रात की पूछापेखी के बाद नीले घोड़े पर सवार रोज मेरा द्वार खटखटाता है भोर का तारा
गांव के निकट बहती नदी अब गंदा-सा नाला बन गई है और सोचने की बेड़ी से मुक्त हो गई है नदी के पत्थर शहर के भवनों की नीवें मजबूत कर रहें हैं उधर गांव में बहुत से अंधेरे कोने हैं बाकी जहां रोशनी की चिट्ठी अभी नहीं पहुँच पाई है इस बीच भी पूरब में बादलों की लुका-छिपी के बीच हीरे जैसा गर्वीला नीलम जैसा सजीला मां की बनाई रोटी जैसा दिखता है भोर का तारा
वह बहुरंगी मनकों की कंठी वाली बूढ़ी औरत सुरंग को कुछ और मीटर गहरा करके आए पुरखू के साथी श्रमिकों से कहती है— आओ हम इस टूटे हुए ट्रक की ताकत का गुणगान करें और अपने घावों को सहलाऐं देश की रातें सुरक्षित और उजली करने के लिए किसी घर में अंधेरा होता है तो होने दो लालटेन की दिप्-दिप् रोशनी में यादों की प्रविष्टियों की परछाई का पीछा करते-करते नींद को थका नहीं पाती जब वह बूढ़ी औरत तो दिलास का अवतार बनकर आता है भोर का तारा
छ: कोस दूर दरंग और नमक के बोझे ढोती पीठ से पसीने ने कभी क्षमा नहीं मांगी ठठरी हुई पीठ ने चरवाहे सेबरतन चश्मे से पानी मांगा निपुण भिखारी की तरह उसकी चिन्ताओं में घर की निकटता जगाती रही आस की लौ जैसे सूखी और खुरदरी ज़मीन पर पानी की कुछ बूंदे इकट्ठा हो जाऐं और मछलियां उसमें रहने के लिए आ जाऐं तोहफे में मिली मशाल जब इतिहास के पोथे-पतरे में समा जाती एक नई मशाल बन कर जाता भोर का तारा
शरद की रात सो गया जब समूचा जंगल पहरेदारी करता खड़ा था एक नौजवान पेड़ एक दिन उसने लकड़हारे से कहा — जंगल मुझसे है गलत-लकड़हारा बोला - चूहे चिंदी के कारोबार में सदियों पहले मरे हुए ध्वनिहीन द्वन्द्वों की परछाईयां है सब दोनों ने अपनी-अपनी बात की पुरज़ोर अगवानी की कोई हल न मिल पा रहा था उनको परन्तु लकड़हारे की कुरती के फटे अस्तर से नज़र आता रहा भोर का तारा
मैंने देखा मेले में गांव के देवता के अवतरण की मंगल ध्वनि अबाबीलों के शोर में दब रही थी बहुत-सी चूसनियों द्वारा चूसे हुऐ किसान के पुतले की व्यापारियों में बहुत मांग थी नाक पीसने और पोपट होने की प्रवीणता में सिरचढ़े मुंहलगे शब्दों के दंगल हो रहे थे इस बीच एक नन्हा बालक खिलौनों की दुकान पर आश्चर्यचकित देख रहा था हैरानी भरे थैले में झूलता हुआ भोर का तारा
फूलबानो के कूबड़पन...
फूलबानो के कूबड़पन और बकसाड़ी की चढ़ाई के बारे में कविता करना उतना ही मुश्किल है जितना लहरदार पानी में अपने चेहरे की बारीकियों को देखना
गंध फूल में होती है कि जड़ में और चांदनी की झूलती टहनियों के बारे में दरपन को अंतिम चिट्ठी लिखना उतना ही मुश्किल है जितना बस्ती की नींदों की गरमाहट में से एक ठण्डी और ताजा पगडंडी को ढूंढना
जंगल में पेड़ कटने और कुल्हाड़ी के उंघते हुए किस्सों के बारे में हरी पतियों से बात करना उतना ही दिलचस्प है जितना घड़ी की सुइयों से कहना जल्दी करो वरना शाम ढल जाएगी
बूढ़े गड़रिये के मोरपंखी सपने और मेमने की धमाचौकड़ी के बारे में ज़िद्दी गिद्धों से उनकी चाल पूछना उतना ही बेमानी है जितना खिड़की पर रखी प्याली में झांक कर बताना कि खोये हुऐ इतिहासों का चेहरा कैसा है।
ब्यास में बहकर आते काठ-कबाड़ और पहाड़ पर बादल फटने के बारे में सूर्यास्त देखती आंखों से पूछ कर बताना उतना ही असंगत है जितना साथ चलते उस आदमी की पहचान बताना जो आपको नमस्कार कहे और भीड़ में गुम हो जाए
गला काटने की प्रतियोगिता और सड़क पर खुलते द्वार के बारे में बंद गलियों से बतियाना उतना ही निष्फल है जितना हवा से पूछकर बताना कि वे पन्नों पर लिखे हुए नाम उड़ कर किधर गिरे हैं
बंडल होते सेब के किरमिज़ीपन और आश्विन की लम्बी होती रातों के बारे में खिड़की से लटकती चंद्रमा की टिकड़ी से बात करना उतना ही निरर्थक है जितना सूखे खेतों से पूछना अब की बार बरसात कैसी रहेगी
अढ़ाई मन लोहे की हेरन और उस पर पड़ती हथौड़े की चोट के बारे में लोहार की फूंकनी से बात करना उतना ही अर्थहीन है जितना डाक्टर के चाकू से पूछ कर बताना कि लहू और आंख के पानी में से कौन अधिक खारा है
गर्क होते शब्दों की चतुर निगाहों और पृथ्वी की अंतिम कविता के बारे में शब्दकोष की कालोनियों को खंगालना उतना ही संवेदनहीन होगा जितना लालटेन की रोशनी में तैरती परछाई से पूछना - तुम्हारे पैर किस जगह पर टिके हैं।
प्रकाश-सीमाओं से चल कर आया आदमी
प्रकाश-सीमाओं से चलकर आया आदमी आशीर्वादी मुद्रा बनाए कल जब इतिहास लिख रहा होगा आराम कुर्सी पर चित्त पड़ी आपसदारी ज़रूरत अखबार की सुर्खियाँ गुनगुना रही होगी
धुर माथे पर बजती गर्म हवा की दनदनाहट की तफतीश में गुड़ के शीरे में गिरे हुए पुरुषार्थ के ठीकरे जब पिकनिक से लौटते स्कूली बच्चों को मिलेंगे चौरस्ते पर तो किसके हिस्से में कितनी धूप आई उनको कौन बताएगा
पीढिय़ों की बुनी रस्सी की बाट में पड़ी गांठ को जब पंगु हाथ खोल न पाऐंगे तो बेमियादी भोली जरूरत की रपट समझौता-वार्ता मेज़ के किस कोने पर बिठाई जाएगी और वह किसका दखल किसके खिलाफ मानी जाएगी
दूर पहाड़ पर बर्फ की काली-पीली परतें ताज़ा गिरी बर्फ की घुलती हुई शिनाख्तें प्यास और हक की पर्देदारी के दरमियान ठिगने आदमी की लम्बी परछाईयों को क्या जवाब देंगी दस बिस्वा आगे की बात है
डामर की घुटी हुई मजबूत सड़क और फैक्टरी के पत्थरीले फर्श के नीचे आठ बूढ़े खुरों द्वारा चीन्ही गई इबारतें साथ ही रोटी के खेत पर लिखे हुए दस्तावेज आगे जब शोध का विषय होंगे विश्वविद्यालयों में तो पत्थर होते पिता के चेहरे अनसुने दुधमुहें बालक के रूदन को ठण्डे होते सम्बन्धों के किस कुनबे का सदस्य माना जाएगा
हाइवे पर शीन-काफ से चाक-चौबन्द मायावी फिकरे कचनार की निपत्ती टहनियों पर चटकते हुए बीज़ कलम से गिरते हुए पसीने के रहस्य नमक की खोज में निकले हैं अच्छी बात यह कि जीवन की बहुत छूटी हुई चीज़ें बची हुई के रास्ते में फच्चर नहीं फंसा रहीं यानीकि आने वाले कल के लिए रास्ता साफ।
मैं देख रहा हूं...
मैं देख रहा हूं उसकी खाल से कुछ बिना नाम के चीचड़ चिपके हुऐ हैं और लगन से उसे चूस रहे हैं जबकि उसे लग रहा है वह बुद्ध को आवाज़ दे रहा है
मैं सोच रहा हूं गायक गाता क्यों है कवि कविता कहता क्यों है शिल्पी मूर्ति तराशता क्यों है जबकि उसका सोचना है वे नंगी गलतियों को कपड़े पहना रहे हैं
मैं सुन रहा हूं पहाड़ सैर पर निकले हैं नदियां शीर्षासन कर रही हैं गांव अपने चेहरा बदलने में लगे हैं जबकि ईश्वर नये शोध के लिए लाईब्रेरी की किताबों में व्यस्त है
मैं कह रहा हूं रिश्तों की चमड़ी झूलने लगी है दूध का रंग भूरा हो गया है आदमीयत के नाखून बढ़ गए हैं जबकि उनका कहना है मैं कुछ कहता क्यों नहीं हूं
मैं पढ़ रहा हूं शब्दों ने अपने अर्थ बदल दिये हैं किताबें हड़ताल पर हैं कलम को सिर खुजाने से ही फुर्सत नहीं है जबकि घर से खेत तक टेलिफोन की सब लाईनें व्यस्त चल रही हैं
मुझे समझाया जा रहा है इंन्द्रप्रस्थ में बाज़ार सज गया है गली-गैल मुनादी कर दी गई गान्धारी ने आंखों से पट्टी हटा दी है जबकि विदुर की जीभ में गठिया हो गया है और धृतराष्ट्र की चौसर की बाज़ी अभी खत्म नहीं हुई है