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अप्रैल 2021

आलोक वर्मा की कविताएं

आलोक वर्मा

कविता

 

 

लिखो

 

लिखो एक शब्द पहली बार

इसलिए नहीं कि

उसे ही सामने लाना है

बल्कि उसे मिटाना है

फिर दुबारा, तिबारा भी लिखना है

और उसे भी मिटाना है

यूँ उसे तब तक मिटाना है

जब वह मिटाया ही नहीं जा सके

तब सामने आएगा

वह कौंधता सच

अंतत: जिसे पाना है...।

 

चले-चलो

 

चले-चलो... चले-चलो

पच्चीस मील चलो

सौ मील चलो

दो सौ मील चलो

पांच सौ मील चलो

अंतहीन चलो

चले-चलो... चले-चलो...

 

थक जाओ तो चलो

तपती सड़कों पर भरी दुपहरी नँगे पाँव

दुखते छालों के साथ चलो

नींद में उनींदे चलो

सिर चकराए तो चलो

गिर जाओ तो उठकर चलो

खांसी-बुखार में चलो

चले-चलो... चले-चलो...

 

भारी बोझे उठाकर चलो

रोते बच्चों के साथ चलो

गुजर जाए कोई अपना बीच राह

तो छोड़कर रोते चलो

चले-चलो.... चले-चलो...

 

चले-चलो कि अभी प्रधानजी ने चलवाया है

चले-चलो कि इन नगरों में नहीं है

तुम्हारे लिए कोई जगह

चले-चला कि ये जमीं तुम्हारी नही है

ये आसमा भी तुम्हारा नहीं है

नहीं हैं यहाँ तुम्हारे सपने, न कोई अपने

यहां तो सब खोकर उदास हो चलो

जी जरा सम्भाल कर चलो

चले-चलो..., चले-चलो...

 

चले-चलो कि

अब भी हैं तुम्हारे दोनों पाँव

दोनों हाथ भी तुम्हारे हैं

खोदने हैं इन्हीं हाथों से कुऐं

और पाना है मीठा पानी

उगानी हैं हरी सब्जियां और अनाज

फिर उठाकर इन्हीं हाथों को माँगने हैं

इसी दुनिया में अब तक न मिले

अपने सवालों के जवाब

 

अभी फिलहाल

चले-चलो..., चले-चलो...

कि मंजिल अभी बहुत दूर है

मेरे अपनों... मेरे लोगों

चले-चलो

कि बस अभी

चले-चलो..., चले-चलो...

 

पेशवा

 

पेशवा पहले भी हुए

पेशवा आज भी हैं

जख्म पहले भी मिले थे

जख्म आज भी मिले हैं

पहले मुँह बन्द थे

सिर झुके थे

हाथ बंधे थे

आज मुँह खुले हैं

सिर उठे

और तनी हुई मुट्ठियाँ हैं

भागो पेशवा...!

भागो...!

बच सको तो बच लो

लेकिन अब नहीं बचोगे

ज्यादा दिन

समय पूरा हो रहा है...!

                     (भीमा कोरेगांव प्रसंग- 2018)

 

गोडसे की जगह

 

बहुत खतरनाक है

यह जानना कि

एक गोड़से घूम रहा है

देश की हर गली में...

लेकिन उससे भी ज्यादा खतरनाक है

खुद गोडसे के लिए यह जानना कि

पानसरे, कलबुर्गी, दाभोलकर और गौरी लंकेश के भूत

कर रहे हैं लगातार उसका पीछा कि

जिनके विचारों ने उड़ा दी है

उसकी रातों की नींद....

यूँ बाहर से डरावना दिखता गोडसे

दरअसल खुद डरा हुआ है अपने भीतर कि

सुलगते विचार आखिर क्यों नहीं मरते

जिनसे सम्वाद का साहस

तो कभी नहीं रहा उसमें...

अब भागते हुए कभी इधर तो कभी उधर

सोच रहा है बदहवास गोडसे कि

वह आखिर कब तक और कितनो को छिपकर मारे

कि नहीं है इसका कहीं कोई अंत

और एक दिन आखिर कहाँ और कैसे बचेगी कोई जगह

उसके लिए पूरे देश में...?

 

तानाशाह डर रहा है

 

जब चाहता हो तानाशाह

कि गूंजे जंगल में उसकी अकेली दहाड़

और कोई चिडिय़ा भी न चहचहाए

लेकिन चिडिय़ा के चहचहाने से भी

यदि डर रहा हो कोई तानाशाह

तो वो क्या करे...?

 

जब परेशान हो कोई तानाशाह

कि विचार तो कभी दुनिया की किसी जेल में

नहीं हो सकते बन्द

न ही हो सकते हैं नजरबन्द

तब विचारों से ही डर रहा हो कोई तानाशाह

तो वो क्या करे...?

 

अब खत्म हो जाएगा मनमाना जंगलराज

सोचकर घबरा रहा हो कोई तानाशाह

जब खुल रहे हों सारे झूठ

और कुछ सूझ न रहा हो उसे

जब खत्म हो रहा हो किसी तानाशाह का आतंक

और हँसते लोगों से भी डर रहा हो कोई तानाशाह

तो वो क्या करे...?

 

 

चिकित्सक के पेशे से निवृत्तमान आलोक रायपुर प्रलेस के एक सक्रिय सदस्य हैं।

सम्पर्क- 71 विवेकानंद नगर, रायपुर (छग) 492001, मो. 8770144539, 9826674614

 


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