पूर्वोक्त,पृ. 48)

अपने विवरण में सही होने के बावजूद ममदानी कम से कम भारतीय संदर्भ में 'राजनीतिक इस्लाम' के आरंभिक बिंदु को चिन्हित कर पाने में असफल हैं। क्योंकि इसके लिए सबसे पहले गदर के राजनीतिक चरित्र व राजनीतिक आकांक्षाओं के विश्लेषण की ज़रूरत है और उसके बाद वलीउल्लाही तहरीक को समझने की। और सही मायने में वलीउल्लाही तहरीक गदर को सबसे उद्दात रूप में परिभाषित करती है। यह तहरीक शाह वली उल्लाह (1703-1762)के द्वारा प्रस्तावित सिद्धांतों के राजनीतिक कार्यक्रम को सामने लाती है। वली उल्लाह के हिसाब से 'दुनिया में इस्लाम क्रांति के जरिए लाया जाना चाहिए था और उसे दो चीज़ों के जरिए लाया जा सकता था: (1) कुरान में दी गई शिक्षा का पालन करके, (2) दुनिया में आर्थिक संतुलन और इंसान-इंसान की बराबरी कायम करके'। (बशारत मंज़िल, पृ.30) इसके आगे, 'शाह साहब के निकट कुरान की क्रांतिकारी तालीम तब तक पूरी नहीं हो सकती है जब तक व्यक्ति पैगंबर मुहम्मद साहब और सामाजिक हालात को अपने जीवन के लिए उदाहरण न बनाए'।(पूर्वोक्त, पृ.31)
बशारत मंज़िल इतिहास के जिस बिंदु से अपनी कहानी की शुरूआत करती है, वह बिंदु भारतीय बौद्धिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया है। इस बिंदु पर मुख्य सवाल यह है कि वलीउल्लाह के लिए कौन सी राजनीतिक कोटि का इस्तेमाल किया जाए। कम से कम तीसरी दुनिया के देशों के लिए सार्वभौम रूप से पश्चिमी मेधा इस तथ्य को स्वीकार करती है कि उपनिवेशपूर्व स्थिति में ये देश मध्ययुगीन अंधकार युग (डार्क एज) से ग्रस्त थे। लेकिन श्वेत वरीयता या 'पश्चिमी' वरीयता नस्लवादी सिद्धांत की ही उपज है। क्योंकि आधुनिकता का सर्वोच्च मूल्य 'तर्क' इन संदर्भित समाजों में अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक गतिकी में जन्म ले रहा था। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में जो समय भक्ति काल कहा जाता है, उसके विश्लेषण के बाद डॉ. रामविलास शर्मा का निष्कर्ष है, 'यह आधुनिक युग की शुरूआत है। मध्यकालीनता एक हद तक बनी हुई है'। (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-1, पृ. 102) शाह वलीउल्लाह इन मायनों में भारतीय आधुनिकता की एक कड़ी साबित होते हैं, क्योंकि मध्यकाल में (भक्ति साहित्य इस मामले में विशिष्ट मध्यकालीन मन:स्थिति का प्रतिबिंब है) धर्म के आवरण या वैचारिक प्रभुता के कारण ईश्वर के समक्ष मनुष्य-मनुष्य की एकता स्वीकार की जाती है, लेकिन यह 'तार्किकता' या आधुनिकता की देन है कि मनुष्य की समानता के सामाजिक मानकों धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर निर्धारित की जाए।
जाहिर तौर पर यहां कहने में कोई संकोच नहीं कि भक्ति साहित्य से डॉ. शर्मा आधुनिकता के आरंभ को जो दावा करते हैं, वह वलीउल्लाह के रूप में अपने अगले पड़ाव को प्राप्त करता है। जाहिर तौर पर यह विशुद्ध रूप से स्वाभाविक भारतीय गतिकी है, जिसमें उपनिवेशवादियों का कृत्रिम हस्तक्षेप न होता, तो एक भिन्न शक्ल अख्तियार करती। लेकिन इतिहास का मूल्यांकन 'होता' के आधार पर नहीं होता है। लेकिन इसके बावजूद बशारत मंज़िल इतिहास के उस बिंदु को सामने लाती है, जो उपनिवेश के तर्क के साथ पश्चिम की वरीयता के मूल्यों को चुनौती देता है और जिस पर इतिहासकारों की भी नज़रें लगभग नहीं गईं।
इस पूरी बहस के मौकिफ को देखकर यह नतीज़ा नहीं निकालना चाहिए कि एक साहित्यिक से जबरदस्ती राजनीतिक अपेक्षाएं की जा रही हैं। इसके बजाए यहां इस बात को रेखांकित किया जा रहा है कि इतिहास की समग्रता किस तरह मनुष्य जीवन के सांस्कृतिक पाठों को प्रभावित करती है। शायद विश्व इतिहास में कुछ ही कृतियां होंगी, जहां लेखक स्वयं अपने लिखे पाठ का हिस्सा हो और उसकी गतिकी में अपनी 'पहचान' कायम करता हो। 'यह मैं खुद बोल रहा हूं... जो न तो बन्दा अली हो सकता है, न ही संजीदा सोज। हम एक दूसरे ज़माने में जी रहे हैं। मैं आज की नज़र से बीते ज़माने को समझने की कोशिश कर रहा हूं। इसमें इतिहास और बीते ज़माने के हवाले हैं।'
वली उल्लाही तहरीक ने राजनीतिक आंदोलन के लिए जो सबसे बड़ा मूल्य दिया, वह यह कि 'मानवीय मूल्य सामाजिक स्थिति के सापेक्ष' होते हैं। संजीदा अली और बन्दा अली के रूप में स्वतंत्रता पूर्व भारतीय समाज में मौजूद इन्हीं जीवन दृष्टियों को देखा जा सकता है। लेकिन बशारत मंज़िल इन मायनों में आधा गांव की परंपरा का विस्तार है कि जहां रज़ा साहब ने इन प्रवृत्तियों को ग्रामीण जीवन के आधार पर समझने का प्रयास किया था, वहीं मंजूर साहब ने उस वर्ग/समुदाय को अपने उपन्यास के लिए चुना है, जिसका नीति-निर्माण या ठीक से कहें तो जिस पर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीतिक निर्णय लेने की जिम्मेदारी थी। इसके बावजूद कट्टरपंथी विचारों (बन्दा अली) के साथ जुड़े सामंती मूल्यों को उन्होंने अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने दिया है।
इस तरीके के रूपक के साथ सलमान रूश्दी ने भी उपन्यास लिखा है। लेकिन मिडनाइट चिल्ड्रेन की यह सबसे बड़ी सीमा है कि वह भारत और पाकिस्तान के 'विचारों' को ऐतिहासिक बोध या परंपरा में निर्धारित नहीं करता है, बल्कि उसे बिल्कुल 'आधुनिक' परिघटना मान लेते हैं। इसी कारण रूपक केवल रूपक के ही स्तर पर रह जाते हैं, लेकिन किसी विचार में नहीं तब्दील हो पाते हैं। यही कारण है कि खद्दर (संजीदा अली की बेटी) से लेकर बिल्लो और बिब्बो जैसे किरदार का रूपक रूश्दी नहीं सृजित कर पाए।
औपन्यासिक/साहित्यिक स्तर पर मंज़ूर साहब की चिंता यदि ठीक से कहें तो संजीदा अली नहीं है, बल्कि वह बशारत मंजिल है, जिसमें बिल्लो और बिब्बो रहतीं हैं। यह बशारत मंज़िल आधा गांव के विपरीत पूरे गांव यानि वर्तमान हिंदुस्तान का रूपक, प्रतीक है, जहां बिब्बो और बिल्लो के रूप में हिंदू और मुसलमान रहते हैं। ये दोनों ही समुदाय हिंदुस्तान में बिल्कुल उसी तरह से रहते हैं, जैसे बशारत मंजिल में बिब्बो और बिल्लो, 'वे दोनों आपस में दोस्त-दुश्मन थीं। नाराज़ होती तो गाली-गलौज से लेकर हाथापाई तक की नौबत आ जाती और मेहरबान होतीं तो मिलकर या करतीं कि दुनिया ने उन पर क्या-क्या सितम ढाए: दामन फैलाकर उनको भी कोसती जो दुनिया नहीं थे।' (बशारत मंजिल, पृ.246) लेकिन इन दोनों ही समुदाय को वह वर्ग इस्तेमाल कर रहा है, जिसका रिश्ता केवल लाभ व सत्ता से है, जो अपने हितों की अनदेखी कर कभी भी इन समुदायों (वर्ग नहीं) से सच्चा, आत्मीय रिश्ता नहीं कायम कर सकता है, 'सरफराज का बशारत मंज़िल से संबंध अंत तक रहा था। जिस तरह से हो सका वह बिल्लो और बिब्बो की मदद करते रहे... शादी भी करते तो केवल एक बहन से, जो बिल्लो-बिब्बो के आपसी रिश्तों की वजह से संभव नहीं था। सो वह दोनों बहनों को अपनी रखैलों की तरह इस्तेमाल करते रहे।' (पूर्वोक्त)
और शायद इससे बेहतर तरीके से हिन्दू-मुसलमान समुदाय के सापेक्ष सत्ता के चरित्र को नहीं बताया जा सकता है।
लेकिन एक लेखक के तौर पर मंज़ूर साहब के सरोकार यहीं नहीं खत्म होते हैं। यदि उनके ही मुहावरे का इस्तेमाल करें, तो उनका सरोकार वह स्वयं हैं, बिल्लो-बिब्बो के मालिकाना हक वाले 'बशारत मंजिल' से भिन्न वह व्यक्ति जो बताशों वाली गली के चक्कर लगाकर अपने अतीत को देख सकता है, लेकिन उस अतीत के लिए वर्तमान की बलि नहीं दे सकता है।
4.

यह संदर्भित लेखक उन मूल्यों और विचारों की तलाश करना चाहता है, जो वर्तमान समय के अनुकूल हो और इससे भी बड़ी बात कि अतीत के सबक को कभी नज़रअंदाज़ न किया जाए। मदरसा इस मामले में अनोखी कृति है। हिन्दू मुस्लिम संबंधों में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तात्विक रूप से यह परिवर्तन हुआ कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के रूप में तथाकथित शत्रु (या मित्र) पूरे परिदृश्य से गायब हो गया। अब तार्किक चिंतन पद्धति वालों के लिए यह कहने का मौका न रहा कि 'संप्रदायवाद के प्रसार में अंग्रेजों का भी हाथ था। उन्होंने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व, सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों और साम्राज्यी हित में प्रांतों का पुनर्गठन आदि तरीकों से अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए राजनीतिक संतुलन की नीति अपनाई थी। इससे भी देश में संप्रदायवाद बढ़ा और स्वतंत्रता के लिए जनता के राष्ट्रीय आंदोलन का विकास अवरुद्ध हुआ।' (के.वी.कृष्ण, द प्राब्लमस ऑव माइनरिटीस, 1939, पृ.8)
हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इन दोनों ही समुदायों के संबंध बाह्य शक्तियों, हितों का हस्तक्षेप नहीं है। इस विषय में हम इस निबंध के पहले हिस्से में इशारा कर आए हैं। वैश्विक संदर्भ में ममदानी ने इस बदलाव को रेखांकित किया है, 'राजनीतिक इस्लाम को उपनिवेशवाद से उत्तर-उपनिवेशीवादी संक्रमण के संदर्भ में ही ठीक से समझा जा सकता है'।(वही, पृ. 48) ममदानी उत्तर-उपनिवेशवादी हितों को ज्यादा तब्बजो नहीं देते हैं, जिसे प्रो. रणधीर सिंह ने चिंन्हित किया है, '1992 के इराक युद्ध... के बाद अफगानिस्तान और इराक का युद्ध कई मामलों में महत्वपूर्ण है। इन युद्धों ने खनिज तेल से भरपूर मध्यपूर्व में संयुक्त राज्य अमरीका के प्रभुत्व को पुष्ट-सुनिश्चित किया। यहीं के तेल से पश्चिम की उच्छृंखल उपभोक्तावादी हितों की पूर्ति होती है। बिल्कुल इसी तरह से अफगानिस्तान से हुए हालिया युद्ध ने तेल संसाधन से भरपूर दुनिया के एक अन्य हिस्से पर भी सैन्य और राजनीतिक प्रभुत्व सुनिश्चित हुआ...। (वैचारिक रूप से इन) युद्धों के पीछे जो बहाना चुना गया, वह चोमोस्की के शब्दों में 'आतंकवादी राज्य' और 'आतंकवादी राज्य के विरूद्ध युद्ध' का है'। (इकोलॉजिकल क्राइसिस, पृ. 90)
वैश्विर स्तर पर मुस्लिम समुदाय/राज्यों के सामने मौजूद संकट को पूंजीवाद के चरित्र को जाने बिना नहीं समझा जा सकता है। यहां भारतीय संदर्भ में बाबरी विध्वंस के बाद भी बिल्कुल इसी तरह की स्थिति देख सकते हैं। जहां एक खास समुदाय को राष्ट्र-राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर 'लोकतांत्रिक सत्ता' हिंसा करने के असीमित अधिकारों को प्राप्त करके इस सर्वसत्तावादी सत्ता का प्रयोग पूंजीवादी हितों के लिए कर रही है। इस मामले में अल्पसंख्यकों से लेकर हाशिए के बाहर के समुदायों जैसे आदिवासियों के प्रति शासक-सत्ताओं के दृष्टिकोण का उदाहरण दिया जा सकता है।
मदरसा प्रत्यक्षत: तो इन स्थितियों को तो नहीं संदर्भित करता है, लेकिन पात्रों की मानसिकता के स्तर पर ज़रूर एक बड़े विमर्श को अपनी रचना के दायरे में ले आता है।
साबिर इस उपन्यास में एक नौजवान के रूप में उपस्थित है, जो अपने बचपन की विभिन्न विडंबनाओं के बावजूद तार्किक मूल्यों के आधार पर 'स्वस्थ नागरिक जीवन' जीने की अपेक्षा रखता है। जाति, धर्म, संप्रदाय व सामुदायिकता को लेकर उसके मूल्य निर्णय अपेक्षाकृत तार्किक हैं। धर्म उसके लिए सामुदायिक मूल्य होने के बजाए (सामाजिक स्थितियों के सापेक्ष) व्यक्तिगत मूल्य है। यह वह लोकतांत्रिक मूल्य है, जो आधुनिक राष्ट्र-राज्य का आधार माना जाता है। साबिर की 'समस्या' यह है कि 'वह चाहता था, पिंकी-पिंकी रहे और साबिर-साबिर, और दोनों पति-पत्नी भी बन जाए।'(मदरसा, पृ. 98) 'पिंकी जो धर्म परिवर्तन करने के बाद मरियम हो चुकी थी, देखते-देखते उसका बुनियादी रिश्ता अजीब ढंग से पेचीदा हो गया था। उस पेचीदगी को पूरी तरह उस पल वह समझ भी नहीं पाया था... वास्तव में, वह अब दो व्यक्तियों की बजाए दो समुदायों का मामला हो गया था'। (पूर्वोक्त, पृ. 99)
असल में पिंकी का मरियम में बदलना उस सामाजिक व्यवस्था को प्रतीकित करता है, जहां किसी भी तरह के नागरिक अधिकारों की प्रतिश्रुति का कारण व्यक्ति नहीं, बल्कि संप्रदाय है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसे उपनिवेश दौर की ब्रितानी नीति के प्रसार के तौर पर भी देख सकते हैं। जिसकी नीति मुहावरे में कहें तो 'बाँटो और राज करो' की है, हाँलाकि यह मुहावरा बहुत अधिक प्रचलित-प्रयुक्त हुआ है, लेकिन इसने अपने अर्थ नहीं खोए हैं।
यह मंज़ूर साहब के लेखन की (रज़ा साहब की तरह) विशेषता है कि वह समाज संचालक अवयवों को शुष्क राजनीतिक विमर्श या सद्इच्छाओं (हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई से लेकर 'धर्म निरपेक्षता' के नारे की कीमियागिरी तक) के आधारों पर नहीं परखते हैं- बल्कि वह इनकी जांच सामान्य मनुष्य के जीवन और उसके दैन्नदिन के जीवन के दर्शन के आधार पर करते हैं। मदरसा में 'घटनाओं की काल-अवधि अप्रैल, 1987 तक है'। पूर्वोक्त, पृ. 7) सोवियत विघटन और खास तौर से बाबरी विध्वंस की पृष्ठभूमि के तौर पर मदरसा एक सांस्कृतिक पाठ उपलब्ध कराता है।
साबिर की यह कोशिश है कि वह एक मदरसा (स्कूल) कायम करे, लेकिन नए समाज सापेक्ष मूल्यों का। लेकिन यह बदलाव सामाजिक स्तर पर किसी को मंजूर नहीं है, यह आरोपण समाज की ओर से भी है और सत्ता वर्ग की ओर से भी कि हर एक समुदाय अपने अतीतजीवी मूल्यों से चिपका रहे और जिससे समाज के नियंता अपने सुविधानुसार 'अच्छे' और 'बुरे' की श्रेणियां बनाते रहें। यदि इस यथार्थ को ठीक से न समझा जाए तो वही विकल्प शेष रहता है, जो साबिर का है यानि 'अ$फलातून की तर्ज़ पर मैं भी एक 'एकेडमी' शुरू करना चाहता हूं। तुम मेरे सुकरात बनने को राज़ी हो?'(पूर्वाक्त, पृ. 222) तात्पर्य यह कि एक सामान्य नागरिक के रुप में साबिर इन प्रश्नों से मुब्तला है।
आज पश्चिम का झूठा घमंड है कि उपस्थित अंतर्राष्ट्रीय सभ्यता किसी जाति-विशेष की जागीर है।

जड़ों की ओर लौटने का नारा विनाशकारी, संकुचित सोच और पुरानी आपस की दुश्मनियों द्वारा पैदा किया गया है।
यह सभ्यता या धर्म नहीं, उनके नाम पर राजनीति है।
मुसलमान, हिन्दू, अफ्रीका के अनेक देश-सब इसके नारे लगा रहे हैं!
शाहबानो के, इंसान के समझ में आसानी से आने वाले मसले को, आसमानी ताकतों के आदेश के साथ फेंटकर, यह किसके साथ कौन दुश्मनी पर उतारू है?
अयोध्या में, राम के गरमाते मामले में बाबर किस हद तक दोषी है?(पूर्वोक्त, पृ. 293)

5.

वर्तमान समय में आधा गांव, बशारत मंज़िल और मदरसा किस तरह से अपनी मूल्यवत्ता प्रमाणित कर रहे हैं, पूर्वोक्त विवरणों और संदर्भो से रेखांकित किया जा चुका है। लेकिन इन कृतियों के बहाने बहस का एक अन्य पक्ष साहित्य मूल्यांकन की प्रविधि के आधार पर है, जिसे संदर्भित करना बहुत ज़रूरी है। हालांकि यह कोई ऐसा पक्ष नहीं है, जो पूर्वोक्त से पूरी तरह विच्छिन्न हो।
उर्दू के एक वरिष्ठ आलोचक शमीम हनफी ने एक भिन्न उपन्यास की समीक्षा के साथ राही साहब के बारे में राय व्यक्त की है, 'मैं राही के उपन्यासों को निहायत ही औसत दर्जे का समझता हूं। 'आधा गांव' हो या 'टोपी शुक्ला', उनके नॉवेल औसत से भी निचले दर्जे के हैं। अगर वो हिन्दी के बजाए उर्दू में लिखे जाते तो उन्हें कोई अहमियत न मिलती। उनके मुकाबले में शानी का 'काला जल' बहुत बेहतर लगता है'। (शुक्रवार, अक्टूबर 11,2013, पृ. 60) इसके आगे उन्होंने जिस कृति की समीक्षा की है, उसकी विशेषताओं को दर्ज किया है, 'कुल मिलाकर एक इनसाइडर व्यू सामने आता है'। (पूर्वोक्त) अब यदि आलोचक ने आधा गांव नहीं पढ़ा है, तो बहस की कोई गुंजाइश नहीं, वरना हिन्दी या उर्दू क्या, पूरे भारतीय साहित्य के संदर्भ में 'इनसाइडर व्यू' का मूल्य आधा गांव में सबसे पहले आया है। 'यह मेरा शहर है। मैं जब भी अपने शहर की गलियों से गुजरता हूं, यह मेरे कंधे पर हाथ रख देता है... इसकी संपूर्ण वास्तविकता अब तक मेरे काबू में नहीं आ पाई है, इसलिए मैं इसे फिर से देखना चाहता हूं'। (आधा गांव, पृ. 11) अब यह हकीकत आसानी से समझ में आएगी कि राही साहब केवल 'इनसाइडर व्यू' ही नहीं व्यक्त कर रहे थे, बल्कि इससे भी बड़ी बात कि वह अपने इस 'व्यू' की तार्किकता भी तलाश कर रहे थे। वैसे भी 'इनसाइडर व्यू' अपने आपमें साहित्य में ही स्वतंत्र मूल्य नहीं होता है, यह विशिष्टतामापक तभी होता है, जब यह अपने आपमें यथार्थ को शामिल किए हो।
इसके अलावा शमीम हनफी ने अपनी समीक्षित कृति में एक दूसरे मूल्य को भी प्रस्तावित किया है, वह है 'सोशलॉजिकल मसला'। एक बार पुन: कहना पड़ता है कि आधा गांव अभी भी इस मामले में मानक कृति है, जहां सामाजिक संबंधों को किसी सतही या वायवीय आधार पर नहीं, वरन् ऐतिहासिक आधार पर दर्ज किया गया है। शायद ऐसी कोई अन्य कृति नहीं, जो स्वतंत्रता के दौरान मुस्लिम समाज के सामाजिक संबंधों को बदलती सामाजिक व्यवस्था यानि सामंतवाद से पूंजीवादी संक्रमण के आधार पर चिंन्हित करे।
इसी तरह से एक अन्य आलोचक ने इसी संदर्भित पुस्तक के संदर्भ में अपनी एक 'नई' राय कायम की है। धनंजय वर्मा का कहना है, 'अपने संपूर्ण यथार्थवादी संस्कार और चेतना के बावजूद 'काला जल' हो या 'सूखा बरगद'- दोनों किसी विजन से महरूम हैं; जबकि 'मिर्जावाड़ी' में एक बेहतर विकल्प की संकल्पधर्मा चेतना और विकास का एक सकारात्मक मॉडल है, इसलिए वह इन दोनों से आगे की रचनात्मकता से स्पंदित है।' (समावर्तन, फरवरी, 2013, पृ.62)
यानि यहां प्रस्ताव यह है कि वे कृतियां ज्यादा महत्वपूर्ण और साहित्यिकता की दृष्टि से मूल्यवान हैं, जहां लेखक विकल्प प्रस्तावित करता है। मुक्तिबोध के शब्द 'संकल्पधर्मा चेतना' का इस्तेमाल करके सामने आया इस तरह का प्रस्ताव किंचित विस्मित ही करता है। विश्व साहित्य की महानतम् कृतियों में शामिल कोई भी कृति किसी भी तरह के विकल्प का प्रस्ताव नहीं करती। सेवासदन की मूल्यवत्ता गोदान से कम करके ही आंकी जाती है। अन्ना कैरेनीना आज भी समाज के लिए सबसे बड़ा 'समस्यात्मक' उपन्यास है! और यह सब छोड़े तो स्वयं मुक्तिबोध, जिनके शब्द का आलोचक ने इस्तेमाल किया है,की कोई भी कृति (रचना)किसीभी विकल्प को नहीं प्रस्तावित करती है! हां,एक यूटोपियाई स्वप्न का ज़रूर सृजन करती है। विकल्प और विकास का सकारात्मक मॉडल ये दोनों ही ऐसी चीज़ें हैं, जो बुर्जुआ बौद्धिक दायरे की दुरभिसंधियों का सबसे पैना और मज़बूत हथियार रहा है। स्वयं एंगेल्स ने (हालांकि भिन्न संदर्भ में) 'विकास' या 'विकल्प' के बुर्जआजी                                                                                          आयामों के प्रति सचेत किया है। बुर्जुआजी हमेशा किसी भी 'विजय' (आप इसे 'विकल्प' पढ़ें) के पहले परिणाम यानि तात्कालिक परिणाम को ही आकलित करती है, लेकिन इस प्रभाव से भिन्न व्यक्ति इस तरह की किसी भी विजय या विकल्प के दूसरे,तीसरे परिणामों के विषय में भी आकलन करता है। एंगेल्स के शब्दों में, 'हमें प्रकृति के ऊपर मनुष्य की विजय को लेकर बहुत अधिक उत्साहित या खुशफहमी का शिकार होने की ज़रूरत नहीं है। इस तरह की हर एक विजय हमसे बदला लेती है। यह सत्य है कि इनमें से हर एक सबसे पहले वह परिणाम लाती है, जिसका हम आकलन या गणना कर पाते हैं, लेकिन द्वितीयक व तृतीयक स्तर पर यह बिल्कुल भिन्न और अप्रत्याशित होते हैं, जो प्राय: पहले स्तर के परिणाम को खारिज कर देते हैं।' सीधे शब्दों में इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी लौकिक विकल्प का प्रस्ताव मुक्ति के सर्वोच्च आयाम को स्वयं में नहीं समाहित कर सकता है, यह जनता और उसके संघर्षो की सामाजिकता को निर्धारित करना होता है कि 'विकल्प' क्या होगा। पेरिस कम्यून के लिए कार्ल मार्क्स और एंगेल्स दोनों के मन-मस्तिष्क में बहुत सम्मान था, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे विकल्प के रूप में नहीं प्रस्तावित किया था, क्योंकि विकल्प अग्रिम वक्त में मौजूद युवाओं की समझदारी पर निर्भर करता है।
यहां बहस के लिए अधिक अवकाश तो नहीं है, लेकिन इस मुद्दे को स्पष्ट करना बहुत ज़रूरी है। इस दुनिया में वैकल्पिक व्यवस्था के आदि प्रस्तावक प्रोमेथियस स्वरूप कार्ल माक्र्स ने समाजवाद के विषय में कोई रूपरेखा नहीं प्रस्तुत की। क्योंकि इसके लिए कुछ और नहीं बल्कि नज़ूमी होने की जरूरत होती है। भौतिकवाद नज़ूमियों पर नहीं, बल्कि भौतिक शक्तियों पर यकीन करता है। इसलिए कार्ल माक्र्स 'स्वप्नदृष्टा' कहे जाते हैं,न कि 'विकल्प प्रस्तावक'।
तात्पर्य यह कि बुर्जुआजी में विकल्प केवल धर्माचार्य या मौलवी या कोई पादरी ही प्रस्तावित कर सकता है, और यदि सच्चे साहित्यकार से सामना करना है, तो 'विकल्प' बुर्जुआजी मिथक को नष्ट करना ही होगा। हां, इस मामले में वेदप्रकाश शर्मा जैसे 'साहित्यकार' या नज़ूमी अपवाद हो सकते हैं।
इस पूरी संबद्ध-अंसबद्ध बहस के बाद यह पहचानने में बहुत आसानी होगी कि तथाकथित प्रगतिशील मुखौटा किस प्रकार अपनी परंपरा के मूल्यांकन में अवरोध उत्पन्न करता है। साथ ही सचेत किस्म के विचारकों के विचारों में भी समकालीन मुहावरों का ज़हर घोलने में कामयाब होता है। इतिहास में वर्तमान (समकालीन) को 'युवा' के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन प्रिंस कोप्राट्किन को याद करें, तो पाएंगे कि यह मात्र एक भ्रम है।
लेकिन इसके साथ सच यह भी है कि वर्तमान की क्रूरताओं का सबसे गंभीर प्रभाव 'युवाओं' पर ही पड़ता है। और यदि इन मायनों में अपने चिंतन को हम दिशा देने का प्रयत्न करें, तो निश्चित तौर पर राही मासूम रज़ा और मंज़ूर एहतेशाम हमें हमारे सांस्कृतिक नायक के रूप में नज़र आएंगे, जो कोई विकल्प नहीं प्रस्तावित करते हैं, लेकिन सच्चे सवालों को स्थगित करने के बजाए उनसे हमारी मुठभेड़ कराते हैं, और द्वंदात्मकता का मूल्य प्रस्तावित करते हैं, जो 'समकाल' में सबसे मूल्यवान  है।



पहल के परिचित युवा स्कॉलर और लेखक। इन दिनों केरल में अध्यापन कर रहे हैं। ग्रंथ शिल्पी के लिये भी निरंतर काम कर रहे हैं।


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