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जुलाई २०१३

भारत-विभाजन की स्मृतियाँ : निरंतरता और गतिरोध

प्रियम अंकित

 

किसी घटना की स्मृति को उत्सवों और स्वर्णपट्टिकाओं के ज़रिये कायम रखना यह संकेत कर सकता है कि उसे इतिहास में जिन रूपों में दर्ज़ किया गया है, वह सर्वस्वीकृत और व्यापक सहमति का हिस्सा हैं। मगर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अतीत को कैसे याद किया जाये, घटनायें कैसे घटित हुईं और उनके बारे में क्या कहानियाँ कही गयीं, इसे लेकर असहमतियों का होना स्वाभाविक और सार्वत्रिक प्रक्रिया है। अक्सर जो कहानियाँ 'विजयी' होती हैं, और जिन्हें आने वाले कई दशकों तक सुनाया जाता है, उन्हें सत्ता-पक्ष का समर्थन हासिल होता है। प्रभुत्वशाली राजनेता और शासक-वर्ग के लोग अपनी कुछ कहानियों को गढऩे और लोगों को उन पर विश्वास करने के लिये घटनाओं की स्मृतियों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने में माहिर होते हैं। सत्ताशाली वर्ग घटनाओं के उन वृत्तांतों को समर्थन और बढ़ावा देता है, जो उसके हितों और आवश्यकताओं के अनुरूप होते हैं।
- माइकेल कम्मेन (द मिस्टिक कॉड्र्स ऑफ मेमोरी; विंटेज बुक्स; 1993)

भारत-विभाजन को याद करने का मतलब
भारत-विभाजन को बीते लगभग छियासठ वर्ष हो चुके हैं। आज़ादी की रात के बारह बजे जिस नियति से भेंट करने का दावा किया गया था, वह नियति इन बीते वर्षों में लगातार हमारे हाथ से फिसलती गयी है। 'आधी रात की संतानों' की संतानें भी अब जवान हो चुकी हैं। यह कहा जा सकता है कि विभाजन की स्मृति तीन पीढिय़ों की यात्रा कर चुकी है। पीढ़ी के लिये इस स्मृति का अर्थ वह नहीं रहा है जो उसकी पूर्ववर्ती पीढ़ी के लिये था। स्मृतियाँ नये सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों में नये अर्थ ग्रहण करती हैं। स्मृतियाँ प्राणवान होती हैं। वे पुरानी केंचुल उतार कर नया जीवन पाती हैं और बदलते सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों में नये अर्थ भरती हैं। इस तरह स्मृतियाँ स्वयँ को जड़ीभूत करने के सारे प्रयासों का, एक समय विशेष में निर्मित जड़ साँचों के भीतर निरंतर प्रवाहमान होने का, सबल प्रतिरोध करती हैं। प्रतिरोध की यह शक्ति स्मृतियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास की निरंतरता से मिलती है। सत्ता इस निरंतरता को भंग करने की अथवा अपने हक में अनुकूलित करने की पुरजोर कोशिश करती है। पुरानी स्मृतियाँ 'पुरानी' ही बनी रहें, 'नयी' न होने पायें, इसके लिए सत्ता से जुड़े लेखकों, इतिहासकारों, सिद्धांतकारों और संस्कृतिकर्मियों की समर्थ फौज खड़ी कर दी जाती है। बुद्धिजीवियों की यह फौज जनता की स्मृति के भीतर हिंसक किस्म की तोड़-फोड़ करके ऐसे रूपकों को प्रतिष्ठित करती है, जो उसे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास की निरंतरता से काट कर गतिरोध के असंख्य दलदलों में उलझा देते हैं। ये 'गतिरोध के रूपक' स्मृतियों को थमे हुए और निष्क्रिय अतीत की जड़ीभूत संवेदना के रूप में दर्ज़ करते और कराते हैं। भारत-विभाजन की स्मृति भी लंबे समय से गतिरोध के ऐसे असंख्य रूपकों का शिकार रही है।
आज़ादी के पचास बरसों के बाद जो पीढ़ी जवान हुई, उसने विभाजन की स्मृति में नये आयाम जोड़े हैं। यह वही पीढ़ी है जिसने सोवियत संघ समेत पूर्वी यूरोप के वामपंथी शासन को छिन्न-भिन्न होते देखा, पूंजीवाद का विजयघोष करने वाले उत्सवों को, इन उत्सवों को जायज़ ठहराती उत्तर-आधुनिक सैद्धांतिकी को निर्मित होते देखा। यह वह दौर था जब भारत में 'नयी' हवा बही, भूमंडलीकरण और मुक्त-अर्थव्यवस्था की शुरूआत हुई, मानव-मुक्ति के पक्ष में बड़ी वैचारिकी को कठघरे में खड़ा किया गया। नवफासीवाद ने बड़ी बेशर्मी से अपने पाँव पसारे और अयोध्या में बाबरी-विध्वंस से लेकर गुजरात में गोधरा दंगों तक लगभग दस वर्षों का जो सफर देश की जनता ने तय किया उसने यह साबित कर दिया कि इस 'नयी' हवा ने उसे सौगात के रूप में जो दिया, वह अमानवीयता, बर्बरता, हिंसा, अत्याचार, अनाचार, सांप्रदायिक विद्वेष और विध्वंस से भरा एक खूनी दशक था। यह भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और सभ्यता का 'काला' दशक था जिसमें सत्ता ने बड़ी बेशर्मी से 'काले कानूनों' को लागू किया जिसके शिकार बड़ी संख्या में निर्दोष लोग हुए। विश्व में समाजवादी शासन-व्यवस्था के अंत से मानव-मुक्ति के संघर्षों में अनास्था का जो दौर पैदा हुआ, उसका लाभ उठाकर मुक्त पूँजी के द्रुतगामी पंखों पर सवार होकर, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद पर आधारित, जो शासन-व्यवस्था अस्तित्व में आयी, उसने पूँजीवाद के संकटों को कम करने के बजाये उसे अब तक के सबसे भयावह संकट में ढकेल दिया। यह प्रेक्षण ध्यान देने योग्य है कि आज से दस वर्ष पहले ''संकट समाजवाद का था और पूँजीवादी लोकतंत्र के विश्व-विजय की घोषणा के सहारे इतिहास के अंत के दावे किये जा रहे थे लेकिन पिछले दिनों के हालात ने पूरी धारणा ही पलट दी है। आज पूँजीवाद अपने जीवन के सबसे भयावह संकट से गुज़र रहा है। जिन देशों ने भी विश्व-बैंक द्वारा सुझाये कदम उठाये उनकी अर्थव्यवस्था जानलेवा फाँस का शिकार हो चली है।'' (गोपाल प्रधान, वर्तमान समय में माक्र्सवाद; बनास जन-4)। पूँजीवाद के इस संकट ने आज की पीढ़ी को मुक्तिकामी वैचारिकी के प्रति अनास्था के दौर से बाहर निकाला है। मुक्ति के विकल्पों की एक नयी तलाश की ज़रूरत यह पीढ़ी शिद्दत से महसूस कर रही है।
आर्थिक उदारीकरण के दौर में सांप्रदायिक शक्तियों का बिना किसी लागलपेट के मुख्यधारा में आना भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नयी परिघटना है। हालाँकि सांप्रदायिक तनाव, कलह, विद्वेष और आतंक आधुनिक भारतीय इतिहास के लिये कोई नयी घटना नहीं है। इसकी शुरूआत भारत में साम्राज्यवादी शासन के साथ ही हो गयी थी। 'फूट डालो और राज करो' तथा 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' सांप्रदायिकता के वैचारिक पहिये बने जिन पर सवार होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा की राजनीति ने आकार ग्रहण किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि 'धर्मनिरपेक्षता' और 'सर्वधर्मसंभाव' का तिरस्कार इस राजनीति ने नहीं किया। इसके बावजूद संकट के क्षणों में जब जब सांप्रदायिकता बनाम सहिष्णुता का विवाद इस राजनीति के भीतर उत्पन्न हुआ, जीत सांप्रदायिकता की ही हुई (सहिष्णुता के बड़े-बड़े दावों और दुहाइयों के बावजूद)। इसी राजनीति ने आज़ादी के संघर्ष को नियंत्रित किया और विभाजन को संभव बनाया। इस तरह सन 47 के रक्त-रंजित बंटवारे के कारकों में सबसे प्रमुख था उपनिवेशवाद द्वारा प्रस्तावित सांप्रदायिक नफरत का भारतीय स्वतंत्रता-संघर्ष की मुख्यधारा की राजनीति से गठजोड़। बँटवारे के लगभग 40 वर्षों बाद भारत के इतिहास में इसका समानांतर दृष्टांत देखने को मिलता है— आर्थिक उदारीकरण  के दौर में नवउपनिवेशवाद द्वारा प्रस्तावित नवफासीवाद का मुख्यधारा की भारतीय राजनीति से खुला गठजोड़। उपनिवेशवाद, भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के दुहरे चरित्र और सांप्रदायिक शक्तियों ने भारत की जनता को छलने के लिये बेहद जटिल और सूचना प्रौद्यिगिकी के सशक्त संसाधनों से लैस एक नया रूप धरा, जिसने मानवीयता की भारतीय विरासत के भीतर संवेदनशील सरणियों को तहस नहस करने का मारक अभियान चलाया। स्मृतियाँ मानवीय विरासत की सशक्त वाहक होती हैं। इसीलिए जनता की सामूहिक स्मृतियाँ हमेशा सत्ता के निशाने पर होती हैं। स्मृतियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भों की निरंतरता से काट कर अतीत के खण्डहरों में तब्दील कर दिया जाता है जहाँ वर्तमान की विभीषिका से भागता मनुष्य शरण पाता है। इस तरह तैयार होता है स्मृतियों का अभिजातजीवी संस्करण, जो पलायन के व्यक्तिवादी उद्यमों को रूमानी किस्म की वैधता प्रदान करता है। स्मृतियों के ऐसे संस्करण की मुकम्मल तस्वीर अज्ञेय और निर्मल वर्मा के लेखन में देखी जा सकती है।
मगर सबसे खतरनाक होता है स्मृतियों का वह संस्मरण जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भों से कटने के बजाए उनसे ऐसे जुड़ता है कि वह जनविरोधी ताकतों के हितसाधन का उपकरण बनता है। जनता की सामूहिक स्मृति में भयानक तोड़-फोड़ करके, 'गतिरोध के रूपकों' को हिंसक रूप में प्रतिष्ठित करके इसका निर्माण होता है। यह व्यक्तिवादी नहीं होता। इसमें सामूहिकता का बंधन होता है, जो एक तरफ दृढ़ होता है, तो दूसरी तरफ संकीर्ण। इसकी दृढ़ता एक विशेष धर्म, सम्प्रदाय अथवा राष्ट्र के संकीर्ण घेरों तक महदूद रहती है। स्मृतियों का ऐसा ही संकीर्ण और सांप्रदायिक संस्करण भारत में 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने तैयार किया था। इसने बँटवारे को संभव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। हिन्दुत्व की उग्र संस्कृति का भारत की स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में उत्तरोत्तर विकास होना, संसदीय साधनों द्वारा सत्ता हथियाने की कोशिशों में सांप्रदायिक ताकतों का लगातार सफल होते जाना इस संस्करण की कामयाबी की कहानी कहता है। इसी संस्करण में अब तक के सबसे खतरनाक, खूनी और वीभत्स आयाम जोड़े पिछली सदी के आखिरी दशक में उभरे नवफासीवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने।
स्मृतियों मानव-संस्कृति के जिन अनुशासनों में अपनी सर्वांगीण उपस्थिति दर्ज़ कराती हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं— कला और इतिहास। यही वे क्षेत्र हैं जहाँ एक ओर स्मृतियों को तोडऩे-मरोडऩे का, वर्तमान संदर्भों की निरंतरता से काटने का, 'गतिरोध के रूपक' रचने का प्रतिक्रियावादी प्रयास और दूसरी तरफ इन प्रयासों को रचनात्मक चुनौती देने का मानवीय और संवेदनशील उद्यम हर युग में लगातार ज़ारी रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कला और इतिहास 'स्मृतियों के युद्ध' के साक्षी बनते हैं। स्मृतियों के इस युद्ध में तटस्थता संभव नहीं है। यहाँ अपना पक्ष चुनना ही होता है। स्मृतियाँ तटस्थ नहीं होतीं, और न ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ। स्मृतियाँ वह उपकरण हैं जिनके द्वारा मनुष्य न सिर्फ अपनी उपलब्धियों और असफलताओं के नैरंतर्य को सुरक्षित रखता है (ताकि उन्हें भुलाया न जा सके), बल्कि अपनी विकास-यात्रा में सफल और असफल पड़ावों की शिनाख्त करने का साहस और सामथ्र्य भी प्राप्त करता है। इसीलिए आज भारत-विभाजन को याद करने का मतलब है 'स्मृतियों के युद्ध' में अपना पक्ष तय करना। बकौल मुक्तिबोध— 'तय करो किस ओर हो तुम।'
सन 47 के आसपास और उसके बाद अब तक के हिंदी साहित्य पर विचार करें तो हिंदी कविता में ऐसी रचनायें नहीं मिलती जो विभाजन की स्मृतियों को शिद्दत से दर्ज़ करती हों। दूसरी तरफ हिंदी कथा साहित्य में भारत-विभाजन की यादें संवेदनशील और रचनात्मक अभिव्यक्तियों के रूप में दर्ज़ होती हैं। यह अभिव्यक्तियाँ हर कदम पर सत्ता, सांप्रदायिकता और 'गतिरोध के रूपकों' के गठजोड़ का सार्थक और सफल प्रतिवाद करती हैं। इस दृष्टि से अगर बातचीत को हिंदी कहानी तक सीमित रखें तो पिछले साठ-पैंसठ वर्षों के अंतराल में जो भी महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी गयीं, उनमें अमृतसर आ गया है (भीष्म साहनी) की याद आना लाज़मी है। ये कहानी भारत-विभाजन की स्मृतियों में नये आयाम जोड़ती है और 'गतिरोध के रूपकों' का पर्दाफाश करते हुए सांप्रदायिकता के विरूद्ध 'स्मृतियों के युद्ध' में मनुष्यता का पक्ष बुलंद करती है।

अमृतसर आ गया है
भारतीय उपमहाद्वीप में 14 और 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण की चुनौतियों और तनावों को सुलझाने के लिये पूरे भूखण्ड को सांप्रदायिक आधार पर बाँट दिया गया। सैकड़ों बेगुनाह हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के खून से सनी-लिपटी आज़ादी का जश्न रैडिक्लिफ रेखा के दोनों ओर ज़ोर शोर से मनाया गया।  दोनो ओर के शासक-वर्ग ने सत्ता-हस्तांतरण के जिन वृत्तांतों को गढ़ा उनमें विभाजन के आघातों, सदमों, हत्याओं और क्रूरताओं की स्मृतियाँ नदारद थीं। आज़ादी के दीवानों, स्वतंत्रता के लिये जान न्यौछावर करने वाले सेनानियों और ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम करने वाले क्रांतिकारियों के साहसी कारनामों की स्मृतियों से इन वृत्तांतों को रंगा गया। पूरे उपमहाद्वीप को दहला देने वाले बँटवारे की विभीषिका को इन वृत्तांतों में बेहद मामूली घटना के रूप में दर्ज़ किया गया। यह प्रचारित किया गया कि नयी स्वाधीनता को प्राप्त राष्ट्र अब पुनर्निर्माण की राह पर है। इस 'तथाकथित' पुनर्निर्माण के लिये जनता त्याग करने और दर्द सहने को तैयार रहे, इसके लिए देश और दुनिया के इतिहास से उन पुरुषों और स्त्रियों की स्मृति को मजबूती से प्रतिष्ठित किया गया जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और राष्ट्र-निर्माण के उदात्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये बलिदान, धैर्य और कष्ट सहने की मिसाल कायम की थी। यह विडंबना ही है कि भाईचारा, त्याग, बलिदान और धैर्य वे मूल्य हैं, जिनके शवों को कंधें पर लाद कर हमारे सत्ताधीशों ने बँटवारे को अंजाम दिया था।
भीष्म साहनी की कहानी अमृतसर आ गया है आज़ादी के 'आधिकारिक' वृत्तांतों के छद्म को तार-तार करती है। वह इन वृत्तांतों में दर्ज़ की गयी आज़ादी की एकांगी स्मृतियों के अधूरेपन को बेबाकी से उजागर करती है और बँटवारे की दबायी, कुचली और भुलाई गयी स्मृतियों को रचनात्मक अभिव्यक्ति देती है। पूरी कहानी वाचक की स्मृति के सहारे आगे बढ़ती है। इस स्मृति के भीतर ऐन आज़ादी के वक्त की कशमकश दर्ज़ होती है। रेलगाड़ी के एक डिब्बे में बैठे मुसाफिरों के बीच जो कुछ चलता है और जो कुछ घटना है, वह उस कडवे यथार्थ की याद दिलाता है, जिसे दबाने का भरसक प्रयत्न 'विविधता में एकता' जैसे नारों की आड़ में किया गया। यह रेलगाड़ी भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल उत्तर पश्चिमी भाग के किसी हिस्से (जो अब पाकिस्तान में है) से चली है। कहानी यों शुरू होती है—
''गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामने वाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका म•ााक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहने वाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दायीं ओर कोने में, एक बुढिय़ा मुँह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसाफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन ही मन बड़ा खुश था क्योंकि में दिल्ली में होनेवाला स्वतंत्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।''
ज़ाहिर है, पूरे डिब्बे में हँसी खुशी का माहौल है। तीनों पठान और दुबला सा हिंदू बाबू खुलकर आपस में मज़ाक कर रहे हैं। वाचक खेतों के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर मग्न है और देश को मिली नई-नई आज़ादी से बहुत खुश और उत्साहित है। हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और आज़ादी के उत्साह से लबरेज़ एक किस्म की सुरम्य छवि डिब्बे के भीतर के वातावरण में व्याप्त है। क्या यह वही छवि नहीं है जिसकी स्मृतियों से आज़ादी के मुख्यधारा के 'आधिकारिक' वृत्तांत पटे पड़े है? कहानी की खासियत है कि वह इन स्मृतियों को झुठलाती नहीं है, क्योंकि यह स्मृतियाँ झूठी नहीं हैं। ये स्मृतियाँ एकांगी हैं, सत्ता-पक्ष को प्रिय हैं क्योंकि वह उसके द्वारा बरपाये गये अन्याय के कहर के कडुवे घूटों की सच्चाई को झुठलाने की आज़ादी देती हैं। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वह इन स्मृतियों की एकांगिकता के सत्य को बेबाकी से उद्घाटित करती चलती है। सांप्रदायिक भाईचारा और लंबे संघर्ष से प्राप्त आज़ादी के प्रति उत्साह हमारी विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन इन सांप्रदायिक भाईचारे के बरक्स सांप्रदायिक नफरत और आज़ादी के प्रेम के बरक्स बँटवारे की खूनी हिंसा भी हमारी विरासत का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस संदर्भ में वाचक का यह प्रेक्षण महत्वपूर्ण है— ''उन दिनों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहें हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।''
जो भी हो, यह झुटपुटा आज़ादी और बँटवारे के, भाईचारे और नफरत के संधि-स्थल से उपजा है। आज भी भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति इसी झुटपुटे में सांस ले रहे हैं।
गाड़ी जब अगले स्टेशन पर रुकती है, तो नये मुसाफिरों का रेला अंदर आता है। स्टेशन पर अफरा तफरी का माहौल है। दंगों का खौफ प्लेटफार्म पर है और जल्द ही वह खाली हो जाता है और लोग भाग कर रेल के डिब्बों में चढ़ जाते हैं। वाचक का कथन ध्यान देने योग्य है— ''जितनी देर कोई मुसाफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार वह जैसे-तैसे अंदर आ जाये तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसाफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफिरों पर चिल्लाने लगता है— नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ... घुसे आते हैं...।''
आज भी ट्रेन के मुसाफिरों का सुरक्षा और इत्मीनान के प्रति जबरदस्त आग्रह होता है। मगर कहानी जिस दौर के वातावरण को बयाँ करती है, वह सच्चाई के एक अलग ही पहलू को उजागर करती है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान मिल-जुल कर इंसानी भाईचारे के साथ संकटों का सामना करने की जो तहज़ीब अर्जित करने के बड़े-बड़े दावे किये गये थे, उनका सच यहाँ उजागर होता है। बाहर दंगे की हिंसा जारी है, उससे बचने के लिये लोग रेल में सवार होकर भागना चाहते हैं, मगर सुरक्षा, इत्मीनान और सुविधा की चाह डिब्बे में पहले से मौजूद मुसाफिरों की इंसानियत पर भारी पड़ती है और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की बात तो दूर, अपनी जान बचाकर भागते हिंदू पर भी उस हिंदू को कोई तरस नहीं आता, जो डिब्बे में पहले से मौजूद है। कारण, उसे अपनी सुरक्षा और सुविधा ज्यादा प्यारी है। यह हकीकत है स्वतंत्रता आंदोलन के इंसानी सौहाद्र्र और भाईचारे के मूल्यों की विरासत की, जिनकी धज्जियां इन छियासठ सालों में जमकर उड़ी है। यहाँ स्वतंत्रता का रूमान तार-तार होता है, और मरती हुई इंसानी संवेदनाओं की खौफनाक सच्चाईयां ज़ाहिर होती हैं।
इसी संवेदनहीनता का शिकार होता है एक गरीब हिंदू परिवार, जो तमाम मुसाफिरों के विरोध के बावजूद डिब्बे में दाखिल होता है। पठान इस हिंदू पर लात चलाता है, जो भूल से उसकी पत्नी को लगती है। सामान छूट जाने के चलते इस परिवार को अंतत: डिब्बे से उतरना पड़ता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि पठान किसी सांप्रदायिक भेदभाव के चलते लात नहीं चलाता, बल्कि वह ऐसा करता है सुरक्षा और सुविधा के उसी आग्रह के वशीभूत होकर, जो डिब्बे के भीतर क्या हिंदू, क्या मुसलमान और क्या सिक्ख, सब पर समान रूप से हावी है।
बाहर दंगा है, जीवन असुरक्षित है। ट्रेन के भीतर सुरक्षा है। मगर जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है, बाहर की असुरक्षा ट्रेन के भीतर व्यापती जाती है—
''कौन सा स्टेशन था यह?'' डिब्बे में किसी ने पूछा।
''वज़ीराबाद'' किसी ने उत्तर दिया।
जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकी हिंदू-सिक्ख मुसाफिरों की चुप्पी और •यादा गहरी हो गयी।
बहुसंख्यकों के बीच होने की आश्वस्ति पठानों को निश्चिंत करती है, और अल्पसंख्यक होने का एहसास हिंदुओं और सिक्खों में खौफ पैदा करता है। यही सांप्रदायिकता का वितान है जो बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच बुना जाता है। पठानों की दिल्लगी और दुबले बाबू की हाज़िरजवाबी दोनों इसकी गिरफ्त में आते हैं। पठान का ताना — ''ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नई बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डिब्बे में बैटो।'' इस पर 'बाबू की हाज़िरजवाबी कंठ में सूख चली थी। हकला कर चुप हो रहा।'
सांप्रदायिकता बहुसंख्यकों को हिंसक बनाती है, तो अल्पसंख्यकों को असुरक्षित। सांप्रदायिकता का तांडव संख्याबल के उन्माद को भड़काता है। कहानी संख्याबल के आगे लाचार मानवता की बेबस, किंतु खूनी दास्तान को दर्ज़ करती है। कहानी इस सच को दारुण परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित करती है, कि सांप्रदायिक उन्माद अपना आत्मविश्वास अर्जित करने के लिये संख्याओं का मोहताज़ होता है। गाड़ी जैसे ही हिंदू-बहुल शहर (अमृतसर) में प्रवेश करती है, असुरक्षा बोध से कसमसाते बाबू में जान आती है, और उसका पूरा व्यक्तित्व सांप्रदायिक उन्माद की गिरफ्त में काँपने लगता है—
''शहर आ गया है।'' वह फिर ऊँची आवाज़ में चिल्लाया - ''अमृतसर आ गया है।'' उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया— ''ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की... नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाली की मैं...''
शहर, जिन्हें मनुष्य की संभावना को आकार देने के लिये बसाया गया था, अब पाशविक क्रूरता के रूपक बन जाते हैं— चाहे वज़ीराबाद हो या अमृतसर। अब वह इस बात से पहचाने जाते हैं कि उनमें बसने वाली जनसंख्या का बहुसंख्यक संप्रदाय किस धर्म का है! परिवहन के माध्यम शहरों को जोडऩे का काम करते हैं, लेकिन यहाँ रेलगाड़ी शहरों के अलगाव को महसूस कराने का माध्यम बन जाती है। मानवीय भूगोल पर नफरत की संस्कृति हावी हो जाती है।
नफरत की यही संस्कृति बाबू को उन्मत्त कर देती है। वह रेलगाड़ी में चढऩे की कोशिश करते एक मुसलमान मुसाफिर को अपना निशाना बनाता है। कहानी नफरत के भूगोल में पिसती मानवता के दारूण हश्र को बेहत मार्मिक बिंबों को दृश्यात्मकता में यूँ बयाँ करती है (यह अंश कहानी का सबसे मार्मिक हिस्सा है)—
''और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगे लरज गयीं। मुझ लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधों पर से लटकती गठरी खिसक कर उसकी कोहनी पर आ गयी थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नज़र आए। वह दो-एक बार 'या अल्लाह' बुदबुदाया, फिर उसके पैर लडख़ड़ा गये। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी सी आँखें, जो धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अंधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फडफ़ड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा जैसे वह मुस्कुराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पडऩे लगे थे।
नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गये और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो।''
इन छियासठ वर्षों में कितनों के सफर ऐसे ही खत्म किए गये हैं— रेल के भीतर भी और रेल के बाहर भी। और कितनी बार नाची है वह वीभत्स मुस्कान जो कहानी के अंत में बाबू के होठों को गिरफ्तार करती है! यह मुस्कान आज वीभत्सता की सारी हदें पार कर सत्ता के गलियारों में चमक रही है, पूरी बेबाकी और इत्मीनान के साथ। लेकिन 'विकास-पुरुष' के चुनावी मिथकों के गढऩे में तल्लीन 'आधिकारिक' इतिहास के रचयिता इस वीभत्स मुस्कान को विस्मृति के गर्भ में झोंक देना चाहते हैं।
अमृतसर आ गया है इस मुस्कान की निर्मिति और उसकी निरंतरता की स्मृति को दर्ज़ करने वाली कहानी है।




प्रियम अंकित पहल के परिचित आलोचक हैं। हाल ही में देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला है। आगरा कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक हैं।


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