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अप्रैल 2021

सूफी/एक नाकाम तलाशी की मुहिम

उदयभानु पांडेय

कहानी

 

 

वह मेरे बँगले के पोर्टिको के ठीक आगे आकर चीख रही थी। उसकी चीख इतनी जबर्दस्त थी कि सुनने वालों को इस बात का पूरा अहसास हो जाए कि उस औरत के दिमाग का पूरा कबाड़ा हो चुका है। ग़नीमत यह थी कि वह किसी औसतन हिन्दुस्तानी महिला की तुलना में काफी लंबी थी। जैसे नाटे कद वाले धनी व्यापारी मोटे हो जाने पर वितृष्णा की सीमा तक कुरूप दिखने लगते हैं, उसी तरह लड़ती-झगड़ती, चीख़ती-चिल्लाती नाटी औरतें निहायत गंधैली-घसल्ली यानी स्लटिश और बदसूरत दिखती हैं। अल्लाह का शुक्र है कि वह चीखती-चिल्लाती औरत काफी लंबी थी। तन्वी और गौरवर्ण। अगर वह किसी हिंदू परिवार में जन्म लेती तो उसका नाम गौरा अथवा गौरी अवश्य होता। उसके लंबे और काले बालों में कहीं-कहीं चाँदी की लकीरें खिंची हुई दिखती थीं जो उसके व्यक्तित्व को अतिरिक्त कमनीयता से नवाज़ती थीं।

लेकिन वह इस तरह चीख और रो रही थी कि मुझे लग रहा था कि उसके दिमाग का कबाड़ा हो चुका है।

जब वह युद्धं देहि का नारा बुलंद करती तब भी उसकी नाक सूखी ही रहती। (अल्लाह को हाजिर नाज़िर मानकर मैं अर्ज़ करना चाता हूँ कि इस ख़ाकसार ने ऐसी भी ख़ानदानी, हसीन और आक्सफर्ड रिटर्न पी एच डी से लैस खवातूनें देखी हैं जो अपने पति परमेशवर से लड़ते समय अपनी नाक को सदानीरा बना लेती हैं।) तौबा, तौबा, तब वे यह भी भूल जाती हैं कि उसके पास रुमाल नहीं तो कम से कम हाथ और दुपट्टा तो है। लिहाज़ा मैं इस मोहतरमा को देख कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। लेकिन उसकी सूखी नाक देकर मुझे यह भी अहसास हो रहा था कि मालिक ने अपने कुछ बंदों पर अपना करम बनाए रखा है।

वह तलाशी अभियान पर थीं और शरीफ़, गज़टेड अफसरों की उस कालोनी में जब उनका यह अभियान शुरू होता सारे लोग सकते में आ जाते। इस शहर के बुज़ुर्ग लोगों का कहना था कि जब कोई औरत गुस्से में होती है तब नर मादाओं की बात क्या सरे चरिंद परिंद, जड़ चेतन प्राणी यहां तक कि बहिश्त के फ़रिश्ते तक ख़ौफज़दा हो जाते हैं। कभी-कभी एकाध भद्र महिलाएँ पागल और बेशर्म दोनों हो जाती हैं तब शरीफ़ इंसान मन ही मन यह कह उठते हैं ''रहम, मेरे मौला! रहम!!’

इस मामले में मैं और डाक्टर अभिजीत शर्मा काफी ख़ुशक़िस्मत थे। मेरे दोनों घर आज तक इस तलाशी अभियान के दायरे से बाहर थे। यह नियम नहीं एक अपवाद का मामला था कि आसपास के हम दोनों दोस्तों के घर इस तलाशी का कोई असर नहीं होता था। डाक्टर अभिजीत शर्मा मणिपुरी ब्राह्मण थे और उनके चौके में या यूँ कहिए कि घर की चारदीवारी के अंदर मांस, अंडा और दारू कभी अपनी मनहूस सूरत नहीं दिखाते थे। (मछली ज़रूर पकाई जा सकती थी)। वह औरतों के बारे में निहायत शरीफ़ और मर्यादावादी थे और जब वह इन मोहतरमा से मिलते अपनी आँखों को झुकाए ही रहते। उनकी पत्नी अपनी माँग में खूब गहबोड़ सिंदूर लगाती थीं। मेरे घर पर अचानक नमूदार हो गई मोहतरमा बिरहमिन जोड़े की इस अदा पर लगभग कुर्बान थीं।

मैं अपनी बात खुलकर बता पाने में असमर्थ हूँ। मैं इस शहर में हमेशा विवाद का विषय रहा हूँ। शहर की बात छोडि़ए; दुनिया जहान में मेरी चर्चा होती है। जिस-जिस तरह मेरी पोस्टिंग हुई वहाँ के 70 फीसद मर्द मेरे प्रशंसक लेकिन 30 फीसद मेरे घोर विरोधी हो जाते हैं। लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल से खवातूनें हमेशा इस नामुराद को सराहती रहीं हैं। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बनना चाहता। मेरे दोस्त और मेरे दुश्मन-दोनों यह बात कहते हैं कि यह भूरिश्रवा गौतम नाम का शख़्स औरतों को मोह लेता है। इसे बच्चियाँ भी चाहती हैं, बुढिय़ाँ भी और जवान खवातूनें तो अपनी जान झिड़कती हैं इस आदमी पर। लेकिन इन सारी सही या ग़लत अवधारणाओं के बावजूद मेरे दोस्त और सहकर्मी की शरीके हयात हज़ीरा बेग़म डाक्टर शर्मा के बाद शायद इस ख़ाकसार को सबसे शरीफ आदमजात समझती हैं। फिर अचानक वह यहाँ कैसे नमूदार हो गईं। मैं इस बात को लेकर सकते में आ गया था।

इस तलाशी अभियान का अपना एक अलग आख्यान है। जिन मोहतरमा की दास्तान मैं कह रहा हूँ उनके शौहर, मेरे जिगरी दोस्त यूसुफ सिद्दीक़ी साहब एक ख़ुदा-परस्त, मुल्क परस्त बंगाली खानदान से ताल्लुक रखने वाले शरीफ़ इंसान हैं। देश विभाजन के समय उनका कुनबा मौलाना भसानी के बहुत क़रीब था। लेकिन उनके अब्बा हुज़ूर मकदूम सिद्दीक़ी साहब गांधी और नेहरू के बहुत बड़े शैदाई थे। जब देश का बँटवारा हुआ उनके चाचा, ताऊ, फूफा, मौसा - हर कोई पूर्वी पाकिस्तान चला गया। लेकिन मकदूम साहिब ने कहा, ''हमारी जड़ें हिंदुस्तान में हैं। यहीं हमारी मस्जिदें हैं, मकबरे हैं और हमारे बुज़ुर्गों की कब्रें भी। हम कहीं नहीं जाने वाले।’’ उनके पास ज़्यादा खेत न थे, लेकिन जो थे वे निहायत उपजाऊ और गौरीपुर के ज़मींदार उनकी बहुत इज्जत करते। इनका कुनबा हिंदू रिवाज़ों को बहुत आदर करता था और मातृभाषा बँगला के साथ परिवार खूब अच्छी असमिया बोलता।  उनके घर का काम हर सदस्य ईमानदार था और हराम के पैसे से दूर। जो लोग पाकिस्तान चले गए उन्हें छोड़कर कोई और महत्वाकांक्षी न था और यूसुफ़ साहब के भाई-बहिनों की एक पूरी पलटन थी। लिहाज़ा घर की माली हालत केवल बिगड़ी ही नहीं, पूरी ख़स्ता हो चुकी थी। तीन बड़ी बहनों की शादी के बाद यूसुफ साहब अपने अब्बा हुज़ूर की तकलीफ़ों को पूरी शिद्दत के सात महसूस करने लगे। उन्होंने कहा, ''अब मैं किसी मदरसे या पाठशाले में नौकरी करूँगा ताकि हमारे अब्बू को इतनी खटनी से निजात मिल जाए।’’ जब उनकी अम्मीजान ने अपने शौहर को यह बात बताई मकदूम साहिब ने कहा, ''बेगम, तुम्हारा बेटा पागल है। मैट्रिक में जिस चार-चार विषयों में लेटर मार्क मिले हों उसे मैं किसान और मेहनतकश कैसे बनने दूँगा?’’

इसी बीच गौरीपुर की रियासत में यह ऐलान कर दिया कि उन्हें शिलांग के सेंट ऐडमेंट्स में भेजने का बंदोबस्त किया जाएगा। उन दिनों वह शहर असम की राजधानी हुआ करता था और वहाँ केवल ख़ास घरों के लोग बढ़ते थे। लेकिन यूसुफ़ साहब ने सीधे गुवाहाटी के काटन कालेज में प्री यूनिवर्सिटी सायंस में दाखिला ले लिया।

प्री यूनिवर्सिटी का परिणाम यूसुफ़ के लिए खुशियों का ख़ज़ाना लेकर आया। उन्हें बीएस सी ऐग्रीकल्चर में दाखिला मिल गया। जब वह कौकराझार में पोस्टिंग पा गए गुवाहाटी के एक बड़े आदमी ने मकदूम साहिब को एक दिन अचंभे में डाल दिया। उनके गाँव को मसखरे लोग असमिया में अहिन कोना (साँपों का कोना यानी निहायत पिछड़ा गाँव) कहते थे। जब दोपहर को मकदूम हल चलाने के बाद नमाज़ से फारिग हुए उन्हें अपने दरवाज़े पर तीन गाडिय़ाँ दिखाई दीं। डी एम और पुलिस कप्तान के साथ गुवाहाटी के एक बड़े रईस पधारे थे। मकदूम साहिब ने दुआ-सलाम के बाद कहा, ''इस गरीब की कुटिया में तीन ख़ानदानी बड़े आदमी कैसे तशरीफ लाए?’’

''सिद्दीकी डाँगरिया (महाशय), पूरे जिले में आपके घर का खाना मशहूर है। ख़ासकर आपके यहाँ नवद्वीप वाला जूहा चावल और आपके पोखर की टेंगरा (टेंगना) मछली की तारीफ सुनी है। सोचा कि जिले के आला अफ़सर और आसाम के आला रईस अहमद साहब के साथ मैं भी इस ख़ाने का लुत्फ उठाऊँ।’’ एस पी साहिब बेहद शीरीं ज़बान में बोले।

''इस खाकसार को बहुत इ ज़्ज़त बख़्शी है आप हज़रत सलामत ने।’’

मकदूम साहब का खानदान, जैसा कि मैं बता चुका हूँ, साधु बंगला के साथ अच्छी असमिया भी बोलता था। खाना ख़त्म हुआ तब जिलाधीश ने असली मुद्दे की बात उठाई, ''चाचा जान, हम लोग आपके लिए इनायतनामा नहीं, बल्कि सवाली को ही ले आए हैं। अहमद साहब को पूरे सूबे में कौन नहीं जानता? आपकी सबसे बड़ी बेटी असमिया में एम ए कर रही है। अगर आप उसे अपनी बुवारा (पुत्रवधु) की इज़्ज़त से बख़्शें तो इनायत होगी। आप हाँ भर कह दें, बाद में और बातों में डिसकस कर लेंगे।’’

यहाँ कहानी के साथ अगर हमने गत सदी के इतिहास के सातवें दशक को नहीं समझा तो मामला उलझ जाएगा। स्वभाव से धर्म निरपेक्ष असमिया समाज रोटी और बेटी से जुडऩे वाले हर हिंदुस्तानी को अपना लेता था। लेकिन छठे दशक के उत्तरार्ध में पूर्वी पाकिस्तान में ध्रुवीकरण बहुत तेज़ी से होने लगा था। बंगाली और असमिया लेखक यहाँ के बंग्ला और असमिया समाज में समन्वय कराना चाहते थे। लेकिन यहाँ एक ऐसा वर्ग भी उभरने लगा था जो भारत के दूसरे प्रांतों से आए गैर मुस्लिमों के खिलाफ असमिया समाज को उनसे अलग-थलग करना चाहता था। इसीलिए लोग समझने लगे थे कि किसी न किसी दिन बंगाली मुसलमानों से भी असम का हिंदू समाज दूरी बना लेगा जो दूरी वह बंग्लाभाषी हिंदुओं से बनाकर रखता आया है। इसीलिए असमिया मुसलमानों का एक वर्ग बंग्लाभाषी समानधर्मा ऐसे मुसलमानों के साथ अपने रिश्ते मज़बूत करने लगा जो भारत के कानूनी नागरिक थे। तीनों बड़े आदमियों के प्रस्ताव ने मकदूम साहब को ख़ुशी तो दी, लेकिन वह थोड़े चौकन्ने भी हुए। उन्होंने होनेवाले समधी की आँखों में सीधे देखते हुए पूछा, ''अहमद साहब, आपने मुझ ग़रीब को बहुत इज़्ज़त बख़्शी है, लेकिन मुझे लगता है कि मैं इसके काबिल नहीं हूँ। मैं आपको नकार नहीं रहा, किंतु मैं पूरी बात सुनना और समझना चाहता हूँ। साथ ही अपने बेटे से भी एक बार पूछना पड़ेगा। हम लोग घूस से पैदा की गई हराम की दौलत कभी नहीं कमा पाएँगे। इस हालत में क्या कोई अदना-सा इंजीनियर आपकी बेटी को ख़ुश रख पाएगा?’’

''ठीक है जनाब, मैं ख़ुद यूसुफ़ से बात करने जाऊँगा और इत्त्ला करूँगा।’’

मेरे दोस्त और सहकर्मी यूसुफ़ सिद्दीक़ी ने बहुत धैर्य से और निर्विकार होकर अपने विवाह की चर्चा की थी। उन्होंने यह भी बताया था कि शादी के पहले उन्होंने कार्पे डाइम रेस्तराँ में हज़ीरा बेगम और उनकी बड़ी बहिन के साथ काफ़ी पी थी और सब बातें खुलकर की थीं। उनकी होनेवाली शरीके हयात स्लीवलेस ब्लाउज़ में थीं और असमिया के अतिरिक्त बहुत अच्छी अंग्रेज़ी भी बोलती थीं।

''गौतम साहब, मैं भी आपकी तरह हुस्न परस्त हूँ, लेकिन कभी-कभी अपने इस स्वभाव से समझौता कर लेता हूँ। लेकिन, यह भी जानता हूँ कि किसी ग़रीब को हुस्नपरस्त होने का हक़ नहीं। मैंने सोचा अगर कोई उर्वशी या रंभा आ गई तो सबसे पहले मुझे घूस आने के लिए मजबूर करेगी। मैंने समझौता किया। लेकिन यह बात बहुत बाद में जान सका कि इस नामुराद दाग से हज़ीरा के मन में नीचात्मिका को जन्म दिया और धीरे-धीरे वह मनोवैज्ञानिक केस हो गई। अब यह भद्र महिला सोचती हैं कि पास की पड़ोसन बंगले के पीछे बने चहबच्चे में मैला फेंक जाती है, कि मेरे पास नोट छापने की मशीन है, कि आफ़िसर कॉलोनी की स्त्रियों ने उसके शौहर से इश्क़ लड़ाने की छान ली है। वह सीधे मास्टर बेड रूम में झाँकने लगती है।’’

तो आज हज़ीरा भाभी के घर जातीं और उनकी ख़ूब ख़ातिर तवज्जा होती। जब मैंने उन्हें (डरते-डरते) अंदर आने के लिए कहा वह बोलीं ''गौतम साहब, आप शायद यह बात जानते होंगे कि इस पूरी कालोनी में मैं आप और शर्मा जी के कुनबे को बहुत आदर की दृष्टि से देखती हूँ। आप लोगों के आला मुरब्बी (अफसर) भी थारो जेंटिल मैन हैं। लेकिन उनकी बीवी जो है, अल्लाह पाक मुझे झूठ बोलने की इज़ाज़त न दे, बहुत बड़ी फ़ाहशा है। वह साली मेरे शौहर को भेड़ा बनाना चाहती है। और अपनी दुख़्तर को भी उसी अज़ाब के रास्ते पर लाना चाहती है। आज मैंने क़सम ली है कि माँ बेटी दोनों को सबक सिखा कर छोड़ूँगी।...

अब तक सुषमा भी बाहर निकल आई थी और वह भाभी को आदाब करने के बाद अंदर आने के लिए कह रही थी। मैं बड़े धर्मसंकट में पड़ गया था। इस आफ़िसर्स कालोनी के लोग कई बार अपने आला अफसर से शिष्टमंडल लेकर यह माँग करने गए थे कि सिद्दीक़ी साहब की पत्नी ने कालोनी के लोगों का जीना मुहाल कर रखा है, लिहाज़ा या तो उनसे यह सरकारी बँगला खाली करवा लिया जाए या उनकी श्रीमती को उनकी ससुराल, मायके या पागलखाने भिजवा दिया जाए। लेकिन हज़ारिका साहब और उनका परिवार हद दर्ज़े का शरीफ़ था और यूसुफ़ साहब की इस ट्रेजडी से संवेदना रखता था। इस समस्या को वह हमेशा मानवीय दृष्टिकोण से देखते थे और हम सभी लोगों को समझा-बुझा कर वापस भेज देते थे।

मुझे आप मेहरबान यह कहने की इज़ाज़त दें कि मुझे न तो कमीनों से डर लगता है और न ही गुस्सैल लोगों से। लेकिन शक करने वालों और पागलों को देखकर मेरी रूह काँपने लगती है। यह शक्की इंसान जीने का पूरा अर्थ अनर्थ कर डालता है। जब ईश्वर दो पापियों को एक साथ दंड देना चाहता है तब एक को शक्की बना देता है और दूसरे को उसकी सोहबत में रख देता है। आज मुझे लगने लगा था कि शायद हमरा कुनबा भी पापियों की श्रेणी में रख दिया गया है और आज कुछ घटकर रहेगा। लेकिन हज़ीरा भाभी सुषमा को देखकर खिल उठीं।

''बहिन सुषमा, आज मैं अपने शौहर की महबूबा और उनके आला अफसर की वाइफ को सबक सिखा कर ही लौटूँगी। ये माँ बेटी मिलकर इस कुत्ते सिद्दीक़ी पे डोरे डालने लगी हैं।’’

बच्चे घर से बाहर थे और मैंने सुषमा को यह हिदायत दे रखी थी कि अगर भाभी को उस पर भी शक हो जाए तो सीधा उन्हें घर के एक-एक कोने की तलाशी ले लेने दिया जाए। जब वह कोई कमेंट करें उसका जवाब केवल चुप्पी होना चाहिए।

इसके बाद वह सीधे हमारे आला हाकिम के बंगले में दाख़िल हो गई और उनकी बीवी को गालियों से नवाज़ने लगीं। लोग बताते हैं कि जब भी तलाशी अभियान चलता, गृहस्वामिनियां उनको सीधे मास्टर बेडरूम में ले जातीं और उन्हें बिस्तर के नीचे झाँककर देखने की इजाज़त दे देतीं। अगर मनोविदलन (स्किज़ोफ्रेनिया) का दौरा हलका होता तो हज़ीरा बेगम क्वींस इंगलिश में माफ़ी माँगतीं और ''अल्लाह हाफ़िज़’’ कह कर वापस चली आतीं। लेकिन जब पागलपन ज़बर्दस्त होता तो वह बोलतीं, ''यह जो मेरा शौहर है साला शैतान की औलाद है। बच गया आज। लेकिन बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी? किसी न किसी दिन इस हरामज़ादे को रँगे हाथ पकड़ लूँगी।’’

जिस महिला का अपमान होता वह बिचारी खून का घूँट पीकर रह जाती। हर कोई यूसुफ़ साहब की शराफ़त का शैदाई था। अडीशनल डायरेक्टर हज़ारिका का दिल बादशाहों वाला था। उनके एक फोन पर सिद्दीक़ी साहब का तबादला हो जाता या उनकी बीवी को पागलखाने भेजा जा सकता था। लेकिन वह पूरे बड़पपन के साथ सिद्दीक़ी साहब की बीवी से पेश आते थे और उन्हें अपने माताहतों के हाथ अपमानित होने से बचा लेते थे।

मैं यह बताना भूल गया कि एक और असमिया अफसर थे जिन्होंने एक बार नौटंकी कर के सिद्दीक़ी के उत्पात से हमेशा के लिए निजात पा ली थी। जब एक दिन वह तलाशी अभियान पर उनके घर आ धमकीं सायकिया साहब ने अपने दाहिने हाथ में बॉस की एक मोटी लाठी उठाई और दहाड़ते हुए बाह निकले। वह उस समय आसाम में उस राष्ट्रीय भाषा यानी हिंदी का इस्तेमाल कर रहे थे जो हिंदुस्तानी सफाई कर्मचारी करते हैं, ''ओ बबुवा की अम्मा, मेरे बंदूख ला तो। खाली लाठी से सर भाँगने से यह साला मायकी (औरत) नहीं मानेगा। इसे हम आजी (आज) जान से सेस कर देगा स्साला। जल्दी ला हथियार।’’ और इसी ऐक्टिंग ने उन्हें और उनके परिवार को हेशा के लिए इस तलाशी अभियान के दारुण दु:ख से बचा लिया था।

लेकिन आज श्रीमती हज़ारिका रुद्राणी बन गईं। वे हाथ में एक फरसा लेकर निकलीं। उनके इस रुप ने पूरी कालोनी को आश्चर्य में डाल दिया। अपने शौहर के सारे माताहत लोगों के सुख-दु:ख को बाँटने वाली इस महिला के मुँह से अपशब्द तो न निकले लेकिन उन्होंने अपने फरसे को हवा में लहराया, ''आप अपने खानदान की नाक काट रही हैं। आपका बेचारा शौहर अपनी शराफत के लिए दुनिया जहान में मशहूर है। उस बेचारे सूफी पर जुलुम करने के लिए आप यह ऐक्टिंग कर रही हैं। आज इसी फरसे से आपकी गर्दन न काटी तो मैं अपने बाप की जाई नहीं। आउट, आउट, यू फ़िल्दी रेच।’’

इस घटना के दूसरे दिन मेरे दोस्त मुझे शहर में नये खुले पोश काफ़ी हाउस दिलरुबा में ले गये। जब दफ्तरों में लंचब्रेक होता दिलरुबा प्राय: खाली होता था। लेकिन हम लोगों ने पहले से ही सोच लिया था कि आज हम लोग केवल अंग्रेज़ी में ही बात करेंगे। काफ़ी आ गई तो पिछले दिन की वारदात की चर्चा तो होनी ही थी। मेरे दोस्त ने अपने स्थितिप्रज्ञ लहज़े में अपनी बात शुरू की, ''गौतम साहब, मुझे कुछ लोग सिनिक कहते हैं तो दूसरे मौकापरस्त और लालची। लेकिन, मैंने यह सोचा था कि ज़िंदगी आपको या मुझको बहुत ज्यादा चुनने की इज़ाज़त नहीं देती। मेरी बेगम का बायाँ बाजू एक सदमा तो पहुंचाता था, लेकिन मैंने सोचा यह ख़ुदा की मर्ज़ी है। इसीलिए न तो मैंने उसे हमेशा फुल अस्तीन ब्लाउज़ पहनने के लिए मजबूर किया और ना ही प्लास्टिक सर्जरी करवाई। इसमें कोई शक नहीं कि ससुराल वाले रईसी का तमगा गले में लटकाए फिरते हैं लेकिन दिल से वे लोग हातिम ताई भी नहीं। आपकी भाबी अपने मायके पर बड़ा गुमान करती हैं, लेकिन मैं यह समझ चुका हूँ कि व्यापारी हमेशा मुनाफे की बात सोचेगा। मेरी शिकायत यह है कि यह औरत मेरे अब्बा हुज़ूर को हमेशा हलवाहा कहती है। खुद क़सम, तन-बदन में आग लगी रहती है। इस पर भी मैं कुछ कर नहीं सकता।’’

मैं अपने जिगरी दोस्त को कुछ बताने में बहुत संकोच करता था। संतान के नाम पर केवल एक बच्ची से संतुष्ट कहने वाले अपने मुस्लिम दोस्त के बड़प्पन से मैं अभिभूत रहता था। जब कभी मैं यह बात कहता कि मेरे दोस्त को एक बेटा भी चाहिए तब उनकी मुस्कान कुछ और चौड़ी हो जाती। ''किस लिए गौतम साहिब? सम्राट पांडु के केवल पाँच बेटे थे और पाँचों पंचरत्न थे। लेकिन अंधे धृतराष्ट्र के पूरे एक सौ बेटों में केवल एक शरीफ निकला था। अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं? वह बोले। जब मैंने समर्थन में सर हिलाया वह बोले, ''आपको गधा कहना तो शायद बे अदबी होगी लेकिन आप कम से कम एक हद दर्ज़े के गावदी तो ज़रूर ठहरे। अरे, हिंदुस्तान की आबादी बढ़ानेवाले कभी बख़्शे नहीं जाएंगे!! क्या हम भिखारियों की फौज तैयार करेंगे? अगर आबादी ऐसे ही बढ़ती गई तो न जम्हूरियत बचेगी और न ही यह मुल्क। उस दिन सुना नहीं बंग्लादेश के प्रेसीडेंट ने फैमिली प्लैनिंग की अपील की? मुझे तो डर लगता है किकहीं ये सियासती गुंडे शेख मुज़ीब की तरह उनका भी न कत्ल कर दें। वेटर, एक कप काफ़ी और एक कप ऐसी चाय जिसमें लीकर कड़क हो और दूध चीनी कम।

जब तक काफी और चाय आती हम लोग अच्छी तरह अपने मन का गुबार निकाल देने को आतुर थे। मैंने अपने दोस्त का दु:ख इन्हीं आँखों से देखा था और वह दु:ख हृदयविदारक था। कभी-कभी उनका चेहरा भूख से कुम्हलाया दिखता, कभी तलाशी की मुहिम पर वह अपना सर धुन रहे होते। कभी-कभी हज़ीरा भाभी एक दो दिन के लिए घर छोड़कर कहीं चली जातीं और फिर जब दिल दिमाग दुरुस्त होता वह वापस आ जातीं और अपने शौहर से पूछतीं, ''सिद्दीक़ी, तू झूठ मत बोल, अल्लाह पाक की क़सम खा कर मुझे बता कि मेरी गैरहाज़री में तूने किसी से सोहबत तो नहीं की?’’ हर रोज कोई नई युवती या अविवाहित लड़की मिसेज़ सिद्दीक़ी के शक का शिकार होती और उन्हें नीचा देखना पड़ता। तीसरी जमात में पढऩेवाली उनकी इकलौती संतान राना कमाल न तो अपने अब्बू से सटकर खड़ी हो सकती थी और न ही वह बेचारे अपनी बेटी को कोई सौगात दे सकते थे। उन्हें इस पवित्र रिश्ते में भी कुछ काला नज़र आता था। अपनी संतान के लिए हर बाप दुनिया के लात, जूते और घूँसे सहता है और वह भी सह रहे थे। लेकिन यह बात सुनकर मैं अंदर से हिल गया था कि उनकी बीवी उनके अब्बू को हलवाहा कहे। मुझे यह अच्छी तरह मालूम था कि सिद्दीक़ी साहब ने अपनी पत्नी को ऊँचे दर्ज़े की चिकित्सा दिलवाई थी। लेकिन सब लोगों ने यह महसूस किया था कि मर्ज़ अब लाइलाज हो चुका है और अगर उनकी बच्ची ये सारे तमाशे देखती रही तो शायद वह भी धीरे-धीरे मनोवैज्ञानिक केस हो जाएगी। मेरा दोस्त शत-प्रतिशत सुस्पष्ट गाज़ीमर्द था और इस पूरे हिंदुस्तान में यदि कोई स्थितिप्रज्ञ है तो वह मोहतरम आरिफ़ सिद्दीक़ी ही हैं। जब कोई उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करता वह अपमानित महसूस करते। लेकिन आज जो बात मेरे दिल में कई सालों से उमड़-घुमड़ रही थी वह बाहर निकल ही आई।

''देखिए सिद्दीक़ी साहब, मैं माफी चाहूँगा अगर मैंने आपका दिल दुखाया है। मैं आपका या और किसी का घर तोडऩे का पाप कभी नहीं कर सकता। आपने भाभी साहिबा के लिए क्या-क्या न किया, लेकिन नतीजा आज तक सामने है। राना कमाल को किसी रेज़ीडेंशल स्कूल में दाखिला करवा दीजिए और इस आफत से निज़ात पा लीजिए। मेहर की रकम का इंतज़ाम हो जाएगा। आप लोगों के यहाँ तो तीन बर तलाक़, तलाक़, तलाक़ कहने से सारा खेल ही ख़त्म हो जाता है। त्याग, तपस्या, बलिदान - सबकुछ सर आँखों पर बट दियर इज़ अ लिमिट टो ऐव्री थिंक। हमें कोई हज़ार गाली दे, लेकिन माँ-बाप पर कोई क्यों उँगली उठाएगा? हद हो गई दरिंदगी और गुस्ता$खी की!!!’’ मेरा आवाज़ लगभग काँप रही थी।

मेरे दोस्त ने मुझे किंचित गर्व से देखा। वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, ''मैं आपकी राय का सम्मान करता हूँ। लेकिन जब बात तलाक़ की आती है मुझे लगता है अल्लाह ताला मुझे यह काम नहीं करने देगा। न मैं कोई दरवेश हूँ और ना ही सूफ़ी, लेकिन दुआ यही करता हूँ कि ईश्वर मुझे धैर्य दे! धीरे-धीरे यह खेल यानी जीवन ख़त्म हो जाएगा।’’

जब हम उठे हमने महसूसा कि हमने आज अपने दफ़्तर का वक्त जाया किया है। थोड़ी देर बाद हम अपने-अपने घरों को वापस लौट आए। उस रात एक समाचार था कि बँग्लादेश के राष्ट्रपति की हत्या कर दी गई है। मेरे दोस्त की भविष्यवाणी सच निकली। लेकिन यह बात बार-बार मेरे दिल और दिमाग में चुभती रही कि हमारे बीच एक भी इंसान है जो पल-पल घुट कर मर रहा है लेकिन उसने अपना कवच ढीला नहीं किया है। बहुत दिनों बाद मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मेरा दोस्त जीवन संग्राम में विजयी हो। जब हम लोग दिलरुबा से बाहर निकले थे मेरी आँखों में आँसू थे जिन्हें मैं सँभालने की कोशिश कर रहा था। लेकिन घर पहुँचने पर मैं उन्हें कैसे रोक सकता।

 

 

 

उदयभानु पाण्डेय अपनी जीविका और रचनात्मक प्रेरणाओं के लिए उत्तरपूर्व गये और बस गये। वहाँ की जटिल पृष्ठभूमि को स्वीकार किया और दो भाषाओं में प्रचुर लेखन किया। उनकी कुछ यादगार कहानियाँ और एक साक्षात्कार 'पहल’ में छपा है। 'पहल’ ने हिन्दी पट्टियों के बाहर हिन्दी के रचनात्मक लेखन की खोज की और उसे सराहना दी है। साहित्य अकादमी ने उन्हें मान्यता दी। भारतीय ज्ञानपीठ, वाणी प्रकाशन, रायटर्स वर्कशॉप से आपकी पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनका विशेष काम है असमी और कार्बी लोक कथाओं का अनुवाद। 1988 में प्रसिद्ध लेखक संपादक और स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह ने उदयभानु पाण्डेय की भूमिका की सराहना की।

संपर्क- मो. 9435722902, डिफू (असम)

 


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