पठनीयता के पार हम लोग निराला और राम की शक्तिपूजा से खूब परिचित हैं, लेकिन परिचय पुराना हो रहा है। अब क्या हो? क्या परिचय के प्रगाढ़ पुरानेपन को निधि मानकर संतुष्ट और गौरवान्वित हो लिया जाय? ऐसा करने में कोई हर्ज भी नहीं है— दि$क्$कत है कि यह अपना रास्ता नहीं है। यह कविता अपने कवि के व्यक्तित्व की बहुत नुमाइंदगी करती है। कविता गूँजी तो कवि की आवाज भी सुन ली गयी। कविता स्वीकार कर ली गयी तो कवि को भी अंदर आने दिया गया, इसे पढ़कर कवि को जान लिया गया। कुल मिलाकर कवि और कविता लगातार पठनीय होते गये। यह तथ्य बेचैन करता है और तथाकथित पठनीयता के पार जाने की इच्छा होती है। कृति को अपठित कर देने और कृतिकार के पास उसे लौटा देने की तबीयत बनती है। कविता के भीतर की पारंपरिक अध्यापकीय जगहों पर वाह-वाह करने को मन नहीं करता और सराहना की नयी, अज्ञात, छूट गयी जगहों की खोज का एजेंडा बनता है। यह एकमात्र तरी$का नहीं है लेकिन इसमें ज़िद है। हम चाहते हैं कि बहुत से पाठ हों, अलग-अलग तर्कों की पठनीयताएँ हों और अभिनव विन्यास। कविता को नया किया जा सके। यों, महाकवि भी कुछ और ताज़ा हो जायेगा। इसी म$कसद से 'कामायनी' के साथ हमने 'शक्तिपूजा' के मंचन का फैसला किया। 1936 में लिखी गयी इस कृति की रचना के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर, वैसे भी एक मौका बनता था। राम के आत्मसंघर्ष में निराला का संग्राम तो दिखता ही है, अपने छोटे-छोटे समर भी हम उसमें खोजते रहे हैं। अधुनातन अंतर्वस्तु को पारंपरिक देहभाषा के ज़रिये अभिव्यक्त किया जा सके, यह हमेशा से हमारा स्वप्न है। बनारस की रामलीला जैसे प्राचीनतम् नाट्यरूप के साथ आधुनिक रंगमंच की अंत:क्रिया ज़्यादा प्रत्यक्ष और रोमांचक हो, इस संकल्प को भी हमने एक चुनौती की तरह लिया है। 'शक्तिपूजा' में यथाशक्ति रामलीला के तत्व को विन्यस्त और चरितार्थ करने का प्रयत्न किया गया है। इस कविता की भाषा में एक स्वत:स्फूर्त संगीत अंत:सलिल है। साहित्य-संसार में उसका उल्लेख समय-समय पर होता रहा है। इस पूर्व परिचित संगीत के समानांतर हमने अपनी प्रस्तुति का संगीत तैयार किया है। वह अप्रत्याशित हो सकता है, नए निमंत्रण दे सकता है और संभव है कि कहीं-कहीं खारिज कर देने लायक भी लगे। हम कविता के उत्सव के लिए इतनी कीमत चुकाने को तैयार हैं। यह अपरिहार्य है। कविता में कहानी का प्रवाह पाने के लिए हमने ज़्यादातर पंक्तियाँ छोड़ दी हैं और कुछ का प्रयोग किया है। यह हमारी सीमा है कि हम आख्यान को विचलित नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन हम ऐसा करना चाहते हैं। हमारी आकांक्षा की झलक इस नाट्यालेख में दिखाई देगी और थोड़ा-बहुत कथा-संसार के पार भी देखा जा सकेगा।
राम की शक्ति-पूजा
ओज की ध्वनियाँ। तबले पर बनारस की एक पारंपरिक तिहाई। सितार पर गत। वानर-समूह, जो पूरी कहानी में यथास्थान सूत्रधारों और संचारी भावों की तरह भी पेश आएगा, द्वारा भय और संघर्ष की अभिव्यक्ति। युद्धक गत के समानांतर कविता की पहली दो पंक्तियों का गान।
रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
संगीत के ज़रिये राग के आगमन का वातावरण। पहले लक्ष्मण, फिर क्रमश: सुग्रीव, जामवंत और विभीषण दिखते हैं। राम का प्रवेश। साथ में हनुमान भी हैं। प्रेक्षागृह में राम और वानर-समूह के बीच अधिकतम दूरी, जो धीरे-धीरे खत्म होती है।
लौटे युग-दल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल, बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।
व्याकुल राम आक्रान्त बंदरों के समूह तक दौड़ते हुए जाते हैं। बंदर शरणागत और उद्विग्न। राम उनसे घिरे हुए मौन संवादरत। राम और बंदरों की अनोखी पारस्परिकता का प्रदर्शन। समूह राम के साथ चल पड़ता है।
वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण चिह्न चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न;
विडंबना के बीच थोड़ा-सा ललित। आगामी दो पंक्तियों में दृश्य केवल राम में एकाग्र। शोक का मधुर आंगिक।
दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
अन्य कलाकारों द्वारा राम का अभिवादन। सभी कलाकार एकत्र होते हैं।
आये सब शिविर, सानु पर पर्वत के मन्थर सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
केन्द्र में राम। दृश्यालेख किसी पारंपरिक धार्मिक चित्ररूप सा।
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर, सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर;
वानर-समूह की देहभाषा में तकलीफ और पुकार। वे अब भी राम को घेरे हुए हैं यूथपति अन्य जो, यथास्थान, हो निर्निमेष देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।
राम वानर समूह से घिरे हुए निर्भीक एक ओर चल पड़ते हैं। साथ में सभी। प्रयाण और भय का संश्लेष। इस समूह का विभिन्न दिशाओं में आवागमन
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार; खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार; अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल भूधर ज्यों ध्यान-मग्न, केवल जलती मशाल।
मंच पर अंधकार यहीं राम स्मृति-संसार में चले जाते हैं। दृश्य प्रिया सीता से पहली मुलाकात के उपवन में तब्दील।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि, अच्युत
सीता का शान्त प्रवेश। वानर समूह विदेह के उपवन के पशु-पक्षियों-सा चंचल और उमंगित जबकि हनुमान, जामवंत, विभीषण और सुग्रीव वृक्ष बन गये हैं। सीता इन्हीं वृक्षों के बीच से होकर आगे आती हैं। मंच पर सिर्फ राम, सीता और लक्ष्मण सक्रिय और गतिमान। आगामी पंक्तियाँ राग काफी में निबद्ध
नयनों का - नयनों से गोपन - प्रिय सम्भाषण, पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,
राम और सीता के प्रथम परिचय का कोमल खेल। स्थिर बानर-समूह का मंच-सामग्री की तरह कल्पनाशील प्रयोग करते हुए राम और सीता विभिन्न आकारों और गतियों के माध्यम से संयोग की अभिव्यक्ति करते हैं।
सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त, हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, सीता का प्रस्थान। माधुर्य भी समाप्त। राम दूसरे और कठोर स्मृति संसार में। वह अपने पराक्रम को याद कर रहे हैं। वानर-समूह ही राक्षसों की तरह उपस्थित। युद्ध का माहौल। संघर्ष की गत।
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर, ताड़का, सुबाहु, विराध, निरस्त्रय, दूषण, खर;
तबले और सितार की जुगलबंदी। सितार पर राम और तबले पर राक्षसों की गति। भिन्न-भिन्न मुद्राओं में मुकाबला। तिहाई के साथ विराम राम का स्मृति से वास्तव में प्रवेश। वह शोकपूर्वक याद करते हैं कि आज ही उन्होंने शक्ति को रावण की ओर से युद्ध करते देखा है।
फिर देखी भीमा मूर्ति आज रण देखी जो आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
पुन: सितार और तबले पर युद्धगति। राम का उद्विग्न आंगिक। पस्त होकर लेट जाते हैं। भीषण अट्टाहस। वानर-समूह पुन: राम के इर्द गिर्द।
फिर सुना हँस रहा अट्टाहास रावण खलखल
राम का विलाप। शोक।
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल
राम के आँसू उनके पैरों पर गिरते हैं। पैरों के पास बैठे हनुमान उन आँसुओं को देखकर कुपित।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल, देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल
क्रुद्ध हनुमान का इधर उधर आवागमन, कूद और प्रतापी पदगति। 'ये अश्रु राम के' आते ही मन में विचार, उद्वेल हो उठा शक्ति-खेल-सागर अपार
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित, इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन-कूजित; करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल, लख महानाश शिव अचल हुए क्षण-भर चंचल,
वानर-समूहों का हनुमान की प्रतिच्छायाओं की तरह आक्रामक प्रवेश। कथक के बनारस घराने की एक पढ़ंत। ऊर्जस्वी समूह-नृत्य। राम और उनका मित्र-मंडल मंच के एक कोने पर खड़ा हनुमान और वानर-समूह के उत्साह और पराक्रम का साक्षी। तिहाई के साथ विराम। केन्द्र में क्रोधित हनुमान। इर्द-गिर्द बंदर। तभी शिव को रूपायित करने वाली वस्तुएं - त्रिशूल, डमरू और साँप, मंचके एक भिन्न कोने पर नाटकीय तरी$के से रौशन हो उठती हैं। कोई चाहे तो साक्षात् शिव को भी मंच पर ले आए, लेकिन ऐसा करने में प्रसंग के सतही हो जाने का खतरा है। पृष्ठभूमि से शंकर की आवाज़। शिव का प्रतीकात्मक आगमन। इधर, उस आकाशवाणी पर जामवंत अभिनय करते हुए, यानी, पृष्ठभूमि से आती शंकर की आवाज, त्रिशूल आदि वस्तुओं और जामवंत के आंगिक का संश्लेष।
''सम्वरो देवि, निज तेज, नहीं वानर यह, - नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर, अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर, चिर-ब्रह्मचर्य-रत, ये एकादश रुद्र धन्य, मर्यादा-पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,''
शिव का प्रतीकात्मक प्रस्थान
कह हुए मौन शिव; पवन-तनय में भर विस्मय सहसा नभ में अंजना-रूप का हुआ उदय;
हनुमान की माँ अंजना का प्रवेश। हनुमान निकट आ जाते हैं। अंजना का उपदेश। बोली माता — ''तुमने रवि को जब लिया निगल तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल, तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य- क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?''
इतना कहकर माँ चली जाती है। हनुमान का गुस्सा कम हो गया है।
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन, उतरे धीरे-धीरे गह प्रभु-पद हुए दीन
हनुमान सहित राम का अंतरंग मित्र-मंडल उनके चारों ओर बैठा हुआ। युद्ध शिविर का दृश्य विभीषण राम की उदासी पर खिन्न हैं और चुनौती दे रहे हैं।
''कितना श्रम हुआ व्यर्थ! आया जब मिलन-समय, तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय! सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक मैं बना किन्तु लंकापति, धिव, राघव, धिक्-धिक्!''
विभीषण की कटूक्तियाँ राम का पीछा करती है। मंच पर राम और विभीषण के बीच तनावपरक पारस्परिकता। तभी निराश देहभाषा में वानर-समूह का आगमन। बाँसुरी पर भैरवी का लंबा उदास आलाप। राम समूह में खो जाते हैं। वहीं से विभीषण से संवाद।
''मित्रवर, विजय होगी न समर; यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण, उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण; अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति!'' कहते छल-छल हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
राम उदास, मंच-बीच, दर्शकों के बिल्कुल करीब आकर बैठ जाते हैं। वानर-समूह उनके इर्दगिर्द। दूसरे समूह से उठकर जामवंत आगे आते हैं। राम से वार्तालाप। प्रेरणा और उद्बोधन
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान — ''रघुवर, विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनन्दन!
जामवंत के वचनों से प्रभावित सेना एक ही जगह पर एकत्र। जामवंत क्रमश: एक-एक यूथपति के पास जाते हैं।
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक, मध्य भाग में, अंगद दक्षिण-श्वेत सहायक, मैं, भल्ल-सैन्य; हैं वाम पाश्र्व में हनूमान, नल, नील और छोटे कपिगण - उनके प्रधान; सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।''
समूह तत्पर और ऊर्जस्वित। राम भी दृढ़।
खिल गयी सभा। ''उत्तम निश्चिय यह, भल्लनाथ!''
'खिल गयी सभा' की आवृत्ति। उत्साह की अभिव्यक्ति। नृत्य और युद्ध का परिवेश। राम शक्ति का आह्वान करते हैं।
''मात:, दशभुजा, विश्वज्योति:, मैं हूँ आश्रित; हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित,''
समूह द्वारा अभिवादन। राम-हनुमान-संवाद।
''चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर, कम-से-कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर जाओ देवीदह, उष:काल होते सत्वर तोड़ो लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।''
जामवंत हनुमान को रास्ता बताते हुए।
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान, प्रभु-पद-रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान।
हनुमान का चपल प्रस्थान। मंच के एक कोने पर वह पूजा के फूल इकट्ठे कर रहे हैं। बीच में राम ध्यानस्थ। युद्ध का आंगिक। पृष्ठभूमि में मंत्र-पाठ और संघर्ष की ध्वनि। हनुमान भी लौटकर, पुष्प राम को सौंपकर युद्ध में शामिल।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
युद्धरत-समूह का धीरे-धीरे प्रस्थान। राम एकांत साधनारत। एक-एक फूल अर्पित करते हुए। पदचाप की कोमल ध्वनि। देवी का चुपके से, शरारती प्रवेश; वह अंतिम पुष्प चुरा लेती हैं। पुष्प के साथ आगामी पंक्तियों पर देवी का नृत्य।
द्विप्रहर रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर हँस उठा ले गयीं पूजा का प्रिय इन्दीवर।
राम ध्यान में हैं।
यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल राम ने बढ़ाया कर लेने की नीलकमल; राम पुष्पपात्र में बंद आँखों से ही अंतिम फूल खोजते हुए। व्याकुल। फूल वहाँ नहीं हैं। क्षोभ की देहभाषा। आवागमन।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल, देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय, आसन छोडऩा असिद्धि, भर गये नयन द्वय : -
विलाप। अतिरेक का आंगिक।
''धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध! जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का हो न सका।'' वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
तभी उम्मीद का संचार। राम को याद आता है कि माँ उन्हें 'राजीव नयन' कहती थीं।
''यह है उपाय'', कह उठे राम ज्यों मन्द्रित धन — ''कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन! दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण पूरा करता हूँ देकर मात: एक नयन।''
आँखें निकालकर अर्पित कर देने के लिए तीर उठा लेते हैं। पराक्रम। अभय।
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक, ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक; जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चिय, काँपा ब्रह्माण्ड :
देवी का प्रवेश, दौड़कर राम के पास आ जाती हैं। उनका हाथ पकड़ लेती हैं। अभ्यर्थना करती हैं और आशीष देती हैं। हुआ देवी का त्वरित उदय : — देवी का कथन :
''साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम।'' कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
''होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!'' कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।
देवी का राम में विलय। समवेत नृत्य। दिशाओं ओर कोणों का अभिवादन। समूह का आगमन। जय जयकार। 'होगी जय' की अनेक स्वरों और सप्तकों में आवृत्ति।
युवा कवि व्योमेश शुक्ल को इसी साल रज़ा पुरस्कार दिया गया है, जिसके अन्तर्गत वे श्रीकांत वर्मा पर मोनोग्राफ तैयार करेंगे। |